Book Title: Anand Pravachan Part 11
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क 100 ०००० OOOO ..७०००० 000.. ०००००००० 900 ० .000000 . 20००००० oood 0003 ROOO ०००० -Ccccc.. ००००० 2555..' 002003035555 29999 आचार्य श्री आनन्द ऋषि न्टन्कार Do609 Foerson Private se Only * www.jalinelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SE ..50 NaDEthi.२०EALTH:08 आनन्द प्रवचन [ भाग ११ ] . .. For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द प्रवचन [ ग्यारहवां भाग ] [ गौतम कुलक पर २१ प्रवचन ] * प्रवचनकार राष्ट्रसंत आचार्यश्री आनन्द ऋषि सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' प्रकाशक श्री रत्न जैन पुस्तकालय अहमदनगर For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आनन्द प्रवचन : ग्यारहवाँ भाग 0 प्रकाशक श्री रत्न जैन पुस्तकालय बुरुड़गांव रोड पो० अहमदनगर (महाराष्ट्र) ● प्रथमबार : फरवरी १९८१ वि० सं० २०३७ माघ वीर निर्वाण सं० २५०८ 0 पृष्ठ ३७२ 0 प्रथम संस्करण २२०० प्रतियाँ - मुद्रक श्रीचन्द सुराना के लिए विजय आर्ट प्रिंटर्स, आगरा मूल्य-बीस रुपये मात्र For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय परम श्रद्धेय आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी महाराज श्वे० स्था० जैन श्रमण संघ के द्वितीय आचार्य है, यह हम सबके गौरव की बात है, हाँ, यह और भी अधिक उत्कर्ष का विषय है कि वे भारतीय विद्या (अध्यात्म) के गहन अभ्यासी तथा मर्मस्पर्शी विद्वान हैं। वे न्याय, दर्शन, तत्त्वज्ञान, व्याकरण तथा प्राकृत, संस्कृत अपभ्रंश आदि अनेक भाषाओं के ज्ञाता हैं और साथ ही समन्वयशीलप्रज्ञा और व्युत्पन्नप्रतिभा के धनी हैं, उनकी वाणी में अद्भुत ओज और माधुर्य है। शास्त्रों के गहनतम अध्ययनअनुशीलन से जनित अनुभूति जब उनकी वाणी से अभिव्यक्ति पाती है तो श्रोता सुनतेसुनते भाव-विभोर हो उठते हैं। उनके वचन, जीवन निर्माण के मूल्यवान सूत्र हैं। आचार्यप्रवर के प्रवचनों के संकलन की बलवती प्रेरणा विद्यारसिक श्री कुन्दन ऋषिजी महाराज ने हमें प्रदान की। बहुत वर्ष पूर्व जब आचार्यश्री का उत्तर भारत, देहली, पंजाब आदि प्रदेशों में विचरण हुआ, तब वहाँ की जनता ने भी आचार्य श्री के प्रवचन साहित्य की मांग की थी। जन-भावना को विशेष ध्यान में रखकर श्री कुन्दन ऋषिजी महाराज के मार्ग दर्शन में हमने आचार्यप्रवर के प्रवचनों के संकलन सम्पादन, प्रकाशन की योजना बनायी और कार्य भी प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे अब तक 'आनन्द प्रवचन' नाम से दस भाग प्रकाश में आ चुके हैं । यद्यपि आचार्यप्रवर के सभी प्रवचन महत्त्वपूर्ण तथा प्रेरणाप्रद होते हैं फिरभी सबका संकलन-संपादन नहीं किया जा सका। कुछ तो सम्पादकों की सुविधा व कुछ स्थानीय व्यवस्था के कारण आचार्यप्रवर के लगभग ३००-४०० प्रवचनों का संकलन-संपादन ही अब तक हो सका है। जिनका दस भागों में प्रकाशन किया जा चुका है। प्रथम सात भागों का संपादन प्रसिद्ध विदुषी धर्मशीला बहन कमला जैन 'जीजी' ने किया है । पाठकों ने सर्वत्र ही इन प्रवचनों को बहुत रुचि व भावनापूर्वक पढ़ा और अगले भागों की मांग की। For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) ५० से ८० तक आठवें भाग में प्रसिद्ध ग्रन्थ ' गौतमकुलक' पर दिए गए २० प्रवचन हैं । तथा नवें भाग में प्रवचन संख्या २१ से ४० तक के २० प्रवचन हैं । दसवें भाग में ४१ से ४६ तक कुल १६ प्रवचन हैं । ग्यारहवें भाग में २१ प्रवचन हैं । ' गौतमकुलक' जैन साहित्य का बहुत ही विचार - चिन्तनपूर्ण सामग्री से भरा सुन्दर ग्रन्थ है। इसका प्रत्येक चरण एक जीवनसूत्र है, अनुभूति और संभूति का भंडार है । ग्रन्थ परिमाण में बहुत ही छोटा है, सिर्फ बीस गाथाओं का, किन्तु प्रत्येक गाथा के प्रत्येक चरण में गहनतम विचार - सामग्री भरी हुई है । अगर एक-एक चरण पर चिन्तन-मनन किया जाये तो भी विशालविचार साहित्य तैयार हो सकता है । श्रद्धेय आचार्य सम्राट ने अपने गहनतम अध्ययन-अनुभव के आधार पर इस ग्रन्थ के एक-एक सूत्र पर विविध दृष्टियों से चिन्तन-मनन- प्रत्यालोचन कर जीवन का नवनीत प्रस्तुत किया हैं । इन प्रवचनों में जहाँ चिन्तन की गहराई है, वहाँ जीवन जीने की सच्ची कला भी है। गौतम कुलक के इन प्रवचनों को हम लगभग पाँच भाग में क्रमशः प्रकाशित करेंगे । प्रथम खण्ड पाठकों की सेवा में दो वर्ष पूर्व पहुँचा था । गौतम कुलक पर प्रवचनों का द्वितीय खण्ड, तृतीय खण्ड और चतुर्थ खण्ड भी छप चुका है आशा है, पाठक अगले खण्ड ५ की भी धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करेंगे । इन प्रवचनों का सम्पादन यशस्वी साहित्यकार विद्वान लेखक मुनिश्री नेमीचन्द जी महाराज का भी समय-समय पर मिलता रहा है । हम उनके पुस्तक पाठकों को पसन्द आएगी । श्रीचन्द जी सुराना ने किया है । मार्गदर्शन एवं उपयोगी सहकार आभारी हैं। आशा है यह प्रवचन मन्त्री श्री रत्न जैन पुस्तकालय For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन जैन साहित्य भारतीय साहित्य की एक अनमोल निधि है । जैन मनीषियों का चिन्तन व्यापक और उदार रहा है । उन्होंने भाषावाद, प्रान्तवाद, जातिवाद, पंथवाद की संकीर्णता से ऊपर उठकर जन-जीवन के उत्कर्ष के लिए विविध भाषाओं में विविध विषयों पर साहित्य का सरस सृजन किया है । अध्यात्म, योग, तत्वनिरूपण, दर्शन न्याय, काव्य, नाटक, इतिहास, पुराण, नीति, अर्थशास्त्र, व्याकरण कोश, छन्द, अलंकार, भूगोल- खगोल, गणित- ज्योतिष, आयुर्वेद, मन्त्र, तन्त्र, संगीत रत्न- परीक्षा, प्रभृति विषयों पर साधिकार लिखा है और खूब जमकर लिखा है । यदि भारतीय साहित्य में से जैन साहित्य को पृथक कर दिया जाय तो भारतीय साहित्य प्राणरहित शरीर के सदृश परिज्ञात होगा । जैन साहित्य मनीषियों ने विविध शैलियों में अनेक माध्यमों से अपने चिन्तन को अभिव्यक्ति दी है । उनमें एक शैली कुलक भी है । 'कुलक' साहित्य के नाम से भी जैन चिन्तकों ने बहुत कुछ लिखा है । दान, शील, तप, भाव, ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि अनेक जीवनोपयोगी विषयों पर पृथक-पृथक कुलकों का निर्माण किया है । मैंने अहमदाबाद बम्बई, पूना जालोर, खम्भात आदि में अवस्थित प्राचीन साहित्य भण्डारों में विविध विषयों पर 'कुलक' लिखे हुए देखे हैं पर इस समय विहार यात्रा में होने के कारण साधनाभाव से उन सभी कुलकों का ऐतिहासिक पर्यवेक्षण प्रस्तुत नहीं कर पा रहा हूँ । मैं जब बहुत ही छोटा था तब मुझे परम श्रद्धय सद्गुरुवर्य ने 'गौतम कुलक याद कराया था । मैंने उसी समय यह अनुभव किया कि इस ग्रन्थ में लेखक ने बहुत ही संक्ष ेप में विराट भावों को कम शब्दों में लिखकर न केवल अपनी प्रकृष्ट चिन्तन शील प्रतिभा का परिचय दिया है, बल्कि कुशल अभिव्यंजना का चमत्कार भी प्रदर्शित किया है । गौतम कुलक वस्तुत: बहुत ही अद्भुत व अनूठा ग्रन्थ है । यह वामन की तरह आकार में लघु होने पर भी भावों की विराटता को लिए हुई है। एक-एक लघु सूक्ति और युक्ति को स्पष्ट करने के लिए सैकड़ों पृष्ठ सहज रूप से लिखे जा सकते हैं । ' गौतम कुलक' के कुछ चिन्तन वाक्य तो बहुत ही मार्मिक और अनुभव से परिपूर्ण है । एक प्रकार से प्रत्येक पद स्वतन्त्र सूक्ति है, स्वतन्त्र जीवनसूत्र है और है विजय मन्त्र | For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) परम आल्हाद है कि महामहिम आचार्य सम्राट राष्ट्रसन्त आनन्द ऋषिजी महाराज ने प्रस्तुत ग्रन्थ रत्न पर मननीय प्रवचन प्रदान कर जन-जन का ध्यान इस ग्रन्थ रत्न की ओर केन्द्रित किया है । आचार्य प्रवर ने अपने 'जीवन की परख' नामक प्रथम प्रवचन में 'गौतम कुलक' ग्रन्थ के सम्बन्ध में बहुत ही विस्तार से विवेचन किया है । जो उनकी बहुश्रुतता का स्पष्ट प्रमाण है । 1 परम श्रद्ध ेय आचार्य सम्राट को कौन नहीं जानता । साक्षर और निरक्षर, बुद्धिमान और बुद्ध, बालक और वृद्ध, युवक और युवतियाँ सभी उनके नाम से परिचित हैं । वे उनके अत्युज्ज्वल व्यक्तित्व और कृत्तित्व की प्रशंसा करते हुए अघाते नहीं हैं । श्रमण संघ के ही नहीं, अपितु स्थानकवासी जैन समाज के वरिष्ठ आचार्य हैं, उनके कुशल नेतृत्व में एक हजार से भी अधिक श्रमण और श्रमणियाँ ज्ञान-दर्शन चारित्र की आराधना कर रहे हैं । लाखों श्रावक और श्राविकाएँ श्रावकाचार की साधना कर अपने जीवन को चमका रहे हैं । वे श्रमणसंघ के द्वितीय पट्टधर हैं । उनका नाम ही आनन्द नहीं अपितु उनका सुमधुर व्यवहार भी आनन्द की साक्षात प्रतिमा है । उनका स्वयं का जीवन तो आनन्द स्वरूप है ही । आप जब कभी भी उनके पास जायेंगे तब उनके दार्शनिक चेहरे पर मधुर मुस्कान अठखेलियाँ करती हुई देखेंगे । वृद्धावस्था के कारण भले ही शरीर कुछ शिथिल हो गया हो किन्तु आत्मतेज पहले से भी अधिक दीप्तिमान है । उनके निकट सम्पर्क में जो भी आता है वह आधि, व्याधि, उपाधि को भूलकर समाधि की सहज अनुभूति करने लगता है, यही कारण है कि उनके परिसर में रात-दिन दर्शनार्थियों का सतत जमघट बना रहता है । दर्शक अपने आपको उनके श्री चरणों में पाकर धन्य - प्रसन्न अनुभव करने लगता है । भारतीय साहित्य के किसी महान चिन्तक ने कहा है कि भगवान यदि कोई है तो आनन्द है । 'आनन्दो ब्रह्म इति व्यजानात् ( उपनिषद) मैंने जान लिया है, आनन्द ही ब्रह्म है | आनन्द से ही परमात्म तत्व के दर्शन होते हैं । जब आत्मा परभाव से हटकर आत्म-स्वरूप में रमण करता है तो उसे अपार आनन्द प्राप्त होता है । सच्चा आनन्द कहीं बाहर नहीं, हमारे अन्दर ही विद्यमान है । आचार्य सम्राट अपने प्रवचनों में, वार्तालाप में उसी आनन्द को प्राप्त करने की कुंजी बताते हैं । भूलेभटके जीवनराहियों का सच्चा पथ-प्रदर्शन करते हैं आचार्य सम्राट के प्रवचनों को सुनने का मुझे । अनेक वार अवसर प्राप्त हुआ 1 मानस पर कोई प्रभाव नहीं है और उनके प्रवचन साहित्य को पढ़ने का सौभाग्य भी मुझे मिला है जिसके आधार से में यह साधिकार कह सकता हूँ कि आचार्य सम्राट एक सफल प्रवक्ता हैं । यों तो प्रत्येक मानव बोलता है, पर उसकी वाणी का दूसरों के पड़ता, पर आचार्य सम्राट जब भी बोलना प्रारम्भ करते हैं तो श्रोतागण मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं । श्रोताओं का मन-मस्तिष्क उनकी सुमधुर भावधारा में प्रवाहित होने लगता है । आचार्यप्रवर की वाणी में शान्त रस, करुण रस, हास्य रस, वीर रस की सहज अभिव्यक्ति होती है । उसके लिए आपश्री को प्रयास करने की आवश्य For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कता नहीं होती। यही कारण है कि लोग आपश्री को वाणी का जादूगर मानते हैं। आपश्री की वाणी में मक्खन की तरह मृदुता है, शहद की तरह मधुरता है, और मेघ की तरह गम्भीरता है । भावों की गंगा को धारण करने में भाषा का यह भागीरथ पूर्ण समर्थ है । आपश्री की वाणी में ओज हैं, तेज है, सामर्थ्य है। आपश्री के प्रवचनों में जहाँ एक और महान आचार्य कुन्द-कुन्द, समन्तभद्र की तरह गहन आध्यात्मिक विवेचना है । आत्मा परमात्मा की विशद चर्चा है तो दूसरी ओर आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और अकलंक की तहर दार्शनिक रहस्यों का तर्कपूर्ण सही-सही समाधान भी है । स्याद्वाद, अनेकान्तवाद, नय, निक्षेप, सप्तभंगी का गहन किन्तु सुबोध विश्लेषण है । एक ओर आचार्य हरिभद्र, हेमचन्द्र की तरह सर्व विचार समन्वय का उदात्त दृष्टिकोण प्राप्त होता है तो दूसरी ओर आनन्दघन, व कबीर की तरह फक्कड़पन और सहज निश्छलता दिखाई देती है। एक ओर आचार्य मानतुग की तरह भक्ति की गंगा प्रवाहित हो रही है दूसरी ओर ज्ञानवाद की यमुना बह रही है । एक ओर आचार क्रान्ति का सूर्य चमक रहा है तो दूसरी ओर स्नेह की चारुचन्द्रिका छिटक रही है । एक ओर आध्यात्मिक चिन्तन की प्रखरता है तो दूसरी ओर सामाजिक समस्याओं का ज्वलन्त समाधान है । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि आचार्यप्रवर के प्रवचनों में दार्शनिकता, आध्यात्मिकता और साहित्यिकता सब कुछ है। ___ मेरे सामने आचार्यप्रवर के प्रवचनों का यह बहुत ही सुन्दर संग्रह है। 'गौतम कुलक' पर उनके द्वारा दिये गए मननीय प्रवचन हैं । प्रवचन क्या हैं ? चिन्तन और अनुभूति का सरस कोष है । विषय को स्पष्ट करने के लिए आगम, उपनिषद, गीता महाभारत, कुरान, पुराण तथा आधुनिक कवियों के अनेक उद्धरण दिये गए हैं। वहां पर पाश्चात्य चिन्तक फिलिप्स, जानसन, बेकन, कूले, साउथ, टालस्टाय, ईसामसीह, चेनिंग, बॉबी, पिटरसन, सेनेका, विलियम राल्फ, इन्गे, हॉम सेण्टमेथ्यु जार्ज इलियट, शेली, पोप, सिसिल, कॉस्टन, शेक्सपियर, प्रभृति शताधिक व्यक्तियों के चिन्तनसूत्र भी उद्धृत किये गये हैं। जिससे यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि आचार्य सम्राट का अध्ययन कितना गम्भीर व व्यापक है । पौराणिक, ऐतिहासिक रूपकों के अतिरिक्त अद्यतन व्यक्तियों के बोलते जीवन-चित्र भी इसमें दिए हैं जो उनके गम्भीर व गहन विषय को स्फटिक की तरह स्पष्ट करते हैं । यह सत्य है कि जिसकी जितनी गहरी अनुभूति होगी उतनी ही सशक्त अभिव्यक्ति होगी। आचार्यप्रवर की अनुभूति गहरी है तो अभिव्यक्ति भी स्पष्ट है। ___मैंने आचार्यप्रवर के प्रवचनों को पढ़ा है। मुझे ऐसा अनुभव हुआ है कि प्रवचनों का सम्पादन भाव, भाषा और शैली सभी दृष्टियों से उत्कृष्ट हुआ है। सम्पादन कला-मर्मज्ञ कलम-कलाधर श्रीचन्द जी सुराना 'सरस' ने अपनी सम्पादन कला का उत्कृष्ट रूप उपस्थित किया है । गौतम कुलक का स्वाध्याय करने वाले जब इन प्रवचनों को पढ़ेंगे तो उनके समक्ष इसके अनेक नये-नये गम्भीर अर्थ स्पष्ट होंगे। इन For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) प्रवचनों में सिर्फ उपदेशक का उपदेश - कौशल ही नहीं, बल्कि एक विचारक का विचार वैभव तथा अनुशीलनात्मक दृष्टि भी है । इससे प्रवचनों का स्तर काफी ऊँचा व विचार प्रधान बन गया है । इन प्रवचनों को पढ़ते समय प्रबुद्ध पाठकों को ऐसा अनुभव भी होगा कि इन प्रवचनों में उपन्यास और कहानी साहित्य की तरह सरसता है, दार्शनिक ग्रन्थों की तरह गम्भीरता है । यदि एक शब्द में कह दिया जाय तो सरलता, सरसता और गम्भीरता का मधुर समन्वय हुआ है । ऐसे उत्कृष्ट साहित्य के लिए पाठक आचार्य प्रवर का सदा ऋणी रहेगा तो साथ ही ऐसे सम्पादक के श्रम को भी विस्मृत नहीं हो सकेगा । मुझे आशा ही नहीं अपितु दृढ़ विश्वास है कि प्रस्तुत आनन्द प्रवचनों के ये भाग सर्वत्र समादृत होंगे । इन्हें अधिक से अधिक जिज्ञासु पढ़कर अपने जीवन को चमकायेंगे | - देवेन्द्र मुनि शास्त्री For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ अनुक्रमणिका ६०. अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा आत्मा को सदात्मा या दुरात्मा बनाना अपने हाथ में १, अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा बनता है ४, आत्मा की अनवस्थित दशा कब, अवस्थित दशा कब ? ५, अन्तरात्मा की साक्षी से कार्य करना अवस्थित दशा है ७, स्थिति के अनुसार कर्तव्य पालन अवस्थितता ८, स्वधर्म - पालन - अवस्थितता ६, चित्त की एकाग्रता से विशिष्ट ज्ञान-वामाक्षेपा का दृष्टान्त १०, अन्तःकरण की मलिनता ही दुरात्मा बनने का कारण ११, अनवस्थित आत्मा आध्यात्मिक और ब्यावहारिक दोनों क्षेत्रों में असफल — दृष्टान्त १४, दृढ़निश्चय सफलता का कारण १५, अनवस्थित व्यक्ति आत्महीनता के शिकार १६, अवस्थित आत्मा दृढ़संकल्पी १७, ६१. जितात्मा ही शरण और गति जितात्मा की व्याख्या १९, जितात्मा शब्द के विभिन्न अर्थ १६, जितात्माः पुरुषार्थ पर विजयी २०, संयम में पुरुषार्थं करने वाला विजितात्मा २१, जितात्मा ही शान्त २३, जितात्माः धैर्यं विजेता २४, जितात्मा : बुद्धि पर विजयी २८, जितात्माः स्वभाव विजेता ३०, स्वभाव बनाम आदत ३२, ६२. जितात्मा ही शरण और गति - २ जितात्मा : आत्मजयी ३४, आत्मा पर विजय पाने का अभिप्राय क्रोध आदि अध्यात्मिक दोषों पर विजय पाना ३६, आत्मविजय ३७, आत्म- दमन की परिभाषा ३८ जितात्मा अपने गुणों से परमात्मतत्व को जीतने वाला ३६, जितात्मा: शरीर, इन्द्रियों और मन को जीतने वाला ४१, मन के गुण और विषय ४२, मन ही सुख-दुख - १. - For Personal & Private Use Only १-१८ १६–३३ ३४—५६ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) का कारण ४३, मन की चंचलता ४४, मनोनिग्रह के उपाय ४५, मन का विजेता, जगत का विजेता ३७, जितेन्द्रियता ४८, जितेन्द्रिय के लक्षण ४६, इन्द्रियों को वश में करने के उपाय ५१, शरीरविजयी ५२, शरीर की आवश्यकतायें ५३, शरीररूपी अश्व के रईस बनो, सईस नहीं ५४, जितात्मा ही शरण्य और प्रगित प्रेरक ५६ । ६३. धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नही–१ ५७-६६ धर्मकार्य क्या है, क्या नहीं ५७, धर्मकार्य की कोटि का दान ५८, पुण्य कार्य की कोटि का दान ५८, पापकार्य की कोटि का दान ५६, सेवा भी धर्म, पुण्य और अधर्मरूप ६०, कष्ट सहकर करुणा: विशुद्ध धर्मकार्य ६१, धर्मकार्य : स्वान्तःसुखाय ६२, निःस्वार्थ दया या अनुकम्पा भी धर्मकार्य ६३, प्राण देकर पाँच व्यक्तियों की रक्षा-हब्शी गुलाम का दृष्टान्त ६४, धर्म-पोषक सभी कार्य, धर्मकार्य हैं ६५, सेवा : धर्मकार्य का उत्तमांग ६७, धर्ममय या अहिंसक समाज रचना का प्रयोग भी धर्म-सेवा कार्य ६७, दान, शील, तप और भावरूप धर्म का आचरण भी धर्मकार्य ६७, धर्मकार्य की कसौटी ६८ । ६४. धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-२ ७०-८४ अन्य कार्यों से पहले धर्मकार्य क्यों ? ७० धर्मक्रियायें वे ही जो सत्य अहिंसा आदि से संलग्न हो ७०, सामाजिक रीति-रिवाज धर्मक्रियायें नहीं ७१, धर्मकार्य से विमुखता : वर्तमान काल की स्थिति ७४, धर्मकार्य से धर्म का पलड़ा भारी रखो ७५, सुखी धर्मकार्य से ही, अधर्मकार्य से नहीं ७५, नारायणदास सिन्धी का दृष्टान्त ७५, पाप का त्याग कर देने से सुख-शांति संभव-जुम्मन अभियुक्त का दृष्टान्त ७६, धर्मकार्य का प्रत्यक्ष फल ७८, कर्तव्य भी धर्मकार्य में : कब और कब नहीं ७६, साम्प्रदायिक कर्तव्य और धर्मकार्य में अन्तर ८१, पुण्यकार्य और धर्मकार्य का घपला ७१, धर्मार्जित व्यवहार ही धर्मकार्य की कोटि में ८२, क्या ये धर्मकार्य हैं ८२, इसीलिए धर्म कार्य को श्रेष्ठ कार्य कहा ८४ । ६५. प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं ८५-१०६ प्राणिहिंसा क्या है ? ८५, दस प्रकार के प्राण ८५, द्रव्यहिंसा और भावहिंसा ८७, हिंसा होना और हिंसा करना में महदन्तर हैडाक्टरों का दृष्टान्त ८७, हिंसा का लक्षण ८६, हिंसा के विविध विकल्प ९०, हिंसा के परिणामों की विभिन्नता के कारण फल-प्राप्ति में भी For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) भिन्नता–दृष्टान्त ६१, एक व्यक्ति हिंसा करे और फल अनेक भोगे तथा अनेक व्यक्ति हिंसा करें और फल एक को मिले-हिंसा के इन दो विकल्पों के दृष्टान्त ६४, प्राणिहिंसा के विविध प्रकार ६५, हिंसा क्यों और किसलिए ? ६६, बाइबिल में अहिंसा के निर्देश के साथ एक शब्द अनर्थ का कारण बना ६६, वैदिकी अहिंसा का दिग्दर्शन ९७, अहिंसा के बारे में अन्य धर्मों तथा लौकिक जनों की विचित्र मान्यतायें ६६, प्राणिहिंसाः किन-किन की ? १०१, हिंसाः प्राणातिपात करना, कराना और अनुमोदन भी १०२, हिंसा के मुख्य भेद-संकल्पज, आरंभज १०२, आरंभी, उद्योगिनी और विरोधिनी-आरंभज हिंसा के ही तीन उत्तरभेद १०२, प्राणि-हिंसा परम अकार्य, अधर्म एवं निषिद्ध क्यों ? १०२, प्राणिहिंसा को अकार्य मानने के ६ कारण १०३, ६६. प्रेम-राग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं १०७-१२५ प्रेम-रागः क्या, क्यों और कैसे ? १०७, प्रेम शब्द का अर्थ १०७, प्रेम के पर्यायवाची शब्द १०८, पत्नी का पति के प्रति प्रेम राग १०८, पुत्र के प्रति माता का प्रेमराग ११० गांधारी का दृष्टान्त ११०, दाम्पत्य प्रेम मूलक राग ! दुखजनक १११, दाम्यत्य प्रेम काम मूलक है-रागान्ध पति का उदाहरण १११, परिवार के सभी लोग प्रेमराग वश ११३, प्रेमराग का दायरा बहुत व्यापक ११४, प्रेमराग परम बन्धन क्यों ? ११४, आद्रक मुनि का दृष्टान्त ११६, जड़ भरत की मृगशावक पर आसक्ति, बन्धन बनी-महाभारत का दृष्टान्त १२०, आसक्ति छोड़े बिना सुख नहीं १२१, आसक्ति का बन्धन आत्मज्ञान को ले डूबा १२१, वैदिक पुराण का विद्याधर ब्राह्मण का दृष्टान्त १२२, प्रेमराग का बन्धन तोड़ डालो १२३, बौद्ध भिक्षु नागसमाल का दृष्टान्त १२४ । ६७. बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१ १२६-१३८ बोधिलाभ के मुख्य अर्थ १२६, रत्नत्रय-लाभ की दुर्लभता क्यों ? १२७, आत्म-बुद्धि की दुर्लभताः क्या और कैसे ? १३०, आत्म बुद्धि से आत्मबोध १३१, आत्मबोध प्राप्त व्यक्ति की दशा-भगवान ऋषभदेव के ६८ पुत्रों का दृष्टान्त १३२, सम्यकदृष्टि की दुर्लभताः क्या और कैसे ? १३४, सम्यगदृष्टि देह और संसार के सुख-दुखों में सम रहता है १३६ । For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) ६८. बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं -२ १३६-१५४ व्यवहार सम्यग्दृष्टि का लाभ भी दुर्लभ १३६, सम्यक्त्व प्राप्त व्यक्ति की दृढ़ता-चम्पकमाला का दृष्टान्त १४०, सम्यक्त्व के ८ अंग १४६, सद्बोधिलाभ दुर्लभः क्यों और कैसे ? १४८, सम्यक्त्व से आत्म जागृति १५०, अनाथ लड़के का दृष्टान्त १५० । ६६. परस्त्री-सेवन सर्वथा त्याज्य १५५-१७० पर-स्त्री सेवन की व्याख्या १५५, पर-स्त्री कौन १५५, आठ प्रकार के मैथुन १५६, पाप-दृष्टि से पर-स्त्री प्रेक्षण का कुफल-मणिरथ का दृष्टान्त १५८, यह भी पर-स्त्री सेवन ही है १६१, पर-स्त्री सेवन क्यों त्याज्य ? क्यों निषिद्ध ? १६२, पर-स्त्री सेवन पापरूप है १६२, पर-स्त्री सेवन अधर्म है १६३, पर-स्त्री-सेवन अपराध है १६४, पर-स्त्री सेवनः नैतिक पतन १६५, पर-स्त्री सेवन पारिवारिक अशांति का कारण १६५, पर-स्त्री सेवनः स्वास्थ्य का शत्रु १६५, पर-स्त्री सेवनः स्वस्त्री सेवन से अधिक भयंकर १६७, दासी और धर्मपत्नी सेवन के समय परिणामों में अन्तर १६७ । ७०. अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य १७१-१८७ अविद्यावानः कौन और कैसा ? १७१, विद्या क्या है ? १७१, वैदिक तथा जैन परंपरानुसार १४ विद्याओं के नाम १७३, अविद्या क्या है ? १५४, २७ प्रकार के अविद्यावान व्यक्ति १७४, अविद्या के कारण दु:ख-प्राप्ति-पटटाचारा का दृष्टान्त १७५, अविद्या की दुनियाः भूलभुलैया भरी १७८, विद्यावान और अविद्यावान की परख: आचार्य द्रु मत उपकौशल का दृष्टान्त १७६, विद्यावान् सांसारिक सुख-दुख मे तटस्थ-बुद्धिमती सुमति का दृष्टान्त १८१, विद्यावान और अविद्यावान में सूक्ष्म अन्तर, १८३, विद्यावान वह, जो गीतार्थ हो १८५, अविद्यावान की सेवा में न रहें १८५ । ७१. अतिमानी और अतिहीन असेव्य १८८-२०८ न अतिमानी अच्छा, न अतिहीन अच्छा १८८, अतिमानीः आसुरी शक्ति का पुजारी १६१, अतिमानी से सद्गुणों का पलायन १६२, अहंकारी नवल का दृष्टान्त १६४, अहंकार क्यों, किस बात का ? १६७, अहंकार ध्वंसात्मक रूप में १६८, नेपोलियन दृष्टान्त १६६, गर्वः अनेक रूपों में २००, हीनता का अतिरेकः विकास का अवरोध २०२, होनता की भावनाः क्यों और कैसे २०३, हीनता-प्रका For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) शन के विभिन्न रूप २०४, नम्रता और हीनता में अन्तर २०६, हीनभावना के शिकार बालक २०६, इसीलिए दोनों का संसर्ग त्याज्य है २०७ । ७२. चुगलखोर का संग बुरा हैं पिशुन का स्वभाव: दुर्भावपूर्ण २०६, चुगलखोर को क्या लाभ क्या हानि ? २१२, चुगलखोरी : स्वरूप, परिणाम और स्थान २१५, चुगलखोरी : परनिन्दा आदि में शक्ति का अपव्यय २१६, अन्य धर्मों में भी चुगलखोरी निन्द्य २१६, चुगलखोर : छिद्रान्वेषी, गुणद्वेषी २१८, पैशुन्य से अभ्याख्यान तक २१६, पिशुन का संसर्ग : महा दुःखदायक २२०, महाविदेह क्षेत्र के चक्रदेव सार्थवाह का दृष्टान्त २२० । ७३. जो धार्मिक, वे ही सेवापात्र धार्मिक कौन : यह या वह ? २२३, तथाकथित पुजारियों का धार्मिक दम्भ - दृष्टान्त २२६, शास्त्रों को रट लेने से धार्मिक नहीं २२८, धार्मिक की पहचान २२६, निष्काम सेवाभावी किसान का दृष्टान्त २३०, दृढ़धर्मी सच्चा धार्मिक २३३, ईमानदार तांगे वाले का दृष्टान्त २३४, धार्मिकों का संग एवं सेवा : सुखप्रद २३८ । ७४. पूछो उन्हीं से, जो पंडित हों २०६२२२ २२३-२३८ पण्डित शब्द ब्राह्मण के अर्थ में रूढ़ २३६, पण्डित शब्द के विकृत रूपान्तर २४०, पंडित शब्द का मेरुदण्ड - बुद्धि २४०, आज के पण्डित २४० निःसार का उपासक पण्डित नहीं २४१, पण्डित शब्द का लक्षण २४३, पण्डित पद का अवमूल्यन २४४, पण्डित २४५, पण्डित की युगस्पर्शी परिभाषा कितना आध्यात्मिक, कितना व्यावहारिक २४६, विकास के साथ आध्यात्मिक निष्ठा २४८, जो स्वयं बंधा हो, वह दूसरे को बंधनमुक्त नहीं कर सकता —- दृष्टान्त २४६, पाप से दूर रहने वाला ही पण्डित २५२, आज के सन्दर्भ में पण्डित के लिए करणीय कुछ समाजोपयोगी कर्तव्य २५३ । २३६—२५४ For Personal & Private Use Only तेजस्वी मार्गदर्शक २४६, पण्डितः पण्डितः बौद्धिक ७५. वन्दनीय हैं वे, जो साधु साधुः स्व-पर-कल्याण साधक २५५ साधु की वन्दनीयता: कैसे . किन गुणों से ? २५४. साधु किन गुणों से वन्दनीय ? २५८. दस श्रमण धर्मों के पालन से साधु वन्दन योग्य बनता है २५८. वेश से २५५-२७२ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दनीय साधुः कब और कब नहीं ? २६५. वन्दनीय साधु के स्वभाव की महक २६६. साधुः राष्ट्र का प्राण. राष्ट्ररत्न २६८. वन्दनीय साधु को वन्दन करने का फल-महाविदेह क्षेत्र के विजयसेन राजकुमार का दृष्टान्त २७०. साधु-वन्दना की अन्तर्गत प्रक्रि याएं २७१ । ७६. ममत्वरहित ही दान-पान हैं २७३-२८७ ममत्व रहित कौन और कैसे ? १७३, विवशता का त्याग, त्याग नहीं २७४, स्वक्श त्याग ही त्याग है २६४, निर्ममत्व एवं सममत्व की पहचान २७५, राजर्षि और किसान के त्याग का अन्तरदृष्टान्त २७६, आई हुई भोग्य सामग्री को ठुकराने वाले संत तुकाराम २७६, समत्वधारक हो, वही निर्ममत्व साधु २८१, दान का अधिकारीः अकिंचन साधु २८२, दान का लक्षण २८३, निर्ममत्व अकिंचन साधु की पहचान २८३, निर्ममत्व साधु को दान देने का फल २८४, वसुतेज का दृष्टान्त २८५, सुखविपाक सूत्र आदि में सुपात्र दान का वर्णन २८६ । ७७. पुत्र और शिष्य को समान मानो २८८-३०४ गुरु-पद की सार्थकता २८८, गुरु शब्द का अर्थ २८६, गुरु द्वारा शिष्य का अज्ञानान्धकार मिटाना–दृष्टान्त ८८६, गुरु और शिष्य दोनों निःस्पृह हों, तभी लक्ष्य प्राप्ति २६१, गुरु द्वारा शिष्यों के दोष दूर करना–दृष्टान्त २६२, गुरु-पद के उत्तरदायित्व से दूर २६३, उत्तरदायित्वपूर्ण गुरुओं के लक्षण २६५, आवश्यकता : यथार्थ गुरु की, योग्य शिष्य की २६६, माता-पिता का हृदयः सद्गुरु का सर्वोपरि गुण २६७, गुरु : जीवन का निर्माता कलाकार २६६, योग्य शिष्य गुरु के गौरव को बढ़ाते हैं ३००, योग्य शिष्य गुरु को पुत्र से भी बढ़कर प्रिय १०१, नारद-पर्वत का दृष्टान्त ३०१, गृहस्थ-पुत्र से भी बढ़कर सुयोग्य शिष्य ३०३, शिष्य के प्रति गुरु का व्यवहार ३०४। ७८. ऋषि और देव को समान मानो ३०५-३१७ ऋषि कौन ? ३०५, ऋषि का स्वभाव ३०७, समतायोग ऋषिः जीवन का मूल मंत्र, ऋषिः त्रिकालाबाधित द्रष्टा ३१०, ऋषिः आत्मानुभूति के मार्गदर्शक ३११, ऋषिः पाप-बिशोधक ३१२, ऋषि: बोध-प्राप्ति के केन्द्र ३१३, ऋषि के सात आभूषण (गुण) For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ); ३१४, पाँचवे निह्नव आर्य गंग का दृष्टान्त ३१५, ऋषि और देव में तुल्यता के कारण ३१६, ७६. मूर्ख और तिर्यञ्च को समान मानो मूर्खः लक्षण और पहचान ३१८, चित्रकार - कन्या कनकमंजरी का दृष्टान्त ३१६, मूर्खः वाणी में अविवेकी ३२६, मूर्खः हठाग्रही और जिद्दी ३२३, मूर्खः के अवगुण ३२५, मूर्ख की पकड़ : बहुत गहरी ३२५, मूर्खः बन्दर के समान लालची ३२८, मूर्ख मंदमति होने से पशु तुल्य ३२८, मूर्ख का संग, पशुसंगवत् वर्जित ३३०, पशुओं को भी मात करने वाली मूर्खतायें ३३२, तियंच और मूर्ख की प्रकृति में अन्तर नहीं ३३४ । ८०. मृत और दरिद्र को समान मानो ३१८–३३५ दरिद्रः स्वरूप, प्रकार और विश्लेषण ३३६, दरिद्रता से भी अच्छी बातें ३३७, आपका शरीर लाखों रुपयों का है— दृष्टान्त ३३८, विशाल तृष्णा, दरिद्रता का लक्षण ३४० पुरुषार्थ से दरिद्रता का नाश – हृष्टान्त ३४१, भाग्य खुलते हैं मनोदारिद्रय एवं अनैतिकता दूर करने से ३४३, दरिद्रता का कारण, आलस्य व्यसन और कुरूढियाँ ३४४, भाग्यहीन को कोई कुछ नहीं दे सकता, दो देवों का विवाददृष्टान्त ३४६, नैतिक दृष्टि से दरिद्र भी भाग्यहीन ३४७ दरिद्रता का शिकार मृत है ३४८, पाँच प्रकार के व्यक्ति जीवित भी मृत ३५० । 00 For Personal & Private Use Only ३३६—३५२ - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द प्रवचन भाग ११, के प्रकाशनार्थ प्राप्त सहयोग निम्न महानुभावों ने प्रकाशन में उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान किया है, तदर्थ हार्दिक धन्यवाद ! २१००--श्री वीरसेनजैन-फर्म मिट्ठनलाल जैन एण्डसन्स चावड़ी बाजार-देहली ६ १०००-श्री मोहनलाल पारख-हैदराबाद ११०१-श्री जसवंतराज सुमेरमल जी लुणावत-बेंगलोर १०००-श्री उत्तमचन्द लखमीचन्द दोमडिया-सिकन्दराबाद १०००-श्री फतेहचन्द जो बाफना-भोपाल १००१-श्री कांतीलाल जी चोरडिया-पुणे १०००-श्री सुमेरचन्द जी जैन-बम्बई १०००-श्री पोपटलाल भागचन्द मुनोत-चिंचवड १००१-श्री हरकचन्द जी केवलचन्द जी चोरडिया-पुणे १००१-श्री चम्पालाल जी कस्तूरचन्द जी बाफना-नासिक १००१--श्री यू० मांगीलाल जी दूगड़ हैदराबाद १००१-श्री एम. शेरमल' जी बोहरा-सिकन्दराबाद १००१-श्री चम्पकलाल माणेकलाल शाह-बम्बई १००१-श्री पुखराज जी किशनलाल जी तातेड-सिकन्दराबाद १००१–श्री सौ० गजराबाई नेमीचन्द जी पारख-नासिक १००१-श्री धरमचन्द लालचन्द शाह-बम्बई १००१-श्री चम्पालाल जी उत्तमचन्द जी गांधी-मद्रास १००१–सौ० सुशिलाबाई, मिश्रीलाल जी शिवलाल जी भंसाली राहता ५०१-शुभकरण नथमल खिवसरा-अमरावती ५०१-श्री बाबूलाल नरेन्द्र कुमार जी पोखरणा---इचलकरंजी ५०१–श्रीमती भागुवाई रामचन्द जी दलवाई-इचलकरंजी २५१- किमतीलाल इन्द्रसेन जैन--देहली २५१- श्री इन्द्र चन्द सोहनराज जी कोठारी-मैसूर २०१-श्री शुभकरण चोरडिया--एदलाबाद २०१–श्री जयनारायण जैन-देहली. For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलस्रोत अप्पा · दुरप्पा अणवट्ठियस्स । अप्पा जियप्पा सरणं गई अ॥११॥ अनवस्थित की आत्मा शत्रु । तथा जितात्मा स्वयं शरण है ।।११।। न धमकज्जा परमत्थि कज्ज । न पाणिहिंसा परमं अकज्जं ॥ न पेमरागा परमत्थि बंधो । न बोहिलाभा परमत्थि लाभो ॥१२॥ धर्म कार्य ही श्रेष्ठ कार्य है, हिंसा सबसे बड़ा अकाज । परम-बंध है प्रेम-राग का, बोधि-लाभ है उत्तम लाभ ॥१२॥ न सेवियव्वा पमया परक्का । न से वियव्वा पुरिसा अविज्जा ॥ न से वियव्वा अहिमाणि-हीणा । न सेवियव्वा पिसुणा मणुस्सा ॥१३॥ पर-प्रमदा की करो न वांछा, अज्ञानी का संग नहीं । वचो, नीच-अभिमानी जन से, चुगलखोर का संग नहीं ।।१३।। For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) जे धम्मिया ते खलु सेवियव्वा । जे पंडिया ते खलु पुच्छियव्वा ॥ जे साहुणो ते अभिवंदियव्वा । जे निम्ममा ते पडिलाभियव्वा ॥१४॥ धार्मिक जन की सेवा करिए, पंडित नर से पूछो ज्ञान । साधुजनों की करो वंदना, अपरिग्रही को देना दान ॥१४॥ पुत्ता य सीसा य समं विभत्ता । रिसीय देवा य समं विभत्ता ॥ मुक्खा तिरिक्खा य समं विभत्ता। मुआ दरिद्दा य समं विभत्ता ॥१५॥ पुत्र, शिष्य को तुल्य समझिए, ऋषि, देवों को समझो तुल्य । मूर्ख, और पशु तुल्य कहे हैं, है दरिद्र का मृत-सम मूल्य ॥१५॥ For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा धर्मप्रेमी बन्धुओ! आज मैं आध्यात्मिक विषय से सम्बन्धित प्रवचन के सिलसिले में अनवस्थित आत्मा के विषय में चर्चा करूंगा। वास्तव में, अनवस्थित आत्मा जैसे अपना ही शत्रु होता है, वैसे ही अनवस्थित आत्मा दुरात्मा भी हो जाता है। महर्षि गौतम ने इस जीवन-सूत्र में पुनः अनवस्थित आत्मा पर बताया है। यह जीवनसूत्र इस प्रकार है अप्पा दुरप्पा अणवठ्ठियस्स अनवस्थित व्यक्ति की आत्मा ही दुरात्मा हो जाती है । गौतम कुलक का यह ४६वाँ जीवन-सूत्र है । इस सम्बन्ध में आज हम गहराई से विचार करेंगे । आत्मा को सदात्मा या दुरात्मा बनाना : अपने हाथ में भारत का प्रत्येक धर्म एवं आस्तिक दर्शन यह बात बहुत जोर-शोर से कह रहा है कि अपनी आत्मा को बनाना और बिगाड़ना प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में है। वह चाहे तो आत्मा को भ्रष्ट और दुष्ट बना सकता है और वह चाहे तो आत्मा को उच्च और शिष्ट बना सकता है। किसी व्यक्ति के चेहरे या शरीर को देख कर आप सहसा यह अनुमान नहीं लगा सकते या निश्चित नहीं कह सकते कि कौनसा मानव चोर है और कौन-सा साहूकार; कौन दुरात्मा है, कौन सदात्मा; कौन बेईमान है, कौन ईमानदार; कौन कामी, क्रोधी, कपटी, कुटिल, लोभी या अभिमानी है और कौन शीलवान, क्षमाधारी, सरल, मृदु, सन्तोषी या निरभिमानी, नम्र है ? मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आलसी और उत्साही, सद्गुणी और दुगुणी, पापी और पुण्यात्मा, तुच्छ और महान, दुर्जन और सज्जन आदि का जो आकाशपाताल-सा अन्तर मनुष्य-मनुष्य के बीच दिखाई देता है, उसका मुख्य कारण उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति ही है। यद्यपि परिस्थितियां भी कुछ हद तक इन भिन्नताओं में सहायक होती हैं, परन्तु उनका प्रभाव पाँच प्रतिशत है, पचानवे प्रतिशत कारण मनुष्य की अच्छी बुरी मनःस्थिति है। बुरी से बुरी-परिस्थितियों में पड़ा For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ आनन्द प्रवचन : भाग ११ हुआ मनुष्य अपनी कुशलता और विशेषता; अपनी मानसिक क्षमता और दक्षता के द्वारा उन बाधाओं को पार करके देर-सबेर अच्छी स्थिति प्राप्त कर लेता है। अपनी आत्मा में निहित शक्तियों, सदगुणों, सद्विचारों एवं सत्प्रयत्नों द्वारा कोई भी मनुष्य बुरी से बुरी परिस्थिति को पार करके ऊंचा उठ सकता है, अपनी आत्मा को उच्च विकसित और श्रेष्ठ बना सकता है। किन्तु जिसकी मनोभूमि निम्न श्रेणी की है, जो दुर्विचारों, दुर्बुद्धि, दुगुणों और दुष्प्रवृत्तियों से ग्रसित है, अगर उसके पास कुबेर जितनी सम्पदा और इन्द्र जैसे ठाठ-बाट और वैभव-विलास होंगे तो भी वह सदात्मा नहीं बन सकेगा। यहीं नहीं, सम्पत्ति और सुख-सामग्री भी उसके पास अधिक दिन नहीं टिक सकेगी, वह नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगी। इसलिए यह बात निश्चित है कि मनुष्य अपने मन को सुधारे, उन्नत दिशा में पुरुषार्थ करे तो वह अपनी आत्मा को श्रेष्ठ बना सकता है, और वह चाहे तो मन की आदतों को बिगाड़कर, उसका गुलाम बनकर अपनी अच्छी आत्मा को भी दुरात्मा बना सकता है । दूसरे लोग अपना कहना न मानें यह हो सकता है, पर यदि व्यक्ति स्वयं ही अपनी बात को न माने, इसका कारण बहानेबाजी एवं लापरवाही के सिवाय और क्या हो सकता है ? अपनी मान्यताओं को व्यक्ति स्वयं ही कार्यरूप में परिणत न करे तो फिर उसके स्त्री-बच्चों, मित्रों, पड़ोसियों या सारे संसार से यह कैसे आशा रखी जा सकती है कि वे समझेंगे और सुधरेंगे। बाहर की अस्वच्छता साफ करने में कुछ अड़चनें हों, यह बात समझ में आ सकती है। मगर अपने घर को, अपने मन-मन्दिर को भी साफ-सुथरा न बनाये जा सकने में कौन-सी बहानेबाजी चलेगी ? यह कार्य कोई गुरु या देवता आकर कर देगा, यह सोचना व्यर्थ है । हर व्यक्ति स्वयं को सुधार या बिगाड़ सकता है । दूसरे लोग इस कार्य में कुछ मदद कर सकते हैं लेकिन रोटी खाने, शौच जाने, विद्या पढ़ने आदि की तरह मन को सुधारकर आत्मा को श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न भी उसे स्वयं करना पड़ेगा। एक के बदले दूसरा रोटी खा लिया करे या दूसरा शौच हो आया करे, यह असम्भव है; इसी प्रकार यह भी संभव नहीं है कि दूसरे के वरदान या आशोर्वाद से व्यक्ति की मानसिक अस्वच्छता दूर हो जाये । यह कार्य उसे स्वयं ही करना होगा। इस दृष्टि से मनुष्य अपनी आत्मा को सदात्मा और दुरात्मा बनाने के लिए स्वतंत्र है । एक प्रसिद्ध कवि ने बहुत ही सुन्दर प्रेरणा दी हैं मेरे मधुवन में आम लगा, फल' खाऊँ कौन मना करता ? आँगन में गंगा बहती है, उठ न्हाऊँ कौन मना करता ? ॥ ध्रुव ॥ है अचरज इसका ही घर पर, क्यों अपनी नजर नहीं जातो? क्यों सड़े-गले बाजारों के फल' खाने को मति ललचाती ? अपनी निधि पर अपनी प्रभुता, दिखलाऊँ कौन मना करता ? ॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा ३ पर-घर में अपने घर जैसा, हा हा ! तरा सत्कार कहाँ ? सहकार कहाँ, व्यवहार कहाँ, और उचित उपचार कहाँ ? अपनी भूमि पर विजयध्वजा फहराऊँ कौन मना करता ? ॥२॥ कितना उन्नत चिन्तन दिया है, कविवर मुनिश्री ने ! वास्तव में मनुष्य अपने आत्मारूपी बाग का माली स्वयमेव है, वह चाहे तो अपने बाग को अच्छा बना सकता है, और चाहे तो इसे बिगाड़ या उजाड़ सकता है। एक वास्तविक सौन्दर्य का उपासक मस्त यात्री वनराजि के अद्भुत सौन्दर्य को निहारता हुआ एक गिरिशृंग पर चढ़ गया। वहाँ से उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई तो सहसा उसे एक छोटा-सा सुन्दर बंगला नजर आया। बंगले के चारों ओर एक नयनाभिराम उद्यान लगा हुआ था। उस मस्त यात्री ने उधर ही अपने चरण बढ़ाये । धीमे कदमों से उद्यान में प्रवेश किया। चारों ओर वातावरण सुन्दर सुगन्धित था। नवपल्लवित वृक्ष आनन्द से झूम रहे थे। पक्षियों का सुन्दर कलरव हो रहा था। लताएं रंग-बिरंगे फूलों से सुशोभित थीं । उद्यान में वह यात्री घूम रहा था कि सहसा एक वृद्ध ने उसके रंग में भंग डाला। उसने पूछा-“कहिए महाशयजी ! किससे काम था ?" यात्री बोला-"काम किसी से नहीं था, इस मनोहर उद्यान को देखकर इसका सौन्दर्य-पान करने आया हूँ। आप इस उद्यान के माली मालूम होते हैं।" माली स्वीकृतिसूचक 'हाँ' कहकर खुरपी से फूलों की क्यारी को खोदने में लग गया। यात्री भी फूलों की क्यारी के पास रखी हुई एक बेंच पर बैठ गया। स्वच्छ और सुव्यवस्थित उद्यान को देखते ही यात्री का मन प्रफुल्लित हो उठा । उसने बंगले की ओर दृष्टि फेंककर पूछा-“माली ! यह बंगला किसका है ?" माली बोला-'मेरे मालिक का है !" यात्री ने कहा-"तब तो वह इस समय यहीं होंगे।" "नहीं, वे तो काफी अर्से से परदेश में रहते हैं।“ माली ने कहा। यात्री-"तब तो आजकल में वे आने ही वाले होंगे।" माली ने आनन्दविभोर होकर कहा- "भाई ! आप यह समझ रहे होंगे कि मेरे मालिक आजकल में आने वाले हैं, इसोलिए मैं इस बाग को व्यवस्थित कर रहा है। पर ऐसी बात नहीं है। मेरे मालिक कई वर्षों से परदेश ही हैं । वे यहां थे, तब भी इस बाग की शोभा ऐसी ही थी, वे आज यहाँ नहीं हैं तो भी वैसी ही है और अविष्य में भी वैसी ही रहेगी।" के यात्री साश्चर्य बोला-"आपके मालिक यहाँ नहीं हैं, कब आएंगे, इसका भी कोई निश्चित नहीं फिर किसे दिखाने के लिए आप इतना परिश्रम कर रहे हैं ?" * माली ने कहा-"बाग को सुव्यवस्थित और शोभायमान रखना, प्रत्येक माली का कर्तव्य है। मेरे मालिक ने पूरे विश्वास के साय मुझे यह बाग सौंपा है, For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ इसलिए मेरा भी यह फर्ज हो जाता है कि मैं इस बाग को अधिकाधिक सुन्दर बनाऊँ ? मैं इस चक्कर में नहीं पड़ता कि मेरे मालिक कब आएंगे, अतः मैं अपने बाग को व्यवस्थित और रम्य बनाने में ही अपना श्रेय समझता हूँ। 'अभी मालिक यहाँ नहीं है;' यह सोचकर मैं निष्क्रिय होकर बैठा रहूँ, तो मेरे इस बाग की शोभा नष्ट हो जाएगी। फूल, फल, लता और हरे-भरे पौधों के बदले यहाँ कटीले झाड़. झंखाड़, निकम्मा घास-फूस और बेर खड़े हो जाएंगे । यदि मेरे मालिक अचानक आ भी जाएं तो वे बाग की शोभा देखकर आनन्दित हो उठेंगे। उनका आनन्द ही मेरे श्रम का पारितोषिक है।" माली की अद्भुत कर्तव्यपरायणता की भावना देखकर यात्री दंग रह गया। आप और हम सब अपने-अपने आत्मारूपी बाग के माली हैं। वैष्णव भाषा में कहूँ तो भगवान ने और जनदर्शन की भाषा में कहूँ तो महापुण्यरूपी राजा ने पूरे विश्वास के साथ इस आत्मारूपी उद्यान की सुरक्षा एवं सुव्यवस्था का कार्य हमें सौंपा है । परन्तु उस माली की तरह कौन अपने आत्मारूपी बाग को सुव्यवस्थित, सुन्दर और शोभायमान रखने के लिए सतर्क और सत्पुरुषार्थशील रहता है ? राजा या प्रभु की अनुपस्थिति में इस आत्मारूपी बगीचे का मालिक स्वयं आत्मा (जीव) ही है । जो इस बात को समझकर दत्तचित्त और आत्मस्थित या प्रभुध्यान में स्थित होकर इस आत्मारूपी उद्यान को ज्ञान-दर्शन-चारित्र एवं तप-संयम के पुरुषार्थ द्वारा सुन्दर, सुव्यवस्थित और श्रेष्ठ बनाता है, वही श्रेष्ठ आत्मा, विकसित आत्मा एवं मोक्ष-प्राप्ति योग्य आत्मा बनाने का पारितोषिक पाता है । इसके विपरीत जो अनवस्थित, लापरवाह एवं कर्तव्यहीन होकर आत्मारूपी उद्यान की सार-संभाल नहीं करता, इसे ज्ञानादि गुणों की वृद्धि के पुरुषार्थ से सुन्दर, सुव्यवस्थित बनाने का पुरुषार्थ नहीं करता, वह अपनी आत्मा को दुरात्मा, अविकसित आत्मा एवं पापात्मा बना लेता है, जिसका दण्ड उसे अनेक जन्मों तक विविध गतियों एवं योनियों में परिभ्रमण करने के रूप में मिलता है। भगवान या पुण्यराजा के प्रकुपित होने से फिर मनुष्यजन्म मिलना दुर्लभ हो जाता है। - इसलिए यह तो मनुष्य के अपने हाथ में है कि वह अपनी आत्मा को दुरात्मा बनाए या सदात्मा, पापी बनाए या धर्मात्मा ! अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा बनता है मनुष्य का सदात्मा या दुरात्मा बनना अपने हाथ में है; तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आत्मा दुरात्मा कब बनती है ? महर्षि गौतम ने इसका सीमित शब्दों में उत्तर दे दिया है कि अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा बन जाती है। ___ आत्मा को दुरात्मा बनाने में अन्यान्य निमित्त कारण होंगे, परन्तु मूल कारण अनवस्थितता है। जब जीवन में अनवस्थितता आ जाती है, चित्त एक जगह, एक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य कार्य में नहीं जमता, तब आत्मा उसका अनुवर्ती बनकर For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा ५ दुरात्मा बन जाता है। आत्मा का अपने पर उस समय आधिपत्य नहीं रहता, वह दूसरों के अधीन हो जाता है। तथागत बुद्ध का एक चचेरा भाई भिक्षु बन गया था, उसका नाम था सुभाग । दूसरे भिक्षुओं के साथ उसकी पटती नहीं थी। वह हर एक के साथ झगड़ पड़ता था। वह समझता था, मैं दूसरों पर रौब दिखाकर अपना सिक्का जमा लूगा । तथागत ने जब उसकी यह वृत्ति देखी तो उसे आदेश दिया-"जाओ, तीन दिन तक एकान्त में निर्जल तीन उपवास करके रहो।" __यह देखकर आनन्द ने बुद्ध से कहा-"आखिर तो आप क्र द्ध हो गए न ?" बुद्ध बोले-"क्या कहा, मैं ऋद्ध हो गया ? यह तुमने किस पर से निर्णय किया ?" आनन्द ने कहा-"आपने सुभाग भिक्षु को दण्ड जो दिया है ।" बुद्ध-"मैंने उसे सजा नहीं दी है, दिव्य आशीष दी है। तीन दिन के बाद उसका परिणाम तुम सब को ज्ञात हो जाएगा।" और तीन दिन के बाद जब सुभाग एकान्तवास से बाहर निकला तो आनन्द और अन्य भिक्षुओं को लगता था कि या तो यह भाग जाएगा, अथवा यह पहले से भी ज्यादा बुरा व्यवहार करेगा; परन्तु यह क्या ? सबके आश्चर्य के बीच वह सीधा तथागत बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा, और ये उद्गार निकाले"तथागत ! मैं धन्य हो गया हूँ, आपकी कृपा से ।" "सुभाग ! खड़ा हो जा। तुम में नवचेतना का स्फुरण देखकर मुझे अतीव प्रसन्नता हो रही है ।" यों कहकर तथागत ने उसे अपने हाथ से भोजन कराया । उसी दोपहर को भिक्ष आनन्द खासतौर से उससे मिलने गये। उन्होंने सुभाग भिक्षु से पूछा-"भिक्षो ! क्या चमत्कार हुआ, मुझे भी कहो ?" "भंते ! मेरा जीवन बदल गया है। मैं तो तथागत से प्रार्थना करूंगा कि मुझे ये ८ दिन के निर्जल उपवास के साथ एकान्तवास की अनुमति दें।" भिक्षु आनन्द–“परन्तु तुम्हें क्या अनुभव हुआ ? यह तो बताओ।" सुभाग भिक्षु-''भंते ! मैंने तीन दिनों तक अपनी आत्मा के विषय में शान्त, स्वस्थ और दत्तचित्त होकर चिन्तन-मनन किया और मुझे यह बात भलीभाँति समझ में आगई कि मेरी आत्मा जगत् में महान् है और वही नादान भी है। महानता और नादानता दोनों मेरे अंदर छिपी हुई हैं। मैं जिसे चाहूँ प्रकट कर सकता हूँ।" निष्कर्ष यह है कि जब व्यक्ति का अपने पर अपना नियंत्रण या आधिपत्य रहता है, तब वह अपनी आत्मा को श्रेष्ठ बना सकता है और जब उसका अपने पर नियंत्रण या आधिपत्य नहीं रहता, तब वह अनवस्थित होकर आत्मा को दुरात्मा बना लेता है । आत्मा की अनवस्थित दशा कब, अवस्थित दशा कब ? - जब यह सिद्ध होगया कि अनवस्थित आत्मा दुरात्मा बन जाता है और For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ अवस्थित आत्मा सदात्मा, तब सहसा यह प्रश्न उठता है कि आत्मा कब अनवस्थित दशा में होता है, कब अवस्थित दशा में ? आत्मा जब अपने गुणों में, अपने स्वभाव में, अपने धर्म में स्थित रहता है, तब तक वह अवस्थित कहलाता है और जब वह अपने गुणों को छोड़कर परभावों, विभावों, विषय-कषायादि या राग-द्वष-मोह आदि विकारों में फंस जाता है, अपने स्वभाव और धर्म को छोड़कर जब वह परभाव और परधर्म में लुब्ध हो जाता है, तब उसकी दशा अनवस्थित कहलाती है और अनवस्थित दशा में आत्मा दुरात्मा बन जाता है । मिश्र में एक सन्त हो चुके हैं, हिलेरियो। जब वे १५ वर्ष के थे तभी उन्हें अपने पिता के प्यार से वंचित हो जाना पड़ा । इस छोटी-सी उम्र में हिलेरियो को अपने आत्मस्वभाव में स्थित होने की धुन लगी। वह सम्पत्ति को अपने आत्मभावों से विचलित और चित्त को चंचल बनाने वाली समझते थे इसलिए पिता के द्वारा छोड़ी हुई सारी सम्पत्ति उन्होंने निर्धनों और जरूरतमंदों में वितरित कर दी, स्वयं ने यह निश्चय कर लिया कि मैं आत्मस्वभाव में स्थित होने के लिए एकान्त मरुभूमि में रहकर साधना करूंगा । जिस स्थान को उन्होंने पसंद किया, वह स्थान समुद्रतट से दूर और झाड़-झंखाड़ों के बीच में था। वहाँ आवागमन के साधन सुलभ न थे । सदैव डाकुओं का भय बना रहता था, इसलिए वहां दिन में भी कोई व्यक्ति अकेले जाने का साहस नहीं करता था। हिलेरियो के कितने ही मित्रों ने उन्हें उस स्थान पर न रहने की सलाह दी, कहा कि लूट-पाट और मार-काट के लिए वह स्थान बदनाम हो चुका है, अतः आपको वहाँ नहीं रहना चाहिए । परन्तु हिलेरियो ने वहाँ रहकर अपना स्वभाव निर्द्वन्द्वता का बना लिया था, अपने स्वभाव में अवस्थित रहने का ध्यान, मौन, एकाग्रतापूर्वक चिन्तन का अभ्यास कर लिया था, इस कारण महान् आत्मा हिलेरियो का आत्मबल बहुत बढ़ गया था। इस कारण वे मृत्यु से भी नहीं डरते थे। एक दिन मरुस्थल में महान् आत्मा हिलेरियो को कुछ व्यक्तियों ने घेर लिया और पूछा-"तुम इस जंगल में अकेले रहते हो, यदि कोई तुम्हें परेशान करे और तुम्हारा सामान छीन ले तो तुम क्या करोगे ?" संत हिलेरियो ने मुस्कराकर कहा-"मेरे पास सामान है ही क्या ? पहनने के दो कपड़े और पानी पीने के लिए एक कमण्डल ही है। यदि तुम्हें उनकी भी आवश्यकता हो तो मैं सहर्ष देने को तैयार हूँ।" "और यदि तुम्हें कुछ डाकू अपने कार्य में बाधक समझकर जान से ही मार दें तो तुम सहायता के लिए किसे पुकारोगे ?" संत हिलेरियो बोले-"जान से मारना चाहें तो मार दें, मैं मरने से डरता नहीं । मैं अपने आत्मध्यान में यह निश्चित रूप से जान चुका हूँ कि आत्मा अजर For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा ७ अमर है, वह कभी मरता नहीं, मैं अपनी आत्मा में ही अवस्थित हूँ। शरीर, इन्द्रिय आदि पर या किसी भौतिक पदार्थ पर मेरी आसक्ति नहीं है, उनकी चिन्ता मैं नहीं करता । वे सब नाशवान हैं, एक दिन वे नष्ट होंगे ही; चाहे वे शीघ्र ही नष्ट हो जाएँ । हदय से स्वागत है मृत्यु का।" यह है, आत्मा की अवस्थित दशा का ज्वलन्त उदाहरण ! जो व्यक्ति आत्मा के प्रति वफादार न होकर शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि का गुलाम बन जाता है, भौतिक पदार्थों के प्रति आसक्त हो जाता है, अपनी आत्मा का कोई विचार नहीं करता, वह अनवस्थित है, यानी आत्मा में अवस्थित नहीं है । ___अनवस्थित व्यक्ति आत्मा की आवाज नहीं सुनता; क्योंकि आत्मदेवता के प्रति उसे श्रद्धा-भक्ति नहीं होती, वफादारी नहीं होती । जिसका लक्ष्य ही आत्मा का हित और विकास नहीं है, वह व्यक्ति आत्मा की आवाज की ओर ध्यान ही क्यों देगा ? परन्तु आत्मा में अवस्थित एवं वफादार व्यक्ति को स्वतः आत्मा की आवाज सुनाई देती है, क्योंकि वह सावधान होकर उसकी ओर ठीक-ठीक उन्मुख होता है । आत्मा अपने प्रति वफादार व्यक्ति को अपने प्रति सावधान एवं सम्मुख करने को आवाज देती है । जब कभी अकस्मात् कोई आवाज आती है, तो बाहोश साधक यह समझ लेता है कि मेरी अन्तरात्मा ने यह आवाज दी है और उस आवाज का केवल एक ही तात्पर्य होता है-“अरे भाई ! अपने को समझ, मुझे पहचान, तू अपना पथ छोड़कर किधर जा रहा है ?" यदि ऐसी आवाज आती है तो अवस्थित व्यक्ति उत्साहपूर्वक तत्काल अपने आपका विश्लेषण करके जहाँ भी गलती होती है, तुरन्त उसे सुधार लेता है और आत्मा में पुनः सुदृढ़ता से स्थित हो जाता है। इस प्रकार आत्मा की आवाज के अनुसार चलने वाला व्यक्ति अवस्थित होकर अपनी आत्मा का शीघ्र विकास कर लेता है परन्तु जो अनवस्थित है वह आत्मा की आवाज की परवाह न करके कुमार्ग पर चल पड़ता है, अन्त में आत्मा को दुरात्मा बनाकर अनेक दुःखों में डाल देता है । अपने जीवन को सार्थक नहीं कर पाता। जो व्यक्ति जिस कार्य को अन्तरात्मा की साक्षी से करता है, वह अपने प्रत्येक कार्य के साथ अपनी अन्तरात्मा से पूछेगा कि तू जो कुछ कर रहा है, वह किस उद्देश्य से और क्यों कर रहा है ? जो इस प्रकार अन्तरात्मा से पूछकर कार्य करता है, वह आत्मा में अवस्थित है। इसलिए वह प्रत्येक कार्य मनोयोगपूर्वक करता है, जिससे कार्य में सफलता मिलती है। ऐसे अवस्थित आत्मा को कार्य करते समय और कार्य करने के पश्चात् भी आल्हाद का अनुभव होगा। इसके विपरीत जो व्यक्ति अन्तरात्मा की साक्षी से कार्य नहीं करता, आत्मा है की उपेक्षा कर देता है, जैसे-तैसे उद्देश्यरहित कार्य करता है, उसका मनोयोग कार्य . में नहीं होगा। वह किसी भी कार्य को बोझ समझकर ऊपरी मन से करेगा, For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ मनोयोगपूर्वक नहीं; वह उसे कष्ट समझेगा। उसे अपने कार्य से संतोष और सुख नहीं मिलेगा, न प्रसन्नता ही। वह अच्छे से अच्छे कार्य का भी उत्तम फल प्राप्त नहीं कर सकेगा। ऐसे व्यक्ति की आत्मा अनवस्थित होती है, इसलिए वह जानबूझकर अपनी आत्मा को दुरात्मा बना डालता है । एक उदाहरण द्वारा इसे स्पष्ट करना उचित होगा एक नौकर है। वह काम पर आते ही छुटटी का समय गिनने लगता है। थोड़ी-थोड़ी देर बाद वह घड़ी देखता है, कि कब यहाँ से छुटकारा मिलेगा । उसका मन काम में नहीं लगता, जी ऊबता है। क्या इस तरीके से वह नौकर अपना काम अच्छा और पूरा कर सकेगा ? कदापि नहीं । इस नौकर के काम बहुत ही भद्दे, अधूरे और खराब होंगे क्योंकि उसने अपनी आधी शक्ति तो छुटटी की प्रतीक्षा में गवा दी । शेष आधी से तो आधा-अधूरा काम ही हो सकता है। जिसका चित्त छुटटी में अटका है, वह बेगार समझकर काम करेगा, काम को बोझ समझेगा। ऐसा व्यक्ति छुट्टी के समय भले ही प्रसन्न हो ले, शेष समय को कुड़कुड़ाते हुए आनन्दरहित व्यतीत करेगा। दूसरा नौकर इससे विपरीत स्वभाव का है । उसे अपना काम खेल की तरह मनोरंजक प्रतीत होता है, वह पूरी दिलचस्पी के साथ कलापूर्ण कार्य करता है। अपने काम में उसे आनन्द आता है । वह इतना तन्मय हो जाता है कि छुटटी के समय की ओर ध्यान ही नहीं देता। व्यावहारिक दृष्टि से पहला नौकर अनवस्थित आत्मा की कोटि का है, जबकि दसरा नौकर अवस्थित आत्मा की कोटि का। इसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में भी अव्यवस्थित ढंग से बेगार समझकर जैसी-तैसी जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र की साधनाधार्मिक क्रिया करता है, वह अनवस्थित आत्मा की कोटि में है। वह अपनी साधना या क्रिया को भाररूप समझता है, उसे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं होती, न उसके प्रति श्रद्धा और लगन ही होती है । ऐसी आत्मा अनवस्थित है, जो आगे चलकर दुरात्मा बन जाती है । अनवस्थित आत्मा निरुत्साह, निरानन्द, निराश-हताश हो जाता है । नीतिकार कहते हैं निरुत्साह, निरानन्दं निर्वीर्यमरिनन्दनम् । मा स्म सीमंतिनी काचिज्जनयत्पुत्रमीदृशम् ॥ --कोई भी नारी निरुत्साह, आनन्दशून्य, निर्वीर्य एवं शत्रु को खुश करने वाले पुत्र को जन्म न दे। इसके विपरीत जो साधक पूरी श्रद्धा, भक्ति, लगन, दिलचस्पी एवं तन्मयता के साथ ज्ञान-दर्शन-चारित्र की साधना करता है या क्रिया करता है उस साधना या क्रिया में उसे आनन्द प्राप्त होता है, वह हंसी-खुशी से साधना में ओतप्रोत हो जाता है । अतः उसे हम अवस्थित आत्मा कह सकते हैं, जो अपनी आत्मा को उच्च कोटि के विकास की ओर ले जाता है । For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा ६ अवस्थित आत्मा साधु, श्रावक या नीतिमान गृहस्थ आदि जिस दर्जे या भूमिका पर है, उस पर पूर्ण श्रद्धा एवं वफादारी के साथ उसका पालन करता है । वह मनोयोगपूर्वक अपनी भूमिका या श्रेणी अथवा कक्षा की साधना करता है, वह उसे बोझरूप नहीं मानता, इसलिए उसे अपने दर्जे की साधना करने में कहीं भी कष्ट या पीड़ा की अनुभूति नहीं होती, बल्कि उसे अपनी कक्षा के धर्म का पालन करने में सन्तोष और आनन्द का अनुभव होता है। अपने दर्जे का धर्म-पालन करते समय और करने के पश्चात् उसे आल्हाद का अनुभव होता है । जो साधु है, वह साधुधर्म के पालन में आने वाले कष्टों को भी आनन्द के रूप में पलट लेता है । इसी प्रकार श्रावक या नीतिमान गृहस्थ के विषय में भी समझ लेना चाहिए। ऐसे अवस्थित आत्मा के हृदय में भगवद्गीता का यह श्लोक अंकित हो जाता है श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥ दूसरे के द्वारा भली-भाँति अनुष्ठित पर-धर्म की अपेक्षा वर्तमान में विगुण प्रतीत होने वाला स्वधर्म श्रेयस्कर है। स्वधर्म में मृत्यु भी श्रेयस्कर है, क्योंकि परधर्म-चाहे कितना ही लुभावना लग रहा हो, भयावह है । तात्पर्य यह है कि साधु के लिए गृहस्थ परधर्म है; जबकि गृहस्थ के लिए वर्तमान में साधुधर्म पर धर्म है। जो साधक अपने धर्म में अवस्थित रहता है उसे अपने धर्म के अन्तर्गत यम नियमों का पालन करने में भार नहीं लगता, जबकि परधर्म की ओर मन को दौड़ाने वाले, चचलचित्त साधक स्वधर्म का तो ठीक से पालन कर ही नहीं पाते, परधर्म का पालन तो बहुत दूर की बात है। चाहे कोई साधु हो या श्रावक, ऊपर से साधु या श्रावक होने का दिखावा करना और भीतर पोल चलाना, अनवस्थित आत्मा की निशानी है, ऐसा व्यक्ति आत्मवंचना करता है और दूसरों को भी धोखे में रखता है। आचारांग सूत्र में साधु को अपने स्वधर्मपालन पर जोर देते हुए कहा है ___"जाए सद्धाए निक्खंतो तमेव अणुपालिआ..." -साधु जिस श्रद्धा से घर-बार छोड़कर साधुधर्म में दीक्षित हुआ है, उसका उसी श्रद्धा के साथ पालन करे। तात्पर्य यह है कि जो साधक (साधु या गृहस्थ) जिस लक्ष्य को सिद्ध करने के लिए उद्यत हुआ है, अगर वह उसका ठीक तरह से पालन नहीं करता है, तो स्थिति विषम हो जाती है । वह लक्ष्यभ्रष्ट हो जाता है और अपनी आत्मा को दुरात्मा बना लेता है । न वह घर का रहता है, न घाट का । जैसे कोई अपने महान् ध्येय को प्राप्त करने के लिए अनगार, अकिंचन भिक्ष बना, सांसारिक सुखों का परित्याग किया, यदि वह अपने इस ध्येय से च्युत होता है, उसकी पूर्ति के लिए उद्यत नहीं रहता, वह अनवस्थित आत्मा अपनी आत्मा को दुरात्मा बना लेता है। यही बात For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० आनन्द प्रवचन : भाग ११ श्रावक या नीतिमान सद्गृहस्थ के सम्बन्ध में समझ लीजिए। ऐसे लक्ष्यभ्रष्ट व्यक्ति की आत्मा दुरात्मा बनकर अनेक दुःखों की परम्परा खड़ी कर देती है । जब आत्मा दुरात्मा बन जाती है, तब विषय, कषाय, दुराचरण, पापकर्म और सांसारिक सुख-भोग के वश होकर एक-एक योनि में अनन्त-अनन्त बार चक्कर लगाती है। ऐसी दुरात्मा दुःसह दुःख के गर्त में डाल देती है। इससे अधिक हानि पहुँचाने वाला दूसरा कौन है ? इस दुरात्मा ने आत्मा का जितना अहित किया है या करती है उतना अहित दुसरे किसी भी वैरी ने नहीं किया। इस दुरात्मा ने ही कषायादि दूसरे वैरी पैदा किये हैं। बस, अनवस्थितता मिटा दीजिए फिर आपकी आत्मा दुरात्मा न रहकर सदात्मा बन जाएगी। ___इसी प्रकार जो व्यक्ति परमात्मा का ध्यान करते समय मन को डांवाडोल करता है। इधर-उधर के विषय-बीहड़ों में इन्द्रियों को दौड़ाता है, वह अनवस्थित आत्मा है । उसकी आत्मा परमात्मा के ध्यान में स्थित नहीं है, वह अपने चित्त को बाहर भटकाता है, अपने भीतर नहीं झांकता; वह बाहर ही बाहर देखता है । ऐसी अनवस्थित दशा आत्मा को दुरात्मा बनाती है। तीरपीठ (बंगाल) में द्वारका नदी के सुरम्य तट पर तारा देवी का मन्दिर है। उस दिन कोई मेला या विशेष पर्व था, इसलिए निकटवर्ती गाँव से एक जमींदार तारादेवी के दर्शनार्थ आया । दर्शन करने से पूर्व उसने सोचा कि स्नान करके यहीं पूजा-पाठ सम्पन्न कर लिया जाए । फलतः द्वारकातट पर अपना सामान रखकर वस्त्र उतारे और स्नान करने लगा। फिर एक आसन बिछाकर पूजा-पाठ के लिए पूर्वाभिमुख बैठकर ध्यान में प्रवृत्त हुआ। उसी समय एक संत भी स्नान के लिए आये। यह महात्मा बंगाल के असाधारण तांत्रिक वामाक्षेपा थे। उधर वे स्नान कर रहे थे, इधर जमींदार परमात्मा के ध्यान में निमग्न था । जो सन्त कुछ देर पहले प्रसन्नता अनुभव कर रहे थे, सहसा उन्हें न मालूम क्या कौतुक सूझा कि प्रभुध्यानमग्न जमीदार पर पानी के छींटे मारने लगे । जमींदार ने आँखें खोलीं; जिनमें गुस्सा स्पष्टतः झलक रहा था। सन्त वामाक्षेपा बालकों-सी मुद्रा बनाकर ऐसे खड़े हो गये, मानो उन्होंने जल के छींटे मारे ही न हों, या उन्हें पता तक न हो कि कुछ अनुचित छेड़छाड़ हो रही है। जमींदार ने दुबारा आँखें मूद ली और फिर ध्यानमग्न हो गया, इधर वामाक्षेपा फिर जल उलीचकर छींटे मारने लगे-निर्द्वन्द्व, निर्भय होकर। जमींदार गर्जा-अरे ओ साधु ! अन्धा हो गया है ? दिखाई नहीं देता, मेरे पर पानी उलीच रहा है। मेरा ध्यान भंग हो गया। साधु होकर भी उपासना में विघ्न डालते हुए तुझे शर्म नहीं आती ?" वामाक्षेपा मुस्करा दिये । बोले-"उपासना को कलंकित न करो, जमींदार साहब ! भगवान का ध्यान कर रहे हो या 'मूर एण्ड कम्पनी, कलकत्ता' की दूकान से जूते खरीद रहे हो ?" यह सुनते ही जमींदार का उबलता हुआ क्रोध, जहाँ का तहाँ ऐसा बैठ गया, For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा ११ जैसे उफनते दूध पर जल के छींटे मारने से उसका उफान रुक जाता है। आश्चर्यचकित जमींदार वहाँ से उठा और साधु के चरण पकड़कर बोला-"महाराज ! सचमुच मैं ध्यान में यही सोच रहा था कि मूर एण्ड कम्पनी से जूते खरीदने हैं, कौन-सा जूता ठीक रहेगा ? आपश्री ने मेरे मन की बात कैसे जान ली ?" . साधु ने मुस्कराकर कहा-"मन को बाहर भटकाना छोड़, अन्तर में झांकी कर । रंगीन चमक-दमक और ऊपरी दिखावे की आदतें छोड़। फिर ध्यान के समय सिर्फ भगवान का ही चिन्तन कर । जिस दिन तेरा चित्त एकाग्र हो जायेगा, उस दिन ऐसी सूक्ष्म मन की बातें तू भी जान सकेगा। अतः अपने अन्दर में बैठे भगवान या आत्मदेव को देख।" जप, तप, ध्यान, चिन्तन, स्वाध्याय आदि से अवश्य ही मनुष्य का कल्याण होता है, बशर्ते कि इनके साथ मन का तार जुड़ा हुआ हो, चित्त उसी में संलग्न हो, आत्मविकास के लक्ष्य से मन बाहर न भटकता हो। इस प्रकार आत्मा अवस्थित हो जाने पर आत्मसुधार की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया भी चल सकेगी। अन्यथा कोरे भजन, स्वाध्याय, जप, तप आदि से सब सद्गुण आ जायेंगे, ऐसा सोचना भ्रान्तिमूलक है। अगर ऐसा होता तो भारत में विचरण करने वाले ६०-७० लाख साधुओं की पलटन का कभी का कल्याण हो गया होता, वे सब के सब सद्गुणी और उच्च चारित्रशील पाये जाते और उनके निमित्त से भारत ही नहीं, सारा विश्व सुधर गया होता। इसलिए यह मानकर चलना होगा कि जब तक भजनादि के साथ लक्ष्य में एकाग्रता न होगी, चित्त उसी में ओतप्रोत न होगा, बाहर के बिषय-कषायादि जंगल में नहीं भटकेगा, साथ ही अपना व्यक्तित्व सुधारने तथा आत्मनिर्माण करने की समानान्तर प्रक्रिया पूरी सावधानी और तत्परता के साथ न चलाई जायेगी, तब तक केवल भजन आदि से बेड़ा पार नहीं होगा। जिसका अन्तःकरण बाहर की मलिनताओं और विषय-वासना की गंदगी को बटोरता रहता है, वह अनवस्थित आत्मा केवल भजन आदि से कैसे सदात्मा बन जाएगी ? वह तो दुरात्मा बनकर अधिकाधिक कर्मबन्धन करती रहेगी। निष्कर्ष यह है कि जब तक आत्मा अनवस्थित रहेगी, तब तक चाहे जितने भजन आदि किये जाएं, उनसे-केवल उनसे आत्मा दुरात्मा होती नहीं रुकेगी। ___ इसी प्रकार मानव जब किसी कार्य को आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण वफादारी, दिलचस्पी, तन्मयता और लगन के साथ नहीं करता, उसकी आत्मा यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि, स्वार्थलिप्सा, लोभवृत्ति आदि में लग जाती है, वह अपने काम में सतत जागरूकता और सतर्कता नहीं रखता, तब वह अनवस्थित की कोटि में पहुँच जाती है और अनवस्थित आत्मा दुरात्मा बन ही जाती है। अवस्थित आत्मा प्रत्येक कार्य को भगवान की पूजा-सेवा समझकर पूरी सतर्कता के साथ करता है। वह समझता - है कि प्रत्येक कार्य एक कला है, चाहे वह छोटा हो या बड़ा। जिस तरह कलाकार For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ अपनी कला से प्रेम करता है, उसमें तन्मयता के साथ खो जाता है, उसके प्रति दिलचस्पी और लगन का अटूट स्रोत उमड़ पड़ता है । तब वह कार्य ही निश्चित रूप से उसके लिए वरदान बनकर उस कलाकार को धन्य बना देता है। __ रुचि, लगन और तत्परता के साथ कार्य करने से मनुष्य की शारीरिक, मानसिक शक्तियों पर नियन्त्रण और व्यवस्था कायम होती है, अन्तःक्षेत्र में उठने वाली विघटनात्मक ध्वंसात्मक वृत्तियों पर संयम होता है। उसकी बुद्धिमत्ता, शक्ति, कार्यक्षमता और सफलता को संरक्षण और पोषण मिलता है। बाह्य क्षेत्र में भी कार्य की क्रम-व्यवस्था ठीक-ठीक निर्धारित हो जाती है। जनता उसके कार्य की, उसकी क्षमता की और सामर्थ्य की प्रशंसा करती है। उसकी आत्मशक्तियां विकसित हो उठती हैं। और इस प्रकार कुल मिलाकर उस अवस्थित व्यक्ति की आत्मा श्रेष्ठ और विकासशील बन जाती है। फिर कार्य में मन न जमना, शिकायतें करना, नुक्स निकालना, कार्य की कठिनाइयों को बढ़ा-चढ़ाकर तूल देना, कार्य से घृणा करना, ऊब जाना आदि बातें अवस्थित आत्मा के जीवन में नहीं होती। अनवस्थित आत्मा ही इस प्रकार की शिकायतें करके कुड़कुड़ाता हुआ, दुःखित होता हुआ कार्य करता है । ऐसा करने से उसकी आत्मा को कोई यथेष्ट लाभ नहीं हो पाता। आत्मशक्तियां कण्ठित हो जाती हैं । आलस्य, प्रमाद, असावधानी और लापरवाही उसकी कार्यक्षमता को नष्ट कर देती हैं। फिर भला, उसकी आत्मा दुरात्मा होकर दुःखों की परम्परा न बढ़ायेगी तो क्या करेगी ? एक व्यावहारिक उदाहरण देकर मैं अपनी बात को स्पष्ट कर दूं एक छोटे बच्चे एडिसन को उसकी माँ वैज्ञानिक बनाने के विचार से एक बड़े वैज्ञानिक के पास ले गई और उससे प्रार्थना की-अपने बच्चे को पास रखने की। उस वैज्ञानिक ने बच्चे को अपने पास रख लिया और मकान में झाडू लगाने का काम सौंपा। बालक बड़ी तन्मयता के साथ मकान में झाडू लगाता, मकान के कोने, दीवारें, छतें, आलमारियां, फर्श आदि को वह खूब साफ रखता। वैज्ञानिक बालक एडिसन की कार्यकुशलता से बहुत प्रसन्न हुआ और यही बालक उस वैज्ञानिक की देखरेख में आगे चलकर महान् वैज्ञानिक बना। यदि बालक पहले ही यह सोच लेता कि यहां तो झाडू लगाने का काम है, यहां क्या सीखने को मिलेगा ? तो शायद ही वह अपने जीवन में महानता को प्राप्त करता, बल्कि वह साधारण लोगों की तरह ही अपना जीवन बिताता। यही बात आध्यात्मिक क्षेत्र में समझिये । जिस व्यक्ति की तन्मयता, रुचि और लगन साधना के छोटे से छोटे कार्य में नहीं होती, वह दूसरों की तरक्की को देखकर ईर्ष्या, घृणा और द्वष से भर जाता है, वैभव और विलासिता के स्वप्न देखने लगता है, और अन्त में, चित्त में अस्थिरता के कारण वह किसी भी साधना, किसी भी धर्मकार्य में जम नहीं पाता । वह अनवस्थित आत्मा अपने ही लिए दुःखपूर्ण कब्र खोद लेता है। जीवन का सच्चा आनन्द उसे नहीं मिल पाता । For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा १३ परन्तु जो व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करना चाहता है, वह पूरी तीव्रता, तन्मयता और तल्लीनता के साथ अपनी साधना में लग जाता है, वह छोटे-से बालक से भी प्रेरणा लेकर अपनी साधना में आये हुए गतिरोध को समाप्त कर देता है। ___ महात्मा 'निष्कम्प' नगर के बाहर उपवन में रुके थे। जिज्ञासु साधक उनसे ज्ञानलाभ लेने पहुँचे । विद्रप नामक साधक भी इस अवसर का लाभ उठाने पहुँचा । विद्र प यों तो परमार्थ एवं आत्मकल्याण की साधना में रत था, किन्तु उसकी साधना में भौतिक वैभव बाधक बन रहा था, जिसके कारण गतिरोध हो गया था। अतः निष्कम्प महात्मा को प्रणाम करके उनके चरणों में उसने सविनय निवेदन किया और कहा"भौतिक वैभव छोड़ा भी नहीं जाता और बिना छोड़े यह साधना में बाधक बनता है, कृपया कोई मार्ग बतलाएँ ।” ___ महात्मा हंसकर बोले- "वत्स ! तुम्हारी साधना को अपच हो गया है । उसे हलका आहार दो।" विद्रप इस रहस्यमय बात को समझ न पाए, अवाक् खड़े रहे । महात्मा ने उनकी मनःस्थिति समझकर कहा-“मस्तिष्क पर अधिक तनाव मत दो। अपने खेल में तल्लीन बच्चों की गतिविधि में रस लिया करो; वहीं तुम्हारे प्रश्न का व्यावहारिक उत्तर तुम्हें प्राप्त हो जाएगा।" विद्रप मन ही मन विकल्पों के बहाव में बहने लगे-'बच्चों के खेल में इस प्रश्न का उत्तर ? कैसे पूछे ?' फिर भी वे साहस करके बोले-"भगवन् ! स्वयं अपने श्रीमुख से शंका-निवारण कर दें तो अतिकृपा होगी।" महात्मा ने मुस्कराकर विद्रप की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- "वत्स ! शब्द की अपेक्षा क्रिया से जल्दी शिक्षण मिलता है, वह अधिक उपयोगी भी होता है। बच्चों के खेल से क्या शिक्षा मिलेगी? यह शंका तुम्हारे मानस में मंडरा रही है, परन्तु ध्यान रखो, यह संसार एक प्रकार का क्रीडांगण है, हम सब उसी क्रीडांगण में खेलने वाले प्रभु-पुत्र बालक हैं। ऋषि दत्तात्रेय को जब प्रकृति और जीव-जन्तुओं से शिक्षा मिल सकती है तो क्या तुम्हें बच्चों से शिक्षा न मिलेगी ? जाओ, मनोयोगपूर्वक प्रयास करो।" विद्रप प्रणाम करके लौट आए । आदेशानुसार उन्होंने क्रीड़ारत बालक-बालिकाओं को देखना प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में ही उन्हें अन्तःकरण में हलकापन महसूस हुआ। उन्होंने पाया कि बच्चे खेल के समय कितने तन्मय, कितने एकाग्र और तद्रप हो जाते हैं, उन्हें अपने खाने-पीने या अन्य आवश्यकताओं की भी सुध नहीं रहती। महात्मा विद्रप भी उसी प्रकार अपने साधनाप्रधान कार्यों में तन्मय होने लगे । प्रश्न का पूरा उत्तर अभी तक न मिला तो भी सहज शान्ति मिलने लगी । और एक दिन अचानक उनके गम्भीर प्रश्न का उत्तर उन्हें मिल गया। उन्हें मानो बच्चों के खेल से For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ दिव्य दृष्टि मिल गई । जिस प्रकार बच्चों को अपने खेल में वैभव, विलास, खान-पान आदि की याद नहीं आती, वैसे ही साधक विद्रूप को भी अब अपनी साधना में तन्मयता के कारण वैभव, विलास, खान-पान आदि की याद नहीं आती । नाम, यश, कीर्ति, प्रसिद्धि, वैभव आदि सब साधना के आनन्द के आगे फीके लगने लगे । हाँ, तो मैं कह रहा था कि जब साधक अन्तःकरण से अपनी साधना में तन्मय हो जाता है, तब उसकी अवस्थित आत्मा सांसारिक वैभव, प्रसिद्धि, यश-कीर्ति, धन तथा सुख - सामग्री के बीहड़ में नहीं भटकती । उसका आत्मिक वैभव, आत्मबल चमक उठता है । परन्तु जब अपनी साधना में साधक की तन्मयता नहीं होती, तब वह सांसारिक एवं भौतिक वैभव की चमक-दमक में उलझ जाता है, आडम्बरप्रिय हो जाता है, भौतिक चमत्कार दिखाने और अपनी सिद्धियों का प्रदर्शन करने में लग जाता है । इस प्रकार अपनी आत्मा को साधना पथ से भटकाकर दुरात्मा बना देता है । साधनाशील व्यक्ति के चित्त में जब एकाग्रता नहीं होती, तब उसके सामने अनेक आकांक्षाएँ, तमन्नाएँ, अभिलाषाएँ मुँह बाए खड़ी होती हैं । उसका चित्त डांवाडोल हो उठता है, वह निश्चय नहीं कर पाता कि किसको पकडू । ऐसी अनवस्थित मनोदशा में आत्मा सफलतापूर्वक कुछ भी नहीं कर पाता । सारी जिंदगी यों ही सोचने-विचारने में पूरी हो जाती है । जो कार्य करना था वह नहीं कर पाता । किन्तु जिसके चित्त में एकाग्रता होती है, वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति एक ही लक्ष्य में केन्द्रित करके लगा देता है । वह देख-परख लेता है कि जिस वस्तु के लिए मेरी सक्रियता सम्पूर्ण शक्ति से गतिशील हो सकती है, वही वास्तविक उपादेय आकांक्षा है, बाकी की तो सिर्फ तरंगें हैं; जो समय-समय पर मानस सिन्धु में उठती रहती हैं । उन तरंगों के मध्य एक द्वीप की भांति जो अविचल रहती है, वही उसकी सच्ची तमन्ना है । इसलिए वह उस एक तमन्ना को पकड़कर उसी में अपना तन-मन सर्वस्व लगा देता है । फिर इधर-उधर की चकाचौंध में, वैभव की चमक-दमक में, भौतिक आकर्षणों और प्रलोभनों में वह नहीं फँसता । ऐसा व्यक्ति ही अपनी अवस्थित आत्मा को संसार समुद्र से पार ले जाता है । अनवस्थित आत्मा किसी विषय में झटपट निर्णय नहीं ले सकती । कौन-सा कार्य पहले करना है, कौन - सा बाद में इस सम्बन्ध में अनवस्थित साधक घंटों सोचते रहेंगे, फिर भी एक निश्चय पर नहीं पहुँच सकेंगे । उनकी निर्णायक शक्ति कुण्ठित हो जाती है । एक यात्री अपने मित्र के साथ बम्बई जा रहा था । सुबह का समय । लोकल ट्रेनों में बहुत भीड़ । वे तीन ट्रेनें चूक गये । चौथी ट्रेन में चाहे जैसे भी चढ़ने का निश्चय किया । धक्का-मुक्की में दोनों मित्र अलग-अलग हो गये । चर्चगेट स्टेशन पर उतर कर देखा तो मित्र गायब ! फिर वह मित्र दूसरी ट्रेन में आया । उसके प्रतीक्षारत मित्र ने उससे पूछा - " क्या हुआ ? देर से कैसे पहुँचे ?" वह मित्र बोला - "ट्र ेन रवाना हो गई थी ।" प्रतीक्षारत मित्र ने पूछा - "कैसे ?” For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस्थित आत्मा ही बुरात्मा १५ वह बोला - " गाड़ी तो प्लेटफार्म पर खड़ी थी, पर मैं यह निश्चय न कर सका कि किस डिब्बे में चढू । इधर से उधर भाग-दौड़ में ट्रेन रवाना हो गई ।” इस मित्र के जीवन में किसी भी कार्य में निश्चय न होने से सफलता नहीं मिली। न तो वह शादी कर सका, न कोई व्यवसाय स्थिरतापूर्वक कर सकता । बिलकुल हताश, उदास ! 