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78 : प्राकृत व्याकरण
ईश्वरः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप ईसरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व्' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ईसरो रूप सिद्ध हो जाता है।
उत्सवः संस्कृत शब्द है। इसका प्राक्त रूप ऊसवो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११४ से 'उ' का 'ऊ' और २-७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ऊसवो' रूप सिद्ध होता है ।।१-८४।।
इत एद्वा ॥ १-८५॥ संयोग इति वर्तते। आदेरिकारस्य संयोगे परे एकारो वा भवति।। पेण्ड पिण्डंधम्मेल्लं धम्मिल्लं। सेन्दूरं सिन्दूरं। वेण्हू विण्हू। पेटुं पिटुं। बेल्लं बिल्ल।। क्वचिन्न भवति। चिन्ता।। ___अर्थ :- 'संयोग' शब्द ऊपर के १-८४ सूत्र से ग्रहण कर लिया जाना चाहिये। संयोग का तात्पर्य 'संयुक्त अक्षर' से है। शब्द में रही हई आदि हस्व'ई' के आगे यदि संयक्त अक्षर आ जाय: तो उस आदि 'इ' का 'ए' विकल्प से हआ करता है। जैसे-पिण्डम्-पेण्डं और पिण्ड। धम्मिल्लम्-धम्मेल्लं और धम्मिल्ल। सिन्दूरम् सेन्दूरं और सिन्दूरं।। विष्णुः वेण्हू और विण्हू।। पिष्टम्=पेटुं और पिटुं।। बिल्वम् बेल्लं और बिल्लं।। कहीं कहीं पर हस्व 'इ' के आगे संयुक्त अक्षर होने पर भी उस हस्व 'इ' का 'ए' नहीं होता है। जैसे-चिन्ता चिन्ता।। यहाँ पर 'इ' का 'ए' नहीं हुआ है।
पिण्डम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पेण्डं और पिण्डं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पेण्डं और पिण्डं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
धम्मिल्लम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप धम्मेल्लं और धम्मिल्लं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से धम्मेल्लं और धम्मिल्लं रूप सिद्ध हो जाते हैं। __सिन्दूरम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप सेन्दूरं और सिन्दूरं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से सेन्दूरं और सिन्दूरं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
विष्णुः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप वेण्हू और विण्हू होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-८५ से 'ज्ञ' का विकल्प से 'ए'; २-७५ से 'ष्ण' का ‘ण्ह'; और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर का दीर्घ स्वर याने हस्व 'उ' का दीर्घ 'ऊ' होकर क्रम से वेण्हू और विण्हू रूप सिद्ध हो जाते है।
पिष्टम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पेटुं और पिटुं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व'ट्ठ'; २-९० से प्राप्त पूर्व'ठ्' का 'ट्', ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पेटुं और पिटुं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
बिल्वम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप बेल्लं और बिल्लं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए'; १-१७७ से 'व' का लोप; २-८९ से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से बेल्लं और बिल्लं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
चिन्ता संस्कृत शब्द है और इसका प्राकृत रूप भी चिन्ता ही होता है ।।१-८५।।
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