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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 153 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बहिरो रूप सिद्ध हो जाता है।
बाधते संस्कृत सकर्मक क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप बाहर होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति ४- २४९ से 'धू' हलन्त व्यञजन के स्थानापन्न व्यञ्जन 'ह' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बाहइ रूप सिद्ध हो जाता है।
इन्द्र धनुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप इन्दहणू होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'र्' का लोप; १ - १८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति होकर इन्दहणु रूप सिद्ध हो जाता है।
सभा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सहा होता है। इसमें सूत्र - संख्या १- १८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और संस्कृत-व्याकरण के विधानानुसार आकारान्त स्त्रीलिंग वाचक शब्द में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' स्वर की इत्संज्ञा तथा १ - ११ से शेष 'स' का लोप होने से प्रथमा विभक्ति के एकवचन के रूप से सहा रूप सिद्ध हो जाता है।
स्वभावः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सहावो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से 'व्' का लोप; १ - १८७ से 'भ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सहावा रूप सिद्ध हो जाता है।
नहं रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १- ३२ में की गई है।
स्तन भरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप थणहरो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; १-२२८ से ‘न' का 'ण'; १-१८७ से 'भ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर थणहरो रूप सिद्ध हो जाता है।
शोभते संस्कृत अकर्मक क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप सोहइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या ४- २३९ से 'शोभू' धातु में स्थित हलन्त 'भ्' में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति; १ - २६० से 'श' का 'स'; १- १८७ से 'भ' का 'ह'; और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सोहइ रूप सिद्ध हो जाता है।
संखो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १- ३० में की गई है।
सङ्घः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संघो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १- २५ से 'ङ्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संघो रूप सिद्ध हो जाता है।
कन्था संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कंथा होता है। इसमें सूत्र- संख्या १ - २५ से 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और संस्कृत व्याकरण के विधानानुसार प्रथमा विभक्ति के एकवचन में स्त्रीलिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा तथा १ - ११ से शेष अन्त्य 'स्' का लोप होकर कंथा रूप सिद्ध हो जाता है।
बन्धः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बंधो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-२५ से 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में प्राप्त 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बंधो रूप सिद्ध हो जाता है।
स्तम्भः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप खंभो होता है। इसमें सूत्र - संख्या २-८ से 'स्त' के स्थान 'ख' की प्राप्ति
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