'क्या करें ?" इस बात का निश्चय न कर सकने वाले व्यक्तियों का आधार टूट जाता है । यही बात आध्यात्मिक क्षेत्र में असफल व्यक्तियों के सम्बन्ध में समझ लीजिए । वे साधना के बारे में निश्चय नहीं कर पाते, आखिर वे तुलना करने लगते हैं— अमुक की साधना जैसी तो मेरे से नहीं हो सकती, फिर व्यर्थ है कुछ भी करना ! यों वे आत्मशक्तियों को कुण्ठित कर देते हैं, जान-बूझकर अशक्ति और असमर्थता के दलदल में फँसाकर वे आत्मा को दुरात्मा बना देते हैं । जो व्यक्ति संयोगों और व्यक्तियों के साथ अपनी तुलना किया करते हैं, उनके पल्ले अश्रद्धा और निराशा के सिवाय कुछ भी नहीं पड़ता । स्वामी विवेकानन्द के एक गुरुभाई थे – हृदयानन्द ! उन्होंने एक दिन स्वामी जी से कहा - " स्वामीजी ! मेरा संन्यास तो व्यर्थ गया ?" स्वामीजी ने पूछा – “कैसे ?” वे बोले – “स्वामी आत्मानन्द जैसी साधना तो मेरे से हो नहीं सकती ।" स्वामीजी - " तो फिर शुरू करिये न ?” हृदयानन्द – “कहाँ स्वामी आत्मानन्द और कहाँ मैं ?" स्वामीजी - " यह तुलना ही गलत है । आप अपनी जगह पर एकदम ठीक हैं । जो साधक तुलना करने में पड़े रहते हैं, वे शायद ही कुछ कर सकते हैं । इतना याद रखेंगे, तभी आप आगे बढ़ सकेंगे ।" पर अनवस्थित साधकों की यह आदत छूटती नहीं । उन्हें स्वयं तुलना करना नहीं आएगा तो वे दूसरों से पूछते फिरेंगे । ऐसे कई निठल्ले लोग भी होते हैं, जिनके पास कोई पूछने नहीं जाता, तो भी वे बिना माँगे सलाह देते रहते हैं । और अनवस्थित साधक उनके चक्कर में आ जाता है । पर जो साधक अवस्थित होता है, जिसे अपने में आत्मविश्वास होता है, जिसमें निश्चय करने का सामर्थ्य होता है, वह दूसरों के चक्कर में नहीं आता । विख्यात फ्रेंच चित्रकार पाब्लो पिकासो आधुनिक चित्रकला का पितामह माना जाता है । उसके पास एक कला-विवेचक ने आकर कहा - " आपके चित्र मुझे तो अच्छे नहीं लगते । " उसने दृढ़ता से उत्तर दिया – “उसकी मुझे क्या परवाह ! आपको चित्र अच्छे लगें या न लगें, उसके साथ मेरी कला का कोई वास्ता नहीं है । " इस प्रकार के निश्चयशील व्यक्ति ही किसी क्षेत्र में उन्नति कर सकते हैं । For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ आध्यात्मिक क्षेत्र में ऐसे ढच्चु-पच्चु और अनिश्चयात्मक स्थिति में पड़े रहने वाले साधक किसी भी साधना को ठीक ढंग से नहीं कर पाते। वे बात-बात में निर्णय बदल डालते हैं, अपने वचन के पाबन्द नहीं रहते । उन्हें यह भय सताता रहता है कि यदि मेरे से यह साधना नहीं हुई तो लोग हँसेंगे, मेरी खिल्ली उड़ाएंगे, मेरी प्रतिष्ठा को आंच लगेगी। परन्तु यह निश्चय समझिए कि ऐसे अनवस्थित आत्मा अपनी आत्मशक्तियों का, आत्मगुणों का विकास नहीं कर पाते जबकि दूसरे उनके समकालीन साधक बाजी मार जाते हैं । एक सरकारी कर्मचारी था। उसके कार्यालय में उसकी मेज पर रोज १५. : २० कार्यों की सूची पड़ी रहती। परन्तु वह कार्यालय में जाकर उस सूची को देखते ही घबरा जाता, निर्णय नहीं कर पाता और मन ही मन सोचता रहता-'यह काम हाथ में लू या वह काम ?' यों प्रतिदिन उसके दो-ढाई घंटे सोचने ही सोचने में खराब हो जाते । फिर वह किसी एक काम को शंकाग्रस्त मन से हाथ में लेता, थोड़ा सा वह काम करता भी सही, किन्तु कुछ ही देर बाद वह उस कार्य से ऊब जाता, उस कार्य में आने वाली कठिनाइयों और कष्टों से घबराकर उसे अधबीच में ही छोड़ देता । फिर दूसरा काम उठाता, उसमें भी यही दशा होती । फिर तीसरा कार्य उठाता। यों इसी आपाधापी में उसका सारा दिन पूरा हो जाता, अन्त में एक भी कार्य पूरा नहीं होता। अगर वह कर्मचारी एक ही कार्य को हाथ में लेकर उसी में अपना चित्त ओतप्रोत कर देता तो शाम होते-होते ५-७ काय तो पूरे कर ही डालता । भला, ऐसे कर्मचारी कहीं तरक्की कर सकते हैं ! आध्यात्मिक क्षेत्र के ऐसे साधक जो ढच्चु-पच्चु मन से साधना करने लगते हैं, अपने क्षेत्र में कोई भी उन्नति प्रगति नहीं कर पाते । वर्षों तक साधना करने पर भी वे वहीं के वहीं रहते हैं, साधना की वर्णमाला ही घोंटते-घोंटते जिन्दगी पूरी हो जाती है, आत्मा का कोई कल्याण, हित या विकास नहीं कर पाते । ऐसे अनवस्थित साधक अपनी आत्मा को दुरात्मा बना लेते हैं। ऐसे अनवस्थित व्यक्ति आत्महीनता के शिकार हो जाते हैं । वे हर अच्छे कार्य में अपने आपको दुर्बल, असमर्थ और शक्तिहीन मानने लगते हैं। उन्हें हर कार्य अपनी शक्ति से बाहर का लगता है। उनके मन में बार-बार आशंका और भीति के बादल उठते रहते हैं कि अमुक काम हाथ में लिया तो हो सकता है, कोई नई आफत खड़ी हो जाए या किसी संकट में पड़ जाएं। आत्महीन व्यक्ति नाना प्रकार के बहम, भ्रम, न्यूनताएं, निर्बलताएं, भीतियां, कुकल्पनाएँ और आशंकाएं पाले रहते हैं। उन्हें कोई किसी अच्छे कार्य के लिए प्रोत्साहित और उत्तजित भी करता है तब भी वे भयभीत रहते हैं। उनके उद्गार प्रायः ये ही रहते हैं-अमुक कार्य हमारे बलबूते का नहीं है, भला हम उसे किस प्रकार कर सकते हैं ? हम ऐसा खतरा क्यों मोल लें? आत्महीनों की कई कोटियाँ होती हैं, कोई अपने आपको शरीर से निर्बल, For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनवस्थित आत्मा ही दुरात्मा १७ कोई विद्या बुद्धि से रहित, कोई धनहीन, तो कोई साधनहीन बताकर अपने भाग्य को या परमात्मा को कोसता है, कोई परिस्थितियों का रोना रोता है । वस्तुत: आत्महीनता अनवस्थित दशा में से पैदा होती है, और वह मनुष्य की आत्मा को दीन-हीन, कंगाल और तुच्छ बना देती है । आत्महीनता के कारण कोई भी व्यक्ति चाहे जितना बुद्धिमान हो, क्रियाकांडी हो, धनाढ्य हो, आत्मिक उन्नति नहीं कर पाता, उसे गई - बीती स्थिति में ही अपनी जिंदगी काटने को विवश होना पड़ता है । ऐसे आत्महीनता से ग्रस्त व्यक्ति में आशा, आकांक्षा, आत्मविश्वास, आत्मबल, साहस आदि उन्नति और प्रगति के आधारभूत गुणों का सर्वथा अभाव-सा होता है । ऐसे आत्महीन लोग अपनी आत्मा को जानबूझकर दुरात्मा बना देते हैं । व्यावहारिक क्षेत्र में वे प्रायः दूसरे लोगों के धन-वैभव, कारबार, मान-सम्मान, पदप्रतिष्ठा आदि पर दृष्टि गड़ाये रहते हैं, और उन्हें बड़ा आदमी मान बैठते हैं, जिनके पास ये साधन हों। फिर उनकी स्थिति से अपनी तुलना करके ऊहापोह में पड़े रहते हैं। तभी उनमें आत्महीनता के अंकुर पनपने लगते हैं । जो व्यक्ति आत्मविश्वासी हैं, अपने आप में अवस्थित हैं, वे चाहे जैसी परिस्थिति में हों लेकिन आत्महीनता के शिकार नहीं होते । वे उत्साह, साहस और आत्मबल के आधार पर आगे बढ़ते हैं । आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यही बात है । आत्महीनता को जो पास में नहीं फटकने देते, वे ही आध्यात्मिक क्षेत्र में विजयी होते हैं, आत्मविकास में सफल होते हैं । 1 जो आत्माएँ अवस्थित दशा में होती हैं, उनमें दृढ़ संकल्पशक्ति होती है । वे जब दृढ़ संकल्प कर लेते हैं तो इससे उनकी शारीरिक, मानसिक एवं अन्य शक्तियों को बहुत बड़ा बल मिलता है । एक व्यावहारिक उदाहरण लीजिए । ५५ वर्ष की आयु में अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध लेखक 'सर वाल्टर स्काट' पर बीस लाख रुपयों का कर्ज हो गया था । उन्होंने निश्चय किया कि वह कर्ज पूरा-पूरा चुकाएंगे। इस दृढ़ संकल्प से उनके मन के प्रत्येक परमाणु को बल मिला। शरीर के प्रत्येक तन्तु से यही ध्वनि निकलने लगी कि 'कर्ज अवश्य चुकाना चाहिए।' वे साहित्यलेखन से धनोपार्जन करने लगे और कर्ज चुकाने में लग गये । आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि उन्होंने कुछ ही वर्षों में सारा कर्ज चुकाकर अपने संकल्प को पूर्ण किया । दृढ़संकल्पी व्यक्तियों की आत्मा अवस्थित होती है, उनके लिए असम्भव जैसा कुछ नहीं होता । परन्तु जो निर्बल विचारों के, अन्यमनस्क एवं अनिश्चयात्मक स्थिति वाले व्यक्ति होते हैं, उनका कोई भी कार्यं पूर्ण नहीं होता । प्रत्येक कार्य में उनका मनोबल गिरा रहता है । ऐसी आत्मा अनवस्थित दशा वाली होती है । वह क्या व्यावहारिक, क्या आध्यात्मिक सभी क्ष ेत्रों में असफल होते हैं । मनोविकारों के आगे घुटने टेक देते हैं, आध्यात्मिक विचारों पर डटे नहीं रहते और अन्त में अपनी आत्मा को दुरात्मा बना देते हैं । For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ वानन्द प्रवचन : भाग ११ इसी प्रकार जो व्यक्ति कार्य प्रारम्भ करने के बाद बीच में धैर्य खोकर उसे छोड़ बैठते हैं, कठिनाइयों से घबरा जाते हैं, वे अनवस्थित कहलाते हैं। ऐसे व्यक्ति न तो अपने आत्मबल पर भरोसा रखते हैं और न धैर्य से काम लेते हैं, वे हतोत्साह होकर साधना भी अधबीच में छोड़कर भाग जाते हैं। ऐसे अनवस्थित व्यक्ति अपनी मात्मा को दुरात्मा बना लें, इसमें क्या सन्देह है ? जो चारित्रभ्रष्ट होते हैं, वे भी अपने चारित्र की साधना को अश्रद्धापूर्वक छोड़कर असंयम, कुशील और व्यभिचार के मार्ग पर सरपट दौड़ने लगते हैं, वे न तो अपनी इन्द्रियों पर लगाम रख सकते हैं, और न ही अपने मन पर, फलतः अपनी समस्त कार्यक्षमता और शक्ति को निचोड़ डालते हैं। असमय में ही मन से वृद्धत्व आ जाता है । इन सबका कारण अपनी आत्मा की अनवस्थितता है । जिसके कारण बे केवल तन, मन, बुद्धि एवं इन्द्रियों का ही नहीं, अपनी आत्मा का भी सर्वनाश कर बैठते हैं। व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से देखें तो ऐसा अनवस्थित पुरुष केवल अपना ही नहीं, अपने स्त्री-बच्चों का भी बहुत बड़ा अहित कर बैठता है; अपने उज्ज्वल भविष्य को आग लगा देता है । परन्तु अवस्थित आत्मा धैर्य, गाम्भीर्य के साथ कठिनाइयों का सामना करते हैं । वे चारित्रभ्रष्टता के पथ पर जाने का स्वप्न में भी नहीं सोचते । इसलिए एक दिन अपनी आत्मा को विकास के उच्चशिखर पर पहुँचा देते हैं । बन्धुओ ! महर्षि गौतम इसीलिए चेतावनी के स्वर में कह रहे हैं कि अगर तुम किसी भी प्रकार से अनवस्थित बनोगे तो अपनी आत्मा को दुरात्मा बना बैठोगे । इससे बचना तुम्हारे जैसे भव्य पुरुष के लिए आवश्यक है। अनवस्थित जीवन हेय है, अवस्थित जीवन ही उपादेय है। For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. जितारमा ही शरण और गति-१ धर्मप्रेमी बन्धुबो ! आज मैं आपके समक्ष ऐसी आत्मा की चर्चा करना चाहता हूँ, जो विजयी है, विजित है, जिसने बाह्य युद्ध में नहीं, आन्तरिक युद्ध में विजय प्राप्त कर ली है। गौतम कुलक का यह ५०बी जीवनसूत्र है । महर्षि गौतम ने इस सूत्र को इस हंग से प्रस्तुत किया है "अप्पा जिअप्पा सरणं गई अ।" _ "ऐसी आस्मा, जो जितात्मा है, वही भव्यजीवों के शरणयोग्य और गतिप्रगतिप्रेरक होती है ।" जितात्मा क्या है ? जितात्मा कौन और कैसे बन सकता है ? और वही भव्यजीवों के लिए शरणदाता वीर गति-प्रमतिप्रेरक क्यों हो सकता है, अन्य क्यों नहीं ? आइए, इन जीवन-स्पर्शी प्रश्नों पर गहराई से विचार कर लें। जितात्मा की व्याख्या आत्मा शब्द केवल आत्मा अर्थ में ही नहीं है, उसके संस्कृत भाषा में अनेक अर्थ बताये गये हैं। देखिये, अमरकोश में आत्मा शब्द के विभिन्न अयों की अभिव्यक्ति 'आत्मा बत्नो अतिर्बुद्धिः स्वभावी, ब्रह्म वम च।' आत्मा के यत्न, धर्य, बुद्धि, स्वभाव, स्व, ब्रह्म (आत्मा या परमात्मा) एवं शरीर, मन, इन्द्रिय आदि अनेक अर्थ होते हैं। इस दृष्टि से विजितात्मा के भी निम्नलिखित अर्थ फलित होते हैं (१) पुरुषार्थ पर विजय पाने वाला (२) धैर्य का विजेता (३) बुद्धि पर विजयी (४) स्वभाव को जीतने वाला (५) आत्मजयी—अपने आप पर विजय पाने वाला । (६) परमात्मतत्त्व को भी अपने गुणों से जीतने वाला। (७) शरीर, मन एवं इन्द्रियों पर विजय पाने वाला । जितेन्द्रिय, या मनो. For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० आनन्द प्रवचन : भाग ११ मैं अब क्रमशः प्रत्येक अर्थ पर संक्षेप में अपने विचार प्रस्तुत करूंगा । जितात्मा : पुरुषार्थ पर विजयी यों तो मनुष्य भौतिक क्षेत्र में आज अथक पुरुषार्थं कर रहा है । भौतिक विज्ञान आज एक से एक बढ़कर नित नये आविष्कारों के सम्बन्ध में पुरुषार्यरत है । पाश्चात्य देश भौतिक प्रयत्न की दौड़ में आज सबसे आगे हैं । भारतवर्ष भी पश्चिम का अनुकरण करके इस दिशा में काफी गति प्रगति कर रहा है । परन्तु भौतिक क्षेत्र में पुरुषार्थ करने वाले व्यक्ति को यहाँ जितात्मा नहीं कहा गया है। यहाँ तो उसी पुरुषार्थ का या यत्न का स्वीकार किया गया है, जो आध्यात्मिक क्षेत्रीय हो; यहाँ पुरुषार्थजयी या प्रयत्नजयी उसे ही कहा गया है, जो आत्मसंयम में पुरुषार्थ करने से पीछे न हटता हो, अनवरत अथक प्रयत्न उसी दिशा में करता हो, बन्धन ( कर्मबन्धन) से मुक्त होने (मोक्ष पाने) के पुरुषार्थं में सतत रत हो। जिसके सामने आलस्य, अकर्मयता, पुरुषार्थहीनता, परमुखापेक्षिता या पराश्रयता एक क्षण भी टिक न सकती हो, संयम में पुरुषार्थ करने में वह अपने मन, वचन और तन तीनों को एकजुट करके पूरी शक्ति से जुटा हुआ हो संयमलक्षी पुरुषार्थ में वह कदापि बहानेबाजी, टालमटूल, कालक्षेप, या उपेक्षा न करता हो; बल्कि नई-नई स्फुरणा से वह अदम्य उत्साह, दृढ़ मनोबल, अविचल धैर्य, स्पष्ट सम्यग्दर्शन, अमिट विश्वास, अटूट साहस एवं परिपक्व विचारों का पाथेय लेकर अभीष्ट ध्येय की ओर सतत गतिशील रहता हो । इस पुरुषार्थ के मार्ग में आने वाले विघ्नों, संकटों, बाधाओं, असुविधाओं, भय और प्रलोभनों के आक्रमणों से वह कभी न घबराता हो । इस अनुपम पुरुषार्थ से वह कभी थकता न हो, न ऊबता हो, और न ही श्रद्धाहीन होकर, या फल प्राप्ति न होने से यथार्थ श्रय मार्ग छोड़कर लुभावना प्रोय-मार्ग पकड़ता हो । अविद्या उसे बहका नहीं सकती, विघ्नबाधाएं उसे रोक नहीं सकती । वह अपने लक्ष्यानुकूल मार्ग पर सतत यात्रा करता रहता है । यही उसकी पुरुषार्थजयिता का प्रमाण है; यही उस पुरुषार्थविजेता, यत्नविजयी की पहचान है । ऐसे विजितात्मा संयम में पुरुषार्थ के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि उनके प्रत्येक श्वासोच्छ्वास में स्वतः ही संयम का स्वर निकलता है । । श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार के अप्रतिम पुरुषार्थी एवं सतत जागरूक रहकर अनायास ही संयम में पराक्रम करते थे। जब वे लाढ देश जैसे अनार्य एवं कठोर प्रदेश में गये, तब उनके संयम पालन के पुरुषार्थ में अनेकानेक विघ्न-बाधाएँ आईं, बहुत-सी यातनाएं, परीषह और उपसर्ग की सेनाएं उन पर हमला करने आईं, किन्तु वे उनसे जरा भी विचलित हुए बिना आत्मजयी बनकर टिके रहे । संयम में पुरुषार्थं करने वाले जितने भी महामनीषी संसार में आये, उन्होंने अपनी सुख-सुविधाओं की कोई परवाह नहीं की । सुख-सुविधाएं बढ़ाने से सुख नहीं कढ़ता, बल्कि नई-नई चिन्ताएं, समस्याएं और आफतें खड़ी होती है, मनुष्य को हर बात में परावलम्बी और परमुखापेक्षी बनना पड़ता है । इसीलिए तीर्थंकरों ने वास्त For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति-१ २१ विक सुखवृद्धि और स्वावलम्बिता के लिए 'संयम' का पथ बताया। यद्यपि संयम शब्द सुनते ही आप लोग झटपट यही अर्थ लगाने लगते हैं कि साधु जीवन अंगीकार कर लेना, घर-बार, कुटुम्ब-परिवार और धन-सम्पत्ति सब कुछ छोड़कर साधु बन जाना परन्तु संयम का ऐसा संकुचित अर्थ ही नहीं है अपितु उसका व्यापक अर्थ है ब्रह्मचर्य; जिसके अन्तर्गत इन्द्रियों और मन; वासना और विकारों या सभी प्रकार की कामोत्तजना पर नियंत्रण आ जाता है। इसलिए संयम में पुरुषार्थ करने वाला विजितात्मा कहलाता है। कहते हैं, परमाणु शक्ति को धारण करने वाला बम इतनी शक्तिशाली धातु का बना होता है कि बाहरी आघात का उस पर कोई असर नहीं होता है। इतनी कठोर और सुदृढ़ धातु का आवरण उस पर न चढ़ाया जाए तो किसी भी क्षण उसका विस्फोट होने का खतरा रहता है । मनःशक्ति के संगठित होने से आत्मा की चैतन्य शक्ति भी बढ़ती है। इस शक्ति को धारण करने के लिए बलिष्ठ शरीर की आवश्यकता होती है। उपनिषद् के अध्यात्मवादियों ने कहा है "बलवति शरीरे बलवान् आत्मा निवसति" "नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः" -बलवान् शरीर में ही बलवान् आत्मा का निवास होता है। -बलहीन इस आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः आत्मविजय के साधक को बलिष्ठ शरीर के लिए अपनी शारीरिकमानसिक शक्तियों, आवेगों आदि पर नियंत्रण करना आवश्यक है। एक ओर से शक्ति को सतत तप, संयम, सहिष्णुता के लिए श्रम से, साधना से और एकाग्रता से संचित करना और दूसरी ओर से इन्द्रिय और मन के छिद्रों को विविध विषय-कषायों के बीहड़ में स्वच्छन्द विचरण करने से रोकना अनिवार्य है। इस प्रयत्न और पुरुषार्थ का फल संयम से ही मिलता है । जो अपने आवेगों, आवेशों, वासनाओं और निकृष्ट इच्छाओं को वश में रखता है, वही आत्मविजय का सच्चा अधिकारी है । आवेगों और उत्तेजनाओं को, तथा वासनाओं और विषयासक्ति को निरन्तर काबू में रखने का नाम ही संयम है, उस संयम के लिए पुरुषार्थ करना ही जितात्मा का लक्षण है । आवेग और वासनाएं मन में होती हैं, फिर उनका प्रभाव और प्रतिक्रिया इन्द्रियों पर पड़ती है। इसलिए संयम में पुरुषार्थी को अवांछित बातों और विपरीत परिस्थितियों से सतत जूझने की मानसिक दक्षता होनी चाहिए। ये अनिष्ट बातें उसके मस्तिष्क को उत्तेजित न कर सकें, यही संयम की कसौटी है। भारतीय संस्कृति के उन्नायकों ने संयम में पुरुषार्थ को जीवन का आवश्यक और दुर्लभ अंग बताया है। संयम को हम ब्रह्मचर्य का पर्यायवाची भी कह सकते हैं। वस्तुतः संयम-ब्रह्मचर्य के अभाव में मनुष्य के उत्कृष्ट जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जिसका जितना अधिक संयम में पराक्रम होगा, उसका व्यक्तित्व उतना For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ ही प्रखर, तेजस्वी और शक्तिमान बनेगा, वही दूसरों को शरण दे सकेगा, प्रभावित एवं प्ररित कर सकेगा । २२ अपने राम और रावण के युद्ध का जब प्रथम दौर चल रहा था, तब रावण ने पुत्र और सर्वोच्च सेनापति मेघवाद को ही सर्वप्रथम लड़ने भेजा । मेघनाद पर युद्ध में विजय का रावण को पूर्ण विश्वास था । मेघनाद को युद्ध के लिए आता देख्ख राम पीछे हट गये और लक्ष्मण से बोले - "भैया ! तुम्हें ही मेघनाद से युद्ध करना है ।" कैसी विचित्र बात थी ! अपार शक्तिशाली राम को मेघनाद से लड़ने में स्वयं पीछे हटकर लक्ष्मण को ही उसका सामना करने क्यों भेजना पड़ा ? स्वयं श्रीराम ने इसका स्पष्टीकरण किया है - "लक्ष्मण ! मेघनाद १२ वर्षों से तप कर रहा है, वह ब्रह्मचारी है, और तुम १४ वर्ष से ब्रह्मचारी हो । मेरे साथ रहकर निष्ठापूर्वक तपस्वी एवं संयमो जीवन तुमने बिताया है । इसलिए तुम ही मेघनाद को पराजित कर सकते हो ।" सचमुच लक्ष्मण की ब्रह्मचर्य - शक्ति ने मेघनाद - इन्द्रजीत को हरा दिया । लक्ष्मण सचमुच ही जितात्मा थे । भीष्म पितामह को कौन नहीं जानता । वे महाभारत युद्ध में अपराजेय तथा समस्त कौरव पाण्डवकुल के आदरणीय एवं विश्वस्त पुरुष रहे, उनकी प्रचण्ड शक्ति का मूल ब्रह्मचर्यं ही था । स्वामी विवेकानन्द, उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस, महर्षि दयानन्द आदि संसार में जो कुछ अद्भुत कार्य कर सके, उनका मूल उनका ब्रह्मचर्य - पूर्ण संयमी जीवन ही था । स्वयं महात्मा गांधी का जीवन भी उसी समय से प्रका में भाषा, जब उन्होंने अखण्ड संघम (ब्रह्मचार्य) पालव की प्रतिज्ञा ली । यह ध्रुव सत्य है कि विषय-भोगों में मनुष्य को सुख नहीं मिल सकता । भगवद्गीता में स्पष्ट कहा है ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय ! न तेषु रमते बुधः ॥ — जो ये इन्द्रियों और विषयों के सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले भोग हैं, वे निःसन्देह दुःख के ही कारण हैं और नाशवान हैं। हे अर्जुन ! इसीलिए बुद्धिमान पुरुष उनमें रमण नहीं करते । उत्तराध्ययन सूत्र में भी कामभोगों को अनर्थंकारक कहा है खाणी अणत्थाण उ कामयोगा ।" कामभोगाणुराएणं केसं संपड़िवज्जइ । - कामभोग अनर्थों की खान हैं । --- कामभोगों में अनुराग से जीव क्लेस (दुःख) पाता है । १. उत्तराध्ययन सूत्र - १४ / १३ २. उत्तराध्ययन सूत्र - ५ / ७ For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा हो शरण और गति-१ च वर्तमान युग के मानव ने अनेक विजय प्राप्त की हैं। प्रकृति की अनेक-अनेक शक्तियों पर वैज्ञानिकों ने विजय प्राप्त कर ली है। जल, स्थल और नभ पर भी वह अपनी विजय का सिक्का जमा चुका है। यंत्रों को अपने वश में कर लिया है, वस्तुओं पर भी कंट्रोल कर लिया। किन्तु मैं आपसे पूछता हूँ कि इतना होते हुए भी क्या वह सुखी है। शान्तिमय जीवन है उसका ? नहीं। इतनी सुख-सुविधाएं होते हुए भी वर्तमान युग का मानव अशान्त है, दुःखी है; क्यों ? जबकि भूतकाल में अल्पसाधन और थोड़ी-सी सुख-सुविधाओं से मनुष्य सुख-शान्ति में जीता था। इसका कारण हैभाज के मानव का जीवन लगाम से विहीन घोड़े जैसा है। वर्तमान युग का मानव संयम की मजाक उड़ाता है। संयम को वह अपने जीवन में स्वेच्छा से स्थान देना नहीं चाहता, बीमार पड़ने या संकट आ पड़ने पर, अथवा फटेहाल हो जाने पर थोड़े में गुजारा चलाना पड़े, वहाँ संयम नहीं है, लाचारी है, विवशता से कम खर्च में चलाना पड़ता है। स्वेच्छा से जहाँ इन्द्रियों, मन, आवश्यकताओं, इच्छाओं, आवेगों आदि पर संयम हो तो उसका जीवन सुख-शान्तिमय हुए बिना नहीं रहता। परन्तु जो व्यक्ति हाय-हाय करता, अभाव से पीड़ित होकर, वासना और कामना को मन में संजोये हुए जीता है, वह तो मजबूरी से अपने पर नियंत्रण करता है, स्वेच्छा से, प्रसन्नता से और उत्साहपूर्वक नहीं। अमेरिका जैसे भौतिकवादी देश आज भौतिक साधनों की प्रचुरता होते हुए भी सुख-शान्ति से कोसों दूर हैं । अमेरिका में लोगों के पास खाने-पीने, पहनने आदि के साधनों की कोई कमी नहीं है। गेहूँ, मक्का आदि अनाज वहाँ जानवरों को खिलाया जाता है । घी-दूध की नदियां बहतो हैं; किन्तु सुख के साधन होते हुए भी वहाँ के लोग सुखी नहीं हैं, क्योंकि वहाँ के लोगों में स्वच्छन्दरूप से विषयों का उपयोग करने की प्रवृत्ति है । वहाँ शरीर, मन, इन्द्रियों, आवश्यकताओं, वासनाओं आदि पर कोई नियंत्रण नहीं है, न वे कोई नियंत्रण चाहते हैं, तब सुख-शान्ति कैसे हो ? यहाँ के लोग भी पश्चिम का अनुसरण करके मोह, माया, अहंकार और लोभ आदि आवेगों में फंसे हैं, मानसिक सन्तुलन खो बैठे हैं, इसी कारण मानसिक तनाव यहाँ और वहाँ सर्वत्र बढ़ मया है। स्वैच्छिक संयम को छोड़कर सुख-शान्ति को आशा मृग-मरीचिका जैसी है। आज का पढ़ा-लिखा व्यक्ति असंतुलित हो गया है वह संयम और नियम के मामले में बहुत ही पिछड़ा हुआ है। इसीलिए गीता में कहा है जितात्मनः प्रशान्तस्य –प्रशान्त और जितात्मा को ही वास्तविक सुख प्राप्त हो सकता है । असंतुलन और असंयम से मनुष्य को शान्ति नहीं मिल सकती। शान्ति के १. भगवदगीता अ. २ For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ बिना वह सुख की अनुभूति नहीं कर सकता। व्यावहारिक लोग धन, इन्द्रियविषय, भौतिक साधन आदि को सुख के कारण मानते हैं, परन्तु रुग्ण, अस्वस्थ, शोकग्रस्त, मानसिक चिन्ता, पीड़ित अवस्था में ये सब चीजें सुख-शान्ति की कारण नहीं बनतीं, उलटे अशान्तिदायक प्रतीत होती हैं। __बड़े-बड़े चक्रवर्ती, राजा, श्रेष्ठी आदि अपनी सब सुख-सामग्री, विषयोपभोग के साधन, सुविधाएं आदि छोड़कर त्याग और संयम का मार्ग क्यों अंगीकार करते थे? इसीलिए कि इन भौतिक पदार्थों में कहीं सुख-शान्ति नहीं है। सुख-शान्ति स्वेच्छा से तप और संयम का मार्ग अंगीकार करने से प्राप्त होती है। संयमयुक्त जीवन में ही उन्हें सच्ची सुख-शान्ति, स्वतंत्रता, मुक्ति-सुख आदि की प्रतीति हुई थी। निष्कर्ष यह है--संयम में पुरुषार्थ करने वाला ही जितात्मा होता है, वही स्थायी सुख-शान्ति प्राप्त कर सकता है। कविकुलभूषण पूज्य श्री तिलोक ऋषिजी महाराज ने भी इस सम्बन्ध में उचित प्रकाश डाला है उत्तम उद्यम कर, अधम को तज कर, .. . क्षम दम शम वर शुद्ध भाव धरवो । जप तप सत्य दत्त गहत रहत रत्त, तन्त मतभेद तस निरणय करवो । प्राणातिपात असत्य अदत्त ममत अघ, करम-संचय को उद्यम परिहरवो । .. कहत 'तिलोक' एक उद्यम थी भ्रमे जीव, ___एक सुउद्यम सेती भवोदधि तरवो ॥१०॥ वस्तुतः शम, दम, संयम, क्षमा, अहिंसा आदि उत्तम धर्मागों में पुरुषार्थ (उद्यम) करने की ओर पूज्य कविश्रीजी का संकेत है। जितात्माः धैर्य-विजेता धृति पर विजय प्राप्त करने वाला जितात्मा होता है। यह जितात्मा का दूसरा अर्थ होता है । जिस समय आफतों की बिजलियाँ कड़क रही हों, एक से एक बढ़कर संकटों के तूफान आ रहे हों, भाग्याकाश में दुःखों के बादल उमड़-घुमड़कर आ रहे हों, चारों ओर से आलोचना की आंधी आ रही हो, उस समय बड़े-बड़े साधकों के पैर लड़खड़ाने लगते हैं, और वे धर्म के सुदृढ़ सहज सन्मार्ग को छोड़कर सुख-सुविधाओं या प्रलोभनों से भरा प्रेय मार्ग पकड़ने को तत्पर हो जाते हैं। परन्तु जितात्मा वही है जो, संकटों और आफतों के समय अपने स्वीकृत धर्म पर मजबूती से १. त्रिलोक काव्य संग्रह; तृतीय त्रिलोक, अक्षर बावनी, १०. For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति-१ २५ डटा रहता हो, धैर्यपूर्वक आनेवाले संकटों का सामना करता हो, परीषहों और उपसों के तूफानों के समय धीरतापूर्वक उन्हें सहन करता हो। जरा-सा भी, मन से भी विचलित न होता हो । धीरपुरुष का लक्षण कवि कालिदास ने बताया है विकारहेतो सति विक्रियन्ते, येषां न चेतांसि ते एव धीराः। -विकार उत्पन्न होने का कारण उपस्थित होने पर भी जिनके चित्त विकृत नहीं होते, वास्तव में वे ही धीर पुरुष हैं ।' संकटकाल में ही साधक के धर्य की परीक्षा होती है; यों तो साधारण व्यक्ति' भी कह सकता है कि मैं अपने धर्म पर दृढ़ हूँ, विचलित नहीं होता। मगर समय आने पर वे धैर्य पर कितने अडोल रहते हैं ? इसका पता लग जाता है । भर्तृहरि ने नीतिभतक में धैर्य-विजयी धीरों का लक्षण बताया है निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मीः समाविशतु, गच्छतु वा यथेष्टम् । अद्य व वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः । -नीतिज्ञ पुरुष चाहे निन्दा करें या प्रशंसा, लक्ष्मी आये, चाहे जाये, चाहे आज ही मृत्यु आ जाये, अथवा युगान्तर में आये, किन्तु धीरपुरुष अपने स्वीकृत न्याययुक्त पथ से एक कदम भी विचलित नहीं होते। वास्तव में, संकट आ पड़ने पर अपने धैर्य के सिवाय मनुष्य को संकट से कोई उबार नहीं सकता । निशीथभाष्य में कहा है धिती तु मोहस्स उवसमे होति । -मोह का उपशम होने पर ही धृति (धीरता) होती है। बृहत्कल्पभाष्य में बताया है कि “ऐसा कौन-सा कठिन कार्य है, जिसे धैर्यवान व्यक्ति सम्पन्न न कर सकता हो ?" धैर्य के फल हमेशा मीठे होते हैं। अतः धैर्यविजेता का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति धैर्य धारण करके संकटों, परीषहों, उपसगों, या तूफानों के समय विचलित नहीं होता, वह उनका सामना करके उनसे जूझता हुआ अन्त में विजय प्राप्त कर लेता है, यहां मध्यमपदलोपी कर्मधारय समास करने से यह अर्थ संगत बैठेगा। इस सम्बन्ध में बौद्धग्रन्थ जातक की एक कथा मुझे याद आ रही हैएक सेठ का लड़का जहाज द्वारा विदेश यात्रा के लिए तैयार हुआ। उसके १. कुमारसम्भव १/५६ । ३. निशीथभाष्य ८५। . । २. भर्तृहरि-नीतिशतकम् ८४ । For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ पिता ने उसे बहुत समझाया कि “बेटा ! अपने घर में धन की कोई कमी नहीं है, फिर क्यों तू विदेशयात्रा का व्यर्थ कष्ट सहता है ? पता है तुझे, जहाज से समुद्र-यात्रा करने में बहुत ही खतरे हैं।" किन्तु लड़का धीर, पुरुषार्थी और कष्टसहिष्णु था। उसने कहा-'पिताजी ! आपका कहना यथार्थ है, किन्तु आपने भी तो धनोपार्जन करने में कष्ट-सहन किये होंगे ? फिर क्या मेरे लिए यह उचित होगा कि मैं स्वयं परिश्रम के बिना ही इसका उपभोग करूं? यदि मैंने बिना श्रम किये ही आपकी उपार्जित सम्पत्ति का उपभोग किया, उसी से ऐश-आराम करने लया तो कदाचित् आप मेरे प्रति पुत्रवात्सल्य होने के कारण कुछ न कहें, लेकिन दुनिया तो कहे बिना न रहेगी । उसका मुह कैसे बन्द किया जायेगा ? बिना कमाए इस धन का उपभोम करने से मेरी बुद्धि बिगड़ेगी, मैं मिटटी के पुतले के समान निरुद्यमी, आलसी और परमुखापेक्षी बन जाऊंगा । जब मैं पुरुषार्थ कर सकता हूँ, तब अकर्मण्य बनकर बैठे रहना, बिना कमाये आपकी सम्पत्ति का उपभोग करना, मुझे अनुचित लगता है। अतः कृपया आप आज्ञा और आशीर्वाद दीजिए कि मैं विदेश जाकर कुछ कमाऊँ ।" पिता ने अपने पुत्र की कर्तव्यनिष्ठा, साहस और विनम्रता देखकर कहा"बेटा ! तेरी बात तो ठीक है। सुपुत्र का कर्तव्य है-पिता के धन और यश में वृद्धि करे । पुरुषार्थी बनना तो प्रत्येक मानव का कर्तव्य है । तुम्हारी प्रबल इच्छा है तो हम तुम्हें रोकना नहीं चाहते।" ... इस प्रकार माता-पिता से विदेश यात्रा की अनुमति पाकर श्रेष्ठिपुत्र ने एक जहाज तैयार करवाया। उसमें समुद्र-यात्रा में आवश्यक वस्तुएं भी रखवा दी। ठीक समय पर वह जहाज में बैठा । जहाज रवाना हुआ। जहाज जब बीच समुद्र में पहुँचा कि अकस्मात् समुद्र में तूफान उठा। जहाज उछलने लगा, और डूबने की स्थिति में हो गया। मल्लाहों ने जी-तोड़ मेहनत की, जहाज को बचाने की, मगर वे सफल न हुए । हार-थककर उन्होंने कह दिया-"अब हमारा वश नहीं चलता । जहाज थोड़ी ही देर में समुद्र में डूब जाएगा। जिसे अपनी सुरक्षा का जो उपाय करना हो, वह करे।" ऐसे बिकट संकट के समय कायर पुरुष प्रायः रोता-चिल्लाता है, हाय-तोबा मचाता है, या निमित्तों को कोसता है; मगर धैर्यनिष्ठ पुरुष तटस्थ और शान्त होकर सुरक्षा का उपाय सोचता है और यथायोग्य पुरुषार्थ करता है। श्रेष्ठिपुत्र ने जब मल्लाहों की सूचना सुनी तो कुछ चिन्सन करके शौचादि से निवृत्त हुमा । उसने अपना पेट साफ किया। फिर ऐसे पदार्थ खाए जो वजन में हलके थे, किन्तु अधिक समय तक शक्तिदायक एवं पौष्टिक थे। इसके बाद सारे शरीर में तेल मालिश करवाई, जिससे समुद्र के खारे पानी का चमड़ी पर बसर न हो सके। तत्पश्चात् एक चर्मवस्त्र पहना, जो जल-जन्तुओं से शरीर-रक्षा के लिए कवच का For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति–१ २७ काम करता था। यह सब पूर्वतयारी करके वह एक तख्ता लेकर समुद्र में कूद पड़ा, ताकि उसके सहारे से किनारे पहुँच सके। शोष्ठिपुत्र महाजातक ने सोचा-ऐसे समय में जहाज का त्याग कर देना ही उचित है, क्योंकि जहाज की अपेक्षा आत्मा बड़ा है। जहाज अब सुरक्षा नहीं कर सकता। यद्यपि समुद्र में कूदने से मृत्यु का भय तो है, पर सुरक्षा का दूसरा उपाय भी तो साथ में है । धैर्यपूर्वक संकट का सामना करना ही उचित है। अधीर व्यक्ति ऐसे विकट संकट के समय किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं, उनकी बुद्धि कुण्ठित हो जाती है । वे सोचकर किसी प्रकार का निर्णय नहीं कर पाते। उन्हें एक ओर कुंआ और दूसरी ओर गहरा गडढा दिखाई देता है। किन्तु ऐसे प्रसंग पर बुद्धि का सन्तुलन न खोकर स्थिरबुद्धि से निर्णय करना ही बुद्धिमत्ता है। जो संकट और विपदाओं से घिर जाने पर भी कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय कर लेता है, वही वास्तव में धीर और बुद्धिमान है । जो ऐसा निर्णय नहीं कर पाता, वह आफतों से घिर जाता है, और पद-पद पर विपत्तियाँ आकर उसके मार्ग को अवरुद्ध कर देती हैं। व्यावहारिक क्षेत्र में ही नहीं, आध्यात्मिक क्षेत्र के विषय में भी यही बात है। धैर्यनिष्ठ पुरुष उचित निर्णय करके संकटों पर विजय पा लेते हैं। अधीर पुरुष संशय और भय में पड़े रहते हैं। श्रोष्ठिपुत्र ने संशयात्मक स्थिति में पड़े रहने की अपेक्षा झटपट निर्णय कर लिया कि जहाज को बचाने की अपेक्षा, इस समय अपने आपको बचाना जरूरी है। मृत्यु का खतरा तो दोनों जमह है, लेकिन बिना यथोचित पुरुषार्थ किये कायर की तरह मर जाने की अपेक्षा पुरुषार्थ करके मर्द की तरह मर जाना बेहतर है। सफलता के लिए धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करना ही इस समय मेरा धर्म है। जो पहले से ही सफलता की प्रतीक्षा करके कार्य प्रारम्भ करता है, वह कार्य के लिए साहस नहीं कर सकता, सफलता के बदले असफलता मिलने पर वह रोता-धोता. और पछताता रहता है । अतः धैर्यवान् व्यक्ति सफलता-असफलता की प्रतीक्षा और चिन्ता किये बिना निष्कामभाव से कर्तव्यमार्ग में हट जाता है और अन्त तक टिका रहता है। धैर्यनिष्ठ घोष्ठिपुत्र महाजातक लकड़ी के तख्ते के सहारे हाथ-पैर मारता हुआ समुद्र में बह रहा था। उस समय समुद्र के देव ने उसे यों उद्यम करते देख सोचा-मृत्यु सिर पर खड़ी है, फिर यह युवक समुद्र पर तैरने की व्यर्थ चेष्टा क्यों कर रहा है, पूर्व तो सही। देव ने निकट आकर उससे पूछा-ऐसे भयंकर तूफान के समय समुद्र को तैरकर पार करना बहुत ही कठिन है। मौत तुम्हारे सामने खड़ी है, फिर क्यों ऐसा अनावश्यक श्रम करके अपनी मूर्खता प्रकट कर रहे हो ? अब तो हाथ पैर हिलाना छोड़कर, भगवान का नाम लो। देव की बात सुनकर महाजातक हताश नहीं हुआ, वह हाथ-पैर चलाता हुजा समुद्र पर तैरता रहा। उसने देव से पूछा-"आप कौन हैं ?" उसने कहा"मैं इस समुद्र का देव हूँ।" For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ महाजातक - " आप देव हैं आपको तो सत्कार्य के लिए उद्यम करने का उपदेश देना चाहिए, लेकिन आप तो डूब मरने का उपदेश दे रहे हैं । रही भगवान् का नाम जपने की बात, सो मृत्यु से बचने के लिए भगवान् का नाम लेना मैं कायरता समझता हूँ । यों अपने कल्याण के लिए तथा मृत्यु भी आये तो हंसते-हंसते सहन करने की शक्ति के लिए मैं परमात्मा का स्मरण अवश्य करूंगा । अतः आप मुझे विपरीत उपदेश देकर बहकाइये मत । " 1 २८ महाजातक का उत्तर एक धीर और वीर पुरुष का उत्तर था । उसके उत्तर में उसकी धीरता और बुद्धिमत्ता टपकती थी । देव उसके उत्तर से प्रभावित हुआ 1 सोचा - मृत्यु के समय भी यह मानव कितना निर्भय है ! अतः देव ने फिर पूछा"उद्यम करना तो ठीक है, मगर उसके फल का तो विचार करना चाहिए । जहाँ फल - प्राप्ति की सम्भावना न हो, उस उद्यम को करना तो निरर्थक है न !" महाजातक - "हाँ, मैंने फल का विचार करके ही यह प्रयत्न शुरू किया है । इस उद्योग का पहला फल है-अपनी प्राप्त शक्ति का उपयोग करके संतोष पाना; दूसरा फल है - आप जैसे देव का मिलना । अगर मैं जहाज के साथ ही डूब मरता तो आप सरीखे देव कैसे मिलते ? मैंने धैर्य रखकर साहस किया, तभी तो आपके दर्शन हुए ।" देव इस उत्तर से बहुत प्रसन्न हुआ । बोला- “ तो तुमने मुझ से रक्षा करने की प्रार्थना क्यों नहीं की ?” महाजातक — “देवता प्रार्थना की अपेक्षा नहीं रखते, वे तो जिसे भी धर्मंयुक्त कार्य में मग्न देखते हैं, तथा जिसका तन-मन प्रसन्न होता है, जो अपने कर्त्तव्य में संलग्न होता है, उस पर वे स्वतः प्रसन्न होते हैं । इसके अतिरिक्त अगर आप प्रार्थना करने पर मेरी रक्षा करते तो मेरा कर्तव्य-गौरव कम हो जाता । बिना ही प्रार्थना के प्रसन्न होकर आप मेरे कार्य में सहायक होंगे तो आपका भी गौरव बढ़ेगा, मेरा भी । मैं आपका भी गौरव कम नहीं करना चाहता, और न अपने कर्त्तव्य का महत्त्व घटाना चाहता हूँ ।" देवता ने प्रसन्न होकर जहाज के सहित उसे किनारे लगा दिया और प्रशंसा करते हुए कहा - "तुम-सा धीर और पुरुषार्थी दूसरा पुरुष तो क्या देव भी मैंने नहीं देखा । वास्तव में धैर्य और पुरुषार्थ में तुम्हारी शक्ति हम से बढ़ी चढ़ी है ।" वास्तव में देखा जाए तो महाजातक धैर्य-निष्ठा की परीक्षा में उत्तीर्णं हुआ । इसी कारण वह संकट पर विजय प्राप्त कर सका । यही विजितात्मा का दूसरा लक्षण है । जितात्मा : बुद्धि पर विजयी जो व्यक्ति सच्चा आध्यात्मिक होता है, वह राजसी और तामसी बुद्धि पर या चंचल और मारक बुद्धि पर पूरा काबू पा लेता है, तथा सात्त्विक बुद्धि को भी अपने नियंत्रण में रखता है । जब भी कभी भय और प्रलोभन के अवसर आते हैं, तब For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति-१ २६ जितात्मा राजसी और तामसी बुद्धि से निर्णय न करके सात्त्विक बुद्धि से झटपट शुद्ध निर्णय कर लेता है । चंचल और मारक बुद्धि के प्रवाह में बह जाने वाला व्यक्ति भयों और प्रलोभनों से घिर जाता है, संकट के समय भी अपनी विकारयुक्त बुद्धि के कारण यथार्थ निर्णय नहीं कर पाता। सात्त्विक बुद्धि का धनी संकट के समय भी ‘अपना सन्तुलन नहीं खोता और न ही घबराकर हायतोबा मचाता है। विजितात्मा अपनी बुद्धि को अपने कंट्रोल में रखता है, वह मादक एवं नशीली वस्तुओं का सेवन करके अपनी बुद्धि को लुप्त नहीं करता। न ही वह संकट या विपत्ति के समय अपना गौरव खोकर दूसरों के सामने सहायता के लिये गिड़गिड़ाता है। ___ एक बार चीन के महान् दार्शनिक कन्फ्यूशियस से उनके कुछ शिष्यों ने पूछा- "गुरुदेव ! सच्चा बुद्धिमान कौन होता है ? उसकी क्या पहिचान है ?" कन्फ्यूशियस ने सब शिष्यों को थोड़ी देर तक बैठकर प्रतीक्षा करने को कहा । वे बैठ गये । कन्फ्यूशियस ने अपनी शेष दिनचर्या पूरी की, वस्त्र पहने और सब शिष्यों को लेकर एक ओर चल पड़े । सब लोग एक गुफा में प्रविष्ट हुए । वहाँ एक तापस रहते थे, जो जप-तप और भजन किया करते थे। कन्फ्यूशियस ने उन्हें प्रणाम किया और एक ओर बैठ गये। फिर शान्त होकर पूछा-"भगवन् ! हम आपसे ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करने आये हैं। बताइए, वह कौन है ? क्या है ? कहाँ रहता है ?" महात्मा यह सुनते ही भभक उठे-“तुम लोग मेरी शान्ति भंग करने क्यों आये हो ? भागो यहाँ से ! मेरे भजन में विघ्न मत डालो।" कन्फ्यूशियस अपने शिष्यों को लेकर बाहर निकले । उन्होंने शिष्यों से कहा"एक बुद्धिमान तो यह है, जो संसार के प्रति आंखें मूदे हुए है। संसार की सुखदुःखमयी परिस्थिति के प्रति उपेक्षा किये हुए है। एकान्त, अलग-थलग रहकर अपनी बुद्धि को शान्त रखने में इनका विश्वास है।" वहां से चलकर वे एक गांव में पहुँचे, जहाँ एक तेली कोल्हू चला रहा था, बैल की आँखें बन्द थीं, वह अपनी मस्त चाल में उतने-से दायरे में चल रहा था। तेली कोल्हू पर बैठा अपनी मस्ती में कुछ गा रहा था। कन्फ्यूशियस ने उससे कहा-"भाई ! कोई ब्रह्मज्ञान की बात सुनाओ।" तेली ने हंसकर कहा-"भाई ! यह बैल ही मेरा ब्रह्म है, मेरा परमात्मा है। मैं इसकी सेवा करता हूँ, यह मेरी सेवा करता है । बस, हम दोनों सुखी हैं, सुख ही ब्रह्म है।" कन्फ्यूशियस उसकी बात सुनकर आगे बढ़े और शिष्यों से कहा-"यह मध्यम श्रेणी का बुद्धिमान है, यद्यपि इसकी बुद्धि भी संकुचित दायरे में बन्द है । यह बुद्धि भी विकृत है ।" बातचीत करते हुए वे एक बुढ़िया के दरवाजे पर आकर रुके। बुढ़िया चर्खा कात रही थी। उसके आसपास कई बच्चे शोरगुल मचा रहे थे । बीच-बीच में किसी बालक के पानी माँगने पर वह पानी पिला देती, कभी किसी नटखट बालक को प्रेम For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० आनन्द प्रवचन : भाग ११ भाव से बनावटी कोप दिखाकर समझाती, कभी किसी को हंसकर समझाती। बच्चे जब खेलने लगते तो बुढ़िया अपना चर्खा कातने लग जाती। कन्फ्यूशियस जैसे ही वहाँ पहुँचे, सब लड़के भाग गये । कन्फ्यूशियस ने बुढ़िया से पूछा-"माताजी ! कोई आत्मज्ञान की बात सुनाओ।" बढ़िया मुस्कराकर कहने लगी-"ये जो अभी बच्चे खेल रहे थे, और आप संब लोग आये हैं, ये सब आत्मा ही तो हैं। मेरा आत्मज्ञान यही है कि सब आत्माओं के साथ अच्छा व्यवहार करना, 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का व्यवहार ही आत्मज्ञान का मूल स्रोत है। छोटे बच्चों में भी आत्मा है, इन बच्चों का रूठना, मेरा मनाना, निरर्थक शोरगुल के समय झुंझलाना नहीं, इन्हें प्रेम से समझाना, इनके साथ विनोद करना, यही मेरा आत्मज्ञान है।" कन्फ्यूशियस शिष्यों को साथ लेकर लौट पड़े । उन्होंने बताया कि इस बुढ़िया की बुद्धि निष्काम और सात्त्विक है । इसी प्रकार की बुद्धि हर समस्या का सही हल खोज लेती है। किसी भी संकट के समय ऐसी बुद्धि घबराती नहीं, सन्तुलन नहीं, खोती, अपनी मस्ती नहीं छोड़ती। भगवद्गीता (अ० २) में भी कहा है प्रसन्नचेतसो ह्याशुबुद्धिः पर्यवतिष्ठति । -जो प्रसन्नचेता है, उसी की बुद्धि शीघ्र स्थिर हो जाती है। गीता में वर्णित 'स्थितप्रज्ञ' और जैनशास्त्र आचारांग सूत्र में निरूपित 'स्थितात्मा'-ये सब 'जितात्मा' के ही पर्यायवाची हैं। जितात्मा स्वभावविजेता आत्मा अनादि काल के कुसंस्कारवश बार-बार अपने स्वभाव को छोड़कर परभाव या विभाव में चली जाती है, कभी राग और द्वेष में, कभी मोह और आसक्ति में, कभी क्रोधादि कषायों में और काम आदि वासनाओं में। स्वभावविजेता जितात्मा अपनी आत्मा को सतत अभ्यास के द्वारा स्वभाव में स्थित रखता है। वह परभावों या विभावों के प्रलोभन या आकर्षण से लुब्ध या आकृष्ट नहीं होता। प्रतिक्षण वह विवेक का दीपक जलाकर चलता है । यह स्वभाव है या परभाव ? इसका निर्णय तो थोड़े-से अभ्यास से व्यक्ति तुरंत कर सकता है । परन्तु शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि परभाव होते हुए भी इन्हीं से काम लेना पड़ता है । इसी प्रकार माता-पिता, भाई-बन्धु, कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र आदि परभाव होते हुए भी इनसे रात-दिन वास्ता पड़ता है। ऐसी स्थिति में स्वभावविजेता क्या करे ? क्या वह इन सब परभावों को एकदम तिलांजलि दे दे ? इनसे किनाराकसी कर ले ? इसी प्रकार आहार-पानी, अन्न, औषध, मकान, वस्त्र, बर्तन आदि साधन भी परभाव हैं, इनका इस्तेमाल किये बिना प्रायः मनुष्य का काम नहीं चलता, ऐसी दशा में परभाव कोटि की असंख्य वस्तुएँ हैं , जिनके बिना न तो गृहस्थों का जीवन टिक सकता है और न ही साधुओं For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति -- १ का । अतः ऐसी स्थिति में स्वभावविजयी कैसे और किस तरीके से अपने स्वभाव पर स्थिति रह सकता है, या परभाव से दूर रह सकता है ? जैनदर्शन इसके लिए दो शब्दों में निपटारा कर देता हैं, वे हैं- राग और द्वेष । इन्द्रियाँ हैं, इन्द्रियों के विषय हैं, शरीर है, शरीर के विविध अंगोपांग हैं, मनबुद्धि आदि हैं। आहार आदि जीवनयापन के विविध साधन हैं । इनका उपयोग करना अनिवार्य जान पड़े तो करना पड़ता है परन्तु ध्यान रहे कि न इन पर राग (मोह या आसक्ति) करना है और न ही द्व ेष ( घृणा, विद्रोह या वैर - विरोध) करना है । इन्द्रिय, मन आदि के साथ लगने वाले राग और द्वेष से सावधान रहना है । इन्हें विभाव के मूल एवं कर्मबीज जानकर जब भी ये आने लगें, तुरन्त खदेड़ना है । स्वभावविजेता यह देखता रहता है, कि ये परभाव वैसे ही पास पड़े रहें तो भले ही रहें, परन्तु इन्हें देखकर राग-द्वेष, मोह-घृणा, वैर- विरोध, आसक्ति, द्रोह आदि मन में उत्पन्न न हों, बुद्धि में ये भाव ही उत्पन्न न हों । एक वीतरागी निःस्पृही साधु भी बगीचे में बैठता है, उसे न तो बगीचे पर मोह है और न ही उसके प्रति द्वेष या घृणा है । वह वहाँ रहता भी है तो निःस्पृह भाव से । किन्तु उस बगीचे का मालिक आता है, उसे बगीचे के प्रति राग और मोह है, अगर दूसरा कोई बगीचे में अपना डेरा डालता है या कब्जा जमाने लगता है तो उसके प्रति द्वेष और वैर हो जाता है । यहीं परभाव की विजय है, इसी विजय को जितात्मा स्वभावजयी पराजय में बदलता है । वह किसी भी वस्तु के प्रति न तो राग या मोह करता है और न ही द्व ेष या द्रोह करता है, न ही आसक्ति या घृणा । यहाँ तक कि शरीर, इन्द्रियों और मन का उपयोग करते हुए भी स्वभावजयी इन परभावों आत्मा पर हावी नहीं होने देता । आवश्यकता पड़ने पर वह परभावों का तटस्थभाव से सेवन भी करता है, किन्तु राग-द्वेष से परे होकर स्वभाव के अविरुद्ध होने पर ही । ३१ परभावों से निकट में रहता है, निष्कर्ष यह है कि स्वभावजयी अनिवार्य उनका आवश्यकतानुसार उपयोग भी करता है, सेवन भी करता है, परन्तु स्वभाव पर राग-द्वेषादि के माध्यम से होने वाले परभावों के हमले को नहीं होने देता; उससे स्वभाव की सुरक्षा करते हुए । स्वभाव — आत्मभाव है, उसके अतिरिक्त सभी पर भाव या विभाव हैं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा इनसे सम्बन्धित जो भी आत्मा के निजी गुण हैं, वे स्वभाव हैं और इनसे विपरीत - परभाव हैं । स्वभाव और परभाव के द्वन्द्व में स्वभावजयी स्वभाव को जिताता है, परभाव को नहीं । परभाव को वह सदैव परास्त करता है, वह परभाव को एक क्षण के लिए भी स्वभाव पर हावी नहीं होने देता । For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ स्वभाव बनाम आदत इसके अतिरिक्त स्वभाव का एक और लोकव्यवहार में प्रचलित अर्थ हैअपना स्वभाव, प्रकृति, नेचर या आदत । अपने स्वभाव पर काबू पा लेना भी स्वभावविजय का अर्थ है । कई मनुष्यों की आदतें किसी न किसी व्यसन की हो जाती हैं, कोई तम्बाकू पीता है, तो कोई बीड़ी-सिगरेट पीने लगता है, कोई गांजा, भांग, अफीम या शराब पीने का आदी बन जाता है, किसी की आदत चोरी करने की हो जाती है, कोई परस्त्रीगामी या वेश्यागामी बन जाता है । अथवा किसी की प्रकृति बहमी बन जाती है, वह बात-बात में शंका-कुशंका करने लग जाता है । कोई स्वभाव से गुस्सल, क्रोधी, कपटी, दुराचारी, झक्की, कंजूस, खर्चीला, बात-बात में गालीगलौज करने वाला, जिद्दी, बातूनी, झूठी शेखी बघारने वाला आदि हो जाता है। असंख्य प्रकार के अच्छे और बुरे स्वभाव हैं। परन्तु प्रायः देखा जाता है कि जिसका जैसा स्वभाव पड़ गया, फिर उसे उस स्वभाव का बदलना दुष्कर हो जाता है, अतः स्वभाव विजेता के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वह किसी भी प्रकार की खोटी आदत, बुरे स्वभाव, खराब प्रकृति, कुटेब आदि को जीवन में स्थान न दे, अपने पर हावी न होने दे । जब भी कोई वस्तु अपने स्वभाव में परिणत होने लगे कि प्रारम्भ में हो उसे बदल दे, उसको वहीं से समाप्त कर दे, उसका मूल ही नाबूद कर दे, अन्यथा, एक बार किसी बुरे स्वभाव, बुरी आदत, कुटेब या खराब प्रकृति को प्रश्रय दे दिया तो फिर वह आदत उसके जीवन में घर कर जायेगी, वह उसके काबू से बाहर हो जायेगी। एक राजस्थानी कहावत प्रसिद्ध है काजल' तजैन श्यामता, मोती तजै न श्वेत । दुर्जन तजै न दुष्टता, सज्जन तजे न हेत ॥ ये सब स्वभाव के नमूने हैं । एक दयालु व्यक्ति ने एक बिच्छू को पानी में डूबते हुए देखा तो उसे बहुत दया आई कि बेचारा पानी में डूबकर मर जाएगा। उसने बिच्छू को हाथ से पकड़ कर बाहर निकाला । परन्तु बिच्छू अपना स्वभाव कैसे छोड़ सकता था ! बिच्छू तो बिच्छू ही जो ठहरा ! उसने दयालु पुरुष के हाथ पर डंक मारा, बेचारे दयालु के हाथ में बिच्छू के काटने से असह्य पीड़ा होने लगी। फिर उसने दया करके बिच्छू को एक और सुरक्षित स्थान में छोड़ दिया। किन्तु बिच्छ फिर रेंगता-रेंगता पानी में चला गया; और तड़फने लगा। दयालु पुरुष को फिर दया आई। उसने उिच्छू को पुनः हाथ से पकड़कर बाहर निकाला तो पुनः उसके हाथ पर डंक मारा । एक तटस्थ दर्शक ने दयालु से कहा- "जब यह बिच्छू आपके उपकार को कुछ नहीं समझता है तो आप इसे दया करके क्यों पानी में से निकालते हैं ?" उसने कहा-“बिच्छू का स्वभाव है-काटना, मेरा स्वभाव है—दया करना । जब यह अपना कुस्वभाव नहीं छोड़ता तो मैं अपना सुस्वभाव क्यों छोड़ दूं?" For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति - १ ३३ यह कोई बात नहीं है कि स्वभाव बिलकुल बदल ही न सके । परिस्थिति, प्रबल निमित्त या अन्य विशिष्ट कारणों से मनुष्य की वर्षों से पड़ी हुई आदत, प्रकृति स्वभाव या नेचर बदल जाती है, और जब बदलती है तो एक झटके में बदल जाती है । जो वर्षों से शराब पीते थे, मांस खाते थे, उन्होंने साधुओं के सत्संग से एक ही दिन में सभी बुरी आदतें छोड़ दीं । अतः स्वभावविजेता अपने जीवन में किसी भी दुर्व्यसन, बुरी आदत, कुटेब, स्वभाव, खोटी प्रकृति आदि को फटकने नहीं देता, वही जितात्मा कहलाता है । बन्धुओ ! यह जितात्मा का चौथा अर्थ है । अभी मुझे इसके तीन अर्थों पर और प्रकाश डालना है । अगले प्रवचन में ही अवशिष्ट अर्थों पर प्रकार डाला जाएगा । आप जितात्मा के प्रत्येक अर्थ पर बारीकी से चिन्तन-मनन करें और अपना जीवन जितात्ममय बनाने का प्रयत्न करें। तभी आप दूसरों के लिए महावृक्ष की तरह शरणदाता और सूर्य की तरह दूसरों के लिए गति प्रगति के प्र ेरणादाता बन सकेंगे । For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. जितात्मा ही शरण और गति-२ धर्मप्रेमी बन्धुओ ! ___ आज मैं पुनः कल वाले विषय पर चर्चा करूंगा । जितात्मा का जीवन हर पहलू से विचारणीय है। जब तक मनुष्य जितात्मा नहीं बनता, तब तक उसका जीवन दूसरों के लिए अनुकरणीय, प्रेरणादायक एवं शरणदाता नहीं बन सकता । इसीलिए महर्षि गौतम ने मनुष्य-जीवन को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए यह जीवनसूत्र प्रस्तुत किया है अप्पा जिअप्पा सरणं गई अ आइए, जितात्मा के अन्य अर्थों पर विचार कर लेंजितात्मा : आत्मजयी एक दिन भ० पार्श्वनाथ स्वामी की परम्परा के श्री केशीकुमार श्रमण के प्रश्न का उत्तर भ० महावीर के पट्टधर शिष्य गणधर श्री गौतमस्वामी ने दिया था, जो कि उत्तराध्ययनसूत्र में अंकित है एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इंदियाणि अ। ते जिणित्त जहानायं, विहरामि अहं सुणी !॥ -कषायों और इन्द्रियों से युक्त बिना जीता हुआ एकमात्र आत्मा ही शत्रु है, उसे जीतकर मैं यथाज्ञात दशा में विहरण करता हूँ। लोकव्यवहार में जिस प्रकार युद्ध में मुख्य शत्रु प्रतिपक्षी राजा या उसका सेनापति माना जाता है । उसे जीत लेने पर सारी सेना जीत ली गई, ऐसा समझा जाता है। इसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में एक आत्मा को जीत लेने पर कषाय और इन्द्रियां आदि सब पर विजय प्राप्त हो गई, ऐसा समझा जाता है। इसलिए यहाँ जितात्मा का एक अर्थ यह किया गया है कि अपनी आत्मा पर विजय पाने वाला, अपने आप पर विजयी बनने वाला। वैसे तो आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा ही शत्रु है । मित्र तब है, जब वह कषायों और इन्द्रियविषयों के चक्कर में नहीं पड़ता, किन्तु जब वह कषायों, विषयों आदि के चक्कर में फंस जाता है, अपने स्व-भाव से विपरीत दिशा में चलता है, तब शत्रु बन जाता है । ऐसे शत्रु बने हुए आत्मा को जो जीत लेता है, अपने पर हावी नहीं होने देता, वही आत्मजयी जितात्मा है । १. उत्तराध्ययन सूत्र २३/३८ For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति-२ ३५ आशय यह है कि जितात्मा पुरुष अपनी आत्मा के शत्रुभूत जो क्रोधादि कषाय हैं, या इन्द्रिय-विषय हैं, उनकी ओर जाती हुई अपनी आत्मा को किसी भी प्रकार से रोकता है, या उसकी दिशा बदल देता है, आत्मगुणों की दिशा में उसे अभिमुख कर देता है। यह बहुत सम्भव है कि कोई सारे जगत को जीत ले परन्तु जहाँ तक वह अपने आप को नहीं जीत लेता, तब तक सच्चे माने में वह उसकी जीत नहीं है; वह अन्दर से हारा हुआ है-पराजित है । उसकी बाह्य विजय दूसरों को धोखा दे सकती है, पर अपने आपको नहीं । अपने आपको जीतना ही सच्ची विजय है, उसी विजय का आनन्द सच्चा आनन्द होगा। केवल बाह्यविजय के आनन्द से काम नहीं चलेगा। अपने आप पर विजय पाये बिना केवल बाह्यविजय तो पराजय में बदल जाती है, सभी उपलब्धियाँ शून्य बन जाती हैं। मानव अपनी आँखों में कब तक धूल झौंक सकता है ? यदि आपको सब कुछ मिल जाये किन्तु मिले अपने आपको खोकर तो क्या आप उसे पसन्द करेंगे ? यह सौदा कितना महंगा पड़ेगा ? यह तो हीरा खोकर पत्थर खरीदने जैसा है। बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि जो अपने आपको खो बैठता है, वह सभी बाह्य पदार्थों की प्राप्ति के धोखे में सब कुछ खो देता है। सचमुच, अपने आपको खोना सर्वस्व खोना है । 'स्व' केन्द्र में न हो तो संसार के सारे पदार्थों की उपलब्धि का कोई मूल्य नहीं है; क्योंकि जो अकेले 'स्व' में छिपा है, उसकी पूर्ति दुनिया के समस्त पदार्थ एकत्र करने पर भी नहीं हो सकती। 'स्व' (आत्मा) से बढ़कर कोई सम्पत्ति नहीं है। इसी की उपलब्धि से संसार की समस्त वस्तुएं उपलब्ध हो सकती हैं और इस अकेले को खोने से दुनिया की वस्तुएं खो जाती हैं । स्व एक है, दुनिया के सारे पदार्थ शून्यवत् हैं। शून्य चाहे जितने हों, कोरे शून्यों की तब तक कोई कीमत नहीं होती, जब तक कि एक का अंक उनके पूर्व न लगे । वास्तव में स्व (आत्मा) ही एकमात्र सम्पत्ति है, वही हमारी आन्तरिक शक्ति है। याद रखिए, जब तक मनुष्य अपने आपको प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक दूसरी सब वस्तुओं को प्राप्त करने का दावा व्यर्थ है। सच्ची समझ की प्राप्ति अपने आप की प्राप्ति में से प्रारम्भ होती है, यही जाति का प्रारम्भ है । परन्तु आज तो 'दिया तले अंधेरा' वाली कहावत प्रायः चरितार्थ हो रही है । दीपक सबको प्रकाश देता है, लेकिन स्वयं के नीचे अंधेरा रखता है, वैसी स्थिति आज दिखाई दे रही है। वर्तमान युग में मानव की शक्ति विस्तीर्ण होती जा रही है, लेकिन मानव स्वयं शक्तिहीन होता जा रहा है । कितना विरोधाभास है यह ! आज मनुष्यों की बाह्य शक्ति तो बढ़ी है, लेकिन आन्तरिक शक्ति से वे क्षीण होते चले जा रहे हैं । भौतिक पदार्थों में लोगों की गति बढ़ी है, लेकिन आध्यात्मिक जीवन में वे शक्तिहीन-गतिहीन-से हो रहे हैं । पदार्थों को जानने में हमने अपनी सारी शक्ति लगा दी, परन्तु अपने आप को जानने का कोई ध्यान ही न रहा । For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ याद रखिये, जब तक मानव अपने छोटे-से केन्द्र-स्व (आत्मा) पर विजय प्राप्त नहीं कर लेगा, तब तक भले ही वह अपनी शक्ति को दिगदिगन्त तक विस्तृत कर दे, फिर भी रहेगा शक्तिहीन ही। अपने आप (स्व) पर विजय प्राप्त करने से ही शक्ति का-परम-शक्ति का आधार मिलता है। आत्मविजय के विना केवल बाह्य पदार्थों या प्रकृति पर विजय से आज तक कोई भी व्यक्ति आनन्द नहीं पा सका। आपको भी वह आन्तरिक विजय प्राप्त करनी है । आप पूछेगे हमारी आत्मा तो हमारे पास है ही फिर उस पर विजय प्राप्त करने की क्या आवश्यकता है ? मैं कहता हूँ-उस पर विजय प्राप्त किये बिना आपका सारा जीवन परतन्त्र, इन्द्रियों और मन का गुलाम, कषायों का वशवर्ती और विषयों का दास बन जाएगा। क्या आपको पता है, आपकी आत्मा कहाँ-कहाँ, कसेकैसे पराजित होती है ? बाहर से विजय का डंका बजते रहने पर भी आप अपने अन्दर से कितने हारे हुए हैं ? जिनकी विजय-पताका (बाहर से) उड़ रही है, उनकी थोड़ी-सी भी आन्तरिक विजय है ? आप अपने अन्तर में डबकी मारकर देखेंगे तो पता चलेगा कि अन्दर तो सिर्फ हार है, पद-पद पर आप हारते हैं। ___ आप जरा-से क्रोध पर नियन्त्रण नहीं रख सकते । अभिमान का सर्प जरा-सा छेड़ने से फुफकार उठता है । लोभ के वशीभूत होकर दिन में कई बार अपने जरा से स्वार्थ के लिए लोग बेईमानी, ठगी, नाप-तौल में गड़-बड़, हेरा-फेरी आदि कर बैठते हैं। अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए छल-कपट, दगा, धोखा आदि करते जरा भी नहीं हिचकिचाते। जरा-सी कामवासना की लहर आई कि आप फिसल जाते हैं । जरा-सी तुच्छ वस्तु के मोह में आप पागल हो उठते हैं। पैसे और पद के लिए राष्ट्रद्रोह, समाजद्रोह, ग्रामद्रोह आदि करने से नहीं चूकते। मतलब यह है कि वर्तमान युग का मानव प्रायः काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, राग-द्वष, कपट, अहंकार आदि मानसिक विकारों का गुलाम बना हुआ है । वह इनसे बार-बार हारता है। बाहर से भले ही वह राजा, बादशाह या लखपति-करोड़पति सेठ बना हुआ हो, परन्तु अन्दर से वासनाओं के वेग में यन्त्र की तरह पिसता जाता है। इतनी पराधीनता है कि मनुष्य की स्थिति यन्त्र की तरह है। अपना ही मन है, लेकिन आत्मा उसका मालिक नहीं है, इन्द्रियाँ अपनी ही हैं, लेकिन आत्मा के नियन्त्रण में वे नहीं हैं, आत्मा पर मन और इन्द्रियाँ विजयी बनकर हावी हो गये हैं। आत्मा को तो केवल उनकी हाँ में हाँ मिला देनी होती है । इन्द्रियाँ और मन मिलकर जिधर आत्मा को बहा ले जाएं, उधर बहना पड़ता है । चेतन आत्मा को इन अचेतन मन के आवेगों एवं कषाय के आवेशों के सामने बार-बार झुकना पड़ता है, इन्द्रियविषयों के अधीन हो जाना पड़ता है । मन और इन्द्रियों तथा इनके विषय-विकारों के सामने बार-बार हार खानी पड़ती है। अचेतन वेग तथा प्रवाह और भौतिक आकर्षण आत्मा को खींच ले जाते हैं । भौतिक आकर्षण के अंधड़ के सामने आत्मा की कुछ भी नहीं चलती। भौतिक पदार्थों की वासना मालिक और आत्मा उसका गुलाम बन जाता है। जितात्मा साधक इस पराधीन स्थिति को सहन नहीं करता। वह एक ही For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति-१ ३७ झटके में इन्द्रियों और मन की, विषयों और कषायों की दासता की जंजीर काट देता है । वह इन्द्रियों और मन को आत्मगुणों की सेवा में लगाता है। वह वृत्तियों, कषायों, वासनाओं, विषयों को जीतता है, उनके सामने गुलाम बनकर वह रोतागिड़गिड़ाता नहीं, उनके बिना भी वह काम चला सकता है। वह चैतन्य-अग्नि को बुझने नहीं देता। हाँ, तो मैं कह रहा था, जितात्मा बनने के लिए अपने आप पर विजय प्राप्त करनी पड़ती है । इसके लिए बाह्य शत्रुओं को नहीं, आन्तरिक शत्रुओं को जीतना आवश्यक है । बाह्य शत्रु तो दूसरे हैं, पर ये आन्तरिक शत्रु तो अपने ही हैं । अपनी ही दिशाघ्रष्ट शक्तियाँ आन्तरिक शत्रु हैं । उनका नाश नहीं करना है, क्योंकि उनका नाश करने से हमारी ही शक्तियां नष्ट होंगी। उनकी दिशा बदलनी है, उनका मार्गपरिवर्तन करना है, यही उन पर विजय पाने का तरीका है । उत्तराध्ययन सूत्र में आत्मदमन के लिए कहा गया है अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा दंतो सही सोइ, अस्सि लोए परत्थ य । वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य। माऽहं परेहि दम्मतो बंधणेहि वहेहि य॥ इनका अर्थ है-आत्मा का ही दमन करना चाहिए; क्योंकि आत्मा ही दुर्दम्य है। दमित आत्मा ही इहलोक और परलोक में सुखी होती है। अच्छा तो यही है कि मैं संयम और तप के द्वारा स्वयं अपनी आत्मा का दमन करूं। दूसरे लोग बन्धन और वध के द्वारा मेरा दमन करें-यह अच्छा नहीं है ।' __प्रश्न होता है, क्या इस प्रकार के दमन से आत्मा पर अपनी आन्तरिक शक्तियों-उन्मार्गगामी शक्तियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है ? इसके उत्तर में हमें प्राचीन वृत्तिकारों के द्वारा इन गाथाओं में उक्त दमन की व्याख्या की ओर झांकना होगा । कोरा दमन कदापि शत्रु को जीतने में सफल नहीं होता, यह वर्तमान मनोपैज्ञानिकों द्वारा सम्मत तथ्य है । आत्मदमन का जो अर्थ आज तक समझा जाता है, वह बदल गया है। उत्तराध्ययनसूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार श्री शान्त्याचार्य ने आत्मदमन का अर्थ किया है-आत्मिक उपशमन । 'शमु दमु उपशमे' इस धातुपाठ के अनुसार शम और दम दोनों धातु उपशम अर्थ में हैं। महाभारत में 'दमन' की सुन्दर परिभाषा मिलती है । देखिए वे श्लोक क्षमा धृतिरहिंसा च समता सत्यमार्जवम् । इन्द्रियाभिजयो दाक्ष्यं च मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥१५॥ १. उत्तराध्ययनसूत्र अ० १, गा० १५,१६ For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव आनन्द प्रवचन : भाग ११ अकार्पण्यासंरम्भः सन्तोष: प्रियवादिता । अविहसानसूया चाप्येषां समुदयो दमः ॥ १६ ॥ - क्षमा, धैर्य, अहिंसा, समता, सत्य, सरलता, इन्द्रियजय, दक्षता, कोमलता, लज्जा, अचपलता (स्थिरता), उदारता, क्रोधहीनता, संतोष, प्रियवचन बोलने का स्वभाव, किसी भी प्राणी को कष्ट न देना और दूसरों के दोष न देखना ( अनसूया ) इन सब सदगुणों का उदय होना ही दम है । इसी सन्दर्भ में महाभारत में 'दान्त' का अर्थ भी उपशान्तपरक ही किया गया है— - गुरुपूजा च कौरव्य ! दया भूतेष्वपैशुनम् । जनवादं मृषावादं स्तुतिनिन्दाविसर्जनम् ॥१७॥ कामं क्रोधं च, लोभं च दर्पं स्तम्भं विकत्थनम् । रोषमीयविमानं च नंव दान्तो निषेवते ॥ १८ ॥ - हे कुरुनन्दन ! जिसने मन और इन्द्रियों का दमन कर लिया है, उसमें गुरुजनों के प्रति भक्ति, प्राणियों के प्रति दया, तथा किसी की चुगली न खाने की प्रवृत्ति होती है । वह जनापवाद, असत्यभाषण, किसी की निन्दा - स्तुति ( चापलूसी) में पड़ने की प्रवृत्ति, काम, क्रोध, लोभ, दर्प, अभिमान, डींग हाँकना, रोष, ईर्ष्या, दूसरों का अपमान- इन दुर्गुणों का कभी सेवन नहीं करता । 2 वास्तव में, आत्मदमन से आत्मविजय हो सकती है, बशर्ते कि महाभारत एवं शान्त्याचार्य की व्याख्या के अनुसार दमन का अर्थं आत्मोपशमन-परक लिया जाये । आत्मदमन की जब यह परिभाषा मान ली जाती है, तो आत्मा की विरोधी और मार्गभ्रष्ट बनी हुई उन शक्तियों को जीतना बहुत ही आसान हो जाता है । जैसे - एक नदी में भयंकर बाढ़ आती है, उसके जल से लाभ के बदले धन-जन की हानि ही होती है । ऐसी स्थिति में कोई इंजीनियर नदी के उस व्यर्थ बहकर विनाशकारी बनने वाले जल-प्रवाह को मोड़कर विविध नहरों के द्वारा खेतों में पहुँचा देता है, तब वह जीवनदायी बन जाता है । इसी प्रकार जितात्मा अपनी उन विनाशकारिणी एवं उन्मार्गगामिनी शक्तियों, वेगों एवं वृत्तियों के प्रवाह की दिशा बदलकर उन्हें विकासकारी एवं सन्मार्गगामी बना देता है । तब वे शत्रु के बदले मित्र बन जाती हैं । इस प्रकार की विजय ही सच्ची आत्मविजय है । महाभारत में बताई गई आत्मदमन की परिभाषा के अनुसार भी आत्मा की उन्मार्गगामिनी वृत्ति प्रवृत्तियों को क्षमा, दया, सत्यता, सरलता, धीरता, मृदुता, आदि विविध अभीष्ट प्रवृत्तियों की ओर मोड़ १. महाभारत, आपद्धर्मपर्व, अ० १६०, श्लोक १५-१६ । २. महाभारत, आपद्धर्मपर्व, अ० १६०, श्लोक १७-१८ । For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा ही शरण और गति २ ३६ दिया जाता है तो वे पहले जो आत्मा के नियंत्रण से बाहर थीं, अब आत्मा के नियंत्रण में हो जाती हैं । निष्कर्ष यह है कि शत्रु बनी हुई आत्मा की इन उन्मार्गगामिनी आन्तरिक शक्तियों का विनाश नहीं, परिवर्तन करना है; उन्हें नया मोड़ देना है । जैसे- बंजर खेत में खाद और मिट्टी बदलने से वह उपजाऊ बन जाता है, वैसे ही आत्मशक्ति का क्षय करने वाली इन आन्तरिक वृत्ति प्रवृत्तियों - शक्तियों को सदगुणों की खाद देने से ये उपयोगी तथा आत्मशक्ति का विकास करने वाली बन जाएंगी। इनसे ही फिर आत्मा तेजस्वी और वीतरागत्व का आधार बन सकेगी । यही आत्मविजयी बनने का रहस्य है । अपने आप पर या अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त करने का अर्थ आत्मा को दबाना, सताना या उससे लड़ना नहीं है, परन्तु विपरीत-पथगामिनी आत्मा की आन्तरिक शक्तियों के साथ मैत्री करके उन्हें सन्मार्गगामिनी बनाना है । तभी वह आत्मविजेता बन सकता है। वास्तव में देखा जाये तो प्रत्येक व्यक्ति में शक्ति का विपुल प्रवाह भरा है, किन्तु वह भान भूलकर विषयासक्ति, वासना, कषायवृत्ति आदि उन्मार्गों में अपनी उस शक्ति को बहा देता है, या बहने देता है । धीरे-धीरे वे उन्मार्गगामिनी शक्तियाँ उस पर हावी हो जाती हैं । फिर दूसरी भूल वह यह करता है कि वह उन उन्मार्गगामिनी शक्तियों का बिलकुल निरोध या विरोध करता है, किन्तु केवल निरोध या विरोध से वे काबू में नहीं आतीं । बाहर से दिखाई देता है कि उन पर विजय प्राप्त हो गई है, परन्तु अन्दर में वे अपना अड्डा जमाए रहती हैं, कोई न कोई निमित्त मिलते ही वे पुनः उभर आती हैं । इसलिए आत्मविजय का यह तरीका ठीक नहीं है; सही तरीका है— प्रवाह परिवर्तन का, अर्थात् उन शक्तियों - अपने में रही हुई वृत्ति प्रवृत्तियों के साथ परिचय करना, उनकी उपयोगिता जानना, फिर उनसे मैत्री करके उनके प्रवाह को मोड़ना, उन्हें सहयोगी बना लेना; यही आत्मविजय का यथार्थ क्रम है । जितात्मा : अपने गुणों से परमात्मतत्त्व को जीतने वाला जिस प्रकार एक अच्छा खिलाड़ी खेल में अपनी योग्यता, क्षमता और कुशलता से विजय पा लेता हैं, उसी प्रकार विजित आत्मारूपी खिलाड़ी भी अपनी योग्यता, क्षमता, कुशलता एवं उत्तमोत्तम गुणों की वृद्धि से अपने तन-मन के साथ होने वाले खेल में जीतकर परमात्मतत्त्व को पाने का हकदार हो जाता है । वह सांसारिक प्रलोभनों और आकर्षणों में नहीं फँसता, कषायों और विषयों के मायाजाल से दूर रहता है । अपने तन, मन, बुद्धि, शक्ति, इन्द्रियों आदि को यथायोग्य कार्यों में लगा देता है, जिससे उसे इस लुभावने मायाजाल में फँसने का मौका ही नहीं मिलता । आद्य शंकराचार्यजी अपनी माता के इकलौते पुत्र थे । माता ने सन्तान प्राप्ति For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. मानन्द प्रवचन : भाग ११ के लिए शिवजी की उपासना की । उपासना के पश्चात् जब सन्तान-प्राप्ति हुई तो उसका नाम 'शंकर' रखा । शंकराचार्य की माता भी अन्य माताओं की तरह मन में यही कल्पना संजोये हुई थी कि मेरा शंकर कुछ ही वर्षों में जब बड़ा हो जाएगा तो मैं उसका विवाह करूंगी । बहू घर में आएगी। कुछ ही वर्षों में मेरा घर नाती-पोतों से भरा-पूरा हो जाएगा। बहू की सेवाओं से तृप्ति होगी। जीवन की अन्तिम घड़ियाँ सुख-शान्ति और सम्पन्नता में व्यतीत होंगी। ज्यों-ज्यों शंकर बड़े होते जाते, माता का यह स्वप्न और भी तीव्र होता जाता। .. परन्तु जन्म से ही प्रतिभासम्पन्न तथा पूर्वजन्म के संस्कारों से परिपूर्ण शंकर का ध्यान परमात्म-प्राप्ति में लगा रहता था । वह इसके लिए जप-ध्यान, पूजा-पाठ, तप, सेवा आदि में ही अधिक समय लगाता था । वे अपनी प्रतिभा स्वयं को सांसारिक मायाजाल में फंसाकर नष्ट नहीं करना चाहते थे। उधर माता अपने बालक की प्रवृत्ति संसार के मोहजाल से विरक्त-सी देखकर खिन्न होती थी और यही समझाया करती थी कि विवाह करना, घर-गृहस्थी संभालना और आजीविका कमाना सुपुत्र का धर्म है। . शंकर को अपनी माता के प्रति अगाध श्रद्धा थी। वे माता का पूरा सम्मान करते थे, उनको सेवाशुश्र षा में रंचमात्र भी कमी नहीं आने देते थे । फिर भी उनकी अन्तरात्मा यह नहीं मानती थो, कि सांसारिक मोहजाल में फंसने की मोहग्रस्त माता की बात को स्वीकार कर लिया जाये। माता की ममता का मूल्य बहुत है, लेकिन विश्वमाता-परमात्मा की गोद में बैठने का मूल्य उससे भी अधिक है । उनके विवेक ने कहा-बड़े के लिये छोटे का त्याग उचित है । अन्तरात्मा ने परमात्मा की अन्तरंग प्ररणा का अनुभव किया और उसी को परमात्मा का निर्देश मानकर विश्वमाता-परमात्मा को प्राप्त करने तथा उसके लिए विश्वसेवा करने का निश्चय किया । पर माता को कोई कष्ट न हो, उनकी स्वीकृति भी मिल जाए, ऐसा उपाय उनके मस्तिष्क में गूंजने लगा। एक दिन माता-पुत्र दोनों नदी में स्नान करने साथ-साथ गये । माता तो किनारे पर ही खड़ी रही, पुत्र उछलता-कूदता गहरे पानी तक चला गया। वहां अचानक चिल्लाया-"बचाओ, बचाओ ! मुझे मगर पकड़कर ले जा रहा है।" किसी जलजन्तु ने उनकी टाँग पकड़ ली थीं । माता बेटे की पुकार सुनकर घबराई । वह किंकर्तव्यविमूढ-सी हो रही थी कि शंकर ने माता से कहा-"मां अब मेरे बचने का एक ही उपाय शेष है, तुम मुझे भगवान् शंकर को समर्पित कर दो, उनकी कृपा से मेरी प्राणरक्षा हो सकती है ।" माता को यह निर्णय करने देर न लगी कि मर जाने की अपेक्षा तो संन्यासी बनकर जीवित रहने का मूल्य अधिक है। उन्होंने शंकरजी से प्रार्थना की-“मेरा पुत्र यदि मगर के मुख से निकल आये तो मैं उसे आपको समर्पित कर दूंगी।" यह सुनकर पुत्र की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा । वह धीरे-धीरे किनारे पर आगया। For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण मोर नति-२ ॥ ... इस प्रकार विश्वमाता परमात्मा की प्राप्ति की धुन ने और विश्वसेवा की निष्ठा ने मोहममता पर विजय पाई । किशोर शंकर--संन्यासी शंकराचार्य के रूप में भारत में भ्रमण करने लगे। उन्होंने अपनी सारी शक्ति तथा सभी अंगोपांगों को शुद्ध आत्म-सेवा या परमात्मसेवा में लगा दिया । अपने जीवन को उत्तमोत्तम मुणों से सम्पन्न बनाया। विजितात्मा के इस अर्थ पर हम एक दूसरे पहलू से विचार करें। जैसे शरीर और मन की भूख-प्यास है, वैसे ही आत्मा की भी भूख-प्यास है । साधारण मनुष्य को शरीर और मन की भूख-प्यास का तो प्रायः प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है, लेकिन आत्मा की भूख-प्यास का अनुभव किसी विरले को हुआ करता है । आत्मा की भूख, प्यास या मांग है-परमात्मा से मिलन, परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार । यह शुद्ध आत्मा का स्वभाव है। ऐसे व्यक्ति को, जिसे परमात्म-प्राप्ति की भूख-प्यास लगी है, जीवन में एक प्रकार की तड़फन, तीव्रता और लगन होगी, भले ही किसी समय उसकी अनुभूति बहुत ही मन्द हो, किसी समय तीव्र हो; पर होती अवश्य है । उसे ऐसा लगा करता है, मानो जीवन में कुछ खो गया है, जो अभी तक मिला नहीं है। क्या खोया है ? कैसे खोया है ? इसका पता उसे प्रारम्भिक दशा में नहीं होता। परन्तु एक अज्ञात व्यथा मन में होती रहती है। सब कुछ मिल जाये, फिर भी उसे लगेगा कि अभी रिक्तता है, खालीपन है। आत्मा की भूख-प्यास जब मिट जाती है, तब परमात्मतत्त्व पर अधिकार हो जाता है। यही जितात्मा का एक लक्षण है। ऐसा जितात्मा परमात्मतत्त्व से बाह्य अथवा परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में अवरोधक तत्त्वों से बिलकुल अनासक्त, निलिप्त रहता है । वह एकमात्र ब्रह्मस्वरूप में स्थित हो जाता है अथवा उसमें परमात्मा और जीवात्मा के ऐक्य का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । इसे ही वेदान्त की भाषा में समाधि कहते हैं । ऐसा जितात्मा नित्यतृप्त हो जाता है। जितात्मा : शरीर, इन्द्रियों एवं मन का विजेता जितात्मा का यह अन्तिम और महत्वपूर्ण अर्थ है । इस अर्थ में तीन अर्थ गर्भित है (१) शरीरविजयी, (२) जितेन्द्रिय और (३) मनोविजेता। यद्यपि शरीर और इन्द्रियां मन के अनुसार ही चलती हैं, मन ही इनका कमांड करता है तथापि पृथक-पृथक् स्पष्टतः समझने के लिए, इन तीनों का अलग-अलग निर्देश किया जाता है । एक मनोविजेता कहने से शेष दोनों का इसमें समावेश हो जाता है। For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ समग्र जीवन का गुरु मन है । यह क्रियाशील और विकासशील है। उसमें जीवन को बदलने की शक्ति है। मन के बिना इन्द्रियाँ विषयों का उपभोग नहीं कर सकतीं। जिसे सद्यः पुत्रशोक हुआ हो, वह यदि सिनेमा देखे तो उसके सामने पुत्र का दृश्य आता है, सिनेमा के दृश्यों का उसे ध्यान ही नहीं रहता । मन अस्वस्थ होने पर न खाना खाया जाता है और न ही सोया जाता है। इसलिए मन मानवजीवन का महत्त्वपूर्ण उपकरण है। मन मनुष्य को भगवान् भी बना सकता है, शैतान भी और हैवान (पशु) भी। उसमें सर्वत्र गमन की शक्ति है । मन में मुख्यतया नो गुण महाभारत में बताये गये हैं-(१) धैर्य, (२) तर्क-वितर्क में कुशलता, (३) स्मरण, (४) भ्रान्ति, (५)कल्पना, (६) क्षमा, (७-८) शुभ-अशुभ संकल्प, और (8) चंचलता।' विज्ञान के अनुसार प्रकाश का वेग एक सैकंड में १ लाख ८६ हजार मील है, विद्युत् का वेग है-२ लाख ५८ हजार मील; जबकि विचारों का वेग २२ लाख ६५ हजार १२० मील है।' कोई भी यान इतना द्रुतगामी नहीं है, जितना मनोयान है। कोई भी भौगोलिक राज्य इतना बड़ा नहीं है जितना मनोराज्य है । इसकी ग्रन्थियों को खोलकर फैलाया जाये तो छहों महाद्वीपों में नहीं समा पाती । इस छोटे-से शरीर में मन की असंख्य ग्रन्थियों का पिण्ड बहुत ही आश्चर्यजनक है। चरकसंहिता में मन के ये विषय बताये हैं(१) चिन्त्य—यह करने योग्य है या नहीं-इसका चिन्तन करना, (२) विचार्य-इस कार्य से लाभ है या अलाभ-यह विचार करना, (३) ऊह्य-यह कार्य ऐसे होगा, ऐसे क्यों नहीं-इस प्रकार तर्क करना, (४) ध्येय-किसी कार्य के विषय में दीर्घ चिन्तन-ध्यान करना, (५) संकल्प्य यह दोषयुक्त है यह दोषमुक्त, यों निश्चय करना, (६) ज्ञेय-सुख-दुःख आदि का ज्ञान करना। हमें तारने वाला भी मन है और डुबाने वाला भी मन ही है। हमारा मन जब अन्तर की ओर झांकता है, तब हम तर जाते हैं । कलह, क्लेश आदि क्या हैं ? ये मन के बाहर झाँकने के प्रकार हैं । मन जब बहिर्मुखी होकर देखता या उपर्युक्त कार्य करता है, तभी ईर्ष्या, द्वेष, मोह, अहंकार, कलह, क्लेश आदि उत्पन्न होते हैं। यों १. धैर्योपपत्ति व्यक्तिश्च, विसर्गः कल्पनाक्षमा । सदसच्चाशुता चैव मनसो नव वै गुणाः ॥ -महाभारत, शान्तिपर्व, २५५/६ २. सामायिकसूत्र (भाष्य) पृ० ५५ ३. चिन्त्यं विचार्यमूह्य च, ध्येयं संकल्प्यमेव च । यत्किचिन्मनसो ज्ञयं, तत्सर्वं ह्यर्थसंज्ञकम् ।।-चरकसंहिता, शरीरस्थान १/२० For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति -२ ४३ तो मन की असंख्य ग्रन्थियाँ हैं और वे मुकुलित रहती हैं। सामग्री का योग मिलने पर ही उनके तार खुलते हैं । सामग्री के योग से मन की अनेक ग्रन्थियाँ संकुचित और अनेक विस्तृत होती हैं । संक्षेप में राग और द्वेष इन दो में मन की असंख्य ग्रन्थियाँ समाविष्ट हो जाती हैं । सभी अपने मन के संकल्प से ही छोटे-बड़े बनते हैं । वस्तु पर अच्छेपन या बुरेपन की छाप मन लगाता है । कार्य की सिद्धि होगी या असिद्धि – यह भी मन के उत्साह - अनुत्साह से ज्ञात हो जाता है । मन से किया हुआ कार्य ही वस्तुत: किया हुआ है, शरीर से किया हुआ नहीं। मन में ही इतनी शक्ति है कि वह निजरुचि या संकल्प से स्वर्ग को नरक और नरक को स्वर्ग बना सकता है । प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने मन से ही सातवें नरक तथा छब्बीसवें स्वर्ग में जाने की तैयारी कर ली । तन्दुलमत्स्य मन के दुःसंकल्प के कारण अन्तर्मुहूर्त की आयु में ही सातवीं नरक की यात्रा कर लेता है । मनोभावना का प्राकृतिक पदार्थों पर भी प्रभाव पड़ता है, पेड़-पौधों पर तो पड़ता ही है, जल पर भी पड़ता है । एक बार तीन व्यक्तियों ने पौधों पर जल सींचा। एक के सींचे हुए पौधे कुम्हला गये, दूसरे के सींचे हुए पौधे लहलहा उठे, और तीसरे के सींचे हुए पौधे मूलरूप में रहे । वैज्ञानिकों ने तीनों के मन का अध्ययन किया, उससे पता चला कि पहले व्यक्ति के मन में पानी सींचते समय क्रूरता थी, दूसरे के मन में करुणा एवं मंत्री की भावना थी, जबकि तीसरे के मन में न क्रूरता थी और न करुणा । श्रीमद्भागवत में मन को ही सुख-दुःख का मुख्य कारण बताया गया है— नाsयं जनो सुखदुःख हेतुनं देवतात्मा ग्रह-कर्म- कालाः । मनः परं कारणमामनन्ति, संसारचक्रं परिवर्तयेद् यत् ॥' - मेरे सुख-दुःख के कारण न तो ये मनुष्य हैं, और न देवता, न शरीर है, और न ग्रह, कर्म या काल आदि हैं । मन ही सुख-दुःख का कारण माना गया है, क्योंकि यही संसारचक्र को चला रहा है । देवी भागवत में भी मन की पवित्रता - अपवित्रता पर सारे पदार्थों का परिणाम निर्भर है, यह सूचित किया गया है मनस्तु सुखदुःखानां महतां कारणं द्विज ! जाते तु निर्मले ह्यस्मिन्, सर्व भवति निर्मलम् ॥' - द्विजवर ! मन ही महान् दुःखों का कारण है । इसके निर्मल होने पर सम कुछ निर्मल हो जाता है । मन निर्मल न हो तो सभी क्रियाएँ निरर्थक और निष्फल हो जाती हैं । १. श्रीमद्भागवत ११ / २३/४३ २. देवीभागवत १ / १५ For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानन्द प्रवचन : भाग ११ इसलिए मन को बन्ध और मोक्ष का कारण बताया गया है बन्धाय विषयासक्त, मुक्त्यै निविषयं मनः । मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः ॥ -मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण न तो शरीर है, न इन्द्रियां हैं और न ही जीवात्मा है । वस्तुतः विषयासक्त मन ही मनुष्य के लिए बन्धजनक होता है और विषयमुक्त मन होता है मुक्ति के लिए । अतः बन्ध और मोक्ष का कारण मनुष्यों का मन ही है। इसी मन पर विजय प्राप्त करने वाला व्यक्ति विजितात्मा कहलाता है। परन्तु मन तो बड़ा ही चंचल, जिद्दी और हठी है, इस पर नियंत्रण करना बड़ा ही कठिन काम है । बड़े-बड़े योगी इस कार्य में असफल हो गये। एक दिन अर्जुन जैसे जिज्ञास भक्त ने भी कर्मयोगी श्रीकृष्ण के समक्ष मनोनिग्रह की दुष्करता प्रस्तुत की थी चंचलं हि मनः कृष्ण ! प्रमाथि बलवद् दृढम् । तस्याऽहं निग्रहं मन्ये, वायोरिव सुदुष्करम् ॥ -हे कृष्ण ! मन तो बड़ा चंचल, बलवान, जिद्दी और सुदृढ़ है, मैं तो उसका निग्रह हवा को पकड़ने की तरह अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ। मनोविजय का मतलब ही है- मन का निग्रह करना, मन को वश में कर लेना, बहुत ही कठिन काम है यह !२ मन को अपने वश में करने का तात्पर्य है-'जा' कहते ही वह चला जाये और 'आ' कहते ही वह उपस्थित हो जाये । इसी प्रकार का आज्ञाकारी सेवक हो जाये तभी समझा जाएगा कि मन अपना हो गया है। किसी सेठ के सामने उसका नौकर खड़ा हो और उस समय सेठ किसी दूसरे आदमी से बातचीत करना चाहता हो तो वह नौकर की ओर देखता है । नौकर फौरन समझ जाता है कि सेठ प्राइवेट बातचीत करना चाहता है इसलिए नौकर वहाँ से अन्यत्र चला जाता है, और पुनः जरा सा संकेत पाते ही आकर उपस्थित होता है । इसी प्रकार मन को भी अभ्यास और वैराग्य से प्रशिक्षित और नियंत्रित करना पड़ेगा, तभो मनोविजय कहलायेगा। दूसरी बात यह है कि मन विषयों और कषायों के सम्पर्क से इतना मलिन हो जाता है कि उसका आत्मा की आज्ञा में रहना कठिन हो जाता है। अतः मन की शुद्धि के बिना, वह सरल नहीं बनता और सरल बने बिना वह आज्ञाकारी और आत्माधीनस्थ नहीं बनता है । जब तक मन वैसा नहीं बनता, तब तक व्यक्ति मनोविजेता नहीं कहलाता । ज्ञानार्णव में बताया गया है १. चाणक्यनीति १३/१२ २. भगवद्गीता ६/३४ ३. अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः। -पातंजल योगदर्शन १/१२ । For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति–२ ४५ मनःशुद्ध यैव शुद्धिः स्यात्, देहिनां नात्र संशयः । वृथा तद्व्यतिरेकेण, कायस्यैव कदर्थनम् ॥१ “इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्राणियों के मन की शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है। उसके बिना केवल शरीर को कष्ट देना व्यर्थ है।" जब तक मन मैला है, तब तक तन का श्रृंगार करना व्यर्थ है। संत कबीर ने तो स्पष्ट कह दिया मन लोभी मन लालची, मन चंचल मन चोर । मन के मते न चालिए, पलक-पलक मन और ।। गणधर गौतम स्वामी से केशीकुमार श्रमण ने भी जब मनोनिग्रह के विषय में पूछा तो उन्होंने बड़े मार्मिक शब्दों में उत्तर दिया मणो साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावई । त सम्मं तु निगिण्हामि, धम्मसिक्खाइ कंथगं ॥ -मन ही साहसिक एवं भयंकर दुष्ट घोड़ा है जो चारों ओर दौड़ता है, लेकिन मैं उस कंथक घोड़े को धर्मशिक्षा से काबू में करता हूँ।3.. अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वह मनरूपी घोड़ा प्रशिक्षित किया जा सकता है। परन्तु दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि वर्तमान युग का मानव और अनेक बातों का प्रशिक्षण लेता है, लेकिन मन को प्रशिक्षित करने के सम्बन्ध में प्रायः विचार नहीं करता, वह ऐसे प्रशिक्षण को अनावश्यक समझता है । मैंने कहीं एक कहानी पढ़ी थी-एक राजा ने एक बार सात जंगली घोड़े पकड़वाकर मंगाये। वर्षभर उन्हें खूब खिला-पिलाकर मोटे-ताजे बना दिये, उनसे कुछ भी काम न लिया गया। फलतः वे स्वच्छन्दी घोड़े बहुत ही ताकतवर और साथ ही खतरनाक हो गये। उन्हें तबेले में बाँधना और खोलना भी कठिन हो गया। यहां तक कि उन घोड़ों के पास जाना भी खतरे से खाली नहीं था। अतः राजा ने राज्यभर में ढिंढोरा पिटवाया कि जो सात मनुष्य इन सात घोड़ों पर सवारी कर लेंगे, उनका बहुत सम्मान किया जायेगा और अपनी सेना में उनको अधिकारी नियुक्त किया जायेगा। इनमें से जो सर्वप्रथम आयेगा, उसे घुड़सवार सेना का सेनापति बनाया जायेगा । यह घोषणा सुनते ही बहुत से लोग उन घोड़ों को देखने आये पर देखते ही उनके छक्के छूट जाते । फिर ७ बहादुरों ने यह बीड़ा उठाया। राजा ने प्रतियोगिता का दिन, समय और दूरी की सीमा तया वापस लौटने की अवधि आदि सब बातें निश्चित कर दीं। सौ मील तक घोड़ों पर सवार होकर जाना था, ७ दिन में वहां तक पहुँचकर वापस लौटने की शर्त थी। सात दिनों में जो सवार घोड़े के साथ सहीसलामत पहुँच जायेगा, उसे विजयी माना जाएगा। २. कबीर दोहावली १. ज्ञानार्णव पृ० २३४ ३. उत्तराध्ययन सूत्र २३/५० For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ निश्चित दिन घोड़े बाहर निकाले गये । सातों सवार उपस्थित हुए। हजारों दर्शक इस घुड़दौड़ को देखने आये । सवारों के चढ़ते ही घोड़े उन्हें ठीक रास्ता छोड़कर जंगल की ओर ले भागे। उन घोड़ों को काबू में लेना बहुत ही मुश्किल था। सवार उन घोड़ों की पीठ पर अवश्य बैठे थे, लेकिन नहीं जैसे ही थे । घोड़ों पर उनका कोई काबू न था । फलतः थोड़ों को वे सवार नहीं, घोड़े ही सवारों को लेकर रफूचक्कर हो गये। एक दिन बीता, दो दिन बीते, अभी तक उन सवारों और घोड़ों का कोई पता नहीं लगा। सभी चिन्तातुर थे। तभी तीसरे दिन एक घुड़सवार लहूलुहान एवं घायल हालत में लौटा । घोड़ा भी घायल था। उसके बाद दूसरे ५ सवार भी उसी तरह लहलहान एवं घायल अवस्था में लौटे । जो पहला सवार था. वह अभी तक नहीं लौटा था । सातवां दिन हो गया, तब भी उसका कोई अता-पता न था । सभी लोग सोचने लगे—वह खत्म हो गया है, अब लौटने वाला नहीं। परन्तु सभी के आश्चर्य के बीच सातवें दिन सूर्यास्त से पहले ही वह गीत गुनगुनाता हुआ आ पहुँचा । वह और उसका घोड़ा दोनों ही स्वस्थ और प्रसन्न थे। उसमें अत्यन्त उमंग थी, घोड़े की आँखों में भी अपने सवार के प्रति कृतज्ञता और प्रेम था। राजा ने उसे देखकर धन्यवाद देते हुए कहा- 'शाबाश युवक ! सातों में तुम ही अकेले सच्चे सवार लगते हो, बाकी के कोई सच्चे सवार नहीं हैं, उनकी सवारी घोड़ों ने ही की है।" राजा ने उस सवार को सेनापति बना दिया । जो रहस्य सेनापति बने हुए सवार की सवारी का है, वही यहाँ मनरूपी घोड़े की सवारी का रहस्य है । वह सवार केवल ४ दिन घोड़े के साथ रहा। उसने सवार न बनकर साथी बनने की कोशिश की। इसलिए उसने घोड़े की लगाम भी नहीं छुई, न घोड़े को दिशादर्शन किया, न कोई इशारा ही किया । वह घोड़े की पीठ पर था, पर नहीं जंसा ही। घोड़े को यह मालूम नहीं पड़ने दिया कि वह है । घोड़ा पहले तो स्वच्छंदी और खुल्ला था, सवार केवल दर्शक था। घोड़ा जब थक जाता तो वह उसे विश्राम देता था, तथा उसके लिये भोजन और छाया की व्यवस्था करता था। जब वह पुनः तरोताजा होकर दौड़ने को तैयार होता, सवार चुपके से उसकी पीठ पर सवार हो जाता, मानो सवार, सवार नहीं, केवल दर्शक है। उसके इस व्यवहार से घोड़ा चार ही दिनों में उसका मित्र बन गया, वह विनीत और कृतज्ञ हो गया । जो अब तक पराया था, शत्रु-सा था, वह मित्र हो गया। अब वह सवार की इच्छा के अधीन होकर चलने लगा। यही उस सवार की उस घोड़े पर विजय थी। बन्धुओ ! इस संसार में लगभग तीन अरब मनुष्य होंगे। उन सभी को एकएक घोड़ा मिला हुआ है । पर मैं आपसे पूछता हूँ कि उनमें से सच्चे सवार कितने हैं ? मेरी दृष्टि से उनमें से सच्चे सवार इनेगिने ही निकलेंगे, अधिकांश तो घोड़े के For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति- २ ४७ साथ लटके हुए लहूलुहान उन घुड़सवारों की तरह हैं, जिनके घोड़े भी घायल हैं, स्वयं भी घायल हैं। जिन्हें अपने मनरूपी घोड़े पर सवारी करना नहीं आता, उनकी यह जीवनयात्रा भारभूत ही सिद्ध होती है। वे मनरूपी घोड़े पर सवार नहीं हैं, मनरूपी घोड़ा ही उन पर सवार है। जो अपने मनरूपी घोड़े को मार-पीटकर घायल करके नहीं, उसके दर्शक बनकर धीरे-धीरे प्रेम से, आत्मीयता से अपने अनुकूल बना लेते हैं, अपनी इच्छा से चलाते हैं, वे ही सच्चे सवार हैं । मनोविजय का यही रहस्य है। मन पर नियंत्रण करने की सही विधि ज्ञात न होने से आज अधिकांश साधक उसे ठोक-पीटकर मारना चाहते हैं, परन्तु मनोविजय मारने से नहीं, साधने से होती है । मनुष्य की सेवा में मन हर घड़ी ताबेदार सेवक की तरह तैयार खड़ा रहता है, वह कभी थकता नहीं, रुकता नहीं, कभी बूढ़ा नहीं होता, सतत उद्यम उसका स्वभाव है, इच्छाएं करते रहना और उनकी पूर्ति के पीछे भागते फिरने में ही उसे आनन्द आता है । मन की शक्ति अपार है, वह सब कुछ कर सकता है, परन्तु उसमें स्वेच्छाचारिता का दुर्गुण है, जिसके कारण वह अनियंत्रित रहता है । अनियंत्रित मन मनुष्य को पथभ्रष्ट कर देता है, वह जीवनलक्ष्य की ओर न ले जाकर इन्द्रियसुखों के बीहड़ में ले जाता है, वहाँ किसी न किसी रोग, शोक, कलह, कुसंग, कुमार्ग या कुटेब से टकरा कर जीवन नष्ट कर देता है । मनुष्य का मन पारे की तरह है । अशुद्ध पारा खा लेने पर जीवन से हाथ धोने की नौबत आजाती है, किन्तु वही पारा जब शुद्ध और संस्कारित हो जाता है तो अमूल्य औषधि बन जाता है । संस्कारहीन मन अशुद्ध पारे के समान मानव-जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है, जबकि सुसंस्कृत और विशुद्ध मन जीवन को उन्नत, सुखी, महान्, उच्च और पवित्र बना देता है । मन की शक्तियां विलक्षण हैं। इसीलिए कहा गया है जितं जगत् केन ? मनो हि येन । -जगत् को किसने जीता ? जिसने मन को जीत लिया, उसने जगत् को जीत लिया। . 'मनोविजेता जगतो विजेता" -मन का विजेता जगत् का विजेता है। जिसे आँखें नहीं देख सकती, कान नहीं सुन सकते, मन उसे भी आसानी से ग्रहण कर सकता है; बशर्ते कि उसकी चंचलता को रोककर पारदर्शी स्फटिक की तरह स्वच्छ बनाया जा सके । यद्यपि श्रोत्रादि इन्द्रियों का सहारा लेकर ही मन विषयों का सेवन करता है, तथापि कई बार इन्द्रियों का आश्रय लिये बिना भी मन विषयों और कषायों का चिन्तन, सेवन और आस्वादन करता है। इसलिए मन की प्रवृत्तियों पर चौकसी रखना और सतर्क रहना बहुत आवश्यक है । यदि मन असह For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ योग करे, कुमार्ग में चलने की हठधर्मी करे तो एक भी इन्द्रिय प्रयोजन की—काम की नहीं रहती। इसलिए पहले से ही मन को अपना सहयोगी और अनुकूल बनाने का प्रयत्य करना चाहिए । इसीलिए कठोपनिषद् में कहा गया है विज्ञानसारथिर्यस्तु मनः प्रग्रहवान् नरः। सोऽध्वनः पारमाप्नोति, तद्विष्णोः परमपदम् ॥ -जो मनुष्य विवेकी सारथी के समान अपनी जागृत और सतर्क बुद्धि के द्वारा मन की लगाम को वश में रखता है वह इस संसार से पार होकर परमात्मा के परमपद को प्राप्त करता है । जितेन्द्रियता-मनोविजयी होने के साथ-साथ साधक का जितेन्द्रिय होना भी बहुत आवश्यक है; क्योंकि कई बार प्रबल इन्द्रियाँ अत्यन्त उतेजित होकर संयमी (साधु-संन्यासी) के मन को भी बलात् खींच लेती हैं, अर्थात् उसके मन को भी विषयों की ओर ले जाती है। गीता में कहा गया है इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः२ इसके अतिरिक्त इन्द्रियाँ अपने पूर्वसंस्कार एवं अभपास के अनुसार मनुष्य को अहर्निश विभिन्न दिशाओं में अपनी-अपनी ओर खींच ले जाती हैं। जीभ चाहती हैतरह-तरह के मिठाई, पक्वान्न आदि स्वादिष्ट पदार्थ खाने को मिलें । आँखें सुन्दर दृश्य देखने को बार-बार लालायित रहती हैं, कान मधुर संगीत की खोज में रहते हैं । जननेन्द्रिय उसे कामभोग की ओर प्रेरित करती हैं, घ्राणेन्द्रिय उसे सुगन्धित पदार्थ की ओर खींच ले जाती है । अगर मनुष्य असावधान (गाफिल-प्रमादी) रहता है, तो पाँच ही क्यों एक ही इन्द्रिय उसे विनाश के गर्त में डालने में काफी होती है, पांचों इन्द्रियविषयों में आसक्त का तो कहना ही क्या ? कहा भी है कुरंग-मातंग-पतंग-भृग-मीनाहताः पंचभिरेव पंच । एकः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेवते पंचभिरेव पंच॥ मृग श्रवणेन्द्रियविषय में, हाथी स्पर्शेन्द्रियविषय में, पतंगा चक्षुरिन्द्रियविषय में, भौंरा घ्राणेन्द्रियविषय में और जिहद्रिय विषय में आसक्त होकर अपने प्राण खो देता है। यों एक-एक इन्द्रिय में आसक्त होकर प्राणी विनष्ट हो जाता है अतः जो मनुष्य एक ही इन्द्रिय का प्रमादी होता है वह भी जब नष्ट हो जाता है तो पांचों इन्द्रियविषयों के प्रमादी का तो कहना ही क्या है ? कहने का मतलब यह है कि इन्द्रियों और मन के विषय असीम हैं, इनके सेवन से मनुष्य को कभी तृप्ति नहीं होती, वरन् आत्मविजय या आत्मज्ञान की महत्वपूर्ण आवश्यकता बीच में ही छूट जाती है, काम, क्रोध, लोभ, मोह मत्सर, राग-द्वोष, ईर्ष्या, विषयास्वादन, आदि हीनवृत्तियों के अधीन होकर मनुष्य की जीवनदिशा पूर्णतया १. कठोपनिषद् १/३/६ २. भगवद्गीता, अ० ६ For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति-२ ४६ सांसारिक हो जाती है। ऐसी स्थिति में अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख, सामर्थ्य का भण्डार, नित्य, शाश्वत और अविनाशी आत्मा अपनी शक्ति को भूलकर इन इन्द्रियों की गुलाम बन जाती है। कदाचित् मनुष्य बौद्धिक बल के आधार से शास्त्रों और ग्रन्यों से रट-रटाकर आत्मज्ञान पा भी ले तो वह केवल तोतारटन होगा, उस ज्ञान के अनुभवयुक्त न होने से अथवा आचरण से रिक्त होने से व्यक्ति इन्द्रियों के विविध प्रलोभनों से जल्दी छूट नहीं पायेगा । इसलिए इन्द्रियविजय के लिए सर्वप्रथम उसे इन्द्रियसंयम का अभ्यास करने की आवश्यकता है । जिसकी इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर होती है । जितेन्द्रिय का लक्षण मनुस्मृति में इस प्रकार दिया गया है श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च द्रष्ट्वा च, भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः। न हृष्यति क्लायति वा, स विज्ञेयो जितेन्द्रियः ॥ -निन्दा-प्रशंसा सुनकर, सुखद-दुःखद कोमल-कठोर वस्तु को छूकर, सुरूप-कुरूप को देखकर, सरस-नीरस वस्तु को खाकर तथा सुगन्ध-दुर्गन्ध वस्तु को सूंघकर जिसे हर्ष-विषाद नहीं होता उसे जितेन्द्रिय समझना चाहिए। जो व्यक्ति इन्द्रियों में आसक्त हो जाता है, उसकी सारी चेष्टाएं, कुत्सित, घृणित, अदूरदर्शी एवं क्षणिक सुखोपभोग के आसपास ही चक्कर लगाया करती हैं । क्षणिक इन्द्रियविषयसुखों से लक्ष्यपूर्ति में कोई सहायता नहीं मिलती। उलटे, शक्ति के अपव्यय से निराशा, उत्तेजना, असंतुष्टि और ग्लानि पैदा होती है । विषयभोगों में या भोग्यपदार्थों में मनुष्य को वास्तविक सुख नहीं मिल सकता । जिसे हम,सुख समझते हैं, उसके बदले में बड़े दुःख के रूप में मूल्य चुकाना पड़ता है । जब तक वह काल्पनिक सुख नहीं प्राप्त होता, तब तक प्राप्त करने की बेचैनी, फिर भोगते ही समाप्त हो जाने पर पुनः नये सिरे से इन्द्रियों को प्रेरित करना पड़ता है, बार-बार विषयसेवन से रोग, क्लेश, दुःख, ग्लानि, शक्तिव्यय, शोक, पश्चात्ताप आदि न जाने कितनी हानियाँ उठानी पड़ती हैं। कोल्हू के बैल की तरह विषयभोगों की अन्धी दौड़ में मनुष्य को कितना हैरान होना पड़ता है ! अतः बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि इन्द्रियों को बाह्यविषयों में स्वच्छन्द न भटकने देकर आत्मा की विकास यात्रा में इन्हें सहायक बनाए, आध्यात्मिक उत्कर्ष में इन्द्रियों का उपयोग करे । इन्द्रियविजय का अर्थ इन्द्रियों को बंद करके या गठेड़ी बांधकर रख देना नहीं है, अपितु इन्द्रियों पर संयम और सावधानी रखी जाये । इन्द्रियां जब भी विषयों की ओर दौडें, तब उन्हें सावधानी से सम्हाला जाये, देखभाल रखी जाये और उनकी शक्ति को बर्बाद न होने दिया जाये, जिससे आत्मा की विकास यात्रा निर्विघ्नता से पूर्ण हो सके । इसीलिए उपनिषद्कार एक रूपक द्वारा इसे समझाते हैं १. मनुस्मृति २/९८ For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० आनन्द प्रवचन : भाग ११ आत्मानं रथिनं विद्धि, शरीरं रथमेव तु । बुद्धि तु सारथिं विद्धि, मनः प्रगहमेव च ॥ इन्द्रियाणि हयानाहु विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रिय-मनोयुक्तो भोक्त त्याहुर्मनीषिणः॥ अर्थात्-शरीर एक रथ है, आत्मा इस पर आरूढ़ होने वाला रथ का स्वामी (रथी) है। आत्मा को यह रथ मोक्ष पाने के लिए मिला है। इन्द्रियाँ इस रथ के घोड़े हैं, ये विषयों की सड़क या गोचर भूमि पर चलते हुए मुक्तियात्रा की ओर बढ़ते हैं, रथ का सारथी है-मनुष्य की बुद्धि या विवेक । यदि वह सजग है तो इन्द्रियाँ अनिष्ट विषयों में न भटककर कुशलतापूर्वक इन्द्रिय मनोयुक्त अपने स्वामी (आत्मा) को परमात्मा के निकट पहुँचा देती हैं। निष्कर्ष यह है कि इन्द्रियों को उपयोग करना, विषयों को जानना एकान्ततः पापरूप नहीं है, ये अन्तःकरण की उचित क्षुधा-तृषा को तृप्त करने का माध्यम हैं। देखना, सुनना आदि इन्द्रियविषय भी आवश्यक है । शरीर को इन उचित आवश्यकताओं को समय पर पूर्ण नहीं किया जाये तो जीवन का सन्तुलन बिगड़ जाता है, जिसका प्रभाव शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। यदि इनका सदुपयोग किया जाये तो मनुष्य निरन्तर जीवन का मधुर रसास्वादन करता हुआ उसे सफल बना सकता है । इन्द्रियाँ शत्रु तो तब तक हैं, जब तक इनका उपयोग बाह्य-जीवन के सुखोपभोग में करते हैं । इन्द्रियों की प्रबलता या सीमातिक्रमण या विषयलोलुपता ही आत्मकल्याण के मार्ग में प्रबल शत्रुता का काम करती है। गीताकार ने स्पष्ट कर दिया है कि प्रत्येक इन्द्रिय के अर्थ (विषय) के साथ राग और द्वष सन्निहित हैं, जितेन्द्रिय को चाहिए कि उन (राग और द्वष) के वश में न हो; क्योंकि ये दोनों ही आत्मकल्याण के पथ में प्रबल शत्रु हैं। जिन इन्द्रियों को आत्मविकास में विघ्नकारक समझा जाता है, वे ही (विषयों के प्रति राग-द्वेष न हो तो) आत्मकल्याण का कारण बन सकती हैं, मानसिक चंचलता और आन्तरिक मलिनता का उदय इन्द्रियों के असंयम से होता है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में ठीक ही कहा है इन्द्रिय-द्वार झरोखा नाना, तहँ-तहँ सुर बैठे करि थाना । आवत देखहि विषय बयारी, ते हठि देहि कपाट उघारी॥ जब सो प्रभंजन उर गृह जाई, तबहिं दीप विज्ञान बुझाई। इन्द्रियसुरन्ह न ज्ञान सोहाई, विषयभोग पर प्रीति सदाई ॥ तात्पर्य यह है कि अनियंत्रित इन्द्रियाँ बलात् विषयों की ओर खींच ले जाती हैं, तब ज्ञान-विज्ञान का दीपक विषयों के प्रवल अंधड़ से बुझ जाता है । विषयों के प्रति राग-द्वेषों में स्वच्छन्द विचरण करती हुई इन्द्रियाँ विचार एवं विवेक से थोड़ी For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति - २ ५१ देर के लिए नियंत्रण में रखी जा सकती हैं । इतना करने से भी यह नहीं कहा जा सकता कि इन्द्रियाँ आपके वश में हो गई । अनुकूल परिस्थिति या संयोग मिलते ही उनमें पुनः प्रबल उत्तेजना उठे बिना नहीं रहती । ऐसी स्थिति में विचार-शक्ति कुंठित हो जाती है; एक आवेश के साथ विद्वान् माने जाने वाले लोग भी बलात् "उन दुर्विषयों से जनित दुष्कर्मों की ओर खिंच जाते हैं । विचार जब तक सुदृढ़ नहीं होते तब तक यह खतरा उपस्थित हो सकता है, इसलिए अपने प्रत्येक विचार को संकल्प का रूप देना चाहिए। बहुत हो सतर्कता और सूक्ष्मता से यह देखते रहना चाहिए कि इन्द्रियाँ कहीं स्वच्छन्दता से हमें बलात् घसीट तो नहीं रही हैं । इन्द्रियों का स्वभाव जानकर उन्हें सही मार्ग पर चलाएँ । अपनी आन्तरिक निर्मलता बनाये रखने से इन्द्रियाँ सहसा उन्मार्ग में नहीं जातीं, संयमित होने लगती हैं । द्व ेष, घृणा, ईर्ष्या, मोह, क्रोध आदि से अन्तःकरण मलिन व दूषित बनता है, तब मनोभावनाओं में मंत्री, आत्मीयता, सहानुभूति, दया, क्षमा आदि की प्रचुरता होती है तो आन्तरिक पवित्रता या श्रेष्ठता स्थिर रहती है । जब तक ऐसी स्थिति बनी रहती है, तब तक सहसा दूषित विकार उत्पन्न नहीं होने पाते और इन्द्रियाँ नियंत्रित बनी रहती हैं । सबसे आसान उपाय यह है कि अपना अधिकांश समय स्वाध्याय, तत्त्वचिन्तन, आत्मा और परमात्मा के चिन्तन-मनन में या किसी महान् सत्कार्य, सेवाकार्य आदि में लगाये रखें। जितनी देर तक आपका मन आन्तरिक शक्तियों के विचार क्षत्र में डूबा रहेगा उतनी देर तक इन्द्रियविषय शान्त रहेंगे । फिर भी यदि वे उठते हैं तो भक्तिमार्गियों ने एक समर्पणात्मक उपाय बताया है— इन्द्रियों के बहलाने का, उसे अजमाया जा सकता है गोविन्दं प्रणमोत्तमांग ! रसने ! तं घोषयाहर्निशम् । पाणी ! पूजय तं मनः ! स्मर पदे ! तस्यालयं गच्छताम् ॥ हे सिर! तुम गोविन्द को प्रणाम करो, हे रसना ! तुम रातदिन उसके नाम का रटन करो, ऐ दोनों हाथो ! तुम उसकी पूजा-सेवा करो, हे मन ! उसका स्मरण करो और हे पैरो ! तुम उसके देवालय की ओर जाओ । आँखो ! तुम उसे देखो, कानो ! तुम उसे ही सुनो । इत्यादि तरीके से इन्द्रियविषयों के अधम उपयोग से बचने की युक्ति भक्तिमार्गियों ने बताई है । ज्ञानी आत्मा सम्यग्ज्ञानपूर्वक इसे आत्मरमण की युक्ति बना सकता है । आप भी वीतराग प्रभु के नाम-जप आदि के रूप में कोई भी उपाय आजमा सकते हैं । मूल बात है - मन का संकल्पवान् होना, उसी से इन्द्रियों और उनके विषयों पर यथोचित नियंत्रण रखा जा सकता है । इन्द्रियों को आत्मा की शत्रु नहीं, सेविकाएँ मानना चाहिए | ये अमर्यादित और स्वेच्छाचारिणी होती हैं, तभी जीवनलक्ष्य से गिराती हैं, किन्तु इनका सदुपयोग आत्मकल्याण में साधक बनता है । यही जितेन्द्रियता का रहस्य है । 1 For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ तप के बारह भेदों में से एक भेद है - प्रतिसंलीनता । औपपातिक सूत्र में प्रतिसंलीनता के चार प्रकार बताये हैं - १. इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता, २. योग प्रतिसंलीनता, ३. कषाय प्रतिसंलीनता और ४. विविक्त शयनासनप्रति संलीनता । इन्द्रियदमन या इन्द्रियनिग्रह के लिए यहाँ इन्द्रियप्रतिसंलीनता शब्द प्रयुक्त है । योगदर्शन में प्रत्याहार शब्द का जो अर्थ है, उससे विशद अर्थ है - प्रतिसंलीनता का । इन्द्रियप्रति संलीनता का अर्थ है— इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से हटाकर अपने -अपने गोलक में स्थापित कर देना । जैसा कि शंकराचार्य ने 'दम' का अर्थ किया है विषयेभ्यः परावर्त्य, स्थापनं स्वस्वगोलके । उभयेषामिन्द्रियाणां स दमः परिकीर्तितः ॥ वास्तव में इन्द्रियों की गति बाहर की ओर है । आँख बाहर की ओर देखती है, कान बाहर की बात सुनता है, जीभ बाहर की वस्तु चखती है, नाक भी बाहर की गन्ध को ग्रहण करती है, स्पर्शेन्द्रिय भी बाहर की वस्तु का स्पर्श करती है । इस प्रकार इन्द्रियों का बाह्य जगत् से जो सम्पर्क है, उसे विच्छिन्न करके आन्तरिक जगत् से सम्पर्क स्थापित करा देना इन्द्रिय प्रतिसंलीनता का प्रयोजन है । इसके लिए समस्त इन्द्रियविषयों से उपरम मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए, ताकि इन्द्रियाँ बाहरी विषयों से अपना सम्बन्ध तोड़ सकें । इस प्रकार के इन्द्रियप्रतिसंलीनता के अभ्यास से भी मनुष्य जितेन्द्रिय हो जाता है । 1 शरीरविजयी — यद्यपि इन्द्रियों पर विजय के साथ-साथ शरीर पर विजय हो जाती है; तथापि शरीरविजय के अन्य पहलू भी हैं जिन पर विचार करना आवश्यक है । शरीर - विजय से तात्पर्य है —शरीरासक्ति पर विजय । शरीर धर्मपालन के या आत्म-विकास के लिए महत्त्वपूर्ण साधन है, इसलिए साधनाकाल में शरीर का सर्वथा त्याग कथमपि अभीष्ट नहीं है वैसे ही शरीर के प्रति मोह-ममत्व रखकर इसका अत्यधिक लाड़-प्यार करना भी अभीष्ट नहीं है । शरीर एक रथ है । यह टूटा-फूटा, कमजोर या विषम होगा तो अपने गन्तव्य स्थान पर कदापि नहीं पहुँचा सकेगा, अधबीच में ही मनुष्य को धोखा दे देगा; विषय-वासनाओं और वैषयिक पदार्थों के बीहड़ में भटकाकर नष्ट कर देगा । शरीर की इस अशक्ति का प्रभाव मनुष्य के मन पर भी पड़ता है । मन की क्रियाओं की अभिव्यक्ति शरीर पर से होती है । मन जब भय आदि से काँपता है, तो वाणी, हाथ-पैर आदि सब अंग काँपने लगते हैं। मन में संदेह हो तो वाणी अस्पष्ट, आँखें स्थिर और अंग-प्रत्यंग की क्रियाएं ढीली हो जाती हैं, रोयें खड़े हो जाते हैं । मन के चौंकने से कान खड़े हो जाते हैं मन जब क्रुद्ध होता है तो सांस की गति बढ़ जाती है, चेहरा लाल हो जाता है । पुत्रवात्सल्य से आनन्द विह्वलमन होने पर माता के स्तनों से दूध टपकने लगता है । मनोभावों को दबाने से अनेक विकार एवं रोग उत्पन्न हो जाते हैं । शरीर की मुख्य आवश्यकताएं हैं—आहार, वस्त्र, आवास तथा अन्य सुख For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति-२ ५३ सुविधाएं । आहार शरीर की सबसे बड़ी आवश्यकता है, किन्तु केवल स्वादलालसा से माहार करने से, प्रतिदिन अत्यन्त गरिष्ठ, पौष्टिक, तामसिक भोजन करने से शरीर की क्षति ही अधिक होती है, अतिमात्रा में आहार करने का परिणाम तो आप जानते ही हैं । ऐसा करने से अनेक रोग पैदा होंगे, ब्रह्मचर्य का नाश होगा, इसलिए आहारविहार पर संयम रखना शरीरविजय के लिए अनिवार्य है। यही हाल वस्त्र और भावास का है। उनके उपभोग की भी एक सीमा निर्धारित न हो तो मनुष्य को अनेक दु:ख आ घेरेंगे । सीमातिक्रमण करके वस्त्रादि की प्राप्ति और उसके पश्चात् उसकी सुरक्षा आदि की चिन्ता में अनेक संक्लेशों का सामना करना पड़ता है। शरीर को सात्त्विक और उचित मात्रा में संतुलित आहार चाहिए, परन्तु असंयमी मनुष्य इसके बदले मांस, मत्स्य आदि या अत्यधिक मिर्च-मसाले वाले तले हुए चटपटे गरिष्ठ या तामसिक भोजन का उपभोग करके शरीर को नष्ट कर डालता है, दूध आदि सात्त्विक पेय के बदले शराब, भांग, गांजा, अफीम, बीड़ी, सिगरेट आदि नशैली मादक उत्तेजक वस्तुओं का सेवन करके शरीर तो बिगाड़ता ही है, साथ ही अपने में अपराधी और करवृत्ति को जन्म देता है, जीवन को अशान्त बना देता है, ज्ञान-तन्तुओं को उत्तेजित कर देता है । धीरे-धीरे शरीर अनेक रोगों का घर बन जाता है । पाश्चात्य देशों में इस प्रकार की आवश्यकताओं का अतिक्रमण करके लोग अशान्त हैं, वे अनेक रोगों से पीड़ित हैं, खासतौर से वे अनेक मानसिक रोगों के शिकार हैं। अमेरिका में ११ व्यक्तियों में से एक मानसिक शान्ति के लिए अनेक दवाइयां लेता है, नींद के लिए गोलियों का उपयोग करता है । ऐसी दवाइयों की शोध पर अमेरिका में १०० करोड़ रुपये प्रति वर्ष खर्च किये जाते हैं। ये आँकड़े बताते हैं कि अमेरिका में लोग कितने अशान्त हैं। शरीर श्रम का काम जहाँ मशीनों से लिया जाता है, वहाँ के लोग शारीरिक श्रम न करने के कारण पंगु, आलसी, अकर्मण्य, पराधीन और अशक्त बन जाते हैं। उन्हें प्रतिदिन कोई न कोई दवा लेनी पड़ती है। इस प्रकार शरीर का सन्तुलनसंयम न रखने से लोग असंयमी और पराधीन बन जाते हैं। ऐसे लोग न तो कोई आध्यात्मिक उन्नति कर सकते हैं और न ही किसी प्रकार की शारीरिक मानसिक उन्नति । सुख-सुविधाएं बढ़ाने से शरीर-सुख बढ़ते हैं, इस भ्रम ने भारतीय जनता को और खासकर पाश्चात्य जनता को चौपट कर दिया है। शरीर पर चाहे जितनी सुख-सुविधाएं लादी जाएं, वह सुखी नहीं होता, सुख और शान्ति का सम्बन्ध तो मन से है । इसलिए अतिसुखभोग की कल्पना से भारतीय और पश्चिम के लोग आज अशान्त एवं रोगाक्रान्त बने हुए हैं। शरीर में वीर्य से उत्पन्न होने वाली शक्ति और स्फूर्ति, उत्साह और पराक्रम आत्मविकास की यात्रा के लिए उपयोगी ही नहीं, अनिवार्य है। शरीर में बल-वीर्य की प्रचुरमात्रा न रहे तो वह आत्मिक आदेशों का पालन कैसे कर सकेगा ? इसलिए जैसे वीर्य रक्षा आवश्यक है; वैसे ही शरीर For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ आनन्द प्रवचन : भाग ११ को अनावश्यक खान-पान, ऐश-आराम तथा निरर्थक सुख-सुविधाओं से लादकर उसकी शक्तियों का रोग, क्लेश, अशान्ति, दुःख, चिन्ता, ईर्ष्या, अहंकार, काम, क्रोध आदि से क्षय कर डालने से बचाना भी आवश्यक है । अत्यधिक वीर्यपात, कामुकता, संभोगक्रिया, खानपान के असंयम, सुख-सुविधाओं का अतिमात्रा में उपभोग आदि ये सब शारीरिक शक्ति का ह्रास करने वाले हैं । इनसे मनुष्य की बुद्धि भ्रान्त होकर आत्मकल्याण का मार्ग छोड़ देती है । शक्ति का क्षरण हो जाने से शरीर की सहनशक्ति खतम हो जाती । अगर मनुष्य अपने शरीर पर संयम रखे, तो उससे शारीरिक शक्तियाँ का असाधारण विकास सम्भव है । गीता में इसे सुखदायक योग बताकर कहा है युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ -जो व्यक्ति युक्त आहार-विहार करता है, कर्त्तव्य कर्मों में युक्त चेष्टा (श्रम) करता है, जिसका सोना- जागना युक्त है, उसके लिए योग दुःखनाशक होता है । राममूर्ति जैसे पहलवान शरीरसंयमरूप योग से ही असाधारण शक्ति के धनी हो सके थे। जिन लोगों ने शरीर के प्रति असंयम रखा है, कामवासना की भट्टी में, स्त्री-शरीर के प्रति आकर्षित होकर शरीर को झौंका है, रुपहली चमक के पीछे अपने आत्मकल्याण को विस्मृत कर दिया है, उनके शरीर सूखे, निस्तेज, निर्वीर्य, शक्तिहीन दिखाई देते हैं । उन्होंने अपने शरीर की विद्युतृशक्ति, प्राणशक्ति और ऊर्जाशक्ति का अनावश्यक दुरुपयोग किया है, जिससे दुःखी, रोगी, अशान्त और अप्रसन्न दिखाई देते हैं । सचमुच वे अपने हाथों से अपनी शक्ति को नष्ट करने का अपराध करते हैं । शरीर के लिए बाह्यपदार्थों का अत्यधिक उपभोग भी सुख का कारण नहीं है । इस शरीर विज्ञान को समझकर शरीर को यथायोग्य नियंत्रण में रखना ही शरीरासक्ति पर विजय है । कायोत्सगं द्वारा भी शरीर के प्रति ममत्व और अध्यास को छोड़ने का अभ्यास किया जा सकता है और विविध बाह्य आभ्यन्तर तप के द्वारा भी । वे शरीररूपी अश्व के रईस बनो, सईस नहीं - शरीरविजेता का अर्थ यह भी है कि शरीर के दास नहीं, स्वामी बनना । शरीर का दास बनने वाला व्यक्ति रात-दिन शरीर की परिचर्या करने में जुटा रहता है, उसे और कुछ नहीं सूझता । वह शरीर भाव से उपर नहीं उठ पाता । शरीर को ही सर्वस्व समझता है, शरीर ही उसका सब कुछ है । परन्तु शरीर का स्वामी बनने वाला उससे यथोचित धर्मकार्यं लेता है, संयम पालन करता है, तप जप की आराधना करता है, शरीर गलत मार्ग पर चलता है तो वह रोकता है । एक जगह विद्यालय के दीक्षान्त समारोह के समाप्त होने के बाद दो स्नातक आचार्य के पास विदाई - आशीर्वाद लेने आये । उन्होंने आचार्य चरणों में सविनय नमस्कार करके अन्तिम उपदेश देने की प्रार्थना की । आचार्यश्री ने कहा - " वत्स ! For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितात्मा ही शरण और गति–२ ५५ जाओ, रईस की संगति करो, स्वयं रईस बनो।" इस आशीर्वाद से दोनों स्तब्ध रह गये । सोचा-आज तक गुरुजी ने ऐश्वर्य, धन, विलासिता आदि से सावधान रहने का सदैव उपदेश दिया था, किन्तु आज विदाई वेला में वे कैसा विरोधी उपदेश दे रहे हैं -रईसों की संगति करने और स्वयं रईस बनने की ! दोनों शिष्यों-स्नातकों की मुखाकृति पर से गुरुजी समझ गये कि वे असमंजस में पड़े हैं। अतः अपनी भावना को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा-मैंने तुम्हें रईस बनने को कहा है, सईस नहीं। रईस और सईस में बड़ा अन्तर है, समझ लो। देखो, यह शरीर एक घोड़ा है। सईस सबेरे उठकर घोड़े का सानी-पानी, गारसंभाल, और ऐसी ही खबरदारी करता है, खुरपा करता है, नहलाता है, दाना-पानी देता है, कुछ घुमाता है फिर उसे चरागाह ले जाता है या हरी घास काटकर खिलाता है । धूप-वर्षा से उसकी रक्षा करता है। सुबह उठने से रात को सोने तक हर समय उसकी सेवा-चाकरी में लगा रहता है। सईस नौकर है, दास है, स्वामी नहीं। और रईस वह है, जो उस पर लगाम डालकर सवारी करता है, वह उसे अपनी मंजिल की ओर सरपट दौड़ाता है, ठीक न चलने पर कोड़े भी लगाता है । कुमार्ग में मुड़ने पर लगाम खींचकर रोकता है। वह शरीररूपी घोड़े का स्वामी है। वह उसके कदम परमार्थ की मंजिल की ओर बढ़ाता है । दाना-पानी देने का ध्यान रखते हुए भी उसका उद्देश्य अश्व पर सवारी करना है। मैं भी यही चाहता हूँ कि तुम इस शरीररूपी अश्व के रईस यानी स्वामी बनो, सईस यानी दास न बनो। दूसरे शब्दों में कहूँ तो केवल शरीर को ही सब कुछ समझने वाले बहिरात्मा न बनो, किन्तु शरीर को आदेश देकर धर्माराधना में लगाने और उस पर संयम (नियंत्रण) रखने वाले अन्तरात्मा बनो । यही मेरे उपदेश का तात्पर्य है। दोनों स्नातक गुरुचरणों में नतमस्तक होकर सहर्ष विदा हुए। बन्धुओ ! शरीरविजय का रहस्य भी यही है कि शरीर के स्वामी बनो, दास नहीं । इस प्रकार जितात्मा का अन्तिम लक्षण यह है कि वह अपने मन, इन्द्रियों और शरीर पर विजय प्राप्त कर चुका हो । इसी बात को उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस। दसहा उ जिणित्ताणं, सव्वसत्तू जिणामहं ॥ -२३/३६ —गौतमगणधर कहते हैं "एक (मन) को जीतकर मैंने पाँचों (इन्द्रियों) को जीत लिया, और पांच को जीतकर दस (१ मन, ५ इन्द्रियाँ और ४ कषाय यों कुल १०) को जीत दिया। और दस को जीतकर मैं सर्वशत्रुओं को जीत लेता हूँ।" यों जितात्मा के ७ लक्षण मैंने आपके समक्ष प्रस्तुत किये हैं, इनके प्रकाश में आप चिन्तन-मनन करें, और अपने जीवन में जितात्मा के इन गुणों को लाने का प्रयत्न करें। For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ जितात्मा ही शरण्य और प्रगतिप्रेरक - गौतम महर्षि कहते हैं जो जितात्मा होता है; वही दूसरों को भव्य और जिज्ञासु आत्माओं को शरणदाता और प्रगतिप्रेरक हो सकता है। जो व्यक्ति स्वयं लक्ष्य के प्रति पुरुषार्थ करने से जी चुराता है, संकट आने पर जिसका धैर्य जवाब दे देता है, जो बौद्धिक सन्तुलन नहीं रख सकता, जिसकी बुद्धि यथार्थ हित-अहित का निर्णय नहीं कर सकती, जो अपने स्वभाव में स्थिर नहीं रह सकता, अपने आप पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता, जो परमात्मपद को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न नहीं कर सकता, तथा मन, इन्द्रियों और शरीर पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता, तनमन और इन्द्रियों का गुलाम बना हुआ है, शरीरासक्त है, जीवनमोही है, विषयभोगों का लोलुपी बना हुआ है, वह स्वयं ही अपने स्वरूप में स्थिर नहीं है, तब दूसरों को क्या खाक शरण देगा? जो स्वयं ही देहाध्यास में सराबोर है, वह आत्मविकास के लिए दूसरों को गति-प्रगति का मार्ग कैसे बतायेगा ? संत कबीर ने ऐसे लोगों के लिए उचित ही कहा है पानी मिले न आप को, औरन बकसत छीर । आपन मन निसचल नहीं, और बँधावत धीर । भावार्थ स्पष्ट है। जो व्यक्ति पोथियों से रट-रटाकर जितात्मा बनने का उपदेश दूसरों को देता है, परन्तु स्वयं में जितात्मा के लक्षण नहीं उतारता, वह व्यक्ति भी दूसरों के लिए शरणदाता और गति-प्रगति का मार्गदर्शक कैसे हो सकता है ? नेता वही होता है, जो दूसरों को साथ लेकर चलता है। पर जो दूसरों के मन को पढ़ नहीं सकता, अपने मन की स्वच्छता का प्रतिबिम्ब दूसरों के मन पर नहीं डाल सकता, वह दूसरों को साथ लेकर चल नहीं सकता अतः नेता नहीं हो सकता। जिसके जीवन में जितात्मा का स्वरूप रोम-रोम में रम गया है, जिसे स्वयं अनुभव करके जितात्मपद को प्राप्त किया है, वही उन व्यक्तियों के लिए शरणदाता हो सकता है, जो शरीर, मन, इन्द्रियों, भौतिक पदार्थ आदि के वशवर्ती बनकर दुःखी और भयत्रस्त बने हुए हैं, साथ ही जो आगे बढ़ने के लिये मार्गदर्शन चाहते हैं, उन्हें भी वही मार्गदर्शन दे सकता है। इसीलिये गौतम महर्षि का अनुभवसिद्ध उद्गार है अप्पा जियप्पा सरणं गई अ।. आप भी जितात्मा बनने का प्रयत्न कीजिए। For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-१ प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं जीवन के एक महान् सत्य का उद्घाटन करने जा रहा हूँ। गौतमकुलक का यह ५१वां जीवनसूत्र है, जिसमें धर्मप्रेमीजनों के समक्ष जगत् के अनेक कार्यों में श्रेष्ठ कार्य का निर्णय प्रस्तुत किया गया है। उसका अक्षरात्मक रूप इस प्रकार है "न धम्मकज्जा परमत्थि कज्जं" -धर्मकार्य से बढ़कर श्रेष्ठकार्य और कोई नहीं है। प्रश्न होता है-धर्मकार्य किसे कहते हैं ? उसकी पहचान क्या है ? तथा उससे बढ़कर श्रेष्ठकार्य और क्यों नहीं है ? आइए, इन प्रश्नों पर गहराई से विचार कर लें। धर्मकार्य क्या है, क्या नहीं ? सर्वप्रथम यह प्रश्न उठता है कि धर्मकार्य क्या है ? हम किसे धर्मकार्य कहें या समझें? मेरी दृष्टि से धर्मकार्य वह है, जिससे आत्मशुद्धि हो, संवर (नये कर्मों का निरोध) और सकाम निर्जरा (कर्मों का आंशिकरूप में क्षय) हो, मुक्ति की ओर बढ़ने-बढ़ाने का कार्य हो, जिस कार्य से मोक्षमार्ग (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) की आराधना हो, जिस कार्य में साध्य, साधन और साधक तीनों शुद्ध हों, जो कार्य निःस्वार्थ, निष्कामभाव से यश-कीर्ति, प्रसिद्धि आदि से रहित भावना से किया जाये। इस परिभाषा की कसौटी पर प्रत्येक कार्य को कसा जाये तो आसानी से पता लग सकता है कि यह धर्मकार्य है या और कोई कार्य ? संसार में अनेक प्रकार के कार्य होते हैं। एक होता है सामान्य शारीरिक कार्य, आहार, विहार, नीहार, निद्रा आदि दैनिक कार्य हैं, जिन्हें न तो धर्मकार्य कहा जा सकता है और न ही अधर्मकार्य । मगर इन्हीं कार्यों को विवेकपूर्वक करने से मनुष्य पामकर्मबन्ध से बच सकता है। साथ ही आहारादि के दान से अथवा किसी की सेवा के लिये निद्रात्याग आदि से धर्म भी हो सकता है, पुण्य भी, तथा इन्हीं कार्यो करें और उसमें धर्म लाभ न हो, ऐसा भी हो सकता है । यह तो मनुष्य की भावना और विवेक पर तथा पात्रता और विधि पर निर्भर है । कई बार मनुष्य किसी को दान देता है, पर शुद्ध भावों से नहीं, उसके For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ पीछे नामना-कामना या प्रसिद्धि के भाव रहते हैं तो वहाँ पुण्य हो सकता है, धर्म नहीं । यदि दान की भावना के पीछे आशय कलुषित है, किसी को हानि पहुँचाने, मारने या ठगने की भावना से दान देता है तो वहाँ दान धर्म और पुण्य का कारण नहीं होता। __ इसी प्रकार प्रत्येक अच्छे समझे जाने वाले कार्य के पीछे तीन प्रकार की परिणति होती है-शुभ, अशुभ और शुद्ध । शुभ-परिणति से कार्य करने पर पुण्य, अशुभ-परिणति से कार्य करने पर पाप और शुद्ध-परिणति से कार्य करने पर धर्म होता है । आप इसी गज से सभी सत्कार्यों को माप लीजिए। आपको हथेली में रखे हुए आंवले की तरह स्पष्ट ज्ञात हो जाएगा कि यह धर्मकार्य है, यह पुण्यकार्य है, और यह पापकार्य है। जैसे-दान के कार्य को आमतौर पर धर्म समझा जाता है। परन्तु उस दानकार्य के पीछे जरा स्वार्थ-भावना, यशकीर्ति, नामवरी या अन्य कोई सौदेबाजी की भावना हुई तो वह दान धर्मकार्य की कोटि में न आकर पुण्यकार्य की कोटि में आ जायेगा, परन्तु उक्त दान के पीछे अगर कोई नामना-कामना, प्रसिद्धि या यशकीर्ति की भावना नहीं है, निःस्पृह या निष्कामभाव से कोई व्यक्ति शुद्ध सात्त्विक वस्तु का योग्य सुपात्र को दान करता है, तो समझ लीजिये वह दान धर्मकार्य है। परन्तु इन दोनों से अतिरिक्त कोई व्यक्ति अपने पापों पर पर्दा डालने की दृष्टि से, या किसी मूढ महास्वार्थवश अथवा दूसरों की कोई चीज लेने की नीयत से दान देता है तो वह दान न तो धर्मकार्य होगा, न पुण्यकार्य ही; वह पापकार्य की कोटि में परिगणित हो जाता है। धर्मकार्य का दान-यह शुद्ध भावनापूर्वक किया जाता है, त्यागी, सुपात्र व परोपकारी व्यक्ति को सेवा, करुणा, दया, ज्ञानदान आदि की भावना के साथ नि:स्वार्थभाव से जो दिया जाता है, वह दान धर्मकार्य की कोटि में आ सकते हैं। पुण्यकार्य की कोटि का दान-पुण्यकार्य की कोटि के दान में दान देने वाले को बदले में अपने नाम, यश या प्रसिद्धि की या किसी को परलोक में स्वर्गादि की कामना रहती है। वह शुभ भावना से ही दान देता है, पर उसके दान के साथ प्रतिफल की आकांक्षा रहती है, इसलिए वैसा दान पुण्यकार्य की कोटि में आता है। ___ आपने देखा होगा कि कई जगह उपाश्रयों, मन्दिरों या धर्मस्थानों में कई लोगों के नाम की तख्ती लगी रहती है-"अमुक भाई.... ने ..." हजार रु० दिये।" यद्यपि यह दान भी अच्छी भावना से होता है, परन्तु दान के साथ जो विज्ञापन का अंश है, वह उसे धर्मकार्य की कोटि में नहीं जाने देता। विक्रम संवत् १६५६ में जैनाचार्य पूज्य श्रीलालजी म. विहार करते हुए सौराष्ट्र के एक गांव में पधारे । गाँव में प्रवेश करते ही कुछ झौंपड़े बने देख उन्होंने For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-१ ५६ ग्रामवासियों से उन झौंपड़ों के बनाने का उद्देश्य पूछा तो वे बोले-"महाराजश्री! इस साल इस प्रदेश में भयंकर दुष्काल पड़ा । ग्रामवासी लोगों को दुष्काल-पीड़ित देखकर हमारे गांव के बोहराजी स्वयं यहाँ आये । उनका हृदय करुणा से द्रवित हो उठा। इन बोहराजी की मां चक्की पीसकर गुजारा चलाती थी। इनकी आर्थिक स्थिति पहले बहुत खराब थी। मां के आशीर्वाद से उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो गई। किसी शहर में इन्होंने जमीन खरीदी थी। सौभाग्य से जमीन खोदते समय हीरे, पन्ने आदि जवाहरात निकले । बोहराजी का भाग्य चमका । गाँव की करुणाजनक स्थिति देखकर उन्हें अपने वे गरीबी के दिन याद आ गये । सोचा-'मेरे गाँव के लोग संकट में रहें, और मैं अकेला मौज से रहूँ, यह स्थिति मेरे लिए असह्य है। इस समय गाँव वालों का दुःख दूर करना मेरा कर्तव्य है । मेरे पास एक दिन कुछ नहीं था, लेकिन ग्रामनिवासियों की सद्भावना से आज मेरे पास कुछ सम्पत्ति हो गई है। अत: मुझे अकेले ही इस दुष्काल संकट का निवारण करना चाहिए।' वे ग्राम के बुजुर्गों से मिले, हाथ जोड़कर कहा-इस समय में आप लोगों की कुछ सेवा करना चाहता हूँ । गाँव वालों ने पहले तो कुछ आना-कानी की। बाद में बोहराजी की नम्रता और भावना देखकर उन्होंने भोजन लेना स्वीकार किया। बोहराजी ने तत्काल दो कड़ाह चढ़वाये । और अलग-अलग रसोइये रखकर हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग भोजन की व्यवस्था की । गाँव के सभी लोग यहीं भोजन करते हैं, दूसरे गाँवों के दुष्काल पीड़ित लोग भी। बोहराजी ने दुष्काल पीड़ितों के रहने के लिए ये झौंपड़े भी बनवा दिये हैं।" ग्रामवासी लोगों के प्रति बोहराजी की कर्तव्य भावना से दी गई दान की भावना को देखकर पूज्य श्रीलालजी म० ने प्रसन्नता व्यक्त की । यह है-पुण्यकार्य की कोटि का दान। पापकार्य की कोटि का दान-पापकार्य की कोटि का दान वह है, जिस दान से पापकार्य को प्रोत्साहन मिले, जो दान पापकार्य कराने के लिए दिया जाता हो । जो दान दूसरों को दुःख देने, ठगने, धोखा देने या कोई बड़ा स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दिया जाये वह दान भी पापकार्य की कोटि में आता है। चोर को चोरी करके माल मंगाने के लिए भेंट देना, चोर-डाकू को सहयोग देना, आश्रय देना अथवा मदिरालय, वेश्यालय, सिनेमा, नाचघर या मांस की दुकान आदि खोलने के लिए दान देना । तस्करी, हत्या, डाका आदि के लिए इनाम देनाये सब दान पापकार्य हैं। __यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक समझते हैं, कि वेश्या, चोर, डाकू आदि कोई भी व्यक्ति अत्यन्त दयनीय हालत में हो, उस समय उसे भोजन आदि अनुकम्पा लाकर देना (वेश्याकर्म आदि के लिए नहीं), अथवा, चोर आदि को वेश्याकर्म, चोरी For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. आनन्द प्रवचन : भाग ११ आदि छुडाने की दृष्टि से सहयोग देना पापकार्यजनक नहीं है, वह कार्य अनुकम्पादान की कोटि में आयेगा। जैसे दान की तीन कोटियाँ हैं, वैसे ही सेवा, परोपकार आदि सत्कार्यों की भी तीन कोटियाँ हो सकती हैं। सेवा भी धर्म, पुण्य और अधर्मरूप-बहुत-से लोग सेवा को एकान्त धर्मकार्य अथवा एकान्त पापकार्य कह बैठते हैं, कह अनेकान्तवाद-सापेक्षवाद को नहीं समझने का फल है। जिस सेवा में दूसरे के प्रति कोई स्वार्थ, सौदेबाजी, लाचारी, विवशता, देखा-देखी, यशकीर्ति या प्रसिद्धि की भावना है, वह सेवा धर्मकार्य रूप नहीं बनती; वह या तो पुण्यकार्य बनती है, या फिर अधर्मकार्य रूप । एक उदाहरण द्वारा इसे स्पष्ट कर दूं जिस समय कलकत्ते में प्लेग का प्रकोप हुआ, उस समय स्वामी विवेकानन्द अपनी योग-साधना, ध्यान, उपासना आदि छोड़कर निःस्वार्थ भाव से रोगियों की सेवा करने-कराने में जुट गये। उन्होंने अपने सभी शिष्यों और साथियों को भी सेवाकार्य में लगा दिया। स्वामीजी को चिन्तित और सेवा में व्यग्र देखकर अनेक लोगों ने कहा-"आप तो एक संन्यासी हैं, योगी हैं, फिर यों साधारण मनुष्यों की तरह व्याकुल क्यों हैं ?" स्वामीजी ने उत्तर दिया-'योगी होने के कारण ही तो मैं इतना व्यग्र और चिन्तित हूँ। सारा विश्व ही मेरे लिए कुटुम्ब है । दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा के समान अनुभव करना ही योग है। हाँ, योगी की अपनी कोई पीड़ा नहीं होती, न ही अपना कोई दुःख होता है। दूसरों का दुःख-सुख ही उसका दुःख-सुख है। प्रत्येक प्राणी की पीड़ा को आज मैं अपनी पीड़ा महसूस करता हूँ, और उनकी सेवा को अपनी सेवा मानता हूँ।" पैसे की आवश्यकता होने पर जब स्वामी विवेकानन्द रामकृष्णमठ की भूमि बेचने को तैयार हुए तो उनके अनेक शिष्यों के कहा-"स्वामीजी ! यह तो आपके गुरुदेव के स्मारक की भूमि है, क्या आप इसे भी बेच देंगे ?" इस अवसर पर उन्होंने उत्तर दिया-"आवश्यकता पड़ने पर इन मठ-मन्दिरों का क्या होगा? जब तक इनकी उपयोगिता है, तब तक ये मठ, मन्दिर देवालय हैं, भगवान् के स्थान हैं, किन्तु जब वे पीड़ित मानवजाति के काम नहीं आते, तब मिट्टी के व्यर्थ स्तूपों के समान इनका कुछ भी मूल्य नहीं रह जाता। इस मठ का एक-एक कण पीड़ित मानव जाति की पीड़ा दूर करने में लगेगा, तो गुरुदेव की आत्मा को अधिकाधिक सन्तोष, शान्ति होगी। जो सम्पत्ति पीड़ितों के दुःखनिवारण और सेवा में काम नहीं आ सकती वह मिट्टी है । उसका होना, न होना समान है । इसी प्रकार जो मनुष्य पर-पीड़ा से कातर नहीं होता, दुःखी की सेवा नहीं करता, वह भी पृथ्वी पर भारभूत है, मानवता से दूर है। पीड़ितों की सेवा करना ही भगवान् की सच्ची सेवा-भक्ति है।" For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-१ ६१ कहना न होगा कि स्वामीजी के इस सेवाकार्य के फलस्वरूप महामारी का प्रकोप भी शान्त हो गया। किन्तु यही सेवा कोई विज्ञापन, यश-कीर्ति, प्रसिद्धि आदि की दृष्टि से या रो-झींककर सरकार के दवाब से, या भय से करता है तो वह धर्मकार्य की कोटि में परिगणित नहीं होगी। कष्ट सहकर करुणाः विशुद्ध धर्मकार्य-कई बार दूसरों को कष्ट में देखकर करुणा करने वाला सहृदय व्यक्ति अपने कष्ट, संकट, आफत या दुःख को भूल जाता है, कभी-कभी तो वह संकटों को चेलेंज भी दे बैठता है, और निर्भीक होकर उनका सामना करते हुए करुणा जैसे विशुद्ध धर्मकार्य को निःस्वार्थभाव से करता है । ___ बात उस जमाने की है, जब योरोप में दास-प्रथा प्रचलित थी। अफ्रीकी देशों से छोटे-छोटे बालक-बालिकाएं, दास-दासियों के रूप में खरीदे जाते और योरोप में ले जाकर अच्छे दामों में बेच दिये जाते। इस घृणित व्यवसाय में व्यापारियों को जहाँ करोड़ों रुपयों की आय होती, वहां खरीदे गये गुलामों की उतनी ही दुर्गति होती। केवल जीवित रखने भर के लिये अन्न और फटे-पुराने वस्त्र देकर उनसे जितना अधिक काम लेना सम्भव होता, लिया जाता। इन अभागे मानवों की यह करुण दशा देखकर अमेरिकी महिला 'जान ह्विटले' का हृदय करुणा से भर आया। उसने इस अमानवीय कृत्य के प्रति विद्रोह करने का निश्चय किया। जैसे ही सेनेगल से अफ्रीकी लड़कियों का जहाज आया, उस दयालु महिला ने अपनी सारी सम्पत्ति लगाकर पूरा जहाज खरीद लिया। उन लड़के-लड़कियों से दास-दासी का काम कराने की अपेक्षा उन्हें लिखाना-पढ़ाना और दस्तकारी का काम सिखाना प्रारम्भ कर दिया। दास-दासियों के प्रति इस प्रकार का मानवीय व्यवहार देखकर अमेरिकन गोरे चिढ़ गये और वे जॉन हिटले के प्राणों के ग्राहक बन गये। उन्होंने जॉन को ऐसा न करने को कहा तो उस सेवाभाविनी ने उत्तर दिया-''मैं मातृहृदय नारी हूँ। इन मानवों की आन्तरिक पवित्रता को अच्छी तरह जानती हूँ। नारी, फिर वह चाहे किसी भी देश की हो, उत्पीड़ित मानवों को देख नहीं सकती। आप लोग कुछ भी करें, हम नारी और उससे सम्बद्ध बच्चों का तिरस्कार नहीं होने देंगे, बल्कि इनके जीवन की नई दिशा में मोड़ने के लिए कुख्यात तक हो जाएंगे।" गोरों ने उसे तरह-तरह से सताया, पर जॉन ह्विटले अपने पथ से विचलित न हुई । वह लगातार इन लड़के-लड़कियों को शिक्षित करने में लगी रही। इन्हीं लड़कियों में एक लड़की 'फिलिप हिटले' ने दासप्रथा के विरुद्ध बान्दोलन छेड़ दिया । उसने ऐसे प्रौढ़ और प्रखर विचार दिये कि अमेरिकन लोगों का मर्म हिल गया। दूसरी ओर सारे अफ्रीकी नीग्रो इस अमानवीय कुप्रथा को मिटाने के लिये बलिदान तक देने को तैयार हो गये । अन्त में, जार्ज वाशिंगटन स्वयं बहुत प्रभावित हुए, और उन्होंने नीग्रो जाति को भी मानवीय अधिकार देने का निश्चय कर लिया । फिलिप विटले नामक क्रान्तिकारिणी महिला के प्रति आज भी अमेरिका में For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ बहुत आदर है। परन्तु फिलिप अन्त तक इस सफलता का श्रेय जॉन ह्विटले के त्याग को ही देती रही। क्या इस प्रकार अनेक संकटों को झेलकर मानवीय करुणा का निःस्वार्थ निष्कामभाव से कार्य करना धर्मकार्य नहीं है ? धर्मकार्य : स्वान्तःसु खाय-इस प्रकार के और भी धर्मकार्य हो सकते हैं, जो स्वान्तःसुखाय हों; निःस्वार्यभाव से, धर्म से ओत-प्रोत हों। कई बार ऐसे उत्पीडित मानवों की निःस्वार्थ सेवा करते हुए व्यक्ति को साम्प्रदायिक लोगों का कोपभाजन भी बनना पड़ता है। फिर भी उस व्यक्ति को हार्दिक प्रसन्नता होती है, उस सच्चे धर्मकार्य को करने में । महात्मा गांधीजी के जीवन का एक प्रसंग है-गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में थे। अफ्रीकन लोगों के स्वत्त्वाधिकार के लिए उनका आन्दोलन सफलतापूर्वक चल रहा था। ब्रिटिश सरकार के संकेत पर एक दिन मीर आलम नामक एक पठान ने गांधीजी पर हमला कर दिया, वे गम्भीररूप से घायल हो गये । सत्य, सेवा और अहिंसा से भरा मनुष्य का सद्धर्मकार्य ऐसा ही है, कि इसमें सुख की अपेक्षा दुःख ही अधिक उठाने पड़ते हैं। फिर भी धर्मकार्यार्थी मनस्वी उच्च आत्मा कभी अपने पथ से विचलित नहीं होते । गांधीजी अपने इस धर्मपुनीत कार्य पर डटे रहे । उन्हें लोगों ने स्वदेश लौट जाने का आग्रह किया, पर वे न लौटे। घायल गांधीजी पादरी जोसेफ डोक के मेहमान बने और कुछ ही दिनों में यह सम्बन्ध और घनिष्ट हो गया। __ पादरी जोसेफ डोक यद्यपि बेपटिस्ट पंथ के अनुयायी और धर्मगुरु थे, तथापि गांधीजी के सम्पर्क से वे भारतीय धर्म और संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित हुए । धीरेधीरे वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का भी समर्थन करने लगे। इसे देखकर पादरी डोक के एक अंग्रेज मित्र ने उनसे आग्रह किया कि वे भारतीयों के प्रति इतना स्नेह और आदरभाव प्रर्दाशत न करें, अन्यथा, उन्हें जातीयकोपभाजन बनना पड़ सकता है। इस पर डोक ने उत्तर दिया-"मित्र ! क्या अपना धर्म पीड़ितों और दुखियों की सेवा करने का समर्थन नहीं करता ? क्या गिरे हुओं को ऊपर उठाने में मदद करना धर्मसम्मत कार्य नहीं है ? ईसामसीह भी तो ऐसा ही करते हुए क्रूस पर लटके थे, फिर मुझे घबराने की क्या आवश्यकता है ?" __ मित्र की आशंका सच निकली, कुछ ही दिन में गोरे उनके विरोधी बन गये और तरह-तरह से सताने लगे। ब्रिटिश समाचारपत्र उनकी निन्दा करने लगे. लेकिन इससे पादरी डोक की सिद्धान्तनिष्ठा में कोई अन्तर नहीं पड़ा। वे भारतीयों का समर्थन पूर्ववत् करते रहे । गांधीजी जहाँ पादरी डोक के इस त्याग से प्रभावित थे, वहाँ उन्हें गोरों द्वारा उत्पीड़ित होते देखकर चिन्तित भी थे । एक दिन गांधीजी ने संवेदना के स्वर में कहा-"आपको इन दिनों अपने जातिभाइयों से भारतीयों के कारण कष्ट उठाने पड़ रहे हैं, उसके लिए मैं भारतीयों की ओर से आपका आभार For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-१ ६३ मानता हूँ। परन्तु आप पर जो संकट आ गया है, वह हमसे देखा नहीं जाता। आप हमारा समर्थन बंद कर दें । परमात्मा हमारे साथ है। यह लड़ाई हम लोग निपट लेंगे।" . इस पर पादरी डोक के कहा- "मि० गांधी ! आपने ही तो कहा थाधर्म एक और सनातन है और वह है पीड़ित मानवों की सेवा । प्रसिद्ध साहित्यकार जार्ज बर्नार्ड शॉ ( G. B. Shaw ) ने भी यही बात कही है— 'There is only one religion, though there are a hundred versions of it. अर्थात्-धर्म सिर्फ एक ही है यद्यपि उसके अनुवाद सैकड़ों हैं ।' फिर यदि मैं साम्प्रदायिक कुरूढ़ियों की अवहेलना करके सच्चे धर्म का पालन करूं तो इसमें किसी को दुःखित होने की क्या बात है ? यह तो मैं स्वान्तःसुखाय करता हूँ। पीड़ित मानवों की सेवा करते हुए मुझे जो प्रसन्नता होती है वह प्रसाद मुझे मिल ही रहा है। इसलिए ऐसे उच्च धर्मकार्य करने में आने वाली बाह्य अड़चनों, दुःखों और उत्पीड़नों की मुझे किंचित् भी परवाह नहीं।" पादरी डोक अन्त तक इस धर्मकार्य को करते रहे। वास्तव में कष्ट सहकर निःस्वार्थ भाव से वे यह धर्मपालन करते, यही आदर्श धर्मकार्य है। निःस्वार्थ दया या अनुकम्पा भी धर्मकार्य-दया या अनुकम्पा, जब निःस्वार्थ भाव से, बदले की आशा के बिना की जाती है तो वह भी धर्मकार्य की कोटि में समझनी चाहिए। जब मनुष्य दूसरों को आज्ञा न देकर या दूसरों न कराकर स्वयं कष्ट सहकर भी बिना किसी स्वार्थ के दया या अनुकम्पा करता है, तब उसे उस धर्मकार्य में अनोखा आनन्द आता है। अन्तकृद्दशांग सूत्र में कर्मयोगी श्री कृष्ण का जीवन अंकित है। एक बार वे अपने गृहस्थपक्षीय छोटे भाई नवदीक्षित गजकुमार मुनि एवं तीर्थंकर अरिष्टनेमि भगवान् ने दर्शनकर हाथी पर बैठकर जा रहे थे, साथ में अनेकों सेवक थे। रास्ते में उन्होंने एक अत्यन्त जरा-जीर्ण जर्जर वृद्ध को देखा, जो घर के बाहर पड़े एक विशाल ईंटों के ढेर में से बहुत मुश्किल से एक-एक ईंट उठाकर अन्दर रख रहा था। वद्ध को ऐसी दयनीय हालत में देखकर श्रीकृष्ण का हृदय अनुकम्पा से भर आया। उन्होंने हाथी पर बैठे-बैठे ही एक इंट उठाई और जहाँ वह वृद्ध इंटें रख रहा था, वहाँ रख दी। श्रीकृष्ण के हाथ लगते ही उनके सेवकों के हाथ लग गये : बहुत शीघ्र ही वह ईंटों का ढेर वहाँ से उठाकर यथास्थान रख दिया गया। वृद्ध आश्चर्य से गद्गद् होकर देखता रह गया। उसने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और इस उपकार के बदले उनका आभार माना । " श्रीकृष्ण का वृद्ध से कोई स्वार्थ नहीं था । अनुकम्पा से प्रेरित होकर ही उन्होंने यह कार्य किया था। इसे धर्मकार्य नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? पाश्चात्य विचारक रॉबर्ट For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ एण्ड्रयूज मिलिकन (Robert Andrews Millikan) ने ठीक ही कहा है "I conceive the essential task of religion to be to develop the consciences, the ideals and the aspiration of mankind." "मैं सोचता हूँ, धर्म का अत्यावश्यक कार्य-मानवजाति में सद-असद् विवेकबुद्धि, आदर्श और महत्वाकांक्षाएं विकसित करना है।" प्राण देकर पांच व्यक्तियों की रक्षा-कई व्यक्ति इतने सहृदय और कर्तव्यपरायण होते हैं कि दूसरों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं । अमेरिका के पश्चिमीतट पर समुद्र में एक जहाज तीव्रगति से चला जा रहा था। किसे पता था कि थोड़ी देर में मौसम परिवर्तन होने से जहाज को बचाना कठिन हो जाएगा। देखते ही देखते सहसा भयंकर तूफान उठा। वह जहाज तूफान के उत्ताल थपेड़ों से टूट गया। उसमें बैठे अनेक खलासी समुद्र में डूबने लगे। जो अच्छी तरह तैरना जानते थे, उनके प्राण बचने की तो कुछ आशा थी, पर जिन्होंने अभी हाथ-पैर चलाना सीखा था, वे समुद्र में तैरकर किनारे तक आ सकेंगे, इसका किसी को विश्वास न था। उस जहाज पर एक हब्शी गुलाम भी सवार था। वह अपने प्राणों की परवाह किये बिना तुरंत समुद्र के अथाह जल में कूद पड़ा। उसने सोचा कि मनुष्य भी अगर मनुष्यों पर संकट के समय सहयोगी नहीं बनेगा तो क्या पशु-पक्षी उसकी सहायता करने आएंगे ? उसके मन में एक बार भी यह विचार नहीं आया कि क्यों जान-बूझकर अपने जीवन को संकट में डाला जाये । उसका विवेक रह-रहकर उसे इस धर्मकार्य के लिए प्रेरित कर रहा था कि दूसरों की सहायता के लिये अपने जीवन को खतरे में डालना पड़े, तो भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । और एकाएक समुद्र में कूदकर उसने कठोर परिश्रम से एक-एक करके पाँच खलासियों को जीवित बचा लिया। अब उसका शरीर थककर चूर-चूर हो गया था। हाथ-पैर काम नहीं करते थे, फिर भी उसमें साहस की किरणें विद्यमान थीं। छठी बार वह कूदना ही चाहता था कि जहाज का कप्तान बोल उठा-"बस, भाई ! अब रहने दो। तुमने तो कमाल कर दिया । जाओ, अब तुम गुलामी से मुक्त हुए।" उसने कहा-"मेरी मुक्ति को अभी थोड़ी देर और प्रतीक्षा कर लेने दो, तब तक एक व्यक्ति की जान और बचा लू।" यों कहकर वह गुलाम पुनः पानी में कूद पड़ा और सचमुच वह सदा के लिए जीवनमुक्त हो गया। मैं आपसे पूछता हूँ, क्या उस अनपढ़, शास्त्रज्ञान से रहित हब्शी गुलाम के इस सद्-असद्विवेक-प्रेरित मानवरक्षा कार्य को आप धर्मकार्य नहीं कहेंगे? उस हब्शी ने यह कार्य किसी फलाकांक्षा, इनाम या अन्य किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर नहीं किया था। For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-१ ६५ धर्मपोषक सभी कार्य, धर्मकार्य हैं—जिस तरह निष्कामभाव से की गई उपर्युक्त जीवदया, जीवरक्षा, सेवा, सहायता आदि के कार्य धर्मकार्य हैं, उसी तरह निष्कामभाव से किये गये अहिंसादि धर्म के पोषक अन्य कार्य भी धर्मकार्य हैं। निष्कर्ष यह है कि सद्धर्म की वृद्धि के लिये, धर्म को सुरक्षा के लिए, धर्म से विचलित होते हुए किसी व्यक्ति को स्थिर करने के लिए, अधर्मी या पापी व्यक्ति को उपदेश, सहयोग आदि से धर्मपरायण बनाने के लिए जितने भी प्रयत्न हैं, वे सब धर्मकार्य हैं; बशर्ते कि वे किसी मूढ़स्वार्थ, यशकीर्ति, प्रसिद्धि या साम्प्रदायिकता-पोषण आदि की दृष्टि न किये गये हों। प्राचीनकाल से लेकर आज तक कई जैन आचार्यों, जैन साधु-साध्वियों द्वारा अधर्मी एवं हिंसक व्यक्ति को या दुर्व्यसनी को उस अधर्म या पापकर्म से हटाकर सद्धर्म में लाने के हजारों प्रयत्न हुए हैं, वे प्रयत्न अगर साम्प्रदायिकता से मुक्त हों तो धर्मकार्य में ही परिगणित होंगे। जहाँ तक मेरा ख्याल है, ये सब प्रयत्न किसी यशकीति, तुच्छ स्वार्थ या साम्प्रदायिकता-पोषण के न होकर एकमात्र अधर्मी या पापी को धर्मपथ पर लाने के ही रहे हैं । इसलिए इन अहिंसादि को धर्मकार्य कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । एक सच्ची घटना द्वारा इसे स्पष्ट कर दं प्रसिद्धवक्ता जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज ने अनेकों शराबी, मांसाहारी आदि दुर्व्यसनियों एवं हत्याकर्म करने वाले पापियों तक को उपदेश, प्रेरणा और मार्गदर्शन देकर सद्धर्मपथिक बनाया था। एक बार की घटना है-वे आगरा से मालवा की ओर पधार रहे थे। जब वे कोटाशहर के निकट पहुँचे तो रास्ते में एक खटीक को सोये हुए देखा। उसके पास दो बकरे बंधे हुए थे, इससे उन्होंने अनुमान लगाया कि यह कोई वधिक होगा। जब वह उठा तो जैनदिवाकरजी महाराज ने उसे उपदेश दिया-"भाई ! यह पाप तुम किसलिए करते हो ? तुम्हें पता है मनुष्य को अपने बुरे कर्मों का फल स्वयं भोगना पड़ता है। जैसी पीड़ा तुम्हें होती है, वैसी ही पीड़ा इन मूक प्राणियों को मारने पर इन्हें भी होती है । और फिर हिंसा करने से मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता। अतः तुम इस कर धंधे को छोड़ो । आजीविका के लिए और भी तो सात्त्विक धंधे हैं।" जैन दिवाकर जी म० के उपदेश का उस खटीक पर जादू-सा असर हुआ। उसने कहा-"गुरु महाराज ! आपका कहना बिलकुल सच है । मैं आज से परमात्मा को सर्वव्यापी मानकर सूर्य-चन्द्रमा की साक्षी से यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक जीऊंगा तब तक कभी इस धंधे को नहीं करूंगा । परन्तु आपके साथ जो भक्त हैं, उनसे मेरी प्रार्थना है कि इस समय मेरे पास घर पर ३२ बकरे हैं। इन्हें ये खरीद लें और मुझे रुपये दे दें तो मैं दूसरा कोई सात्विक धंधा अपना लू।" विवेकी एवं धर्मश्रद्धालु श्रावकों ने तुरंत उस खटीक से वे बकरे खरीद लिए और कुछ रुपये ऊपर से उसे भेंट के रूप में दे दिये । इस प्रकार एक हिंसापरायण व्यक्ति को हिंसा छुड़ाकर धर्ममार्ग पर लगाना पवित्र धर्मकार्य है। For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ धर्म में स्थिर करने के लिए बिना किसी तुच्छ स्वार्थ के दी गई सहायता भी धर्मपोषक या धर्मवृद्धिकारक है । अगर धार्मिक व्यक्ति अर्थसंकट में हो तथा विवश होकर अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए धर्मान्तर का मार्ग अपनाने को तत्पर हो, अथवा धर्ममार्ग को तिलांजलि देकर चोरी, डकैती अथवा अन्य अनैतिक धंधा अपनाने को तैयार हो, ऐसी स्थिति में उसे अहिंसादि शुद्ध धर्म में स्थिर करने के लिए जो भी सहायता निःस्वार्थभाव से दी जाती है, वह धर्मकार्य है । एक उदाहरण लीजिए— मारवाड़ में उस वर्ष भयंकर दुष्काल के कारण जालौर (मारवाड़) का एक युवक – ऊदा मेहता गुजरात के एक प्रसिद्ध व्यावसायिक नगर में पहुँच गया । यौवन की मादकता गरीबी और फटेहाल दशा से फीकी पड़ गई थी । उसकी आस्था जैनधर्म थी । पर्युषण पर्व के दिन थे । अतः वह स्थानीय जैन उपाश्रय के बाहर दरवाजे पर बैठ गया ताकि आने-जाने वाले जैन भाई-बहन मेरी हालत देखकर तात्कालिक सहायता कर दें तो मैं कुछ दिनों में कोई स्वतंत्र व्यवसाय करके अपने पैरों पर खड़ा हो सकूँ । परन्तु उसे बैठे-बैठे तीन घंटे होगए, इसी बीच कई बहन-भाई आये गये लेकिन किसी ने उससे नहीं पूछा कि तू कौन है ? कहाँ से आया है ? क्या चाहता है ? उसके मन में रह-रहकर विचार आ रहे थे, अगर मुझे कोई भी नहीं पूछेगा तो फिर इस धर्म को छोड़ना पड़ेगा, नीति या अनीति किसी भी तरीके से पेट तो भरना ही होगा । इसी दौरान एक बहन जिसका नाम लच्छी (लक्ष्मी) बहन था, उधर से निकली । उसने उसे खिन्न और उदास देख पूछा - " भाई तुम कौन हो ? यहाँ खिन्न और उदास क्यों बैठे हो ?” 'भाई' शब्द सुनते ही ऊदा मेहता के हर्षाश्रु उमड़ पड़े । वह बोला" बहन ! तुम्हीं एक बहन ऐसी निकली, जिसने 'भाई' कहकर मुझ से मेरी व्यथा पूछी। मैं मारवाड़ का जैन हूँ। वहाँ भयंकर दुष्काल के कारण मैं किसी धंधे की तलाश में गुजरात आया हूँ । मगर यहाँ आने पर निराश हो गया। दो दिन से भूखा हूँ । सोचा था — उपाश्रय के द्वार पर बैठें, वहाँ तो कोई न कोई साधर्मी बहन या भाई मेरी दशा पूछकर शायद सहायता के लिए तैयार हो जाय । मैं तो निराश होकर लौट रहा था, लेकिन इसी बीच तुमने मुझे पूछ लिया । " लच्छी बहन उसे आश्वासन देकर अपने घर ले गई, भोजन कराया, पहनने के लिए वस्त्र दिये, रहने के लिये मकान दिया और व्यापार के लिए अर्थराशि दी । ऊदा मेहता, जिसका मन एक दिन धर्म से विचलित हो गया था, लच्छी बहन की सहायता से पुन: धर्म में सुस्थिर हो गया । उसे सद्धर्म पर दृढ़ विश्वास हो गया । आगे चलकर यही ऊदा मेहता अपनी प्रतिभाशक्ति से गुजरात के चौलुक्य सम्राट के शासनकाल में महामंत्री बना । क्या लच्छी बहन के द्वारा बिना किसी पूर्व परिचय के एक अज्ञात व्यक्ति को स्वार्थभावना से रहित होकर धर्म में स्थिर करने हेतु सब प्रकार का सहयोग प्रदान करना धर्मकार्य नहीं है ? For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं - १ सेवा : धर्मकार्य का उत्तमांग सेवा — निःस्वार्थ एवं निष्काम सेवा मानवजीवन को उत्कृष्ट एवं पूर्ण बनाने हेतु एक महत्त्वपूर्ण धर्मसाधना है । जो फल अनेक प्रकार की बाह्य तपश्चर्या से, विविध धार्मिक क्रियाकाण्डों से, धर्मानुष्ठानों, धार्मिक उपासना विधियों से प्राप्त होता है, वह निःस्वार्थ सेवा द्वारा अनायास ही मिल जाता है । स्व० वल्लभभाई पटेल ने कहा- पिछड़े लोगों की सेवा ईश्वर सेवा है । जैन धर्मग्रन्थ में भी एक जगह उल्लेख है— जे गिलाणं पडियरइ, से ममं पडियरई' – अर्थात् भगवान महावीर ने फरमाया - जो ग्लान (रुग्ण एवं अशक्त) की सेवा परिचर्या करता है, वह एक तरह से मेरी ही सेवा करता है । तथागत बुद्ध ने भी कहा था- ' - ' जिसे मेरी सेवा करनी है, वह पिछड़े हुए पीड़ितों की सेवा करे ।' राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था- 'मैं इन लाखों पीड़ितों की सेवा के द्वारा भगवान् की सेवा करता हूँ ।' महात्मा गांधीजी के आश्रम में एक संस्कृत के विद्वान थे— परचुरे शास्त्री, जिन्हें दुर्देव से कुष्टरोग ने आ घेरा । आश्रमवासी कुष्टरोगी के निकट जाने से डरते थे, कि कहीं हमें यह चेपी रोग न लग जाय । महात्मा गांधी को पता लगा तो वे स्वयं शास्त्रीजी की सेवा में पहुँच गये । स्वयं गांधीजी गर्म पानी से उनका घाव धोने लगे । शास्त्रीजी संकोचवश इन्कार करते रहे, परन्तु गांधीजी स्वयं उनकी सेवा में जुट गए । घाव धोकर दवा लगाना, दवा पिलाना, पथ्य-परहेज का ध्यान रखना आदि सब सेवाएँ गांधीजी प्रतिदिन नियमित रूप से करते थे । क्या यह रुग्ण सेवा धर्मकार्य नहीं है ? इसी प्रकार पिछड़े, पददलित, पीड़ित, बाढ़ पीड़ित, भूकम्प पीड़ित, महामारीपीड़ित या आफत से घिरे, जल में डूबते, कुए में गिरते, या अन्य किसी भी प्रकार की विपदा में फंसे हुए संकटग्रस्त व्यक्ति या वर्ग की निःस्वार्थ सेवा धर्मकार्य की कोटि में ही परिगणित की जाएगी। इसी प्रकार अनाथ, किसान वर्ग, दीन-दुःखी, विधवा, पीड़ित महिला, अस्पृश्य कही जाने वाली जाति आदि की सेवा करना भी धर्मकार्य है उन्हें व्यसनमुक्त और न्यायनीति युक्त बनाना भी । धर्ममय या अहिंसक समाज रचना का प्रयोग भी धर्म-सेवा कार्य-समाज की हर प्रवृत्ति को धर्म (अहिंसा, सत्य, नीति, न्याय आदि) से अनुप्राणित करने का प्रयोग इसमें जाति-पाँति के, या साम्प्रदायिक, प्रान्तीय या भाषा सम्बन्धी भेदभाव के बगैर सार्वजनिक सेवाभाव से करना भी धर्म- सेवा का कार्य है । ऐसे प्रयोग की प्रत्येक प्रवृत्ति लोक संस्था या व्रतबद्ध लोकसेवक संस्थाबद्ध होती है, तथा सप्त कुव्यसनों का त्याग करके नीति, न्याय, अहिंसा आदि की तराजू पर तौलकर ही महाव्रती साधु-साध्वियों के मार्गदर्शन से सारे कार्य होते हैं । लेन-देन के मसले, या अन्य कोई पारस्परिक झगड़े भी आंशिक ढंग से परस्पर समाधान से निपटाये जाते हैं । महात्मा गांधीजी और सन्त विनोबा ने ऐसे कई प्रयोग हमारे देश में किये हैं । दान, शील, तप और भावरूप धर्म का आचरण भी धर्मकार्य — जैनाचार्यों ने दान, शील, तप और भाव इन चारों को धर्म का - व्यावहारिक धर्म का अंग माना ६७ For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ है । जो व्यक्ति इहलौकिक या पारलौकिक किसी भी स्वार्थ, भय, प्रलोभन, विषयसुख, चन, सन्तान, स्वर्ग आदि की कामना और वांछा का त्याग करके केवल निर्जरामात्मशुद्धि-कर्मक्षय की वृद्धि से या वीतरागता प्राप्त करने की दृष्टि से इन चारों का आचरण करता है, इस धर्मचतुष्टय के आचरण के पीछे किसी प्रकार की बदले की भावना, सौदेबाजी, नामबरी, प्रसिद्धि, यश-कीर्ति या स्वार्थ की भावना नहीं है, तो समझना चाहिए यह धर्मकार्य है। धर्मकार्य की कसौटी-जैनशास्त्र दशवकालिक सूत्र में तप और आचार (धर्माचरण) के सम्बन्ध में बहुत ही सुन्दर स्पष्टीकरण किया गया है नो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो परलोगयट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो कित्तिवन्न-सद्द-सिलोगट्ठयाए तवमहिछिज्जा, नन्नत्थ णिज्जरठ्याए तवमहिट्ठिज्जा ॥ नो इहलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा, नो परलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा, नो कित्तिवन-सद्द-सिलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा, नन्नत्थ आरहंतेहि हेऊहिं आयारमहिट्ठिज्जा ॥ अर्थात्-किसी इहलौकिक प्रयोजनवश तपश्चर्या न करो, न किसी परलोक के प्रयोजनवश तप करो, न कीर्ति, वर्ण (यश), शब्द (प्रशंसादि शब्द) या श्लोक (प्रशस्ति आदि) के लिए तपश्चरण करो, केवल एकमात्र निर्जरा (कर्मक्षय द्वारा आत्मशुद्धि) के लिए तपश्चरण करो। इसी प्रकार इहलोक के किसी स्वार्थवश ज्ञानादि पंच आचार का पालन न करो, न परलोक की किसी आकांक्षावश ज्ञानादि पंचाचार का पालन करो, न कीर्ति, यश, प्रसिद्धि, नामबरी प्रशंसा आदि के लिए आचार का पालन करो, किन्तु एकमात्र वीतरागता प्राप्ति के प्रयोजन से आचार का पालन करो। यह है तपश्चरण और ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार के पालन के पीछे शुद्ध धर्मदृष्टि का स्पष्टीकरण । तात्पर्य यह है कि दान, शील, तप, भाव या पाँचों आचार तभी धर्मकार्य होंगे, जबकि ये उपर्युक्त कसौटी पर पूरे उतरें। जहाँ दान, शील, तप और भाव के पीछे देखादेखी, शर्मा-शर्मी, दबाव, भय, लोभ, आदि की प्रेरणा होगी, जहाँ अर्थप्राप्ति का प्रयोजन होगा, जहाँ यश, कोर्ति, प्रसिद्धि, प्रशंसा, अहंकार, गौरव आदि की स्पृहा होगी या इस लोक या परलोक से सम्बन्धित कोई विषयभोगेच्छा होगी, या किसी प्रकार की फलाकांक्षा होगी, वहाँ ये सब धर्मकार्य की कोटि में परिगणित नहीं होंगे। . एक व्यक्ति अहिंसा का पालन करता है, किन्तु करता है, केवल दिखावे के लिए; इसलिए जब कोई देखता है, तब बहुत ही फूंक-फूंककर चलता है, किन्तु जब कोई For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-१ ६६ नहीं देखता, तब वह अन्धाधुन्ध चलता है। इसी प्रकार सत्यव्रत तो ग्रहण कर लिया है, पर बहुत-सी बातें माया-कपट से इस प्रकार बोलता है, जिससे सुनने वाला समझता है, यह सत्य बोलता है, परन्तु होता है, वह झूठ ही। आत्मा की वफादारी से बोला जाने वाला सत्य ही वस्तुतः धर्मकार्य हो सकता है। इसी प्रकार अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह भी प्रदर्शन न हों या वे इहलौकिक-पारलौकिक आकांक्षा से ओतप्रोत न हों, तभी धर्मकार्य की कोटि में आ सकते हैं। जैनशास्त्रों में सम्यग्दर्शन को एवं सम्यग्ज्ञान को धर्म बताया गया है क्योंकि ये मोक्षमार्ग के अंग हैं । परन्तु सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन धर्मकार्य तभी कहलाएंगे, जब वे आचार (दर्शनाचार और ज्ञानाचार) में परिणत हों, क्रियान्वित हों। कोई व्यक्ति देव, गुरु, धर्म का पाठ गुरु से पढ़ या सुनकर यह मान बैठता हो कि मेरे में सम्यग्दर्शन आ गया है तो यह भ्रान्ति है । इसी प्रकार जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन की (निश्चय और व्यवहार से) बड़ी-बड़ी बातें बघारता हो, किन्तु जोवन में सम्यग्दर्शन न आया हो, वहाँ साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता, कटटरता हो, सापेक्षदृष्टि या समन्वय दृष्टि (अनेकान्तवाद) का अंश न हो, दूसरों को मिथ्यात्वी या मिथ्यादृष्टि तथा अज्ञानी या मिथ्याज्ञानी कहने में शूरवीर हो, जीवन में भौतिक दृष्टिपरायणता हो, बातें आध्यात्मिकता की बघारता हो लेकिन दृष्टि में पौद्गलिक पदार्थों, भौतिक सुख-सुविधाओं की आकांक्षा हो, तो ऐसा कागजी या पुस्तकीय सम्यग्दर्शन धर्मकार्य नहीं हो सकता। इसी प्रकार जैनागमों या धर्मशास्त्रों की भाषाज्ञान की दृष्टि से व्याख्या लम्बी-चौड़ी कर लेता हो, तथा आजीविका, प्रसिद्धि या अन्य सांसारिक प्रयोजनवश शास्त्र का उपदेश देता हो, पर जीवन में शास्त्रीय ज्ञान का अंश भी उतरा न हो तो वह सम्यग्ज्ञान, धर्मकार्य नहीं होगा। इसी प्रकार अहिंसादि तथा तपश्चर्या आदि चारित्राचार या तप-आचार केवल प्रदर्शन के लिए हो, अन्तरंग में आत्मसाक्षी से ये दोनों आचार निष्ठापूर्वक जीवन में न उतरे हों तो ये धर्मकार्य में कैसे समाविष्ट होंगे ? बन्धुओ ! इन सब कसौटियों पर कसकर धर्मकार्य को ही जीवन में प्राथमिकता दीजिए। वही सब कार्यों में श्रेष्ठ है । अभी धर्मकार्य के सम्बन्ध में कई अन्य पहलुओं से विचार करना अवशिष्ट है, अगले प्रवचन में उस पर प्रकाश डाला जायेगा। For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-२ प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ ! पिछले प्रवचन में मैंने आपके समक्ष धर्मकार्य के सम्बन्ध में काफी स्पष्टीकरण किया है, फिर भी कुछ पहलू और अवशिष्ट रहे हैं, जिनके विषय में आज विश्लेषण करना आवश्यक समझता हूँ। अतः इस प्रवचन में पुनः उसी ५१वें जीवनसूत्र पर विवेचन करूंगा। विषय कोई गूढ़ नहीं है, परन्तु जब सैद्धान्तिक दृष्टि से उस पर चिन्तन-मनन किया जाता है, तो गहराई में उतरना पड़ता है। मेरा विश्वास है कि भगर आप ध्यान से सुनेंगे तो इस विषय को सूक्ष्मता से हृदयंगम कर सकेंगे। अन्य कार्यों से पहले धर्मकार्य क्यों ? जगत में अगणित ऐसे कार्य हैं, जिन्हें न तो हम धर्मकार्य कह सकते हैं और न ही पापकार्य । शरीर-सम्बन्धी जितने भी कार्य हैं, जैसे कि नींद, भोजन, चलनाफिरना, सोना-जागना, पीना, उठना-बैठना आदि न तो अपने आप में धर्मकार्य हैं, न ही पापकार्य; इन क्रियाओं से सम्बन्धित भाव के अनुसार ही उनके धर्म, पुण्य या पाप होने का अनुमान लगाया जाता है। इसलिए इतना कहना होगा कि सेवा, दया, करुणा आदि जैसे सीधे धर्मकार्य हैं, वैसे ये सीधे धर्मकार्य नहीं हैं। इसके अतिरिक्त संसार में और भी कार्य हैं, जिन्हें हम धर्मकार्य नहीं कह सकते-जैसे विवाह के रीतिरिवाज, मृतक के संस्कार कर्म, जातकर्म, नामकरण, वस्त्रपरिधान, व्यापार, धंधा, नौकरी, कल-कारखाना चलाना, खेती करना, बगीचा लगाना, वृक्षारोपण, मजदूरी, नौका चलाना, कार चलाना, मकान बनवाना, दवा बनाना, पतंग उड़ाना, रखवाली करना आदि अगणित क्रियाएं । ये सब क्रियाएं धर्म, पाप या पुण्य तभी कहलाती हैं, जब इनके साथ धर्म, पाप या पुण्य की वृत्ति या मर्यादा संलग्न हो। यदि कोई क्रिया धर्ममर्यादा में आती है, कर्तव्यभावना से की जाती है, सेवा की दृष्टि से की जाती है, या दया, करुणा, सहानुभूति आदि की दृष्टि से की जाती है, तो वह धर्म करार दे दी बाती है, यदि उस क्रिया के पीछे अपनी नामबरी, प्रसिद्धि, यशकीर्ति या मामूली स्वार्थ की भावना है तो वह पुण्यजनक क्रिया हो जाती है, और जहाँ दूसरों को हानि पहुँचाने, सताने, दूसरों का हक छीनने, हिंसा, झूठ या बेईमानी करने आदि की दृष्टि से कोई क्रिया की जाती है, वहाँ वह क्रिया पापजनक हो जाती है । अब रहा धर्मक्रियाओं का प्रश्न ! वे ही धर्मक्रियाएं धर्मकार्य में गिनी जा सकती हैं, जिनके पीछे शुद्ध धर्मतत्त्व (अहिंसा, सत्य, न्याय, नीति आदि) का पुट हो, For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं–२ ७१ जो शुद्ध धर्म भावना (साम्प्रदायिकता, सम्प्रदायवृद्धि की भावना नहीं) से ओतप्रोत हों। जो धर्मक्रियाएं यन्त्रवत् की जाती हों, जिन्हें तोता-रटन की तरह रट-रटाकर धड़ाधड़ बोलकर या मशीन की तरह क्रियाएं करके पूरी की जाती हों, जिनका न तो अर्थ समझा जाता हो, न ही उसका प्रयोजन, वे धर्मक्रियाएं धर्मकार्य की कोटि में कैसे आ सकती हैं ? जो क्रियाएँ सामाजिक रीति-रिवाज या रूढ़ि-रस्म के तौर पर की जाती हों, जैसे वैवाहिक भोज, मृतभोज आदि वे धर्मकार्य की कोटि में नहीं आतीं। विवेकवान् धर्मनिष्ठ पुरुष धर्मकार्य के अतिरिक्त अर्थ-काम सम्बन्धी कार्यों को गौण मानता है। धर्मज्ञ व्यक्ति एक ओर अर्थकार्य या कर्मकार्य हो, उसे गौण समझकर धर्मकार्य को पहले करता है । धर्मकार्य को प्राथमिकता देने के पीछे कारण यह है कि अर्थकार्य, कर्मकर्य या सांसारिक रीतिरिवाज आदि से सम्बन्धित स्वार्थपोषक कार्य तो अनन्तकाल से होते आ रहे हैं, परम्परागत संस्कारवश मनुष्य उन्हें करता आया है, उनके करने का अवसर फिर भी मिल सकता है, लेकिन धर्मकार्य को करने का अवसर बहुत ही मुश्किल से मिलता है । जब कभी धर्मकार्य से धर्मोपार्जन करने का अवसर आता है, तब पूर्वकुसंस्कारवश मनुष्य या तो उसके प्रति अरुचि, अनुत्साह या अश्रद्धा प्रदर्शित करता है, या फिर वह उसे टाल-मटूल करने का प्रयत्न करता है, शरीर की रुग्णता, असामर्थ्य, समय का अभाव आदि का बहाना बनाता है । इस प्रकार धर्मकार्य का अवसर आता है तो भी मनुष्य नहीं कर पाता। इसलिए कविश्री धर्म-प्रेरणा देते हुए कह रहे हैंधर्म की पूंजी कमाले, कमाले जीवा; जीवन बन जायेगा ॥ध्रुव॥ बागे जहाँ में अपना जीवन-पुष्प सुगन्ध बनाले, बनाले जी. जी. ब. ॥१॥ अखिल विश्व के दलित वर्ग की सेवा (का) भार उठाले २, जी. जी. ब.॥२॥ मोहपाश के दृढ़ बन्धन से अपना पिण्ड छुड़ाले २, जी. जी. ब. ॥३॥ राग-द्वेष का जाल बिछा है, दूर से राह बचाले २, जी. जी. ब. ॥४॥ कितनी सुन्दर प्रेरणा है कवि की ! पंचतंत्रकार ने भी धर्मविहीन दिवस बितानेवाले को मृतवत् घोषित किया है यस्य धर्मविहीनानि दिनान्यायान्ति यान्ति च । स लोहकार भस्त्रैव, श्वसनपि न जीवति ॥' जिस व्यक्ति के दिन धर्मकार्य के बिना व्यतीत होते हैं और आते-जाते हैं, वह लोहार की धोंकनी की तरह श्वास लेता हुआ भी जीवित नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में धर्मकार्य करते हुए रात्रि व्यतीत करने को जीवन की सफलता बतायी गई है, इसके विपरीत जो व्यक्ति अधर्मकार्य में अपनी रात्रि बिताता है, उसका जीवन असफल बताया गया है १. पंचतन्त्र ३/९७ For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७-३ आनन्द प्रवचन : भाग ११ ....धम्मं च कुणमाणस्स सफला जंति ..... अहम्मं कुणमाणस्स अफला जंति राइओ 1 राइओ ॥ - धर्मकार्य करने वाले व्यक्ति के दिनरात सफल होते हैं और अधर्मकार्य करने वाले व्यक्ति के दिनरात असफल व्यतीत होते हैं । दूसरी बात यह है कि मनुष्य जैसा जो कुछ धर्म, पुण्य या पापकार्यं करता है, उसका फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है चाहे वह फल इसी जन्म में मिल जाये या अगले जन्म में । अतः धर्मकार्य को प्राथमिकता देने से यहाँ और वहाँ सर्वत्र उसका जीवन सुख - शान्तिसम्पन्न बनेगा । एक बात और विचारणीय है कि बुढ़ापा आने पर इन्द्रियां क्षीण होने पर या गाक्रान्त होने पर मनुष्य धर्मकार्य नहीं कर सकता, इसलिए भी धर्मकार्य का अवसर नहीं चूकना चाहिए | धर्मज्ञ व्यक्ति धर्मकार्य को कैसे प्राथमिकता देता है ? इसका उदाहरण लीजिएघटना सन् १९५६ की विदर्भ के एक जैन श्रावक की है । प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष की आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिकी पूर्णिमा तक वहाँ बहुत धार्मिक प्रवृत्तियाँ हुईं । उक्त जैन श्रावक के घर में भी किसी ने ८ उपवास किये थे । इस लम्बी तपस्या के उपलक्ष में धर्मप्रभावना की दृष्टि से पारणे के दिन अपने समाजवालों को उसने प्रीतिभोज देने का निश्चय किया । भोज या तपोमहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए उसने अपने परिचित सज्जनों को पोस्ट द्वारा आमंत्रणपत्र भी भिजवा दिया । पारणे से पहले दिन मिष्टान्न आदि बनाकर तैयार कर लिये गये । लगभग दो हजार मनुष्यों की भोजन सामग्री बना ली गई । परन्तु पूर्वरात्रि को अकस्मात् भीषण वर्षा होने के कारण स्थानीय नदी में भयंकर बाढ़ आ गई । गरीबों के कई भोंपड़े उसके प्रवाह में बह गये । बाढ़ पीड़ित गरीब लोग बे-घरबार हो जाने से आंसू बहा रहे थे । यह सब दृश्य देखकर उस जैन श्रावक का हृदय करुणा से भर आया । फलतः मानवता के नाते उसने बाढ़पीड़ित दुःखितों के आँसू पोंछ डालने का संकल्प किया । अपना यह विचार आगन्तुक अतिथियों और निमंत्रित सज्जनों के समक्ष प्रस्तुत किया - " भाइयो ! यद्यपि मैंने यह रसोई आप ही के लिए बनवाई है, तथापि गतरात्रि को अकस्मात् आई हुई बाढ़ के कारण बहुत-से लोग बेघरबार हो गये हैं तथा भूख से तड़फ रहे हैं । मेरी इच्छा है कि यह भोजन उन्हें खिला दिया जाये । जिस प्रकार हम भाई-भाई हैं, उसी प्रकार वे भी तो हमारे भाई हैं । आपकी सेवा के मौके तो मुझे और भी मिलते रहेंगे, किन्तु उन भाइयों की सेवा-सहायता करने का इतना श्रेष्ठ मौका भला और कब मिलेगा ?" आगन्तुकों ने उक्त श्रावक के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं, किन्तु उस रसोई को बाढ़ पीड़ित लोगों में वितरित करने के काम में भी सहर्ष सहयोग दिया । For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-२ ७३ बन्धुओ ! देखा आपने, धर्मज्ञ व्यक्ति किस प्रकार लौकिककार्य को गौण करके धर्मकार्य के अवसर का लाभ उठा लेता है। कई बार मनुष्य के सामने एक ओर सांसारिक कार्य के लिए जोर दिया जाता है, दूसरी ओर उसे धर्मकार्य के प्रति रुचि रहती है। ऐसी स्थिति में धर्मनिष्ठ मनुष्य सांसारिक कार्य के साथ लगे हुए प्रलोभनों सांसारिक विषयभोगों के आकर्षणों या भयों को तिलांजलि देकर एकमात्र धर्मकार्य को ही स्वीकार करता है। सौराष्ट्र के एक गाँव में उसका पीहर था। अचानक ससुराल से तार आया ........"भाई चल बसे ।" परन्तु माता-पिता ने अपनी पुत्री को इस आघातजनक समाचार से वज्राघात-सा लगेगा, इसलिए उसे बताया नहीं, परन्तु उसे किसी तरह पता लग गया । शोकमग्न तो हुई, परन्तु साथ ही उसने भावी जीवन को भी पूर्ण ब्रह्मचर्यमय और संयमपूर्ण बिताने का संकल्प कर लिया। सहज ही मिले हुए इस धर्मकार्य के अवसर को वह क्यों खोती ? कुछ ही दिनों बाद जब अपने दामाद की मृत्यु का शोक कम हो गया, तब उसके माता-पिता ने अपनी पुत्री के सामने प्रस्ताव रखा-"बेटी ! अब तेरा क्या विचार है ?” सुसंस्कारी धर्मशीला युवती पुत्री ने कहा- “एक भव में दो भव करने का मेरा विचार कतई नहीं है।" माता-पिता ने उसकी हमजोली सहेलियों के द्वारा विचार जानने चाहे, परन्तु इस लड़की ने दृढ़तापूर्वक इन्कार कर दिया-"अब मेरी इच्छा पुनर्विवाह करने की नहीं है । मैं आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करूंगी, जब अनायास ही मेरे बन्धन टूट गये हैं और मुझे धर्मकार्य करने का सुनहरा अवसर मिला है तो मैं पुनः सांसारिक भोगों के कीचड़ में क्यों पडू?" कुछ महीने व्यतीत होने के बाद एक दिन पिता ने कहा"बेटी ! आवेश में आकर कोई निर्णय करना अच्छा नहीं होता । पूर्ण ब्रह्मचर्य का मार्ग बहुत ही कठिन है । अभी तेरी उम्र ही कितनी है ! तू अगर स्वीकार करे तो मैं तेरे श्वसुर को मना लूगा और अपनी बिरादरी में ही किसी अच्छे वर की खोज कर लूंगा। बस, तेरे हाँ भरने की देर है।" पुत्री ने स्पष्ट शब्दों में इन्कार कर दिया कि "पिताजी ! मेरे लिए अब धर्म (ब्रह्मचर्य) कार्य को छोड़कर अधर्म (अब्रह्मचर्य रूप सांसारिक) कार्य की ओर मुड़ना बिलकुल असम्भव है। आप तो इस धर्मकार्य को निष्ठापूर्वक पार लगाने में मुझे सहयोग दें।" माता-पिता समझ गये कि लड़की स्वयं समझदार है। इसने समझ-बूझकर अपनी इच्छा से सारे सांसारिक प्रलोभनों या आकर्षणों को छोड़कर ब्रह्मचर्यमूलक धर्मकार्य का स्वीकार कर लिया है तो उन्होंने अधिक कहना उचित न समझा। लड़की ने पति-वियोग के समाचार मिलने के दूसरे ही दिन से अपना जीवन सादगी और संयम से ओतप्रोत बना लिया । ब्रह्मचर्य पालन करते हुए अनाथ, दीन-दु:खी, पीड़ित महिलाओं की सेवा में अपना समय व्यतीत करने लगी। माता-पिता ने भी अपनी विधवा पुत्री का संयम और सादगी से पूर्ण जीवन देखकर स्वयं भी, केवल ३२-३३ वर्ष की उम्र में आजीवन ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा ले ली और लड़की के धर्मकार्य में सहयोग देने लगे। For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ यह है — सांसारिक (अधर्मं ) कार्य के प्रलोभन को ठुकराकर धर्म (ब्रह्मचर्यं और सेवा के) कार्य में अपने जीवन को ओतप्रोत करने का ज्वलन्त उदाहरण । धर्मकार्य से विमुखता : - परन्तु आजकल अधिकांश लोगों का झुकाव सांसारिक कार्य और धर्मकार्य दोनों के उपस्थित होने पर प्रायः सांसारिक कार्य की ओर ही होता है । वे धर्मकार्य को तुच्छ और महत्त्वहीन समझकर यों कहने लगते हैं"धर्मकार्य तो फिर कर लेंगे । अभी क्या जल्दी है ? बुढ़ापे में कर लेंगे। अभी तो जवानी है, कमाने-खाने और ऐश-आराम करने के दिन हैं।" फिर पारिवारिक जनों की ओर से भी इसी बात पर जोर दिया है, सांसारिक बातों का ही समर्थन किया जाता है | साधु-साध्वियों या दृढ़धार्मिकों के सम्पर्क में ऐसे लोग कम ही आते हैं । तथा वातावरण भी सर्वत्र प्रायः इसी प्रकार का मिलता है । एक कवि ने इसी पर व्यंग कसा है— चल रही, चल रही, चल रही हो, पछवाँ' चल रही आज जगत् में || ध्रुब | 11811 धर्म कर्म घटता जाता है, स्वार्थ, दम्भ बढ़ता जाता है । पाप में दुनिया ढल रही हो ।। चल रही प्रेम स्नेह का नाम फना है, घर-घर में कुरुयुद्ध ठना है । द्वेष की अग्नि जल रही हो । चल रही भीमार्जुन-से वीर कहाँ हैं ?, मात्र शिखण्डी भोग में काया गल रही हो ।। चल रही कवि ने वर्तमान भारतीय जन-जीवन की धर्मकार्य से विमुखता का स्पष्ट चित्रण किया है । क्या ही अच्छा होता, लोग महर्षि गौतम के संकेत के अनुसार धर्मकार्य की ही पहल करते । चाणक्यनीति में तथा विभिन्न स्मृतियों में पद-पद पर धर्मकार्य करने के लिए सावधान किया है— अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्म-संग्रहः ॥ ' "धमं कुरुत यत्नेन, सोऽवश्यं सह यास्यति ॥ अर्थात् - ' शरीर अनित्य है, धन-सम्पत्ति स्थिर नहीं है मृत्यु सदा सन्निकट है, अतः धर्म-संग्रह (धर्मकार्य करके) करना चाहिए । " महानुभावो ! यत्नपूर्वक धर्मकार्य करो, धर्म ही परभव में तुम्हारे साथ चलेगा । " १. पश्चिमीय देशों की हवा २. चाणक्यनीति १२/१२ ३. कात्यायन- स्मृति ॥२॥ सभी यहाँ हैं ! ॥३॥ For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-२ ७५ अफसोस है, आज शरीर को हृष्टपुष्ट रखने के लिए खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने तथा सोने-उठने आदि का पूरा ध्यान रखा जाता है, पुत्रादि के जन्म तथा विवाहादि प्रसंगों पर वाहवाही लूटने के लिए अनाप-शनाप धन खर्च करने में कोई कंजूसी नहीं दिखाई जाती, वृद्ध माता-पिता के मरने पर दुःख न होते हुए लोक दिखावे के लिए शोक मनाया जाता है, और भी अनेक प्रकार के व्यावहारिक कार्य शर्माशी, देखादेखी, जाति और समाज के दवाब से, लिहाज से या भय और प्रलोभन से किये जाते हैं, ऐसे कामों में समय और धन न होने का कोई बहाना नहीं होता, परन्तु धर्मकार्य करने में अनेक प्रकार के बहाने किये जाते हैं, सुन्दर अवसर हाथ से चले जाने की कोई परवाह नहीं होती। धर्मकार्य से धर्म का पलड़ा भारी रखो-किन्तु याद रखिये, जैसे कांटे जितनी सई अन्दर जाने से ही कांटा निकलता है, भूख के अनुसार ही रोटी खाने से भूख मिटती है, नींव की गहराई के अनुसार ही मकान बनाया जाता है, बीमारी के वेग के अनुपात में ही दवा की मात्रा दी जाती है, आय के अनुसार ही व्यय किया जाता है टंकी की ऊंचाई के अनुरूप ही पानी ऊंचा चढ़ाया जाता है इसी प्रकार अधर्म या पाप के पलड़े की अपेक्षा धर्म का पलड़ा अधिक वजनदार होना चाहिए, अन्यथा, आप इंतजार करते रहेंगे बुढ़ापे तक और पापों या अधर्मों का पलड़ा भारी भरकम होकर जीवन-तुला को ही असंतुलित करके गिरा देगा। इसलिए अधिकाधिक धर्मकार्य करके धर्म का पलड़ा भारी रखना चाहिए। सखी धर्मकार्य से ही, अधर्मकार्य से नहीं-कई लोग कहा करते हैं कि बेईमानी, अन्याय, अनीति, लूटखसोट आदि अधर्मकार्यों से आज अधिकांश लोग सुखी एवं सम्पन्न दिखाई देते हैं, परन्तु धर्मकार्य करने वाले लोग प्रायः दुःखी, निर्धन या विपन्न नजर आते हैं । इसलिए मालूम होता है, धर्मकार्य का फल प्रत्यक्ष मिलता नहीं। इसका समाधान यह है कि आज भले ही अधर्मी या पापी लोग बाहर से सुखी दिखाई दे रहे हों, परन्तु उनकी अन्तरात्मा से पूछो तो मालूम पड़ेगा कि उन्हें उनका पाप या अधर्म कचोट रहा है, रह-रहकर अन्तर् में पछतावा होता है, प्रतिक्षण उन्हें भय रहता है कि कहीं कोई गिरफ्तार न करले, उनकी नींद हराम हो जाती है, न वे सुख से खा-पी सकते हैं और न ही सुख से निश्चित होकर सो सकते हैं। कई बार तो ऐसे पापात्मा या अधर्मी लोग किसी साधु-साध्वी का जरा-सा उपदेश सुनते ही बदल जाते हैं। ___ उल्लासनगर (बम्बई) में सिन्धी नारायणदास थडाणी को श्री चन्दन मुनिजी के उपदेश से बोध प्राप्त हुआ। वह मांस, रक्त, शराब आदि के दुर्व्यसन में फंसा हुआ था। किसी की कुछ नहीं सुनता था । जितने पैसे दूध बेचकर कमाता प्रायः सब के सब इन्हीं व्यसनों में खर्च कर देता था। उसकी दुकान के पड़ोस में ही एक जैन श्रावक श्री वकीलवाला की दुकान थी। उन्होंने उसे बहुत समझाया, पर न माना। आखिर For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ श्री चन्दनमुनिजी के दर्शनार्थ उसे साथ ले गये। वहाँ एक ही उपदेश में नारायणदास बदल गया। उसने मुनिश्री से शराब, मांस, रक्त आदि का त्याग कर लिया। उसने सभा में अपनी सारी रामकहानी सुनाई और अन्य सिन्धी भाई बहनों को भी इन दुर्व्यसनों के त्याग की प्रेरणा दी। जो नारायणदास एक दिन स्वयं इन दुर्व्यसनों का अगुआ था, वह आज अपने सिन्धी भाइयों-बहनों का दुर्व्यसन त्याग करवाने में अग्रणी बन गया। उसका जीवन पवित्रता के पथ पर-धर्ममार्ग पर चल पड़ा। नारायणदास को दुर्व्यसनों के सेवन से कोई सुख नहीं था, वह बेचैन रहता था, परन्तु अब उसके जीवन में सुख-शान्ति थी। अगर पापमय जीवन में सुखशान्ति या अमन-चैन होती तो जैन, वैदिक, बौद्ध आदि धर्मशास्त्रों से जो चोर, डाकू, हत्यारे, पापी आदि के जीवन-परिवर्तन की रोमांचक घटनाएँ मिलती हैं, वे अपने कुत्सित जीवन को क्यों छोड़ते और क्यों पापमय जीवन छोड़कर धर्मकृत्य करके धर्ममय जीवन जीते ? नारायणदास की तरह हजारों व्यक्ति ऐसे हैं, जो पापमय जीवन जीते-जीते ऊब गये हैं, उन्हें उक्त जीवन में कोई तृप्ति, सन्तोष या आनन्द नहीं । वर्षों पहले समाचारपत्र में एक सच्ची घटना पढ़ी थी-एक व्यक्ति ने सुबह सुबह स्थानीय थानेदार साहब के यहाँ पहुँचकर आवाज दी थानेदार साहब ! थानेदार साहब का दुमंजिला मकान था। थानेदार साहब अभी सो रहे थे । बारबार आवाजें आने से उनकी पत्नी ने उन्हें जगाया और बाहर बैठे आदमी के आने की सूचना दी। थानेदार ने कहा-“कान्स्टेबल से पुछ्वाना—क्या चाहता है ?" पत्नी-“अजी ! वह दो बार पूछ गया है। तब तक आप होये रहे। उसे बाहर बैठे-बैठे एक घंटे से ऊपर होगया । अधीर हो, आवाजें देने लगा है । तनिक देखो न, वह किसी मुसीबत का मारा मालूम होता है। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रहीं हैं, आवाज में चिन्ता है, खिन्न दीखता है।" थानेदार साहब खिड़की से नीचे झांककर बोले"अच्छा बैठो, मैं नीचे आ रहा हूँ।" वह आदमी कुछ सन्तुष्ट-सा चबूतरे पर बैठ गया। कान्स्टेबल ने यह कहकर जब उसे अन्दर नहीं जाने दिया कि रिपोर्ट लिखानी हो तो मुंशीजी को लिखा दो, तब भी वह बोला- "थानेदार साहब से ही एक काम है।" ___ डेढ़ घंटे और प्रतीक्षा करने के बाद थानेदार साहब की नींद खुली । बैठक का दरवाजा खुला । कान्स्टेबल आगन्तुक को अन्दर ले गया। थानेदार तने हुए बैठे थे, उन्होंने कड़कती हुई आवाज में कहा-"क्यों क्या बात है ? तुमने मुंशीजी को रिपोर्ट क्यों नहीं लिखाई ? मुझे व्यर्थ क्यों परेशान किया ?". वह विनय के स्वर में बोला-"माफ करें, सरकार ! गलती हो गई । कुछ ऐसी गुप्त बातें हैं, जो सिर्फ हजूर से ही अर्ज करनी थी।" थानेदार-'मुझसे ऐसी कौन-सी पोशीदा बातें कहनी हैं ? यहाँ चोर, डाकू, बदमाश आवारा ही आते हैं, जो हर बात छिपाते रहते हैं, तुम कौन हो, जो आज निर्भय होकर मुझसे अपनी गुप्त बातें कहने आये हो ?" For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं - २ वह व्यक्ति कुछ आश्वस्त और उत्साहित होकर ठंडे लहजे में बोला - "यही तो अर्ज करना है, हजुर ! उसे कहकर ही तो मन का भार हलका करना है, खास तौर से आप ही को सुनाना चाहता हूँ ।" थानेदार ने दिलचस्पी लेते हुए कहा – “मुझसे ही कहनी हैं ? अच्छा कहो, क्या कहना है तुम्हें ? क्या किसी की शिकायत है, जिसे स्पष्ट करने को, तुम यहाँ दो घंटे से बैठे हो ? वरना यहाँ से तो लोग दूर-दूर भागते हैं । " आगन्तुक – “एक टाइम था, जब मैं भी थाने से ऐसे ही दूर भागता था, जैसे अपराधी, फरार या डकैत भागा करते हैं ?” थानेदार - " तो क्या तुमने भी अपराध किया था, कभी ?" आगन्तुक - " जी हाँ, मैंने अपराध किया था ।" ७७ थानेदार—“तो जेलखाने की मार भी पड़ी होगी । हंटरों के निशान भी कमर पर उभरे होंगे ? एक बार जेलखाने जाकर कौन भूल सकता है ?" आगन्तुक — “ अपराध तो किया था, मगर जेलखाने नहीं गये । कानून की निगाह से बचे रहे ।” थानेदार — “वाह, खूब चालाक निकले तुम ! सरकार की आँखों में धूल झौंक तुमने ।” आगन्तुक - " पुलिस को तो चकमा दिया, पर खुद को धोखा न दे सका उसी का पछतावा है । उसी की माफी माँगने आया हूँ, सरकार ।" थानेदार - ' ' अभियुक्त को पश्चात्ताप ! हमने तो कभी अभियुक्तों को अपनी करनी पर पछताते नहीं देखा । आज पहली बार तुमसे ऐसा सुन रहे हैं । स्पष्ट बताओ कैसे क्या अपराध हुआ और तुम क्या चाहते हो ?" आगन्तुक - " जी ! मैं अपने बुरे कार्य पर लज्जित हूँ और प्रायश्चित्तस्वरूप आज अपना अपराध आपके सामने कबूल करने आया हूँ । जब से मैने डाकेजनी में भाग लिया था, तब से ही मेरी आत्मा अन्दर ही अन्दर पापकर्म के लिए कचोटती रही है । मैं अपराध को दबा नहीं पा रहा हूँ । अन्दर से कोई आवाज आरही है कि अपने पाप को कह दे, सबके सामने कबूल कर ले, उसकी जो भी सजा मिले, भुगत ले तो तेरे मन का भार हलका हो जाएगा। हजूर ! मुझे माफी दी जाये ।" थानेदार - ''तुम कौन हो ? जरा तफसील दो कि क्या - क्या और कैसे हुआ ?" आगन्तुक रोते हुए बोला - " जी ! मैं जुम्मन नामक फरार अभियुक्त हूँ । मेरा सम्बन्ध नौ मास पूर्व कानपुर जिले के ग्राम बारा ( ककवन थाना क्ष ेत्र) निवासी मोहन लाल नामक ग्रामीण के घर में हुई सशस्त्र डकैती से है । मेरे नेतृत्व में वह डकैती For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ हुई थी। मैने कई जगह और भी छोटी-मोटी चोरी करवाई हैं । पर अब मुझ ऐसा लग रहा है कि यह सब पापकर्म था । मेरी अपराध वृत्ति का कुफल था । एक अच्छे नागरिक को चोरी-डकैती जैसा पापकर्म कभी नहीं करना चाहिए। मैं समझता हूँ कि साहसी मनुष्य वही है, जो अपने अज्ञान में की गई भूल के लिए प्रायश्चित्त करने में संकोच न करे । आप इसकी जो भी उचित सजा हो, मुझे दिलवाइये ।" थानेदार साहब डकैत का आत्मसमर्पण देखकर चकित रह गये । उन्होंने जिज्ञासावश पूछा - "अब आगे तुम्हारा क्या करने का विचार है ?" आगन्तुक - " मैं अब धार्मिक बनकर अपने जीवन में अच्छाई अपनाना चाहता हूँ । जितनी भी बन सके, मैं भलाई करना चाहता हूँ । अब तक डकैत बने रहने में मैं गर्व अनुभव करता था, अब सज्जन कहलाने की इच्छा रखता हूँ । मैंने टक्करें खाकर यही सीखा है कि शराफत का जीवन ही स्थायी और शान्तिमय जीवन है। परोपकार, सेवा आदि धर्मकार्य ही मनुष्य के सहज कर्त्तव्य है । उसी से आत्मा को शान्ति मिलती है । अपराधों और पापकार्यों से नहीं ।" थानेदार - " तब तो मैं तुम्हें अदालत से माफी दिलवाऊंगा । एक गिरे हुए व्यक्ति को ऊंचा उठाना और सज्जन बनाना भी तो धर्म का कार्य है ।" थानेदार साहब ने कोशिश भी की और अन्त में वे अपने शुभ मनोरथ में सफल होकर रहे । इस प्रकार एक पापकार्य-परायण व्यक्ति पापी जीवन से ऊबकर धर्ममय जीवन के पथ पर आया, तभी उसे सुखशान्ति मिली । सचमुच, धर्मकार्यनिष्ठा का चामत्कारिक परिणाम आये बिना नहीं रहता । धर्मकार्य का प्रत्यक्ष फल — कई बार मनुष्य यह सोचता है कि धर्मकार्य का फल तो अभी प्रत्यक्ष मिलता नहीं है, इस कारण वह धर्मकार्य से विमुख, निरुत्साहित होकर झटपट किसी न किसी अधर्मकार्य या पापकार्य में फँस जाता है । परन्तु जिनके हृदय में धर्म के प्रति दृढ़ निष्ठा है, वे धर्मकार्य से विचलित नहीं होते । कई बार मनुष्य केवल बाहरी दिखावे के लिए बहुत-सी धर्मक्रियाएं कर लेता है या करता रहता है, वह न तो उस धर्मक्रिया के अनुसार अपना आचरण बनाता है, और न ही उस धर्मक्रिया को भी समझबूझकर, श्रद्धा और निष्ठा से करता है; वह लकीर का फकीर बनकर उस धर्मक्रिया को करता है । स्थूल दृष्टिवाले लोग समझते हैं कि यह बहुत-सी धर्मक्रियायें करता है, इसलिए धर्मकार्य-परायण है, धर्मात्मा है; परन्तु वास्तव में वह वैसा होता नहीं है । इस कारण भी तथाकथित धर्मकार्य का फल वास्तविक धर्मकार्य के फल से विपरीत आता है । जो लोग किसी प्रकार की फलाकांक्षा के बिना श्रद्धा, धैर्य एवं निष्ठापूर्वक धर्मकार्य करते जाते हैं, उन्हें उसका वास्तविक फल देर-सबेर मिले बिना नहीं रहता । एक पत्र में पढ़ी हुई सच्ची घटना बताता हूँ — एक धर्मकार्यनिष्ठ व्यापारी बहुत मुसीबत में था । अतः उसकी धर्मपत्नी ने सलाह दी - "हम इस समय बहुत ही विपत्ति For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं - २ ७६ हैं । सब सामान तो कल कुर्क हो जायेगा । जेल भी हो सकती है । ऐसी अवस्था में यदि एक बार भाईजी " ... के रुपये बरत लिए जायें, तो क्या हर्ज है ? यह तो आपद्धर्म है । दो-तीन महीने बाद जब रुपये आएंगे, तब वापस जमा रख दिये जायेंगे; या उनकी पत्नी को ही दे देंगे ।" बात यह थी कि उस व्यापारी के व्यापार में घाटा लग गया। हाथ तंग हो गया । ईमानदार होने पर भी वह कर्ज ली हुई रकम का भुगतान न कर सका । एक फर्म ने उस पर नालिश करके दो लाख रुपयों की डिग्री ले ली । उसकी वसूली के लिए कुर्की तथा वारंट का आदेश निकल चुका था । इस व्यापारी के पास एक मित्र के ढाई लाख रुपये के नोट रखे थे । उनकी मृत्यु को १० ही दिन हुए थे । रुपये उनकी पत्नी को देने । इस व्यापारी के खुद के रुपये २-३ महीने के बाद विदेश से आने वाले थे । इसी से इसकी पत्नी ने उपर्युक्त बात कही थी । परन्तु धर्मनिष्ठ पति ने उससे कहा - " ऐसा नहीं होगा । हमारे रुपये अगर विदेश से न आये तो हम भाईजी की पत्नी को कहाँ से देंगे ? मित्र की इस धरोहर छूने का हमारा अधिकार नहीं है । यदि कल सोमवार को कुर्की में ये नोट भी चले गये तो हम मुँह दिखाने लायक नहीं रहेंगे, नरक में जायेगे । मैं तो यह अमानत की रकम आज ही उन (मित्र) की पत्नी को देकर आऊंगा । यद्यपि उसे इसका पता नहीं है तथापि हम और सर्वज्ञ प्रभु तो सब कुछ जानते ही हैं ।" उसकी सरल हृदय पत्नी आगे कुछ न बोली । वह व्यापारी उसी दिन ही वह रकम अपने स्वर्गीय मित्र की पत्नी को दे आये । दूसरे दिन कुर्की आने वाली थी, परन्तु धर्मनिष्ठा का चमत्कार ऐसा हुआ कि पहले से ही सुरक्षा व्यवस्था हो गई । जो चार लाख की राशि विदेश से आने वाली थी, उसकी टी०टी० आफिस में जाते ही मिल गई । जहाँ कुर्की की आशंका थी, वहाँ अनायास ही सब रुपयों का भुगतान हो गया । जो डेढ़ लाख असल थे, वे व्यापारी को मिल गये शेष रकम से सब का भुगतान हो गया । यह है धर्मकार्य पर दृढ़निष्ठा का चमत्कार ! कर्त्तव्य भी धर्मकार्य में कब और कब नहीं— कर्त्तव्य और धर्मकार्य इन दोनों पर जब हम विचार करते हैं तो ऐसा मालूम होता है— कर्तव्य का दायरा धर्मं से छोटा भी हो सकता है । जैसे— परिवार के प्रति कर्त्तव्य होता है, इसी प्रकार जाति, धर्मसम्प्रदाय, नगर या ग्राम, प्रान्त, देश और विश्व के प्रति कर्त्तव्य भी होता है । कर्त्तव्य का दायरा उत्तरोत्तर विशाल होता है, जबकि धर्म का दायरा सार्वत्रिक और सार्वजनिक होता है । वहाँ जो धर्म एक व्यक्ति के प्रति होता है वही समाज, राष्ट्र या विश्व के सभी प्राणियों के प्रति होता है, धर्म में कोई अन्तर या विरोध नहीं पड़ता, वह शाश्वत होता है । कर्त्तव्य में परस्पर विरोध आ सकता है । एक राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य से प्रान्त के प्रति कर्त्तव्य में विरोध आ सकता है । प्रान्तीय कर्त्तव्य का राष्ट्रीय कर्त्तव्य के साथ विरोध हो सकता है । परन्तु अहिंसा, सत्य आदि प्रान्तीय धर्म और राष्ट्रीयधर्म में कोई विरोध नहीं आता । एक उदाहरण द्वारा कर्त्तव्य और For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० आनन्द प्रवचन : भाग ११ धर्म के अन्तर को स्पष्ट कर दूं-विभीषण रावण के मंत्रिमण्डल का एक सदस्य था। विभीषण का कर्तव्य था-रावण और उसके राज्य के प्रति वफादारी रखना और उसके राज्य की नीति-रीत से सम्मत होना। किन्तु जब रावण नैतिकता को छोड़कर सीता का जबर्दस्ती अपहरण करके ले आया । राम के बार-बार सीता को लौटाने के सन्देश आने पर भी रावण ने सीता नहीं सौंपी । ऐसी अनीति पर जब रावण उतर आया, तब विभीषण ने रावण को समझाया-सीता को लौटा देने के लिए तथा उस अनैतिक कार्य का विरोध भी किया, तब रावण ने उसे कहा-"विभीषण ! तू अपने कर्तव्य का पालन कर । तुझे मैंने मंत्री पद दिया है, सब तरह की सुविधाएं भी दी हैं फिर मेरे व्यक्तिगत मामले में तू क्यों बोलता है ? चुपचाप रह ।" परन्तु विभीषण ने कहा-“कर्तव्य से धर्म बड़ा है । धर्म कहता है-राम का पक्ष न्याय-नीति एवं धर्म से युक्त है जबकि आपका पक्ष अन्याय-अनीति और अधर्म से युक्त है।" रावण जब नहीं माना बल्कि राज्य की सेना को अपने व्यक्तिगत, अनैतिक कार्य के लिए लड़ाई में झौंकने को उद्यत हो गया, तब विभीषण ने रावण का विरोध किया, मंत्रिमण्डल में से वह निकल गया । श्रीराम के धर्मयुक्त पक्ष में चला गया। यह है कर्तव्य और धर्म में संघर्ष या विरोध हो, वहाँ संकुचित कर्तव्य को छोड़कर धर्म को अपनाने का ज्वलन्त उदाहरण । फिर भी एक बात का निर्णय हम कर सकते हैं-यदि कर्तव्य धर्म से अनुप्राणित हो, धर्म के साथ उसका विरोध न हो तो वह धर्मकार्य में परिगणित किया जा सकता है । असल में तब वह कर्तव्य न रहकर धर्मकार्य बन जाता है । एक उदाहरण लीजिए एक किसान था। उसने अपने खेत में उत्पन्न अन्न का एक बोरा अगली सीजन में बोने के लिए रखा था। किन्तु अचानक उसका गाँव दुष्काल की चपेट में आ गया। किसान का चिन्तन चला इस समय खाने के लिए अन्न तो सभी दुष्काल-पीड़ितों को सरकार देती है। परन्तु आगामी फसल के लिए बोने को अनाज मेरे गाँव के किसानों के पास नहीं रहेगा तो वे बोयेंगे क्या ? नहीं बोयेगे तो अगले वर्ष फिर अन्न की भीख मांगकर परिवार को जिलाने की नौबत आयेगी। इससे तो अच्छा है मैं अपने पारिवारिक कर्तव्य को छोड़कर सारे गाँव के प्रति कर्तव्य की ज्योति जलाऊं। मुझे अकेले को बोने को अन्न न मिले तो भी कोई परवाह नहीं । फलतः उस किसान ने बोने के लिए सारे गाँव को अन्न दिया। दूसरों को जिलाकर जीने का सूत्र धर्मकार्य का ही तो है। जो तथ्य कर्तव्य और धर्मकार्य के अन्तर का ऊपर बताया गया है, वही नैतिक कार्य और धर्मकार्य में समझ लेना चाहिए। नीति और कर्तव्य ये दोनों धर्म से अविरोधी या धर्म से अनुप्राणित हों, तब तो ये धर्मकार्य के अन्तर्गत हैं। यदि ये दोनों धर्मकार्य के विरोधी या धर्म से वियुक्त हों, तो फिर ये धर्मकार्य में परिगणित नहीं होंगे। For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं - २ ८१ साम्प्रदायिक कर्त्तव्य और धर्मकार्य में अन्तर - प्राय: साम्प्रदायिक कार्य व्यापक धर्म के विरुद्ध होता है, अनुकूल नहीं । साम्प्रदायिक कर्त्तव्य से व्यापक धर्मकार्य का दायरा भी विशाल होता है । साम्प्रदायिक कर्त्तव्य तो सिर्फ अपने सम्प्रदाय की नीति - रीति, नियमोपनियम, संविधान आदि तक ही सीमित होता है, लेकिन धर्म ( सत्य, अहिंसादि) तो मानवमात्र ही नहीं, प्राणिमात्र के हित तक व्यापक होता है । इसलिए नीति या कर्त्तव्य की तरह साम्प्रदायिक कर्त्तव्य के सम्बन्ध में भी निर्णय किया जा सकता है कि जो साम्प्रदायिक कर्त्तव्य व्यापक सद्धर्म का पोषक हो, सत्यअहिंसादि का पालन करने में सहायक हो या पूरक हो, व्यापक धर्म का विरोधी न हो, उसे धर्मकार्य में परिगणित किया जा सकता है । जैसे कि किसी सम्प्रदाय ने यह विधान किया कि दूसरे सम्प्रदाय वालों के साथ किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं करना चाहिये, क्योंकि इससे मिथ्यात्व का पोषण होगा । या एक सम्प्रदाय वाले 'धर्म खतरे में है' कहकर दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को मारने-काटने का आदेश दे देते हैं तो ऐसा करना अहिंसा-धर्म के विपरीत होने से तथा मानवता विरुद्ध होने से वह धर्मकार्य नहीं बल्कि हिंसा (पाप) कार्य समझा जाएगा। इसी प्रकार धर्मकार्य के नाम पर साम्प्रदायिकता फैलाई जाती हो, या धर्मकार्य की ओट में जहाँ पोपलीला (अनुयायियों से धन ऐंठने की कला ) चलती हो, व्यभिचार, अत्याचार, अनाचार, अन्याय, अनैतिक धन्धा आदि चलते हों, वहाँ तो वह सरासर अधर्मकार्य या पापकार्य है । पुण्यकार्य और धर्मकार्य का घपला जैनधर्म में एक बात खासतौर से समझाई गई है कि पुण्य और धर्म दोनों एक नहीं हैं । पुण्य शुभकर्मबन्धजन्य है, जबकि धर्म शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों (पुण्य-पाप) का क्षयरूप होता है । इसलिये यह स्वाभाविक है कि पुण्यकार्य और धर्मकार्य में अन्तर रहे । वैदिक धर्म के विशिष्ट धर्म-ग्रन्थों में पुण्यकार्य और धर्मकार्य को एक मान लिया गया है । जैसे कि महाभारत का एक श्लोक, जो पंचतंत्र में उद्धत है संक्षेपात् कथ्यते धर्मो जनाः किं विस्तरेण वः । परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥ अर्थात् हे मनुष्यो ! संक्षेप में ही धर्म मतलब ? वह है - परोपकार पुण्य के लिए है, और परोपकार से पुण्य और परपीड़न से पाप होता है । यहाँ धर्म का वर्णन करते हुए परोपकार रूप पुण्य को ही धर्म माना है, और परपीड़न को पाप । इसी प्रकार और भी ऐसे राहत के कार्यों को धर्म माना है, इसका क्या कारण है ? बात यह है— वैदिक धर्म की मीमांसक परम्परा में कामनामूलक धर्म को ही धर्म माना गया है । वहाँ स्वर्गादि कामनाओं से प्रेरित जितने भी विधान हैं, वे वस्तुत: कह रहा हूँ, तुम्हें विस्तार से क्या परपीड़न पाप के लिए। यानी For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ पुण्यकोटि के हैं । मीमांसक पुण्य को ही धर्म कहते हैं। मोक्ष और यथार्थ निष्कामधर्म की कल्पना ही वहाँ नहीं हैं । मीमांसक परम्परा का अनुसरण स्मृतियों ने किया है । इसलिए वापी, कूप, तालाब आदि निर्माण कराने, अतिथि सत्कार करने तथा अन्य अनेक लौकिक व्यवहारों को वहाँ धर्म का रूप दिया गया है । लेकिन जैनधर्म उन्हीं को धर्मकार्य या धर्म कहता है, जिन कार्यों या प्रवृत्तियों के साथ वासना, कामना, स्वार्थ, लोभ, भय, प्रलोभन, यशकीर्तिलालसा, फलाकांक्षा आदि न जुड़ी हुई हो। अगर कोई परोपकार का कार्य इस कसौटी पर ठीक उतरता है तो वह धर्म या धर्मकार्य में गिना जा सकता है, अगर सत्कार्यों के साथ वासना, कामना आदि जुड़े हुए हैं तो वे शुभयोग के कारण पुण्यकार्य कहे जा सकते हैं । पुण्यकार्यों से देवायु का बन्ध मुख्यतया होता है । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में कहा है "सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जरा-बालतपांसि देवस्य ।" -सरागसंयम (कामनामूलक धर्माचरण), संयमासंयम, अकाम निर्जरा और बालतप ये देवायुबन्ध के कारण हैं। प्रायः यह देखा गया है कि लौकिक परोपकार रूप कार्यों के पीछे व्यक्ति की नामबरी, प्रसिद्धि, परलोक में सुखभोगेच्छा, इहलोक में सुखकामना, साधारण स्वार्थ आदि फलाकांक्षा प्रायः रहती है इस लिए परोपकार के कार्यों -दान, पुण्य, आदि कार्यों को पुण्यकार्य ही मुख्यतया माना गया है । धर्माजित व्यवहार ही धर्मकार्य की कोटि में-अब रहे अनेकविध व्यावहारिक कार्य वे प्रायः नैतिक कर्तव्यों में परिगणित होते हैं। जो व्यवहार एकान्त धर्म से भजित-युक्त हैं, वे ही धर्मकार्य में परिगणित होते हैं। जैसा कि उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है धम्मऽज्जियं च ववहारं बुद्ध हाऽयरियं सया। तमायरंतो ववहारं गरहं नाभिगच्छइ ॥ -जो व्यवहार धर्माजित है, बुद्ध-तत्त्वज्ञ पुरुषों द्वारा सदैव आचरित है, उस व्यवहार का आचरण करता हुआ साधक गर्दा-लोकनिन्दा का भाजन नहीं होता। जैसे—कोई धर्म यह कहता हो कि कोई तेरा एक दांत तोड़े तो तू उसके दो दांत तोड़, अथवा 'शठे शाठयं समाचरेत्-दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करो,' ये और इस प्रकार के व्यवहार धर्माजित नहीं हैं, न तत्त्वज पुरुषों द्वारा आचरित हैं, इसलिए ऐसे व्यवहार धर्मकार्य में शुमार नहीं हो सकते । वे ही व्यवहार धर्मकार्य में शुमार हैं जो अहिंसा, सत्य आदि धर्मों से अनुप्राणित हों, तत्त्वज्ञपुरुषों द्वारा आचरित हों। जैसे-कोई व्यक्ति किसी के साथ सत्यतापूर्वक व्यवहार करता है, अहिंसायुक्त व्यवहार करता है, तो वह व्यवहार धर्म हो सकता है। क्या ये धर्मकार्य हैं ? .. प्रश्न होता है कि धर्म के साथ जो विविध परम्पराओं का जाल बिछा हुआ For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं है या अन्ध-विश्वासों का मैल जमा है क्या वह सब धर्मकार्य है या और कुछ ? जैसे - किसी स्त्री का पति मर जाये तो उसे अपने पति के साथ चिता में जलकर सती हो जाना चाहिए, स्त्री को पर्दा करना चाहिए, ऋतुकाल में ही स्त्रीसंगम करना विहित है, मुर्दे को जलाना या दफनाना चाहिए, अमुक के हाथ का पानी पीना चाहिए अमुक के हाथ का नहीं, छुआ-छूत, पंक्तिभेद, आदि मानना चाहिए, कल का आदा और नल का पानी धर्मविरुद्ध है, ब्राह्मण को पक्की रसोई खानी चाहिए या कच्ची ?. खड़े-खड़े पेशाब करना चाहिए या बैठकर ? शौचादि क्रिया कब और कहाँ करनी चाहिए ? गले में जनेऊ डालना धर्म है, तिलक लगाना धर्म है ? मूर्ति के सामने एक-दो पैसा फेंकना या किसी भिखमंगे को एकाध पैसा दे डालना धर्म है ? गंगा मैया में नारियल या पैसा फेंकना धर्म है ? किसी दीन-दुःखी को फटा कपड़ा या झूठा अन्न दे डाला धर्म है ? पीपल को जल पिलाना या उसके चारों ओर दो-चार चक्कर लगाने या. उसके दो चार पत्त े चबा लेने से धर्म होता है । तुलसी का एकाध पत्ता चबा लेना अगड़म-बगड़म कुछ भी जाप कर लेना, गंगा, गोमती आदि नदियों में दो चार गोते लगा लेना, मनों घी अग्नि में फूंक देना धर्म है ? चींटियों को आटा तथा बन्दरों को पकौड़े तथा किसी गाय आदि को एकाध आटे का पिण्ड खिला देने से धर्म होता है ? मैं पूछता हूँ क्या धर्म इतना सस्ता सौदा है ? जरा-सा कुछ कर देने से धर्म हो जाता हो, तब तो जितने भी दुनिया में पापात्मा हैं, वे सब धर्मात्मा कहलाने लगेंगे । परन्तु ये सब धर्मकार्य नहीं, धर्म का मजाक है । अविवेक और अन्धविश्वास में कहीं धर्म होता है ? परन्तु अधिकांश धर्मध्वजी लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए ऐसी-ऐसी तुच्छ बातों में धर्मकार्यं बताकर भोले-भाले लोगों का गुमराह किया है । इसीलिए एक कवि ने व्यंगोक्ति कसी है— --- धर्म को तो आज दुनिया ने खिलौना कर दिया । दूध के बदले में पानी का बिलौना कर दिया ।। ऐसे सब कार्यों में अपनी विवेकबुद्धि से ही धर्मकार्य - अधर्मकार्य या पुण्य-पाप कार्य का निर्णय करना चाहिए । कई धर्मसम्प्रदाय पशुबलि में धर्म मानते हैं, कई स्मृतिग्रन्थों ने ब्राह्मणों के लिए चोरी कर लेना धर्म माना है । ऐसे-ऐसे बहुत हिंसा असत्यादिमूलक विधान जहाँ धर्म माने जाते हों वहाँ सामान्य मनुष्य की बुद्धि चकरा जाती है इसीलिए बृहत् कल्पभाष्य में एक निर्णय दिया गया है जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छ परस्स वि एत्तियगं जिणसासणयं ॥ — जो अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए चाहना चाहिए, और जो अपने लिए नहीं चाहते, तो वह दूसरों के लिए भी नहीं चाहिए, बस इतना-सा जिनशासन - वीतराग धर्मोपदेश है । For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ निष्कर्ष यह है कि जो हिंसादि अपने लिए प्रतिकूल हैं, अपने साथ कोई वैसा ( हिंसादि का ) व्यवहार करे तो व्यक्ति तुरन्त कह उठता है, यह तो सरासर पाप है, अधर्म है, असह्य आचारहीनता या अनैतिकता है, उसी गज से उसे दूसरों के साथ व्यवहार करते समय मापना चाहिए तभी धर्म-अधर्म या पुण्य-पाप का निर्णय हो सकेगा । इसीलिए धर्मकार्य को श्रेष्ठ कार्य कहा बन्धुओ ! इसीलिए धर्मकार्य के बीन करने के बाद गौतम महर्षि ने कार्य कहा है । सम्बन्ध में पूरी तरह से ऊहापोह और छानधर्मकार्य को आचरण में लाना परम श्रेष्ठ आप सब इस सम्बन्ध में सभी पहलुओं से गहराई से चिन्तन करें और धर्मकार्य को पहचानकर जीवन में पहला स्थान दें । इसी से आपका कल्याण होगा, आप मोक्ष के निकट पहुँच सकेंगे । * For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ ! पिछले दो प्रवचनों में इसी बात पर जोर दिया था कि 'धर्मकार्य से बढ़कर श्रेष्ठ कोई कार्य नहीं है", तब सवाल होता है कि अकार्य कौन सा है.? यों तो दुनिया में बहुत से अकार्य हैं, जिन्हें मनुष्य कु-संस्कारवश करता आ रहा है, परन्तु उन सबमें सबसे निकृष्ट अकार्य है-'प्राणिहिंसा' । इसीलिए गौतम महर्षि ने गौतमकुलक के ५२वें जीवनसूत्र में स्पष्ट बता दिया है न पाणिहिंसा परमं अकज्ज।" 'प्राणिहिंसा से बढ़कर संसार में कोई अकार्य नहीं है।' प्रश्न होता है-प्राणिहिंसा क्या है ? उसके मुख्य-मुख्य कितने रूप हैं ? वही सबसे बढ़कर अकायं क्यों हैं ? इस प्रवचन में हम इन सभी मुद्दों पर गहराई से चर्चा करेंगे। प्राणिहिंसा क्या है? हिंसा के स्थान पर जैनशास्त्रों में यत्र-तत्र प्राणातिपात शब्द अधिकांश रूप में प्रयुक्त है। प्राणातिपात का सीधा-सा अर्थ है-प्राणों का अतिपात–विनाश करना । प्राण का अर्थ केवल श्वासोच्छ्वास ही नहीं है, जैनधर्म का यह पारिभाषिक शब्द है । जैनशास्त्रों में १० प्राण माने गये हैं, वे इस प्रकार हैं-- (१) श्रोत्रेन्द्रियबलप्राण, (२) चक्षुरिन्द्रियबलप्राण, (३) घ्राणेन्द्रियबलप्राण, (४) रसनेन्द्रियबलप्राण, (५) स्पर्शेन्द्रियबलप्राण, (६) मनोबलप्राण, (७) वचनबलप्राण, (८) कायबलप्राण, (E) श्वासोच्छ्वासबलप्राण, (१०) आयुष्यबलप्राण । इन दस प्राणों में से जितने जिस प्राणी के नियत हैं उतने प्राणों को धारण करने वाला 'प्राणी' कहलाता है। प्राणियों के उक्त १० प्राणों में से किसी भी प्राण For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ का विघात या वियोजीकरण करना प्राणों से रहित कर देना प्राणातिपात या प्राणिहिंसा है। बहुत-से स्थूल दृष्टि वाले व्यक्ति यह सोचते हैं कि किसी का श्वास बन्द कर दिया-रोक दिया अथवा किसी का आयुष्य खत्म कर दिया-इतना ही प्राणातिपात या हिंसा का अर्थ है । लेकिन यह अर्थ अधूरा और एकांगी है। किसी प्राणी का दम घोंट देना या श्वास रोक देना या आयुष्य खत्म कर देना तो प्राणातिपात या हिंसा है ही । इसके अलावा भी पाँच इन्द्रियाँ और मन, वचन और काया ये तीन बल भी प्राण हैं, इनका विघात या वियोग कर देना भी हिंसा है । जैसा कि शीलांकाचार्य ने सूत्रकृतांगवृत्ति में कहा है पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास-निःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दर्शते भगवद्भिरक्तास् । तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥' अर्थात्-पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल (मन, वचन और काया), श्वासोच्छ्वास एवं आयु, ये दस प्राण तीर्थकर भगवान ने कहे हैं । उनका वियोग करना-उनसे प्राणी को रहित कर देना ही हिंसा है। हाँ, तो मैं कह रहा था कि केवल एक-दो लोकप्रसिद्ध प्राणों का ही नहीं, दस प्राणों में से किसी भी प्राण से जीव को रहित कर देना हिंसा है। __बहुत-से लोग किसी प्राणी का दम घोट देने या श्वास रोक देने को हिंसा नहीं मानते । प्राचीन काल में एक खारपिटक मत था, जो किसी को तलवार, बंदूक, साठी आदि शस्त्र से मार डालने को ही हिंसा मानता था। किसी दुःखी या पीड़ित व्यक्ति के श्वास बंद कर देने को वह हिंसा नहीं मानता था बल्कि इसे 'घटचटकमोक्ष कहा जाता था। जैसे घड़े में चिड़िया को बंद करके चारों ओर से उस घड़े का मुंह बन्द कर देने पर चिड़िया अपने आप ही जीवन से मुक्त हो जाती है उसी तरह इस मत वाले लोग इस जीवन से मुक्त होने के इच्छुक व्यक्ति को एक ऐसे कमरे में बंद कर देते थे, जिसमें कहीं से भी हवा का प्रवेश नहीं होता था। फलतः वह व्यक्ति दो-चार मिनट में ही श्वास बंद होने से मर जाता था। परन्तु यह सरासर प्राणविघात है। इससे इन्कार कैसे किया जा सकता है ! किसी का कान फोड़ देना, उसकी श्रवण शक्ति को नष्ट कर देना, अथवा दण्ड देने हेतु कानों में गर्म शीशे का रस डाल देना, १ सूत्रकृतांगसूत्रवृत्ति १।१।३ २ धनलवपिपासितानां विनेयविश्वासनायदर्शयताम् । सटितिघटचटकमोक्षं श्राद्धयं नैव खारपिटकानाम् ॥ -पुरुषार्थ सिद्ध युपाय ८८ For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं ८७ कान काट लेना, यह श्रोत्रेन्द्रियबलरूप प्राण का विघात है। इसी प्रकार किसी की आँख फोड़ देना, आँखों की देखने की शक्ति नष्ट कर देना, आँखों में सलाई भोंककर उन्हें खत्म कर देना, यह चक्षुरिन्द्रियबलरूप प्राण का विनाश है। घ्राणेन्द्रिय (नाक) काट लेना, नाक की घ्राण (गन्ध) ग्रहण की शक्ति विनष्ट कर देना भी. घ्राणेन्द्रियबलप्राण से रहित करना है। रसनेन्द्रिय (जीभ) काट लेना, या जीभ की चखने या बोलने की शक्ति नष्ट कर देना रसनेन्द्रियबलप्राण से रहित करना है, इसी प्रकार स्पर्शेन्द्रिय (खास तौर से जननेन्द्रिय) को काट लेना या उसकी शक्ति नष्ट कर देना स्पर्शेन्द्रियबल-प्राणातिपात है। किसी की मानस शक्ति को नष्ट कर देना, उसके मन की मनन-चिन्तन करने की शक्ति को समाप्त कर देना, उसे पागल या विक्षिप्त कर देना, मनोबलप्राण का अतिपात है। इसी प्रकार किसी की वाचिक शक्ति को बोलने की शक्ति को नष्ट कर देना, गूंगा बना देना, वाचिकबल को विपरीत कर देना वचनबल प्राणातिपात है। इसी प्रकार किसी के शरीर को क्षतविक्षत (घायल) कर देना, शस्त्र से मारपीट देना, शरीर को तीखे नोकदार शस्त्र से गोद देना, शरीर के अंगोपांगों को काट डालना, शरीर को हानि पहुँचाकर बेडौल कर देना, ऐसा कर देना जिससे शरीर से उठा-बैठा न जा सके, यह सब कायबलप्राण का अतिपात (विधात) है । इसी प्रकार किसी का श्वासोच्छ्वास रोक देना, तथा किसी को आयुष्य से रहित कर देना, ये दोनों प्राणातिपात (हिंसा) के प्रकार तो प्रसिद्ध ही हैं। प्राणियों के ये १० प्राण एक प्रकार से बल हैं, जीवनी शक्तियाँ हैं। इन प्राणों के सहारे प्राणी अपनी निर्धारित या पूर्वबद्ध आयुष्यबन्ध तक जीवित रहता है । परन्तु प्राणिहिंसा करने वाला उसे अकाल में ही समय से पहले ही नष्ट कर देता है, यही हिंसा है। पूर्वकर्मोदयवश किसी प्राणी के इन १० प्राणों में से किसी भी प्राण का स्वतः (किसी भी निमित्त से) नष्ट हो जाना, हिंसा नहीं है। इसी प्रकार प्राणायाम करने के लिए स्वयं रेचक-पूरक-कुंभक करना, श्वास रोकना, बाहर निकालना, अंदर लेना प्राणातिपात या हिंसा नहीं है, और न ही कायोत्सर्ग, मौन, त्राटक या अन्य ध्यान, योगाभ्यास या योगासन करते समय पाँचों इन्द्रियों तथा मन, वचन, काया को स्वयं रोकना, स्थिर एवं एकाग्र करना प्राणातिपात नहीं है । और न ही सकाम निर्जरा एवं कर्मक्षय हेतु किये जाने वाले अनशन, अवमौदर्य, कायक्लेश आदि किसी भी तप द्वारा स्वेच्छा से शरीर को कृश करना, इन्द्रियों को मन्दविषय बनाना या शरीर को मन्दकषाय बनाना, प्राणातिपात है। यह शरीर, इन्द्रियों आदि, पर अत्याचार नहीं है, स्वेच्छा से स्वीकृत तप है, आत्मविकास के अनुकूल शरीर इन्द्रियों और मन को बनाने की एक संयम प्रक्रिया है। द्रयहिंसा और भावहिंसा इसलिए हिंसा होना और हिंसा करना, इन दोनों में महदन्तर है, इन दोनों के पीछे परिणामों में अन्तर है । इसे एक दृष्टान्त द्वारा समझाता हूँ-एक डॉक्टर For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ बहुत ही सहृदय, नामी और परोपकारी है। उससे पास एक दिन ऐसा रोगी आया, जिसका रोग दुःसाध्य था । डाक्टर ने उसके स्वास्थ्य की जाँच करके कहा--"इसका आपरेशन होगा। आपरेशन बड़ा जोखिमी है।" रोगी और उसके घर वाले आपरेशन कराने के लिए सहमत हो गये । डाक्टर ने विधिवत् आपरेशन करना शुरू किया। पहले तो आपरेशन ठीक चला। किन्तु सावधानी से आपरेशन करते हुए भी अकस्मात रोगी की एक नस कट गई, इससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। डाक्टर ने रोगी को जान-बूझकर मारा नहीं, उसके हृदय में रोगी की मृत्यु के लिए बहुत पश्चात्ताप है । रोगी के रिश्तेदारों को उसने अश्रु पूर्ण आँखों से यह समाचार सुनाया, इससे डाक्टर की प्रेक्टिस को भी थोड़ा धक्का लगा। मगर डाक्टर ने रोगी की हिंसा की नहीं है, उसकी हिंसा हो गई है। ___ अब एक और दृष्टान्त, इससे ठीक विपरीत समझ लीजिए। एक ऐसा डॉक्टर है, जिसे मालूम हो गया कि रोगी के पास काफी धन है. साथ में लाया है, नौकर के सिवाय इसका कोई रिश्तेदार साथ में आया नहीं है । डॉक्टर ने रोगी को ऑपरेशन की सलाह दी । रोगी सहमत हो गया। डॉक्टर ने रोगी का ऑपरेशन करते-करते ही एक नस जान-बूझकर काट दी, जिससे रोगी की तत्काल मृत्यु हो गई। लोभी डॉक्टर ने रोगी की वह थैली तुरंत अपने कब्जे में कर ली और झूठे आँसू बहाते हुए नौकर को रोगी की मृत्यु की सूचना दी। वह बेचारा क्या कर सकता था? यहाँ डॉक्टर ने रोगी की हिंसा की है, हुई नहीं है। ___ अब एक तीसरा दृष्टान्त लीजिए, एक लोभी डॉक्टर का। उसने देखा कि रोगी अपने साथ बहुत पूंजी लाया है । रोगी से उसने कहा कि तुम्हारा रोग दुःसाध्य है, इलाज कर रहा हूँ, भगवान् करेगा तो ठीक हो जाएगा। इलाज करते-करते डॉक्टर के मन में लोभ जागा । एक दिन उसने रोगी की दवा में जहर की पुड़िया घोलकर कहा-“लो यह दवा पी जाओ, इससे तुम्हारा रोग समूल नष्ट हो जाएगा।" डॉक्टर पर विश्वास करके रोगी वह दवा पी गया। भाग्यवश वह जहर ही उसके लिए • अमृत बन गया । कहावत है—'विषस्य विषमौषधम्' विष का निवारण करने हेतु विषमय औषध होता है। रोगी एकदम स्वस्थ हो गया। रोग नष्ट हुआ जानकर रोगी और उसके रिश्तेदारों से डॉक्टर को बहुत धन्यवाद और इनाम दिया। किन्तु डॉक्टर का मनोरथ सफल न हुआ। वह मन से और कर्म से रोगी की हत्या कर चुका था, यह तो रोगी का आयुष्यबल प्रबल था कि वह जिंदा रह गया। इस दृष्टान्त में डाक्टर ने जान-बूझकर हिंसा करने की चेष्टा की है । अत: हिंसा करने का अपराधी डाक्टर हो चुका। - आचार्य हरिभद्र सूरि ने द्रव्यहिंसा और भावहिंसा की चौभंगी इस प्रकार बताई है १-एक में द्रव्य से हिंसा होती है, भाव से नहीं। For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं २-दूसरा द्रव्य से भी हिंसा करता है, भाव से भी। ३–तीसरा भाव से हिंसा करता है, द्रव्य से नहीं। ४-चौथा न द्रव्य से हिंसा करता है, न भाव से । पूर्वोक्त तीन दृष्टान्त क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय भंग के स्वामी के हैं। चौथा भंग शून्य है। __एक व्यक्ति मच्छीमार है, वह घर से मछली पकड़ने का जाल लेकर चला है। नदी में जाल डालने पर चाहे वह एक भी मछली न पकड़ सका हो, फिर भी भाव से उसने मछलियों की हिंसा कर दी है, इसलिए वह हिंसा का भागी हो गया, भले ही उसने एक भी मछली न पकड़ी हो या न मारी हो । अथवा एक व्यक्ति ऐसा है जिसने स्वयं हिंसा नहीं की है, दूसरा ही व्यक्ति उसके किसी दुश्मन को मार रहा है, किन्तु जिस समय वह दूसरा व्यक्ति उसके शत्रु को मार रहा है, उस समय वह खड़ा-खड़ा कह रहा है—“अच्छा हुआ, इसको तो ऐसी ही सजा मिलनी चाहिए थी। यह इसी दण्ड के योग्य है।" इसमें मारने वाले को तो फल मिलता ही है, किन्तु जिस व्यक्ति ने बिलकुल प्रहार नहीं किया है, केवल दूसरे के द्वारा की जाने वाली हिंसा का जोरशोर से समर्थन— अनुमोदन करता है इसलिए हिंसा न करने पर भी ऐसा व्यक्ति हिंसा के फल का भागी हो गया। .. एक अप्रमत्त साधु या वीतरागी साधु हैं, नदी पार करते हैं, किन्तु बहुत ही यतनापूर्वक; फिर भी कई जल-जन्तु उनके पैर के नीचे भाकर (कुचल कर) मर जाते हैं, इतना होने के बावजूद भी उनके हिंसाजन्य पापकर्म का बन्ध नहीं होता और न ही उस हिंसा का फल मिलता है ?' हिंसा का लक्षण निष्कर्ष यह है कि हिंसा का विशेषतः संकल्पजा हिंसा का जब तक व्यक्ति त्याग नहीं करता, तब तक चाहे वह हिंसा न कर सके, किन्तु हिंसाजन्य पाप तो उसे लगता ही रहेगा। इसीलिए पुरुषार्थ सिद्ध युपाय में बताया गया है कि व्यक्ति बाहर में हिंसा चाहे कर सके या न कर सके, किन्तु अगर क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह आदि के वश हिंसा का परिणाम मन में आ गया तो हिंसा हो जाती है। जैसे—दियासलाई जलती है, तब वह चाहे दूसरों को जला सके या व्यक्ति सावधान हो तो न भी जला सके, परन्तु उसका अपना मुंह तो जल ही जाता है, उसी प्रकार कोई व्यक्ति दूसरों को हानि पहुंचा सके या न पहुँचा सके, दूसरों को मार सके या न मार सके । खुद अपने आप में आत्महिंसा तो कर ही लेता है। जब भी रागादि या कषायादि का भाव उत्पन्न हुआ कि स्वहिंसा हो जाती है । १ अविधायापि हिंसा, हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसा, हिंसाफलभाजन न स्यात् ॥-पुरु० सि० ५१॥ For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ इसलिए हिंसा से विरत न होना अर्थात्-हिंसा करने का त्याग न करना, तथा हिंसा करने का परिणाम ये दोनों ही हिंसा के रूप हैं। इसीलिए हिंसा का लक्षण तत्त्वार्थसूत्र में बताया गया है ___ 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' 'मद, विषय, कषाय, निद्रा (असावधानी) एवं विकथा आदि प्रमादयुक्त मनवचन-काया के योग से किसी प्राणी का प्राणघात करना हिंसा है। ___ जहाँ भी व्यक्ति के मन में, वचन में और काया में प्रमाद आया और उसके आश्रित हिंसा करने का परिणाम आया, वहीं हिंसा है। हिंसा के विविध विकल्प इससे पूर्व मैं हिंसा के अनेक विकल्प बता आया हूँ। और भी अनेक विकल्प हैं-हिंसा के । कभी-कभी ऐसा होता है कि तीव्र (क्रूर) परिणामों से एक व्यक्ति के द्वारा की गई थोड़ी-सी हिंसा, विपाक (फलभोग) के समय बहुत अधिक फल देती है, जबकि दसरे व्यक्ति द्वारा मन्द परिणामों से की गई महाहिंसा भी विपाक के समय स्वल्प फल देकर रह जाती है । जैन इतिहासकारों का कहना है कि मैतार्य मुनि ने पूर्वभव में एक काचर को बहुत ही क्रू र भावों से छीला था, जिसके फलस्वरूप मैतार्य मुनि के भव में उन्हें सुनार के द्वारा मरणान्तक यातना भोगनी पड़ी। काचर एकेन्द्रिय वनस्पति है, उसकी हिंसा वैसे तो स्वल्प ही होती है, लेकिन क्रूरतापूर्वक उसे छीला गया था, इसी कारण उस हिंसा का महाफल मैतार्य मुनि को चमड़ी उधड़वाने के रूप में मिला । चेडा महाराज को हल्लविल्लकुमार को न्याय दिलाने तथा शरणागत-सुरक्षा के कारण कोणिक के साथ भयकर युद्ध लड़ना पड़ा, जिसमें एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्यों का संहार हुआ। इतने पंचेन्द्रिय मनुष्यों का वध तीव्र कषायवश जान-बूझकर कोई दूसरा करता तो उसकी नरक के सिवाय कोई गति न होती, परन्तु चेडा महाराज को न्यायनीति और धर्म की दृष्टि से वह युद्ध करना पड़ा। युद्ध उन पर लादा व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । नियतां जीवो मा वा, धावत्यग्ने ध्रवं हिंसा ॥४६॥ यस्मात् सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चात् जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥४७॥ अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥४४॥ हिसायामविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिसा। तस्मात् प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥४॥ -पुरुषार्थ सिद्ध युपाय For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं १ गया था। उन्होंने स्वयं चलाकर युद्ध नहीं किया था। इसलिए चेडा राजा को उस महाहिंसा का भी मन्दफल मिला।' दो आदमी एक साथ एक ही प्रकार की हिंसा कर रहे हैं, उनमें से एक के परिणाम अन्यन्त तीव्र (क्रूर) हैं, उसे उसका फल तीव्र मिलता है, जबकि दूसरे के परिणाम मन्द हैं, तो उसे उसका फल मन्द मिलता है। - उदाहरण के तौर पर-दो जल्लाद हैं। उन्हें किसी अपराधी को फाँसी पर चढ़ाने का आदेश मिला। उनमें से एक ने अपना कर्तव्य समझकर अपराधी के प्रति मन में दुर्भाव न लाते हुए मन्दभाव से फांसी लगाने की पूर्व तैयारी की, लेकिन दूसरे ने कर्तव्य भावना को ताक में रखकर अपराधी के प्रति दुर्भाव लाकर ऋ रतापूर्वक फांसी लगाई। दोनों जल्लादों के एक ही हिंसा कार्य में प्रवृत्त होते हुए भी दोनों के भावों में अन्तर होने के कारण दोनों के फल में अन्तर पड़ा। पहले जल्लाद को मन्दभावों के कारण हिंसा का मन्दफल मिला, जबकि दूसरे जल्लाद को तीव्र एवं क्रूर भावों के कारण तीव्रफल ।। इसी प्रकार कई दफा हिंसा करने से पहले ही (हिंसा के भाव आ जाने से) फल मिल जाता है, कई दफा हिंसा की जा रही हो, उस समय तत्काल फल मिलता है, कई दफा हिंसा कर लेने के बाद फल मिलता है, कई बार हिंसा प्रारम्भ करना चाहते हुए भी न करने (कर पाने) पर भी हिंसा के परिणामों के कारण फल मिलता है । इन चारों के क्रमशः उदाहरण लीजिए (१) एक आदमी ने अपने शत्रु को देखकर मन ही मन उसे मार डालने का विचार किया। जब शत्रु नजदीक आया तो उसने मारने के विचार वाले व्यक्ति को देखते ही छुरा निकाल कर उसके पेट में भोंक दिया। वहीं उसका काम तमाम हो गया। यह है हिंसा करने से पहले ही (दूसरे को मारने के दुर्भाव आते ही) स्वयं की हत्या फल मिल जाने का उदाहरण ? (वर्तमान पत्रों में पढ़ी घटनाएँ ।) (२) एक सिक्ख ने बस में चढ़ते समय एक खरगोश को भागते देखा, उसने खरगोश को मारने के लिए छुरा निकाला । ज्यों ही वह खरगोश के छुरा मारने जा रहा था। तभी सहसा छुरा खरगोश के न लगकर उस सिक्ख के अपने हाथ पर पड़ा। हाथ कट गया । खून की धारा बह चली। यह है-हिंसा करते हुए तुरन्त हाथोंहाथ फल मिलने का उदाहरण । .१ एकस्याल्पाहिंसा ददातिकालेफलमनल्पम् । अन्यस्य महाहिसा स्वल्पफला भवति परिपाके ॥५२॥ एकस्य सैव तीवं दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य । ब्रजति सहकारिणोऽपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ॥५३॥ प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति, फलति कृतापि च । आरभ्यकर्तुमकृतापि फलति हिंसानुभावेन ॥५४॥ -पुरुषार्थ सिद्ध युपाय For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ (३) मेरठ जिले के दादरी गाँव में एक पहलवान रहता था। वह रोज दूध हंडिया में डाल कर गर्म करने हेतु चूल्हे पर चढ़ाकर अखाड़े में चला जाता था। दोतीन दिन से एक कुत्ता थोड़ा-सा दूध पी जाया करता था। जब वापस आकर देखता तो उसने सोचा-यह दूध कम कैसे ? हो न हो कोई न कोई पी जाता है। आज मैं देखूगा कि कौन यह दूध पी जाता है । वह एक कोने में छिपकर बैठ गया। कुछ ही देर बाद एक कुत्ता आया, वह दूध की हंडिया के पास पहुंचकर ज्यों ही हंडिया में मुंह डालने लगा, त्यों ही पहलवान ने दरवाजा बन्द कर दिया, उस कुत्ते को रस्सी से बाँधा और लोहे की नोकदार सलाइयाँ गर्म करके उसकी आँखों में घुसेड़ दीं। अब क्या था, कुत्ता असह्य पीड़ा के कारण छटपटाता रहा और दो-तीन दिन में ही मर गया। इस घटना के ठीक सात दिन बाद उस पहलवान की आँखों में शूल भोंकने जैसी असह्य पीड़ा उत्पन्न हुई और ७ ही दिन में वह पहलवान उस पीड़ा से छटपटाकर मर गया । यह है-हिंसा करने के बाद फल मिलने का उदाहरण ! कई बार फल देर से भी मिलता है । पर मिलता जरूर है। (४) मेरठ से ५ मील दूर पांचली गाँव का एक उदाहरण है। दो किसान किसी दूसरे गाँव से बैल खरीदने पांचली गाँव में आए। पांचली के ही एक किसान परिवार में वे ठहरे । किसान परिवार में दो भाई थे। उन्होंने बैलों की जोड़ी दिखाई। दोनों आगन्तुकों को बैलों की जोड़ी पसंद आ गई। बारह सौ रुपये में बैलों की जोड़ी तय हो गई । परन्तु रात पड़ जाने के कारण आगन्तुकों ने उस समय किसान बन्धुओं से कहा- "इस समय रात पड़ गई है। हमारा गाँव यहाँ से काफी दूर है । अतः रात को हम बैल लेकर समय पर नहीं पहुँच सकेंगे । अतः रात भर हम आपके यहाँ ही ठहरेंगे। सुबह १२००) देकर बैल ले जाएंगे।" दोनों किसान भाइयों ने कहा- "बहुत अच्छी बात है। आप रात भर यहीं ठहरिये। आपके खाने-पीने, सोने आदि की सब व्यवस्था यहीं हो जाएगी।" ठीक समय पर दोनों आगन्तुकों को भोजन करवा दिया। बाहर की बैठक में दोनों के सोने के लिए चारपाई लगवा दी गई, उस पर बिछौना विछवा दिया गया। दोनों आगन्तुक थोड़ी बातचीत करके सो गये। कुछ ही देर बाद दोनों किसान भाइयों के मन में दुर्भाव पैदा हुआ-क्यों नहीं इन दोनों का सफाया कर दिया जाए, यहाँ हमारे सिवाय और तो कोई जानता ही नहीं है । १२००) रुपये तो इनके पास हैं ही, और भी होंगे । बैलों की जोड़ी भी नहीं देनी पड़ेगी। परन्तु इन दोनों की गर्दनों पर छुरा फेरने का कार्य उन्होंने अपनीअपनी पत्नियों को सौंपा और स्वयं दोनों ने गड्ढे खोदने का जिम्मा लिया अपनी-अपनी पत्नियों से दोनों भाइयों ने कह दिया-'जब हम इशारा करें कि अब गड्ढे खुद गये हैं, तब तुम चुपचाप मौका देखकर इनकी गर्दनों पर छुरा फेर देना । फिर हम सब मिलकर इन्हें उन गड्ढों में डालकर जमीन को ऊपर से एक-सी कर देंगे, ताकि किसी को सन्देह न हो।" दोनों भाई रात को लगभग ११ बजे निकटवर्ती गन्ने के खेत में गड्ढे खोदने गए। गड्ढे खोदते समय पत्तों की खड़खड़ाहट होने लगी। ठीक उसी समय पांचली का For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं ६३ ही एक किसान उधर ही शौचक्रिया करने गया। किन्तु पत्तों की खड़खड़ाहट तथा दोनों भाइयों की बातचीत साफ-साफ सुनाई दे रही थी। उसने कान लगाकर दोनों की बात सुनी तो शंका हुई कि इनके यहाँ कोई व्यक्ति आज आए हुए हैं, उन्हें ही। वह किसान झटपट शौचक्रिया से निवृत्त होकर उन किसान भाइयों के यहाँ पहुँचा और बैठक में सोए हुए दोनों आगन्तुकों के हाथ लगाकर धीरे से जगाया तथा एक के कान में कहा-'यहाँ से अभी का अभी चलो, आपको दूसरी जगह सोना है।" उन दोनों आगन्तुकों के अन्तर् में कोई दैवी प्रेरणा हुई कि कुछ न कुछ दाल में काला है। वे दोनों झटपट उठकर अपना सामान लेकर उक्त ग्रामीण के साथ चल दिये। उसने उन्हें अन्यत्र ले जाकर सुला दिया। संयोगवश उस दिन उन दोनों कृषक भाइयों के दो पुत्र गाँव में आई हुई नाटक मंडली का नाटक देखने गये हुए थे। उनको नींद के झोंके आने के कारण वहाँ से उठकर घर आ गए । बैठक में दो खाटों पर बिछौना किया हुआ देखकर सोचा-हमारे लिये ही हमारी माताओं ने यह किया होगा। वे दोनों कुछ समय तक बातचीत करके अपनी-अपनी कमीज खूटी पर टांगकर सो गए। उधर गड्ढे खुद जाने के बाद दोनों कृषक भाइयों ने अपनी पत्नियों को संकेत किया कि मामला तैयार है, अब तुम शीघ्र ही इनका काम तमाम करो। दोनों महिलाओं ने खाट के पास जाकर देखा कि और समझीं कि दोनों गहरी नींद में सोये हुए हैं। बस चट से एक-एक ने एक-एक की गर्दन पर तेज छुरा फेर दिया। दोनों बच्चे थोड़ी ही देर में समाप्त । फिर उन महिलाओं ने दोनों की कमीजें टटोली तो आश्चर्य हुआ कि उनमें १२००) या १५००) रुपये के बदले आठ-दस आने ही निकले । बुरा काम भी किया और पल्ले भी कुछ नहीं पड़ा, इसका उन्हें अफसोस हुआ । पर अब क्या था। दोनों कृषक-भाई भी घर पर आगए। और दोनों की लाशें लेकर गड्ढे में डालने पहुँचे। गड्ढे में डालकर निश्चिन्त होकर जब सोने लगे तो उक्त दोनों महिलाओं की बात सुनकर चिन्ता में पड़ गए। किसी तरह रात काटी । सबेरे जब एक भाई गाँव में जा रहा था, तो एक कुए पर दोनों आगन्तुकों को हाथ-मुँह धोते देखकर वह भौंचक्का-सा रह गया। उलटे पैरों घर लौटकर उसने अपनी स्त्री से पूछा- "तुम ने किन का सफाया किया है ? उन दोनों को तो मैं कुए पर हाथ-मुंह धोते जीवित देखकर आया हूँ। जरा ठीक से देखो, कहीं अपने बच्चों को तो....?" महिलाओं को भी बहम हुआ। दोनों भाई गन्ने के खेत में गड्ढे खोदकर पुनः देखने पहुँचे। उधर उक्त ग्रामीण की रिपोर्ट पर पुलिस घटनास्थल पर पहुंच गई। गड्ढा खोदकर देखा तो दोनों भाइयों के अपने ही लड़के ! सारे घर में कुहराम मच गया। पुलिस दल उन दोनों भाइयों तथा उनकी पत्नियों को गिरफ्तार करके ले गया। चारों पर मुकदमा चला । कई वर्षों की जेल हुई, आर्थिक दण्ड भी हुआ। इस तरह वे बर्बाद हो गए। यह घटना हिंसा के चतुर्थ विकल्प की द्योतक है कि जिनकी हिंसा करना चाहते थे, उनकी हिंसा की तैयारी कर लेने पर भी न कर सके, किन्तु उसका दुष्फल कुछ ही समय बाद भोगना पड़ा। For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ कभी-कभी एक व्यक्ति हिंसा करता है, किन्तु उस हिंसा के फलभागी बहुत-से होते हैं, अथवा इसके विपरीत कभी-कभी बहुत-से लोग मिलकर सामूहिक रूप से हिंसा करते हैं, लेकिन उस हिंसा का फलभागी एक ही व्यक्ति होता है।' ___इन दोनों विकल्पों के भी उदाहरण लीजिए-वाल्मीकि रामायण के रचयिता वाल्मीकि ऋषि बनने से पहले सारे परिवार की ओर से स्वयं अकेले ही लूटपाट, हत्याकाण्ड आदि करते थे। इस हिंसाकाण्ड से जो कुछ भी प्राप्त होता उसे वाल्मीकि घर ले जाकर सबको दे देते थे। वाल्मीकि यही समझते थे कि जब परिवार के सभी मेरे हत्याकाण्ड से प्राप्त समान का उपभोग करते हैं तो इस हत्याकाण्ड के फल में भी सबका हिस्सा है। वास्तव में सिद्धान्त की दृष्टि से था भी ऐसा ही। वाल्मीकि की आँखें तो तब खुलीं, जब नारदजी ने उनसे पूछा कि “यह जो तुम हिंसाकाण्ड करके सामग्री ले जाते हो, उसका फल किसको भोगना पड़ेगा ?"वाल्मीकि बोले-"मेरे हिंसाकाण्ड से प्राप्त सामग्री का उपभोग तो मेरे सारे परिवार वाले करते हैं, फल भी सबको भोगना पड़ेगा ?" नारदजी-“परिवार वालों से तुमने पूछा है या यों ही अपने मन से कह रहे हो? मेरे खयाल से परिवार वाले तुम्हारे इस हिंसाकाण्ड के फलभागी नहीं होंगे।" वाल्मीकि बोले-"इसमें क्या पूछना है ? फिर भी आप कहते हो तो मैं आपको पेड़ से बांधकर फिर जाकर परिवार वालों से पूछ आऊँगा।" नारदजी''जैसी तुम्हारी इच्छा !" वाल्मीकि ने नारदजी को एक पेड़ से कसकर बाँध दिया और घर की ओर दौड़े। घर जाकर अपनी माँ से पूछा- "मैं जो हिंसा, लूटमार आदि करके सामग्री लाता हूँ । उसका उपभोग तो आप सब करते हैं, तब उस हिंसा आदि के फल में भी हिस्सेदार सब होंगे न ?" माँ ने कहा- "हम क्यों उस बुरे कर्म के हिस्सेदार होंगे। हमने तुमसे कब कहा था कि तू हिंसादि करके ला।" इसके बाद उसने क्रमशः पिता, पत्नी, भाई, भाभी, पुत्र-पुत्री आदि सबसे वही प्रश्न किया, तुरन्त सबका उत्तर यही रहा-"हम तुम्हारे हिंसादि पाप कर्म के हिस्सेदार नहीं हैं। इस प्रकार पापकर्म के जिम्मेदार तुम अकेले हो।" यह सुनकर वाल्मीकि की आँखें खुलीं-“ओह ! मैं कितना भ्रम में था।" आखिर वाल्मीकि ने वापस नारदजी के पास आकर उन्हें बन्धनमुक्त किया, चरणों में पड़े, माफी मांगी और उनसे अपने उद्धार का-राम नाम मन्त्र लिया । तब से उन्होंने उस हिंसादि पापकर्म को सर्वथा छोड़ दिया। यह है—प्रथम विकल्प का उदाहरण, जिसमें हिंसादि करता एक है, किन्तु उसके फलभागी अनेक होते हैं। १ एकः करोति हिंसा भवति फलभागिनो बहवः । बहवो विदधति हिंसां हिंसाफलभुग भवत्येक: ॥५५॥ 'पुरुषार्थ सिद्ध युपाय For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं ६५ इसी प्रकार युद्ध में शासक की ओर से अनेक लोग लड़ते हैं, शत्र पक्ष की सेना के लोगों को मारते हैं, लेकिन युद्ध के फलस्वरूप हार या जीत शासक को मिलती है। यह है—अनेक द्वारा हिंसा किये जाने पर एक के फलभागी बनने का उदाहरण ! ये और इस प्रकार के अनेक विकल्प हिंसा के होते हैं । आत्मकल्याणकामी व्यक्ति को इस प्रकार की सभी हिंसाओं से बचना चाहिए। प्राणिहिंसा के विविध प्रकार प्राणिहिंसा की परिभाषा में बताया गया था, १० प्रकार के प्राणों में से किसी भी प्राण की हिंसा-विघात या क्षति प्राणातिपात है। परन्तु इन दस प्राणों की क्षति भी मानव किस-किस रूप में करता है ? यह जान लेना बहुत ही आवश्यक है। 'इरिया-वहिया' के पाठ में अभिहया आदि १० भेदों का जो क्रम बताया गया है, उसी क्रम से मैं आपके समक्ष चिन्तन प्रस्तुत कर रहा हूँ अभिहया–सामने से आते हुए प्राणी को धक्का देना, उससे टकराना। वत्तिया—उस पर धूल ढक देना अथवा उसकी आँखों में धूल झौंक देना। लेसिया–परस्पर एक दूसरे से चिपका देना, बेमेल गठबन्धन कर देना । संघाइया—एक पर एक ढेर कर देना, बेतरतीब से इकट्ठे कर देना। संघट्टिया-कठोरता से, द्वेषवश छूना, अथवा मर्मस्पर्श करना। परियाविया–परितापना देना-दूसरे को पीड़ा देना । किलामिया-दूसरे को थका देना, हैरान कर देना। उद्दविया-भयभीत कर देना, आतंकित कर देना, उपद्रव खड़ा कर देना। ठाणाओ ठाणं संकामिया-हैरान करने की दृष्टि से एक जगह से दूसरी जगह रखना, जमे हुए स्थान को उखाड़कर दूसरी जगह रख देना, बार-बार स्थान परिवर्तन करने के लिए बाध्य करना। जीवियाओ ववरोविआ-जीवन से रहित कर देना अथवा जीविका से वंचित कर देना। इसी प्रकार अहिंसाणुव्रत के ५ अतिचार हैं, वे भी हिंसा के ही प्रकार हैंबंधे-ऐसे गाढ़ बंधन से प्राणी को बाँधना कि वह खुल न सके । वहे-जैसे—मारना-पीटना, इस प्रकार से मारना कि मर्मस्पर्शी चोट लगे। छविच्छेए-द्वषरोषवश चमड़ी उधेड़ लेना, भयंकर डाम लगा देना, जिससे घाव हो जाए। अइमारे-मनुष्य अथवा पशु पर इतना वजन लाद देना कि सहन न हो सके। १ आवश्यक सूत्र, ईर्यापथिक प्रतिक्रमण सूत्र For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '६६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ भत्त-पाण-विच्छेए—द्वषरोषवश आहार-पानी बन्द कर देना, उसमें अन्तराय डालना। हिंसा : क्यों और किसलिए हिंसा किसी भी प्रकार की हो वह त्याज्य है, निन्द्य है और दुःख-दुर्गतिजनक हैं । अहिंसा अमृत है, वही आचरणीय और उपादेय है, फिर भी न जाने क्यों मनुष्य हिंसा को अपनाता है ? जगत् के जीवों में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहलाता है । यदि वही अहिंसा के अमृत को छोड़कर हिंसा का विष पीने लगे, अहिंसा के कार्य को तिलांजलि देकर हिंसा के अकार्य को करने लगे तो इसमें उसकी श्रेष्ठता कहाँ रही ? यही कारण है कि महर्षि गौतम ने हिंसा को मनुष्य के लिए सबसे बढ़कर अकार्य बताया है। फिर भी मानव विविध प्रसंगों पर विविध कारणों को समुपस्थित करके हिंसा की दानवी भावना और राक्षसी शक्ति का पिण्ड नहीं छोड़ता। आचारांग सूत्र में हिंसा को मनुष्य क्यों अपनाता है, इसके प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए कहा है ..."वंदण-माणण-पूयणाए ___ मनुष्य अपने सामने दूसरों को झुकाने, नतमस्तक करने और अभिवादन एवं स्तुति-श्रवण करने के लिए, अपने अहं को दाना-पानी देने के लिए तथा संसार में अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के लिए हिंसा को अपनाता है। इन्हीं तीन प्रमुख कारणों की छाया में लोगों ने अगणित कारण हिंसा के प्रस्तुत किये हैं। ईसाई धर्म के प्रमुख धर्मग्रंथ में हिंसा का निषेध होने के साथ-साथ दो शब्द ऐसे जोड़ दिये हैं, जो ईसाईधर्मी लोगों के हिंसा की खुली छूट के कारण बने हुए हैं । वह वाक्य यों है Thou shalt not kill, without cause.3 ''तुझे किसी भी प्राणी को नहीं मारना चाहिए, बिना कारण के।" इस वाक्य में without cause ये दो शब्द बहुत ही अनर्थ के कारण बन गए। जहाँ भी हिंसा करने वाले ईसाई से कोई पूछेगा तो उसके मुंह से यही उद्गार निकलेगा-"देखो क्या लिखा है, अन्त में-without cause बिना कारण के मत मारो।" हमने किसी को मारा है या मारते हैं तो कारण से मारते हैं ? अपने अहं के या रंगभेदजनित जातीय अहं के कारण वहाँ केनेडी जैसे राष्ट्रपति की हत्या की गई। कारण तो उचित भी हो सकता है, अनुचित भी। इसीलिए कहीं धर्मसम्प्रदायाभिमानवश, कहीं रंग, राष्ट्र, प्रान्त, जाति आदि घटकों के कारण हिंसा का तांडव हुआ । आज १ आवश्यक सूत्र, प्रथम अणुव्रत के पांच अतिचार २ आचारांग प्रथम श्रुत०, अ० १ ३ बाइबिल-गिरि प्रवचन For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं ७ यहाँ तक नौबत आ गई है, जरा-सा कोई राष्ट्रीय स्वार्थ भंग हुआ, कि युद्ध के बादल गरजने लग जाते हैं। आजकल के युद्ध पहले की तरह के सीमित दायरे के, पुराने शस्त्राशस्त्री युद्ध नहीं रहे, आज तो महायुद्ध-विश्वयुद्ध होते हैं, उसमें परमाणु बम या उद्जन बम का ही सहारा लिया जाता है। दूसरे राष्ट्र को झुकाने, अपने राष्ट्र की विजय-पताका फहराने और अपने राष्ट्रीय या जातीय अहं को प्रोत्साहन देने हेतु यह युद्धजनित हिंसा होती है। भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने इस पारस्परिक युद्धों को टालने के लिए सारे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय पंचशील का नारा बुलन्द किया था, तथा सभी राष्ट्रों को शान्ति से जीने के लिए निःशस्त्रीकरण की प्रक्रिया की बात समझाई थी। लेकिन युद्धोन्मादी राष्ट्र और खासकर महाशक्तियाँ इसे माने तब न ? अगर वे इसे मान जाएँ और अपने-अपने राष्ट्र में क्रियान्वित करें तो हिंसा-युद्धजनित महाहिंसा सारे विश्व से निर्वासित हो सकती है। हाँ, तो मैं कह रहा था कि हिंसा के लिए मुख्यतया तीन कारण प्रस्तुत किये जाते हैं। इन्हीं की छाया में प्राचीनकाल में धर्म के नाम से, देवीदेवों के नाम से, गुरुओं के नाम से हिंसाएँ की जाती थी। पुरुषार्थ सिद्ध युपाय में उनकी थोड़ी-सी झांकी मिलती है। उनका भावार्थ इस प्रकार है कई लोग यों मानते हैं कि भगवद् धर्म समस्त पदार्थों से सूक्ष्म है; श्रेष्ठ है; इसलिए धर्म के लिए (धर्मरक्षार्थ) किसी की हिंसा करने में कोई दोष नहीं; परन्तु धर्ममूढ़ हृदय लोगों को भूलकर भी इस प्रकार से प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए।' प्राचीनकाल में यज्ञों की धूम मची रहती है; और प्रत्येक यज्ञ में हजारों मूक पशुओं की बलि दी जाती है । जब उनसे यह पूछा गया कि यह हिंसा धर्म कैसे हो सकती है ? जैसाकि पूर्वमीमांसा में स्वीकार किया गया है—"हिंसानाम भवेधर्मों न भूतो न भविष्यति ।" ___ 'भला हिंसा में धर्म होता है, ऐसा तो न कभी हुआ है, और न कभी होगा।' तब उसका उत्तर दिया जाता है या वेदविहिता हिंसा सा हिंसा न निगद्यते । वेदविहित हिंसा हिंसा नहीं होती। क्योंकि धर्म का लक्षण पूर्व-मीमांसा में किया 'वेदविहित जो भी आदेश-निर्देश हैं, वे धर्म हैं ।' परन्तु वेदविहित होने से हिंसा धर्म हो जाती है, यह बात तर्क, युक्ति, अनुभूति, प्रमाण आदि से संगत नहीं बैठती, न ही निष्पक्ष मानव-बुद्धि इसे धर्म स्वीकार कर सकती है। इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं यह मान्यता है कि धर्म देवों से प्रादुर्भूत होता है १ सूक्ष्मोभगवद्धर्मो, धर्मार्थहिंसने न दोषोऽस्ति । इति धर्ममुग्धहृदयर्न जातु भूत्वा शरीरिणो हिंस्याः ॥७॥ -पुरुषार्थ सिद्ध युपाय For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ इसलिए उन देवों को बलि प्रदान करनी चाहिए। इस प्रकार की दुविवेक से युक्त बुद्धि से प्रेरित होकर भी प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए । बंगाल में आज भी काली, दुर्गा आदि के आगे हजारों बकरों की बलि दी जाती है। इसी प्रकार नेपाल में पशुपतिनाथ के आगे हजारों भैसों की बलि दी जाती है। . क्या इस प्रकार की निर्दोष पशुओं की हिंसा कल्याणकारिणी हो सकती है ? जो बकरों को बलि देकर उन्हें स्वर्ग पहुँचाने का कहते हैं, उन्हें पहले अपने मातापिता की बलि देकर उन्हें स्वर्ग में पहुँचाना चाहिए। ऐसी अकाट्य युक्ति के आगे वे निरुत्तर हो जाते हैं। व्यासजी ने महाभारत में पशु-बलि की कड़े शब्दों में भर्त्सना की है वृक्षाश्छित्वा पशून् हत्वा, कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्यनेन गम्यते स्वर्गे नरक केन गम्यते ?' _ 'वृक्षों को काटकर, पशुओं की हत्या करके, रक्त का कीचड़ बनाकर ऐसे पशुहिंसामूलक यज्ञ से मनुष्य यदि स्वर्ग में चला जाता है तो फिर नरक में कौन जाएगा?' सभी धर्मशास्त्र एक स्वर से पशुहिंसा को निषेध करते हैं। कोई भी धर्म हिंसा में धर्म नहीं बताता । बौद्ध धर्मग्रन्थ थेरीगाथा में स्पष्ट कहता है अघमूलं भयं वधो' -भय और वध (हिंसा) दोनों पाप के मूल हैं। महाभारत शान्तिपर्व में भी इसे अधर्म बताया गया है 'अधर्मः प्राणिनाम् वधः ।२ इससे आगे चलें। किसी अतिथि या पूज्य पुरुष के आगमन पर या उनके नाम से कोई उत्सव मनाने पर उनके निमित्त से बकरे आदि का वध करने में कोई दोष नहीं है, इस प्रकार विचार करके किसी भी अतिथि या पूज्य के लिए प्राणिहिंसा नहीं करनी चाहिए। आज भी विदेशों में और भारत में यह मान्यता प्रचलित है कि वे किसी भी नेता, बड़े आदमी या पूज्य अतिथि के सम्मान में जब दावत देते हैं तो बकरे, मुर्गे आदि का मांस, शराब आदि वस्तुओं का उपयोग करते हैं । परन्तु जो व्यक्ति अहिंसाधर्मी हैं, वे स्वयं भी शराब मांस आदि हिंसाजनक वस्तुओं का उपयोग नहीं करते और न अपने अतिथियों को ही देते हैं। __ श्री चोइथराम गिडवानी उन दिनों राज्यपाल थे। वहाँ कोई विशिष्ट विदेशी सज्जन अतिथि के रूप में आने वाले थे। उनके सम्मान में प्रतिभोज देना था । अहिंसाप्रधान इस देश के विदेशी अतिथि के भोज में उन्होंने शराब और मांस का प्रबन्ध न १ महाभारत । २... थेरीगाथा . For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं किया, देशी मिठाइयों, शर्बत आदि पेय पदार्थों का ही उपभोग आगन्तुक अतिथि को कराया, तथा शराब-मांस का प्रबन्ध न कर सकने का कारण बताकर क्षमायाचना की। विदेशी अतिथि ने उनके इस आतिथ्य की प्रशंसा की और कहा कि मुझे भारतीय खाद्य पदार्थ बहुत अच्छे लगे। एक और अन्ध परम्परा भारतीय तापसों में प्रचलित थी। वह यह कि वे यह मानते थे। क अनाज आदि के दानों में अनेक जीव होते हैं, इन अनेक प्राणियों का घात करके भोजन प्राप्त करने की अपेक्षा एक वड़ा प्राणी मारकर उससे ४-६ महीनों काम चला लो।' सूत्रकृतांगसूत्र में ऐसे हस्तीतापसों के मत का वर्णन है, जो एक हाथी मारकर उससे ४-६ महीने भोजन का काम चला लेते थे। परन्तु भगवान महावीर ने इस भ्रान्त मत का खण्डन किया है। उनका मन्तव्य यह है कि इस प्रकार का गलत विचार करके किसी महाप्राणी की हिंसा करना कथमपि उचित नहीं है। इसका कारण है कि हिंसा का आधार हिंस्य प्राणियों की गिनती पर निर्भर नहीं है, अपितु प्राणियों के प्राण, इन्द्रिय आदि के विकास के आधार पर निर्णय किया जाता है। एकेन्द्रिय प्राणी की अपेक्षा द्वीन्द्रिय का, द्वीन्द्रिय की अपेक्षा त्रीन्द्रिय का, त्रीन्द्रिय की अपेक्षा चतुरिन्द्रिय का और चतुरिन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय और उसमें भी मनुष्य का, मनुष्यों में भी राजा तथा साधु-साध्वी-आचार्य आदि का विकास उत्तरोत्तर अधिक है । इसी दृष्टि से हिंसा का नाप-तौल होता है । एकेन्द्रिय की हिंसा और पंचेन्द्रिय की हिंसा में, उसके फल में बहुत तारतम्य है। यह मान्यता भी यथार्थ नहीं है कि एक जीव के घात से अनेक जीवों की रक्षा होती है । इसे मानकर भी हिंस्र प्राणियों की हत्या नहीं करनी चाहिए। ___ 'ये प्राणी जिंदा रहेंगे तो बहुत-से जीवों की हत्या करके भयंकर पापोपार्जन करेंगे; इस प्रकार की अनुकम्पा करके उन हिंस्र प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए।' बहुत से लोग सांप, सिंह, बिच्छू, बाघ आदि जीवों को देखते ही मार बैठते हैं अथवा पहले से ही पता लगाकर उन निरपराधी जीवों को मारते रहते हैं। चाहे वे जीव बिना छेड़े किसी को न मारते हों। बहुसत्त्वघातजनितादशनाद् वरमेकसत्त्वघातोत्थम् । इत्याकलय्य कार्य न महासत्त्वस्य हिंसनं जातु ॥२॥ रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन । इति मत्वा कर्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्त्वानाम् ॥३॥ बहुसत्त्वघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरुपापम् । इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीयाः शरीरिणो हिंस्राः ॥८४॥ -पुरुषार्थ सिद्ध युपाय ३ For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० आनन्द प्रवचन : भाग ११ बेचारे ये प्राणी जिन्दा रहेंगे तो बहुत-सा पाप कर्म करेंगे, इसीलिए इन्हें मार दें तो ये भयंकर पाप नहीं कर सकेंगे, ऐसा सोचना ही गलत है। पापकर्म का आधार किसी प्राणी के भावों पर है, न कि किसी प्राणी का न रहना। उस युग में एक दुःखमोचक मत प्रचलित था, जिसकी यह मान्यता थी कि जो प्राणी किसी न किसी दुःख से पीड़ित हैं, अगर वे चिरकाल तक जिंदा रहेंगे तो बेचारे बहुत ही दुखी रहेंगे। इसीलिए इन्हें मार डालने से शीघ्र ही इनके दुःखों का अन्त आ जाएगा। इस प्रकार कुवासना रूपी तलवार लेकर दुःखी जीवों को नहीं मारना चाहिए। बात यह है कि प्राचीनकाल में इस प्रकार दुःखमोचक लोगों का बाहुल्य था, जिन्हें पैसे देकर दुखी लोग अपनी हत्या करवाते थे, किन्तु आजकल स्वयं आत्महत्या कर लेते हैं, कोई विष खाकर, कोई तालाब या नदी में डूबकर, कोई कुए में गिरकर तो कोई रेलगाड़ी से कटकर । आत्महत्या के कारण प्रायः ये होते हैं(१) गृह-क्लेश से तंग आकर, (२) किसी के साथ अनबन हो जाने से, (३) आर्थिक संकट से ऊबकर, (४) कर्जदारी हो जाने से, (५) घर से निकाल देने से । चाहे दूसरे से अपनी हत्या कराए, चाहे स्वयं हत्या करे, कोई भी व्यक्ति इस प्रकार अकाल में ही अपना प्राण छोड़े, उसे सुगति प्राप्त नहीं होती और न ही वह सुखी हो सकता है। बल्कि आत्म-हत्या करने-कराने से घोर हिंसा होती है, जिससे भयंकर कर्मबन्ध होकर अनेक बार दुर्गतियों में भटकना पड़ता है ; इसीलिए ऐसी हिंसा भूलकर भी न करे। इसी प्रकार की एक मूढ़ता उस जमाने में और प्रचलित थी, वह यह कि पता नहीं कब दुःख की घड़ी आ जाए, बड़ी कठिनाई से तो सुख की घड़ी मिली है। सुखी अवस्था में मरने से आगे भी सुख की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार सुखी मनुष्यों को झटपट सुखी करने या भविष्य में शीघ्र सुख दिलाने के लिए उनका वध करना कथमपि हितावह नहीं है। यह संकल्पी हिंसा हो जाएगी, जिसका भयंकर परिणाम भोगना पड़ेगा । अगर इस प्रकार सुखी अवस्था में मरने से आगे सुखी हो जाता तो प्रत्येक देवता अपना आयुष्य पूर्ण होने से पहले ही सुखी-अवस्था में ही मर जाता या दुःखी को मार डालने से उसको दुख से छुटकारा मिल जाता हो तो नरक में सभी नारकी जीव दुखी और त्रस्त हैं, उन्हें परमाधर्मी देव मार-मारकर क्यों नहीं दुःख से मुक्त कर देते ? परन्तु यह रुपये ऐंठने की कपोलकल्पित मान्यता है। यह भी एक प्रकार की पोपलीला है, जैसे पोप लोग स्वर्ग की हुडी, चाहे जिसको लिखकर दे देते और उससे धन ऐंठ लेते थे उससे मिलती-जुलती यह मान्यता है । १ बहुदुःखाः संज्ञपिताः प्रयान्तित्वचिरेण दुःखविच्छित्तिम् । इति वासना कृपाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ॥८॥ २ कृच्छ्ण सुखावाप्तिर्भवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव । इति तर्कमण्डलानः सुखिनां घाताय नादेयः ॥८६॥ -पुरुषार्थ सिद्ध युपाय For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं १०१ 'मेरे गुरुजी ने बहुत वर्षों तक साधना की है, समाधि का बहुत अभ्यास किया है, उसकी उपलब्धि सुगति के सिवाय और कोई हो नहीं सकती।' ऐसा सोचकर शिष्य के द्वारा अपने गुरु का सिर काट लेना भी बहुत बड़ी हिंसा है।' अथवा गुरु के द्वारा स्वयं जीते-जी समाधि लेकर अपने को मिट्टी में दबवा देना या अपने पर मिट्टी का डलवा लेना और मर जाना भी आत्महिंसा है। सद्धर्म के अभिलाषी साधक को ऐसा कदापि न करना चाहिए। आजकल भी कई बाबा, संन्यासी इस प्रकार से जीवित समाधि ले लेते हैं, अपने पर मिट्टी का ढेर डलवाकर उस मिट्टी में दबकर मर जाते हैं। यह समाधि नहीं, असमाधि है, जान-बूझकर शरीर को इस प्रकार छोड़ देने से कोई भी सुखी नहीं होता। हिंसाजनित महापाप के कारण दुर्गतियों में भटकता रहता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न पहलुओं से हिंसा के कारण बता दिये गये हैं। और भी अनेक प्रकार के कारण हो सकते हैं। प्राणिहिंसा किसी भी रूप में हो, वह अकार्य ही है। प्राणिहिंसा किन-किन की ? हिंसा जब अकार्य है तो इसी प्रसंग में यह भी विचार कर लेना चाहिए कि जीव किस-किस प्रकार के प्राणी की हिंसा करता है ? स्थूल दष्टि वाले लोग प्रायः पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा को ही हिंसा मानते हैं। कई उनसे थोड़ी सूक्ष्म बुद्धि वाले लोग द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की हिंसा को हिंसा मानते हैं किन्तु जैनधर्म से परिचित लोग एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की हिंसा को हिंसा मानते हैं । यह बात दूसरी है कि गृहस्थ के लिए एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का सर्वथा त्याग अशक्य है । परन्तु हिंसा तो हिंसा ही है। वह अहिंसा कैसे हो सकती है ? एकेन्द्रिय जीव ये हैं—पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । ये जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि स्थूल नेत्रों से नहीं दिखाई देने, परन्तु इनमें चेतना अवश्य है, यह बात अनुभव से, अनुमान से, आगम से और जीव वैज्ञानिकों द्वारा सिद्ध हो चुकी है। इसलिए इन प्राणियों की हिंसा से भी जितना बचा जा सके. बचना चाहिए। किन्तु द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक की हिंसा से तो अवश्य बचना चाहिए। हाथीदांत, चमड़ा, सींग, नख, मांस, हड्डी, खून, दवाई, वस्त्र, फर, जूते, टोपी, आदि के लिए निर्दोष पशु-पक्षी बहुधा मारे जाते हैं । अतः विवेकी और अहिंसापरायण व्यक्ति को इन जीवों की हिंसा से निष्पन्न वस्तुओं का त्याग करना आवश्यक है। १ उपलब्धि सुगतिसाधनसमाधिसारस्य भूयसोऽभ्यासात् । स्वगुरोः शिष्येण शिरो न कर्तनीयं सुधर्ममभिलषिता ॥ ८७ ॥ -पुरुषार्थ सिद्ध युपाय For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ हिंसा : प्राणातिपात करना, कराना और अनुमोदन भी कई लोग कहते हैं कि हम स्वयं तो हिसा करते नहीं, दूसरे के द्वारा की हुई हिंसा से निष्पन्न दवा, चमड़ा, वस्त्र एवं मांसादि का उपयोग करते हैं। परन्तु यह थोथा तर्क है। स्वयं प्राणातिपात करना जैसे हिंसा है, उसी प्रकार दूसरे से कराना या दूसरे के द्वारा की हुई हिंसा से निष्पन्न वस्तु का इस्तेमाल करना भी हिंसा है। यह दावा तो तभी किया जा सकता है कि जब सर्वथा आरम्भ-परिग्रह छोड़कर अहिंसा महाव्रती साधु बन जाए; अन्यथा गृहस्थावस्था में आरम्भ करना-कराना खुला रखकर दूसरे के द्वारा किये हुए आरम्भ (हिंसाजन्य) से निष्पन्न वस्तु का स्वयं उपयोग करने पर भी अपने आपको निर्दोष मानना यथार्थ नहीं है । अतः जैसे हिंसा करने में दोष है, वैसे ही हिंसा कराने या हिंसा करने वाले का अनुमोदन करने, समर्थन करने या उसके द्वारा निष्पन्न वस्तुओं को बेचने या उपयोग करने से व्यक्ति हिंसा-फलभागी बनता है । कृत, कारित और अनुमोदित तीनों प्रकार से होने वाली हिंसा त्याज्य और अकार्य समझनी चाहिए। हिंसा के मुख्य भेद हिंसा के भेदों को समझकर ही पहले कौन-सी हिंसा त्याज्य है, बाद में किस क्रम से हिंसा का त्याग करना चाहिए ? इसका विवेक हो सकता है । आवश्यक सूत्र में मुख्यतया दो प्रकार की हिंसा बनाई गई है पाणाइवाए दुविहे पण्णत्त तं जहा—संकप्पओ य आरंभओय । प्राणातिपात दो प्रकार का कहा गया है जैसे कि संकल्पज और आरम्भज । मांस, हड्डी, चर्म आदि के लिए द्वीन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा करना संकल्पजा है और हल, दंताल, आदि से पृथ्वी को खोदते समय, भोजन आदि बनाते समय, चींटी आदि का मर जाना आरम्भजा' हिंसा है । बाद में इसी आरम्भजा हिंसा को तीन विभागों में आचार्यों ने विभक्त कर दिया है-आरम्भी, उद्योगिनी और बिरोधिनी । गृहस्थ के लिए संकल्पजा हिंसा तो सर्वथा त्याज्य है, शेष तीन में भी विवेक करना आवश्यक है । साधु के लिए तो ये सभी हिंसाएँ त्याज्य हैं ही। प्राणिहिंसा परम अकार्य, अधर्म एवं निषिद्ध क्यों ? मैंने आपके समक्ष विविध पहलुओं से हिंसा के स्वरूप का प्रतिपादन किया है; इस विश्लेषण के प्रकाश में प्राणिहिंसा को अकार्य एवं अधर्म समझकर उसका त्याग करना चाहिए। प्रश्न यह होता है कि महर्षि गौतम ने हिंसा को किस अपेक्षा से सबसे बढ़कर अकार्य-अकरणीय--माना है ? १ आवश्यक सूत्र, हारिभद्रीया वृत्ति For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं १.३ जैनशास्त्रों का मंथन करने पर हिंसा को परम अकार्य मानने में निम्नलिखित कारण मालूम होते हैं(१) असत्य आदि सब पाप हिंसा में गतार्थ होने से हिंसा का दायरा बहुत व्यापक है, इसलिए। (२) हिंसा का सीधा फल' हिंस्य जीव और हिंसक पर पड़ता है इसलिए। (३) सभी जीव सुखपूर्वक जीना चाहते हैं, कोई भी दुःखी होना या मरना नहीं चाहते, इसलिए हिंसा वर्जनीय है। (४) कटुफल' की दृष्टि से हिंसा अकार्य है । (५) समत्वदृष्टि में बाधक होने से। (६) आत्म-विकास में विघ्नकारक होने से। (७) मनोवृत्तियाँ क्रूर हो जाने से। (८) जीवन-निर्माण में बाधक होने से । (E) असामाजिक तत्त्व प्रविष्ट हो जाने से। हम क्रमशः इन सब कारणों पर संक्षेप में विचार करेंगे (१) आचार्य हरिभद्रसूरि ने असत्य, चौरी, मैथुन सेवन (अब्रह्मचर्य), परिग्रह आदि सब पापों को हिंसा के अन्तर्गत--हिंसा के पर्यायवाची माने हैं। इस दृष्टि से हिंसा का दायरा दूसरे सब पापों की अपेक्षा विस्तृत है। इसी कारण हिंसारूप महापाप परम अकार्य-कुकृत्य, अधर्म और निषिद्ध हो जाता है। (२) दूसरे पापों (असत्य आदि) के फल का सीधा और सर्वागीण वैसा कुप्रभाव जीव पर नहीं होता, जैसा हिंसा का होता है। हिंसा की सर्वप्रथम चोट हिंस्य जीव के शरीर और मन पर होती है, प्राणों पर होती है। साथ ही हिंसक के मन पर भी अन्तर्मन में हिंस्य जीव के द्वारा होने वाली प्रतिक्रिया, राजदण्ड एवं लोकनिन्दा का भी भय व्याप्त हो जाता है, प्रतिक्रिया होने पर हिंसक के शरीर पर भी सीधी चोट हिंस्य जीव द्वारा होती है। असत्य, परिग्रह आदि का प्रभाव दूसरे या स्वयं के शरीर पर नहीं होता, न वाणी पर होता है, मन पर होता है । (३) भगवान् महावीर से पूछा गया कि निर्ग्रन्थ प्राणातिपात-हिंसा को क्यों छोड़ते हैं ? इसके उत्तर में कहा गया सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउ न मरिजिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥' १ दशवैकालिक अ० ६, गा० ११ For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ - सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । इसीलिए निर्ग्रन्थ साधु घोर पापरूप जीवहिंसा ( प्राणिवध ) का सर्वथा त्याग करते है । जीवों को सताना, मारना, वध कर देना आदि कोई नहीं चाहता । आचारांग सूत्र में स्पष्ट कहा गया है- "तू वही है, जिसे तू मारना, सताना, कैद करके या गुलाम बनाकर बंधन में रखना, आतंकित करना और डराना-धमकाना चाहता है ।"" इसका आशय यही है कि हिंसा करने वाला व्यक्ति अपने जीवन के दर्पण में देखे कि वास्तव में क्या मुझे स्वयं को दूसरे के द्वारा मारा जाना, सताया जाना आदि अभीष्ट है ? नहीं है, तब जैसा तेरा स्वरूप है, सुख-दुःख का हाल है, वैसा ही दूसरे प्राणी का है । इसलिए हिंसा किसी भी प्रकार से करणीय नहीं है । अपनी सुख-सुविधा के लिए दूसरे जीवों पर कहर बरसाना, उनके प्राणों को संकट में डालना, उन्हें गुलाम बनाकर उनके साथ अमानुषिक व्यवहार करना आदि हिंसा सर्वथा अकार्य समझना चाहिए । (४) जो व्यक्ति जीवहिंसा करता है, दूसरे के प्रति निर्दयतापूर्वक व्यवहार करता है, उसे उसका फल देर-सबेर भोगे बिना छुटकारा नहीं होता । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में स्पष्ट कहा है पंगु - कुष्टि - कुणित्वादि दृष्ट्वा नीरागस्त्रसजन्तूनां हिंसा लंगड़ापन, कोढ़ीपन, कुणित्व ( टूटा या कुबड़ा आदि होना), आदि सब हिंसा के फल हैं, ऐसा देखकर बुद्धिमान सद्गृहस्थ निरपराध त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करे | 2 हिंसाफलं सुधीः । संकल्पतस्त्यजेत् ॥ ज्ञानार्णव में समस्त दुःखों का कारण हिंसा को बताते हुए कहा गया हैयत्किचित् संसारे शरीरिणां दुःख-शोक-मय-बीजम् । दौर्भाग्यादिसमस्तं तद्धिसा-सम्भवं ज्ञेयम् ॥ 'संसार में प्राणियों के दुःख, शोक और भय के कारणभूत जो दौर्भाग्य ( विपन्नता, अभागापन, संकटग्रस्तता, चिन्ता) आदि हैं, उन सबको हिंसा से उत्पन्न होने वाले समझो ।' हिसेव दुर्गतेर्द्वारं हिसैव दुरितार्णवः । हिसैव नरकं घोरं, हिसैव गहनं तमः ॥ हिंसा ही दुर्गति का द्वार है, हिंसा ही पाप का समुद्र है, हिंसा ही घोर नरक है और हिंसा ही सघन अन्धकार है | 8 हिंसा के इन सब कटुफलों या दुष्परिणामों को देखते हुए उसे अकार्य और निषिद्ध बताना उचित ही है । इत्यादि पाठ । – आचा० १।१ १ तुमंसि नाम सच्चेव जं चेव हंतव्वं त्ति मन्नसि २ योगशास्त्र, प्रकाश २, श्लो० १८. ३. ज्ञानार्णव पृ० १२० ४ ज्ञानार्णव पृ० ११३ For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hcho प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं १०५ (५) हिंसा करने वाला व्यक्ति इतना क्रूर, निर्दयी और स्वार्थी बन जाता है कि वह हर समय दूसरों को दबाने, दबाए रखने, सताने, आज्ञाधीन रखने, गुलाम बनाकर रखने, डराने-धमकाने की फिराक में रहता है । इस कारण वह प्राणिमात्र के प्रति आत्मौपम्य या समत्व के व्यवहार से कोसों दूर पड़ जाता है । वह दूसरों के सुख-दुःख की उपेक्षा कर देता है । दूसरों के साथ सह-अस्तित्व की भावना में भी उसके रुकावट आ जाती है । वह मानवता को भी तिलांजलि दे बैठता है। ये हानियाँ बहुत बड़ी हानियाँ हैं। इसीलिए प्रश्नव्याकरणसूत्र में बताया गया है'एसो सो पाणवहो, चंडो, रुद्दो, खुद्दो, अणारिओ, निग्घिणो, निस्संसो, महन्भओ।' यह प्राणिवध (जीवहिंसा) चण्ड (प्रचण्ड क्रोधजनक) है, रौद्र (भयंकर) है, क्षुद्र (अति स्वार्थी) है, अनार्य (श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा हेय) है, निघुण (दयारहित) है, नृशंस (अमानुषिक) है, और महाभयजनक है।' भला, हिंसा कितना घाटे का सौदा है, स्व-परकल्याणशील भव्य जीव के लिए । इसीलिए इसे परम अकार्य बताया गया है। (६) हिंसा आत्म-विकास में उतनी ही बाधक है, जितनी फसल को उगाने में बंजर भूमि । आत्मौपम्य, आत्मीयता, दया, करुणा, वत्सलता, क्षमा, मृदुता, ऋजुता, सेवा, सहानुभूति आदि आत्म-विकास के लिए उपयुक्त जो भी गुण हैं, हिंसा उन पर तुषारपात का काम करती है। आत्मा का विकास होता है, दूसरी आत्माओं के निकट आने से, दूसरी आत्माओं को अपने समान समझकर उनमें घुल जाने से, सर्वभूतात्मभूत बनने से । परतु हिंसा दूसरी आत्माओं को दूर धकेलती है, वह मारक है, पास ही नहीं फटकने देती। इस सच्चाई (सम्यक्त्व) के प्रकाश को वह मार भगाती है। इसीलिए आचारांग (१।२) में कहा है ___ "त से अहियाए, तं से अबोहियाए, एस खलु गथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए।" __यह प्राणिहिंसा आत्मा का अहित करने वाली है, एवं अबोध (मिथ्यात्व) का कारण है, निश्चय ही ८ कर्मों की गाँठ है, यह मोह है, यह मारक है, यह साक्षात् भाव-नरक है। भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक (६३) में भी कहा है 'जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ ।' जीवहिंसा आत्महिंसा है, जीवदया अपनी आत्मदया है। महात्मा गाँधी ने भी बहुत मन्थन करके कहा है-“जीवहिंसा आत्मघाती है।" इन सब कारणों से आत्म-विकासघातक होने से जीवहिंसा अकार्य है। १ प्रश्नव्याकरणसूत्र प्रथम आस्रव द्वार २ आचारांग श्रुत० १, अ० २ ३ भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक ६३ For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ (७) मनोवैज्ञानिकों का यह सिद्धान्त है कि मनुष्य का जैसा मन और मानसिक विचार होता है, वैसी ही उसकी प्रकृति बनती है, सन्तति बनती है, और वैसी ही उसकी जीवनधारा बनती है । हिंसा क्रूरतम विचारों की जननी है। दया, करुणा, आत्मीयता और सहानुभूति का विचार तो हिंसक में सहसा आ नहीं सकता। फलतः हिंसा से मानव की प्रकृति, क्रूर, निर्दय, नृशंस, आत्मघातक और असहिष्णु बनती है। कर प्रकृति वाला मानव क्रोधी, अहंकारी, स्वार्थी, स्वसुखार्थी और कलहप्रिय हो जाता है । हिंसाप्रिय व्यक्ति बात-बात में क्रोधी, तुनुकमिजाज और चिड़चिड़ा हो जाता है । इस तरह हिंसा से मनुष्य की मनोवृत्तियाँ क्रूर हो जाती हैं। इसी कारण हिंसा अकार्य, त्याज्य और निषिद्ध है। (८) मानव-जीवन का निर्माण यद्यपि छोटी-छोटी बातों का, छोटे-छोटे गुणों का जीवन में बार-बार अभ्यास से होता है । वे छोटी बातें विनय, नम्रता, अनुशासनप्रियता, सेवा, श्रद्धा, दया, क्षमा आदि से सम्बद्ध होती हैं और वे गुण अहिंसा आदि से सम्बद्ध । हिंसा तो उन छोटी-छोटी बातों और सद्गुणों के आग लगाने का काम करती है । हिंसा शान्ति स्थापित नहीं कर सकती, हिंसा से युद्ध, कलह, संघर्ष, मनमुटाव आदि दूर नहीं हो सकते । प्रसिद्ध पाश्चात्य साहित्यकार शेक्सपीयर (Shakespeare) ने कहा है-'Violent delights have voilent ends.' हिंसा की खुशियाँ हिंसाजनक अन्त लाती है। इसलिए हिंसा मानव-जीवन का निर्माण करने में विघ्नकारक है, अहिंसा से ही यह कार्य सुचारु रूप से हो सकता है । हिंसा विध्वंस का काम करती है। इसी कारण हिंसा को अकार्य और अहिंसा को कार्य-आचरणीय बताया गया है। (E) समाज का ढाँचा हिंसा के आते ही अस्त-व्यस्त और तितर-बितर हो जाता है। समाज को व्यवस्थित, सुखी और शान्तिपूर्ण रखने के लिए अहिंसा की आवश्यकता है । हिंसा समाज को अव्यवस्थित, दुःखी, भयभीत और अशान्त बना देती है। जिस समाज में क्रोध, क्षुद्रता, रुद्रता, मारकाट, आपाधापी, संकीर्ण स्वार्थ, क्रूरता आदि हिंसा की सन्तति व्याप्त है, वह समाज चिरस्थायी नहीं रह सकता। हिंसा से मनुष्य में सामाजिकता नहीं आती है। वह समाजविनाशकारी तत्व है। अतः हिंसा से असामाजिक तत्त्व प्रविष्ट होने के कारण समाज-निर्माण नहीं हो सकता। इन सब कारण कलापों के कारण हिंसा अकार्यकारिणी है, अधर्म है, पाप का द्वार है, साधक के लिए अनाचरणीय है । बन्धुओ ! मैंने काफी विस्तार से विभिन्न पहलुओं से हिंसा के स्वरूप, प्रकार तथा हिंसा की अकार्यता पर प्रकाश डाला है । आप इस पर गहराई से मनन-चिन्तन करिये और महर्षि गौतम के इस जीवनसूत्र को याद रखते हुए आप अपने जीवन से हिंसा का अन्धकार दूर करिये न पाणिहिंसा परमं अफज्जं For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. प्रेमराग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं-१ प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ! आज मैं आपके समक्ष एक चिरन्तन सत्य का उद्घाटन करना चाहता हूँ, जिसका मुमुक्षजीवन में प्रतिक्षण ध्यान रखना आवश्यक है । गौतम-कूलक का यह वेपनंवाँ जीवनसूत्र है, जिसमें इस सत्य का प्रतिपादन महर्षि गौतम ने किया है न पेमरागा परमत्थि बंधो। -प्रेम-राग से बढ़कर कोई बन्धन संसार में नहीं है। प्रेमराग क्या है ? बन्ध क्या और कौन-सा है ? तथा संसार के अन्य बन्धनों के मुकाबले में यह बन्धन क्यों अधिक तीव्र है ? इन सब मुद्दों पर चिन्तन किये बिना इस जीवनसूत्र का रहस्य समझ में नहीं आ सकता। अतः मैं क्रमशः इन सब मुद्दों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करूंगा। प्रेमराग : क्या, क्यों, कैसे ? प्रेम-राग में 'प्रेम' शब्द के साथ राग जुड़ा हुआ है । आप जानते हैं कि निखालिस प्रेम में किसी प्रकार का बन्धन नहीं होता । आजकल प्रेम शब्द भी बहुत विकृत अर्थ में प्रयुक्त होता है । दाम्पत्य प्रेम, प्रणयराग अथवा मोह या आसक्ति को भी आजकल प्रेम कहने लगे हैं । उर्दू में जिसे 'इश्क' कहते हैं, या मुहब्बत भी कहते हैं। ये दोनों ही विकृत प्रेम हैं । इसीलिए जैन धर्मशास्त्रों में शुद्ध प्रम शब्द का प्रयोग न करके वात्सल्य या मैत्री शब्द का प्रयोग किया है। वात्सल्य को सम्यक्त्व का एक अंग बताया गया है और मैत्री को चार भावनाओं में स्थान दिया है। यही कारण है कि जैनशास्त्रों में जहाँ भी प्रेम, या 'पेज्ज' शब्द का प्रयोग किया गया है, वह राग, अप्रशस्त राग या मोह, स्नेहराग अथवा आसक्ति के अर्थ में किया गया है। यहाँ भी प्रेम शब्द का अर्थ है-मोह, स्नेह, आसक्ति, इश्क, मोहब्बत या वासनामय प्रम। प्रम के साथ राग शब्द जुड़ जाने से और भी स्पष्ट हो गया कि यह प्रेमरूप राग है, शुद्ध प्रेम नहीं । राग शब्द का अर्थ है-संयमहीन पौद्गलिक सुखों की अभिलाषा अथवा वैषयिक सुख की प्रतीति के पीछे रहने वाला मानसिक वलेश।' ..१. (क) असंयममयसुखाभिप्रायो रागः । (ख) सुखानुशयी रागः । -जैन सिद्धान्त दीपिका ६/१२ -पातंजल योगदर्शन २/७ For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ एक आचार्य ने राग के पर्यायवाची शब्दों का निरूपण करके राग का स्वरूप अभिव्यक्त कर दिया है इच्छा मूर्छा कामः स्नेहो गाय॑ममत्वमभिनन्द । अभिलाष इत्यनेकानि रागपर्याय वचनानि ॥ अर्थात्-इच्छा, मूर्छा, काम, स्नेह, गार्थ्या, ममत्व, अभिनन्द, अभिलाष ये अनेक शब्द राग के पर्यायवाची हैं । तात्पर्य यह है कि इच्छा से लेकर अभिलाष तक जितने शब्द हैं, वे राग के अर्थ को प्रस्फुटित करते हैं, ये राग के ही विभिन्न रूप हैं। प्रेमराग वस्तुतः प्रेम का एक रंग है, एक बार जिसके जाल में फंस जाने पर मनुष्य का निकलना अत्यन्त कठिन होता है। फिर भी यह कहा जा सकता है, कि अधिकांश प्रेमराग नकली प्रेम का रंग होता है, जो रहस्य खुलने पर उतर जाता है। सांसारिक एवं पौद्गलिक सुखासक्त मानव प्रायः इसी प्रमराग के यान में बैठकर अपनी जीवनयात्रा प्रारम्भ करते हैं, लेकिन वह यान अधबीच में ही धोखा दे देता है। मुख्यतया यह प्रेमराग पति-पत्नी में हुआ करता है। पति अपनी पत्नी में अनुरक्त रहता है और पत्नी में अपने पति में । इस प्रेमराग में दोनों ओर स्वार्थ पलता है। पति सोचता है, पत्नी मेरे प्रति अनुरागिणी बनकर मेरी पुजारिन हो जाये, मेरी आज्ञा में चले, मेरे इशारे पर नाचे, मैं कहूँ वहाँ जाये-आये, मेरे रागरंग में बाधक न बने, मेरी सुख-सुविधाओं के लिए अपना श्रमरस निचोये, मेरे प्रति पूर्णतः वफादार रहे। इसी प्रकार पत्नी सोचती है कि पति मेरे प्रति पूर्ण अनुरक्त रहे, वह कहीं किसी और के प्रेम में न पड़ जाये, वह मेरी माँगें पूरी करे, मेरी फरमाइशों की पूर्ति करे, मेरी इच्छाओं में बाधक न बने, मेरी गृहस्थी को सुखी बनाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहे; हम अच्छा खायें, अच्छा पहनें, अच्छे रहन-सहन से रहें। इतना ही नहीं, पति मेरे प्रति कभी अनमने-से न रहें, मेरे किसी कार्य में बाधक न बने। ___ जहाँ दोनों में से किसी का प्रेमराग कच्चा होता है, या सीमा का अतिक्रमण कर देता है, वहाँ वह गृहक्लेश, अविश्वास एवं द्वष-घृणा आदि में परिणत होता है। यह एक जाना-माना सिद्धान्त है कि जहाँ राग होगा, वहाँ उतने ही अनुपात में द्वेष प्रच्छन्न या सुषुप्त होगा । जब रागभाव पलायन करने लगता है, तब उसके रिक्तस्थान की पूर्ति के लिए द्वष, घृणा या वर-विरोध आदि भाव आ धमकते हैं; और राग के आसन पर वे जम जाते हैं। पत्नी का पति के प्रति प्रेमराग मुझे एक रोचक दृष्टान्त इस सम्बन्ध में याद आरहा है-एक सेठ अपनी पत्नी के प्यार में इतना बाबला हो रहा था कि उसके सिवाय उसे कुछ सूझता ही नहीं था। उसका दृढ़विश्वास था कि मेरा क्षण-दो क्षण का वियोग भी इसके लिए असह्य है । किसी ने उसे कर्तव्यबोध कराते हुए कहा-"पत्नी के प्रति आप इतने रागान्ध मत बनिये, आप चाहें तो इसकी परीक्षा कर लीजिए, आपको उसकी असलियत का पता लग जायेगा।" उस मित्र के परामर्शानुसार उक्त व्यक्ति ने For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमराग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं १०६ एक बार रात को पेट दर्द का बहाना बनाकर श्वास को ऊपर चढ़ा लिया। अब तो उसकी पत्नी घबराई—यह क्या हुआ ? पति की अपमृत्यु, वह भी आधीरात में ? अब मेरा सहारा गया। परन्तु अभी से रोना शुरू कर दूंगी तो आस-पास की सभी महिलायें इकट्ठी हो जायेंगी। ऐसे में न तो घर के अस्त-व्यस्त पड़े सामान को व्यवस्थित कर सकूँगी, न ही कुछ खा-पी सकूँगी । भूख और थकान के मारे मेरे बुरे हाल हो जायेंगे । अतः उस गृहिणी ने सारे कमरों को व्यवस्थित किया, फिर बिलौना करना, दही जमाना, भंस दुहना आदि सब काम निपटा लिया। फिर सोचा-घी तो ताजा तैयार है ही, पड़े-पड़े उसमें बदबू आने लगेगी, इससे तो अच्छा है कि मैं इसका उपयोग कर लू। उसने चूल्हा जलाया, खूब घी डालकर चूरमा बनाया, उसके ६ बड़ेबड़े लडडू तैयार किये, साथ में दाल भी बनाई । दो बड़े-बड़े लडडू और दाल खाकर उसने पेट भर लिया। सेठ अपनी पत्नी का यह सारा नाटक वहीं लेटे-लेटे देख रहा था। सेठ को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, किन्तु था सब प्रत्यक्ष । सूर्योदय होने में थोड़ी सी देर थी कि सेठानी ने दो बड़े लडडू एक कपड़े में बांधकर अपनी गोद में रख लिए, और दो छींके में रख दिये । फिर उसी छींके के नीचे बैठकर रोने लगी स्वर्ग सिधातां साह्यबा ! कांइक कहता जाज्योजी। अर्थात्-पतिदेव ! आप तो स्वर्ग में जा रहे हैं, मुझे भी कुछ कहते जाइये। सेठ ने सोचा-अभी अच्छा मौका है, इसे कहने का। बाद में तो पड़ोसी इकट्ठे हो जायेंगे । अतः उसने उस दोहे की पूर्ति इस प्रकार की खोला माह्यलो खट जावे तो छींके परलो खाज्योजी॥ -यदि गोद में रखे लडडू समाप्त हो जायें तो छींके पर रखे हुए खा लेना । सेठानी ने जब यह सुना तो चुप होकर लज्जा के मारे वह धरती में गड़ी जा रही थी। यह नकली प्रेमराग सेठ के लिए विरक्ति का कारण बन गया । इसीलिए बृहदारण्यक उपनिषद् में तो स्पष्ट बताया है पति-पत्नी और पुत्र अपने स्वार्थ के लिए ही एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, न कि उनके हित के लिए। 'रागान्ध मनुष्य अपने हिताहित को नहीं देखता।' पति को अपनी पत्नी के प्रति राग सुखकर मालूम होता है, परन्तु राग के समान संसार में कोई दुःख नहीं है। किसी शहद से लिपटी हुई तलवार को चाटने वाला मनुष्य जैसे-उसके परिणाम को नहीं सोचता, वैसे ही राग में लिप्त अविवेकीजन उसके दुःखद परिणाम का विचार नहीं करता। योगशास्त्र की भाषा में कहूँ तो __ "पिशाचा इव रागाद्याश्छलयन्ति मुहुर्मुहुः।" -रागादि पाप पिशाच की तरह आत्मा को बार-बार धोखा देते हैं। . नन्दागायक २//५ For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० आनन्द प्रवचन : भाग ११ एक रागान्ध पति का ऐतिहासिक उदाहरण लीजिये एक बादशाह अपनी बेगम के प्रति प्यार में बहुत अन्धा था। एक दिन बात ही बात में बादशाह ने बेगम से कहा--"प्यारी ! मैं तुम पर जान कुर्बान करने को तैयार हूँ। तुम मर जाओगी तो मैं कैसे जिन्दा रहूँगा।" इस पर बेगम ने एक शेर के द्वारा उत्तर दिया मुझ पे तुम मरते नहीं, मर रहे इन चार पर । 'नाज' पर, अन्दाज' पर, रफ्तार पर, गुफ्तार पर । -अर्थात् तुम मुझ पर नहीं मरते हो, मरते हो मेरी इन चार बातों पर(१) मेरे नखरे पर, (२) मेरे कटाक्ष पर, (३) मेरी चाल पर और (४) मेरी वाणी पर। बादशाह अब क्या बोलता ! बेगम ने उसे खरी-खरी सुना दी थी। पुत्र के प्रति माता का प्रेमराग-इसी तरह पुत्र के प्रति माता का प्रेमराग भी अपने स्वार्थ का होता है । स्वार्थ सिद्ध होने पर न तो माता पुत्र को चाहती है और न ही पुत्र माता को । दोनों एक दूसरे-से किनाराकसी करने लग जाते हैं। हिन्दू महाभारत का एक प्रसंग है । जब सारे क़ौरव महाभारत युद्ध में एक-एक करके समाप्त हो गये, तब गान्धारी शोकाकुल हो उठी। वह रोती-चिल्लाती, छाती कूटती युद्धस्थल में पहुँची । कहते हैं, वहाँ ऐसी माया फैलाई गई कि अंधेरी रात में चारों ओर शव ही शव पड़े दीख रहे थे । गान्धारी अपने पुत्रों को पहचान-पहचानकर छाती से लगा-लगाकर विलाप कर रही थी। इतने में उसे असह्य भूख लग आई। देवमाया से उसे सामने ही एक आम का पेड़ दिखाई दिया, जिस पर पके हुए आम लगे थे । आमों की सुगन्ध से गान्धारी का मन प्रसन्न हो उठा। खुशी की बात यह थी कि आम के फल भी नीचे झुके हुए थे। गान्धारी पुत्रवियोग का दुःख तो भूल गई, भूख मिटाने के लिये आम खाने को उद्यत हुई । वह ज्योंही आम के पेड़ के पास पहँची और फल लेने को हाथ ऊपर उठाण तो फल थोड़ा-सा दूर रह गया। इधरउधर देखा कि यदि कहीं पत्थर पड़ा मिल जाये तो उस पर चढ़कर आम तोड़ ले । पर वहाँ पत्थर कहाँ मिलता ? अपने पुत्रों के मृत शरीर वहाँ अवश्य पड़े थे। गान्धारी ने आव देखा न ताव। चट से एक शव को वहाँ डाला और उस पर खडी होकर आम तोड़ने लगी। फिर भी थोड़ी-सी दूरी रह गई तो दूसरे पुत्र का शव डाला, फिर तीसरे का, यों एक-एक करके सब पुत्रों के शवों को एक पर एक रखकर उनकी छाती पर खड़ी होकर फल लेने के लिये हाथ बढ़ाया, फिर भी थोड़ी-सी दरी रह गई । 'हर बार आम का पेड़ ऊपर क्यों उठ जाता है ? मेरी आँखों पर पटटी बंधी हुई है, फिर भी मुझे आम क्यों दिखाई दे रहे हैं ?' ये सारे विकल्प उस समय १. नखरा २. कटाक्ष ३. चाल ४. बोली For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमराग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं ૧૧૧ गान्धारी के दिमाग में नहीं आये । उसकी तीव्रतम अभिलाषा आम खाने की हो रही थी । कहते हैं— श्रीकृष्णजी उस समय पास ही खड़े थे, उन्होंने गान्धारी का यह झूठा पुत्र-प्र ेम का नाटक देखा तो वे हँसी को रोक न सके । श्रीकृष्ण का उन्मुक्त हास्य जब सुनाई दिया तब गान्धारी को अपना भान हुआ । पर अब वह बोले भी क्या ? वह अपने प्राणप्रिय नौनिहालों की छाती पर जो खड़ी थी । यह है — पुत्रों के प्रति माता के प्र ेमराग के नाटक का ज्वलन्त उदाहरण । दाम्पत्य प्र ेममूलक राग : दुःखजनक – कभी-कभी राग दाम्पत्य प्र ेममूलक होता है, कभी होता है किसी भी सुन्दर स्त्री के प्रति कामवासनामूलक अथवा यह किसी स्त्री का अपने पति के प्रति वैसा राग न होकर अपने प्र ेमी के प्रति होता है । बादशाह शाहजहाँ का मुमताजमहल के प्रति ऐसा ही प्र ेमराग था । उसी प्रमराग के नशे में उसने ताजमहल बनवाया । यद्यपि यह दाम्पत्य ममूलक राग था । परन्तु इस प्रेमराग का अन्त दुःखद होता है । ऐसा व्यक्ति अपनी प्रेमिका के वियोग में झूरता रहता है, आर्त्तध्यान करता रहता है । ऐसे राग से पल्ले कुछ नहीं पड़ता, उलटा मन में संक्लेश होता रहता है । जिस पत्नी के प्रति ऐसा राग होता है, उसके चरित्र के प्रति उसका पति सदैव शंकाशील रहता है, और उसके मोह में पागल होकर अपने दैनिक कर्त्तव्यकर्मों को भी भूल जाता है । इसीलिये चाणक्यनीति में कहा गया है— यस्य स्नेहो भयं तस्य, स्नेहो दुःखस्य भाजनम् । स्नेहमूलानि दुःखानि तत्तं त्यक्त्वा वसेत् सुखम् ॥ - जिसका किसी में स्नेह ( प्र ेमराग) होता है, उसी को भय होता है | अतः स्नेह दुःख का भाजन है । जितने भी दुःख होते हैं, उनके मूल में स्नेह होता है । इसलिये स्नेह को छोड़कर सुख से रहना चाहिए ।" एक ऐसे ही पत्नी - प्र ेमरागान्ध पति का उदाहरण लीजिए मुझे आपके बिना कहा - "हमें तो एक ठाकुर था । वह अपनी पत्नी पर इतना मुग्ध था कि जब देखो तब अपनी ' पत्नी की लोगों के सामने प्रशंसा किया करता था । उसकी पत्नी भी ठाकुर के समक्ष यही कहा करती थी - मैं आपके बिना जिन्दा नहीं रह सकती। भोजन जरा भी अच्छा नहीं लगता । ठाकुर के मित्रों ने ठाकुर से लगता है, आपकी पत्नी झूठे प्र ेम का स्वांग करती है । आप एक बार परीक्षा करके देखिये । असलियत सामने आ जायेगी ।" ठाकुर ने एक दिन ठकुराइन के प्र ेम की परीक्षा लेने का विचार किया । ठकुराइन से कहा - " मैं आज घोड़े पर सवार होकर लड़ाई में जा रहा हूँ, मुझे कुछ महीने लग जायेंगे, तुम अच्छी तरह रहना ।" ठकुराइन बोली- “आपके वियोग में मुझे एक-एक दिन काटना भारी पड़ेगा । परन्तु आपको युद्ध में अवश्य जाना है, इसलिए मैं रुकावट भी नहीं डालती, पर जल्दी ही १. चाणक्यनीति १ / ५ For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ आना।" ठाकुर ने घोड़ा अपने मित्र के यहाँ बाँध दिया और रात को ही चुपके से पिछले दरवाजे से घर में प्रवेश करके छिपकर बैठ गया। उधर रात पड़ते ही ठकुराइन ने दासी से कहा ठाकुर गया गाँव, मने नहीं भावे धान । ला तो जरा गन्ने के सांठे। दासी गन्ने ले आई, तब ठकुरानी ने गन्ने चूसे। फिर दासी से खिचड़ी बनवाई, उसमें खूब घी डालकर खाने लगी। उसके बाद बाटी बनवाई और अन्त में मुंह साफ करने के लिये मक्की के फूले बनवाकर खाए । ठाकुर यह सब देख रहा था। वह घर में से प्रकट हो गया। उसने ठकुराइन का प्रमराग का नाटक देख लिया था। अतः ठकुराइन द्वारा इतनी जल्दी लौट आने का कारण पूछने पर ठाकुर ने कहा-"मैं घोड़े पर बैठकर जा रहा था कि रास्ते में गन्ने जैसा मोटा और लम्बा साँप मिला । वह सांप इस तरह चल रहा था, जैसे खिचड़ी में घी चलता है, उसका फन ठीक बाटी जैसा था। वह ऐसी आवाज कर रहा था, जैसे मक्की के फूले सेके जा रहे हों। इसलिए मैं जल्दी ही लौट आया।" ठकुराइन समझ गई कि ठाकुर मेरी चालाकी एवं त्रियाचरित्र को समझ गया है । अतः लज्जित होकर अपने अपराध के लिये क्षमा मांगी। यह है-पत्नी का पति के प्रति प्रेमराग का नाटक । सचमुच लौकिक प्रेम में ऐसा प्रमराग का नाटक अनेक बार होता है। मनुष्य जान-बूझकर मोहाविष्ट होकर ऐसे नाटक कई बार करता है, बार-बार ठगाता भी है। परन्तु फिर फंसता है । कई बार स्त्री-पुरुष को अपने प्रेमराग के जाल में फंसाती है, कई बार पुरुष स्त्री को फंसाता है। कई चालाक स्त्रियाँ तो ऐसी सफाई से यह नाटक करती हैं कि उनके पति भी उस प्रेमराग को विशुद्ध प्रेम समझकर ठगा जाते हैं। वास्तव में ऐसा नाटक होता है—काममूलक ही। एक स्त्री ने अपने पातिव्रत्य की एवं पतिभक्ति की छाप अपने पति के हृदय पर ऐसी अंकित कर दी कि पति समझ गया कि मेरी पत्नी पूर्ण पतिव्रता है, परन्तु थी वह व्यभिचारिणी। एक दिन उसके पति के मित्रों ने उसकी शिकायत की। फलतः पति रात को चुपके से आकर उस स्त्री की पलंग के नीचे छिप गया। सदा को भाँति जब उस कुलटा का प्रेमी आया तो पलंग के हिलने से उस छिनाल को पता चल गया कि हो न हो, आज मेरे पति पलंग के नीचे छिपे हुए हैं। प्रेमी को संकेत से सारी बात बताकर सतीत्व का नाटक करती हुई वह बोली-“खबरदार ! आगे मत बढ़ना; नहीं तो सतीत्व के तेज से भस्म कर दूंगी।" उसने गुस्सा दिखाते हुए कहा"तब मुझे बुलाया ही क्यों था ?" वह बोली-“कल एक ज्योतिषी ने मेरे पति की जन्मकुण्डली देखकर कहा यदि तुम अन्य पुरुष का आलिंगन कर लो तो उसकी आयु घट जायेगी, और तुम्हारे For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमराग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं ११३ पति की आयु बढ़ जायेगी। बस, मुझे तो अपने पति की आयु बढ़वानी थी, सो बढ़वा ली। चलो, हटो यहां से।" यों झिड़कते हुए उसे द्वार खोलकर बाहर निकाल दिया। अब तो उसके पति का विश्वास उस पर और भी बढ़ गया कि यह तो एक महासती है, जो मेरे हित के लिये न जाने क्या-क्या करती है। वास्तव में राग मधुमिश्रित जहर है, जबकि द्वेष है-खालिस जहर । जहाँ राग होता है, वहाँ द्वष अवश्य छिपा होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में राग और द्वेष दोनों को कर्मबीज और पाप तथा पापकर्म में प्रवृत्ति कराने वाले बताया है। मरणसमाधि प्रकीर्णक में बताया गया है कि “संसार में यदि राग-द्वेष न हों, तो कोई भी दुःखी न हो, और न कोई सुख पाकर ही विस्मित हो, बल्कि सभी मुक्त हो जाएं।" सूत्रकृतांगसूत्र में भी बताया गया है कि "अज्ञानी जीव राग-द्वेष के आश्रित होकर विविध पाप किया करते हैं।" परिवार के सभी लोग प्रेमरागवश–परिवार के लोग भी प्रायः मिथ्याप्रमवश होकर संक्लेश पाते रहते हैं। एक उदाहरण लीजिये ___एक नवयुवक था। वह एक महात्मा के सत्संग में जाया करता था। महात्मा ने एक दिन उससे कहा-"वत्स ! आत्मकल्याण ही मनुष्य-जीवन का सच्चा लक्ष्य है । इसे ही पूर्ण करना चाहिये ।" यह सुनकर युवक ने कहा-''महाराज ! वैराग्य धारण करने पर मेरे माता-पिता कैसे जीवित रहेंगे ? साथ ही मेरी युवा पत्नी मुझ पर प्राण देती है, वह मेरे वियोग में मर जाएगी।" । महात्मा बोले-"कोई नहीं मरेगा। यह सब दिखावटी प्रेम है । तू नहीं मानता हो तो परीक्षा कर ले।" युवक राजी हो गया तो महात्मा ने प्राणायाम करना सिखाया और आदेश दिया कि बीमार बनकर सांस रोक लेना। युवक ने घर जाकर वही किया। बड़े-बड़े वैद्यों की चिकित्सा हुई, परन्तु दूसरे दिन भी उसने सांस रोक ली। घर वाले उसे मरा समझ हो-हल्ला मचाने और रोने-पीटने लगे। पड़ोस के बहुत-से लोग इकट्ठे हो गये। तभी वहाँ महात्मा भी जा पहुँचे। युवक को देखकर उसकी गुणगरिमा का बखान करते हुए बोले-"हम इस लड़के को जीवित कर देंगे, पर तुम्हें कुछ त्याग करना पड़ेगा।" घर वाले बोले-"आप हमारा सारा धन, घरबार, यहाँ तक कि प्राण भी ले लें, परन्तु इसे जीवित कर दें।" महात्मा बोले-"एक कटोरा दूध लाओ।" तुरन्त एक कटोरा दूध आ गया। फिर महात्मा ने उसमें एक चुटकी राख डालकर कुछ मन्त्र-सा पढ़ा और बोले-“लो, यह दूध पी लो । जो इस दूध को पीयेगा, वह मर जायेगा और यह लड़का जीवित हो जायेगा।" For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ । अब समस्या यह थी कि दूध को कौन पीये? माता-पिता बोले-“कहीं लड़का न जीया तो एक जान और जायेगी । यदि हम रहे तो पुत्र तो और भी हो जायेगा।" पत्नी बोली-"इस बार जीवित हो जाएंगे तो क्या है, फिर कभी तो मृत्यु मायेगी ही। इनके न रहने पर मैं अपने मायके में सुख से जिन्दगी काट लूंगी। ___ इस तरह सभी रिश्तेदार बगलें झाँकने लगे। पड़ोसी तो पहले से ही लौ दो ग्यारह हो गये थे। आखिर महात्मा ने कहा-“अच्छा, तो फिर मैं ही इस दूध को पी लेता हूँ।" सभी प्रसन्न होकर कहने लगे-"हाँ, महाराज ! आप धन्य हैं। साधुसन्तों का जीवन तो परोपकार के लिये होता ही है।" - महात्मा ने दूध पी लिया और युवक को झकझोरते हुए बोले-"उठो वत्स ! अब तो तुम्हें पूरा ज्ञान हो गया है कि कौन तुम्हारे लिये प्राण देता है ।" : :: के युवक फौरन उठ गया और महात्माजी के चरणों में गिरकर बोला--- "गुरुदेव ! मेरी भ्रान्ति दूर हो गई है।" घरबालों के बहुत रोकने पर भी वह महात्मा के साथ चला गया और सांसारिक मोह (प्रेमराग) का त्याग करके स्व-पर-कल्याण के पुनीत पथ पर अग्रसर हो गया । - - यह है, कौटुम्बिक जनों के प्रति प्रेमराग का ज्वलन्त उदाहरण ! - पद्मपुराण में स्पष्ट कहा है.. पुत्रदारो कुटुम्बेषु, सक्ता सीदन्ति जन्तवः। :. - सरः पंकार्णवे मग्नाः, जीर्णा वनगजा इव ॥ -तालाब के कीचड़ में फंसे हुए बूढ़े जंगली हाथियों की तरह पुत्र, स्त्री, कुटुम्ब आदि में आसक्त प्राणी दुःखी हो रहे हैं। प्रेमराग का दायरा बहुत व्यापक-प्रेमराग का दायरा केवल मनुष्य या सचेतन प्राणी तक ही सीमित नहीं है, वह जड़ पदार्थों के प्रति भी होता है, यहाँ तक कि जो पदार्थ विद्यमान नहीं हैं उनके प्रति भी मनुष्य का आसक्तिमय प्रेमराग हो जाता है । और आसक्ति ही अनर्थ का मूल है । जहाँ तक आसक्ति का त्याग नहीं होता, वहाँ तक काम, क्रोध, नामना, कामना, वासना आदि से पिण्ड झूटना कठिन है । चन्दचरित्र में रागान्धता की विशेषता इस प्रकार बताई गई है :- पशु-मानव-देवाश्चाऽनुरज्यन्ते सुरागके । तथवाऽमी बिशेषेण मृगस्त्रीसर्पभूभुजः ॥' -पशु, मनुष्य और देवता, ये सभी राग में अनुरक्त होते हैं, लेकिन इनमें विशेष रूप से मृग, नारी, सर्प और राजाओं का स्नेह (प्रम) राग माना गया है। प्रेमराग : परम बन्धन क्यों ? - यह हुआ प्रेमराग के स्वरूप का विभिन्न पहलुओं से वर्णन ! अब मूल प्रश्न १. चन्दचरित्र, पृ० ७२ For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमराग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं ११५ पर आइए। महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में बताया है कि प्रेमराग सबसे बढ़कर बन्धन है; सवाल यह होता है कि यह कौन-सी किस्म का बन्धन है ? दूसरे बन्धन तो आँखों से दिखाई देते हैं । कोई किसी को रस्सी से बाँध देता है, लोहे की जंजीर से बाँध देता है या पैरों में बेड़ियाँ और हाथों में हथकड़ियाँ डालकर बाँध देता है अथवा किसी प्रकार का प्रतिबन्ध लगाता है या किसी को कोठरी आदि में बन्द कर देता है तो इन स्थूल बन्धनों से तो मुद्दत पूरी होने पर छूट भी सकता है, इन बन्धनों से युक्ति एवं उपायों से छुटकारा भी पाया जा सकता है, परन्तु प्रेमराग का बन्धन अनोखा है, इसके बन्धन में एक बार पड़ जाने पर व्यक्ति सहसा इसे तोड़ नहीं सकता है, बल्कि इसमें अधिकाधिक जकड़ता जाता है। यह बन्धन स्थूल आँखों से नहीं दिखाई देता है । इस बन्धन में पड़ जाने पर मोह और आसक्ति के कारण मनुष्य की सही सोचने की दृष्टि पर पर्दा पड़ जाता है। यह भावबन्धन है, द्रव्यबन्धन नहीं। इसीलिए नीतिकार कहते हैं बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि, प्रेमरज्जुकृतबन्धनमन्यत् . । दारुभेदनिपुणोऽपि षडंघ्रि निष्क्रियो भवति पंकजकोषे ॥ -संसार में बहुत से बन्धन हैं, लेकिन प्रेमरूपी रस्सी का बन्धन अनोखा ही है। तभी तो काष्ठ का भेदन करने में निपुण भौंरा कमल के कोष में (प्रेमरागवश) निष्क्रिय हो जाता है, उसे तोड़कर बाहर नहीं निकलता। वास्तव में भौरा इतना शक्तिशाली है कि वह चाहे तो कमल तो क्या सख्त लकड़ी को अपने नुकीले मुह से काट सकता है, लेकिन कोमल कमल-कोष में स्वयं बंद पड़ा रहता है, क्यों ? केवल कमल के प्रति प्रेमरागवश। कविवृन्द के शब्दों में जैसो बन्धन प्रेम को, तैसो बन्ध न और । काठहि भेदे, कमल' को, छेद न निकले भौंर ।। प्रेमराग के बन्धन को कठोरतम तथा तथा दृढ़ बताते हुए एक कवि कहता है मुच्यते शृंखलाबद्धो, नाडीबद्धोऽपि मुच्यते । . . न मुच्यते कथमपि प्रेम्णा बद्धो निरर्गलः ॥ -साँकलों से बंधा हुआ मुक्त हो जाता है, नाड़ी से बद्ध भी छुटकारा पा जाता है, किन्तु जो प्रेम-बन्धन से निरर्गल बद्ध है, वह किसी भी प्रकार से मुक्त नहीं होता। कितनी मार्मिक बात कह दी है, कवि ने । वास्तव में प्रेमरूपी राग का बन्धन बहुत ही जटिल और कठिनतर है। बड़े-बड़े मनीषी, तत्त्वचिन्तक, साधु-संन्यासी तक के लिए भी इस प्रेम राग-रूप बन्धन में फंस जाने पर निकलना दुष्कर है। For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ प्रेम-रागकृत बन्धन कितना मोहक, कठोर और जटिल होता है ? इस सम्बन्ध में सूत्रकृतांगसूत्र की टीका में एक कथा दी है समुद्र पार आर्द्र कपुर नाम का नगर था। वहां के राजा और रानी का नाम आर्द्र और आर्द्रा था। उनके एक सुपुत्र था, जिसका नाम उन्होंने आर्द्रककुमार रखा था। एक बार राजगृह से मगधसम्राट श्रेणिक ने मन्त्री के साथ उपहार भेजा। उस उपहार को देख आर्द्र ककुमार ने पूछा- "पिताजी ! यह उपहार किसने भेजा है ?" राजा ने कहा- "भारतवर्ष में मेरा मित्र श्रेणिक राजा है, उसने यह उपहार भेजा है।" राजकुमार ने आगन्तुक मन्त्री से पूछा-"आपके राजा के मेरी आयु का कोई गुणवान पुत्र भी है ?" मन्त्री बोला-"हाँ, है क्यों नहीं ? अभयकुमार है।" आर्द्र ककुमार ने अपनी ओर से अभयकुमार के योग्य उपहार पत्र सहित मन्त्री को सौंपते हुए कहा-“यह उपहार अभयकुमार को देना।" उक्त मन्त्री ने राजगृह पहुँचकर वह उपहार तथा पत्र अभयकुमार को दिया। बुद्धिनिधान अभयकुमार ने सोचा-यह मेरे साथ मैत्री करना चाहता है। प्रभु महावीर ने एक बार कहा था"तेरे साथ जो भी मैत्री करेगा, वह अवश्य ही सम्यक्त्व प्राप्त करेगा।" अतः मालूम होता है कोई आसन्न सिद्धिक लघुकर्मा जीव है यह ! पिछले जन्म में किसी व्रत की विराधना करके आया लगता है, इसी कारण अनार्य देश में जन्म लिया है। यह सब सोचकर अभयकुमार ने सामायिक-साधना के सभी उपकरण एक पेटी में बन्द करके आद्रककुमार को प्रतिबोध देने हेतु भेजे । आर्द्र ककुमार ने अपूर्व उपहार समझकर एकान्त में ले जाकर पेटी खोली । धर्मोपकरण देखकर बार-बार ऊहापोह करते-करते उसे जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ। उसके कारण उसने अपना पूर्वजन्म इस प्रकार देखा वसन्तपुर नगर में सामायिक नामक गृहस्थ था। उसकी पत्नी का नाम बन्धुमती था। एक दिन पति-पत्नी दोनों ने धर्मोपदेश सुनकर भागवती दीक्षा ले ली। दीक्षा लेकर दोनों अलग-अलग विचरण करने लगे। एक बार मुनि और साध्वी दोनों एक नगर में मिले। अपनी गृहस्थपक्षीय पत्नी को साध्वी के रूप में देखकर मुनि को कामराग उत्पन्न हुआ। आचार्य ने जब यह बात जानी तो उन्होंने प्रवत्तिनी (साध्वी प्रमुखा) को कहलवाया कि बन्धुमती आर्या को अधिक बाहर न निकलने देना। बन्धुमती साध्वी को जब उसका कारण मालूम हुआ तो विचार करने लगी—धिक्कार हो मेरे इस रूप को, जिसे देखकर मेरे संसारपक्षीय पति–सामायिक मुनि का मन विचलित हुआ। यों चिन्तन करके साध्वी ने अनशन कर लिया । क्रमशः आयुष्य पूर्ण करके देवलोक में पहुँची। सामायिक साधु को भी जब यह ज्ञात हुआ तो उसने भी अनशन किया और For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमराग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं ११७ देहावसान के बाद वह भी स्वर्ग में पहुँचा । वही सामायिक साधु मैं था, मैं देवलोक से च्यवकर इस अनार्य देश में जन्मा हूँ। यों अपने जातिस्मरणज्ञान के प्रकाश में देखकर सोचा-सचमुच अभयकुमार के अलावा मुझे अनार्य देश में कौन प्रतिबोध देता ? यों अभयकुमार को बहुत उपकारी मानकर उससे मिलने की उत्कट इच्छा प्रदर्शित की लेकिन उसके पिता ने उसको भारतवर्ष जाने की अनुमति नहीं दी। पिता ने सोचा-इसे संसार से कहीं विरक्ति न हो जाए; यह सोचकर पिता ने ५०० सुभट उसकी रखवाली के लिए नियुक्त कर दिये। उन्हें यह हिदायत दे दी कि कुमार कहीं भी घूमने-फिरने या खेलने जाए, साथ-साथ रहो। अतः कुमार के साथ ५०० सुभट रहने लगे। पर कुमार अपना घोड़ा प्रतिदिन आगे कुछ न कुछ दूर भगा ले जाता, इससे कभी एक घड़ी और दो घड़ी बाद लौटता। यों उन सब को विश्वास जमाकर एक दिन वहाँ से चम्पत होकर समुद्र तट पर आ गया। वहाँ से जहाज पर बैठकर अन्य जहाजों के साथ समुद्र के उस पार पहुँचा। वहाँ से उतरकर आर्य क्षेत्र में आया। वहाँ उसने मन ही मन दीक्षा लेने का निश्चय किया। देवों ने उसे रोका कि अभी तुम्हारे भोगावली कर्म बाकी हैं, इसलिए दीक्षा न लो। परन्तु विरक्त आर्द्रककुमार ने सोचा, महापुरुषों ने कहा है अस्ततन्द्र रतः पुभिनिर्वाणपदकांक्षिभिः । विधातव्यः समत्वेन राग-रषद्विषज्जयः ॥ -मोक्ष पद के अभिलाषी साधकों को तन्द्रा (आलस्य) रहित होकर समत्व के द्वारा राग-द्वषरूप शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहिए। अतः मुझे भी रागरूप शत्रु को परास्त करने के लिए अभी से ही प्रयत्न करना चाहिए। यों सोचकर आद्रं ककुमार ने स्वयं ही मुनिदीक्षा ले ली। __ ग्राम-ग्राम विचरण करते हुए वह मुनि वसन्तपुर पहुँचा। नगर के बाहर यक्षालय में कायोत्सर्ग में स्थित होकर रहा। ठीक इसी समय उसकी पूर्वजन्म की पत्नी (जो देवलोक से च्यवन करके नगर के एक श्रेष्ठी की पुत्री बनी) श्रीमती नाम की कुमारी अपनी सखियों के साथ विहार-क्रीड़ा करने आ गई । 'आँखें मूंद कर जिस खम्भे को जो लड़की पकड़ ले, वही खम्भा उसके पति का प्रतीक माना जाएगा;' इस प्रकार का खेल वे लड़कियाँ खेल रही थीं। आंखें मूंदी हुई श्रीमती ने आद्रक मुनि के पर को खंभा समझकर पकड़ लिया। सहसा उसके मुंह से निकल पड़ा-“यह मेरा पति है।" देवों ने इसकी साक्षी रूप में स्वर्णमुद्राओं वृष्टि की। मुनि तो अपने पैर छुड़ाकर वहां से अन्यत्र चले गए। वह द्रव्य राजा लेने लगा तो देवों ने रोका । देवों के कथनानुसार वह सारा द्रव्य श्रीमती के पिता (श्रेष्ठी) के यहाँ अमानत के रूप में रखा गया । श्रीमती ने कहा-इस जन्म में तो मेरा यही पति रहेगा, दूसरा नहीं। परन्तु अपने पति (आर्द्र क मुनि) का पता लगाने हेतु उसने पिता से कहकर दानशाला खुलवा दी; जहां वह स्वयं अपने हाथों से दान देती थी। परन्तु For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ । बारह वर्ष यों दान करते-करते हो गए आद्रंक मुनि नहीं आये। इसके पश्चात् मुनि विचरण करते-करते दैवयोग से उसी नगर में पधारे । सोचा-'नगर तो वही है, पर अब मुझे कौन पहचानेगा ? सब भूल गये होंगे।' यों सोचकर नगर में भिक्षा के लिए घूमते-घूमते अनायास श्रीमती के यहाँ ही पहुँच गये । श्रीमती भी आर्द्र कमुनि के पैर में पद्मचिह्न देखकर पहचान गई कि हो न हो, यही मेरे पतिदेव हैं। उसने अपने माता-पिता से कहा । श्रीमती के माता-पिता और राजा आदि प्रमुख लोगों ने आर्द्रक मुनि को उनकी पतिभक्ता पत्नी को स्वीकार करने का बहुत आग्रह किया। पहले तो उन्होंने आनाकानी की, लेकिन फिर सोचा कि अगर मैं इसे स्वीकार नहीं करूंगा तो यह (कन्या) मृत्यु का आलिंगन कर लेगी, तथा देवों ने भी मुझे दीक्षा लेते समय रोका था । अतः इसे स्वीकार कर लेना ही उचित है। यह समझकर आद्रक ने श्रीमती के साथ पाणिग्रहण कर लिया। कुछ ही अर्से बाद एक पुत्र हुआ। कुछ सयाना होने पर उसे पाठशाला में पढ़ने भेजा। अब आद्रककुमार को पुनः दीक्षा लेने को उद्यत हुए जान श्रीमती चर्खा लेकर सूत कातने लगी। जब बालक पाठशाला से आया तो उसने अपनी माँ को चर्खा कातते देख पूछा-“मां ! यह क्या कर रही हो?" श्रीमती ने कहा-"बेटा ! तू अभी छोटा बच्चा है । तेरे पिता हम सब को छोड़कर दीक्षा लेने जा रहे हैं । अत: मेरे लिए अब यह चरखा ही आजीविका का एकमात्र सहारा है।" बालक ने कहा-"मां ! तुम चिन्ता न करो। मैं अपने पिताजी को जाने नहीं दूंगा, बांधे रखूगा ।" यों कहकर मां ने सूत की जो आंटी बनाई थी, उसे लेकर वह पिता के पैर के चारों ओर सूत लपेटता जाता और कहता जाता-“देखो मां ! मैं पिताजी को बांधे रखता हूँ। जाने नहीं दूंगा।" बालक के रहस्यमय वचन सुनकर आद्रककुमार ने सोचा-'यदि मैं इस बच्चे को बिलखता एवं निराधार छोड़कर चला जाऊंगा तो इसके कोमल हृदय को आघात पहुँचेगा, इसे बहुत दुःख होगा । अतः सूत के जितने तार होंगे, उतने वर्ष और गृहस्थी में रहूँगा।' किसी उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है इश्क के घाट किसी को न संभलते देखा। अच्छों अच्छों का यहां पांव फिसलते देखा। सूत के तार गिने तो पूरे बारह निकले। अतः आर्द्रककुमार ने श्रीमती से कहा-“मैं अभी बारह वर्ष और रहूँगा।" एक-एक करके १२ वर्ष पूर्ण हो गये। अतः उसने पुनः दीक्षा ले ली। आद्रककुमार के साथ जो ५०० सुभट थे, उन्होंने भी धर्मदेशना सुनकर संसार विरक्त होकर दीक्षा ले ली। तत्पश्चात् उन ५०० मुनियों सहित आद्रक मुनि ने राज For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमराग मे बढ़कर कोई बन्धन नहीं ११६ गृही नगरी में प्रभु महावीर का पदार्पण सुनकर उस ओर विहार किया। रास्ते में गोशालक मिला। उसके साथ आर्द्र कमुनि की चर्चा हुई । उसमें गोशालक को उन्होंने निरुत्तर कर दिया। आगे बढ़े तो एक हाथी आर्द्र कमुनि को देखकर साँकल तुड़ाकर भागा। लोगों में भगदड़ मच गई । अन्त में हाथी आद्रकमुनि के चरणों में सूड से नमस्कार करके जंगल में चला गया। यह चमत्कार देखकर सभी लोगों में मुनि की प्रसिद्धि होने लगी। राजा श्रेणिक तथा अभयकुमार मंत्री आदि राजदरबारियों सहित मुनि के वन्दनार्थ आये । वे नमस्कार करके मुनि से पूछने लगे-"मुनिवर ! हाथी बन्धन से कैसे मुक्त हुआ ?" ___मुनि ने अपने पूर्वानुभव के आधार पर कहा-हाथी को जंजीर तोड़नी दुष्कर नहीं लगी, लेकिन मुझे सूत के बारह तार तोड़ने बहुत दुष्कर लगे।" इस पर राजा ने पूछा-"यह कैसे ?" मुनि ने अथ से इति तक अपना सारा वृत्तान्त कहा जिसे सुनकर राजा और अभयकुमार दोनों को बहुत ही प्रसन्नता हुई। आद्रक मुनि वहाँ से भगवान महावीर के पास पहुँचे । उन्हें वन्दना नमस्कार करके उनकी सेवा में रहकर उग्र तपस्या की और कर्मक्षय करके रागद्वषमुक्त होकर एक दिन वे मोक्ष पहुँचे। यह है प्रेमराग के बन्धन में पड़ने और उससे मुक्त होने का ज्वलन्त उदाहरण ! इसीलिए बंधन दो प्रकार का बताया गया है पडिक्कमामि दोहिं बंधणेहि-रागबंधहिं दोसबंधणेहिं । -भगवन् ! दो प्रकार के बन्धनों से प्रतिक्रमण करता हूँ-राग के बन्धन से और द्वष के बन्धनों से। प्रेमराग कहें या स्नेहराग दोनों के बन्धनों की तासीर एक सरीखी होती है। योगी का प्रेमरागविहीन हृदय जहाँ अपने अधीन होता है, वहाँ वह रागादि शत्रुओं द्वारा आक्रान्त होने पर पराधीन हो जाता है। वस्तुतः देखा जाये तो आसक्ति, मूढ़स्नेह, मोह, मूर्छा इत्यादि के कारण ही प्रेमराग गाढ़बन्धनकारक बन जाता है । इससे बड़े-बड़े योगी लोग भी पराधीन और दुःखी बन जाते हैं, अपनी वर्षों की साधना को चौपट कर देते हैं। - कई लोग यह मानते हैं कि गृहस्थ में रहने से प्रमराग के बन्धन बहुत दृढ़ हो जाते हैं, इसलिए साधु बन जाना या गृहत्याग कर देना चाहिए, ताकि ये बन्धन नष्ट हो जाये, परन्तु यह भ्रम है । साधु बन जाने मात्र से या वेष परिवर्तन कर डालने अथवा गृहत्याग कर देने मात्र से ही प्रेमराग के बन्धन कम हो जायेंगे, ऐसी बात नहीं है । अगर व्यक्ति गृहत्याग के साथ-साथ राग, स्नेह, आसक्ति, मोह-ममता आदि का त्याग कर लेता है या उसने गृहपरित्याग के गम्भीर अर्थ को हृदयंगम कर लिया है, १. आवश्यकसूत्र, श्रमणसूत्रपाठ । For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आनन्द प्रवचन : भाग ११ पारिवारिक बन्धनों को तोड़कर समस्त संसार को अपना कुटुम्ब मानते हुए भी उससे अनासक्त, निर्लिप्त, तटस्थ रह सकता है, वही प्रमराग के बन्धन को तोड़ने में समर्थ हो सकता है । केवल परिस्थितियों के परिवर्तन से प्र ेमराग नष्ट नहीं हो जाता, उसके लिए मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है । जैसाकि नीतिकार कहते हैंवनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तपः । अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्त्तते, निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥ - जिनके मन में राग होगा उनके मन में वन में रहने पर भी दोष प्रादुभूत होंगे और पंचेन्द्रियनिग्रह (मनोविजय ) करने पर घर में भी तप हो जायेगा । जो अनिन्दित (शुभ) कार्य में प्रवृत्त होता है, उस रागरहित व्यक्ति के लिए घर वन बन जायेगा । तपो महाभारत में भी रागादि बन्धन का अचूक प्रभाव बताते हुये कहा है तिष्ठेद् वायुद्र' वेदग्निज्वंलेज्जलमपि क्वचित् । तथापि ग्रस्तो रागाद्यं नप्तो भवितुमर्हति ॥ ' - हवा अगर सर्वत्र संचरण करना छोड़कर एक जगह स्थिर हो जाये, अग्नि जलाने के बदले स्वयं पिघलकर पानी बन जाय, अथवा जल भी शीतल होने के बदले स्वयं जलने लग जाये, तो भी राग आदि बन्धनों (विकारों) के रहते कोई भी व्यक्ति आप्त ( वीतराग - सर्वज्ञ महापुरुष ) नहीं हो सकता । जड़भरत की मृगशावक पर आसक्ति, बन्धन बनी — उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि राग का कारण समनोज्ञ (पदार्थ) होता है और द्वेष का कारण अमनोज्ञ पदार्थ । अज्ञानी जीव तो राग और द्वेष के वश होकर विविध पाप किया करते ही हैं, ज्ञानी और गृहत्यागी भी कभी-कभी अज्ञानी जीवों की तरह राग- बन्धन या आसक्ति बन्धन में अथवा स्नेहपाश में बुरी तरह जकड़ जाते हैं । 3 श्रीमद्भागवत् पुराण में जड़भरत का आख्यान आता है कि वे गंडकी नदी के किनारे जंगल में एक कुटी में रहते थे। आसपास चारों ओर जंगल था । प्रकृति की छटा और छवि अनोखी थी । एक दिन जब वे नदी में स्नान करके वापस लौट रहे १. महाभारत शान्तिपर्व २. रागस्स हेऊं समणुन्नमाहु दोसस्स हेऊं अमणु लमाह । ३. राग दोसस्सिया बाला पापं कुव्वंति ते बहु । ४. 'नेहपासा भयंकरा' For Personal & Private Use Only -उत्तरा० ३२/३६ - सूत्रकृतांग ८/८ - उत्तराध्ययन २३ /४३ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमराग से बढ़कर कोई बन्धन महीं १२१ थे तो एक हिरन के बच्चे को नदी के पास ही एक नाले में छटपटाते देखा। वह मृगशावक अकेला था, उसकी मां या और कोई हिरन उसके पास नहीं था । जड़भरत ने उसे ऐसी दुर्दशा में देखा तो उन्हें उस पर दया आगई । वे उसे उठाकर अपनी कुटी पर ले आये । यहाँ तक तो ठीक था। परन्तु अब वे उसकी कोमल पीठ पर हाथ फिराते, उसे नहलाते-धुलाते, उसे खिलाते, उसकी क्रीड़ा देखते । जड़भरत का उस मृग-छोने पर इतना अधिक स्नेह हो गया कि रात-दिन वे उसी उधड़ेबुन में रहने लगे। आसक्तिमूलक प्रेमराग का बन्धन उन्हें बन्धन नहीं मालूम होता था । जड़भरत की उस पर इतनी अधिक ममता-मूर्छा या आसक्ति हो गई कि उन्होंने अपनी सब साधनासन्ध्या, उपासना, जप-तप, परमात्म-वन्दना आदि ताक में रख दी। इस प्रकार जड़भरत ने मृगासक्त होकर अपना पतन कर लिया। कहते हैं, वे मरकर मृग की योनि में पैदा हुए। महाभारत में स्पष्ट बताया है कृपयाऽपि कृतः संगः पतनायव योगिनाम् । इति संदर्शयन्नाह भरतस्यैण-पोषणम् ॥' -दयावश की हुई आसक्ति भी योगियों के लिए पतनकारक ही होती है। जड़भरत का मृग-पोषण भी इसी बात को सिद्ध करता है । आसक्ति छोड़े बिना सुख नहीं-श्री शुभचन्द्राचार्य ने आसक्ति को समस्त अनर्थों की जड़ माना है । वे कहते हैं संग एव मतः सूत्रे, निःशेषानर्थमन्दिरम्। -धर्मशास्त्रों में संग (आसक्ति) को ही समस्त अनर्थो का घर माना है। भागवत में एक दृष्टान्त देखकर इसे समझाया गया है कि एक कुरर पक्षी मांस का टुकड़ा लेकर उड़ा । उसके पीछे कौए आदि कई पक्षी लग गये। अन्त में हार-थककर उसने वह मांसपिण्ड छोड़ा और शान्ति से एक वृक्ष पर बैठा । दत्तात्रेयजी ने उसे गुरु मानते हुए यह शिक्षा ली है कि जब तक आसक्तिरूपी मांस का टुकड़ा नहीं टूटेगा, वहाँ तक क्रोध आदि कौए पिण्ड नहीं छोड़गे और सुख-शान्ति प्राप्त नहीं होगी। आसक्ति का बन्धन आत्मज्ञान को ले डूबा-श्री शंकराचार्यकृत एक प्रश्नोत्तरी भी इस सम्बन्ध में प्रकाश डालती है कस्मात् सौख्यं भवति भगवन् ? शान्तितः सा च कस्माच, घेतःस्थर्यात, स्थितिरजनि मनः कस्य ? यः स्यानिराशः। मैराश्यं 4 मिलति च कप ? यन नासक्तिरन्तः, साऽनासक्तिविलसति कुतो ? यस्य बुद्धौ न मोहः ॥ भगवन् ! सुख किससे मिलना है ? शान्ति से। शान्ति किससे प्राप्त होती १. महाभारत, शान्तिपर्व २१५/४ टीका For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ . है ? चित्त की स्थिरता से । मन किसका स्थिर होता है ? जिसके आशा नहीं है। आशा से छुटकारा कैसे मिलता है ? अन्तर् में आसक्ति न होने से। अनासक्ति कैसेकहाँ से मिलती है ? जिसकी बुद्धि में मोह नहीं होता। . वैदिकपुराण की एक कथा है—एक बार काकभुशुण्डि के मन में यह जानने की इच्छा हुई कि क्या संसार में ऐसा कोई दीर्घजीवी व्यक्ति है, जो विद्वान् तो हो, पर उसे आत्मज्ञान न हुआ हो ? वे इस बात का पता लगाने महर्षि वशिष्ठ से आज्ञा लेकर चल पड़े। . ग्राम, नगर, वन, कन्दरा और आश्रमों की खाक छानी तब कहीं विद्याधर नामक ब्राह्मण से उनको भेंट हुई । जिनकी आयु ४ कल्प की हो चुकी थी, तथा जिन्होंने सम्पूर्ण वेदों का सांगोपांग अध्ययन किया था। शास्त्रों के श्लोक उन्हें ऐसे कण्ठस्थ थे, जैसे तोते को राम-नाम । किसी भी शंका का समाधान वे झटपट कर देते थे। काकभुशुण्डि को उनसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई । पर उन्हें आश्चर्य हुआ कि इतने विद्वान् होने पर भी लोग उन्हें आत्मज्ञानी क्यों नहीं कहते ? यह जानने के लिए काकभुशुण्डि चुपचाप विद्याधर के पीछे घूमने लगे । एक दिन विद्याधर नीलगिरि पर्वत पर वन विहार का आनन्द ले रहे थे, तभी उन्हें कण्वद राजा की राजकन्या आती दिखाई दी। नारी के सौन्दर्य से विमूढ़ विद्याधर प्रकृति के उन्मुक्त आनन्द को भूल गये । कामावेश ने उन्हें इस तरह दीन कर दिया, जैसे मणिहीन सर्प । वे इस सूत्र को भूल गये कि स्नेहक्षयात केवलमेति शान्तिम-एकमात्र स्नेहबन्धन (आसक्ति) का क्षय करने से ही शान्ति प्राप्त होती है। कामासक्ति ने उनकी मानसिक शान्ति भंग कर दी। वे राजकन्या के पीछे इस तरह चल दिये जैसे मृत पशु की हडिडयाँ चाटने के लिए कुत्ता । उस समय उन्हें न शास्त्र का भान रहा और न ही पुराण का। उनकी बुद्धि में मोह ने डेरा डाल दिया था। श्री अमृत काव्यसंग्रह इस सम्बन्ध में सुन्दर प्रेरणा देता है इण मोहजाल मांही बीत्यो है अनन्तकाल, नाना योनि मांही कष्ट सह्या है अपार रे । क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेषवश जीव, पायो दुःख अनन्त न छोड़त गंवार रे॥ आपा को विसार पर-गुण में मगन होय, बांधत करम नहीं करत विचार रे। अमीरिख कहे छोड़ सकल जंजाल भव्य ! धार सीख वेगा जाग, हो हुश्यार रे ॥ १. उपदेशमाला २, श्री अमृत काव्यसंग्रह, शिक्षा बावनी, घनाक्षरी छन्द For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र मराग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं १२३ भावार्थ स्पष्ट है। मोहावृत होने के कारण विद्याधर विप्र को यह भान ही न रहा कि राजकन्या मुझसे उपेक्षा कर रही है, और मैं आसक्ति में बंधा उसके पोछे-पीछे भागा ही जा रहा हूँ। वर्तमान युग में भी अनेक प्रेमी मजनू इकतरफा प्रेम (प्रणय) की उत्कटता में भीगे रहते हैं, दूसरी तरफ से प्रेम का छींटा भी नहीं होता, पर वे इस भ्रम में रहते हैं कि मैं जिसे प्रेम (मोह) करता हूँ वह भी मुझसे प्रेम करती है । बह प्रेमरागान्ध व्यक्ति मानी हुई प्रेमिका के हर व्यवहार, वाणी और हावभाव को प्रणय का.चिह्न समझता है । वह प्रेम का इकरार समझकर भयंकर भूल कर बैठता है। वर्तमान युवामानस में प्रेमराग का उन्माद, प्रणय की मिथ्या भ्रान्ति और प्रणय चिह्न का भ्रम तेजी से फैलता जा रहा है । जब उसे धक्का लगता है, तभी वह चेतता है; अन्यथा मोहान्ध बना हुआ युवक बुद्धिभ्रष्ट हो जाता है । विद्याधर को भी प्रणय भ्रम हो गया और पागल बने उस राजकन्या के पीछे जब बेधड़क राजमहल के द्वार तक पहुँच गये, तब सिपाहियों ने उन्हें विक्षिप्त समझकर कारागृह में डाल दिया। .. कारागृह के बन्धन में पड़े हुए विद्याधर से काकभुशुण्डि ने पूछा-"विप्रवर! आप इतने विद्वान् होकर भी यह न समझ सके कि आसक्ति ही आत्मज्ञान का बन्धन है । यदि आप कामासक्त न होते तो आपकी ऐसी दुर्दशा क्यों होती।" यह सुनकर विद्याधर विप्र के ज्ञाननेत्र खुले, मोह का नशा उतरा और उन्हें सच्चा आत्मज्ञान हो गया । उत्तराध्ययन में स्पष्ट कहा है दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो। -जिसके मन में मोह नहीं होता, उसका दुःख नष्ट हो गया समझो। प्रेमराग का बन्धन तोड़ डालो–साधुओं को पंचेन्द्रिय-विषयों के राग-द्वेष से मुक्त रहने का जगह-जगह उपदेश दिया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट निर्देश है विजहित्त पुव्वसंजोगं, न सिहं कहि चि कुत्विज्जा ।' वोछिद सिणेहमप्पणो, कुमुअंसारइयं व पाणियं । असिणेह सिणेहकरेहि। ---'अर्थात् पूर्वसंयोग का त्याग कर चुकने पर किसी भी वस्तु पर स्नेह (आसक्ति) न करे। _ 'कमलपत्र की भाँति तू निर्लेप बन, यहाँ तक कि अपने शरीर और अपनों के प्रति भी स्नेह (आसक्ति) का त्याग कर दे।' 'जो तेरे साथ स्नेह करे उनके साथ भी निःस्नेह भाव से रह ।' १. उत्तरा० ३२/८ ३. उत्तरा० १०/२८ २. उत्तरा० अ०८/२ ४. उत्तरा० ८/२ For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ परन्तु एक बात प्रायः देखने में आती है, जो श्रीमद्भागवत में अभिव्यक्त है स्नेहानुबन्धो बन्धूना मुनेरपि सुदुस्त्यजः' -स्वजनों का स्नेहबन्धन तोड़ना मुनियों के लिये भी अत्यन्त दुष्कर है। परन्तु कुछ ऐसे सुदृढ़ धातु के साधक होते हैं, जिन्हें मोह, प्रेमराग, भासक्ति, स्नेह या ममता-मूर्जा का बन्धन बिलकुल जकड़ नहीं सकता। प्रसेनजित राजा की पुत्री राजकुमारी विपुला राजोद्यानभ्रमणार्थ निकली थी। केसरिया वस्त्र के साथ सुनहरी चोली पहने राजकुमारी का सौन्दर्य कुमुदिनी को भी हतप्रभ कर रहा था। कानों में कर्णशोभन, वक्षस्थल पर मणिमाला और ग्रीवा में रत्नजटित स्वर्णहार, ये सब मिलकर उसकी रूपराशि में वृद्धि कर रहे थे । राजकुमारी के सौन्दर्य की चर्चा उस सारे जनपद में फैल गई थी। इधर प्रातःकाल की पीयूष वेला में राजोद्यान में स्थित भिक्षु नागसमाल सरस्वती वन्दना में निमग्न थे । वीणा की झंकार से सारा राजोद्यान भाव-विभोर हो रहा था । भैरवीराग सुनने के लिये राजकुमारी भी स्वर-मुग्ध होकर उसी तरह निकट चली आ रही थी, जिस तरह स्वरप्रेमी मृग आ जाता है। विपुला स्फटिक शिला पर बैठकर उन अमृतमय स्वर लहरियों का पान करती-करती भावविभोर हो उठी । उससे पैरों में बिजली की-सी चपलता आ गई, वे मचलने लगे, वीणा के स्वर के साथ पायलों की ध्वनि ने एकाकार होकर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। ___ न रुकती थी वीणा की संगीतधारा प्रवाहित करने वाली नागसमाल की उंगलियां और न थमना चाहते थे राजकुमारी के थिरकते पांव। सूर्य एक बांस ऊपर चढ़ आया। महाराज प्रसेनजित भी रानी मल्लिका के साथ वहाँ आ पहुँचे । महापण्डित नागसमाल, जो अब तक सच्चिदानन्द की रसानुभूति में डूबे थे, महाराज प्रसेनजित को सामने देखते ही रुक गये। वीणा की तान टूटते ही पांवों की थिरकन बन्द हो गई । भावविभोर विपुला ने आगे बढ़कर वक्षस्थल पर पड़ी माला निकाली और चीवरधारी भिक्षु नागसमाल के गले में डाल दी। भिक्षु ने स्थितप्रज्ञ की भाँति वह माला गले में से निकालकर एक ओर रख दी। राजा की ओर देखकर वे बोले-"आर्य ! कुशलमंगल तो है न ?" "सब कुशलमंगल हैं, स्वामिन् ! किन्तु आपने राजकुमारी द्वारा आपके गले में डाली हुई वरमाला क्यों निकाल फेंकी ? आप जानते हैं, भारतीय कन्या जिसके गले में वरमाला डाल देती है, फिर उसके लिए वही आजीवन पति रहता है । फिर वह किसी और को नहीं वरण करती। इसलिये अब तो आपको मेरी रूपवती कन्या के साथ विवाह करना ही पड़ेगा।" १. श्रीमद्भागवत १०/४७/५ For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमराग से बढ़कर कोई बन्धन नहीं १२५ नागसमाल ने हंसकर कहा-"महाराज ! साधु-संन्यासी और लोकसेवक के लिये जनता ही पति है। मैंने स्वपरकल्याण एवं लोकहित के लिये यह वेष धारण किया है । क्या आप चाहते हैं कि मैं अपने स्वीकृत पथ से भ्रष्ट हो जाऊँ ?" __ “सोच लो, महात्मन् !” राजा के स्वर में कुछ तीखापन और कुछ याचना का भाव भी था-"हम आपको आधा राज्य भी देंगे। आपको राजकुमारी के भरणपोषण के लिये कुछ भी चिन्ता नहीं करनी पड़ेगी।" सौन्दर्य का प्रलोभन और धमकी भरा भय-दोनों ही नागसमाल को विचलित न कर सके। बन्धनों से प्रीति कैसी ? बन्धनों से प्रीति कैसी? हम शलभ जलने चले हैं, अस्तित्व निज खोने चले हैं। दीप पर जलना हमें है, दाह की फिर भीति कैसी? सिन्धु से मिलने चले हैं, सर्वस्व निज देने चले हैं। अतल से मिलना हमें है, शून्य तट पर दृष्टि कैसी? दीप बन जलना हमें है, विश्व-तम हरना हमें है । ध्येय तिल-तिल जलन का है, कालिमा से भीति कैसी ? नागसमाल राजा को अपने जाने का संकेत करके वीणा उठाकर उसी तरह चल पड़ता है, जैसे मृगों के बीच में से सिंह निकलता है । धीरे-धीरे कदम वह बढ़ाता हुआ राजोद्यान से बाहर निकल गया। यह है, प्रेमराग के बन्धन से दूर रहकर रागबन्धन तोड़ने की प्रेरणा देने वाला ज्वलन्त उदाहरण ! रागमुक्त भगवान् अरिष्टनेमि द्वारा राजीमती को प्रेमराग बन्धन तोड़ने की प्रेरणा देने का भी ज्वलन्त उदाहरण प्रसिद्ध है। बन्धुओ! इसीलिये उत्तराध्ययनसूत्र (२६/३०) में इस बन्धन को तोड़ने से विशिष्ट फल-प्राप्ति का निर्देश किया गया है "अप्पडिबद्धयाए णं जीवे निस्संगतं जणयइ, निस्संगत्तेणं जीवे एगे एगग्गचित्ते दिया य राओ य असज्जमाणे अप्पडिबद्ध यावि विहरइ।" -अप्रतिबद्धता से निःसंगभाव आता है। निःसंगभाव से जीव एकाकी, एकाग्रचित्त तथा अहर्निश अनासक्त रहता हुआ अप्रतिबद्ध होकर विचरण करता है। आप भी महर्षि गौतम की पवित्र प्रेरणानुसार प्रेमराग को परमबन्धन समझकर इससे दूर रहने का प्रयत्न कीजिये, गृहस्थ में रहते हुए भी अनासक्त, रागरहित बनने का अभ्यास कीजिये। For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१ प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ। इस विश्व में आज लगभग तीन अरब मनुष्य होंगे । उनमें से अधिकांश लाभदृष्टि वाले लोग होंगे । चारों ओर नजर डालते हैं तो प्रायः फायदावादी' लोग दृष्टिगोचर होते हैं। फायदावादी लोगों की एक नीति होती है कि वे अच्छी उपलब्धि के लिए पुरुषार्थ चाहें करें या न करें, पर पहला सवाल उनके दिमाग में यही उठता है कि इस काम से क्या फायदा होगा ? जैसे रोगी के मन में वैद्य या डॉक्टर की दवा लेने के साथ ही यह विकल्प उठा करता है कि इस दवा से लाभ होगा या नहीं ? वैसे ही फायदावादी या लाभाकांक्षी लोगों की सबसे पहली दृष्टि लाभ पर ही पड़ती है । आपको भी शायद व्यापारी होने के नाते लाभ की बात ही सुहाती होगी। बिना लाभ के कौन-सी बात और कौन-सा व्यापार ? हाँ, तो महर्षि गौतम भी आपको इस जीवनसूत्र में सबसे बड़े लाभ की बात बता रहे हैं । गौतमकुलक का यह ५४वाँ जीवनसूत्र है। इसका अक्षरशरीर इस प्रकार है न बोहिलाभा परमत्थि लामो -बोधिलाभ से बढ़कर संसार में कोई लाभ नहीं। बोधिलाभ के मुख्य अर्थ व्यापक दृष्टि से बोधिलाभ के कई अर्थ प्रतिफलित होते हैं । जैन शास्त्रों का मंथन करने के पश्चात् हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बोधिलाभ जैनधर्म का विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है। इसी सन्दर्भ में बोधिलाभ के यहाँ पाँच अर्थ प्रतिफलित होते हैं (१) सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का लाभ (२) आत्मबुद्धि (निश्चय सम्यग्दृष्टि) का लाभ (३) सम्यग्दर्शन या सम्यग्दृष्टि का लाभ (४) व्यवहार सम्यग्दृष्टि का लाभ (५) सद्बोध (सच्ची समझ) का लाभ अब हम क्रमशः इनके अर्थ और साथ ही इनकी दुर्लभता का वर्णन कर रहे हैं। For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१ १२७ रत्नत्रय-लाम की दुर्लभता : क्यों ? बोधिलाभ का प्रथम अर्थ है-रत्नत्रय का लाभ । जीवन का आध्यात्मिक विकास बोधि या सम्बोधि की प्राप्ति के बाद सहज ही होने लगता है । बोधि की प्राप्ति के बिना कोई भी व्यक्ति यह चाहे कि मैं वास्तविक आत्मोन्नति या आध्यात्मिक विकास कर लू', यह असम्भव है। इस दृष्टि से बोध शब्द से यों तो सम्यक्त्वसहित सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र-ये तीनों ही सम्यक रूप में गृहीत होते हैं। इन्हीं को जैनशास्त्रों में रत्नत्रय कहा गया है, मोक्षमार्ग भी। इसलिए बोधि को हम मोक्षमार्ग या मोक्षद्वार कह सकते हैं। मोक्ष में प्रवेश करने या मोक्ष तक जाने के लिए यदि द्वार या मार्ग न मिले तो साधक कितना भटक सकता है, हैरान हो सकता है ? इसकी कल्पना सहज ही आप कर सकते हैं । आध्यात्मिक विकास का लाभ मानवजीवन में सबसे बड़ा लाभ है। ___ क्या आप बता सकते हैं कि इस जीव (आत्मा) को रत्नत्रयरूप बोधि कब प्राप्त होती है ? कितनी योग्यता हो, तब ऐसा बोधिलाभ होता है ? जैसे-किसी व्यक्ति को एम०ए० या एल-एल० बी० की डिग्री प्राप्त करनी हो तो उसके लिए पाठ्यक्रमानुसार उतना अध्ययन करना और परीक्षा देकर उत्तीर्ण होना आवश्यक है वैसे ही रत्नत्रयरूप बोधिलाभ के लिए भी उतनी योग्यता हासिल करना आवश्यक है। जैन सिद्धान्त की भाषा में कहूँ तो विभिन्न गतियों और योनियों में भटकते-भटकते एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक उत्तरोत्तर विकास करते जब पंचेन्द्रिय और उसमें भी संज्ञी पंचेन्द्रिय, साथ ही मनुष्य योनि में आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, पंचेन्द्रियपूर्णता, नीरोगता, दीर्घायुष्कता, आदि सब घाटियाँ पार होने के बाद भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति, फिर सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति । कितना दुष्कर है, बोधि को पाना । आकाश के तारे तोड़ लाने की अपेक्षा भी बोधि पाना दुर्लभतर है । 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' नामक ग्रन्थ में बोधिदुर्लभ-अनुप्रक्षा (भावना) का वर्णन करते हुए रत्नत्रयरूप बोधि क्यों दुर्लभ है, यह स्पष्ट रूप से बताया गया है यह जीव (सर्वप्रथम) अनादिकाल से लेकर अनन्तकाल तक तो निगोद (अनन्तकायिक) जीवों में रहता है। वहाँ से निकलकर कदाचित् पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय जीव का पर्याय प्राप्त करता है। निगोद से पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रियं जीव-पर्याय प्राप्त करना भी दुर्लभ है । वहाँ पृथ्वीकाय आदि में भी सूक्ष्म और बादर कायों में असंख्येय काल तक जीव १. नित्यनिगोद में अनादिकाल से अनन्तकाल तक जीव का वास होता है। वहाँ एक ही शरीर में अनन्तानन्त जीव एक साथ ही आहार, श्वासोच्छ्वास और जीवनमरण करते हैं । उनका आयुष्य एक श्वास के १८वें भाग जितना है। -संपादक For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ मानन्द प्रवचन : भाग ११ भ्रमण करता है। वहाँ से निकलकर (स्थावरत्व से मुक्त होकर) त्रसत्व (त्रसपर्याय) अत्यन्त कष्ट से प्राप्त होने के कारण चिन्तामणि प्राप्त करने की तरह दुर्लभ है।' स्थावर पर्याय में से निकलकर प्रसपर्याय प्राप्त करने पर भी कदाचित वहाँ भी द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियरूप विकलेन्द्रियत्व को प्राप्त करले तो भी वहाँ उत्कृष्टतः करोड़ पूर्व तक जीव रहता है । वहाँ (विकलेन्द्रिय) से निकलकर पञ्चेन्द्रियत्व प्राप्त करना महाकष्टकारक होने से अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि विकलेन्द्रिय में से फिर स्थावर काय में उत्पन्न हो जाये तो वह जीव वहाँ फिर बहुत काल तक उस पर्याय में रहता है, इस दृष्टि से पंचेन्द्रियत्व की प्राप्ति अति दुर्लभ बताई है। विकलेन्द्रियत्रय में से निकलकर कदाचित् जीव पंचेन्द्रिय हो जाये तब भी वह असंज्ञी-मन से रहित होता है; असंज्ञी जीव स्व-पर का भेद नहीं जानता यानी संज्ञीपन दुर्लभ होता है। कदाचित् संज्ञी-मनसहित-भी हो जाये तो वह तिर्यच होता है अर्थात् सिंह, सर्प, मत्स्य, उल्लू आदि होता है जिसके परिणाम निरन्तर पापरूप रहते हैं। कर तिर्यच होता है तो वह जीव तीव्र अशुभ परिणामवश अशुभलेश्या सहित मरकर नरक में-महादुःखदायक एवं भयानक नरक में जाता है; जहाँ शारीरिक एवं मानसिक प्रचुर तीव्रतर दुःख भोगता है। वह नरक में से निकलकर तियंचगति में उत्पन्न होता है। वहाँ भी पापकर्म के उदय से जीव अनेक प्रकार के दुःख सहन करता है । तियंच में से निकलकर मनुष्य गति पाना अतीव दुलर्भ है जैसे चौराहे (चतुष्पथ) के बीच में किसी का रत्न गिर जाए तो महाभाग्य हो तभी वह हाथ में भाता है, इसी प्रकार चार गतियों के बीच में मनुष्यत्व (मनुष्यजन्म) रूपी रत्न हाथ आना दुर्लभ है । फिर ऐसा दुर्लभ मनुष्यशरीर पाकर भी जीव मिथ्यादृष्टि होकर पापकर्म उपार्जित करता है । अर्थात्-कदाचित् बह जीव मनुष्य भी हो जाये, तब म्लेच्छखण्ड (अनार्य क्षेत्र) में जन्म लेकर मिथ्यादृष्टियों का संग पाकर फिर वह पापकम करता है।' कदाचित् मनुष्य-पर्याय पाकर आर्यक्षेत्र भी पा जाये फिर भी उत्तम गोत्र एवं कुल प्राप्त नहीं कर पाता। कदाचित पुण्य की प्रबलता से उत्तमकुल में जन्म ले भो ले तो भी निधन (दरिद्र) होता है, उसके हाथ से कोई भी सुकृत्य नहीं होता, इस कारण पाप में ही जीवन बिताता है। १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, श्लोक २८४ ३. वही, २८७ ५. वही, २८६ ७. वही, लोक २६१ २. वही, श्लोक २८६ ४. वही, २८८ ६. वही, श्लोक २६. For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१ १२६ .. कदाचित् धनाढ्य भी हो जाये तब भी इन्द्रियों की परिपूर्णता पाना अतीव दुर्लभ है । अगर इन्द्रियाँ भी परिपूर्ण मिल जायें तो भी शरीर का नीरोग रहना दुर्लभ है; किसी न किसी रोग से शरीर ग्रस्त रहेगा।' कदाचित् शरीर नीरोग भी रहे तो भी दीर्घायु प्राप्त नहीं कर पाता। अथवा कदाचित् दीर्घायु भी पा जाये, तब भी शील (भद्रस्वभाव) नहीं प्राप्त कर पाता, इस कारण उत्तमचरित्र बनना कठिन होता है । कदाचित् उत्तमशील (सदाचार) से युक्त हो भी जाये, तब भी साधुपुरुषों की संगति नहीं प्राप्त कर पाता। उसे भी कदाचित् पा ले तो भी वहां सम्यक्त्वसम्यग्दर्शन पाना अतीव दुर्लभ है। कदाचित् सम्यक्त्व प्राप्त हो भी जाये, किन्तु फिर भी यह जीव चारित्र ग्रहण नहीं कर पाता । कदाचित् चारित्र भी ग्रहण कर ले तो भी उसका निरतिचार (निर्दोष) रूप से पालन नहीं कर सकता। कदाचित् वह जीव रत्नत्रय भी प्राप्त कर ले, किन्तु उसे पाकर भी तीव्र कषाय करे तो उसका रत्नत्रय नष्ट हो जाता है। इस कारण वह दुर्गति में जाता है। जैसे महासमुद्र में गिरा हुआ रत्न पुनः प्राप्त होना दुर्लभ होता है, वैसे ही यह मनुष्य-जन्म पाना दुर्लभ है, यह दृढ़ विचार करके मिथ्यात्व और कषाय को छोड़ो। कदाचित् कोई जीव दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर शुभ भावों से देवत्व भी प्राप्त कर ले, तो भी वहाँ चारित्र और तप प्राप्त नहीं कर सकता, तथा देशव्रतश्रावकव्रत तथा शीलवत (तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत) को लेशमात्र भी प्राप्त नहीं कर पाता। हे भव्यजीव ! इस मनुष्यगति में ही तपश्चरण हो सकता है, मनुष्यगति में ही समस्त महाव्रत-पालन हो सकता है, इस मनुष्यगति में ही धर्मध्यान-शुक्लध्यान होता है तथा मनुष्यगति में ही निर्वाण-मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। इस प्रकार का दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर जो मनुष्य इन्द्रिय-विषयों में रमण करता है, वह इस दिव्य अमूल्य रत्न को पाकर भस्म (राख) के लिए इसे जला डालता है। १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, २६२ ३. वही, २६४ ५. वही, २६६ ७. वही, २६८ ६. वही, ३०० २. वही, २६३ ४. वही, २६५ ६. वही, २६७ ८. वही, २६६ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० आनन्द प्रवचन : भाग ११ - इस प्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय (बोधि) को दुर्लभातिदुर्लभ जानकर तथा इन सब दुर्लभताओं को समझकर इस संसार में रत्नत्रयरूप बोधि का महान् आदर करो, उसका आचरण करो।' : ये हैं रत्नत्रयलाभ की दुर्लभता में कारण ! सांसारिक भौतिक पदार्थों का मिलना इतना दुर्लभ नहीं है, जितना रत्नत्रय की प्राप्ति में निमित्तभूत मानवजन्म आदि का मिलना दुर्लभ है। आत्मबुद्धि की दुर्लभता : क्या और कैसे ? बोधिलाभ का दूसरा अर्थ-आत्मबुद्धि का लाभ है । आत्मबुद्धि के दो अर्थ हो सकते हैं (१) विश्व के सभी प्राणियों को आत्मीयता-आत्मौपम्य दृष्टि से देखने की बुद्धि । - (२) अपनी आत्मा को ही सर्वस्व समझकर उसे ही सभी पहलुओं से देखने की बुद्धि । अर्थात्- "मैं कौन हूँ ? क्यों हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? किसका हूँ ? किसलिए हूँ ? किस पर आधारित हूँ ? मेरा लक्ष्य क्या है ? मुझे कहाँ पहुँचना है ? मेरी आत्मा अभी कैसी परिस्थिति में है ? विषय और कषाय का घेरा कितना तोड़ा है, मेरी आत्मा ने ? मेरी आत्मशुद्धि में साधक-बाधक कौन-कौन-से तत्त्व हैं ? शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि मेरे आत्मविकास में कहाँ-कहाँ कितनी मात्रा में बाधक बनते हैं, उन्हें साधक कैसे बनाया जा सकता है ? हर्ष-शोक, हानि-लाभ, सुख-दुःख, शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों में आत्मावबोध या स्वरूपरमणता में मैं कितना टिक पाता हूँ?" इस प्रकार की आत्मबुद्धि होना वस्तुतः बोधिलाभ है । ऐसी आत्मबुद्धि इसलिये दुर्लभ है कि पहले बताये गये कारणों की दुर्लभता के साथ-साथ आत्मबुद्धि प्राप्त होने में राग, द्वेष, मोह, आसक्ति, पूर्वाग्रह, हठाग्रह, घृणा, ईर्ष्या आदि बाधक कारण आड़े आ जाते हैं, जिनके कारण आत्मबुद्धि की प्राप्ति, और प्राप्ति के बाद स्थिरता अत्यन्त दुर्लभ है । कई बार साधक बहिरात्मा बनकर अपने शरीर, मन, इन्द्रियविषयों, भौतिक पदार्थों में अत्यधिक लुब्ध हो जाता है । इसी कारण आत्मबुद्धि दुर्लभ है। मनुष्यजन्म, आर्यक्षेत्र, उत्तभकुल, पंचेन्द्रिय-परिपूर्णता, दीर्घायुष्कता, उत्तम सत्संग आदि कई दुर्लभ घाटियों को पार करने के बाद आत्मबुद्धि का पाना और उसे टिकाना कितना दुर्लभतर है ? यह आप समझ सकते हैं । आत्मबुद्धि जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है । इससे बड़ी उपलब्धि संसार में और कोई नहीं हो सकती। आज अधिकांश लोगों को मानव-जीवन की अन्य सामान्य १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, श्लोक ३०१ For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१ १३१ उपलब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, तब वे वहीं अटककर रह जाते हैं। अपने शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों की मोहमाया में, ममता-मूर्छा में अटककर, अपने जीवन को विषयभोगों, संयोगों-वियोगों, महत्त्वाकांक्षाओं, प्रदर्शनचेष्टाओं, सुखसुविधाओं को पाने की योजनाओं, और ऐसी ही अन्य गतिविधियों या विडम्बनाओं में नष्ट कर देता है । आत्मबुद्धि की सम्प्राप्ति तक नहीं पहुँच पाता। आत्मबुद्धिलाभविहीन व्यक्ति शरीर की साज-सज्जा, वस्त्राभूषण, स्वादिष्ट भोजन, ठाठ-बाट, सुख-सामग्री, डिग्री, पद, सत्ता, धन-सम्पत्ति, महल, प्रसिद्धि और वाहवाही की चकाचौंध में अपना अमूल्य समय, श्रम, शक्ति और मनोयोग बर्बाद करता रहता है। आत्मबुद्धि के बोध से हीन मानव अपने आपको शरीर मानकर सांसारिक सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों में उद्विग्न हो उठता है। उसकी हर परिस्थिति आशंका, असन्तोष, अशान्ति और उद्विग्नता से भरी रहती है । वह आत्मबुद्धि की दृष्टि से सही सोचकर सही निर्णय नहीं कर पाता। आत्मबुद्धि के अभाव में जीवन कितना उन्मार्गगामी हो जाता है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। आत्मबुद्धि के होने पर ही आत्मबोध होता है। आत्मबोध से लाभान्वित व्यक्ति लोकमूढ़ता में नहीं फंसता । वह अन्धकार का परित्याग करके प्रकाश को वरण करता है । वह अपने आपको आत्मा के रूप में अनुभव करता है, और शरीर को एक उपकरण मात्र । उसे सांसारिक पदार्थों का लोभ और मोह, मूर्खता ही नजर आती है । आत्मबोधयुक्त विवेकी गृहस्थ अपने परिवार को सुसंस्कारी, सुविकसित, मिष्ठ और कर्तव्यपरायण बनाने के लिये प्रयत्नशील रहता है। शरीर और मन को वह इन्द्रियों की दासता और तृष्णापूर्ति में न लगाकर, शरीर को आत्मगौरव बढ़ाने में और मन को आत्मकल्याण और आत्मचिन्तन में लगाये रखता है। आज हम दावे के साथ कह सकते हैं कि पहले बताई हुई दुर्लभताओं की घाटियां पार कर लेने के बावजूद भी आत्मबुद्धि का अभाव प्रायः सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा है, अन्यथा जनता में इतनी अशान्ति, बेचैनी, उद्विग्नता, शरीरासक्ति, धनमोह, सुख-सुविधाओं की वृद्धि का राग, त्याग-वैराग्य की कमी आदि न होती। वर्तमान युग के मानव का हृदय भी आत्मबुद्धि के अभाव में अन्धकाराच्छन्न है, उसे कोई यथार्थ स्थायी मार्ग नहीं सूझता। 'आत्मबुद्धिः सुखायैव' जो कहा है, वह बिलकुल यथार्थ है । आज का मानव प्रायः भौतिकबुद्धिपरायण हो रहा है। आत्मबुद्धि उसके लिए हिमालय की चोटी पर चढ़ने की तरह अत्यन्त दूरातिदूर और दुर्लभतर होती जा रही है। . ऐसी दुर्लभ आत्म-दृष्टि प्राप्त न होने पर कैसी स्थिति हो जाती है, इसे आचार्य बताते हैं वपुहं धनं दारा पुत्रमित्राणि शत्रवः । सर्वथाऽन्यस्वभावानि मूढ़ः स्वानि प्रपद्यते ॥ For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ -शरीर, गृह, धन, पत्नी, पुत्र, मित्र, शत्रु-ये सब निश्चयतः सर्वथा अन्य स्वभाव के होते हैं, परन्तु आत्मबुद्धिहीन मूढ़ इन्हें अपने समझता है। जिनकी दृष्टि में आत्मबुद्धि बस जाती है, वे सारे संसार का धन दे देने पर भी इस बोधिलाभ को नहीं छोड़ते । क्योंकि वे जानते हैं धनं भवेदेकभवे सुखार्थ, भवे-भवेऽनन्तसुखी सुदृष्टिः । धनेन हीनोऽपि धनी मनुष्यो यस्यास्ति सम्यक्त्वधनं महाय्यं ॥ -अर्थात् धन कदाचित् एक भव में सुख दे सकता है, परन्तु सुदृष्टि (आत्मबुद्धिरूपी बोधि) धन जिसके पास है, वह जन्म-जन्म में अनन्तसुखयुक्त है। जिसके पास सम्यक्त्व (बोधि) रूपी बहुमूल्य धन है, वह भौतिक धन से रहित होने पर भी महाधनिक है। महात्मा गांधीजी के पास कौन-सा धन था ? उनसे भी बढ़कर वैभवशाली तब भी दुनिया में थे, अब भी हैं, लेकिन महात्मा गांधीजी के पास सत्यनिष्ठा थी, जिसे प्राप्त करना हर एक के लिये दुष्कर, दुर्लभ है। महात्मा गांधीजी के लिये विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था-"गांधीजी में सबसे बड़ी विशेषता सत्यनिष्ठा है।" जिसे हम जैनपरिभाषा में सुदृष्टि (बोधि) कह सकते हैं। वे भौतिक वैभव के प्रति अनासक्त थे। "अगर अमेरिका की सारी सम्पत्ति उनके समक्ष रख दी जाये और उनसे सत्य का परित्याग करने के लिए कहा जाये तो गांधीजी उस विशाल सम्पत्ति को ठुकरा देंगे, मगर सत्य का परित्याग नहीं करेंगे।" कवि सम्राट रवीन्द्रनाथ के इन उद्गारों से सम्यग्दृष्टि के विचार और आचार की दृढ़ता की स्पष्ट झलक मालूम हो जाती है। आत्मबुद्धिरूप बोधि की दुर्लभता के लिए जैन इतिहास के प्राचीन पृष्ठ मैं आप सामने खोल रहा हूँ भगवान् ऋषभदेव जब मुनिदीक्षा लेने लगे थे, उससे पूर्व उन्होंने जनता को असि, मसि, कृषि—ये तीन मुख्य कर्तव्य सिखाये । उसे स्वावलम्बी बनने का यथार्थ पाठ सिखाया। अपने सबसे ज्येष्ठ पुत्र भरत को उन्होंने अयोध्या का राज्य दिया और दूसरे पुत्र बाहुबली को तक्षशिला का राज्य सौंपा। शेष ६८ पुत्रों को उन्होंने विभिन्न प्रदेशों का राज्य सौंप दिया। सबको राजनीति और राज्य-व्यवस्था सिखाई और कहा-"राज्य प्रजा की विशिष्ट सेवा के लिए स्वीकार किया जाता है, न कि भोग-विलास के लिए । राजा प्रजा की रक्षा के लिए होता है।" इस प्रकार भगवान् ने राज-पाट तथा धन-धाम, कुटुम्ब-कबीला आदि सबका परित्याग करके स्व-परकल्याण के लिए संयम ग्रहण किया। भगवान ऋषभदेव के संयम ग्रहण करने के बाद उनके सबसे बड़े पुत्र भरत के यहाँ चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। भरत समग्र भारतवर्ष को एक ही शासन के अन्तर्गत करना चाहते थे । अतएव उन्होंने अन्यान्य राजाओं पर तो अपना शासन स्थापित कर For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१ १३३ लिया । उनका विचार अपने भाइयों पर शासन चलाने का नहीं था, किन्तु अपने प्रधान के कहने से और आयुधशाला में चक्ररत्न के प्रवेश न करने से भरत को विवश होकर अपने भाइयों पर भी शासन करने का विचार करना पड़ा । तदनुसार भरत ने पहले अपने ६८ भाइयों के पास अपने शासन की अधीनता स्वीकार करने के लिए सन्देश भेजा। संदेश मिलते ही १८ भाई सोचने लगे-'राज्य हमें पिताजी ने दिया है। भरत हमें अपने शासन के अधीन बनाना चाहता है । भरत का शासन स्वीकार करना उचित है या युद्ध करना उचित है ? इस प्रकार की अनिश्चयात्मक स्थिति में हम पिताजी (भगवान्) के पास चलें और उनसे निर्णय करा लें। अगर वे युद्ध करने की सलाह देंगे तो वैसा किया जायेगा । अगर वे कहें कि भरत तुम्हारा बड़ा भाई है, समग्र देश को एक सूत्र में बांधने के लिए ही वह तुम पर शासन चलाना चाहता है तो हमें भरत की शासनाधीनता स्वीकार करने में भी कोई आपत्ति न होगी।' ऐसा सोचकर ६८ भाई मिलकर भगवान् ऋषभदेव के पास पहुँचे । उन्हें वन्दना-नमस्कार करने के पश्चात् वे जब उनके सान्निध्य में बैठे तो भगवान् ने उनकी सारी परिस्थिति जानकर जो उपदेश दिया था, वह बहुत ही संक्षेप में सूत्रकृतांग सूत्र में तथा भागवत पुराण में वर्णित है । सूत्रकृतांग सूत्र में भगवान् ऋषभदेव के उद्गार इस प्रकार अंकित हैं संबुज्मह, किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा । णो हुवणमंति राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥ इसका भावार्थ यह है-“हे पुत्रो ! सम्बोध प्राप्त करो, समझो, बोध क्यों नहीं प्राप्त करते । परलोक में सम्बोधि-प्राप्त करना निश्चय ही दुर्लभ है । जो समय व्यतीत हो चुका है, वह पुनः लौटकर नहीं आता। मनुष्य-जीवन बार-बार सुलभ नहीं है।" भगवान् ऋषभदेव के कथन का तात्पर्य यह था कि तुम यह समझो कि तुम्हें भौतिक राज्य चाहिए या आध्यात्मिक राज्य ? भौतिक राज्य मैंने तुम्हें सौंपा था, परन्तु वह पूर्ण स्वाधीन राज्य नहीं है, इसी कारण भरत तुम्हें अपने शासन के अधीन करना चाहता है । अगर तुम आध्यात्मिक राज्य (आत्मिक स्वतंत्रता) प्राप्त कर लो तो वह पूर्ण स्वाधीन होगा, उस पर किसी का शासन नहीं चल सकेगा, वह पूर्ण स्वतंत्र होगा । पूर्ण स्वाधीनता वाले आध्यात्मिक राज्य को प्राप्त करने का दृढ़ विचार ही बोधि प्राप्त करना है जो मुक्ति के राज्य में मनुष्य को पहुँचा देता है। अतः मेरी तुमसे यही सलाह है कि उस भौतिक राज्य को छोड़कर आध्यात्मिक राज्य को प्राप्त करने का दृढ़ बोध समझ लो, जिससे उस राज्य को प्राप्त करने पर दूसरा कोई तुम पर शासन न कर सके । यदि तुम यह कहो कि इस जन्म में तो इसी भौतिक राज्य को ही प्राप्त कर लें, अगले जन्म में आध्यात्मिक राज्य पाने की बोधि प्राप्त कर लेंगे, यह बहुत ही दुर्लभ है। कोई निश्चित नहीं है कि तुम्हें पुनः मनुष्य जन्म ही मिले, ऐसा बोधि पाने For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5:.. : १३४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ का उत्तम संयोग ही मिले । फिर जो अवसर या समय बीत जाता है, वह कभी लौट कर नहीं आता। इसलिए मनुष्य-जीवन पुनः प्राप्त होना सुलभ नहीं है। । श्रीमद्भागवत में भगवान् ऋषभदेव के उपदेश का सार यह है नायं देहो देहभाजां नृलोके, कष्टान् कर्मान् नार्हते विड्भुजाय। तपो दिव्यं पुत्र ! कायेन सत्त्वं, शुद्ध येद्यस्माद ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ॥ - "पुत्रो ! मनुष्य लोक में शरीरधारियों का यह नदेह (मनुष्य-शरीर) कष्टदायी कर्मों से प्राप्त भोग भोगने के लिए नहीं है । इस मनुष्य-शरीर से उत्तम दिव्य तप करने से सत्त्व (अन्तःकरण) की शुद्धि होगी और उससे फिर अनन्त ब्रह्मसौख्य प्राप्त होगा। भगवान् ऋषभदेव के कथन का तत्पर्य यह है कि मनुष्य-शरीर भौतिक पदार्थों के उपभोग से प्राप्त सुख के लिए नहीं है, अपितु इस शरीर से दिव्यतप (रत्नत्रयसाधनारूप तप) करके अनन्त ब्रह्मसुख (आत्मसुख) प्राप्त करने के लिए है। कहना न होगा, भगवान् ऋषभदेव के उपदेश से उनके १८ पुत्रों ने अनन्त जन्मों में दुर्लभतम सम्बोधि-लाभ (आत्मबुद्धि) का लाभ प्राप्त किया; और विरक्त होकर भगवान ऋषभदेव के चरणों में पूर्ण स्वाधीनता का आध्यात्मिक राज्य प्राप्त करने हेतु दीक्षा ले ली। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि आत्मबुद्धिरूप बोधि की प्राप्त कितनी मूल्यवान और दुर्लभ है। सम्यग्दृष्टि की दुर्लभता : क्या और क्यों ? . बोधिलाभ का तीसरा अर्थ है—सम्यग्दृष्टि या सम्यग्दर्शन का लाभ । यह प्राप्त होना भी अत्यन्त दुर्लभ है। तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन का अर्थ किया गया है तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम -तत्त्वरूप जो पदार्थ (जीव, अजीब आदि) हैं उन पर सम्यकश्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है। इसका विशद अर्थ यों किया जा सकता है, जिस पदार्थ का जो वास्तविक स्वरूप है, उसे उसी रूप में समझना और मानना तथा उस पर दृढ़ विश्वास करना । अर्थात्-जो हेय है, उसे हेय समझना, जो ज्ञय है उसे ज्ञय और जो उपादेय है, उसे उपादेय समझना। जो जैसा है, उसे उसी रूप में ग्रहण करने की तत्परता या जागृति रखना। ... सम्यग्दृष्टि न हो तो उस व्यक्ति का ज्ञान, चारित्र (आचरण) तप, जप या कोई भी क्रिया सम्यक् नहीं हो सकती । सम्यग्दृष्टि के अभाव में सारा ज्ञान मिथ्या . - For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१ १३५ ज्ञान है, सारा तप अज्ञान (बाल) तप है, सारा चारित्र कोरा. क्रियाकाण्ड है। उससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । एक विचारक कहते हैं विनककं शून्यगणा यथा वृथा, विनार्कतेजो नयने यथा वृथा। विना सुवृष्टि कृषिर्यथा वृथा, विना सुदृष्धि विपुलं तपस्तथा ॥ -जैसे एक के अंक बिना केवल शून्यों का कोई मूल्य नहीं है, वृथा है; जिस प्रकार वर्षा के बिना खेती व्यर्थ हो जाती है, आँखें होते हुए भी सूर्य के प्रकाश के बिना उनकी कोई कीमत नहीं है, अमावस्या से अन्धेरे में क्या आँख वाला भी देख सकता है? इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि के बिना विपुल तपश्चरण क्रियाकाण्ड, ज्ञान, ध्यान, आचरण सब निष्फल हैं, वे मोक्षरूप फलदायक नहीं हैं । कोई व्यक्ति प्रचुर तप करता है, ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञान भी खूब है, और आचरण भी लोक-व्यवहार में ठीक प्रतीत होता है, परन्तु दृष्टि सम्यक (सम्यग्दर्शन) हुए बिना कर्मक्षय नहीं होता, सिर्फ पुण्यबन्ध हो सकता है। सम्यग्दृष्टि प्राप्त करना इसीलिए दुर्लभ है कि पहले तो सांसारिक लोगों को अथवा भौतिक पदार्थों या विषय-भोगों में रुचि वाले लोगों को सम्यग्दृष्टि प्राप्त करने की रुचि ही नहीं होती, कदाचित् रुचि भी हो जाये तो उसके प्रति श्रद्धा नहीं होती। इसीलिए कहा गया है-'सद्धा परम दुल्लहा' श्रद्धा परम दुर्लभ है । पुण्य की प्रबलता हो तो इहलौकिक या पारलौकिक सभी सामग्री मिल सकती है, परन्तु श्रद्धा झटपट नहीं मिलती। ___ आप मन में ऐसा विचार करें कि मुझे मंत्री (मिनिस्टर) बनना है, आप में योग्यता भी है, साथ ही आपका पुण्य प्रबल हो तो मंत्री के रूप में आपका चुनाव भी हो सकता है । पुण्य प्रबल हो तो कोई उच्च पद भी प्राप्त हो सकता है। किसी शत्रु पर विजय प्राप्त करना भी कठिन नहीं है । कई बार एक ही योद्धा दस हजार सैनिकों के साथ लड़ता है और प्रबल पुण्य योग से वह विजय प्राप्त करके लौटता है । तप के द्वारा इन्द्रादि का वैभव प्राप्त करना भी सुगम है । देवलोक प्राप्त करना यहाँ तक कि नवग्र वेयक पहुँचना पुण्यबल से कोई दुर्लभ नहीं है । परन्तु बोधिरत्न-सम्यग्दृष्टि प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है । दशवकालिक सूत्र में बताया हैतत्तोवि से चइत्ताणं लन्भइ एल-मूयगं । .. नरकं तिरिक्खजोणि वा बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥ -वह मिथ्यादृष्टि किल्विषिक देव-भव से च्यवन करके बकरे की या मूक तिर्यञ्च योनि को प्राप्त करता है अथवा नरकयोनि या किसी अन्य तिर्यग्योनि को प्राप्त करता है, जहाँ बोधि अत्यन्त दुर्लभ है। मिथ्यादृष्टि जीव चाहे देवलोक चला जाये, पर वहाँ भी उसे सुख नहीं है, वह देवों के भोगविलास में आनन्द मानता है, परन्तु उसे भान नहीं होता कि इस For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ क्षणिक सुख का परिणाम कितना भयंकर आयेगा ? कदाचित् मिथ्यात्व के कारण उसे कई बार नरक में भी जाना पड़े; क्योंकि मिथ्यात्व के कारण देवभव में भी वह दूसरे देवों के सुखों, परिग्रह, दिव्यद्यति, ऋद्धि-सिद्धि, देवांगना आदि को देख-देखकर ईर्ष्या, रोष, कलह, द्वेष, मोह, आसक्ति वगैरह करता है, जिसके फलस्वरूप अनेक पापकर्मों का जत्था इकट्ठा हो जाता है । सम्यग्दृष्टि जीव यदि नरक में भी होता है, तब भी मिथ्यादृष्टि देव की अपेक्षा सुखी रहता है, क्योंकि नरकगति में गया हुआ सम्यग्दृष्टि विचार करता है कि मैंने अपने अशुभकर्मोदयवश नरकगति पाई है । अब यदि मैं इन कष्टों को समभावपूर्वक सहन नहीं करूंगा, हाय-हाय करके सहूँगा तो और नये अशुभकर्मों का बन्धन कर लूंगा, पुराने अशुभकर्मों का भी क्षय नहीं होगा, इसके फलस्वरूप मुझे पुन: नरक में आना पड़ेगा । इस दृष्टि से सम्यग्दृष्टि जीव चाहे नरक में हो या तिर्यञ्च में, कैसी भी परिस्थिति में हो, अपने को दुःखी नहीं मानता, न ही कष्ट भोगते समय दुःख महसूस करता है । सुख और दुःख दोनों ही प्रत्येक मानव के जीवन में धूप-छाया की तरह आतेजाते हैं । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों का जीवन सुख और दुःख की राह से गुजरता है, किन्तु मिथ्यादृष्टि दुःख में व्याकुल और सुख में प्रफुल्ल हो जाता है, Wafe सम्यग्दृष्टि दुःख में निराकुल और सुख में सम रहता है । सम्यग्दृष्टि पर असातावेदनीय कर्म के उदय से दुःख आता अवश्य है, लेकिन निराकुलता होने के कारण वह दुःख को दुःख का महसूस नहीं करता । इस कारण दुःख भी उसके लिए कर्मक्षय का साधन बन जाने के कारण सुखमय बन जाता है । एक उदाहरण से इसे समझाना ठीक रहेगा । एक मनुष्य भूल से दवा के बदले जहर पी गया । डॉक्टर को बुलाया गया। डॉक्टर ने कहा - " यह बच जायेगा, बशर्ते कि पीया हुआ सारा जहर वमन द्वारा निकल जाये । मैं वमन होने की दवा देता हूँ ।" रोगी ने डॉक्टर के द्वारा दी गई वमन की दवा ले ली । यद्यपि वमन करने में उसे बहुत कष्ट होता है, आंतों को बहुत जोर पड़ता है। गले और नाक में से जब वमन द्वारा जहरीला तरल पदार्थ निकलता है, तब असह्य हो जाता है । आँखों की पुतलियाँ भी बाहर निकल - सी पड़ती हैं। फिर भी रोगी कहता है कि जितनी अधिक के हों उतना ही अच्छा । भला वह रोगी ऐसा क्यों मानता है ? वह इसलिए के होना अच्छा समझता है कि के होने के दुःख की अपेक्षा पेट में जहर के रह जाने का दुःख कई गुना घातक तथा प्राणनाशक हो जायेगा । इस कारण उसे आकुल-व्याकुल करने वाला वमन का दुःख दुःखरूप नहीं लगता । वह चलाकर मुँह में उंगली डालकर अधिक वमन करने का प्रयत्न करता है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव सोचता है कि असातावेदनीय कर्मरूपी जहर निकल रहा है । इस कारण उसे वह दुःख वमन की तरहं दुःख नहीं, सुखरूप लगता है । क्योंकि वह मानता है कि सुख और दुःख दोनों मन की ही माया है, मन ही इनका उद्भव स्थान है । For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-१ १३७ आपमें से बहुत-से लोगों ने अनेक बार सुना होगा कि महामुनि स्कन्दक के देह की चमड़ी मृतपशु की चमड़ी की तरह जीवित दशा में ही उतारी जाती रही, किन्तु उनके मुखमण्डल पर प्रसन्नता अठखेलियाँ करती रही । तरुणतपस्वी मुनि गजसुकुमार के मस्तक पर धधकते अंगारे रखे गये किन्तु वे समत्व के सागर में गहरा गोता लगाते रहे । उनके मुख पर वही शान्ति विरामजान रही, वे क्षमाशील बने रहे। ____ मैं आपसे पूछता हूँ कि इतनी असह्य पीड़ा होने पर भी उन्हें क्यों नहीं महसूस हो रही थी। उनका शरीर भी हमारी तरह हड्डी, मांस, चर्म आदि का था ! शारीरिक दुःख-दर्द तो उन्हें भी हुआ होगा? फिर क्या कारण है कि उनके चेहरे पर शान्ति, प्रसन्नता और क्षमा विराजमान रही ? इसका समाधान यह है कि उन्हें वह दुर्लभातिदुर्लभ बोधि (सम्यग्दृष्टि) प्राप्त हो गई थी। उनका वीतरागवाणी में अडिग एवं अटल विश्वास था-नस्थि जीवस्स नासोत्ति-जीव (आत्मा) का कभी नाश नहीं, होता, नाश होता है शरीर का । शरीर तो मैं नहीं हूँ, मैं तो शरीरी (देही) हूँ। शरीर के नष्ट होने से मेरा कुछ भी नष्ट नहीं होता 'देह विनाशी, मैं (आत्मा) अविनाशी अजर-अमर पद मेरा' ऐसी सम्यग्दृष्टि उन्हें प्राप्त हो चुकी थी। इसी कारण उन्होंने देहदुःख को दुःख नहीं माना । दूसरी बात यह है कि उन्होंने दुःख का कारण बाहर में नहीं, अपने अन्दर ही देखा। उन्होंने बाह्य निमित्तों को कोई भी दोष नहीं दिया, अपने ही उपादान को देखा कि मैं जो कुछ भी दुःख भोग रहा हूँ उसका मूल कारण मैं ही हूँ, दूसरा कोई नहीं । मेरे ही द्वारा कृतकर्मों का फल मैं भोग रहा हूँ। यह ठीक है कि अनायास ही मुझे कर्मों का कर्ज चुकाने का अवसर आ गया है । तब मुझे कर्ज चुकाने में घबराना क्यों चाहिए ? सम्यग्दृष्टि के चिन्तन में यही तो जादू है । वह विष को भी अमृत बना लेता है। मिथ्यादृष्टि आत्मा इस संसार को सत्य और यहाँ के पदार्थों को शाश्वत समझकर उन्हीं की प्राप्ति में अहर्निश संलग्न रहता है । धन और अभीष्ट जन के संयोग से वह हर्षावेश में आकर फूल उठता है और उनके वियोग में व्याकुल होकर तड़फता है । धन और अभीष्टजन के नाश को बह अपना नाश समझकर विलाप और शोक करता रहता है। देह की दीवार को भेदकर वह अन्तःस्थित देही (आत्मा) के तेज, बल और वीर्य को नहीं पहचान पाता। वह शुभ को देखकर प्रसन्न और अशुभ को देखकर खिन्न हो उठता है। शुभ और अशुभ यानी पुण्य और पाप से ऊपर उठकर शुद्ध (धर्म) को वह नहीं पकड़ पाता। वह पुण्य-पाप के घेरे से निकल नहीं पाता। जहाँ भी जीवन में स्थूलदृष्टि से सुन्दर दृश्य आया वह फूलने लगेगा, और असुन्दर (बुरा) दृश्य आया कि रोनेचिल्लाने लगेगा । उसके जीवन में आत्मिक सुख-निराकुलतायुक्त सुख, शान्ति और सन्तोष नहीं। वह सदैव अशान्त, उद्विग्न और परेशान बना रहता है। यह उसकी मिथ्यादृष्टि का ही प्रभाव है । For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ . इसके विपरीत सम्यग्दृष्टि आत्मा इस विराट विश्व को सत्य तथा यहाँ के पदार्थों को शाश्वत नहीं मानता । वह यहाँ के सभी पौद्गलिक पदार्थों को क्षणभंगुर एवं नाशवान समझता है । वह न तो धन और अभीष्ट जन के संयोग से हर्षावेश में आकर फूलता है और न ही इनके वियोग से व्यथित होकर तड़फता है । धन-जन के विनाश को वह अपना विनाश कदापि नहीं समझता। शुभ और अशुभ भावों-यानी पुण्य और पाप के घेरे से ऊपर उठकर वह शुद्धभाव (धर्म) की उपासना करता है । शुद्धोपयोग की साधना ही उसके जीवन में मुख्य होती है । वह हर्ष और विषाद के प्रसंगों पर हर्ष-विषाद का अनुभव नहीं करता। वह अपने आत्मभावों में मस्त होकर समता की पगडंडी पर चलता है। इसी कारण उसके जीवन में सुख, सन्तोष और शान्ति की लहर व्याप्त होती है। सम्यग्दृष्टि कदाचित् संसार में भटक भी जाये फिर भी पुनः अपनी असली स्थिति को प्राप्त कर लेता है। एक बार गिरकर भी वह सदा के लिए नहीं गिर जाता वह पुनः उठ जाता है । जैन सिद्धान्त कहता है एक बार सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाने पर उसका एक दिन इस संसार के जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना अवश्यम्भावी है। परन्तु इस प्रकार की सम्यग्दृष्टि प्राप्त होना संसार की सर्वोत्तम उपलब्धि है। आज अधिकांश लोग धन वैभव एवं सांसारिक नाशवान पदार्थों को प्राप्त करने में अहर्निश जुटे रहते हैं, उन्हें धन, सांसारिक सुखोपभोग सामग्री तथा सुख-सुविधायें दुर्लभ लग रही हैं, जबकि सम्यग्दृष्टि इन्हें बिलकुल तुच्छ समझता है । मिथ्यात्वी लोग जब गजसुकुमार मुनि, स्कन्दक मुनि आदि की कष्ट-कथा सुनते हैं तब या तो यों कहते हैं कि यह तो देवी चमत्कार था, या कहते हैं—ईश्वर की लीला थी। परन्तु इनकी घटना के पीछे न तो कोई देवी चमत्कार था, न ही ईश्वर की लीला थी । यह तो सम्यग्दृष्टि आत्मा का स्वयं का पुरुषार्थ था। सम्यग्दृष्टि को नहीं पाये हुए व्यक्ति सम्यग्दृष्टि के चमत्कार देखकर यों कहने लगते हैं-ऐसी कठिन दुर्लभ सम्यग्दृष्टि का प्राप्त करना हमारे वश की बात नहीं है । वे साहस और धैर्य खोकर अपनी आत्मशक्ति की अनभिज्ञता प्रकट करते हैं । वास्तव में सम्यग्दृष्टि प्राप्त होना कठिन और दुर्लभ है, परन्तु जिज्ञासा, श्रद्धा और पुरुषार्थ निष्ठा हो तो ऐसी दुर्लभ वस्तु भी मनुष्य प्राप्त कर लेता है । परन्तु सुविधावादी लोग इस सम्यग्दृष्टि (बोधि) को कठिन और विषयभोगों में अरुचि पैदा करने वाली समझते हैं, इस कारण इसे प्राप्त करने में उनकी दिलचस्पी नहीं होती। ... इन सब कारण-कलापों को देखते हुए, निःसन्देह कहना पड़ेगा कि सम्यग्दृष्टिरूप बोधि का लाभ अन्य सब लाभों की अपेक्षा उत्कृष्ट है। संसार की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि सम्यग्दृष्टि का लाभ है, जो अत्यन्त दुर्लभ भी है। बन्धुओ! बोधिलाभ के दो अर्थों पर विवेचन करना अभी अवशिष्ट है । प्रस्तुत तीन अथों के विवेचन से आप समझ गये होंगे कि बोधिलाभ कितना दुर्लभ और परमलाभ है ? For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं—२ प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष पिछले जीवनसूत्र पर ही प्रकाश डालूंगा । पिछले प्रवचन में बोधिलाभ के तीन अर्थों पर विश्लेषण करके मैंने बताया था कि बोधिलाभ क्यों दुर्लभ है ? तथा वह परमलाभ क्यों है ? अब बोधिलाभ के अवशिष्ट दो अर्थों पर भी सांगोपांग चिन्तन कर लें, ताकि साधक जीवन का यह महत्त्वपूर्ण सूत्र भली-भाँति हृदयंगम हो जाये । व्यवहारसम्यग्दृष्टि का लाभ भी दुर्लभ व्यवहारसम्यक्त्व को भी बोधि कहते हैं । तथारूप बोधि का लाभ भी दुर्लभ है । यह बोधिलाभ का चौथा अर्थ है । व्यवहारसम्यक्त्व का दूसरा नाम श्रद्धा भी है । श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व है । जैसा कि सम्यक्त्वग्रहण के देव, गुरु और धर्म के प्रति पाठ में कहा गया है अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपणत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहियं ॥ - अर्थात् अरिहन्त ( वीतराग सर्वज्ञ) मेरे देव हैं, यावज्जीवन सुसाधु मेरे गुरु हैं, जिन प्रज्ञप्त जो तत्त्व हैं—वह धर्म है । इस प्रकार मैंने सम्यक्त्व का ग्रहण - स्वीकार किया | उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यक्त्व का लक्षण बताते हुए कहा है तहि आणंतु भावाणं, सब्भावे उवएसणं । भावेण सद्दहंतस्स, समत्तं तं वियाहियं ॥ - जीव, अजीव आदि जो नौ तथ्यरूप तत्त्व हैं, उन तथ्य ( तत्त्व) रूप भावोंसद्भाव से उपदिष्ट पदार्थों पर भाव से जो श्रद्धा करता है, उस श्रद्धा को ही सम्यक्त्व कहा गया है । अरिहन्त उक्त तत्त्वों के प्ररूपक हैं, सुसाधु उन तत्त्वों के उपदेशक हैं, और तत्त्व (पूर्वोक्त नौ) हैं ही, अथवा अरिहन्तों द्वारा प्ररूपित रत्नत्रयात्मक धर्म है । इन तीनों पर दृढ़ श्रद्धा रखना व्यवहारसम्यक्त्व है । व्यवहारसम्यक्त्व भी इसलिए दुर्लभ है कि इसके साथ भी पांच अतिचार (दोष) मिलकर इसे दूषित और व्यर्थ बना डालते हैं, वे पाँच अतिचार ये हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, विपरीत दृष्टि प्रशंसा, विपरीत For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आनन्द प्रवचन : भाग ११ दृष्टि लोगों के साथ अतिपरिचय (संसर्ग) । अपरिपक्व साधक शीघ्र ही इन तीनों परम तत्वों पर से फिसल जाता है। इसीलिए तो महर्षि गौतम ने संसार के सभी पदार्थों के लाभ से बढ़कर लाभ सम्यक्त्व-प्राप्ति (बोधिलाभ) को माना है। एक आचार्य ने इसका माहात्म्य बताते हुए कहा है जह चिंतामणि मणिणं, कप्पतरु तरुवराण जह पवरो। तह सम्मत्तं वृत्तं, पवरं सव्वाण वि गुणाणं ॥१॥ पक्खीण पक्खीराओ, सुराण इंदो, गहण्ण जह चंदो। तह सम्मत्तं पवरं भणियं सव्वाण वि गुणाणं ॥२॥ अमयं सन्वरसाणं, नरवराण चक्की मुणीण गणनाहो । तह दंसण पसत्थं जाणह सव्वाण वि गुणाणं ॥३॥ . जैसे रत्नों में चिन्तामणिरत्न उत्कृष्ट होता है, वृक्षों में कल्पवृक्ष श्रेष्ठ माना जाता है, वैसे ही सभी गुणों में सम्यक्त्वगुण श्रेष्ठ है। पक्षियों में जैसे पक्षिराज (हंस), देवों में इन्द्र और ग्रहों में चन्द्र श्रेष्ठ माना जाता है, से ही सम्यक्त्व को सभी गुणों में श्रेष्ठ कहा गया है। सभी रसों में अमृत और सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ चक्रवर्ती तथा मुनियों में गणनाथ श्रेष्ठ माना जाता है, वैसे ही सभी गुणों में प्रशस्त सम्यग्दर्शन समझो । सम्यक्त्वरहित निरवद्य क्रिया का पालन करके जीव नौनवेयक (देवलोक) तक जाकर भी पुनः अपार संसार में परिभ्रमण करता है। नरक आदि गतियों में जीव अतिदुःसह दुःख सहन करते हैं, किन्तु उन्हें सम्यक्त्व सम्पत्ति प्राप्त हुए बिना मोक्षगति प्राप्त नहीं होती। सम्यक्त्व प्राप्त व्यक्ति, अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष चले जाते हैं । अतः वे व्यक्ति धन्य हैं, जो निरतिचार सम्यक्त्व का पालन करते हैं, परन्तु वे पुरुष धन्यों में भी धन्यतर हैं, जो दूसरों को सम्यक्त्व प्राप्त कराते हैं। सम्यक्त्व-प्राप्त व्यक्ति कैसे उस पर दृढ़ रहता है, और दूसरों को भी सम्यक्त्व प्राप्त कराता है ? इस सम्बन्ध में एक प्राचीन उदाहरण लीजिए चम्पकमाला विशालानगरी के राजा ललितांग की इकलौती पुत्री थी। राजा की अनुमति से कुमुदचन्द्र उपाध्याय उसे पढ़ाते थे। कुछ ही वर्षों में वह साहित्य, न्याय, लक्षणशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र आदि विद्याओं में पारंगत हो गई । एक दिन राजसभा में कुणालानरेश अरिकेसरी अमरगुरु नामक प्रधानपुरुष के साथ आए । उस समय राजकुमारी चम्पकमाला की ज्योतिष विद्या की परीक्षा हुई, जिसमें वह पूर्णतया सफल हुई। कालान्तर में अरिकेसरी राजा के साथ चम्पकमाला का खूब धूमधाम से विवाह सम्पन्न हुआ । राजा चम्पकमाला के प्रति अत्यन्त अनुरागी था । एक दिन राजा भरिकेसरी अमरगुरु को साथ लेकर रानी चम्पकमाला के पास गया। अमरगुरु ने चर्चा छेड़ी-"महारानीजी ! कला के सम्बन्ध में कुछ कहिए।" For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं - २ १४१ रानी चम्पकमाला - विभिन्न धर्म हैं, उनमें से आपको कौन-सा धर्म मान्य है ? अमरगुरु — " आप प्रसंगरहित बात कैसे कह रही हैं ?" रानी - " मैंने प्रसंगोपात्त बात ही कही है; क्योंकि सभी कलाओं में प्रधान और इहलोक-परलोकसाधक कला तो धर्मकला है ।" अमरगुरु — “धर्म के सम्बन्ध में क्या विचार करना है ? जिसके पूर्वपुरुष ने जिस धर्म का पालन किया है, वही उसका धर्म समझिये । माता दुःशील है या सुशील, इसका विचार करने से क्या प्रयोजन है ? इसी प्रकार रोगी को औषध से मतलब है, उसे वैद्य से क्या प्रयोजन ? वह चाहे जैसा हो, उससे मतलब नहीं; इसी प्रकार अपने गुरुप्रमुख ने यज्ञप्रमुख धर्म का जैसा प्रतिपादन किया है वही तो हमारे लिए प्रमाण है । दूसरी चिन्ता करने की हमें क्या जरूरत ?” रानी चम्पकमाला - " आपने जो कुछ कहा, वह आपकी दृष्टि से ठीक होगा; परन्तु आप जैसे पण्डित का इस प्रकार बोलना उचित नहीं । देखिये, धर्म, अर्थ और काम, इन तीन पुरुषार्थों में धर्म परम पुरुषार्थ है; क्योंकि धर्म से ही अर्थ और काम निष्पन्न होते हैं । इस कारण धर्म का विचार तो अवश्य ही करना चाहिए। आपने जो पूर्वपुरुषक्रमागत को धर्म कहा, वह भी युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि पूर्वपुरुष दरिद्र या रोगी हों तो क्या उनके पुत्र भी दरिद्रता और बीमारी को पकड़े रहेंगे, छोड़ेंगे नहीं ? इसी प्रकार माता का दृष्टान्त दिया, वह भी युक्तिसंगत नहीं है । माता दुःशील हो और उसका पुत्र उसका त्याग न करे तो वह माता अपने पुत्र को प्रायः मरवा डालती है । औषध का दृष्टांत भी यहाँ अयुक्त है । यहाँ वैद्यस्थानीय गुरु का ग्रहण करना चाहिए । गुरु भी वह, जो रागद्व ेषरहित हो, परमार्थ का ज्ञाता हो । वैसे गुरु तो स्वयं अरिहंत हैं । उनकी आज्ञानुसार चलने वाले, कालोचित यतनापूर्वक विचरण करने वाले, मत्सररहित गुरु सुसाधु (निर्ग्रन्थ) हैं । अथवा रागादि से रहित स्वयं अरिहंत भगवान् देव हैं, उनके जैसा कोई दूसरा देव नहीं है ।" राजा - " इस विषय में कोई प्रमाण भी है ?" रानी — जैनशास्त्रों के सिवाय अन्य सभी शास्त्रों में देव का वर्णन जो बताया फिर नई सृष्टि उत्पन्न करते गया है, वह यों है— पहले वे सृष्टि का संहार करते हैं, हैं, स्त्री पास में रखते हैं, शस्त्र हाथ में धारण करते हैं, जाप के लिए हाथ में माला रखते हैं, इत्यादि; ये सब लक्षण रागद्व ेषयुक्त के हैं । इसलिए वैसे देव वीतराग नहीं हो सकते । " इत्यादि युक्तियों से चम्पकमाला रानी ने सबको निरुत्तर कर दिया । राजा और अमरगुरु दोनों ने सम्यक्त्व प्राप्त किया । दोनों निश्चल चित्त हुए । एक बार अमरगुरु ने दुःस्वप्न देखकर सोचा कि अब मेरी उम्र थोड़ी हीं मालूम होती है | अमरगुरु राजा के साथ रानी चम्पकमाला से इसका निर्णय करने हेतु आये । चम्पकमाला ने कहा- आपकी आयु अब दस महीने की और है । अमरगुरु ने यह For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ सुनकर कहा - हे धर्ममाता मेरे धर्मगुरु कहाँ हैं ? चम्पकमाला ने कहा- यहाँ से सौ योजन दूर पुराणपुर नगर में हैं । अमरगुरु जब गुरु के पास दीक्षा ग्रहण करने हेतु जाने को उद्यत हुए, तब राजा अरिकेसरी ने अमरगुरु के पुत्र को बुलाकर उनके पद पर स्थापित किया । अमरगुरु भी दानधर्म करके समयजलधि नामक केवली के पास पहुँचे और उनसे मुनिदीक्षा ग्रहण की । चारित्र पालन करके वे केवलज्ञानी बने व मोक्ष पधारे । I एक बार रानी चम्पकमाला के सम्यक्त्व की परीक्षा हुई । राजा अरिकेसरी की पहली पटरानी दुल्लहदेवी ने चम्पकमाला के प्रति द्व ेषवश कलंक लगाने तथा राजा द्वारा परित्यक्ता कराने हेतु सुलसा परिव्राजिका को लालच देकर तैयार किया । परिब्राजिका ने चम्पकमाला को धर्मभ्रष्ट करने का उपाय सोचा। उसे एक उपाय सुझा कि रानी चम्पकमाला के कोई पुत्र नहीं है, अत: उसे पुत्रप्राप्ति का उपाय बताऊँ । परिव्राजिका सुबह ही सुबह चम्पकमाला के आवासभवन में पहुँच गई और आशीर्वाद देकर कहने लगी- " रानीजी ! आपके कोई पुत्र नहीं है । और पुत्र के बिना पति का प्रम कम हो जाता है तथा पुत्र के बिना सद्गति भी नहीं होती । अतः पुत्र प्राप्ति के लिए मैं उपाय बताती हूँ, उसे कीजिए, उससे अवश्य ही पुत्र प्राप्ति होगी । इस मूली तथा मंत्र से रक्षा पवित्र करके उसे लेकर स्नान करो। काली देवी की पूजा करो और उससे पुत्र की याचना करो । " फिर तर्पण करके परिव्राजिका की कथा सुनकर सम्यक्त्व में दृढ़चित्त चम्पकमाला बोली“धूर्ते ! तेरी बातों से दूसरे ही लोग ठगा सकते हैं । जिन्होंने धर्म को जीवन में रमाया तथा संसार को दुःखरूप जाना है, वे तेरी बातों में नहीं आ सकते । पुत्र के बिना पति का प्र ेम कम हो जाता है, यह तुम्हारा कथन मूर्खताभरा है; क्योंकि चक्रवर्ती की रानी के पुत्र नहीं होता, फिर भी उसका स्नेह जीवनपर्यन्त रहता है । अपुत्र को सद्गति प्राप्त नहीं होती, यह कथन भी अज्ञानतायुक्त है । पुत्रोत्पत्ति अब्रह्मचर्यं (अधर्मं ) का फल है, जबकि ब्रह्मचर्य धर्म है और धर्म से ही सद्गति है । यदि पुत्र से ही सद्गति होती हो तो सूअर, कुत्ता, बिल्ली, मुर्गी आदि सब की सद्गति हो जानी afe | तथा रक्षा आदि से पुत्र हो जाता हो फिर तो जगत् में कोई भी पुत्रविहीन नहीं रहना चाहिए । काली देवी कौन है ? जो मांस-मदिरा में गृद्ध हो, उसे देवी मानना मूर्खता है । अत: वीतरागदेव और उनके सिद्धान्तों पर चलने वाले परमेष्ठी देवों के सिवाय मैं तो किसी और को वन्दन नहीं करती ।" इतना कहने पर भी जब वह धूर्त परिव्राजिका उठी नहीं, तब फटकार कर बाहर निकाली । क्रोध से आगबबूला होकर सुलसा परिव्राजिका ने अपनी पूर्वसाधित विद्या का स्मरण करके उससे प्रार्थना की" चम्पकमाला पर कुशीलवती होने का कलंक चढ़ाओ, जिससे राजा उसकी अवज्ञा करके त्याग करे, तथा वह जिन्दगी भर शारीरिक-मानसिक दुःख से संतप्त रहे ।" विद्या ने वैसा करना मंजूर किया । For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-२ १४३ तत्पश्चात् ज्यों ही राजा ने रानी चम्पकमाला के आवास भवन में प्रवेश किया त्यों ही विद्या ने वहाँ एक पुरुष दिखाया। राजा उसे गौर से देखने लगा, इतने में ही वह पुरुष अदृश्य हो गया। राजा सहसा विस्मित होकर सोचने लगा-'मालूम होता है, इसके रूप पर मोहित किसी विद्याधर के द्वारा प्रार्थना करने पर इसने उसे स्वीकार कर लिया है। धिक्कार है स्त्री-स्वभाव को! स्त्री को किसी भी तरह वश में नहीं किया जा सकता । जिन-प्रवचन में अनुरक्त, निर्मल कुलोत्पन्न, धैर्यधारिणी स्त्री भी जब कुशील-सेवन करती है, तब दूसरी स्त्रियों की तो बात ही क्या ।' अतः राजा चम्पकमाला रानी से विरक्त होकर सोचता है-'यह अब भोगयोग्य तो नहीं है, किन्तु इसने मुझे जैनधर्म प्राप्त कराकर महान् उपकार किया है, उसका प्रत्युपकार लाखों जन्मों तक नहीं किया जा सकता, अतः इसके साथ प्रतिदिन वार्तालाप तो करना, परन्तु सहवास नहीं।' यों राजा अब प्रतिदिन अनमना-सा होकर रानी चम्पकमाला के पास जाता है, थोड़ी बहुत इधर-उधर की बातें करता है, कुछ क्षण शय्या पर बैठता है और वापस लौट आता है, सहवास की बात तक नहीं करता। रानी ने राजा के मन्दस्नेही होने के कारण का चूड़ामणि ग्रन्थ से पता लगाया तो मालूम हुआ कि यह सब उस परिव्राजिका की करतूत है, फिर भी उसने परिवाजिका पर लेशमात्र भी क्षोभ नहीं किया—'अपने ही भोगान्तराय कर्म ६ महीने तक हैं। यह बेचारी तो उन कर्मों को भुगवाने में निमित्त बनी है। फिर इसमें अन्तराय ही क्या है ? अज्ञानी जीव मोहवश अनादिकाल से विषयभोग में रचा-पचा रहता है । मुझे अनायास ही धर्माचरण का अवसर मिला है, इसलिए मुझे धर्म में पुरुषार्थ करना चाहिए । धर्म ही समस्त सुखों का कारण है।' यों सोचकर वह विशेषरूप से धर्म क्रियाएं व धर्मध्यान करती हुई समय व्यतीत करने लगी। महद्धिक आदि दासियों ने उसके प्रति राजा के निःस्नेह होने का कारण पूछा तो उसने विषयभोगों से सहज विरक्ति की बात समझाई। एक दिन राजा से चम्पकमाला रानी ने कहा-'हे नरचूड़ामणि, आप कितने गुणग्राही हैं कि आपने प्रत्यक्ष दोष देखकर भी मेरे प्रति इतना स्नेह रखा; और भोग का परित्याग कर दिया । चूड़ामणि ग्रन्थ के आधार से मैंने जान लिया कि आपने मेरे शयनकक्ष में एक पुरुष को देखा, संसार में मेरी अपकीर्ति हुई। अतः आप लोक प्रतीति कराने हेतु, मेरी कोई कठोर अग्नि परीक्षा करवाइये । जिससे मेरा अपयश दूर हो।" राजा ने परिजनों तथा पौरजनों के समक्ष रानी के अपवाद का जिक्र किया, साथ ही अग्निपरीक्षा का भी। पौरजनों ने कहा-“पामरजनों के कहने मात्र से ऐसा न कीजिए।" राजा ने कहा-"किस-किसका मुह बन्द किया जाये । अतः अग्निपरीक्षा से वह शुद्ध हो जाये तो अच्छा है।" अतः राजा ने रानी को बुलाने भेजा । वह भी पौषध पार कर विधिपूर्वक जाप करके शिविकारूढ़ होकर दिव्य स्थान पर आई । सारा अन्तःपुर तथा पौर-नर-नारीगण रानी की अग्निपरीक्षा देखने के लिए वहाँ जमा हो गये। For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ इधर कारणिक पुरुषों ने आग सुलगाई । उसमें प्रचुर तेल डालते ही आग की लपटें उठने लगीं। कड़ाह चढ़ाया, उसमें ज्योंही उड़द डाले त्यों ही प्रलयकाल की अग्नि के समान विशाल अग्निज्वालाएं भभक उठीं। लपटें आकाश को छूने लगी, महलों के शिखर तड़तड़ करके टूटने लगे। लोगों में भगदड़ मच गई। सर्वत्र लोग हाहकार मचाने लगे । सती से रो-रोकर, भयभीत होकर पुकार करने लगे- "हे माता ! हे सती ! हे देवी ! इस अनाथ नगरी को बचाओ, अविनीत लोगों के प्रति महान् पुरुष उपेक्षा नहीं करते।" इस पर शासनदेवता ने आकाशवाणी की-“यह तो बहुत थोड़ा है । तुम लोगों ने चन्द्रकला के समान निर्मलचरित्र स्त्री की बदनामी की, उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा । तुम सब अपनी आत्मा के शत्रु बने हो।" _यह कोलाहल सुनकर राजा बोला-“रानी ! तुम्हारा शील स्फटिक-सम उज्ज्वल है, उस पर मूढ़ लोगों ने कलंक चढ़ाया, उसी पापरूप वृक्ष का फल भोग रहे हैं। अब तो तुम्हारी कृपा के सिवाय और कोई शरण नहीं है।" यह सुनकर रानी चम्पकमाला ने कहा-“यदि अरिकेसरी राजा के सिवाय और कोई पुरुष मेरे मन में न बसा हो तो यह अग्नि बुझ जाये तथा ये सभी लोग जो जलने से घबरा रहे हैं, वे स्वस्थ हों।" यों कहते ही शासनदेवता ने ऐसा ही किया। जो देवता कुतूहलवश भक्तिभाववश आये थे, उन्होंने भी रानी का जय-जयकार किया। पुष्पवृष्टि की, देवदुन्दुभि बजाई । चन्दन की माला के तोरण बंधाए । आबालवृद्ध हर्षित होकर कहने लगे-चम्पकमाला चिरंजीवी हो । देवों ने उत्सव किया । नगर का अद्भुत कौतुक देखकर भयभीत परिव्राजिका पश्चात्ताप करने लगी'हा ! मैं ही इस अनर्थ का मूल हूँ। अतः अब तो मरण ही श्रेयस्कर है । मैं इस भयंकर पाप को करने वाली हूँ। मुझे अपने पाप का फल अप्रतिष्ठान नरक में भोगना पड़ेगा।' यों सोचकर वह अग्नि-परीक्षास्थल पर आई और दोनों भुजाएं ऊंची करके कहने लगी-“मैं महापापिनी दुश्चरित्रा हूँ। मुझे जो कुछ दण्ड देना चाहें, दें। जिनशासन की जय हो, महासती की जय हो, जिनके प्रताप से प्रत्यक्ष दिव्य चमत्कार हुआ।" यों कहकर चम्पकमाला के चरणों में पड़कर कहने लगी-“देवी ! आपका शील विजयी हो। आप सम्यक्त्व में दृढ़ हैं। आज से आपकी कृपा से मुझे भी सम्यक्त्व प्राप्त हो गया। आपके जो देव, गुरु और धर्म हैं, वे ही मेरे रहेंगे।" यों सम्यक्त्व ग्रहण करके उसने चम्पकमाला पर चढ़ाए हुए कलंक के सम्बन्ध में अपना अपराध स्वीकार किया। राजा ने जब उससे पूछा कि 'तुम्हें यह दुष्कृत्य क्यों करना पड़ा ?' तो उसने कहा-"मैंने चम्पकमाला को नीचा दिखाने के लिए ऐसा किया था। मैं ही कूट-कपट की खान हूँ। जो भी दण्ड दें, मैं भोगने को तैयार हूँ।" राजा ने जब सुभटों को पापिनी परिवाजिका पर गर्मागर्म तेल छींटने को कहा और सुभट इसके लिए उद्यत हुए तो चम्पकमाला ने राजा को रोकते हुए कहा-"स्वामिन् ! रोको, रोको इन्हें । For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-२ १४५ ऐसा कार्य न करें । दयावान् पुरुष का यह काम नहीं है। लोगों के समक्ष अपने पापकर्मों को प्रकट करना कितना दुष्कर है, जिसे यह परिव्राजिका कर रही है, दूसरों को बचाने के लिए यह अपना प्राणत्याग करने को तत्पर है । फिर इसने तो सम्यक्त्व अंगीकार कर लिया है, अतः आपकी सामिक बहन हुई, इसके प्रति वात्सल्य रखना चाहिए।" यों राजा को शान्त करके चम्पकमाला अपने स्थान पर आई। परिवाजिका भी अब नियमित रूप से चम्पकमाला से धर्मश्रवण करने लगी। इधर चम्पकमाला को चूडामणि ग्रन्थ से पता लगा कि राजा की भूतपूर्व पटरानी दुल्लहदेवी अपना प्राणत्याग करना चाहती है तो चम्पकमाला स्वयं उसके पास गई. उसे सान्त्वना दी और धर्मध्यान में दिवस व्यतीत करने को कहा। दुल्लहदेवी ने भी चम्पकमाला के चरणों में नमनकर उसका अत्यन्त आभार माना। राजा भी अब चम्पकमाला के प्रति विशेष प्रीति रखने लगा। उसके परामर्श के अनुसार दान, धर्म, साधर्मी वात्सल्य, धर्मश्रवण, धर्माराधन आदि करने लगा। रानी चम्पकमाला के क्रमशः भुवनानन्द और करसिंह नामक दो पुत्र हुए तथा प्रियंवदा नाम की एक पुत्री हुई। एक दिन अवसर देखकर रानी चम्पकमाला ने राजा से कहा- "स्वामिन् ! अब आपको महापुरुषों के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।" राजा ने कहा- 'तुम्हारी बात युक्तियुक्त है, परन्तु अभी मोहकर्मवश मैं तुम्हारे मुखकमल के दर्शन का प्यासा हूँ।" रानी— “ऐसा न कहिये । मैं बताऊँ उस प्रकार से अपनी आत्मा को प्रतिबोध दीजिए-'हे आत्मन् ! तू दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर स्त्री के मोह में पड़कर क्यों हार रहा है ? स्त्री के शरीर में कौन-सी सुन्दरता देख रहा है ? जो इस शरीर के बाहर है उसे अन्दर करें और जो अन्दर है, उसे बाहर कर दें तो इसे कौए, कुत्त चूथें, ऐसा है । फिर स्त्री शरीर में है क्या ? हडडी, मांस, चर्म, रक्त, मल, मूत्र से यह महादुर्गन्धित व घिनौना है ! जैसा तेरा चित्त स्त्री में अनुरक्त है, वैसा ही जैनधर्म में अनुरक्त हो तो उसी भव में संसार का क्षय कर सकता है। स्त्री के प्रति स्नेह विद्युत के समान चंचल है। रे आत्मन् ! अति कठिनता से प्राप्त जिनशासन को क्यों व्यर्थ हार रहा है ? मदोन्मत्त हाथी की तरह क्यों विषयों के बीहड़ वन में भटककर सुशीलता रूपी वनराजि नष्ट कर रहा है ? धिक्कार है, तेरी महानता को ! धर्मामृत पाकर भी हलाहल विषय विष पी रहा है । अज्ञान-मोहवश मारक विषय-सुख को सुख मान रहा है !' इस प्रकार आप आत्मा को समझाकर जन्म-जरा-मृत्युदुःखहारक संवेग - रसायन पीजिए।" चम्पकमाला के वचन सुनकर राजा विरक्त हो गया । चम्पकमाला से कहने लगा-तुमने मुझे मिथ्यात्व के कीचड़ से निकाला, जिससे मुझे सर्वत्र सुख का कारणरूप धर्म प्राप्त हुआ। अब मैं शीघ्र ही स्वपरकल्याण के लिए उद्यम करूंगा। For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ इसी अवसर पर श्रुतजलधि नामक आचार्यं अपनी शिष्य मण्डली सहित पधारे। राजा ने उनकी देशना सुनी और भुवनानन्द कुमार को राजपाट सौंपकर दीक्षा ली । चम्पकमाला ने भी अपने पुत्र को धर्मपुनीत उपदेश देकर आनन्दश्री आर्या के पास भागवती दीक्षा ले ली। उसके साथ अनेक रानियों ने भी दीक्षा ली । यों अरिकेसरी राजर्षि और चम्पकमाला साध्वी ने क्रमशः घातीकर्म क्षय करके मोह समुद्र पार करके केवलज्ञान पाया और अन्त में दोनों मुक्ति को प्राप्त हुए । बन्धुओ ! यह है देव, गुरु और धर्म के प्रति दृढ़श्रद्धारूप बोधिलाभ के लिए सांसारिक प्रलोभनों और आकर्षणों का तुच्छ लाभ छोड़ने का चम्पकमाला का ज्वलन्त उदाहरण ! देखिये अमृतकाव्य संग्रह में बोधिबीज का महत्त्व - पामिवो सुलभ जग, पुद्गलजनित सुख, दुरलभ एक बोधिबीज समकित है । बिन क्रिया सब, अंक बिन शून्य सम छार पर लीपन ज्यों जानिये अहित है || ये ही भव बास ते निकासी शिव - वासी करे, हरे दुःखदोष भरे कोष निज वित्त है । भाई शुद्ध भावना यों ऋषभजिनन्दनन्द, पाए अमीरिख शिव सम्पत्ति अमित हैं || भावार्थ स्पष्ट है । इससे व्यवहार सम्यक्त्व (बोधि ) लाभ की महत्ता और दुर्लभता का अनुमान लगा सकते हैं । इसमें भी श्रद्धा के दीप को अखण्ड प्रज्वलित रखना बहुत कठिन है । कितनी ही कसौटी, अग्नि परीक्षा तथा एवं कष्टों के उतार-चढ़ाव की घाटियों में से गुजरना पड़ता है, तब कहीं सम्यक्त्वरत्न सुरक्षित रहता है । सम्यक्त्व को निर्दोष एवं निःशल्य रखने के लिए तथा उसका उत्तरोत्तर विकास करने के लिए इसके आठ अंगों का पालन करना आवश्यक है । 'आठ अंग ये हैं - ( १ ) निःशंकता, (२) निष्कांक्षता, (३) निर्विचित्किसा, (४) अमूढदृष्टि, (५) उपबृंहण, (६) स्थिरीकरण ( ७ ) वात्सल्य (८) प्रभावना । इन सब के अर्थ आप जानते ही हैं । जिसे सम्यक्त्व प्राणों से भी बढ़कर प्रिय है, बाह्य अमृत से भी बढ़कर आभ्यन्तर अमृत - सम है । इस लाभ को पाकर यों ही फेंक देना कितनी मूढ़ता है। योगीराज आनन्दघनजी सम्यक्त्व -लाभ की परम मस्ती में गाते हैं— अब हम अमर भए न मरेंगे । या कारण मिथ्यात्व दियो तज, क्योंकर देह धरेंगे ? ध्रुव ॥ For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं - २ १४७ राग-द्वेष जग-बंध करत है, इनको नाश करेंगे । मर्यो अनन्तकाल ते प्राणी, सो हम काल हरेंगे ||१|| देह विनाशी मैं अविनाशी, अपनी गति पकरेंगे । नासी- नासी हम थिरवासी, चोखे ह्वं निकरेंगे ||२|| मर्यो अनन्तबार बिन समझे, अब सो सुख बिसरेंगे । आनन्दघन, निपट निकट अक्षर दो, नहिं सुमरे सो मरेंगे || ३ || कितनी मार्मिक बात कह दी है आनन्दघनजी ने । मिथ्यात्व के कारण अब तक अनेक योनियों में जन्म लेकर मरते आये लेकिन जब सम्यक्त्व का लाभ मिला तो मृत्यु पर प्रतिबन्ध लग गया । सीमा बँध गई । अधिक से अधिक अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल तक ही मृत्यु पीछा कर सकती है । इसी बीच में ही जन्म-मरण का अन्त होकर सम्यक्त्व के जरिये अमरत्व - सदा के लिए अविनाशीपन प्राप्त हो जाता है । 1 दूसरे शब्दों में कहें तो सम्यक्त्व मोक्षमन्दिर की नींव है, जिसके आधार पर अन्त तक जीव स्थिर होकर अन्तिम शिखर - सर्वज्ञता तक पहुँच जाता है । वास्तव में बोधि (सम्यक्त्व) परमात्मदशा का बीज है । जिस आत्मा में बोधिरूप बीज पड़ गया, वह आत्मा धन्य धन्य हो गया । एक दिन उसे परमश्र ेष्ठ फलमोक्ष या परमात्मपद - अवश्य ही प्राप्त होता है जिसे पाकर फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रहता । कितना माहात्म्य है— बोधि – सम्यक्त्व -लाभ का । जिसे इसकी एक पल के लिए भी झलक प्राप्त हो जाती है, वह जीव निहाल हो जाता है— धन्य बन जाता है । सम्यक्त्व ही आत्मा के उत्थान का परमश्रेष्ठ हेतु है । सम्बोधि या सम्यक्त्व जीव के उत्थान में जितना प्रबल और प्रमुख हेतु है, उतना ही दुर्लभ है— उसे प्राप्त करना । कदाचित् यत्किञ्चित् आन्तरिक पुरुषार्थ के बल पर बोधि प्राप्त भी हो जाती है तो उसे संभालकर – सहेजकर रखना बहुत मुश्किल है । सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद विकास साधने के लिए सतत साधना की जरूरत रहती है । यद्यपि कोई-कोई जीव सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात् तुरन्त ही अन्तरंग - पुरुषार्थ को प्रबल - प्रबलतम करके साध्य को सिद्ध कर लेते हैं, तथापि सभी जीवों के लिए ऐसा क्रम नहीं है । अधिकांश जीवों को सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद विशेष साधना करनी पड़ती है । यदि साधना के पुरुषार्थ की जागृति से पहले ही तद्रूप कर्मों के उदय होने से बोध ( सम्यक्त्व) विलीन हो गई तो अनन्त काल तक के लिए उसका वियोग हो सकता है । हाँ, यह बात अवश्य निश्चित है कि जिसने पलभर के लिए भी बोधि पा ली, वह अधिक से अधिक देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन जितने काल में परमात्म-पद प्राप्त करेगा ही । For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ इसीलिए 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व का माहात्म्य बताते हुए कहते हैं विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः । न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥३२॥ न सम्यक्त्वसमं किंचित्काल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनुभृताम् ॥३४॥ सम्यग्दर्शनशु द्धा नारक-तिर्यङ नपुसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च ब्रजन्ति नाप्यवृत्तिका ॥३५॥ ओजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथाः। __महाकुला महार्थ मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूता ॥३६॥ अर्थात्-जैसे बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलसम्पत्ति नहीं होती, वैसे ही सम्यक्त्व बीज के अभाव में ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलनिष्पत्ति नहीं होती। जीवों के लिए सम्यक्त्व के समान तीन काल और तीन लोक में कोई भी श्रेयस्कर नहीं है और मिथ्यात्व के समान कोई अश्रेय नहीं है। सम्यग्दर्शन से शुद्ध मानव (यदि पहले आयुबन्ध न हुआ हो तो) नारक, तिर्यञ्च, नपुसक, स्त्री, दुष्कुली, विकलांग, अल्पायु, दरिद्र या दुश्चरित्र नहीं होते; बल्कि वे ओजस्वी, तेजस्वी, विद्यावान्, वीर्यवान, यशस्वी, वृद्धियुक्त, विजयी, वैभवशाली, महाकुलीन, धनाढ्य एवं मानवों में श्रेष्ठ होते हैं। सबोध-लाभ दुर्लभ : क्यों और कैसे ? ___ बोधिलाभ का पांचवां अर्थ सदबोधलाभ है। सदबोधलाभ भी जिसे अपने जीवन में प्राप्त हो गया समझ लो, उसके सभी संकट कट गये। वह अपनी जीवन-नया को आसानी से खेकर संसार समुद्र पार कर सकेगा । सदबोध का तात्पर्य है—प्रबोध या प्रतिबोध, आत्मजागृति, जिसे पाकर व्यक्ति हेय, ज्ञय और उपादेय का विवेक करने की तत्परता दिखाता है । इस प्रकार सद्बोध आत्मोत्थान के मार्ग में गतिप्रगति करने के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है। ऐसा सदबोधलाभ दुर्लभ क्यों है ? क्या आपने कभी सोचा है, इस पर ? वह इसलिए दुर्लभ है कि लोग असली बोध के बदले नकली बोध को पाकर अहंकार में फटे पड़ते हैं । आज का बी० ए०, एम०ए० पढ़ने वाला कॉलेजियन विद्यार्थी अपने-आप को बहुत ही अधिक बुद्धिमान, समझदार और ज्ञानी समझने लगता है । बातचीत के प्रसंग में वह कहता है-"क्या मुझे बुद्ध समझ रखा है ? मैं सब जानता हूँ। मुझे सब मालूम है । मैं तो पहले ही यह सब जानता था । क्या मैं बुद्धिहीन हूँ। मेरी जानकारी के बाहर कोई बात नहीं है।" For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं - २ १४६ इस प्रकार अधकचरे पण्डितों के कहने का ढंग ऐसा रहता है, मानो वे सर्वज्ञ ही हों । व्यक्ति की ऐसी अहंकारी मनोवृत्ति भी सद्बोध के दरवाजे बंद कर देती है । किन्तु एक बात आज आप अनुभव करते होंगे कि मनुष्य जिस प्रकार अक्ल में अपने को अधूरा नहीं मानता है, इसी प्रकार धन में कभी अपने आपको पूरा नहीं मानता । चाहे जितना वैभव बढ़ जाये, चाहे जितनी साधनों की विपुलता हो जाये तो भी वस्तु की अल्पता का रोना नहीं मिटता । कभी-कभी तो वह यों कहने लगता है— इतने साधन और जुट जायें तो मैं धर्मसाधना में समय लगाऊँगा । पर विचार करिये कि वर्तमान युग में प्रत्येक नगर और गाँव में, प्रत्येक व्यक्ति के पास अपनी-अपनी हैसियत अनुसार साधन बढ़े ही हैं, घटे नहीं हैं । मगर क्या साधन बढ़ने के साथ-साथ धर्म की रुचि या धर्मसाधना बढ़ी है ? आप कहेंगे, ऐसा तो नहीं हुआ है । सोचिये, आपके पूर्वज धर्मसाधना अधिक करते थे या आप अधिक करते हैं ? अतः यह समझना भूल है कि साधनों की वृद्धि से धर्मरुचि में वृद्धि होती है । इसके विपरीत वैभववृद्धि या सुख-साधनवृद्धि मनुष्य में अधिकाधिक धनलिप्सा जगाकर उसे धर्मसाधना से दूर हटा देती है । इसी कारण आज का धनलिप्सु मानव साधु-साध्वियों के पास भी आता है तो प्रायः कोई न कोई भौतिक साधन की प्राप्ति की सम्भावना से आता है । कोई मंत्र, तंत्र या यंत्र मिल जाये तो बस बेड़ा पार हो जाये, मैं मालामाल हो जाऊं तो फिर, दान, पुण्य या धर्म करूंगा । ऐसा कहते देखे गये हैं, बहुत लोग । ऐसे लोग धन को दुर्लभ समझते हैं, किन्तु ज्ञानी और बोधिप्राप्त व्यक्ति की दृष्टि में धन दुर्लभ नहीं है, दुर्लभ है— बोधि यानी सम्यक्त्व | जिसने बोधि पाली, समझ लो, उसे अनन्त जन्मों का सुख का खजाना मिल गया । मैं आपसे पूछता हूँ कि आजकल लोग जितना भौतिक पदार्थों को पाने के लिये प्रयत्न करते हैं, क्या उसका शतांश जितना भी प्रयत्न बोधि प्राप्त करने के लिए करते हैं ? इसका कारण है कि लोग भौतिक पदार्थों, धन, मकान, कार, कोठी आदि जड़ साधनों का मूल्य बोधि की अपेक्षा अधिक समझते हैं। बोधि देने वाला कोई निःस्पृह व्यक्ति आयेगा भी तो उसकी बात को नहीं सुनेंगे, या सुनी-अनसुनी कर देंगे । सम्बुद्ध व्यक्ति की दृष्टि में सांसारिक पदार्थों की कीमत एक कोड़ी की भी नहीं है, जबकि स्थूल दृष्टि वाले अज्ञानी लोग उसी को जीवन - सर्वस्व मानते हैं । जिस सम्बोध से जीब कृतकृत्य हो सकता है, उसकी ओर से वह आँखें मूंद लेता है, पीठ फिरा लेता है औव कौड़ी के मूल्य का समझकर ठोकरों से उड़ा देता है लिए पुकार -पुकार कर कहते हैं । इसीलिए ज्ञानीजन उसे जगाने के जागरह णरा ! णिच्च, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धि । जो सुवति ण सो धण्णो, जो जागति सो सया धण्णो ॥ मनुष्यो ! सदा जागते रहो । जागृत रहने वाले की बुद्धि बढ़ती है । जो सो जाता है, वह धन्य-ज्ञानादि धन के योग्य नहीं है, जो जागता है, वह सदा धन्य है । For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० आनन्द प्रवचन : भाग ११ भरत चक्रवर्ती के पास अतुल सम्पत्ति थी । हीरे, पन्ने, माणक, मोती, सोना, आदि सब थे, अपार सुख-साधन थे। फिर भी वे निर्लेप निरासक्त रहते थे । यही नहीं, भगवान ऋषभदेव के दीक्षा लेने के बाद तथा बाद में अपने ६८ छोटे भाइयों के मुनिदीक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने समझ लिया था कि पिताजी और मेरे भाई जिस धर्ममार्ग पर चल रहे हैं, वही सारभूत है, मगर कार्यव्यस्त होने के कारण वे इस बात को प्रायः भूल जाते थे । अपनी आत्मजागृति के लिए उन्होंने एक सेवक नियुक्त कर दिया था, जो हर समय भरत को स्मरण कराता रहता था । उस सेवक का सिर्फ एक ही कार्य रहता था । भरत चक्रवर्ती चाहे सिंहासन पर बैठे हों, चाहे अन्तःपुर में हों, चाहे स्नान, भोजन आदि कार्य पर रहे हों, थोड़ी-थोड़ी देर बाद उसे इस आशय का जागृतिसूचक मंत्र सुनाना पड़ता था चेत चेत रे भरतकुमार, विश्व में है चारित्र सार इस मंत्र को सुनकर भरत चक्रवर्ती को हर समय यह भान रहता था कि मुझे भी एक दिन जागृत होकर उस चारित्र ( मुनिधर्म के आचरण) को अपनाना है, जो जगत् का सार (उत्तम पदार्थ ) है । प्रतिक्षण सम्बोध के लिए भरत चक्रवर्ती का यह कार्य कितना सूझ-बूझभरा है । क्या आप ऐसे आदमी को पसंद करेंगे, जो हरदम आपको जागृत व सावधान करता रहे या समय-समय पर आपको प्रतिबोध देता रहे ? आप ही क्या अधिकांश सम्पन्न व्यक्ति ऐसे कार्य को कतई पसंद नहीं करेंगे । मनुष्य आज जिस धन-सम्पत्ति, वैभव एवं भौतिक पदार्थों के पीछे हाथ धोकर पड़ा है, जिसके लिए वह दूसरों के साथ झगड़ा करता है, भाइयों के साथ मुकदमे - बाजी करता है, कैसे-कैसे दुःख सहता है ? कितनी तिकड़मबाजी करता है ? कितने - कितने अनैतिक कार्य करता है ? उसकी सुरक्षा के लिए कितना प्रबन्ध करता है ? कितना जागता है ? कितनी उखाड़ पछाड़ करता है ? क्या यह सब उधेड़बुन करने के बाद भी, यहाँ से परलोक जाते समय वह सब साथ में ले जाता है ? कदापि नहीं, बल्कि परलोक जाते समय वह अश्रुपूर्ण नेत्रों से निराश बनकर देखता रह जाता है । फिर यह सब कर्मबन्धन के काम क्यों करता है ? एक अनाथ लड़का था । उसके माता-पिता बचपन में ही चल बसे थे । धन नष्ट हो चुका था । रहने के लिए छोटा सा मकान था, वह भी खण्डहर सा । पढ़ालिखा कुछ था नहीं । कुछ पागल था, कुछ पागलपन उसने जान-बूझकर ओढ़ लिया था । लोग उसे 'पगला' कहकर पुकारते थे । परन्तु उसमें एक आदत बहुत अच्छी थी । गाँव में कोई भी साधु-साध्वी पधारते तो वह उनके दर्शन करने, धर्मोपदेश सुनने एवं सेवा 1 १, कई आचार्य लिखते हैं - वह वाक्य था - 'जितो भवान् वर्द्धते, अस्मिन् माहन माहन । For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं - २ १५१ करने अवश्य पहुँच जाता । उनकी प्र ेरणा बड़े ध्यान से सुनता और आचरण में लाने का प्रयत्न करता था । वैसे वह किसी भी दुःखी, अपंग, अंधे और वृद्ध आदि की सेवा करने को तत्पर रहता था। एक दिन नगर के एक प्रतिष्ठित सेठ की उस पर दृष्टि पड़ी । अपना जातिभाई एवं सहधर्मी समझकर उन्होंने उसे अपने पास बुलाकर पूछा"भाई ! तुम रोटी कहाँ खाते हो ? कहाँ रहते हो ? कहाँ सोते हो ?" वह बोला - " जहाँ भी मिलती है, वहाँ खा लेता हूँ, अपने मकान में रात को सोता हूँ, वहीं रहता हूँ ।" सेठजी ने उसे हितशिक्षा देते हुए कहा - "देखो ! तुम मेरे यहाँ आया करो । घर के कुछ काम कर दिया करो । भोजन, वस्त्र आदि जिस वस्तु की जरूरत हो, मेरे से ले लिया करो । दूसरे दिन से वह सेठजी के घर में काम करने लगा। पानी भरना, अनाज साफ करना, बर्तन मलना, सफाई करना, गायें दुहना आदि सब कार्य करता और सख्त मेहनत से काम करता। उसके बदले वह पैसा लेता । दिनभर में कितने ही पैसे कमा लेता था, पर वह संग्रह करके नहीं रखता था। रोज की कमाई रोज ही खर्च कर देता था । अच्छा खाता-पीता पहनता, फिर जो भी पैसे बचते उन्हें किसी जरूरतमंद या अत्यन्त गरीब को दे देता । उसका ऐसा ही स्वभाव बन गया था । लोग उसे पैसे बचत करके रखने का कहते तो वह 'ऊंह' करके टाल देता था । लोग उसे पगला समझकर छोड़ देते थे । एक दिन सेठजी ने फिर उसे बुलाकर कुशल-मंगल पूछा और कहाँ – “कहो भाई ! प्रतिदिन कितना कमा लेते हो ?" वह बोला - " सेठजी ! मैं तो कोई हिसाव नहीं रखता । जो भी मिला, ले लेता हूँ, उसमें से कुछ अपने लिए खर्च कर देता हूँ और शेष जरूरतमंदों को दे देता हूँ ।" सेठ – “मेरी समझ से रोजाना दो चार रुपये तो कमा ही लेता होगा ?" पगला ( हंसकर ) - "हाँ उससे ज्यादा ही हो जाता होगा, मेरे पास तो कोई हिसाब नहीं रहता, सेठजी !” सेठ ने उसका हाथ पकड़कर समझाया - " देख ! इतना पागलपन मत रख । कुछ रुपये बचत भी किया कर । सारे ही एकदम खर्च क्यों कर डालता है ?" पगला - " बचत करने से क्या होगा ?" सेठ – “ उन रुपयों से छोटी-सी दूकान दनी भी ज्यादा होगी और काफी रुपये तेरे करेंगे ।" खोल लेना । व्यापार बढ़ेगा तो आमपास हो जायेंगे । लोग तेरी इज्जत पगला - "यह तो अब भी करते हैं। सभी सेठ – “ अरे । इज्जत करेंगे तो कोई तुझे शादी भी हो जायेगी ।" मुझ से प्रसन्नता से बोलते हैं ।" अपनी लड़की भी दे देगा | तेरी 1 For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ पगला - " शादी होने से क्या होगा, सेठजी !" सेठ - " तुझे हाथ से रोटियाँ नहीं बनानी पड़ेंगी । गर्म भोजन मिलेगा ।" पगला - "गर्म भोजन तो अब भी करता हूँ । लोग मुझे बनी-बनाई रोटी दे देते हैं । ज्यादा गर्म खाने से तो हाथ-मुंह जल जायेगा न ! हाथ-मुंह जलाने के लिए कौन इतना प्रपंच करे ।" सेठ – “अरे पगले ! इतना भी नहीं समझा । शादी हो जायेगी तो बच्चे होंगे, वे बुढ़ापे में तेरी सेवा करेंगे ।" पगला – “सेठजी ! कैसी सलाह दे रहे हैं आप ! मैं क्यों किसी से सेवा लूं ? और क्यों बूढ़ा होऊँ ? देख लो, वह निर्मला की मां, पांच-पांच बेटे तथा कई पोते होते. हुए भी अकेली रहती है, हाथ से रोटियाँ बनाकर खाती है ।" सेठ - "सब के बेटे ऐसे थोड़े ही होते हैं ?" पगला – “किसके पुत्र कैसे होंगे, क्या पता ? मुझे तो यह सौदा बहुत घाटे का मालूम होता है, इसलिए मैं तो ऐसा झंझट मोल नहीं लूंगा ।" सेठ झुंझलाकर कहने लगे – “आखिर तो तू पगला ही ठहरा ! क्या बतायें तुझे !” पगला यह सुनकर हँसता हुआ चला गया । एक बार सेठजी बीमार पड़ गये । बुढ़ापा तो था ही। अब उन्हें स्वस्थ होने की आशा नहीं थी । रुग्णशय्या पर पड़े-पड़े वे मौत से जूझ रहे थे । घर के लोग अपनेअपने काम में लगे रहते । सेठ चुपचाप लेटे-लेटे अनेक विचारों की उधेड़-बुन में लगे रहते । वे अकेले ऊब जाते । कभी-कभी पगला उनके पास मन बहलाने को पहुँच जाता तो सेठ उससे दो-चार बात कर लेते थे । एक दिन पगले ने सेठजी से पूछा - " आज बहुत उदास लगते हैं, सेठजी ! क्या हाल है ?" सेठ – “भाई ! अब तो यमराज के घर का बुलावा आ गया है । अब यहाँ से डेरा कूच करना पड़ेगा ।" पगला - " तो इसमें उदास होने की क्या बात है, सेठजी ! अगर आपका जाने का मन न हो तो खबर भेज दो, कि अभी मैं नहीं आ सकूंगा ।" सेठ - " अरे भाई ! न तो इसकी खबर भेजी जा सकती है और न ही यमराज का बुलावा टाला जा सकता है । वहाँ तो जाना ही पड़ेगा ।" पगला - "ऐसी बात है, फिर चिन्ता क्या है ? भैया से कह दो - वे सब तैयारी करवा देंगे । डेरा, तम्बू, सवारी, सेवक-सेविकायें और यात्रा का सब प्रबन्ध कर देंगे । कहने पर वे भी साथ चले चलेंगे ।” सेठजी - " अरे ! इतना भी नहीं समझता । यह सब प्रबन्ध नहीं हो सकता और न कोई साथ में जा सकता है ।" पगला – “तो फिर चेकबुक, गहने-कपड़े अपने साथ ले लीजिये । वहाँ आगे काम आयेंगे ।" सेठ – “मेरे भाई ! वहाँ तो एक धागा भी साथ नहीं जा सकता ।" For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-२ १५३ __ पगला-"अच्छा, धागा न सही, आपकी अपनी कमाई का धन तो आपके साथ जायेगा न ।" सेठ-"तू पागल है । समझ नहीं रहा है । मरने के बाद कोई भी चीज परलोक को साथ में नहीं जाती । तू ही तो भजन गाया करता है न डेहली तक तिरिया का नाता, पोली तक माता। - मरघट तक ही चले संगाथी, जीव अकेला जाता ॥ ला जाता। देखो रे लोको ! भूलभुलैया का तमाशा ! "सौ बात की एक बात, परलोक में जीव अकेला ही जाता है । सारे सजीवनिर्जीव पदार्थ जिन्हें अपने माने थे, वे सब यहीं रह जाते हैं।" यह सुनकर पगला तो पहले तो हंसता रहा । फिर गंभीर होकर बोला“सेठजी ! एक बात कहूँ, बुरा मत मानना। आपने जिंदगीभर तक ऐसे पदार्थों का संग्रह किया और ऐसे लोगों के साथ मोह-ममता रखी, जो साथ में कदापि चल नहीं सकते । क्या इन्हें छोड़कर जाने का दुःख ही आपके पल्ले पड़ेगा। तब तो सेठजी ! मैं आपसे अधिक जीत में रहा । मैं वैसे पागल नहीं हूँ। लोगों ने मुझे पागल कहा, तो मैंने पागलपन ओढ़ लिया । मैं बचपन से साधु-साध्वियों की वाणी सुनता आ रहा हूँ। साधु बनने की योग्यता तो मुझ में थी नहीं, किन्तु मैं अपनी मस्ती में जीता रहा हूँ, जी रहा हूँ, कमाता हूँ तो अपने शरीर के लिए खर्च करने के अलावा मैं दान देता हूँ, परलोक की बैंक में जमा करने लिए। बताइये, आप अधिक सुखी रहे या मैं ?" सेठ आश्चर्य से एक दार्शनिक की-सी वाणी सुन उसकी ओर देखने लगे। फिर धीरे से दु:खित स्वर में बोले-"भाई ! तुम जीत में रहे, मैं हार में रहा । तुमने जिंदगी की बाजी जीत ली, इसीलिए तुम मुझ से अधिक सुखी रहे । सचमुच, तुम्हारा जीवनदर्शन सत्य है । विषय-भोगों में ग्रस्त लोगों को तुम्हारा यह सत्य कटु लगता है । पर तुमने तो बचपन से ही इस सत्य का अभ्यास जीवन में कर लिया, इसे मधुर बनाकर जीवन में उतारा है । तुम्हारा वास्तविक रूप तो आज ही मैंने देखा है।" पगला-“सेठजी ! आप मृत्युशय्या पर हैं, इसलिए मैं आपको चिढ़ाने की दृष्टि से यह सब नहीं कह रहा हूँ। आप मेरे हितैषी हैं। आपने कई बार मुझे हितशिक्षा भी दी थी, लेकिन वह मेरे गले नहीं उतरी; पर आज मैं उसका रहस्य खोल देता हूँ, आपके सामने । मैंने कहा था कि मैं क्यों किसी से सेवा लूं । यह अभिमान की बात नहीं किन्तु बचपन से साधु-संगति के कारण मैंने एक बात गाँठ बाँध ली थी, कि साताअसाता जो भी पूर्वकर्मोदयवश आयेगी, वह तो भोगनी पड़ेगी । मैं हंसते-हंसते कर्मों का कर्ज चुकाते हुए भोगूंगा । इसीलिए मैं कड़ी मेहनत करता हूँ; अभावों में भी आनन्द मानता हूँ। दुःख मेरी दृष्टि में सुख का बीज है। मैं समाधिमरण की भावना करता हूँ, मृत्यु के भय को जीतने का अभ्यास करता हूँ तो गफलत में क्यों मरूंगा । जगत की सारी चीजें नाशवान हैं, मेरी नहीं हैं, यही मानकर मैं इनका संग्रह नहीं करता और न इनके चले (खर्च हो) जाने का दुःख करता हूँ।" For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ सेठजी की आँखों में पगले की बातें सुनकर चमक आ गई। भ्रान्ति के बादल फट गये। उनके हृदय में सत्य का सूर्य प्रगट हो गया। अभी तक वे मरणभय से दबे जा रहे थे, अब निर्भय हो गये । इस सत्य के प्रकाश में उन्हें अपना कर्तव्यपथ स्पष्ट दिखाई दिया। उनकी मानसिक व्यथायें रफूचक्कर हो गई। वे एकटक उक्त पगले की भोर देखने लगे । वह सच्चे माने में एक संत के रूप में दिखाई दे रहा था। सेठ को अनुभव की आँच में तपा हुआ सत्य मिल गया-अन्तिम समय में सही समझ-सम्बोधि ही काम देती है; भौतिक पदार्थों की ममता नहीं। बन्धुओ ! बोधिलाभ के ये पाँच अर्थ और उसका महत्त्व, उसकी दुर्लभता, उत्कृष्ट लाभता आदि सब पहलुओं से मैंने आपके समक्ष विवेचन प्रस्तुत कर दिया। आप भी महर्षि गौतम के इस संकेत को हृदयंगम करके अपने जीवन में उतारें न बोहिलामा परमत्यि लाभं । "संसार में बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं है।" For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. परस्त्री-सेवन सर्वथा त्याज्य प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं जीवन के एक नैतिक पहलू की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ । नैतिक जीवन अच्छा हुए बिना धार्मिक जीवन कदापि अच्छा नहीं हो सकता; क्योंकि नीति और धर्म दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध रहा है, एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता । नीतिविहीन धर्म अन्दर से सड़े हुए, किन्तु ऊपर से पालिश किये हुए तख्ते की तरह थोथा है, इसी प्रकार धर्मनिरपेक्ष नीति राजनीति या स्वार्थनीति बनकर मनुष्य को पतन के गर्त में डाल देती है। इसीलिए महर्षि गौतम ने यहाँ से आगे क्रमशः नीति और धर्म की सापेक्षता बताते हुए प्रेरणात्मक जीवनसूत्र दिये हैं । गौतमकुलक का यह ५५वाँ जीवनसूत्र है, वह इस प्रकार है 'न सेवियव्वा पमया परक्का' -~-पराई स्त्री का सेवन नहीं करना चाहिए। आइए, इस नैतिक जीवनसूत्र पर नैतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक आदि सभी पहलुओं से विचार करें। परस्त्री-सेवन की व्याख्या परस्त्री वह कहलाती है, जिसके साथ विधिवत् पाणिग्रहण न हुआ हो। कई लोग यह कहा करते हैं कि जो स्त्री अभी तक किसी की पत्नी नहीं बनी है, कुँआरी कन्या है अथवा जो वेश्या है, रखैल है, व्यभिचारिणी है अथवा जिसका पति मर चुका है, वह परस्त्री कैसे कहलाएगी ? उसके साथ सहवास करने में क्या दोष है ? परन्तु नीतिशास्त्र और धर्मशास्त्र सभी एक स्वर से यही कहते हैं, जिसके साथ विधिवत् पाणिग्रहण हुआ हो, वह स्वस्त्री-स्वपत्नी है, उसके अतिरिक्त जितनी भी स्त्रियाँ हैं, चाहे वे कुमारिकाएँ हों, सधवा हों, विधवा हों, प्रोषितभर्तृका हों, वेश्या हों, रखैल हों, दासी या गोली हों, थोड़े समय के लिये किराये पर रखी गई हों, उपपत्नी हों, किसी पुरुष द्वारा परित्यक्ता हों, अथवा और कोई-सभी परस्त्री की कोटि में परिगणित होती हैं। ऐसी किसी भी परस्त्री का सेवन करना नैतिक अपराध है, सामाजिक दूषण है, धार्मिक दृष्टि से व्यभिचार है, राजनैतिक दृष्टि से कानूनन गुनाह है। परस्त्री-सेवन का अर्थ केवल परस्त्री के साथ कुशील-सेवन करना या दुराचार करना मात्र ही नहीं है, अपितु परस्त्री के प्रति किसी भी रूप में कामवासना For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ मयी ललचाई आँखों से देखना, यहाँ तक कि परस्त्री को पाने का मन में विचार करना भी परस्त्री -सेवन है। ___काम-विकार की वृत्ति से परस्त्री से संसर्ग करना, एकान्त में उससे मिलना, उसके पास घंटों बैठना, उससे आँखें लड़ाना, उसका विकारदृष्टि से स्पर्श करना, उसके साथ अश्लील काम-कथा करना, उसे बार-बार घूर-घूरकर ललचाई आँखों से देखना, उससे भद्दी हँसी मजाक करना, उसका चित्र देखकर या उसे प्रत्यक्ष देखकर मन में उसे पाने का संकल्प करना, उसे पाने के विविध उपाय अजमाना आदि सब मैथुनांग परस्त्री-सेवन के अन्तर्गत हैं । स्मृतिकारों आठ प्रकार के मैथुन बताये हैं जैसे कि स्मरणं कीर्तनं केलिःप्रेक्षणं गुह्य-भाषणम् । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च । एतन्मथुनमष्टांगं प्रवदन्ति मनीषिणः। स्मरण, कीर्तन, क्रीड़ा, प्रेक्षण, गुप्त-भाषण, संकल्प, अध्यवसाय और क्रियानिर्वृत्ति-मनीषियों ने इन आठों को मैथुन के अंग बताए हैं । परस्त्रीसेवन का तात्पर्य है-परस्त्री के साथ इन आठों ही प्रकार मैथुनों में से किसी भी प्रकार का मैथुनसेवन करना । इन पर क्रमशः चिन्तन करना चाहिए १. स्मरण-परस्त्री का आसक्तिवश बार-बार चिन्तन-स्मरण करना । उसके भालिंगन, चुम्बन, दर्शन-स्पर्श, आदि की चिन्ता में निमग्न रहना। मन ही मन इस प्रकार परस्त्री का स्मरण करना भी परस्त्रीसेवन है, इससे वीर्य उत्तजित होकर निकल जाता है, कामाग्नि प्रज्वलित हो जाती है । मन में अस्थिरता और मलिनता पैदा हो जाती है । बार-बार परस्त्री के रूप-रंग, हाव-भाव आदि का चिन्तन करने से वे कुत्सित विचार मन में दृढ़ कुसंस्कार के रूप में जम जाते हैं। ऐसे परस्त्रीस्मरण करने वाले लोग अपने दैनिक कर्तव्य कर्मों को छोड़ बैठते हैं। रात-दिन इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं । पता लगने पर उनकी बदनामी और अपकीर्ति फैलती है। जनता का विश्वास उन पर से उठ जाता है। उनके प्रति घृणा हो जाती है। २. कीर्तन--कुछ लोग इससे आगे बढ़कर जिस परस्त्री के सम्बन्ध में मन में स्मरण-चिन्तन किया था, उसके विषय में निर्लज्ज होकर अपने यार-दोस्तों, मिलनेजुलने वालों से चर्चा करते है, उसके अंगोपांगों, रूप-रंग, हाव-भाव आदि का बार-बार वर्णन करते हैं । उस परस्त्री के विषय में लज्जायोग्य और गन्दी चर्चा करने के वे इतने आदी हो जाते हैं कि खुल्लम-खुल्ला सबके समक्ष कहते रहते हैं। जहाँ इस प्रकार की अश्लील चर्चा चल रही हो, वहाँ वे उत्साह से शरीक हो जाते हैं, और कामुक वृत्ति से परस्त्रियों का वर्णन करते हैं। अथवा पराई स्त्रियों को देखकर उनको लक्ष्य करके अश्लील गजलें गुन गुनाना, पराई बहू-बेटियों के प्रति अवाच्य शब्द कहना, भद्दी गालियाँ देना, उन पर For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्री-सेवन सर्वथा त्याज्य १५७ आवाजें कसना, सीटी बजाना और फिर इस विषय में अपनी कुकृत्य कुशलता की डींग हाँकना इत्यादि सब कीर्तन नामक दुराचरण के अन्तर्गत है। ऐसे परस्त्रीगामी लोगों की मनोदशा के विषय में महाभारत में कहा है ___ यथा हि मलिनर्वस्त्र यत्रतत्रोपविश्यते। ___एवं चलितवृत्तस्तु वृत्तशेषं न रक्षति ॥ जैसे मैले वस्त्रों वाला मनुष्य निःसंकोच होकर जहाँ-तहाँ-गन्दी जगहों में बैठ जाता है वैसे ही मलिन विचारों वाला मनुष्य सदाचरण से इतना विचलित हो जाता है कि अवसर-कुअवसर अपने गन्दे भावों को निःसंकोच प्रकट कर देता है, वह रहे-सहे सदाचार को भी ताक में रख देता है। इससे जननेन्द्रिय उत्तेजित होकर वीर्यस्राव कर देती है। ३. केलि–पराई बहू-बेटियों के साथ हँसी-मजाक करना, आँखमिचौनी खेलना, गेंद, होली, ताश आदि खेलने के बहाने उनके साथ कुचेष्टा करना, खेल के बहाने अंगस्पर्श करना केलि है। खेल-कूद या अन्य कामवर्द्धक कीड़ाओं के बहाने परस्त्रियों के साथ बार-बार बैठने तथा विविध विषय वासना की बातें करने का साहस या चाव हो जाता है । इस प्रकार की कामोत्तेजक क्रीड़ाएँ करने से भोली-भाली कुआरी कन्या, विधवा या युवतियाँ अनायास ही फंस जाती हैं। __ अथवा कई स्त्रियाँ भी ऐसी होती हैं जो कामक्रीडारसिक पुरुष को अपने इशारे पर नचाती हैं । वे धीरे-धीरे उस पुरुष को गुलाम बना लेती हैं। फिर वे उस प्रेमी से उचित-अनुचित सभी कार्य करवा लेती हैं। फ्रांस के सम्राट १५वें लुई ने एक तुच्छ स्त्री के कहने से हजारों अयोग्य व्यक्तियों को उच्च पद दे दिया और हजारों को मौत के घाट उतरवा दिया । अतः परस्त्री के साथ प्रणयलीला करना सर्पिणी से खेलने के समान है। इससे कामोत्तेजना भड़क उठती है, वीर्यच्युत हो जाता है। ४. प्रेक्षण-परस्त्री को कामवासना की दृष्टि से देखना। बहुत से कामुक लोगों की यह आदत होती है कि वे पराई बहू-बेटियों की ओर बराबर ललचाई आँखों से ताकते रहते हैं, कई आँखें लड़ाते हैं, कई उनके चेहरे और अंगोपांगों को देखते हैं, कई लोग नग्न नहाती हई स्त्रियों को देखते रहते हैं, कई लोग स्त्रियों के शृंगार, हाव-भाव आदि को बहुत गौर से देखते हैं । सौन्दर्य और शृंगार का निरीक्षण जहाँ भी अपवित्र काम-वासना की दृष्टि से होता है, वहाँ परस्त्रीसेवन का पाप आ जाता है। विषय-वासना से दूषित मन से जब किसी स्त्री का सौन्दर्य-निरीक्षण होता है तब वह मानसिक व्यभिचार हो जाता है। जिसे इस तरह ऊँट की तरह मुंह उठा कर स्त्रियों को घूरने का चस्का पड़ जाता है उसकी बुद्धि कामराग के बीहड़ वन में चरने चली जाती है, फिर शर्म-लिहाज से उसे कोई सरोकार नहीं रहता। ऐसे लोग For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ बहुधा गाली खाते, पिटते और सजा पाते हैं, फिर भी हँसकर अपने पाप को बढ़ाते रहते हैं । पापदृष्टि से परस्त्री - प्रेक्षण का कुफल - युवराज युगबाहु के बड़े भाई मणिरथ राजा ने एक दिन अपने छोटे भाई की पत्नी मदनरेखा को अपने महल की छत पर केश सुखाते देखा तो उसके रूप- लावण्य एवं अंग-प्रत्यंग को देखकर वह कामविह्वल हो गया । उसी पापदृष्टि से प्रेक्षण का परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे मणिरथ मदनरेखा को पाने के लिए तरह-तरह के पैंतरे रचने लगा । उसके पति युगबाहु को उसने किसी बहाने से विरोधी राजा के साथ युद्ध करने भेज दिया । फिर उसने मदनरेखा को कुछ कीमती वस्त्राभूषण उपहार में भेजे । उसने जेठजी के द्वारा प्रेषित उपहार सद्भावपूर्ण समझकर रख लिये । दूसरी बार जब मणिरथ ने एक कुट्टिनी के साथ उपहार भी भेजा और अपना कलुषित सन्देश भी । तब मदनरेखा चौंकी और उसे जेठजी के हृदय की पाप भावना का पता लगा । उसने कुट्टिनी को फटकारकर और धमकाकर दोनों उपहारों के साथ वापस भेज दिया । क्षुद्राशय मणिरथ ने इसका विपरीत अर्थ लगाया और एक रात को वह स्वयं सज-धजकर मदनरेखा के महल की ओर जाने लगा । माता ने उधर जाते देख टोका और कहा - "यह तो युगबाहु का शयनगृह है, यहाँ कहाँ जा रहा है ?" फिर भी कामुक मणिरथ ने थोड़ी देर रुककर पुनः उधर डग बढ़ाए। फिर कामी कुत्ते की तरह मदनरेखा से अपनी हृदयेश्वरी बनने की प्रार्थना करने लगा । मदनरेखा ने साहस के साथ फटकारा और अनुपम शिक्षा दी । मदनरेखा को पटाने में असफल मणिरथ क्रोध से आगबबूला होकर लौटा । उसने दृढ़निश्चय कर लिया कि जब तक युगबाहु को समाप्त नहीं किया जाएगा, तब तक मदनरेखा मेरी वशवर्ती नहीं होगी । युद्ध में विजयी होकर जब युगबाहु वापस लौटा तो वनविहार के बहाने युगबाहु को नगर के बाहर ही सुसज्जित पटमण्डप में रखा । एक पटमण्डप में युगबाहु और मदनरेखा का निवास रखा । अवसर देखकर मणिरथ युगबाहु के पटमण्डप के पास आया । युगबाहु से उसने पीने के लिए पानी माँगा । युगबाहु ज्यों ही पानी लेकर आया, त्यों ही अपनी विषबुझी तलवार से उसने युगबाहु पर प्रहार किया । एक ही झटके में युगबाहु गिर पड़ा और अन्तिम श्वास लेने लगा । कोलाहल सुनकर पहरेदार वहाँ पहुंचे तब तक मणिरथ घोड़े पर चढ़कर चोर की तरह भागा। रास्ते में ही उस कामुक पापी मणिरथ को एक सर्प ने डस लिया । वहीं उसका प्राणान्त हो गया । परस्त्रीसेवन की अपनी दुर्भावना के कारण मणिरथ मरकर सीधा नरक में पहुंचा । इधर युगबाहु मदनरेखा द्वारा चार शरण सुनकर सद्बोध पाकर शुभ भावों के कारण समाधिमरण के फलस्वरूप स्वर्ग में पहुंचा । मदनरेखा ने अपनी शीलरक्षा के हेतु वहाँ से वनप्रस्थान करना ही उचित समझा । For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्री-सेवन सर्वथा त्याज्य १५६ आगे की कथा लम्बी है। उससे यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है । निष्कर्ष यह है कि पापदृष्टि से परस्त्री को देखने के कारण ही आगे की पाप-परम्परा बढ़ी और वही मणिरथ को ले डूबी। ५. गुह्य भाषण-पराई स्त्री के साथ एकान्त में गुप्त बातचीत करना, स्त्रियों से संकेत द्वारा एकान्त में मिलना या मिलने की इच्छा प्रगट करना, मिलने पर कामसम्बन्धी अभिसन्धि करना, स्त्रियों में बार-बार आना-जाना और उन्हें गुप्त पत्र लिखकर अपने नीच अभिप्राय को प्रगट करना आदि सब गुह्य भाषण के अन्तर्गत हैं । गुप्त रूप से एकान्त में किसी स्त्री से बातचीत करने पर लोगों को शंका हो जाती है। इन घटनाओं को लेकर मार-पीट एवं हत्याकाण्ड तक की नौबत आ जाती है। ऐसा न हो तो भी सीधी-सादी, शान्त, भद्र परस्त्री या कन्या के मन में काम-वासना की आग भड़काकर उन्हें अपने पति और परिवार से अविश्वासिनी और झूठी बनाना, कितना जघन्य पापयुक्त और निष्ठुरता का कार्य है। ६. संकल्प-इसके दो अर्थ होते है—(१) संकल्प करना और (२) रंगीन कल्पनाओं में रचे-पचे रहना। चाहे जो हो मैं अमुक (पर) स्त्री से तो व्यभिचार करूंगा ही । इस प्रकार की धारणा ही संकल्प है। पूर्वोक्त पाँचों प्रकार के मैथुनांग जब परस्त्री के लिए भीतर ही भीतर जोर पकड़ते हैं, तब उनका विरोध नहीं होता और स्थिति यहाँ तक आ पहुंचती है । यह वह स्थिति है जहाँ आदनी कामान्धता की दशा में पहुंच जाता है। चोरी-छिपे से काम करना, हत्या मारपीट, नदी-नाले लाँघना, अपनी जान हथेली पर रखना यह सब कामान्ध के लिए नगण्य बातें हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में हजारों बोतलों का नशा चढ़ जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी अपनी जवानी में इसी तरह अपनी पत्नी रत्नावली के प्रति विषयान्ध और आसक्त थे। वे उसके रूप, यौवन और हावभाव पर इतने मतवाले हो गये थे कि एक दिन का वियोग भी उनके लिए असह्य था। एक दिन वे कहीं बाजार गये हुए थे। पीछे से उनका साला आया और उनकी पत्नी को ले गया। घर आने पर तुलसीदासजी को पता चला तो वे उसके विरह से व्यथित होकर ससुराल चल दिये । भादों की अँधेरी रात में उफनती हुई नदी एक मुर्दे की ठठरी पर चढ़कर पार की। ससुराल के घर के द्वार पर पहुँचकर दरवाजा खटखटाया, नहीं खुला तो एक सर्प को पकड़कर उसके सहारे दीवार फाँदी और अन्दर जा पहुंचे। रत्नावली की नींद उड़ गई थी। उसने तुलसीदासजी को देखा तो कुछ क्षण तक समझ ही नहीं सकी कि मामला क्या है ? ये घर में कैसे घुस आए ? फिर जब उसे पता लगा तो उसने फटकारा कि "जितनी प्रीति आपकी मेरे इस हाड़-मांस चर्म से आच्छादित इस शरीर (हराम) पर है, उतनी ही अगर राम में होती तो वेड़ा पार हो जाता ! आपको लज्जा नहीं आती चोर की तरह किसी के घर में घुसते !" For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आनन्द प्रवचन : भाग ११ बस, तुलसीदास जी को वचन का यह तीर लग गया । वे उलटे पैरों लौट गए । कामभक्त से वे रामभक्त बन गए । यह सच है कि वे अपनी पत्नी पर ही कामान्ध थे, किन्तु कामान्धता के साथ जो पत्नी के पास पहुँचने का उनका संकल्प था, वैसा ही संकल्प परस्त्रीगामी कामान्ध में हुआ करता है । ऐसी भयानक स्थिति में संकल्प पूर्ण होना, अथवा न होना, दोनों बातें भयंकर हैं | पूर्ण होने पर पतन और पाप का कुण्ड है और निष्फल होने पर क्रोध, प्रतिहिंसा, द्वेष और उसके राक्षसी परिणाम ! संकल्प का दूसरा अर्थ है - कल्पनाओं में डूबे रहना । श्रृंगाररसपूर्ण बाहियात उपन्यास पढ़कर, गन्दे सिनेमा, नाटक आदि या वेश्याओं आदि का नृत्य देखकर या अश्लील नारी चित्र देखकर मन में कामचेष्टापूर्ण दृश्यों की कल्पना में निमग्न रहना भी संकल्प है । ७. अध्यवसाय - किसी अप्राप्य स्त्री को प्राप्त करने के लिए पापपूर्ण प्रयत्न करना; संकल्प के अनुसार चेष्टा करना अध्यवसाय है । परस्त्री के प्रति इस प्रकार का अध्यवसाय करने वाले व्यक्ति के ज्ञान, शील, लज्जा और मर्यादा आदि गुणों को फाँसी लग जाती है । इसमें मनुष्य राक्षस बनकर छल से, बल से, युक्ति से, प्रलोभन से, यहाँ तक कि भय दिखाकर पराई नारी को अपने पास बुलाने की पापपूर्ण चेष्टा कर बैठता है । इस पापकार्य में जो भी रोड़े अटकाता है, उसे मार डालने का प्रयत्न किया जाता है। चाहे वह विघ्न डालने वाला उसका लड़का ही क्यों न हो अथवा उस स्त्री का पति या अन्य प्रेमी भी क्यों न हो । पापपूर्ण अध्यवसाय करने वाला व्यक्ति राक्षस-सा बन जाता है, वह हिताहित, कार्य- अकार्य नहीं देखता । मनोनीत परस्त्री को पाने के लिए हर सम्भव चेष्टा करता है । कई प्रेमी अपनी मनोनीत प्रेमिका को पाने में असफल होने पर आत्महत्या भी कर बैठते हैं । कई प्रेमिका के इन्कार करने पर उसे भी गोली का शिकार बना डालते हैं । कई बार परस्त्रीगामी कामुक व्यक्ति अत्यधिक व्यभिचारपूर्ण जीवन व्यतीत करने के बाद जब अत्यन्त शक्तिहीन हो जाते हैं, तब भी परस्त्रीगमन सम्बन्धी कलुषित विचार उनके पापी मानस में मँडराते रहते हैं । परन्तु बुढ़ापे में एक राजा साहब थे । वे अपनी जवानी में बड़े लम्पट थे । उनकी स्वयं व्यभिचार करने की शक्ति खत्म हो चुकी थी । फिर भी कुछ खुशामदी लोग उनके पीछे लगे रहते थे और अपनी तथा पराई बहू-बेटियों को राजासाहब की सेवा में ले आते थे । राजा साहब स्वयं तो कुछ करने योग्य न थे । वे उन स्त्रियों को अपने उन सेवकों को बाँट देते और फिर उन्हें स्वच्छन्दता और निर्लज्जता से व्यभिचार करने की आज्ञा दे देते थे । खुद सामने बैठकर इस तमाशे को देख-देखकर अपनी हवस मिटाते थे । For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्रीसेवन सर्वथा त्याज्य १६१ इस प्रकार अपने सामने मैथुन कराकर तमाशा देखने वाले परस्त्रीकामुक लोग मानसिक व्यभिचार की उन्मत्त अवस्था के नमूने हैं। ८. क्रिया निवृत्ति-प्राकृत या अप्राकृत किसी ढंग से छल, बल, युक्ति और प्रलोभन द्वारा किसी स्त्री को अपने जाल में फंसाकर उसके साथ प्रत्यक्ष सम्भोग करना या बलात्कार करना क्रिया निर्वृत्ति है। बहुधा परस्त्रीगामी लोग दासी मजदूरिन, चमारिन, भंगिन और रसोईदारिन आदि नीच जाति की स्त्रियों से फंसे होते हैं । वे न जाति देखते हैं, न उम्र और न रंग-रूप ही । बस, किसी भी तरह अपना व्यसन-पोषण करना ही उनका लक्ष्य होता है। बम्बई में बहुत-सी ऐसी नसें हैं, जो गरीब हैं, परन्तु वे जिन डॉक्टरों के अधीन रहकर रोगी की परिचर्या करती हैं, उनमें से अधिकांश नसें डॉक्टरों से लगी हुई होती हैं । परस्त्रीगामी पुरुषों की वृत्ति इतनी नीच हो जाती है कि वे न तो अपनी शक्ति देखते हैं, न धर्ममर्यादा, लोक-लज्जा और समाज-भीति का खयाल करते हैं, अपने मित्र, पड़ौसी या गुरु तक की स्त्रियों पर डोरे डालते रहते हैं। कई व्यभिचारी तो अपनी शक्ति और हैसियत देखे बिना ही परस्त्री को अपने जाल में फंसाते रहते हैं, फँसाते क्या, स्वयं जान-बूझकर फंसते हैं। ये सब मैथुन के आठवें अंग क्रिया-निष्पत्ति के उदाहरण हैं। क्रियानिष्पत्ति से पहले के सातों अंगों में बहुत-से अंगों का प्रयोग परस्त्रीगामी पहले ही कर चुकता है। यह भी परस्त्रीसेवन ही है—कई लोग यह शंका उठाते हैं कि यदि कोई स्त्री (जो स्वस्त्री न हो) किसी को चाहती है, बार-बार सहवास के लिए प्रार्थना भी करती है, इसके लिए उपहार और अन्य प्रलोभन भी देती है, अपना शरीर उसे सौंपने को तैयार होती है, ऐसी स्थिति में यदि वह पुरुष उसका आलिंगन, चुम्बन आदि करता है, उसके साथ स्पर्शसुख का आनन्द लेता है या उसकी कामेच्छा-पूर्ति करता है तो क्या आपत्ति है । इसका समाधान यह है कि परस्त्री की इच्छा न हो, तब उसके साथ जबर्दस्ती सहवास करना तो बलात्कार है ही, परन्तु परस्त्री की इच्छा हो तब भी उसके साथ सहवास आदि करना भी परस्त्रीसेवन है । सभी धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, आचारशास्त्र तथा समाजशास्त्र इस बात को अनैतिक, व्यभिचार, अधर्म, नैतिक पतन, नीतिमर्यादा का उल्लंघन एवं परस्त्रीसेवनरूप व्यसन ही मानते हैं । निष्कर्ष यह है कि परस्त्री के साथ उसकी इच्छा या अनिच्छा से संभोग करना, इतना ही परस्त्री-सेवन नहीं है, अपितु परस्त्री के साथ वासना की दृष्टि से क्रीड़ा करना, उसे विकारी दृष्टि से देखना, उससे छेड़-छाड़ करना, प्रेमपत्र लिखना, उसे अपने वश में करने के लिए वस्त्र-आभूषण, रुपये, नौकरी दिलाने, इनाम दिलाने या किसी भी प्रकार की सुविधा देने का लालच देना, किसी भी तरह से छल-वल-कल एवं भय से उसे अपने चंगुल में फंसाने का प्रयत्न करना, उसे पटाने के लिए एकान्त में बातचीत करना, उसके सामने कामक्रीड़ा का प्रस्ताव रखना या कुचेष्टा करना, For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ उस पर अत्यन्त मोहित होकर रात-दिन मन में उसके पाने का संकल्प-विकल्प करना, उसके विरह में सुध-बुध भूल जाना, खाना-पीना छोड़ देना, मूच्छित हो जाना, मन में उसे पाने का निश्चय करना, उसका अपहरण करना, उसे किराये के स्वतंत्र मकान में रखकर जब तब उसके साथ व्यभिचार करना, सिनेमा, चल-चित्र या नाटक आदि में स्त्रियों को देखकर उन पर मोहित हो जाना, आदि सब क्रियाएँ परस्त्रीसेवन के अन्तर्गत हैं। परस्त्रीसेवन : क्यों त्याज्य ? क्यों निषिद्ध ? प्रश्न होता है, आखिर परस्त्रीसेवन क्यों निषिद्ध और त्याज्य बताया गया है ? जैसी अपनी स्त्री, वैसी परस्त्री ! यह प्रतिबन्ध क्यों ? आखिर इस वैवाहिक बन्धन के पीछे कौन सा लाभ छिपा हुआ है ? इसका समाधान यही है कि नीतिकार, समाजशास्त्री, धार्मिक महापुरुष, भारतीय संस्कृति के उन्नायक तथा अनुभवी पुरुष एक स्वर से इस बात को स्वीकार करते हैं कि परस्त्रीसेवन पाप है, अधर्म है, अपराध है, नैतिक पतन है, भ्रष्टाचार है, गृहस्थ-जीवन की सुख-शान्ति को आग लगाने वाला अनिष्ट है, स्वच्छन्दाचार है, निरंकुशता है। आप कहेंगे, कैसे ? लीजिए क्रमशः इसका समाधान । परस्त्री सेवन : पापरूप है-जो व्यक्ति परस्त्रीगमन करता है, वह धर्म की किसी मर्यादा को नहीं मानता, उच्छखल होकर धर्म-मर्यादाओं का अतिक्रमण करता है। गृहस्थधर्म की मर्यादा बताते हुए श्रावक प्रतिक्रमण में कहा है 'सदारसंतोसिए अवसेसं मेहुणंविहि पच्चक्खाइ जावज्जीवाए' परस्त्री में सन्तुष्ट पति प्रतिज्ञा करता है कि "वह यावज्जीवन अपनी विवाहिता पत्नी को छोड़कर समस्त स्त्रियों के साथ मैथुन-सेवन का त्याग कर रहा है।" यही कारण है कि परस्त्रीसेवन पापजनक है। वह धर्म-मर्यादाओं को ताक में रखकर हिंसा, असत्य, चोरी, अपहरण, परिग्रह एवं व्यभिचार (अब्रह्मचर्य) रूपी महापाप का कारण तो है ही इसके अतिरिक्त क्रोधादि कषाय, राग-द्वेष, वैर-विरोध, कलह, . निन्दा आदि पापों का भी कारण हैं। परस्त्रीगामी पुरुषों द्वारा आये दिन भ्रूणहत्या, शिशुहत्या तथा अपने पुत्र, प्रेमिका के पति आदि की हत्याएँ धड़ल्ले से की जाती हैं। __ इसीलिए वाल्मीकि रामायण में कहा गया है ___'परदाराभिमर्शात् तु नान्यत् पापतरं महत् ।' -परस्त्री से अनुचित सम्बन्ध करने से बढ़कर कोई बड़ा पाप और कोई नहीं है। . . जो परस्त्री परपुरुष के फंदे में फंसती है, वह भी क्रूर और हत्यारी बन " जाती है । स्थानकवासी जैन साधु स्व० मुनि श्री विनयचन्द्रजी ने अपने ग्रन्थ में कच्छ की एक करुणा घटना का उल्लेख किया है For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्रीसेवन सर्वथा त्याज्य १६३ एक सेठानी एक भंगी से फँसी हुई थी। एक बार सेठानी के दुराचार को उसी के पुत्र ने देख लिया। उसने कहा-"मैं पिताजी से कह दूंगा।" यह सुनते ही तत्काल उस नर-राक्षसी ने अपने पुत्र को छरे से घायल कर दिया और गला घोटकर मृत्यु की गोद में सुला दिया। फिर पुत्र की लाश को भोजनशाला की छत में छिपा दिया। सेठ बाहर से आकर भोजन करने बैठा ही था कि उसकी थाली में ऊपर से लड़के के रक्त की बूंद गिरी। सेठ भोजन छोड़कर ऊपर देखने को जाने लगा। पीछे-पीछे सेठ का बड़ा लड़का भी जाने लगा। सेठानी ने सोचा-अब यह बात छिपी. नहीं रहेगी। मेरी निन्दा भी होगी और मौत की सजा भी मिलेगी। अतः उसने तत्काल ही सीढ़ी से नीचे उतरने के द्वार को बन्द कर दिया, और पास के घास वाले कमरे में आग लगाकर वहाँ से फरार हो गई। - हाय ! एक पाप को छिपाने के लिए परपुरुषगामिनी व्यभिचारिणी को हिंसा, असत्य, दम्भ, चोरी आदि कितने पाप करने पड़े। परस्त्रीसेवन अधर्म है-परस्त्रीसेवन करने वाले व्यक्ति में धर्म की कोई मर्यादा नहीं रहती। परस्त्रीगामी पुरुष अपनी बहन, बेटी, पुत्रवधू, अनुजवधू, भतीजी, चाची, ताई, मित्रपत्नी, गुरुपत्नी, राजपत्नी आदि का कोई विचार नहीं करता। वह कामान्ध होकर धर्ममर्यादा को तोड़कर अपनी बेटी, बहन या माता के समान स्त्री के साथ भी विषय-भोग में प्रवृत्त हो जाता है। वे बेचारी एक बार फँस जाने के बाद समाज में इज्जत जाने के डर से कुछ भी बोल नहीं सकती। परस्त्रीगामी के भाग्य में स्त्री-जाति को माता और बहन के रूप में देख सकना बदा ही नहीं होता । वह प्रत्येक स्त्री को भोग्या की दृष्टि से ही देखता है। ऐसा परस्त्रीलम्पट हर किसी पतिव्रता, सती, सुन्दर स्त्री को फँसाने और उसके साथ अनाचारसेवन करने की धुन में रहता है। ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में और वर्तमान समाचार पत्रों में मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि परस्त्रीसेवी कामान्ध व्यक्ति अपनी पुत्री, बहन या माता के तुल्य स्त्री के साथ बलात्कार करने में नहीं हिचकिचाता। कई बार तो एक व्यक्ति की परस्त्रीगामिता के कारण कई जन्मों तक लगातार वैर-विरोध चलता रहता है। भगवान् पार्श्वनाथ के तीर्थकर बनने से पूर्व दस भवों का वर्णन मिलता है। वह बड़ा रोचक और बोधप्रद है। तीर्थकर भव से पूर्व दसवें भव में भ० पार्श्वनाथ का जीव और कमठ का जीव दोनों सगे भाई थे । इनके पिता राजा अरविंद के पुरोहित थे।पार्श्वनाथ का जीव छोटा भाई था और कमठ का जीव बड़ा भाई । बड़ा भाई छोटे {भाई की स्त्री पर मोहित होकर उसके साथ दुराचार सेवन करने लगा। बड़े भाई की पत्नी को यह सब पता लग गया। उसने अपने देवर (पार्श्वनाथ के जीव) से सारी बातें कह दीं। छोटा भाई बहुत ही क्षुब्ध और क्रुद्ध हुआ। उसने जाकर अर-, For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ विंद राजा से शिकायत कर दी कि बड़ा भाई मेरी पत्नी के साथ अनुचित सम्बन्ध रखता है। राजा ने बड़े भाई को बहुत समझाया, जब वह किसी भी तरह से न माना, तब राजा ने उसे अपने राज्य से निष्कासित कर दिया। वह क्रोधाविष्ट होकर इधर-उधर परिभ्रमण करने लगा । एक जगह तापसों का आश्रम था, वहाँ पहुँचकर उसने तापसों से तापस दीक्षा ले ली। एक बार वही कमठ तापस घूमता-घामता अपनी जन्मभूमि में आया। वहाँ घोर तप करने लगा। लोगों में उसकी काफी शोहरत हो गई । कमठ के छोटे भाई (पार्श्वनाथ के जीव) ने जब यह सुना तो सोचा-'अब बड़ा भाई तापस हो गया है । उसके प्रति मन में से दुर्भाव निकाल देना चाहिए और वैरभाव न रखकर क्षमायाचना कर लेनी चाहिए । अतः वह कमठ तापस के पास गया और प्रणाम करके क्षमायाचना करने लगा। उसे देखते ही तापस का क्रोध उमड़ा-'क्षमा मांगने के बहाने यह मुझे और दग्ध करने आया है, इसी के कारण मेरी ऐसी दुर्दशा हुई। मजा चखाता हूँ इसे ।' यों क्रोध में आग-बबूला होकर एक बड़ा पत्थर उठाया, और प्रणाम करने के लिए झुके हुए छोटे भाई (पार्श्वनाथ के जीव) के सिर पर दे मारा। छोटे भाई का सिर फट गया। वह दुर्ध्यानवश मर कर जंगली हाथी बना । आश्रमवासी तापसों के पास कमठ की इस दुष्प्रवृत्ति का समाचार पहुंचा तो उन्होंने कमठ को आश्रम से निकाल दिया। वहीं से भाई के प्रति वैर की गांठ निविड़ हो गई। वह आगे पार्श्वनाथ के भव तक चली। कहने का मतलब यह है कि परस्त्रीगमन के कारण वैर की परम्परा कितनी लम्बी चलती है, इसका यह ज्वलन्त उदाहरण है। इस कारण परस्त्रीगमन अधर्म नहीं तो और क्या है ? परस्त्रीगमन मनुष्य में रहे हुए क्षमा, दया, सन्तोष, विनय सत्य, अहिंसा, सेवा आदि धर्मजनक गुणों को नष्ट कर देता है। परस्त्री-सेवन अपराध है-राजकीय कानून के अनुसार परस्त्री के साथ अनाचारसेवन करना अपराध है, उसका दण्ड उसे मिलता है। बहुत से दुराचारी लोग राजकीय कानून की परवाह नहीं करते । जैसे-तैसे रिश्वत देकर छूट जाते हैं। मगर ऐसे लोग कभी न कभी पकड़ में आ जाते हैं, तब बुरी तरह पिटते हैं, भयंकर सजा मिलती है। मृत्युदण्ड तक की सजा उन्हें भोगनी पड़ती है। कभी-कभी ऐसे लोग बलात्कार करके उस स्त्री की हत्या कर देते हैं। जब पकड़े जाते हैं, तब उन्हें भयंकर सजा यहां मिलती है। सन् ७० की एक सच्ची घटना अखबार में पढ़ी थी। गुण्डा विरोधी स्टाफ के इन्चार्ज श्री मलिकराय ने मुहल्ला किशनपुर में छापा मारकर दो नौजवान औरतों -मिंदों और शीला तथा उनके प्रेमियों--दर्शन और मथुरादास को गिरफ्तार कर लिया। ये दोनों औरतें व्यभिचार के लिए जालंधर लाई गई थीं। बाद में २५) रु० के लेन-देन पर परस्पर झगड़ा हो गया था। पुलिस ने गिरफ्तार करके उन्हें भारी सजा दी। For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्रीसेवन सर्वथा त्याज्य १६५ परस्त्रीसेवन : नैतिक पतन-परस्त्रीसेवन नैतिक पतन के सभी रास्ते खोल देता है । परस्त्रीगामी पुरुष नीति-अनीति का कोई विचार नहीं करता। वह सामाजिक जीवन में अत्यन्त निन्दित और घृणित होता है। परस्त्रीगामी पुरुष पर कोई भी स्त्री, यहाँ तक कि उसकी अपनी लड़की या बहन भी, विश्वास नहीं करती। उसकी पत्नी का भी उस पर से विश्वास उठ जाता है। परस्त्रीगामी को नई-नई स्त्रियों से दुराचार करने का चस्का लग जाता है, तब उसकी पत्नी उसे अच्छी नहीं लगती। इस प्रकार पति-पत्नी के बीच मनमुटाव हो जाने तथा पत्नी को परस्त्रीगामी पति से असन्तोष हो जाने के वह भी व्यभिचारणी बन जाती है। प्रायः स्त्रियाँ परपुरुषगामिनी नहीं होती किन्तु जब परस्त्रीगामी पुरुष स्वयं विवाह के समय की हुई एकपत्नीव्रत की प्रतिज्ञा पर दृढ़ नहीं रहता, तब अपनी पत्नी को वह परपुरुषगामिनी बनने के लिए बाध्य कर देता है। इसीलिए नैतिक मर्यादा यह बाँधी गई कि पुरुष अपनी विवाहिता पत्नी में ही सन्तुष्ट और मर्यादित रहे, इसी तरह स्त्री भी अपने विवाहित पति में सन्तुष्ट एवं अनुरक्त रहे। उपासकदशांग सूत्र के वें अध्ययन में महाशतक श्रावक का वर्णन आता है । महाशतक की स्त्री रेवती मांसभक्षिणी थी, किन्तु महाशतक पर अनुरक्त थी। इस कारण महाशतक ने यह निश्चय किया कि अगर मैं रेवती का त्याग कर दूंगा तो सम्भव है वह व्यभिचारिणी बन जाए। इससे मालूम पड़ता है कि मांससेवन की अपेक्षा व्यभिचार महाशतक श्रावक की दृष्टि में मांसभक्षण से अधिक नहीं तो उसके समकक्ष पाप अवश्य था, बल्कि एक दृष्टि से मांसाहार की अपेक्षा व्यभिचार नैतिक पतन का अधिक प्रबल कारण है। परस्त्रीसेवन : पारिबारिक अशान्ति का कारण व्यभिचार नैतिक जीवन का सर्वनाश कर देता है। परस्त्रीगामी पुरुष अपने नैतिक जीवन को नष्ट करता है सो करता है, अपनी सन्तति में भी ऐसे कुसंस्कार और दुर्गुणों का चेप लगा देता है । क्योंकि माता-पिता के सदाचार-दुराचार या सद्गुण-दुर्गुण का प्रभाव उसकी संतति पर पड़े बिना नहीं रहता। परस्त्रीगामी पुरुष स्वयं तो बदनाम होता ही है, अपने परिवार और पत्नी को भी बदनाम कर देता है, अपने कुल को भी कलंकित करता है। उसका अपनी पत्नी से सदा कलह होता रहता है । उसके संतान या तो होती ही नहीं, होती है तो दुर्बल, रुग्ण और दुराचारिणी होती है। परिवार में अशान्ति बनी रहती है। परस्त्रीसेवन : स्वास्थ्य का शत्रु-परस्त्रीगामी का जीवन दूषित, भ्रष्ट, कलंकित और पापपूर्ण रहता है, इसका प्रभाव उसके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़े बिना नहीं रहता। शीघ्र ही उसे भय, क्रोध, दैन्य, शोक, अपमान, हीनभावना, निरुत्साह, अधैर्य, चिड़चिड़ाहट आदि मानसिक रोग घेर लेते हैं। परस्त्रीगामी की संचित कीर्ति र हो जाती है। कीर्ति नष्ट होने के साथ ही धन-वैभव भी उसे तिलांजलि दे For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ देते हैं । वीर्य नष्ट हो जाने के कारण उसके शरीर-बल, स्वास्थ्य, उत्साह, वीर्य (पराक्रम) आदि नष्ट हो जाते हैं । जैसे गर्म तवे पर पानी की बूंद डालते ही वह नष्ट हो जाती है, वैसे ही व्यभिचार की आग में उसका सारा सत्त्व जल जाता है । इसीलिए मनुस्मृतिकार कहते हैं दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः। दुःखभागी च सततं, व्याधितोऽल्पायुरेव च ॥ नहीदृशमनायुष्य लोके किचन दृश्यते । यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम् ॥ -दुराचारी पुरुष लोक में निन्दित होता है। वह सदा दुःखी, रोगग्रस्त एवं अल्पायु होता है। इस संसार में पुरुष का आयुष्य बल क्षीण करने वाला ऐसा कोई भी कार्य नहीं है, जैसा कि परस्त्रीसेवन । परस्त्रीगामी के पास चाहे कितना ही धन हो, उसका तन और मन सदैव अस्वस्थ एवं कलुषित बना रहता है । इस कारण उसका इहलौकिक जीवन तो दुःखमय बनता ही है, पारलौकिक जीवन भी घोर दुःखमय बनता है, क्योंकि उसे अपने भयंकर पाप के फलस्वरूप नरकयात्रा करनी पड़ती है, जहाँ भयंकर यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। _____ महात्मा गाँधीजी परस्त्रीसेवन की बुराइयों का वर्णन करते हुए लिखते हैं -"जहाँ परस्त्रीसेवन नहीं होगा, वहाँ ५० प्रतिशत डॉक्टर बेकार हो जाएंगे।" - परस्त्रीगमन के कारण सुजाक, आतशक, भंगदर, टी. बी. (राजयक्ष्मा), केंसर आदि भयंकर बीमारियाँ हो जाती हैं । सारी जिन्दगी भर वह इलाज कराते-कराते थक जाता है, घर का सारा धन स्वाहा हो जाता है । परस्त्रीगमन से होने वाले इन भयंकर रोगों की दवाइयाँ भी ऐसी ही विषैली होती हैं। उन दवाइयों से एक रोग नष्ट होता है, तो दूसरे रोग शरीर में घर करने लगते हैं। कई रोग तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते हैं। कभी-कभी तो परस्त्रीगामी की परस्त्रीगमन करते ही तत्काल मृत्यु भी हो जाती है। . इन सब कारण-कलापों को देखते हुए ही महर्षि गौतम ने, नहीं-नहीं; सभी धर्मों के महापुरुषों ने, नीतिज्ञों ने, संस्कृति के उन्नायकों और समाजविज्ञानशास्त्रियों ने परस्त्रीसेवन को एकस्वर से निषिद्ध, त्याज्य और अकार्य बताया है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् में परस्त्रीसेवन को अनार्य कर्म बताया है। योगशास्त्र में भी स्पष्ट कहा है प्राणसन्देहजननं परमं वैरकारणम् । लोकद्वयविरुद्धं च परस्त्रीगमनं त्येजत् ॥ -परस्त्रीगमन प्राणनाश'के सन्देह को उत्पन्न करता है, परम वैर का कारण है, और इहलोक-परलोक दोनों के विरुद्ध है। इसलिए परस्त्रीगमन को सर्वथा त्याज्य समझना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्रीसेवन सर्वथा त्याज्य १६७ परस्त्रीसेवन : स्वस्त्रोसेवन से अधिक भयंकर पाश्चात्य देशों में और उनकी देखा-देखी भारतवर्ष में भी बहुत से लोग इस विचार के होते जा रहे हैं कि विवाह करके क्यों स्त्री-पुरुष एक दूसरे के बन्धन में पड़ें ? स्त्री किसी एक पुरुष की होने पर उसे सन्तान के पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा. संस्कार, विवाह आदि बन्धनों में जकड़े रहना तथा पुरुष की आज्ञाधीनता में रहना पड़ता है। इसी प्रकार पुरुष को किसी एक स्त्री के साथ विवाह करने से उसके साथ बँध जाना पड़ता है। उसके सभी निजी खर्चों को वहन करना पड़ता है। उसके वस्त्र, आभूषण, फैशन-शृंगार तथा अन्य किसी मौज-शौक के लिए खर्च करना पड़ता है, संतान होने पर उसके जन्म से लेकर विवाहित होने तक का सारा खर्च पुरुष को करना पड़ता है। अत: विवाहित होकर पति-पत्नी के रूप में बंधन को क्यों स्वीकार किया जाए ? विवाहित होकर इन स्थायी खर्चों में पड़ने के बजाय जिस समय मन में कामेच्छा उत्पन्न हो तभी स्त्री-पुरुष अपने-अपने मनोनीत किसी पुरुष या किसी स्त्री से पैसे फेंककर सहवास कर लिया जाए और कामेच्छा पूर्ति होने के बाद दोनों एक-दूसरे से अलग हो जायँ । ऐसे बहुत-से व्यर्थ खर्चों से बचने का क्या यह उपाय सही नहीं है ? फिर ऐसे लोगों का यह भी कुत्सित विचार है कि स्वस्त्री या स्वपति से विषय-भोग करने और परस्त्री या परपति के साथ करने में क्या अन्तर है ? रज-वीर्य दोनों में समान ही तो नष्ट होता है; बल्कि स्वस्त्री स्वपति के साथ तो खुली छूट होने के कारण विषय-भोग पर कोई नियंत्रण नहीं रहता, जबकि परस्त्री या परपति के साथ विषयभोग तभी सेवन किया जाएगा जब कामेच्छा प्रबल होगी। __ लाटी-संहिता में भी इसी प्रकार का एक प्रश्न उठाकर उसका समाधान किया गया है कि विषय-सेवन करते समय जो क्रिया धर्मपत्नी में की जाती है, वही क्रिया दासी में की जाती है, अतः क्रिया में भेद न होने से उन दोनों (दासी और पत्नी) के सेवन में भेद नहीं होना चाहिए? इसका समाधान यह दिया गया है कि परिणामों में शुभत्व-अशुभत्व का अन्तर होने से कर्मबन्ध में भी मन्दता-तीव्रता आदि के कारण पत्नी और दासी दोनों के सेवन में महदन्तर आ जाता है । स्वपत्नी-सेवन में विषय-लालसा इतनी तीव्र व अशुभ नहीं होती, जबकि दासी या अन्य स्त्री के सेवन में विषय-लालसा तीव्र एवं अशुभ होती है । पानी एक ही प्रकार का होने पर भी चन्दन और रेतीली जमीन आदि का स्पर्श पाकर पात्रभेद से नाना रूप में परिणत हो जाता है, तथैव धर्मपत्नी एवं दासी आदि के साथ एक-सी क्रिया होने पर भी पात्रभेद से परिणामों में अन्तर होने से कर्मों के भी शुभाशुभ बन्ध में अन्तर पड़ जाता है। १. लाटीसंहिता, २११८६ से १६५ तक तथा २०६, २१२, २१६ श्लोक For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ यह तो हुआ शास्त्रीय दृष्टि से समाधान । अब लीजिए धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र एवं अनुभव की हाट से समाधान पतिव्रता स्त्री और प्रेमिका में धार्मिक दृष्टि से जमीन-आसमान का अन्तर होता है । पतिव्रता पत्नी को शास्त्र में सहधर्मचारिणी, धर्मपत्नी या धर्मसहाया कहा गया है, प्रेमिका धर्मसहाया या सहधर्मचारिणी कदापि नहीं होती, बल्कि धर्मभ्रष्ट करने वाली एवं पतन के गड्ढे में डालने वाली होती है। पतिव्रता नारी के गुणों की जरा-सी झांकी वाल्मीकि रामायण में राम-लक्ष्मण संवाद में मिलती है कार्येषु मंत्री, करणेषु दासी, धर्मेषु पत्नी क्षमया धरित्री। भोज्येषु माता, शयनेषु रम्भा, रंगे सखी, लक्ष्मण ! सा प्रिया मे ॥ रामचन्द्रजी लक्ष्मण को सीता का परिचय देते हुए कहते हैं-'लक्ष्मण ! मेरी वह प्रिया (सीता) विविध कार्यों (कर्तव्यों) में मंत्री-समान परामर्शदात्री है, कार्यों को निपटाने में दासी के समान है, धर्मकार्यों में पत्नी है, क्षमागुण के कारण पृथ्वीसम है, भोजनादि कार्यों में मातृ-सम है, शयन में रम्भा है, तथा आमोद-प्रमोद में सखी है। मतलब यह है कि लज्जा, दया, क्षमा, सेवा, स्नेह, धर्माचरण वृत्ति, शील, सन्तोष, शान्ति, सच्चरित्रता आदि मुख्य गुण जो पतिव्रता में होते हैं, वे गुण परस्त्री या प्रेमिका में प्राप्त होने अत्यन्त कठिन हैं ? प्रेमिका में लज्जा-अकार्य करने में कोई शर्म नहीं होती, अपने विषयानन्द में बाधक बनने वाले पुत्र, पति, श्वसुर आदि की भी हत्या करते हुए उसे संकोच नहीं होता, अत: दया और क्षमा के गुण कहाँ से होंगे, उसमें ? जो सेवा पतिव्रता गृहिणी कर सकती है, क्या वैसी परस्त्रीया प्रेमिका कर सकती है ? जो कामभोग के कीड़े हैं, वे दुर्विषयभोग को ही विवाह का लक्ष्य समझते हैं, लेकिन विवाह का यह लक्ष्य कदापि नहीं है। पाश्चात्य संस्कृति के लोग इस विषय में बहुत पिछड़े हुए एवं अनुभवहीन हैं । यद्यपि उन्हें यह अनुभव तो बाद में हो ही जाता है कि जो सुख-शान्ति, स्नेह, निश्छलता, सेवाभावना स्वस्त्री में होती है, वह कदापि प्रेमिका या परस्त्री में नहीं होती। पाश्चात्यजन न तो विवाह का ही शुद्ध लक्ष्य समझते हैं और न ही ब्रह्मचर्य से प्राप्त होने वाले संयमी जीवन के आनन्द को जानते हैं। जब कि भारतीय संस्कृति में विवाह का लक्ष्य पति-पत्नी दो आत्माएँ मिलकर विषय-वासना को सीमित एवं नियंत्रित करते हुए उससे ऊपर उठकर पूर्ण ब्रह्मचर्य की ओर बढ़ना माना गया है । ब्रह्मचर्यपथ पर जाने में परस्पर एक दूसरे की दुर्बलताओं को दूर करना और सहयोग देना है। __निष्कर्ष यह है कि स्वविवाहिता स्त्री दुर्विषयभोग के लिए नहीं होती, जब १. भारिया धम्मसहाइया धम्मविइज्जिया धम्माणुरागरत्ता समसुहदुक्खसहाइया। -उपासकदशांग For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्रीसेवन सर्वथा त्याज्य १६६ कि परस्त्रीगमन केवल दुर्विषभभोग की दृष्टि से ही किया जाता है। वहां कोई उदात्त लक्ष्म है ही नहीं। परस्त्री जब तक जवान और विषयभोग-योग्य रहती है, तब तक ही अपनाई जाती है, उसके साथ आजीवन आत्मीय सम्बन्ध नहीं होता, इसलिए उसके बीमार पड़ जाने, अंगविकल हो जाने, असुन्दर हो जाने या रस निचुड़ जाने पर दूध में पड़ी मक्खी की तरह उसे निकाल फेंका जाता है, और परस्त्री भी प्रेमी के क्षतवीर्य हो जाने, नपुंसक हो जाने, अंगभंग हो जाने या असाध्य रोग से आक्रान्त हो जाने पर उसे छोड़ देती है, उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखती । इसके विपरीत भारतीय पतिव्रता नारियों के तो ऐसे-ऐसे आश्चर्यजनक उदाहरण मिलते हैं कि पति कुरूप हो, अंगविकल हो, नामर्द हो गया हो, लकवे आदि दुःसाध्य रोगों से ग्रस्त होने पर भी उस की धर्मपत्नी आजीवन सेवा करती रही है। सौराष्ट्र में बालम्भी गांव की एक गुर्जरक्षत्रिय की पत्नी का पति विवाह के एक-दो वर्ष बाद ही पक्षाघात रोग से पीड़ित हो गया । लेकिन उसकी पत्नी ने करीब १६ वर्ष तक-जब तक वह जीवित रहा तब तक अग्लानभाव से सेवा की। कभी सेवा से मुंह नहीं मचकोड़ा। एक भैस उसने रखी थी, उसी का दूध बेचकर वह अपनी आजीविका चलाती थी और इस पति-सेवा के अवसर को वह अपना सौभाग्य समझती थी। क्या परस्त्री इस प्रकार की सेवा अपने प्रेमी की कर सकती है ? यही नहीं, पुरुष भी क्या अपनी प्रेमिका (परस्त्री) की विपन्नावस्था में इस प्रकार से सेवा कर सकता है ? परन्तु भारतीय संस्कृति का वरदान ही ऐसा है कि पत्नी रुग्ण हो और घर में अन्य कोई महिला सेवा करने वाली न हो तो पुरुष भी उसकी आत्मीयभाव से सेवा करता है। मांडलनिवासी रतिलाल मघाभाई शाह के जीवन की एक घटना है। एक बार उनकी धर्मपत्नी के पैर में सड़ान हो गई। स्वयं चल-फिर नहीं सकती थी, न ही स्वयं टट्टी-पेशाब कर सकती थी। घर में एक अर्धअंधी वृद्ध माता और एक नन्हीं बालिका भारती के सिवाय और कोई नहीं था। पत्नी को अपने पति (रतिभाई) से सेवा लेने में संकोच हो रहा था। लगातार ६ महीने तक पत्नी को स्वयं रतिभाई दवाखाने ले जाते थे, क्योंकि आर्थिक स्थिति तंग होने के कारण घर पर डॉक्टर बुलाना सम्भव नहीं था। फिर जब उसके पैर पर प्लास्टर चढ़ाया गया, तब कुछ दिन तो पड़ोस की कुछ बहनें लोकव्यवहार के कारण मलमूत्र साफ कर जातीं, किन्तु रोज किसी को कहने में पति-पत्नी दोनों को संकोच होता था। अत: रतिभाई ने साहस करके अपने पुरुषत्वाभिमान को तिलांजलि देकर प्रतिदिन पत्नी का मल-मूल फेंकने और टब साफ करने एवं अन्य सेवा करने का कर्तव्य निभाया। उनकी पत्नी की आँखों में कृतज्ञता के आँसू थे। सचमुच रतिभाई ने वंश परम्परागत कुसंस्कारों के कवच को छिन्न-भिन्न For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आनन्द प्रवचन : भाग ११ करके अपनी पत्नी की रुग्णावस्था में अग्लानभाव से सेवा की और नरनारी-समानाधिकार तथा पत्नीव्रत के आदर्श को निभाया । स्वतंत्र स्त्री-पुरुषों में (परस्त्री-परपुरुष में) दाम्पत्य प्रेम, हार्दिक या आत्मिक प्रेम तो नाममात्र को भी नहीं होता, इस कारण उनसे होने वाली सन्तान पर भी कोई प्रेम नहीं रहता। बल्कि दुर्विषयभोग के शिकार बने हुए प्रेमी-प्रेमिका प्रसवक्रिया के समय ही संतान को समाप्त कर देते हैं । प्राय: ऐसी अवैध संतान को समाप्त कर देने में वे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा सुरक्षित समझते हैं। कभी-कभी तो कृत्रिम संतति नियमन करके संतति-प्रवाह को भी लुप्त कर देते हैं। __ इसके अतिरिक्त स्वच्छन्द स्त्री-पुरुष सिर्फ यौनाचार तक ही सम्बन्ध रखते हैं, विषयभोग की शक्ति खत्म हो जाने पर न तो एक दूसरे की सेवा करते हैं, न सारसंभाल रखते हैं, न ही सुख-दुःख में साथी-समभागी बनकर रहते हैं। बन्धओ ! परस्त्रीसेवन किसी भी हालत में अनुमोदनीय व समर्थन योग्य नहीं है। यही कारण है कि महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में स्पष्ट प्रेरणा दी है 'न सेवियव्वा पमया परक्का' । - आप भी भारतीय संस्कृति के इस अनुभवयुक्त जीवनसूत्र को क्रियान्वित करके इस लोक और परलोक में सुखी बनें। For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं जीवन-व्यवहार के एक विशिष्ट नैतिक पहलू की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ। महर्षि गौतम ने अपनी अनुभूति की आँखों से देख-समझकर इस महान् जीवनसूत्र द्वारा नैतिक प्रेरणा दी है। गौतमकुलक का यह ५६वाँ जीवनसूत्र है, जिसका अक्षर देह इस प्रकार है 'न सेवियव्वा पुरिसा अविज्जा' 'अविद्यावान पुरुषों का सेवन—संग नहीं करना चाहिए।' अविद्यावान पुरुष किसे कहते हैं ? अविद्यावान के लक्षण क्या हैं ? उनका सेवन—संग क्यों नहीं करना चाहिए ? उनके सेवन से क्या-क्या हानियाँ हैं ? इन सब पहलुओं पर हमें गम्भीरता से विचार करना अनिवार्य है। अविद्यावान : कौन और कैसा ? यों तो किसी के ललाट पर नहीं लिखा होता है कि यह व्यक्ति विद्यावान है, यह अविद्यावान है। विद्यावान-अविद्यावान की परख उसकी बोली, चाल-ढाल, बातचीत, व्यवहार और गुणावगुण पर से ही प्रायः की जा सकती है। सफेदपोश और छल-छबीले वेश में अनेक अविद्याधनी फिरते दिखाई देते हैं। उनके एक ही विचार और व्यवहार को देख-सुनकर आप स्वयं पहचान जाएँगे कि यह अविद्यामूर्ति हैं, यह नहीं। यों तो अपने आप में कोई भी व्यक्ति अविद्यावान नहीं कहलाना चाहता। सभी अपने आप में अप-टु-डेट और विद्या के अवतार कहलाना पसंद करते हैं। विद्यावान और अविद्यावान का यथार्थ अर्थ समझने के लिए हमें सर्वप्रथम विद्या और अविद्या का स्वरूप समझ लेना चाहिए। विद्या क्या है ?--विद्या शब्द का सामान्य अर्थ होता है-जानकारी। किन्तु शास्त्रों और ग्रन्थों का अनुशीलन करने पर विद्या शब्द कई विशिष्ट अर्थों में भी प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है। जैसे कि विशिष्ट मंत्रों द्वारा विशिष्ट चामत्कारिक शक्तियों की आराधना और उन शक्तियों की सिद्धि को भी विद्या कहा गया है। अध्यापकों के माध्यम से छात्रों द्वारा किसी विषय की सांगोपांग ज्ञान-प्राप्ति को भी विद्या कहते हैं। इस प्रकार संसार में विद्या के अनेक रूप हैं, किन्तु ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि से ये विद्याएँ वस्तुतः विद्या नहीं हैं । उनका उद्घोष है 'सा विद्या या विमुक्तये' For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ वह जानकारी ही सच्ची विद्या है, जिससे जीव बन्धनों से मुक्त होता है, स्वतंत्रता को प्राप्त करता है। अर्थात सच्ची विद्या वह है जिससे मानसिक, आत्मिक एवं बौद्धिक बन्धन या पारतंत्र्य कटे। __ मतलब यह है, जो विद्या स्वावलम्बी बनाती है, आत्मनियंत्रण की कला सिखाती है, जो विषय-भोगों से छूटने की युक्ति बताती है; इससे भी आगे बढ़कर कहूँ तो विद्या देहधर्म से ऊपर उठकर आत्मधर्म में प्रवेश करने की विधि बतलाती है, देह में आसक्ति करने की नहीं। जो विद्या परावलम्बी बनाती है, आवेगों में बहने की शिक्षा देती है, विषयों से आबद्ध होने की युक्ति बताती है, देहाध्यास की प्रेरणा देती है, वह कुविद्या है, सुविद्या नहीं ।' इसी दृष्टि से विद्या और अविद्या का अर्थ अध्यात्मरामायण में स्पष्ट किया गया है देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता। . नाऽहं देहश्चिदात्मेति बुद्धिविद्योति भण्यते ॥ —'मैं शरीर हूँ' इस प्रकार की जो बुद्धि है, वह अविद्या कहलाती है जबकि 'मैं शरीर नहीं, ज्ञानस्वरूप (चिद्) आत्मा हूँ' इस प्रकार की बुद्धि विद्या कहलाती है। कुविद्या परतंत्रता से मुक्ति के लिए नहीं होती। वह व्यक्ति को स्वावलम्बी नहीं बनाती, आत्मिक दीनता से पिण्ड नहीं छुड़ाती; वह विद्या, विद्या के रूप में एक प्रकार की अविद्या है, भले ही उसके लिए बड़े-बड़े विद्यालय, महाविद्यालय आदि खुले हों, और जिनमें पारंगत होने पर बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों से प्रमाण पत्र प्राप्त हुए हों। वैसे तो विद्या मुख्यतया दो प्रकार की है-लौकिक और लोकोत्तर । लोकोत्तर विद्या की परिभाषा तो अभी-अभी मैं कर चुका हूँ। 'इसिभासियाई' में लोकोत्तर विद्या का लक्षण इस प्रकार दिया गया है जेणं बंधं च मोक्खं च जीवाणं गतिरागति । दयाघावं च जाणंति, सा विज्जा दुक्खमोयणी ॥' -जिसके द्वारा जीवों के बन्ध-मोक्ष, गति-आगति और आत्म-स्वरूप का ज्ञान हो, वही विद्या दुःख से मुक्त करने वाली है। शंकराचार्य प्रश्नोत्तरी में इसी विद्या का लक्षण दिया गया है विद्या हि का? ब्रह्मगतिप्रवा या । -विद्या कौन सी है ? जो ब्रह्मगति प्रदान करती हो। भगवद्गीता में अध्यात्मविद्या को ही सब विद्याओं में श्रेष्ठ बताया है। लोकोत्तर विद्या तो एकान्त रूप से उपादेय है ही, इसमें कोई सन्देह नहीं; किन्तु वह लौकिक विद्या भी उपादेय होती है, जो धर्म से अनुप्राणित हो, न्याय-नीति २. शंकर प्रश्नोत्तरी ११ १. इसिभासियाई १७/२ ३. 'अध्यात्मविद्या विद्यानाम्'-गीता १०।३२ For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य १७३ और सदाचार से पुनीत हो; विनय, दया, परोपकार आदि गुणों से युक्त हो, जो दान, शील, तप और भाव की प्रेरणा देती हो । वैदिक विद्वानों ने ऐसी लौकिक विद्या को अपरा विद्या कहकर उसके १४ भेद बताएँ हैं— चार वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष, तथा इतिहास, पुराण, मीमांसा और न्याय । १ जैन विद्या- पारंगतों ने भी इन्हीं नामों से १४ भेद विद्या के माने हैं-चार वेद - ( १ ) प्रथमानुयोग ( २ ) करणानुयोग ( ३ ) चरणानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग | इन वेदों के ६ अंग हैं -- ( ५ ) शिक्षा (६) कल्प, (७) व्याकरण, (८) निरुक्त (E) छन्द, और (१०) ज्योतिषि । तथा ( ११ ) इतिहास - पुराण ( १२ ) मीमांसा (१३) न्याय और (१४) धर्मशास्त्र; ये १४ विद्याएँ हैं । चार अनुयोग तो प्रसिद्ध हैं ही। शिक्षा कहते हैं - स्वर - व्यंजनादि वर्णों के शुद्ध उच्चारण और लेखन को बताने वाली विद्या को, कल्प — धार्मिक आचारविचार का निरूपकशास्त्र, व्याकरण — जिससे भाषा के लिखने-पढ़ने-बोलने का शुद्ध बोध हो, निरुक्त – शब्दों के प्रकृति, प्रत्यय आदि का विश्लेषण करके प्राकरणिक या द्रव्य-पर्यायात्मक या अनेक धर्मात्मक पदार्थ का निरूपण करने वाला शास्त्र, छन्द - पद्यों के विविध प्रकारों का निर्देशक शास्त्र, ज्योतिष – शुभाशुभ फलसूचक विद्या, इतिहास - पुराण- प्राचीन इतिहास की बातें जिन शास्त्रों में है, मीमांसा - विभिन्न मौलिक सिद्धान्तबोधक वाक्यों पर विश्लेषण करके चिन्तन प्रस्तुत करने वाली विद्या, न्याय – प्रमाणों और नयों का विवेचन करने वाला शास्त्र, धर्मशास्त्र - अहिंसाधर्म के निश्चय-व्यवहार दोनों रूपों का विवेचन करने वाले शास्त्र । यह है चौदह विद्याओं का निरूपण । वैदिक मतानुसार जिसमें अक्षर परमात्मा का ज्ञान हो, वह पराविद्या कहलाती है । इससे मालूम होता है कई प्रकार की भौतिक विद्याएँ भी होती हैं । लौकिक व्यवहार में भाषा ज्ञान, गणित, इतिहास, भूगोल, समाजविज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र, भौतिकविज्ञान आदि विविध ज्ञान-विज्ञान, शिल्प एवं कला आदि को विद्या कहते हैं । जैनधर्मानुसार उपर्युक्त विद्याओं में लौकिक और लोकोत्तर दोनों ही विद्याओं का समावेश हो जाता है । जीव आदि तत्त्वों की केवल जानकारी ही विद्या-ज्ञान नहीं है, अपितु उनके स्वरूप की प्रतीतियुक्त जानकारी ही सच्ची विद्या है । लौकिक विद्या के साथ अध्यात्म, धर्म और नीति का पुट हो तो वह विद्या भी उपादेय हो सकती है । १. पाणिनीय शिक्षा और याज्ञवल्क्य शिक्षा । २. नीतिवाक्यामृत ७।१ For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ वर्तमान युग की भाषा में पढ़े-लिखे या शिक्षित (Educated) को विद्यावान कहते हैं। ___ जो भी हो, प्रत्येक धर्मशास्त्र में विद्या का बहुत बड़ा महत्त्व बताया गया है। शंकर प्रश्नोत्तरी में भी विद्या की महत्ता इन शब्दों में बताई है "मातेव का या सुखदा ? सुविधा। किमेधते दानवशात् ? सुविद्या ॥"१ -माता के समान सुख देने वाली कौन है ? सुविद्या है । देने से कौन सी चीज बढ़ती ह ? सुविद्या। विद्या वह धन है जिसे न तो राजा ले सकता है, न चोर चुरा सकता है, न जिसमें से भाई लोग हिस्सा ले सकते हैं तथा जो खर्च करने से बढ़ता है। इसलिए विद्या धन सभी धनों में श्रेष्ठ है। यदि किसी व्यक्ति के पास पवित्र विद्या है तो उसे धन से क्या प्रयोजन है। जो विद्या से रहित है, वह पशु है।४। अविद्या क्या है ?–अविद्या विद्या से विपरीत स्थिति है। विद्या के जो लक्षण बताये गये हैं, उससे उलटी तथा दुःखदायिनी, अहंकारवर्द्धक, काम-क्रोध आदि दुर्गुणों की उत्पादक अविद्या है । वेदान्त की भाषा में माया को अविद्या कहते हैं, जैन परिभाषा में अज्ञान को अविद्या कहते हैं। - अविद्यावान—जिस व्यक्ति के पास पूर्वोक्त विद्या न हो, वह अविद्यावान है, अशिक्षित है, जो चौदह विद्याओं या लौकिक-लोकोत्तर विद्याओं से विहीन है, वह भी अविद्यावान है । जो मोह-माया में लिपटा हुआ है, काम-क्रोधादि रिपुओं से आहत या ग्रस्त है वह अविद्यामय है। २७ प्रकार के व्यक्ति अविद्यावान होते हैं, पूर्ण श्रेष्ठ विद्या का उनमें अभाव है श्री अमृतकाव्यसंग्रह में यही बताया गया हैकामी क्रोधी लोभी अरु दरिद्री प्रमादी मूढ़, . दुःखी पराधीन पक्षपाती अभिमानी को। मोह-मदवन्त व्यग्र चंचल' कृपण पुनि, रहे सोच सकूची कुसंगी औ अज्ञानी को। अनाचारी आलसी अभागी अनचाही नर, . निन्दक अनोसरी अधीर अकुलानी को। १. शंकराचार्य प्रश्नोत्तरी २५ २. न राजहार्य, न च चौरहार्य, न भ्रातृभाज्यं, न च भारकारम् । व्यये कृते वर्धत एव नित्यं, विद्या धनं सर्वधनप्रधानम् । ३. किमुधनैविद्याऽनवद्या यदि- भर्तृहरि : नीतिशतक २१ ४. विद्याविहीन: पशु-भर्तृहरि : नीतिशतक २० For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य १७५ 'अमीरिख' चित्त सुविचारी या उच्चारी बात, पूरी वह विद्या नहीं आवे इन प्राणी को॥ अविद्यावान व्यक्ति हर वस्तु का स्वरूप विपरीत रूप से देखता है। चाणक्य नीति में विद्याहीन व्यक्ति की निन्दा करते हुए कहा है धर्माधमौ न जानाति लोकोऽयं विद्यया विना। तस्मात् सदैव धर्मात्मा विद्यावान् परो भवेत् ॥ शुनःपुच्छमिव व्यर्थ जीवितं विद्यया विना। न गुह्यगोपने शक्तं न च वंशनिवारणे ॥ वस्त्रहीनमलंकारं, घृतहीनं च भोजनम् । स्तनहीना च या नारी विद्याहीनं च जीवनम् ॥' _ विद्या के बिना संसार धर्माधर्म का ज्ञान नहीं कर सकता। इसलिए धर्मात्मा को सदैव उत्कृष्ट विद्यावान होना चाहिए। विद्या के बिना जीवन कुत्ते की पूंछ की तरह व्यर्थ है, जो न तो अपने गुप्तांगों को ढकने में काम आती है, और न ही दंश-मच्छर आदि से निवारण में काम आती है। जैसे वस्त्रहीन अलंकार, घृतरहित भोजन एवं स्तनहीन नारी शोभा नहीं देती, वैसे ही विद्याहीन जीवन शोभनीय नहीं होता। कोई व्यक्ति कितने ही रूप और यौवन से सम्पन्न हो, विशाल कुलोत्पन्न हो फिर भी विद्याहीन हो तो गन्धरहित टेसू के फूल की तरह शोभा नहीं देता। जो व्यक्ति न तो लौकिक विद्या ही पढ़ा है और न लोकोत्तर विद्या से सम्पन्न है, वह लोक-परलोक में किसी भी तरह से सफल नहीं हो सकता; न ही वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल हो पाता है। अविद्यावान और विद्यावान में अन्तर विद्यावान मनुष्य कैसी भी परिस्थिति हो, दुःख नहीं पाता, न ही वह किसी भी विकट परिस्थिति में घबड़ाता है । वह विद्या के बल से युग की नब्ज परख लेता है, युग की माँग को जानता है, किस कृत्य में धर्म है, किसमें अधर्म है ? कौन-सा कार्य हेय है, कौन-सा उपादेय है और कौन-सा ज्ञ य है ? इस बात को बिद्यावान बहुत शीघ्र जान लेता है । जीवन के उतार-चढ़ाव के समय विद्यावान मनुष्य सारी परिस्थिति को पहले से ही भांप लेता है । नीतिकार कहते हैं परिच्छेदो हि पाण्डित्यं यदाऽपन्ना विपत्तयः। अपरिच्छेदकर्तृणां विपदः स्युः पदे-पदे ॥ १. चाणक्य नीति For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ -जब विपत्तियां आ पड़ती हैं, तब साधक-बाधक कारणों का विवेक करना ही पाण्डित्य है। जो विवेक नहीं करना जानते, उनके मार्ग में पद-पद पर विपत्तियां आती हैं। विद्यावान् विद्या के साथ-साथ विनयवान होता है विनय से पात्रता आती है, पात्रता से मनुष्य धन प्राप्त करता है । धनसम्पन्न व्यक्ति विनयी होता है तो धर्माचरण करता है और धर्माचरण से सुख प्राप्त करता है। इसके विपरीत अविद्यावान या विद्याविहीन व्यक्ति हिताहित या कार्य-अकार्य का विवेक नहीं कर सकता, न ही हेयोपादेय को जान पाता है, वह दुःखोत्पादक सांसारिक विषय-भोगों को सुखकारक मानता है, परन्तु उन्हीं विषय-भोगों का गुलाम बनकर वह जिंदगीभर दुःख पाता है, उनकी प्राप्ति के लिए दुःख उठाता है, बेचैन होता है, तड़फता है, प्राप्त होने पर उसकी रक्षा के लिए चिन्तित रहता है। यदि बीच में ही अभीष्ट वस्तु या विषय का वियोग हो गया तो भी वह दुःखित होता है । इस प्रकार अविद्यावान् पुरुष पद-पद पर अपने अज्ञान के कारण दुःखी होता रहता है । इसीलिए भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में फरमाया है जावंतऽविज्जा पुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुपंति बहुसो मूढा संसारम्मि अणंतए ॥' -जितने भी अविद्यावान पुरुष हैं, वे सब अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं । वे मूढ़ अनेक बार नष्ट होते हैं, जीवन हार जाते हैं और अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं। अविद्यावान् पुरुष हेय-उपादेय, हित-अहित, कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक से विकल होने के कारण हर वस्तु को प्रायः विपरीत रूप में ग्रहण करके दुःख पाता है । इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग में वह सहनशीलता नहीं रख पाता। इस कारण वह दुखी होता है। . बौद्ध जातक की एक कथा इस सम्बन्ध में मुझे याद आ रही है... श्रावस्ती में एक वणिक रहता था, उसके एक रूपवती कन्या थी, नाम था'पटटाचारा' । पट्टाचारा जब सयानी हुई तो माता-पिता उसके विवाह के लिए चिन्तित हुए किन्तु पट्टाचारा यौवन के क्षणिक उन्माद के प्रवाह में बहना सुखकारक समझकर भावी के सुनहले स्वप्न संजोने लगी । स्वास्थ्य और सौन्दर्य के आकर्षण में पड़कर पट्टाचारा एक पड़ोसी युवक से प्रेम करने लगी। उसने अपना विवाह उसी से करने को कहा तो पिता ने समझाया-"बेटी यौवन और सौन्दर्य के आकर्षण को प्रेम नहीं कहते । प्रेम तो कर्तव्यपालन, त्याग वैराग्य, और सेवा की साधना है । १. उत्तराध्ययनसूत्र, अ० ६, गा० १ For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य १७७ ऐसी साधना सच्चे माने में विद्यावान ही कर सकता है; अविद्यावान नहीं। समझ से ही यह साधना सम्पन्न हो सकती है, आवेश से नहीं।" पिता ने खूब समझाया, वह अच्छे सम्बन्ध की तलाश में निकल भी पड़ा था । लेकिन कामवासना के प्रबल आकर्षण के आगे विद्यावान पिता की विवेकयुक्त बात पुत्री के गले न उतरी । जहाँ विवेक और आस्था न हो, वहाँ धैर्य न रहना स्वाभाविक है । पट्टाचारा ने अपने प्रेमी से सलाह की और एक रात को दोनों घर से भाग निकले । पिता जब तक घर पहुंचा, तब तक तो वह बहुत दूर निकल गई।। जिस अविद्यावान को सौन्दर्य का आकर्षण हो, उसका अपने माता-पिता पर अनास्था, उठती उम्र में अविवेक और पथभ्रष्ट होकर वासना का शिकार बन जाना स्वाभाविक है । कुटुम्ब के अनुशासन से मुक्त हो जाने तथा किसी प्रकार का बन्धन न रह जाने पर अविद्यावान नर-नारी का एक दूसरे के यौवन के प्रति ही आकर्षण शेष रह जाता है। अविद्याग्रस्त पटटाचारा के जीवन में वासना प्रविष्ट हुई तब उसे स्वर्गीय सुखों की अनुभूति हुई; मगर उस अभागिन को क्या पता था कि वासना का सुख जवानी और स्वस्थता तक ही रहता है, बाद में निचोड़े हुए आम की तरह शरीर का ओज नष्ट हो जाने पर दाम्पत्य प्रेम की वह मस्ती, वह उमंग, जो कभी पहले थी वह समाप्त हो जाता है। यही हुआ, पति-पत्नी एक दूसरे को सन्देह की दृष्टि से देखने लगे। पट्टाचारा गर्भवती हुई । एक पुत्र को जन्म दिया। शरीर सौन्दर्य पहले ही कम हो गया था, अब एक और जीव के गर्भ में आजाने से उसका ध्यान पति की ओर से हटना स्वाभाविक था । अब भी वे मिलते थे, पर कामवासना की तृप्ति के लिए हो। निदान पटटाचारा शीघ्र ही पुनः गर्भवती हो गई। उसका शरीर भारी रहने लगा । आलस्य सताने लगा । आलस्य और शिथिलता की जो बातें संयुक्त परिवार में छिपी रहती हैं, वे यहाँ स्वच्छन्द एवं व्यक्तिजीवी पति-पत्नी में कहाँ सम्भव थीं ! फलतः व्यग्रचित्त पट्टाचारा ने माता-पिता और कुटुम्बी जनों को याद किया। पट्टाचारा अपने प्रेमी-पति से घर चलने का आग्रह करने लगी, पर उसका प्रेमी पति उसके लिए राजी नहीं हो रहा था । उसे चरित्रभ्रष्टता का भय सता रहा था । पट्टाचारा के अत्याग्रह के कारण उसने बात मान लो । वह श्रावस्ती की ओर चल पड़ा। परन्तु अविद्या के कारण दुःखों का अन्त अभी नहीं हुआ था। कुछ दूर चलते ही पटाचारा के पेट में प्रसव-पीड़ा उठी। पति ने उसके लिए एक पर्णकुटी बना ली, फिर जैसे ही वह पानी के लिये निकला, एक सर्प ने उसे डस लिया। पट्टाचारा इधर पुत्र को जन्म दे रही थी, उधर उसका पति मर रहा था । बहुत रोई-धोई, पर क्या हो सकता था? आखिर अपने दोनों बच्चों को लेकर वह घर की ओर चल पड़ी। रास्ते में नदी पड़ती थी, उसे पार करना कठिन था। आखिर पट्टाचारा ने एक-एक बच्चा अपने For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ साथ लेकर नदी पार करने का निश्चय किया। एक बच्चे को नदी के उस पार छोड़कर जैसे ही वह लौटी तो उसने देखा कि उसके नवजात शिशु को एक भेड़िया दबोचकर ले जा रहा है । वह चिल्लाई । उसके रोने की आवाज सुनकर नदी के उस पार खड़े बच्चे ने समझा-'माँ बुला रही है।' वह भी नदी में कूद पड़ा और उसकी तीव्र धारा में डूबकर मर गया । पट्टाचारा यह आषात न सह सकी, वह पागल-सी हो गई। अविद्या के कारण पट टाचारा ने दुःख की परम्परा सहन की। वह तथागत बुद्ध की सेवा में पहुँची। उनके सामने अपनी दुःखभरी कथा कह सुनाई। तथागत ने उसे सौम्य शब्दों में कहा—“पट्टाचारा ! अविद्या के कारण मनुष्य एक दिन इष्टसंयोग में सुख मानता है, किन्तु जब उसका वियोग हो जाता है, तब वही सुख दुःख में परिणत हो जाता है। तूने अविद्या के कारण सौन्दर्य और वासना से आकर्षित होकर एक पुरुष को अपना पति माना, फिर जो सन्तान हुई, उसे अपने पुत्र के रूप में माना, क्षणिक विषय-सुखों को सुख माना। भला, ये सब तेरे अपने कहाँ थे ? तू ही तो अविद्या के कारण इन्हें अपने मान बैठी थी। अतः अब अविद्या को छोड़, विद्यावान बन ।” पटटाचारा विरक्त हो गई, वह बौद्धभिक्षुणी बनकर आत्म-विद्या के प्रकाश में स्व-पर-कल्याण के पथ पर विचरण करने लगी। अविद्या की दुनिया : भूल-भुलैया भरी वास्तव में प्रेय का मार्ग अविद्या का मार्ग है, श्रेयमार्ग ही विद्या का सुपथ है । प्रेय के लुभावने मार्ग पर चढ़कर अविद्यावान पुरुष बार-बार भटकता है, संसारसागर में गोते खाता है और उसी में जन्म-जरा-रोग-मृत्यु सम्बन्धी दुःख पाता रहता है । अविद्या की इस दुनिया को आध्यात्मिक भाषा में 'भवसागर' कहते हैं । वैदिक परिभाषा में इसे मायानगरी भी कहते हैं । भवसागर इसलिए कहा गया है कि वह कामक्रोध-लोभादि घड़ियालों और मगरमच्छों से भरा पड़ा है, जो दाँव लगते ही शिकार को निगल जाते हैं । विद्यावान इनसे सतर्क रहते हैं, मगर अविद्यावान इनके शिकार हो जाते हैं, उन्हें काम-क्रोधादि मगरमच्छ निगल जाते हैं। वे नष्ट हो जाते हैं। मायानगरी इसलिए कहा जाता है कि यहाँ अविद्याग्रस्त मनुष्य कदम-कदम पर भूलभुलयों के महल में फंस जाता है। उसका बाहर निकलना तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि वह विद्यायुक्त होकर अपनी व्यवसायात्मिका बुद्धि का प्रयोग न करे । इसमें जरा-सी असावधानी अथवा उपेक्षा करने पर उसी जादुई महल में भटकता रह जाता है। पाण्डवों का एक राजमहल इस खूबी से बनाया गया था कि उसमें जल के स्थान पर स्थल और स्थल के स्थान पर जल दिखाई देता था। दुर्योधन एक दिन उसे देखने गया तो धोखा खा गया। द्रौपदी इस पर हंस पड़ी और यही हंसी अन्त में महाभारत का कारण बनी । अविद्या की इस मायानगरी में दुनिया का सारा महल ही दुर्योधन जैसे अविद्याग्रस्त लोगों को भूलभुलैया-सा लगता है। इसमें अविद्यावान को सर्वत्र जल For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य १७६ के स्थान पर स्थल और स्थल को स्थान पर जल दिखाई देता है । इसी प्रकार इसमें पद-पद पर भ्रान्त होने वाले अविद्यावानों का उपहास होता है । अविद्याग्रस्त लोगों को इस मायानगरी में हर चीज के दो रूप दिखाई पड़ते हैं। इसका बाह्यरूप कुछ है, और भीतरी रूप कुछ है । वास्तविकता को विद्यावान जानता है, अविद्यावान नहीं । इसी कारण वह बार-बार धोखा खाता है। धोखा खाकर भी मिथ्यात्व एवं मोहनीयवश संभल नहीं पाता। पदार्थों के बाह्य रूप और सौन्दर्य पर लुब्ध होकर अपनेआपको विनाश के गर्त में झौंक देता है । हडडी, मांस एवं मलमूत्र से भरे दुर्गन्ध भरे घड़े पर लगी हुई चमकती चमड़ी अविद्याग्रस्त व्यक्तियों को महाभ्रम में डाल देती है। किन्तु विद्यावान विवेकी बनकर इसकी वास्तविकता और क्षणभंगुरता को समझ लेता है । वह इसके चक्कर में नहीं फंसता । अविद्याग्रस्त पट्टाचारा अविद्याजनित दुःखों का अनुभव कर चुकी थी। अतः विद्यावान तथागत की शरण में आकर वह विद्या का महाप्रकाश पाकर ऐसी संभली कि फिर अविद्या के दुश्चक्र में नहीं फंसी। यही उपदेश समाधिशतक में दिया गया है तद् ब्रूयात् तत्परं पृच्छेत् तदिच्छेत् तत्परो भवेत् । येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥५३॥ -वही बोलना चाहिये, वही दूसरों से पूछना चाहिए, उसी की इच्छा करनी चाहिए एवं उसी में तत्पर रहना चाहिये, जिनसे अपना अविद्यामय रूप विद्यामय बन जाये। विद्यावान और अविद्यावान की परख विद्यावान और अविद्यावान की परख केवल पढ़े-लिखे और अनपढ़ होने से ही नहीं हो जाती । केवल पढ़-लिखे मनुष्य, जिनमें बौद्धिक प्रतिभा नहीं होतो, या सात्त्विक व्यवसायात्मिका बुद्धि भी नहीं होती, न आध्यात्मिक जिज्ञासा होती है, उन्हें विद्यावान नहीं कहा जा सकता है, विद्यावान (भले ही वे लौकिक विद्याओं से सम्पन्न हों) तभी कहे जा सकते हैं, जब बौद्धिक प्रतिभा, व्यावहारिक एवं सात्त्विक धर्मयुक्त बुद्धि, सिद्धान्तनिष्ठा, तत्वार्थश्रद्धा उनमें हों। उपनिषद् में एक सुन्दर आख्यान इस सम्बन्ध में मिलता है आचार्य मत उपकौशल ने अपनी पत्नी के दैदीप्यमान चेहरे की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि डाली और कहा-“भद्र ! मनुष्य की सम्पूर्ण सफलता और तेजस्विता का आधार विद्या है । भगवती ! जिस प्रकार अपनी कन्या विद्यायुक्त, गृहकार्य-निपुण और सुशील है, उसी प्रकार का विद्या एवं बौद्धिक प्रतिभा से सम्पन्न इसे वर मिलता तो सोने में सुहागे का कथन चरितार्थ हो जाता।" आचार्य-पत्नी ने कहा- "मार्यश्रेष्ठ ! ऐसे योग्य युवक की खोज करना आपके लिये तो कोई कठिन नहीं है। आपके विद्यालय में तो न केवल सामान्य For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० आनन्द प्रवचन : भाग ११ नागरिकों के, अपितु कुरु, कौशल, कांची, मगध, ऊरु, अर्यमारण्य, उदीच्यायनीय, काम्बोज, वाराणसी और अंगिरा द्वीप तक के विशिष्ट छात्र विद्याध्ययन करने आते हैं । क्या उनमें से एक भी बालक आपकी कल्पना को साकार नहीं कर सकता ?" आचार्य-"प्रिये ! विद्या का अर्थ केवल बौद्धिक प्रतिभा ही नहीं, अपितु विद्या का व्यावहारिक जीवन में नीतिनिपुण समावेश भी होता है। बाह्याचरण करने वाले व्यक्ति को तब तक शिक्षित, विद्वान् या विद्यावान नहीं कहा जा सकता, जब तक उसके अन्तःकरण से कलुषितता मिट न जाये । विद्वत्ता के साथ विराट ब्रह्म की आन्तरिक अनुभूति ही व्यक्ति को सर्वभूतात्मभूत बनाती है, तभी वह विद्यासम्पन्न कहला सकता है । ऐसा व्यक्ति विषम से विषम परिस्थिति में भी आत्मा को प्रताड़ित नहीं कर सकता । अपने स्वार्थ के लिए एक कीड़े को भी न छले, वही सच्चा विद्यावान है। मुझे सन्देह है कि विद्यावान की इस कठोर परीक्षा में मेरे गुरुकुल का एक भी स्नातक सफल हो। फिर भी एक सरल-सा उपाय अजमाकर देखता हूँ। सम्भव है, योग्य विद्यासम्पन्न विद्वान मिल जाये।" आचार्यप्रवर ने अपने गुरुकुल के समस्त स्नातकों को आमंत्रित किया। जब सभी एकत्रित हो गये तब उन्होंने कहा- 'तात ! तुम सब जानते हो कि मेरी कन्या विवाह योग्य हो चुकी है। मेरे पास धन का अभाव है। आप सब अपने-अपने घर जाकर मेरी कन्या के लिए एक-एक आभूषण लाएं। जो सर्वश्रेष्ठ आभूषण लाएगा, उसी के साथ हम अपनी कन्या का पाणिग्रहण कर देंगे। किन्तु एक शर्त है, आभूषण लाने की बात गुप्त रखी जाए। माता-पिता तो क्या, अगर दाहिना हाथ आभूषण लाए तो बांया हाथ भी उसे जानने न पाए।" द्रुमत उपकौशलाचार्य की कन्या असाधारण विदुषी, सुशीला और गुणवती थी। हर स्नातक का हृदय उसे पाने के लिए उत्सुक था। सभी स्नातक अपने-अपने पर गये और चुरा-छिपाकर आभूषण लाने लगे। जो भी स्नातक, जैसा आभूषण लेकर लाया, आचार्य उसे उसके नाम का लिखा कपड़ा लपेटकर एक ओर रख देते। कुछ ही दिनों में आभूषणों के अंबार लग गये; परन्तु जिस आभूषण की खोज थी, आचार्य प्रवर को अभी तक लाकर कोई न दे सका । सबसे अन्त में वाराणसी का राजकुमार ब्रह्मदत्त लौटा, निराश और खाली हाथ । आचार्य ने उत्सुकतापूर्वक उससे पूछा-"वत्स ! तुम कुछ भी नहीं लाये दिखते ?" वह विनयपूर्वक बोला-"हाँ, गुरुदेव ! आपने आभूषण लाने के साथ-साथ यह शर्त भी रखी थी कि कोई भी-बांया हाथ तक भी न देखने पाये; इस तरह से लाना । मेरे लिए यह शर्त पूरी करना असम्भव है। क्योंकि मैंने बहुत-सी युक्तियाँ लड़ाई, लेकिन कहीं भी ऐसा एकान्त तो मिल ही नहीं पाया।" आचार्य ने कृत्रिम प्रकोपवश विस्मयसूचक दृष्टि डालते हुए पूछा-"वत्स ! क्या तुम्हारे माता-पिता For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविद्यावान पुरुष : सदा असेन्य १८१ और अन्य कुटुम्बीजन सोते नहीं। रात में निकाल लेते आभूषण ! भला, सभी स्नातक आभूषण लाये हैं, तुम कैसे नहीं लाये ?" - ब्रह्मदत्त ने विनम्रभाव से उत्तर दिया-"गुरुदेव ! मनुष्यों से शून्य स्थान तो फिर भी मिल सकता है, पर मेरे अतिरिक्त मेरी आत्मा, अनन्तज्ञानी परमात्मा की उपस्थिति तो सर्वत्र सर्वकाल में है, उनसे छिपा तो कुछ भी नहीं रहता । फिर आपकी शर्त कैसे पूरी हो सकती थी ?" आचार्य की आँखें चमक उठीं । वे जिस आभूषण (श्रेष्ठ विद्यावान युवक) को चाहते थे, वही मिल गया। स्नातक ब्रह्मदत्त को उन्होंने हृदय से लगा लिया। अन्य सभी स्नातकों के आभूषण वापस लौटा दिये और कन्या के पाणिग्रहण की तैयारी में जुट गये। यह है, विद्यावान और अविद्यावान की परख का मापदण्ड ! विद्यावान वस्तु की भीतरी तह तक पहुँच जाता है, जबकि अविद्यावान उसकी ऊपरी सतह तक ही पहुँच पाता है। विद्यावान सूक्ष्मदृष्टि से वस्तुतत्त्व को समझ-जान लेता है, जबकि अविद्यावान स्थूलदृष्टि से वस्तु के बाह्य रूप-रंग, आकार-प्रकार को देखकर ही उसका स्थूल मूल्यांकन करता है । विद्यावान किसी के कथन का मर्म समझ लेता है, अविद्यावान इस मामले में बहुत पिछड़ा हुआ होता है। विद्यावान वस्तु को उसकी बाह्य चमक-दमक के या स्वार्थ, लोभ, काम और मोह के पहलू से नहीं देखता, वह वस्तु के अन्तरंग वस्तुतत्त्व का स्पर्श कर लेता है । वह इष्टवियोग या अनिष्टसंयोग से घबराता और रोता-चिल्लाता नहीं। अविद्याग्रस्त व्यक्ति पहले तो मोहवश किसी प्रिय लगने वाली वस्तु को इष्ट और अप्रिय लगने वाली को अनिष्ट मान लेता है, फिर इष्ट के संयोग से प्रसन्न और अनिष्ट के संयोग से विषादग्रस्त हो जाता है, तत्पश्चात् उस माने हुए इष्ट का वियोग या अनिष्ट का संयोग होता है तो वह हायतोबा मचाने लगता है। विद्यावान वस्तुतत्त्व समझकर शान्ति और समता के साथ तटस्थ रहता है। एक उदाहरण लीजिए बुद्धिमती सुमति की रग-रग में अध्यात्मविद्या रम गई थी। वह आज श्रमण भगवान् महावीर का अमृत प्रवचन सुनने गई थी। प्रवचन में उसने सुना-"जहां संयोग है, वहाँ वियोग अवश्यम्भावी है । आत्मा के सिवाय जगत् के प्रत्येक पदार्थ का वियोग होता है। आज जिसे जिस वस्तु के लिए हर्ष होता है, कल उसे उसी वस्तु के लिए शोक होगा। हर्ष और शोक, तड़फना और फूलना, ये दोनों एक ही तराजू के दो पलड़े हैं । आत्मसमाधि, या शान्ति का एक ही मार्ग है-समता, धैर्य या मोहत्याग । मोहत्याग आत्मा के एकत्व के ज्ञान में से पैदा होता है।" . सुमतिदेवी ने प्रभु के इस उपदेश को अपने हृदय की मंजूषा में रखा और For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ इसी पर चिन्तन-मनन करती एवं अपने जीवन में क्रियान्वित करने का संकल्प करती हुई घर आ पहुँची । आज उसका पति आत्माराम घर में नहीं था, वह कहीं बाहर गया था । सहसा उसे कुछ लोगों से समाचार मिला- आज उसके दोनों पुत्र तालाब में स्नान करने गये थे । दोनों ही डूबकर मर गये हैं । पहले बड़ा लड़का नहाने के लिए तालाब में घुसा कि कीचड़ में फँस गया । उसे निकालने के लिए दूसरा लड़का तालाब में घुसा, किन्तु वह भी वहीं कीचड़ में फंस गया। दोनों डूब गये । सुमतिदेवी का मातृहृदय सहसा इस आघात से शोकग्रस्त हो जाना चाहिए था, परन्तु ज्यों ही शोक की लहर आई विद्यासम्पन्न सुमतिदेवी के हृदय में भगवान् महावीर के वे उद्गार गूंजने लगे - 'संयोग और वियोग में हर्ष और शोक करना अविद्यावानों का काम है, विद्यावानों का नहीं । प्रत्येक वस्तु जिसका संयोग होता है, एक न एक दिन हमसे बिछुड़ती है । यह तो संसार का अटल नियम है । इसमें शोक और चिन्ता की क्या बात है ?' सुमतिदेवी का क्षणिक शोक वहीं शान्त हो गया, दिव्य ज्ञान के प्रकाश में बह स्वस्थ - आत्मस्थ हो गई । उसने अपने दोनों पुत्रों के शरीर बिछौने पर लिटा दिये, उन पर सफेद वस्त्र ओढ़ा दिया, और अपने पति के आगमन की प्रतीक्षा करती हुई चिन्तन-मग्न हो गई । आत्माराम ने ज्यों ही घर में पैर रखा, उसका आनन्द फीका हो गया । उसे वातावरण में कुछ शोक की लहर लगी । प्रतिदिन जब वह घर आता था, तब उसकी पत्नी प्रसन्न मुख से उसका स्वागत करती थी, पर आज तो वह उदास-सी बैठी थी । आत्माराम ने पूछा - "देवि ! आज उदास क्यों हो ? तुम्हारा चेहरा बता रहा है, मानो शोक छाया हो ।" सुमतिदेवी ने पति को तत्त्व समझाते हुए कहा - " प्रिय ! नहीं है । अपने पड़ोसी निसर्गदेव से मैं दो रत्न कंकण कुछ वर्ष आज वह माँगने आये थे । इस पर मुझे उदासी आ गई। वापस लौटा दूँ ?” भला आत्माराम - " देवि ! क्या तुम इतना भी नहीं चीज लाई जाती है उसे वापिस लौटानी पड़ती है, चाहे वह सुन्दर क्यों न हो ?” ऐसी कोई बात पहले लाई थी । ऐसे रत्न - कंकण कैसे समझतीं कि जिसकी कोई कितनी ही कीमती और सुमतिदेवी - " कैसे सुन्दर ये कैकण हैं ! कैसी इनकी घड़ाई है, इसकी जोड़ के रत्न - कंकण मिलते ही कहाँ हैं ? इसमें जड़े हुए रत्न भी कितने तेजस्वी हैं । मुझे तो वापस देने की इच्छा ही नहीं होती । मन होता है— रख लूँ । इसीलिए उदास बैठी हूँ, आपकी प्रतीक्षा में !" आत्माराम --" इसमें मुझे क्या पूछना है देवि ! पराई वस्तु पर ममता करना For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य १८३ ठीक नहीं । पर-वस्तु को लौटा देना ही अच्छा है ! और फिर पराई अमानत वस्तु को 'मेरी' कहकर उसके देने में चिन्तित और दुःखित होना तो अविद्यावानों का कार्य है, अपना काम नहीं । पराई वस्तु तो जितनी जल्दी लौटाई जाए, उतना ही अच्छा है ।" इस प्रकार आत्माराम को सिद्धान्त पर पक्का करके सुमतिदेवी खड़ी हुई । उसने पति का हाथ पकड़ा और उस तरफ चलने लगी, जहाँ उसके दोनों पुत्र चिरनिद्रा में लेटे हुए थे । उसका हाथ काँप रहा था । उसे चक्कर - सा आने लगा, परन्तु प्रभु आत्म-विद्या से ओत-प्रोत वाणी के बोल उसकी आत्मा को आश्वासन दे रहे थे । वह पति को अन्दर ले गई । उसने फूल से सुकोमल दोनों पुत्रों के मृतदेह पर से श्वेतवस्त्र उठाया। फिर आत्मविद्या के प्रकाश में कहा - " प्राणनाथ ! ये रहे अपने दोनों रत्नकंकण ! जिन्हें हमने निसर्ग (पुण्य) देव से प्राप्त किये थे । आज तक हमने इन्हें बड़े जतन से रखा, इन्हें पाला-पोसा, हमें ये थोड़े समय के लिये मिले थे। आज इनकी अवधि पूर्ण होने आ गई । इसलिए इन्हें निसर्गदेव को वापस दे रहे हैं - इन्होंने अपना मार्ग ले लिया है। ये हमारे नहीं थे, हमने इन्हें लोकव्यवहारवश अपने पुत्र माना था; और न ही हम इनके थे । इनके वियोग से रोना और शोक करना व्यर्थ है । अप से गई हुई वस्तु लौटकर नहीं आती । अच्छा हो, मौन की शान्ति के साथ हम इन्हें विदाई दें ।" आत्माराम तो यह देखकर अवाक् और स्तब्ध हो गया । उसका चेहरा थोड़ी देर के लिए गमगीन हो गया । दोनों की आँखों से स्वाभाविक रूप से गंगा-यमुना बह चली, परन्तु उनके साथ आत्मविद्या का उज्ज्वल प्रकाश था । सचमुच, अध्यात्मविद्या जिसके जीवन में आ जाती है, उसका समस्त व्यवहार सिद्धान्तसंगत, निश्चयदृष्टि से समन्वित होता है । वह हर्ष - शोक में मूढ़ नहीं बनता । वह विपत्ति में सदा धैर्य, अभ्युदय होने पर सहिष्णुता, धर्माधर्म में विवेक और दूसरों के प्रति उदारता रखता है । विद्यावान और अविद्यावान में सूक्ष्म अन्तर इतना होने पर भी विद्यावान और अविद्यावान में एक विशेष अन्तर रहता है। विद्यावान और अविद्यावान एक-सी कई क्रियाएं करते हैं, परन्तु उनकी दृष्टि में अन्तर होने से परिणामों में अन्तर आता है । विद्यावान केवल वाणीशूर नहीं होता या केवल जानकारी करके ही नहीं रह जाता, वह ज्ञान के साथ-साथ आचरण भी करता है । जबकि अविद्यावान विद्यावान की अपेक्षा किसी विषय की सूक्ष्म और विस्तृत व्याख्या कर सकता है, परन्तु आचरण से शून्य होता है । इसीलिए भगवान महावीर ने कहा है— भता अकरेंता य बन्धमोक्ख पइण्णिणो । वायावीरियमेत्तेण समासासेंति अप्पयं ॥ १ १. उत्तराध्ययन अ० ६, गा० १० For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ - जो व्यक्ति केवल शास्त्रों की लम्बी-चौड़ी व्याख्या करते हैं, भाषण करते हैं, किन्तु तदनुसार आचरण नहीं करते । वे बन्ध और मोक्ष की सिर्फ जानकारी रखने वाले हैं और वाणी की शूरवीरता से वे अपने आप को झूठा आश्वासन दे देते हैं, लेकिन वास्तव में बन्धनमुक्त नहीं हो पाते । अतः विद्या का ममं उसे केवल स्मरण करना ही नहीं, व्यावहारिक जीवन में उतारना भी है । विद्या के साथ जब कोई क्रिया रहती है, तभी वह तेजस्वी बनती है; अन्यथा क्रियाहीन विद्या, पराक्रमी और तेजस्वी नहीं होती । वेदों में कहा है- 'क्रियावान एष ब्रह्मविदां वरिष्ठः, आत्मवेत्ताओं क्रियावान आत्मवेत्ता श्रेष्ठ होता है । अर्थात् — आत्मविद्या को वेदों ने क्रिया की कसौटी पर कसा है । जो आत्मविद्या क्रिया की कसौटी पर ठीक नहीं उतरती, वह आत्मविद्या ही नहीं है । 1 १८४ महाभारत का एक प्राचीन उदाहरण लीजिये - द्रोणाचार्य कौरवों और पाण्डवों को समान रूप से समस्त विद्याओं का अध्ययन कराते थे । उनकी वाणी में ओज, व्यक्तित्व में प्रभावशीलता तथा व्यवहार से वात्सल्य प्रवाहित होता था । एक दिन वे समस्त शिष्यों के मध्य बैठे उपदेश कर रहे थे। उन्होंने कहा"मनुष्य को कभी क्रोध नहीं करना चाहिए । क्रोध करने से विवेक नष्ट होता है, विवेकशून्य मनुष्य कोई यथार्थ निर्णय नहीं ले पाता ।" इस पाठ को उन्होंने दूसरे दिन याद कर लाने का भी आदेश दिया । नियत समय पर दूसरे दिन गुरु द्रोणाचार्य आये । नया पाठ्यक्रम शुरू करने से पूर्व उन्होंने सभी को सम्बोधित करते हुए कहा - " वत्स ! कल की बात तुम्हें स्मरण रही ?" लगभग सभी छात्रों ने स्वीकार किया कि हमें याद है । केवल युधिष्ठिर ही थे, जो चुपचाप सिर नीचा किये बैठे थे । आचार्य समझ गये । उन्होंने प्रताड़ित करते हुए कहा – “कल अवश्य याद करके लाना ।” दूसरे दिन उसी क्रमानुसार अगला पाठ प्रारम्भ करने से पूर्वं वही प्रश्न आचार्यजी ने किया - " युधिष्ठिर ! आशा है, आज तो तुमने पाठ अवश्य ही याद कर लिया होगा ।" किन्तु युधिष्ठिर का उत्तर आज भी नकारात्मक था । इससे द्रोणाचार्य ने रोष में आकर कहा - " मूर्ख ! तीन दिन में एक पंक्ति भी याद न कर सके । लज्जा आनी चाहिए तुम्हें ! तुम से छोटे भाई सभी कल ही सुना चुके हैं। अच्छा आज और क्षमा करता हूँ । कल अवश्य ही याद हो जाना चाहिए ।" किन्तु तीसरे दिन भी जब युधिष्ठिर ने कहा - "गुरुदेव ! मुझे अभी तक पाठ अच्छी तरह याद नहीं हुआ है," तब गुरुजी का पारा गर्म हो गया । उन्होंने युधिष्ठिर For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य १८५ के एक चांटा लगाया और कान पकड़कर कहा-“अब तो अच्छी तरह याद हो गया न ?" युधिष्ठिर पीड़ा को सहन करते हुए बोले-"हाँ, गुरुदेव ! अब याद हो गया है।" क्षोभ भरे स्वर में आचार्य बोले- "मुझे नहीं मालूम था कि तुम पीटने पर ही पाठ याद करोगे, पहले नहीं।" अब युधिष्ठिर ने शान्ति और धैर्य से कहा-"गुरुदेव ! ऐसी बात नहीं है । आपने कहा था-मनुष्य को कभी क्रोध नहीं करना चाहिए। पहले दिन मुझे शंका थी कि आप प्रताड़ित करें और मुझे क्रोध आ जाये । अतः मैंने इन्कार किया कि मुझे अभी तक पाठ याद नहीं हुआ है । दूसरे दिन भी मुझे यह विश्वास नहीं था कि आप क्रोध करें, अप-शब्द कहें और मुझे गुस्सा न आये, और तीसरे दिन, इस सोपान को पार कर लेने पर भी मुझे शंका थी कि कहीं आप क्रोध करें, शारीरिक कष्ट दें, मार-पीट और मुझे क्रोध आ जाये । किन्तु आज जब मुझे क्रोध नहीं आया, तभी मैं कह सका कि मुझे पाठ याद हो गया है।" द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को छाती से लगा लिया और कहा-"वत्स ! सही अर्थों में तुमने ही विद्या के मर्म को जाना है। विद्या केवल स्मरण कर लेने मात्र से ही फलवती नहीं होती, अपितु व्यावहारिक जीवन में क्रियान्वित करने पर ही होती है।" उत्तराध्ययनसूत्र में केशीकुमार श्रमण के लिए कहा गया है-विज्जाचरणपारगा अर्थात् वे विद्या (ज्ञान) और चारित्र में पारंगत थे । थोथे ज्ञानी या बातें बघारने वाले ज्ञानी नहीं थे। विद्यावान वह, जो गीतार्थ हो साधुओं में विद्यावान उसे नहीं कहा जाता, जो व्याकरण, ज्योतिष, न्याय, भलंकार, छन्द या अनेक भाषाओं का ज्ञाता या विद्वान हो; परन्तु विद्यावान उसे कहा जाता है, जो गीतार्थ हो। जिसे आत्मविद्या एवं आत्मशुद्धि की प्रेरणा देने वाली विद्या का सक्रिय, अनुभूतिसहित अध्ययन हो, जैसे आचारांग, सूत्रकृताग, स्थानांग, समवायांग, भगवतीसूत्र आदि अध्यात्मविद्याविषयक शास्त्र हैं; दशाश्रु तस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहारसूत्र और निशीथसूत्र आदि चार छेदसूत्र आत्मशुद्धिविषयक शास्त्र हैं। इनका जो स-रहस्य ज्ञाता हो, वह गीतार्थ कहलाता है और जो गीतार्थ होता है, वही सच्चे माने में विद्यावान है। अविद्यावान की सेवा में न रहें जैनशास्त्रों में बताया गया है कि साधु को गीतार्थ के निश्राय में विचरण करना चाहिए, अगीतार्थ के निश्राय में नहीं; क्योंकि अगीतार्थ अविद्यावान होता है, बह पाप-दोषों से अपनी आत्मा को बचा नहीं सकता और न ही दूसरों को पाप-दोषों For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ से बचा सकता है । जहाँ शुद्ध विद्या होती है, वहाँ आत्मा को पाप आदि से बचाने का प्रयत्न अवश्य होता है । विद्या (ज्ञान) सम्यक हो तो आचरण में दृढ़ता आती है। ___ कई लोग आजकल कहते हैं—'ज्यादा जाणे सो ज्यादा ताणे' परन्तु मैं आपसे पूछता हूँ कि जो गलत बात की खींच-तान करता है, क्या उसका ज्ञान सही ज्ञान है ? यहाँ अधिक जानकारी और विद्वत्ता का अन्तर हमें समझ लेना चाहिए । विद्वान् व्यक्ति यदि हठाग्रही या दुराग्रही है, अपनी गलत बात को सत्य सिद्ध करने का प्रयास करता है, तो समझ लेना चाहिए, वह विद्यावान (ज्ञानी) नहीं है, सुविद्यावान किसी से व्यर्थ उलझता नहीं, और न ही गलत बात को गलत समझने पर भी पकड़े रहता है। अविद्यावान ही हठाग्रही या पूर्वाग्रही होता है । उसके साथ रहने वाला भी वैसा ही हठाग्रही, पूर्वाग्रही या जिद्दी बन जाता है । ____ हाँ, तो मैं कह रहा था, जो अविद्यावान हैं, वे चाहे कितने ही साक्षर हों, पण्डित हों, लेकिन यदि वे दम्भ-क्रिया करते हैं; गीतार्थ नहीं हैं: या पण्डित मानी हैं, पापकर्मों में आसक्त हैं, शरीर में तथा अपने वर्ण और रूप में आसक्त हैं, मन-वचनकाया से पराधीन हैं, वे सब अपने लिए नाना दुःखों के उत्पादक हैं । ____एक अगीतार्थ आचार्य थे, वे प्रतिदिन दोषयुक्त आहार ले आते थे; क्योंकि उनमें शरीरासक्ति ज्यादा थी, आत्मभाव कम था। उनके एक साधु सन्ध्या समय प्रतिक्रमण वेला में संविग्न साधु की तरह उसके लिए बहुत खेद करते, सभी पापों की आलोचना करते, अगीतार्थ गुरु भी उन्हें प्रतिदिन उसका प्रायश्चित्त देते थे । प्रायश्चित देते समय अगीतार्थ गुरु उस शिष्य की अत्यन्त प्रशंसा करते-देखो, यह साधु कितना त्यागी, वैरागी, धर्मश्रद्धालु एवं भाग्यवान है, दोषों की आलोचना करना बहुत दुष्कर है । अत: यह शुद्ध है। आचार्य का यह व्यवहार देखकर दूसरे साधु सोचने लगे-पाप-दोष लग जाये तो कोई बात नहीं, परन्तु अकृत्य करके उसकी आलोचना कर लेनी चाहिए, वही अच्छा मार्ग है । अत: उस संविग्न-सरीखे साधु की देखा-देखी सभी साधु अकृत्य करके उसकी आलोचना कर लेते । यों करते काफी समय बीत गया। एक बार एक गीतार्थ साधु वहाँ आये। वे अतिथि रूप में आये थे। जब उन्होंने अगीतार्थ आचार्य की गतिविधि देखी तो उन्हें अत्यन्त खेद हुआ। सोचने लगे-इन अगीतार्थ साधु ने सारे गच्छ का पतन कर दिया है। अवसर देखकर उक्त गीतार्थ साधु ने एक दिन बहुत विनयपूर्वक अगीतार्थ आचार्य से कहा-आप तो प्रतिदिन इन अकृत्यसेवी साधुओं की प्रशंसा करके अपनी आत्मा का तथा इन साधुओं का उसी तरह सत्यानाश कर रहे हैं, जिस तरह गिरिनगर के राजा आदि ने अग्नि-उपासक वणिक की प्रशंसा करके किया था। . अगीतार्थ आचार्य ने जिज्ञासापूर्वक पूछा-राजा आदि ने अग्नि-उपासक वणिक् की किस प्रकार प्रशंसा करके सत्यानाश कर दिया था ? For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य १८७ गीतार्थ साधु बोले-गिरिनगर का कोटीश्वर वणिक अग्नि-उपासक था। वह प्रतिवर्ष एक कमरा रत्नों से भर कर उसमें आग लगा देता था। उसकी यह चर्या देखकर अविवेकी एवं अदूरदर्शी राजा तथा सभी नागरिक उसकी बहुत तारीफ करने लगे कि यह सेठ अग्निदेव का कितना भक्त है कि प्रतिवर्ष रत्नों से पूर्ण कमरे में आग लगा कर जला देता है। इस अदूरदर्शी प्रशंसा का यह फल हुबा कि एक वर्ष जैसे ही उस कोटिध्वज ने रत्न-परिपूर्ण कमरे में आग लगाई, प्रचण्ड हवा के कारण आग की लपटें दूर-दूर तक चली गई, जिससे राजा के महल तथा सभी खास-खास मकान जलकर खाक हो गये। तब राजा एवं नागरिकों ने विचार किया कि इसे हमने पहले ही निषेध किया होता तो आज इतना नुकसान न होता । हमने इसकी व्यर्थ ही प्रशंसा की, जिसका नतीजा हमें भोगना पड़ा। यों सोचकर राजा ने उस बनिये को नगर से निकाल दिया। इसी प्रकार आचार्यश्री जी ! आप भी अकृत्यसेवी साधुभों की केवल थोथी आलोचना विधि देखकर प्रशंसा करते हैं। फलतः आप न तो अपनी आत्मशुद्धि कर पाते हैं, न इनकी ही ! स्व-पर का अकल्याण ही करते हैं । अतः आप मथुरा नगरी के सतर्क राजा एवं नागरिकों की तरह अनर्थभागी न हो, सावधान हो जाएं, ऐसी मेरी नम्र प्रार्थना है आपसे । - मथुरा नगरी में भी एक अग्नि-उपासक बनिया था। वह भी रत्नों से कमरा भरकर उसमें आग लगाने लगा। दूरदर्शी राजा एवं नागरिकों ने उसका यह कृत्य देखकर तुरन्त उसे रोका, उसके इस गलत कार्य की भर्त्सना की और दण्डित भी किया। सब कहने लगे-आग लगाना हो तो जंगल में घर बनाकर उसमें लगाओ, यहाँ नहीं। यों कहकर उसे नगर से निकाल दिया। इसी प्रकार आचार्यश्री ! आप भी अभी से इन साधुओं को अकृत्य करने से रोकेंगे तो अपनी आत्मा एवं गच्छ को महान् अनर्थ से बचा लेंगे। इस प्रकार युक्तिपूर्वक निवेदन करने पर भी अगीतार्थता के कारण हठाग्रही आचार्य ने अपना कदाग्रह नहीं छोड़ा, उसी प्रकार वे प्रवृत्ति करते रहे । अतिथि गीतार्थ साधु ने फिर उन अगीतार्थनिश्रित साधुओं से कहा-"ऐसे अविद्याग्रस्त गुरु की सेवा में रहने से आप लोगों का कल्याण कैसे होगा ? अतः इन्हें छोड़ो, अन्यथा ये तुम्हें पतन की ओर ले जायेंगे।" सभी साधुओं ने गीतार्थ साधु की बात पर गम्भीरता से विचार करके उन अगीतार्थ आचार्य का त्याग कर दिया। बन्धुओ! इसी प्रकार किसी भी अविद्याग्रस्त व्यक्ति की सेवा या संगति नहीं करनी चाहिए अन्यथा वह गलत मार्ग पर चढ़ा देगा, स्वयं भी पाप में डूबेगा, सेवक को भी डुबायेगा । अविद्यावान धर्माधर्म का विवेक नहीं कर सकता, इस कारण अपने अनुगामियों या सेवकों को भी उलटे मार्ग पर प्रेरित कर सकता है। स्वयं देहाध्यासी होगा तो दूसरों को भी देहासक्ति से ऊपर उठने की प्रेरणा नहीं दे सकेगा । इसीलिए महर्षि गौतम ने अमूल्य नैतिक प्रेरणा दी है न सेवियन्वा पुरिसा अविज्जा। For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. अतिमानी और अतिहीन असेव्य प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष एक ऐसे असंतुलित जीवन की व्याख्या प्रस्तुत करना चाहता हूँ, जो या तो अत्यन्त अहंकारी होता है, या फिर अत्यन्त हीनता का अनुभव करता है। इन दोनों अतियों के शिकार बने हुए लोगों की छाया से दूर रहने का संकेत महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में किया है। गौतमकुलक का यह ५७वां जीवनसूत्र है । वह इस प्रकार है न सेवियव्वा अइमाणी-हीणा -अतिमानी और अत्यन्त हीन पुरुषों का संग या सेवन नहीं करना चाहिए। अथवा अभिमानी और नीच पुरुषों की सेवा नहीं करनी चाहिए। इस जीवनसूत्र में दो अर्थ गभित हैं-(१) अतिमानी और अतिहीन पुरुष असेव्य हैं, (२) अभिमानी और नीच पुरुष असेव्य हैं। आइये, इन दोनों अर्थों के प्रकाश में हम इस जीवनसूत्र पर चिन्तन कर लेंन अतिमानी अच्छा, न अतिहीन अच्छा अत्यधिक अहंकारी व्यक्ति का जीवन भी निर्दोष और शुद्ध नहीं होता, उसमें भी अहंकार के साथ क्षुद्रता, ईर्ष्या, कुढ़न, असंतोष, द्वेष, झूठ, फरेब, झूठी महत्त्वाकांक्षा आदि दुगुण और दोष आजाते हैं। साथ ही अतिहीन जीवन भी निर्दोष और विशुद्ध नहीं होता, उसमें हीनभावना के साथ-साथ दब्बूपन, निरुत्साहता, अप्रसन्नता, मायूसी, प्रतिकारहीनता, साहस का अभाव आदि दुगुण आ जाया करते हैं। इसलिए दोनों की अति जिसमें हो, उसका संसर्ग या सेवन यहाँ वजित बताया गया है । अतिमानी का संग इसलिए भी वर्जित बताया गया है कि उसके संग से व्यक्ति में अहं की मात्रा बढ़ जाती है और वह अहंकार से फुटबाल की तरह फूल जाता है । इसी प्रकार अतिहीन व्यक्ति स्वयं हीनभावना का शिकार होता है, इसलिए उसकी छाया में रहने वाले व्यक्तियों में अकर्मण्यता, मायूसी, उदासी, किंकर्तव्यविमूढ़ता आदि दुगुण प्रविष्ट हो जाते हैं। एक रोचक संवाद इस सम्बन्ध में सुन्दर प्रकाश डालता है पहाड़ी के एक मोड़ से गुजरती एक व्यस्त सड़क के किनारे पड़ी एक भीमकाय चट्टान ने अपने पास में ही पड़ी सुस्त और हीनभावना ग्रस्त एक छोटी चट्टान से For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिमानी और अतिहीन असेव्य १८६ कहा - "देख, मैं कितनी विशाल हूँ, अजेय हूँ । तुम तो छोटी-सी हो, तुम्हें तो हर कोई चूर-चूर कर सकता है, उठाकर एक ओर पटक सकता है, पर मेरी शक्ति के समक्ष सभी परास्त हो जाते हैं, मुझे चूर-चूर करना तो दूर, उठाकर फेंकना भी टेढ़ी खीर है । अत: मैं महान् हूँ, अपराजिता हूँ, मैं चाहूँ तो यात्रियों की राह बदल सकती हूँ, सघन मेघमालायें मुझ से टकराते ही पानी-पानी होकर बरस पड़ती हैं ।" छोटी चट्टान ने बड़ी मायूसी और उदासी के स्वर में कहा—“बहन ! मैं तो इस विशाल सृष्टि में अत्यन्त तुच्छ हूँ। मैं शक्तिहीन और क्षुद्र चट्टान भला क्या कर सकती हूँ | मेरा अस्तित्व कुछ भी नहीं है । और फिर दुनिया में स्थायी कौन रहा है ? सभी एक दिन नामशेष हो जाते हैं । जो बना है, वह एक दिन मिटेगा ही । फिर इस बल, रूप आदि का अभिमान करने से क्या फायदा ? " बड़ी चट्टान ने और अधिक गर्वगर्जना के साथ कहा - "रहने दे, तेरा उपदेश । तू तुच्छ नाचीज और निर्बल मुझे क्या समझाती है । कल ही देख लेना, मेरे बल और चमत्कारी व्यक्तित्व का प्रभाव ।” और रात्रि के सघन अन्धकार में बड़ी चट्टान ने छोटी चट्टान के इन्कार करने और समझाने के बावजूद भी अपनी जगह बदल ली और छोटी चट्टान को कायर, दब्बू और नीच कहती हुई मार्ग के ठीक बीचोंबीच आ गई । अब क्या था । सारा यातायात ठप्प हो गया । सड़क के दोनों ओर लगभग एक मील तक पैदल यात्री, सवारी गाड़ियाँ, कारें, ट्रकें, बसें पंक्तिबद्ध खड़ी थीं। सभी चिन्तित, व्यथित होकर मुंह लटकाये खड़े थे । चट्टान को हटाने की सभी कोशिशें विफल हो गईं । और वह चट्टान अपने मिथ्याभिमानवश मुस्करा रही थी । छोटी चट्टान ने उससे सविनय कहा - " बहन ! अपने जीवन का इस तरह दुरुपयोग करके दूसरों की राह में बाधा डालने से क्या लाभ है ? तुम बड़ी हो तो बड़े काम करके दिखाओ ।" किन्तु बड़ी चट्टान अपने घमंड में अड़ी रही । उसने सुनी-अनसुनी कर दी और मार्ग के बीच में बिना हिले-डुले लेटी रही । यातायात रुकने से वहाँ मेला-सा लग गया था । उस जमघट में दो यात्री ऐसे थे, जो बारूद लगाने का काम करते थे । वे आगे बढ़े और जांच पड़ताल के बाद उन्होंने आत्मविश्वासपूर्वक अपनी छैनी-हथौड़ी निकाली और उस विशाल चट्टान में छेद करने लगे । इतना होने पर भी मूर्ख चट्टान कुछ भी समझ न पाई । उसने पुनः सगर्व गर्जकर कहा - " कौन मेरा अस्तित्व मिटा सकता है ? अरे ! इन खीलों से ये क्या, इनसे बड़े भी आ जायें, तो भी मेरी विशाल और सुदृढ़ काया को ये दुःसाहसी वर्षों तक छैनी - हथौड़े चलाते रहें, तो भी मुझे संदेह बिगाड़ पायेंगे ।" For Personal & Private Use Only नहीं तोड़ सकेंगे । है कि मेरा कुछ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आनन्द प्रवचन : भाग ११ सूराख करते ही दोनों युवकों ने उसमें बारूद भर दी। फिर उन्होंने कुछ दूर जाकर सूराखों से जुड़ी बत्तियों में आग लगा दी । तत्काल एक तेज विस्फोट हुआ। सारी पहाड़ी काँप उठी, चारों ओर धुआ उठने लगा और वह गर्वीली चटटान टुकड़ेटुकड़े हो गई। उसका अस्तित्व अब ऐसा हो गया कि छोटे बच्चों की टोली भी उसे आसानी से इधर-उधर फेंक सकती थी। बड़ी चटटान का मिथ्या गर्व चूर-चूर हो गया। परन्तु छोटी चट्टान निरुत्साह और कायर होकर वहीं पड़ी रह गई, वह कोई भी परोपकार का उपक्रम न कर सकी। ये दोनों चित्र दो प्रकार की अतियों से ग्रस्त जीवन के प्रतिनिधि हैं । इन दोनों ही प्रकार के जीवन उपादेय नहीं हो सकते और न ही अनुकरणीय हो सकते हैं। अगर किसी की आँखों में दूर की रोशनी न हो तो वह भी ठीक नहीं होता, साथ ही किसी की आँखों में नजदीक की रोशनी न हो तो वह भी उचित नहीं। जिन आँखों में दूर की चीज देखने की शक्ति नहीं होती, वे आँखें केवल अपने नजदीक की चीजों को स्पष्ट देख पाती हैं । इसी प्रकार जिस व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में गौरव ग्रन्थि (Superiority Complex) का रोग हो, अहं के हाथी पर चढ़ा हुआ वह मानव केवल अपने और अपने निकटवर्ती सम्बन्धियों को ही देख पाता है, दूरवर्ती विश्व के प्राणियों को नहीं। उसका सबसे निकटवर्ती है—अहं-मैं और मेरा (मम)। इसी प्रकार जिस में लाघवग्रन्थि (Inferiority Complex) का रोग लग गया हो, वह दूर की वस्तुओं को देख पाता है, निकटवर्ती वस्तुओं को नहीं । अर्थात् भूतकालीन व्यक्ति अन्य देशीय व्यक्ति अथवा भविष्यकालीन बातों को वह बढ़ा-चढ़ाकर देखता है, परन्तु वर्तमानकालीन या अपने से निकटवर्ती वस्तुओं या व्यक्तियों को नहीं देख पाता। वह अपनी जगह बैठा-बैठा हीनभावनाओं से पीड़ित होकर अपने उत्थान की बात नहीं सोच सकता । अपने जीवन-विकास के लिए प्रयत्न करने में वह हिचकिचाता है । वह अपने आपका ठीक मूल्यांकन नहीं कर पाता । दूर के डूंगर सुहावने लगते हैं उसे । वह अपने में किसी महापुरुष के बनने की योग्यता, क्षमता और शक्ति नहीं पाता । ___ इस प्रकार गौरवग्रन्थि और लाघवग्रन्थि ये दोनों मानसिक रोग हैं, दोनों ही अपने जीवन के विषय में स्वस्थ दृष्टिकोण नहीं रखते । दोनों अपना ठीक-ठीक मूल्यांकन नहीं कर पाते । एक अपना मूल्यांकन बहुत अधिक कर लेता है, उसे दुनिया के दूसरे लोग दिखते ही नहीं । दूसरा अपना मूल्यांकन बहुत ही कम करता है उसकी दृष्टि में दूसरे बहुत महान् दिखते हैं, भूतकालीन लोग या भविष्यकालीन लोग उसकी दृष्टि में अधिकाधिक बुद्धिमान, शक्तिमान, भक्तिवान या चारित्रवान जचते हैं, वर्तमानकालीन लोग अल्पातिअल्प लगते हैं । या उसको स्वयं वह अत्यन्त तुच्छ, अशक्त, निकृष्ट, अयोग्य, अक्षम या अकर्मण्य लगता है। संत विनोबा भावे ने एक बार कहा था-"संसार में दो तरह के पाप (पाप For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिमानी और अतिहीन असेव्य १६१ युक्त व्यक्ति) हैं । एक की गर्दन जरूरत से ज्यादा तनी हुई है-घमंड के कारण, अभिमान के कारण और दूसरे की गर्दन जरूरत से ज्यादा झुकी हुई है-दीनता से, दुर्बलता से । ये दोनों ही पापी हैं । एक उन्मत्त है, दूसरा दबैल-दुर्बल । वैसे गर्दन सीधी भी होनी चाहिए, लचीली भी, लेकिन तनी हुई न हो, और न अत्यन्त झुकी हुई हो। इसीलिए आचारांग सूत्र में बताया गया है-'नो हीणे नो अइरित्ते'-अपने आपको न अत्यधिक हीन माने और न ही अत्यधिक अतिरेकी। निष्कर्ष यह है कि गौरव-भावना का शिकार हो या हीनभावना का शिकारये दोनों ही अपने आप में पापयुक्त हैं, दोनों ही स्वस्थ और शुद्ध जीवन के प्रतीक नहीं हैं। इसलिए इन दोनों का संग त्याज्य समझना चाहिए। अब हम विभिन्न पहलुओं से प्रत्येक का विश्लेषण करते हैं अतिमानी : आसुरी शक्ति का पुजारी प्रत्येक कार्य में, कभी सफलता और कभी असफलता भी मिला करती है । असफलता मिलती है तो मनुष्य सोचने को मजबूर हो जाता है कि उसने कहाँ गलती की है ? मुझे कहाँ क्या सुधार करना चाहिए ? क्या करना उचित था ? अपनी गतिविधियों में नम्रतापूर्वक सुधार कर लेने पर जहाँ बिगड़े काम के बनने की संभावना बन जाती है, वहाँ सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि मनुष्य को अपनी वृत्तियों और आदतों को सुधारने का अवसर मिलता है । यही सुधार सफलता का व्यवस्थित प्रशिक्षण देकर भविष्य की प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर देता है। इस तरह असफलता प्रायः मनुष्य को नम्र और सहृदय बनाती है, कटुवादी सहृदय मित्र की तरह लाभदायक सिद्ध होती है । परन्तु सफलता मिलती है तो दूसरे लोग उसकी प्रशंसा करते हैं और व्यक्ति सफलता के नशे में हर्ष से उन्मत्त हो जाता है, उसका हौंसला बढ़ जाता है, ये और इस प्रकार के सफलता के लाभ सर्वविदित हैं । लेकिन उसमें एक बुराई भी छिपी रहती है, जो दिखने में तो छोटी दिखाई देती है, किन्तु उसके दुष्परिणामों को देखते हुए वह बहुत भयंकर प्रतीत होती है। यदि उसकी ओर से सावधान न रहा जाये तो वह बहुत हानिकारक भी सिद्ध होती है। इस बुराई का नाम है-अभिमान या अहंकार । सफलता पाकर मनुष्य इतराने लगता है, वह अपनी औकात भूल जाता है, अपनी गलतियों का संशोधन नहीं करता है, सफलता के मद में वह सोचने लगता है--मैं बड़ा बुद्धिमान, चतुर और पुरुषार्थी हूँ। मैं हर दिशा में शीघ्र ही सफलता प्राप्त कर सकता हूँ। मनुष्य जब गौरवग्रन्थि से ग्रस्त हो जाता है, तब वह अपने आपको सबसे बढ़कर उच्च, महान और श्रेष्ठ समझने लगता है, अपने आसपास के तथा अपने समाज एवं राष्ट्र के अन्य व्यक्तियों को अपने से तुच्छ एवं हीन समझने लगता है । वह जरा-सी प्रभुता पाकर मद में छलकने लगता है। अहंत्व अभिमान, दर्प या अहंकार से पीड़ित For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ मानव परिवार, समाज, राष्ट्र या धर्मसम्प्रदाय में अपने अलावा अन्य किसी को महत्त्व नहीं देता। मनुष्य में आत्मविश्वास का होना अलग बात है, अहंकार उससे सर्वथा भिन्न है । आत्मविश्वास और अहंकार मोटे रूप में एक-से दीखते हैं, मगर इनमें जमीन-आसमान-सा अन्तर होता है । जैसे कायरता और अहिंसा एक-सरीखी लगती हैं, पर दोनों की मनोदशा में दिन-रात जैसा भेद रहता है । आत्मविश्वास एक आध्यात्मिक गुण है; जिसका अर्थ होता है-कतव्यमार्ग पर दृढ़ रहना, कठिनाइयों में तनिक भी विचलित न होना । आत्मविश्वासी आत्मा की महत्ता मानते हुए भी सावधानी, परिश्रम, अन्तनिरीक्षण, अध्यवसाय, परिस्थितियाँ, अन्य का सहयोग, जागरूकता आदि बातों पर सफलता को अवलम्बित समझता है, तथा फलाकांक्षा की परवाह न करके अपने सुनिश्चित पथ पर बढ़ता चला जाता है, जबकि गर्वग्रन्थि या अहंकार से ग्रस्त व्यक्ति जरा सी सफलता पाकर सोचने लगता है-मैं ही सब कुछ हूँ; मुझ में कोई त्रुटि नहीं, मेरी बुद्धि सारी दुनिया से बढ़कर है; मैं जो चाहूँ, चुटकी बजाते ही पूरा कर सकता हूँ। दर्प-सर्प से दंशित व्यक्ति अपनी शक्ति, क्षमता, योग्यता और प्रकृति का बिना मूल्यांकन किये अपनी ताकत का पूरा नाप-तौल किये बिना ही कठिन कार्य प्रारम्भ करने की धृष्टता कर बैठता है, उसके अन्तर्मन में महत्त्वाकांक्षा, पदलोलुपता या अधिकारलिप्सा इतनी प्रबल हो जाती है, कि वह उस महत्वपूर्ण कार्य में दूसरों के सहयोग, सावधानी, जागरूकता, परिस्थिति आदि की बिलकुल उपेक्षा कर डालता है । फलतः जब उस कार्य में असफलता मिलती है तो तिलमिलाने लगता है । वह अपने उपादान का दोष न देखकर निमित्तों को दोष देने लगता है। अहंकार को मद इसलिए कहा गया है कि जैसे नशीली चीजें खाने से मनुष्य में उन्मत्तता आ जाती है, उसी प्रकार एक छोटी-सी सफलता पाकर मनुष्य में उन्मत्तता आजाती है, उसका दिल-दिमाग अपने काबू में नहीं रहता। वह मामूली-सा पद, लाभ, श्रेय या महत्त्व पाकर इतराने और बौराने बगता है। उसकी अकड़ उद्दण्डता और अशिष्टता के रूप में चेहरे पर झलकती रहती है। दोहावली में कहा है छाती निकली ही रहे, तना रहे भ्र भंग । 'चन्दन' मिथ्या मान का, छिपा न रहता रंग ।। चढ़े हुए रहते सदा, अभिमानी के नैन । सम्मुख कम ही देखते, दिन हो, चाहे रैन ।। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर अहंकारी के लिए सुन्दर प्रेरणा देते हैं—“धुआ आसमान से शेखी बघारता है और राख पृथ्वी से कि हम अग्निवंश के हैं।". अतिमानी से सद्गुणों का पलायन . इसी प्रकार अतिमानी व्यक्ति जरा-सी सिद्धि या सफलता पाकर सज्जनता का For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिमानी मौर बतिहीन मोम्म १३ पथ छोड़कर उद्धतता को अपना लेता है। परन्तु यह उद्धतता किसी से भी बर्दाश्त नहीं होती। सभी को अहंकार बुरा लगता है। भले ही कोई उसका तत्काल विरोध न करे, पर अवसर आने पर अहंकारी का कोई भी सच्चा मित्र नहीं रहता । चापलूस और खुशामदी लोग जो अपने मतलब के लिए उसके नाक के बाल बने हुए थे, समय आते ही अंगूठा बता देते हैं। अहंकारी के मन से सब सद्गुण उसी प्रकार विदा होने लगते हैं, जिस प्रकार तालाब का पानी सूखने पर उसके तट पर रहने वाले पक्षी अन्यत्र चले जाते हैं । अहं. कार से अन्य दुगुणों का पोषण होता है, जो मनुष्य को भवबन्धनों में जकड़ने में कठोर लोहश्रृंखला का काम करता है । घमंडी आदमी में वे सब दुगुण पैदा हो जाते हैं, जो किसी असुर या गुण्डे में होते हैं । असुरों या गुण्डों का अहंकार प्रारम्भ में विकृत होता है, बाद में वे दूसरों को तुच्छ समझने लगते हैं। वे अपने कार्य में जरा-सा व्याघात होते ही सर्पदंश-सा अनुभव करने लगते हैं और तुरन्त विषैले साँप की तरह अनर्थ करने पर उतारू हो जाते हैं। एकाध बार ऐसे अनर्थों में सफलता मिलने पर तो वे पूरे नरपिशाच बन जाते हैं । डाकुओं और हत्यारों में लोभवृत्ति इतनी प्रबल नहीं होती जितनी अहंता । अहंकार का प्राबल्य ही अधिक होता है, उनमें । अहंता को ही असुरता का प्रतीक माना गया है। यदि अपराधियों के मस्तिष्क से अहंकार का तत्त्व निकाला जा सके तो वे शीघ्र ही अच्छे मानव बन सकते हैं । अहंकार मनुष्य को इतना स्वार्थी बना देता है कि वह केवल अपने गुण और वैभव ही नहीं, उनका लाभ भी दूसरों को नहीं देता। इतना ही नहीं बल्कि अपने अहंकार की तृप्ति के लिए वह दूसरे की विशेषताओं तथा विभूतियों का भी शोषण करने का प्रयत्न करता है । सारे संघर्ष, लड़ाई, झगड़े, राम-वृष इसी कारण हैं कि अभिमानग्रस्त मानव अपने आप को सबसे आगे देखने का यत्ल करता है और दूसरे को पीछे। इस आगे-पीछे के संघर्ष से ही ये विषाक्त बातें फूट पड़ती हैं। अपनी पहल करना अभिमानी का नियम है। अहंकार का अर्थ है-अपने तक सीमित रहने की संकीर्णता । अहंकारी का असहयोगी होना स्वाभाविक है। वह सब कुछ अपने लिए ही करना चाहेगा, अपने लिए ही संग्रह करेगा, केवल अपनी ही सुख-सुविधा पर दृष्टि रखेगा, तब भला वह दूसरों के सुख-दुःख में, दूसरों की उन्नति और जीवन-यापन में किस प्रकार सहायक और सहयोगी हो सकता है ? अहंकारी यहां तक सोचता है कि मैंने अपना विकास स्वयं ही किया है, मैने समाज से कोई सहयोग नहीं लिया । समाज के ऋण और सहयोग का महत्त्व भूलकर यदि कोई इतराता है, और अहंकारी बनकर मदोन्मत्त होता है तो यह उसकी तुच्छता बौर असुरता है । अहंकार ही तो असुरता का प्रधान लक्षण है । मनुष्य में जितना अधिक अहंकार होता है उतनी ही गहरी आसुरी वृत्ति होती है । दुष्टता का जन्मदाता For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ अगर कोई है, पाप का मूल अगर कोई है तो कहना चाहिए वह अहंकार ही है । पतन की ओर ले जाने वाली जितनी भी प्रवृत्तियां हैं, वे सव पाप ही तो हैं । अहंकार से दूषित मनुष्य की गतिविधि कुछ इसी प्रकार की होती है। अहंकार से प्रेरित व्यक्ति की गति चाहे तीव्र हो, पर वह प्रायः पापकारी होती है, कल्याणकारी नहीं। वह अपने अहंकार को तृप्त करने के लिए दूसरों पर अत्याचार अन्याय करता है, शोषण करता है, उन्हें पैरों तले रौंदता है अपने अहंत्व की शेखी में आकर दूसरों को दबाता सताता है, प्रभुता का मद उसकी बुद्धि पर काला-घना स्वार्थ और मोह का पर्दा डाल देता है। ___ मैं ऐतिहासिक उदाहरण द्वारा आपको समझाने का प्रयत्न करूंगा कि अतिमानी मनुष्य किस प्रकार मानवता को भूलकर असुरता को अपना. लेता है ? बात अधिक पुरानी नहीं है । कच्छ के समुद्रतटवर्ती कुन्दनपुर नगर के कोटीश्वर एवं धर्मात्मा श्रेष्ठी हीरजी शाह का इकलौता लाड़ला पुत्र था–नवलकुमार । सेठ हीरजी शाह और सेठानी चारुमती के बड़े ही मनोरथों के बाद नवल का जन्म हुआ था । नवल कुछ बड़ा हुआ तब सेठ ने उसे कलाचार्य के पास अध्ययन करने हेतु भेजा। नवल स्वस्थ एवं सुन्दर था, किन्तु वह स्वभाव से था-उच्छृखल और अहंकारी । 'पुरुष नारी से श्रेष्ठ है' यह दुर्भावना उसमें घर कर गई थी। कुछ सहपाठी मित्र भी उसे ऐसे मिल गये जो दुष्ट स्वभाव के थे, और नवल की दुर्भावना का समर्थन करते रहते थे । एक-दो मित्र ही ऐसे सच्चे थे, जो नवल को सुपथ पर लाना चाहते थे, किन्तु नवल पर उनके परामर्श का कोई असर नहीं होता था। __ अहंकारी नवल ने एक दिन अपने मित्र के समक्ष अपने अहंकार प्रेरित उद्गार निकाले -“सारे शास्त्र पढ़कर मैंने तो एक ही निष्कर्ष निकाला है कि नारी ही सारे अनर्थों की जड़ है।" सन्मित्र ने कहा-नवल ! तुमने शास्त्र पढ़े ही नहीं हैं। शास्त्र में तो कहा गया है यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । -जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ दिव्य पुरुष क्रीड़ा करते हैं। नवल ठहाका मारकर बोला-“यह तो नारियों के गुलामों का कथन हैं। मैं ऐसी अनुभवहीन उक्तियों को नहीं मानता।" मित्र-"तो फिर यों कहो न, कि मैं शास्त्रों को नहीं मानता।" नवल-"मैं तो उन जीवन्त इतिहासों को मानता हूँ, जिनमें स्त्री द्वारा हुए सर्वनाश की बातें लिखी हैं। जैसे सीता के कारण राम-रावण युद्ध हुआ, द्रौपदी के कारण महाभारत हुआ।" - मित्र-"तुमने तो भारत का इतिहास विपरीत ढंग से पढ़ा है । नारी स्वयं पूज्य है; शक्ति और भक्ति है। स्त्री की रक्षा संस्कृति की रक्षा है । स्त्री की मृदु मुस्कान और मधुरता के आगे तुम भी झुक जाओगे।" For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिमानी और अतिहीन असेव्य १६५ नवल-"मैं स्त्री का दास नहीं । मैं तो अपनी पत्नी के नित्य ५ जूते मारा करूंगा । मेरी दृष्टि में स्त्री इसी योग्य है।" . मित्र-“फिर हो गया तुम्हारा विवाह ! कौन लड़की ऐसी होगी, जो प्रतिदिन जूते खाने के लिए तुम्हारी पत्नी बनेगी।" . नवल ने आवेश में आकर कहा-"न होगी तो न सही। मेरी प्रतिज्ञा यही है कि जो स्त्री प्रतिदिन ५ जूते खायेगी, उसी के साथ मैं शादी करूंगा।" नवल के सदाचारी मित्र ने उसे कोई जवाब नहीं दिया, वह उठकर वहाँ से चल दिया। सहपाठी मित्र अपने अच्छे स्वभाव के कारण नवल को यदा-कदा समझाता था, किन्तु नवल की हृदयरूपी काली चादर पर कोई भी रंग न चढ़ा। नवल-विवाह योग्य हो गया था। अनेक श्रेष्ठी अपनी कन्याओं का विवाहप्रस्ताव लेकर हीरजी शाह के पास आते लेकिन नवल ने अपनी प्रतिज्ञा सेठ हीरजी को बताई तो सेठ ने अपना माथा ठोक लिया और मन ही मन कहा-'ऐसे कुपुत्र के होने से तो निःसंतान होना अच्छा । इसके साथ कौन कन्या विवाह करने को तैयार होगी।' नवल की जूते मारने की प्रतिज्ञा दूर-दूर तक फैल गई। लेकिन नवल को इसकी चिन्ता नहीं थी। उसका अहंकार इस दुराग्रह को कतई छोड़ने को तैयार न था। संयोगवश एक व्यापारी सेठ सपरिवार कुन्दनपुर आये । वे पांथशाला में ठहरे । साथ में उनकी गुणवती कन्या रम्भा भी थी । वे कन्या की सगाई करना चाहते थे। इसलिए सेठ हीरजी के पास आये। वहाँ नवल को देखकर वे मुग्ध हो गये । अपनी कन्या के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा तो सेठ हीरजी ने नवल की कठोर और अमानवीय शर्त रखी। इस पर वह व्यापारी सेठ निराश होकर चला गया। रम्भा के पिता ने पांथशाला में पहुँचकर सारी बात कही। रम्भा ने भी नवल की प्रतिज्ञा सुनी तो वह बोली-“पिताजी ! श्रोष्ठि-पुत्र की शर्त मुझे मंजूर है । मैं उसके साथ विवाह करूंगी।" . . पिता--"बेटी ! मैं कठोर-हृदय होकर तुम्हें उस नालायक के गले कैसे मढ़ सकता हूँ ? क्या धरती पर सुन्दर वरों का दुष्काल है ?'' . रम्भा-"पिताजी ! आपकी पुत्री की बुद्धि की कसौटी का यह अवसर है । मैं अपने प्रयत्न से श्रोष्ठि-पुत्र को सुपथ पर ले आऊंगी और ऐसा उपाय करूंगी, जिससे वह स्वयं प्रतिज्ञा को तोड़ दे। तभी तो मैं नारी की महत्ता स्थापित कर सकूँगी।" रम्भा की बुद्धिमत्ता पर उसके माता-पिता को पूर्ण विश्वास था, फिर भी उन्होंने सब तरह से उसे समझाने का प्रयत्न किया। उसका दृढ़निश्चय जानकर For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ उसका पिता श्रीफल लेकर हीरजी सेठ के पास पहुँचा और कहा - " सेठजी ! मेरी पुत्री को आपके पुत्र की शर्त मंजूर है । आप यह श्रीफल स्वीकार करके सगाई पक्की कर लीजिये ।" सेठ को इस अनहोनी बात पर साश्चर्य प्रसन्नता हुई और नवल की सगाई रम्भा के साथ पक्की कर ली। शुभ मुहूर्त में बड़ी धूमधाम से श्रेष्ठिपुत्र नवल का विवाह श्रेष्ठिकन्या रम्भा के साथ सोल्लास सम्पन्न हो गया । विवाह के बाद की पहली रात हमी-खुशी से बीती । रम्भा ने अपने विनीत और मधुर स्वभाव से नवल को प्रभावित करने का प्रयास किया । प्रातः होते ही नवल ने जब रम्भा को जूते खाने की प्रतिज्ञा याद दिलाई तो मृदु मुस्कान के साथ रम्भा ने कहा - "स्वामी ! आज रहने दें । हमारे विवाह के बाद का आज पहला प्रभात है । मैं चाहती हूँ, यह प्रभात किसी अशुभ कार्य से न हो । मेरे मस्तक से पहले आपका हाथ अपवित्र होगा । अतः आज के बदले कल १० जूते मार लेना । इसके अतिरिक्त मुझे सन्तुष्ट करना भी तो आपका धर्म है ।" नवल ने यह सोचकर सहमति प्रगट की कि कल मैं १० जूते आज के बदले मार ही लूंगा । इसकी एक भी बहाने बाजी न चलने दूंगा । पहला दिन टला । दूसरे दिन सबेरे फिर नवल ने कहा - " तैयार हो जाओ दस जूते खाने के लिए । आज तुम्हारी बात नहीं मानू गा ।" बुद्धिमती रम्भा ने पूछा" किसके जूते मारने की शर्त थी आपकी ?" नवल - " अपनी पत्नी के ।" रम्भा-' - "अभी आप पूर्णरूप से मेरे पति नही बने हैं । पूर्ण पति हो जायें तब शौक से जूते मारना । अपनी कमाई का धन अपनी पत्नी पर खर्च करने पर ही पुरुष स्त्री का पूर्णतया पति होता है। अभी तक एक छदाम भी आपने मेरे पर नहीं खर्चा है । आप पहले परदेश जाकर धन कमा लाइये, फिर पूर्णतया पति बनेंगे, और तभी मेरे सिर में जूते लगा सकेंगे ।” नवल को यह बात लग गई। बड़ी मुश्किल से माता-पिता से परदेशगमन की अनुमति ली और जहाज में माल भरकर परदेश रवाना हुआ। रास्ते में एक लंगड़े, एक काने, एक कामलता वेश्या आदि के चक्कर में फंसकर सारा धन खो दिया और एक तेली के यहाँ नौकरी करने लगा । पिताजी के पास जब पत्र पहुँचा और बुद्धिमती रम्भा ने जब सारा हाल जाना तो वह सास-ससुर की अनुमति लेकर पुरुषवेश में जहाज में सामान लदवाकर रवाना हुई। मार्ग में वही लंगड़ा, काना और कामलता वेश्या आदि सब मिले। अपने चातुर्य से रम्भा ने सबसे ब्याज सहित सारी रकम वसूल कर ली और बहुत सा धन देकर तेली के यहाँ से नवल को छुड़ाया । नवल को अपना मित्र बनाकर रम्भा कुन्दनपुर लौटी । रम्भा के २१ दिन बाद ही नवल धूमधाम से कुन्दनपुर पहुँचा । अपनी सफलता की डींग हाँकने लगा। जब रम्भा के For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिमानी और अतिहीन असेव्य १६७ सामने वह अपनी झूठी शेखी बघारने लगा तो रम्भा पुरुष वेश में तेली के यहाँ से नवल के पहने हुए चिकने कपड़ों की जो पोटली लाई थी, उन कपड़ों को लेकर आई और कहने लगी-"मुझे पहचानते हैं। मैं आपका वही व्यापारी मित्र हूँ, जिसने आपको धन दिया था, और वेश्या, तेली आदि के चंगुल से आपको छुड़ाया था।" नवल समझ गया कि यह रम्भा ही थी, जिसने मुझे धन दिया और तेली के यहाँ से छुड़वाया। तब एकदम हर्षावेश में आकर 'प्रिये' सम्बोधन करके उसे बाहुपाश में जकड़ लिया। नवल ने रम्भा से कहा-"अब तक मैं भ्रम में था। मुझे माफ करो, रानी ! अब मैं कदापि तुम्हारे जूते नहीं मार सकता । मेरा पिछला सब बकाया भर पाया। मुझे प्रसन्नता है कि तुमने मेरी सारी शेखी अपनी बुद्धिमत्ता से उतार दी।" हां, तो बन्धुओ ! मैं कह रहा था कि जो व्यक्ति अहंकार के हाथी पर चढ़कर दूसरों के साथ अमानवीय व्यवहार तक करने को उद्यत हो जाता है, उसे आखिर मुंह की खानी पड़ती है । नवलकुमार को अहंकार का सबक मिल गया। अहंकार क्यों, किस बात का ? मनुष्य अहंकार किस बात का करता है ? संसार की सभी वस्तुएं नाशवान हैं। कोई भी वस्तु स्थायी नहीं । फिर अहंकार क्यों ? क्या क्षणिक वस्तुओं के अहंकार से उसके बहं की तृप्ति हो जाती है ? कदापि नहीं। क्या किसी मनुष्य का नाम रहा है ? नहीं। फिर भी मनुष्य अपने अहंकार को चरितार्थ करने के लिए अधिक नाम फैलाना चाहता है । अहं का रोग पागलपन है। वह नामबरी के मोह में, अहंकार के मद में पागल होकर न जाने कितने-कितने अनर्थ ढहाता है। इसीलिए एक कवि चेतावनी के स्वर में कहता हैस्वप्न संसार है, रहना दिन चार है, मान करना नहीं। हो"मान० ॥ध्रुव।। फूल फूला कि भौंरे आने लगे, लूटने के लिए गीत गाने लगे। फूल था भूल में, मिल गया धूल में, मान करना नहीं । स्वप्न॥१॥ रूप यौवन भी सन्ध्या में ढल जाएगा, और यौवन-नशा भी उतर जाएगा। इनमें मतवाला बन, मेरे भोले सज्जन, मान करना नहीं ।। स्वप्न"" ॥२॥ सरसराता फव्वारे का जल जो चढ़ा, मैंने देखा कि वोह सर के बल गिर पड़ा। नेचर देती है दण्ड, रहा किसका घमंड, मान करना नहीं। स्वप्न" ॥३॥ भावार्थ स्पष्ट है । वास्तव में मनुष्य अपने अहंकार को सन्तुष्ट करने के लिए अपना नाम और नामबरी चाहता है। १ जैन इतिहास की एक प्रेरक घटना है-भारतवर्ष का प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत छहों खण्ड जीतकर अपनी विजय-पताका फहराता हुआ ऋषभकूट पर्वत पर पहुँचा । वहाँ वह विशाल शिलापट्टों पर अपनी दिविजय की स्मृति में अपना नाम For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ तथा परिचय अंकित करना चाहता था । इस प्रबल नाम-कामना को सन्तुष्ट करने हेतु वहाँ पहुँचकर गौर से देखा तो मालूम हुआ-वहां परिचय अंकित करने की तो दूर रही। भरत इन तीन अक्षरों का नाम अंकित करने की भी जगह नहीं थी। हजारों-लाखों चक्रवतियों ने अपना-अपना नाम वहाँ अंकित कर रखा है। सोचा-किसी का नाम मिटाकर अपना नाम उस जगह खुदवा दूं ? ज्योंही भरत का हाथ उठा, किसी एक का नाम मिटाकर भरत नाम खुद गया; लेकिन उसी क्षण भरत के हृदयाकाश में विवेक की बिजली कौंधी जिसके प्रकाश में भरत ने सोचा-'आज तूने किसी का नाम मिटाया है, कल कोई तेरा भी नाम मिटा सकता है।' भरत की अन्तश्चेतना ने कहा'यह सब अहंकार का खेल है। वही मनुष्यों को विविध रूपों में नचाता है। इस विश्व के इस विशाल पट पर किसका नाम अमिट व अमर रहा है।' भरत का नामजनित अहंकार मिट गया। अहंकार : ध्वंसात्मक रूप में मनुष्य सत्कार्य करके किसी को हानि पहुँचाये बिना सम्मान और यश प्राप्त करे यह किसी हद तक क्षम्य हो सकता है। किन्तु जब वह महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होता है, उसकी बड़प्पन की लालसा भूख बनकर किसी भी प्रकार से अपनी तृप्ति पाने के लिए तड़पने लगती है, तब वह पैशाचिक वृत्ति धारण कर लेता है। जब मनुष्य मनुष्यता की सीमा से बाहर आकर संसार पर बड़प्पन थोपना चाहता है; तब वह एकदम निन्द्य एवं घृणित बन जाता है। इस प्रकार के महत्त्वाकांक्षी लोगों की अहंकार वृत्ति मनुष्य को आततायी बना देती है। सिकन्दर, तैमूर, नादिरशाह आदि जो भी महत्त्वाकांक्षी आक्रामक हुए हैं, जिन्होंने अकारण मानव-जाति का संहार किया है । वे अहंभाव से पीड़ित रहे हैं। यदि उनमें अहंभाव की प्रधानता न होती तो वे अपनी शक्तियों को किन्हीं ऐसे कामों में लगाते, जिनसे मनुष्य-जाति का हित साधन होता। रावण, कंस, हिटलर, हिरण्यकशिपु, नैपोलियन आदि आतंकवादी आक्रान्ता महत्ता की तृष्णा से पीड़ित थे । सद्गुणों के अभाव में जब उनकी महत्त्वाकांक्षा महत्ता नहीं पा सकी, पूजा-प्रतिष्ठा से वंचित रही, तब वे अकारण ही अपनी दुर्बलता को छिपाने के लिये दुनिया के दुश्मन बनकर अपनी महत्ता बलात् थोपने के लिए ध्वंस के मार्ग पर दौड़ पड़े। परन्तु क्या वे इतना सब रक्तपात करके और संसार को त्रास देकर कोई बड़प्पन प्रतिष्ठा या आदर सम्मान पा सके ? नहीं। माना कि उनमे साहस, शक्ति, मनोबल और विश्वास था; जिसके आधार पर वे संसार को आतंकित कर सके। किन्तु उनकी ये विशेषताय उनके लिए एक भी प्रशंसा का शब्द तथा प्रतिष्ठा का एक बिन्दु भी अर्जन कर सकी हैं ? कितना अच्छा होता, उन्होने अपनी विशेषताओं को ध्वंस म न लगाकर सृजन में लगाया होता, संहार के स्थान पर सेवा का मार्ग अपनाया होता, आतंक के स्थान पर प्रम को स्थान दिया होता तो जीवनकाल में उनकी पूजा प्रतिष्ठा होती ही, इतिहास For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिमानी और अतिहीन असेव्य १६६ में भीउनका नाम सूर्य-चन्द्र की तरह चमकता। लोग श्रद्धापूर्वक उनका नाम लेते, उनकी गौरव-गरिमा के आगे- सिर नमाते । किन्तु अपने अहंकार से प्रेरित होकर जो काले कारनामे उन्होंने किये, उनके कारण वे इतिहास के काले पृष्ठों पर अंकित किये गये। .... यह अहंकार था, जिसके कारण महत्त्वाकांक्षी नेपोलियन गलत मार्ग पर चढ़ गया। नैपोलियन बाल्यकाल से ही महत्त्वाकांक्षी था । वह समाज में अपना विशेष महत्त्व और मूल्य चाहता था। उसकी बड़ी इच्छा थी कि लोग उसका आदर करें, सिर झुकायें और यह माने कि नैपोलियन संसार का एक विशेष व्यक्ति हैं। उसकी यह कामना ही इस बात की द्योतक थी कि उसमें पात्रता की कमी थी, गुणों का अभाव था, जो मनुष्य को महान पथ पर लगा देते हैं। नेपोलियन की महत्त्वाकांक्षा अहंकारजन्य थी। नेपोलियन ने अपनी प्रतिष्ठा, प्रशंसा एवं विशेषता के लिए लेखक बनने का मार्ग चुना । उसे विश्वास था कि लेखक बनने पर वह अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति कर सकेगा । उसने अपने अन्दर लेखक के गुणों, उसको विशेषताओं तथा योग्यता के सद्भाव-अभाव पर विचार नहीं किया और अपनी उच्चाकांक्षा से प्ररित होकर वह १७ से २४ वर्ष तक लेखक बनने का प्रयत्न करता रहा, किन्तु सफलता नपा सका। उसका उद्देश्य लेखक या विचारक बनकर समाजसेवा करने का नहीं था, अपितु समाज में महत्ता एवं प्रतिष्ठा पाने का था। वह जल्दी से जल्दी अपने नाम की ध्वजा उड़ते देखना चाहता था। इसलिए वह अध्ययन और अभ्यास में समय न दे सका। उसने शीघ्रातिशीघ्र 'कार्सिका-इतिहास' नामक पुस्तक लिख डाली और उस समय के प्रसिद्ध विद्वान 'एब्बे रेनाल' के पास सम्मति के लिए भेज दी । निष्पक्ष विद्वान ने-"और गहरी खोज के साथ पुस्तक को दुबारा लिखो" इस प्रकार की सम्मति देते हुए पुस्तक वापस भेज दी। 'एब्बे रेनाल' की सम्मति से उसे बड़ी झुंझलाहट हुई। तत्पश्चात उसने 'प्रेम', 'आनन्द' तथा 'भान' आदि विषयों पर अनक लख लिखकर 'लिबरे पुरस्कार' की प्रतियोगिता में भेज दिये, किन्तु वे भी असफल घोषित कर दिये गये । इस घटना ने नंपालियन को बिलकुल निराश कर दिया। बस, यही से उसका मार्ग गलत हो गया और उसम संसार पर हठात् महत्ता थोप देने की प्रतिीहसा जाग उठी । इस प्रतिक्रिया का दोष उसकी अहंत्व-वृत्ति को था, जिसके कारण उसने अपनी अपात्रता की ओर नहीं देखा, समाज से हा द्वेष करने लगा। प्रतिहिंसा से प्रेरित नेपोलियन सैनिक क्षेत्र में चला गया। अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को केन्द्रित करके उसने बहुत कुछ किया, किन्तु उसका मूल्यांकन कुछ भी न हुआ। वह सैनिक बना, सेनापति बना, आक्रामक हुआ और विजय प्राप्त की। सारे यूरोप पर आतंक बनकर छा गया। वह शासक एवं सम्राट बना, फिर भी उसका उद्देश्य असफल ही रहा । साहस, शौर्य व पुरुषार्थ के गुणों की शक्ति तथा विशेषता For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ अवश्य ही उसके माध्यम से प्रभावित हुई, किन्तु नेपोलियन का व्यक्तित्व अपने उद्देश्य में सफल न हो सका । जिस मुख्य महत्ता एवं प्रतिष्ठा के लिए वह लालायित था, वह प्राप्त न हो सकी। इसके बदले इतिहास में बह आलोचना, निन्दा, भर्त्सना तथा अपवाद का पात्र अवश्य बन गया। अगर नेपोलियन ने अहंकार के वशीभूत न होकर उचित मार्ग में अपनी शक्ति लगाई होती तो शायद वह संसार के महानतम व्यक्तियों में गिना जाता । २०० निष्कर्ष यह है कि अहंकार या गौरवभाव जब अतिमात्रा में मानवता की सीमा लांघ जाता है, तो वह राग-द्वेष, प्रतिहिंसा, प्रतिद्वन्द्विता, ईर्ष्या, स्पर्धा तथा अपात्रता से दूषित हो जाता है और विष बनकर अपने आश्रयदाता को नष्ट कर डालता है । गर्व : अनेक रूपों में मानव-मन के अन्तस्तल में छिपा हुआ अहंभाव भी अनेक रूपों में बदल-बदल - कर जीवन के अनेक प्रसंगों पर अभिव्यक्त होता रहता है । कभी वह अपने शरीर के सौन्दर्य, रंग-रूप, बल आदि पर अभिमान करता है, तो कभी वह जाति और कुल का गर्व करता है । कभी वह अपने ज्ञान, लाभ ( प्राप्ति), ऐश्वर्य ( प्रभुत्व ) या तपस्या के मद से अभिभूत हो जाता है । इतना ही नहीं, आध्यात्मिक या धार्मिक क्षेत्र में भी इस मद ने अपना पैर पसारा है । जो साधक वर्षों से साधना कर रहा है, उसके जीवन में भी तप, जप, स्वाध्याय, शास्त्रज्ञता, क्रियाकाण्ड-पालन आदि का अहंकार या धमका । दान, शील और संवर आदि के क्षेत्र में भी अहंकार ने घुसकर उस क्षेत्र को विकृत कर दिया । जिसने सनत्कुमार चक्रवर्ती की तरह रूप का गवं किया, उसका गर्व भी चूरवर हो गया । जाति और कुल का अभिमान भी मिट्टी में मिल जाता है। उच्चजाति और उच्चकुल का होने के साथ उसमें सम्यग्ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूप रत्नत्रय है तो उसे जातिकुल का अभिमान करने की जरूरत ही नहीं है । अगर रत्नत्रय नहीं है तो भी जाति और कुल के अभिमान क्या मतलब सिद्ध होगा ? जाति और कुल तारने वाले नहीं है, बल्कि इनका अभिमान डुबोने वाला है । बल का अभिमान भी वृथा है । जो पहलवान जवानी में अपनी शक्ति पर इतराता था, बुढ़ापे में सारी शक्ति क्षीण हो जाने के कारण उसका सारा घमंड चूर हो जाता है। किसी का बल स्थायी नहीं है, फिर उसका अहंकार करने से क्या लाभ ? एक ठाकुर साहब के भन्तःपुर में तेलिन आया-जाया करती थी । ठकुरानी उसके साथ स्नेह रखती थी। वह बार-बार मजाक में कहा करती थी- “ ठकुरानी जी ! आपके ठाकुर कितने दुबले-पतले हैं ? क्या आप उन्हें पूरा खाना नहीं खिलातीं 1 मेरा पति तेली देखिये कितना बलिष्ठ है, मोटा-ताजा है ?" ठकुरानी हँसकर कह For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिमानी और अतिहीन अव्य २०१ देती-"यह तो अलग-अलग खासियत पर निर्भर है। ठाकुर साहब अफीम लेते हैं, इसलिए शरीर से दुर्बल लगते हैं, लेकिन बल में वे तेली से बढ़कर है।" परन्तु तेलिन मौके-बेमौके अपने तेली की ताकत की शेखियां बघारने से नहीं चूकती थी। ठकुरानी ने एक दिन ठाकुर साहब से तेली को अपनी ताकत बताने को कहा तो उन्होंने कहा"कभी समय आने पर मैं उसे देख लूंगा।" एक बार गांव पर किसी शत्रु की सेना का हमला होने वाला था। समाचार मिलते ही ठाकुर साहब अफीम लेकर अश्वारूक हो सेना के साथ युद्ध के लिये चल पड़े। संयोगवश मार्ग में वह तेली लोहे का कुश हाथ में लिये खड़ा था। ठाकुर साहब ने ज्यों ही उसे देखा, अपना घोड़ा उसके निकट ले जाकर तपाक से वह लोहे का कुश तेली के हाथ से लेकर पूरी ताकत से इस प्रकार मोड़ दिया मानो तेली के गले में हंसली (गले का आभूषण) पहना दी गई हो। तेली ने बहुत जोर लगा लिया लेकिन वह हिलती ही नहीं थी। कुशरूपी हंसली के कारण तेली का जोवन दूभर हो गया। तेलिन फिर ठकुरानी के सामने आजिजी करने लगी कि किसी तरह ठाकुर साहब से कहकर मेरे पति के गले से कंश निकलवाओ । ठकुरानी ने हंसते हुए कहा"तू तो कहती थी न, मेरा पति बड़ा बलवान है।" वेलिन बोली-“मेरी नासमझी पर ध्यान न दें, माफ करें।" ठकुरानी ने एक दिन ठाकुर से कहा-“बेचारे तेली के गले में लोहे का कुश आपने मोड़कर डाल दिया, बेचारा मुसीबत में पड़ गया, किसी तरह उते निकाल दीजिए।" अकुर-"तुमने ही तो उसे ताकत का चमत्कार बताने को कहा था । वह तो जोशपूर्ण स्थिति थी । अब वैसी जोशपूर्ण स्थिति माने पर ही कुश निकाली जा सकेगी।" संयोगवश ५-७ दिन बाद ही फिर गांव पर शत्रु ने बढ़ाई कर दी। गकुर सामना करने के लिए ससैन्य घोड़े पर चढ़कर शत्रु को परास्त करने निकले । सस्ते में वह तेली कुश की हंसली पहने खड़ा था। ठाकुर साहब ने घोड़ा एकदम निकट ने जाकर उस मुड़ी हुई कुश को दोनों हाथों से इस तरह बलपूर्वक ताना कि उसे बिलकुल सीधा करके नीचे गिरा दिया। तेली के जी में जी वाया। उसके बल का अभिमान चूर-चूर हो गया। वह ठाकुर साहब की ताकत का लोहा मान गया। बन्धुओ ! बल का गर्व करना भी वृथा है। अहंकार के रास्ते बहुत सूक्ष्म हैं। मार्ग बहुत अपरिचित है। अहंकार त्याम से भी भर सकता है, शाम से भी, धम से भी, पद से भी । एक आदमी रोज स्थानक में आता है, प्रवचन सुनता है, कोई भावमी जप करता है या तप करता है, तो वह अपने आपको औरों से विशिष्ट मानने लगता है । यही अहंकार है । अहंकार एक प्रकार का नशा है, जो मनुष्य के मन पर हर कोने से चिपक जाता है। अहंकार का मूल रूप 'मैं हूँ या 'मैं भी कुछ हूँ, इसी For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ प्रकार का है। वास्तव में अहंकार का अतिरेक मनुष्य के जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देता है । अहंभाव बहुत रूपों में आदमी को पकड़ सकता है। इसीलिये अमृत काव्य संग्रह में प्रौढ़कवि शास्त्रविशारद पं० रत्न अमीऋषिजी म. ने अभिमान को असार बताकर छोड़ देने की प्रेरणा की है- अंग रंग चंग देख करे क्यों गुमान मन, पतंग को रंग लगे उड़ता संसार है। - डाभ की अणी पै जैसे रही, उदक-कणी, ____ कागद की नाव बनी होय कैसे पार है ? चक्री चौथे सनतकुमार अभिमान कियो, देखत विनाश भयो, ऐसो यो असार है । अमीरिख कहे भवि तप-जप-व्रत सार, __सुकृत को धार जासु सुख श्रेयकार है । __ वास्तव में अहंकार मरणधर्मा है, नाशवान है। जो व्यक्ति अहंकार के अतिरेक म पागल हो जाता है, उसका संग करना या उसकी छाया-सेवा में रहना किसी भी प्रकार उचित नहीं है। क्योकि अहंकारी के संग से व्यक्ति में भी झूठे अहंकार का चेप लग जाता है। अहंकार का चेप मनुष्य को स्वार्थी, कृतघ्न, ईर्ष्यालु, प्रतिस्पद्धी एवं अनक दोषो से युक्त बना देता है । हीनता का अतिरेक : विकास का अवरोध जसे अहंकार या गर्व का अतिरेक मनुष्य को उद्धत और उद्दण्ड बना देता है, वैसे ही हीनता का अतिरक भी मनुष्य को अकर्मण्यता, किकर्तव्यविमूढ़ता, निराशा और मायूसा की ओर ल जाता है । हीनभावना जिस मनुष्य में घर कर जाती है, वह अपन आपको तुच्छ, अकिचन, अशक्त, असमर्थ, दीन-हीन, नीच और विवश समझने लगता है । वह रात-दिन यो सोचता रहता है कि मैं कुछ नहीं कर सकता, मेरे से यह कार्य बिलकुल नही हो सकता; मैं तो उसके सामने कुछ नहीं हूँ, न न बाबा ! मुझसे यह हो ही नहीं सकता; इसी प्रकार की हीनभावनाओं में बहते रहने वाला व्यक्ति अपने परिवार, राष्ट्र, समाज और जाति से बिलकुल अलग-थलग हो जाता है । एक तरह से वह झपू, दब्बू, कायर और दीन बन जाता है। हीनता की भावना मनुष्य को बिलकुल पराधीन, परमुखापेक्षी और भाग्यपरायण बना दती है । हीनता को भावना से ग्रस्त लोग स्वयं को धिक्कारते हैं, अपनी अधोगति के लिय या तो भाग्य को दोषी ठहराते हैं, या फिर निमित्तों को कोसने लगते हैं । एस लोग अपने उत्कर्ष के लिये प्रयत्न करने के बदले दुनियाभर की शिकायत करने को उद्यत रहते हैं। अपने कार्य म अयोग्य होने के कारण जब वे पदच्युत कर दिये जाते हैं तो वे अपनी त्रुटियों पर ध्यान देने के बजाय प्रायः यह कहते हैं For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिमानी और अतिहीन असेव्य २०३ "जमाना बुरा है। सब मेरी व्यर्थ ही शिकायत करते हैं। मालिक अपनी आँख से नहीं देखता, वह कान का कच्चा है।" उसे यह नहीं सूझता कि उसने पूरी मेहनत और ईमानदारी से काम नहीं किया। ___ हाँ तो, जितनी भी विकृत भावनाएं हैं, उनमें सबसे घातक भावना स्वयं को दीन-हीन मानने की भावना है। दैन्य या हीनभाव मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। दीनता-हीनता से पीड़ित व्यक्ति कभी सच्चरित्र नहीं बन सकता। मैं 'नाचीज हूँ', 'तुच्छ हूँ', 'नगण्य हूँ ये शब्द कहने वाले या तो पाखण्डी होते हैं, जो दूसरों के मुंह से सुनना चाहते हैं—'आप तो राजा हैं, आप विद्वान् हैं, आप महान हैं, आप हमारे सिरताज हैं;' आदि अथवा वे गिरे हुए पतित और पापलिप्त होते हैं, जो अपने उठने को, उत्थान की प्रगति की, या पाप त्यागकर धर्मात्मा बनने की सारी आशा छोड़ चुके हैं। जो अपना आत्मविश्वास खो चुके होते हैं, जिनमें किसी भी कठिन काम को प्रारम्भ की हिम्मत नहीं होती, न कठोर कर्तव्य का पालन करने का साहस होता है, वे आत्महीनता के शिकार हैं, ऐसा समझना चाहिए। . हीनता की भावना : क्यों और कैसे ? __ मनुष्य के मन में हीनता की भावना तब जागती है, जब वह दूसरों को अपने से अधिक सम्पन्न देखकर मन ही मन यह विचार करने लगता है-'कहाँ ये और कहाँ मैं ?' हीन भावना का शिकार जब अपने से बड़े, सभ्य, सफेदपोश लोगों को देखता है तो मन ही मन अपने आप को ज्ञान में, वेशभूषा में, धन और पद में बहुत छोटा और हीन मानने लगता है। उनके सामने जाने और बात करने में उसे झप आती है । वह जब यह देखता है कि उसके सामने उच्च शिक्षित, डिग्रियों और उपाधियों से विभूषित लोग बैठे हैं, वे विदेशी भाषा में बोलते है, अपनी भाषा छोड़कर; तब वह अपने आप में उदास और परेशान होकर घुलता जाता है । ___ एक व्यक्ति था, वह अपनी भाषा और वेशभूषा बदल नहीं सकता था । परन्तु उसने अप-टु-डेट, शिक्षित मनुष्यों को प्रसन्न करन के लिए उनकी पसन्द के कपड़ सिलवाकर जलसे म भिजवा दिये, ताकि वहाँ लटका दिये जाय । परन्तु वे शिक्षित लोग प्रसन्न न हुए । वे तो अपने ही रंग-ढंग में उसे सजाना और बनाना चाहते थे, जिसके लिए वह तैयार न था । किन्तु एक दिन सभ्यों के बीच में जाकर अपने आपको वह हीन मान बैठा था । उसक अन्तर की गहराई म आत्मग्लानि घर कर गई थी। हीनभावनाग्रस्त व्यक्ति अपने आपको बहुत पिछड़ा हुआ मान बैठता है । हर पहलू से वह विचार न करके सिर्फ एकाध पहलू स विचार करता है और अपन आपको जंगला, पिछड़ा या गंवार मान बैठता है । वह दूसरों को बताई अच्छी-बुरा सम्मति पर अपने-आप को तौलने लगता है। वह अपने अन्तर् को तराजू से अपने को नहीं तौलता, जो कि असली धर्म काँटा है। उससे तौलने पर शायद ही वह हीन जंचे। For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ परन्तु दूसरों की तराजू में अपने को तौलने का विचार मन में आए तो समझ लेना चाहिए कि उसका मन रोगी है । यह तौल कभी सच्चा नहीं होता। 'मैं दीन हूँ, मैं हीन हूँ' ऐसा विचार करने और मानने से मनुष्य दीन-हीन हो जाता है । 'अष्टावक्र संहिता' में कहा गया है मुक्ताभिमानी मुक्तो हि, बद्धो बद्धाभिमान्यपि । किंवदन्तीति सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत् ॥ 7 — जो अपने को मुक्त मानता है, वह मुक्त है और जो बद्ध मानता है, वह मान्यता या मति होती बद्ध है । जगत् में यह किंवदन्ती सत्य कि मनुष्य की जैसी है, वैसी ही उसकी गति प्रवृत्ति होती है । हीनता - प्रकाशन का यह रोग प्रायः ऐसे व्यक्तियों में भी देखा जाता है, जो अपने को दुनिया का अनोखा हीरा समझते हैं । वे पहले अपना मूल्यांकन बहुत ऊंचा कर लेते हैं, परन्तु जब उनके द्वारा कल्पित अभिमान या अभिमत ठुकरा दिया जाता है, तो वे मुंह के बल नीचे गिरते हैं । पहले उनकी धारणा ऐसी होती है कि दुनिया उनको हर समय सर आंखों पर उठाये रखे, उनके साथ विशिष्ट प्रकार का व्यवहार हो, लेकिन जीवन के सागर में उन्हें भी ऊँची-नीची लहरों के थपेड़े सहने पड़ते हैं, या दूसरों की तरह चक्की में पिसना पड़ता है, तब उनके सारे स्वप्न भंग हो जाते हैं । वे अपने को अकेले, असहाय और निर्बल अनुभव करने लगते हैं। का विज्ञापन करने के लिए वे हीनता प्रगट करते रहते हैं । अपनी निःसहायता दीनता की भावना तभी जागती है, जब मनुष्य किसी की अधीनता स्वीकार करता है । यह जरूरी नहीं कि हर एक नौकरी करने वाला दीन-हीन हो, जो मनुष्य अपनी योग्यता और पुरुषार्थ के भरोसे नौकर होगा, उसके स्वाभिमान पर कभी आघात नहीं पहुँचेगा । नौकरी या वेतनभोगिता का अर्थ दीन-हीन होना नहीं है, अपितु परस्पर सहयोग देना और अपने हक का - श्रम का मूल्य पाना है, अपना कर्त्तव्य करके अपना अधिकार पाना है । नौकरी करना भीख माँगना नहीं है । पर अधिकांश नौकरी करने वालों की आत्मा मर जाती है, वे अपने आपको मालिक के आगे इसलिए हीन और विवश समझ लेते हैं क्योंकि उन्हें दूसरी जगह इतना ऊंचा वेतन, इतने आराम की नौकरी मिलने की आशा नहीं होती या अपने में योग्यता और अपने पुरुषार्थं पर विश्वास नहीं होता । जो नौकरी का अर्थ पैसे के लिए, पेट के लिए, या किसी स्वार्थ के लिए काम करना या दासता के जुए में जुटना समझते हैं, वे दीनहीन हो जाते हैं । सच्चा आदमी कभी दीन नहीं बनता । वासनाओं या परिस्थितियों का गुलाम या अनैतिक उपायों से लोभ को तृप्त करने वाला व्यक्ति ही होन बनता है । सामर्थ्य से अधिक वेतन पाने या पुरस्कार पाने की आशा रखने वाले व्यक्ति भी दीन-हीनता के शिकार बनते हैं। अधिक की चाह मनुष्य को अशान्त और हीनता For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिमानी और अतिहीन असेव्य २०५ का रोगी बना देती है। स्थूल दृष्टि से दूसरों के सुखी होने का अनुमान लगाकर उसकी तुलना में अपने-आपको दुःखी मानना भी हीनता का एक प्रकार है। ऊंचे दर्जे के लोगों से मेल-जोल बढ़ाने वाले लोग भी हीनता का रोग पाल लेते हैं। अपने से अधिक भौतिक वैभव, बुद्धि, बल, या तप आदि देखकर अपने मन में कुढ़ते रहना, असन्तोष व्यक्त करना भी हीनता की बीमारी है । एकान्त में किया हुआ अपराध मनुष्य के मन को बार-बार कचोटता रहता है, उससे आत्मग्लानि एवं हीनता आती है । अदण्डित अपराध को मनुष्य भी हीन बना देते हैं। ___ असुन्दर, बेडौल या खराब चेहरे वाले लोग, खासकर महिलाएं अपने आपको हीन अनुभव करने लगती हैं। ऐसी हीनता की ग्रन्थि का प्रदर्शन मन की अनेक अवस्थाओं में होता है। पागल व्यक्ति प्रायः हीनता की ग्रन्थि से पीड़ित होते हैं । बचपन की कुचली हुई इच्छाएं भी मनुष्य को हीन बना देती हैं। कई साधक विद्वान् होते हैं, परन्तु बड़े-बड़े विद्वानों, वक्ताओं का भाषण सुनकर या लेख पढ़कर उनके मन में यह भ्रम घुस जाता है कि मैं अच्छा भाषण नहीं दे सकता, मैं लेख नहीं लिख सकता; यों सदैव आत्महीनता से प्रताड़ित होकर दीन-हीन बने रहते हैं। ___ मुझे एक विद्वान् सन्त का अनुभव है, वे व्याकरण, न्याय एवं दर्शनशास्त्र के अच्छे विद्वान् हैं, शास्त्रों के ज्ञाता भी हैं, पर उन्हें भाषण देने को कोई कहे तो वे एकदम झेंप जाते हैं और अपने आपको बिलकुल असमर्थ पाते हैं, हीनभावनाओं से ग्रस्त होने के कारण वे इन्कार कर देते हैं, भाषण देने से। कई विद्वान् लेख लिखना हो तो अपने में हीनता महसूस करते हैं। कई साधक उच्चस्तरीय साधना करते हुए भी अपने आपको नगण्य एवं तुच्छ समझ लेते हैं। जब वे दूसरों को साधना में सफल और आगे बढ़े हुए देखते हैं तो उनमें अपने प्रति हीनता-दीनता की भावना पैदा हो जाती है। वेदव्यासजी के पुत्र श्री शुकदेवजी पहुँचे हुए आत्मज्ञानी थे, लेकिन उन्हें अपनी योग्यता का भान नहीं था। उन्हें भ्रम था कि अन्य साधक मुझसे साधना में बहुत आगे बढ़े हुए हैं । इसलिए वे अपनी आत्मिक योग्यता का भान करने एवं हीन भावना दूर करने हेतु अपने पिता की आज्ञा लेकर विदेहराज जनक के यहाँ पहुँचे । वहां के राजसी ठाठ का उन पर कुछ भी असर न हुआ। जब द्वारपालों ने उन्हें रोका और धूप में खड़ा रखा, फिर भी वे अपमान-विजयी बनकर वहाँ साधना में लीन रहे । पचासों युवतियाँ हाव-भाव एवं हास्य-विनोद करती हुई उन्हें भोजन कराने में जुटी रहीं तथा समय-असमय घेरे भी रहीं, फिर भी उन कामविजेता का मन विचलित न हुआ । वे तो सतत निर्लेप व निर्विकारी बनकर आत्मरमण करते रहे। । दूसरे दिन महाराज जनक आये और शुकदेव का सम्मान करके उनके समक्ष बैठे । शुकदेव ने जब जनक विदेही से आत्मज्ञान की प्राप्ति कराने की मांग की, तब राजा ने कहा-"भगवन् ! आप आत्मिक ज्ञान की दृष्टि से पूर्ण हैं, सुख-दुःख एवं For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ मानापमान आदि में पूर्णतः आत्मस्थ हैं तथा काम-भोग आदि से अनासक्त हैं-यह मैंने भली-भाँति देख लिया है। फिर भी आपके मन में अभी भ्रान्ति है कि मैं आत्मज्ञानी नहीं बन सका, बस इतनी-सी आत्मविश्वास की कमी है। आप अपनी आत्मिक योग्यता को कम मत ऑकिये।" राजा की बात सुनते ही उनकी हीनभावना समाप्त हुई, अपने में आत्मज्ञान की योग्यता का भान हुआ। नम्रता और हीनता में अन्तर __ कई बार लोग अपनी हीनता को नम्रता समझ लेते हैं। परन्तु जहाँ मिथ्या भावुकता, आत्मविश्वास की कमी और हीनता से युक्त मायूसी एवं अत्यन्त नमन हो, वहाँ नम्रता नहीं, हीनता है। नम्रता में दबैल होने का भाव नहीं होता । आत्मविश्वास, शक्ति, सद्भावना, साहस, गम्भीरता—ये विनम्रता के रूप हैं। नम्रता में शक्तिप्रियता एवं पदलोलुपता के लिए कोई स्थान नहीं है। क्योंकि ये सब अपने में स्वार्थ से सने एवं संकीर्णता से परिपूर्ण है, जबकि नम्रता में सबका ध्यान, सबसे पीछे अपने आपको गिनने का महत्त्वपूर्ण आदर्श है। स्वार्थ के लिए नम्रता में कोई स्थान नहीं, इसमें एकमात्र परमार्थ को गति है। नम्रता मानसिक भाव है, उसके बाह्य सक्रिय रूप हैं-सेवा, आत्मीयता, आध्यात्मिक एकता और समता। हीनता में ये सब रूप नहीं होते, वहाँ होती है—ग्लानि, पड़े-पड़े पश्चात्ताप, एवं निम्नता की भावना, असंतोष और अन्दर ही अन्दर कुढ़न । एक होती है-हृदयहीन नम्रता; जिसमें अभिमानी मनुष्य अपने बड़प्पन को बनाये रखने या बढ़ाये जाने के लिए झूठी नम्रता का स्वांग करता है। ऐसी दिखावटी नम्रता खतरनाक होती है। इससे सरल प्रकृति के लोग प्रायः धोखा खा जाते हैं। स्वार्थी, पदलोलुप एवं अभिमानी व्यक्तियों ने नम्रता को भी एक साधन बना लिया है, अहंकार सन्तुष्टि का। हीनभावना के शिकार बालक कभी-कभी कई बालक अपने को मातृ-पितृहीन अनुभव करके हीन भावना के शिकार हो जाते हैं। जिनके कुल आदि का पता नहीं होता या जिन्हें माँ-बाप का प्यार नहीं मिलता, ऐसे बच्चे भी हीनताग्रन्थि से ग्रस्त होते हैं । अभयकुमार ने वन में घूमकर वापस लौटते हुए रास्ते में पड़े एक नवजात शिशु को पड़ा देखा तो उनकी करुणा उमड़ पड़ी। उन्होंने बालक को उठा लिया, घर ले आए। बच्चे का नाम रखा-'जीवक' । शिक्षा-दीक्षा का भार स्वयं उठाया। जीवक बड़ा हुआ तो एक दिन उसने राजकुमार अभय से पूछा-'मेरे माता-पिता कौन हैं ?" अभय ने वह सारी घटना कह सुनाई कि किस तरह वह जंगल में पड़ा मिला था। अपने को मातृ-पितृहीन अनुभव कर जीवक को गहरी वेदना हुई । For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिमानी और अतिहीन असेव्य २०७ उसने अपने अभिभावक अभय से कहा-''महाशय ! आपने मेरी रक्षा न की होती तो अच्छा था । बताइए, आत्महीनता का भार लेकर मैं कहाँ जाऊँ ?" राजकुमार को एक बार तो यह सोचकर बड़ा दुःख हुआ कि समाज में ऐसे कितने बच्चे होंगे, जो बड़ों की भूल और असावधानी के कारण आत्महीनता के भार से दबे होंगे। उन्होंने जीवक को धैर्य दिलाते हुए कहा-"वत्स ! दुःख करने की अपेक्षा, आओ हम दोनों मिलकर प्रायश्चित्त कर लें। तुम तक्षशिला जाकर दत्तचित्त होकर विद्याध्ययन करो, जिससे अपने में पात्रता उत्पन्न करके पददलित समाज को कुछ प्रकाश दे सको और मैं आज से मगध के नैतिक उत्थान के लिये अपने आपको समर्पित करता हूँ।" जीवक ने यह बात मान ली। विद्याध्ययन के लिये तक्षशिला चल पड़ा। प्रवेश के समय आचार्य ने नाम, पिता का नाम, कुल और गोत्र पूछा तो जीवक ने बिना कुछ छिपाये स्पष्ट कह दिया। आचार्य ने सत्यवादिता से प्रभावित होकर उसे प्रविष्ट कर लिया। जीवक ने एक दिन आयुर्वेदाचार्य की उपाधि ले ली। कल उसे मगध के लिये प्रस्थान करना था। गुरु के स्नेह और जीवन की निराशाओं ने उसे बहुत दुःखी बना रखा था। रात में देर तक नींद नहीं आई । तभी प्रधानाचार्य ने पूछा-"वत्स ! तुम्हारी आँखें लाल एवं मुखाकृति उदास क्यों है ?" जीवक ने कहा"देव ! आप जानते हैं कि मेरा कोई कुल व गोत्र नहीं, मैं जहाँ भी जाऊँगा, लोग मुझ पर उँगलियाँ उठायेंगे । क्या आप इतना प्रायश्चित्त मुझे यहीं न करने देंगे कि मैं आपकी सेवा में ही बना रहूँ।" आचार्य गम्भीर थे। बोले-"वत्स ! तुम्हारी योग्यता, प्रतिभा और ज्ञान ही तुम्हारा कुल और गोत्र है। तुम जहाँ भी जाओगे, वहीं तुम्हें सम्मान मिलेगा। दुर्भाग्यग्रस्त प्राणियों की सेवा में अपने को समर्पित करना ही सबसे अच्छा प्रायश्चित्त है।" जीवक को आत्मविश्वास का प्रकाश मिला। वह आचार्य जीवक बनकर मगध में पहुँचा और सारे मगध में प्रसिद्ध हो गया। कहने का अर्थ यह है कि जिस बालक में किसी कारणवश हीनभावना घर कर जाती है, अगर वह नहीं निकाली जाती है तो वह आगे चलकर विद्रोही, हत्यारा, गुण्डा, डाकू या चोर आदि अपराधी बन जाता है। आत्महीनता से ग्रस्त व्यक्ति का जीवन अपराधी-सा जीवन होता है । उसके संसर्ग या सेवा में रहकर क्या कोई अपने जीवन को निर्दोष, पवित्र और सुखी-शान्त बना सकता है ? हीन व्यक्ति के संसर्ग में रहकर कोई भी अपना आत्मविकास नहीं कर सकता। इसीलिए दोनों का संसर्ग त्याज्य है बन्धुओ ! इस जीवनसूत्र में महर्षि गौतम ने जीवन को शुद्ध, निर्दोष, सुखी, शान्तिमय एवं आत्मविकासशील बनाने हेतु अतिमानी और अतिहीन दोनों का संसर्ग For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ त्याज्य बताया है । क्यों त्याज्य है ? यह मैं दोनों प्रकार के व्यक्तियों का विश्लेषण करके बता चुका हूँ। आप इस विवेक के प्रकाश में अपने आपको देखें, और स्वयं भी अतिमानी एवं अतिहीन न बनें । दोनों ही प्रकार के जीवन दोषयुक्त हैं । उभय जीवन से अनेक दुर्गुण जीवन में प्रविष्ट हो जाते हैं, इसलिए अपना जीवन भी इस प्रकार का होने से बचाएं, साथ ही ऐसे जीवन वाले लोगों से भी अपने आपको दूर रखें। ऐसे लोगों की छाया में रहने से संसर्गज दोष जीवन में प्रविष्ट होने का खतरा है। यही कारण है कि महर्षि गौतम ने चेतावनी दी है न सेवियव्वा अइमाणी-होणा For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. चुगलखोर का संग बुरा है धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष ऐसे जीवन की चर्चा करना चाहता हूँ, जिसका संग करना बुरा बताया है । महर्षि गौतम जीवन के श्रेष्ठ पारखी थे । उन्होंने निन्द्य जीवन अपनाने का ही नहीं, निन्द्य जीवन वालों का संग करने या उनकी सेवा करने का भी निषेध किया है । गौतमकुलक का यह ५८वाँ जीवनसूत्र है । वह इस प्रकार हैन सेवियव्वा पिसुणा मणुस्सा - पिशुन ( चुगलखोर या निन्दक ) लोगों का सेवन - संग नहीं करना चाहिए । अब हमें सोचना चाहिए कि पिशुन का जीवन इतना निन्द्य क्यों है और उसका संग क्यों त्याज्य है ? पिशुन का स्वभाव : दुर्भावपूर्ण पिशुन का अर्थ है - चुगलखोर; दूसरे की निन्दा या दूसरों की बुराई करना ही जिसका स्वभाव है, वह है पिशुन । एक आचार्य ने पैशुन्य का लक्षण बताया हैपैशुन्यं परोक्षे सतोऽसतो वा दोषस्योद्घाटनं, परगुणासहनतया दोषोद् घाटनं वा । - पीठ पीछे सहन न कर सकने के सत् या असत् दोष को प्रकट करना अथवा दूसरे के गुणों को कारण उसका दोष बताना पैशुन्य ( चुगली) कहलाता है । पैशुन्य का जिसका स्वभाव है, दूसरों की विद्यमान या अविद्यमान बुराइयों को प्रकट करना ही जिसकी आदत बन जाती है वह पिशुन या चुगलखोर कहलाता है । चुगलखोर यथार्थ बात को विपरीत रूप में नमक मिर्च लगाकर पेश करता है । ऐसे ढंग से बात करता है कि उसकी बात में कहीं असत्य होने की गन्ध भी न आ सके । एक राजस्थानी दोहे में चुगलखोर का लक्षण दिया गया है उलटी को सुलटी करे, सुलटी को उलटाय । करे बुरी सब जगत् की, ते नर चुगल कहाय ॥ निष्कर्ष यह है कि चुगलखोर जान-बूझकर दूसरों की बुराई करने के लिए मुंह खोलता है । दूसरे के गुण को अवगुण और अवगुण को गुण के रूप में दूसरों के सामने प्रकट करता है । इस प्रकार की चुगलखोरी से उसे कोई खास फायदा नहीं होता, For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० आनन्द प्रवचन : भाग ११ बल्कि लोग जब उसकी आदत को समझ लेते हैं, सब कोई भी उस पर विश्वास नहीं करता, सभी उसे झूठा (असत्यवादी) समझते हैं। एक बार कदाचित् उसके चक्कर में व्यक्ति आ जाये किन्तु बाद में तो कदापि उससे वास्ता नहीं रखते; उससे रुख नहीं मिलाते । चुगलखोर अपनी आदत के अनुसार जब किसी की चुगली करने लगता है, तो उसके दोनों ओठ जुड़ जाते हैं, वे ऐसे लगते हैं, मानो विष्ठा उठाने के लिए दो ठीकरे हैं, उन्हीं दो ठीकरों में वह अपने तालु, कण्ठ और जीभ से दूसरों की निन्दारूपी विष्ठा उठाता है । सुभाषित रत्न भाण्डागार में यही बात कही है भिन्नकुम्भशकलेन किल्विषं, बालकस्य जननी व्यपोहति । तालुकण्ठरसनाभिरुज्झिता दुर्जनेन जननी व्यपाकृता ॥ अर्थात् -माता बालक की विष्ठा दो ठीकरों से उठाती है। चुगलखोर ने निन्दा-चुगली रूपी विष्ठा को अपने तालु, कण्ठ एवं जीभ द्वारा उठाकर जन्म देने वाली माता को भी मात कर दिया। कितना अधर्मयुक्त, पापभरा अधर्मकार्य है, चुगलखोर का! चुगलखोर किसी के बनते हुए कार्य को बिगाड़ना जानता है, सुधारना नहीं । प्रायः देखा गया है कि चुगलखोर अपने मालिक (स्वामी) को प्रसन्न करके उसका प्रिय बनने के लिए दूसरे के विषय में झूठी-सच्ची बातें भिड़ाता है, और दोनों में मनमुटाव करा देता है, या दोनों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास, अथवा अप्रीति पैदा करा देता है । कितनी अधम-नीच वृत्ति है यह ! रामायण के मधुर प्रसंग को कैकेयी रानी की मंथरा दासी अरोचक बना देती है । यह तुलसी रामायण का हर पाठक या श्रोता जानता है, रामराज्य को अगर किसी ने एक ही रात में पलट-किया है तो पिशुनकी मंथरा ने ही। वह चुगलखोर के साथसाथ कपट क्रिया प्रवीण, एवं वागविदग्धा भी थी। उसने जब यह देखा कि कल प्रातः ही राम को राजगद्दी पर बिठा दिया जायेगा। इसे रोकने और अपनी मालकिन कैकेयी के पुत्र-भरत को दिलाने की कोशिश मुझे इसी रात में करनी है । उसने रानी कैकेयी को बहकाया- "अरी रानी ! तुझे पता है, कल क्या होने वाला है ?" ___कैकेयी-"क्या तुझे इतना भी पता नहीं, कि कल राम को राजगद्दी पर बिठाया जायेगा ?" मंथरा- "मुझे तो इसमें भावी असंगल-सा दिखता है।" कैकेयी रोष में आकर बोली-“चुप रह ! तेरी जीभ खिंचवा लूंगी जो तूने १. सुभाषित रत्न भाण्डागार, पृ० ६२ For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुगलखोर का संग बुरा है २११ ऐसे अशुभसूचक शब्द कहे तो ! भला मेरे बेटे राम को राजगद्दी मिलेगी, इसमें क्या अमंगल होगा ? " मंथरा यह सुन जोर-जोर से रोने लगी और कहने लगी- 'अयोध्या का राजा कोई भी बने मेरा क्या नुकसान है ? मैं तो दासी की दासी ही बनी रहूँगी, रानी नहीं बन जाऊँगी ! पर मैं तो तुम्हारे हित की बात कहती थी, तुम्हें नहीं सुहाती तो न सही । " मंथरा के इस मायाजाल को भोली-भाली कैकेयी रानो न समझ पाई, वह बोली - " अच्छा यह बता, राम को राजगद्दी मिलेगी, इसमें मेरा क्या अमंगल होगा ? " मंथरा बहुत कुछ मनाने पर बोली - "राम को राजा बनाया जायेगा, तब राजमाता कौशल्या बनेगी, आपको तो उसकी टहल-चाकरी करने वाली दासी की तरह रहना होगा ।" कैकेयी - " इसमें क्या हुआ ? कौशल्या रानी की सेवा करने में मुझे बड़ा आनन्द आयेगा । और कोई बात हो तो बता !” - मंथरा ने पैशुन्य करते हुए कहा - " तुमको क्या पता राजा के राजनीतिक षड़यंत्र का ? राम को राजगद्दी देने के पीछे क्या रहस्य है, क्या तुम इसे जानती हो ?" कैकेयी ने आश्चर्य से कहा - " मैं तो नहीं जानती, तू ही बता ।" मंथरा बोली- मैं क्या बताऊँ ? मुझे तो इसमें बहुत बड़ी खटपट मालूम होती है । राम और राजा दशरथ दोनों ऊपर से तो तुमसे प्रसन्न होकर मीठा-मीठा बोलते हैं । अन्दर से दोनों की मिली भगत है । हृदय में दोनों के सरलता नहीं है । अगर राम को राज्याभिषेक करना था, तो भरत को ननिहाल से बुलाना था, तुमसे और उससे भी परामर्श करना था, परन्तु सोचा होगा—तुम दोनों से सलाह लेंगे तो तुम दोनों इस बात का विरोध कर बैठो । यही कारण है कि न तो भरत को ननिहाल से बुलाया और न ही तुम्हें पूछा । यह है बाप-बेटों की राजनैतिक चाल ।” कैकेयी अब मंथरा के पैशुन्यजाल में पूरी तरह फँस चुकी थी । उसने पूछा" बहुत अच्छी बात कही तूने ! अब तू ही बता कैसे पासा पलट सकेगा ?" मंथरा बोली - " अब तो यही उपाय हो सकता है कि आप रूठकर कोपभवन में बैठ जायें । राजा जब तुम्हें मनाने आयें तो उनसे तुम्हारे अमानत रखे हुए दो वरदान माँग लेना ।" कैकेयी — " क्या-क्या वरदान माँगूँ ?" मंथरा - " यही कि राम को वनवास और भरत की राजगद्दी – ये दो वरदान मांगने से सारा पासा पलट जायेगा ।” कैकेयी रानी चुगलखोर मंथरा दासी के बहकावे में आ गई और आगे क्या हुआ सो तो आप सबको मालूम ही है । मंथरा दासी ने सिर्फ अपनी मालकिन की प्रिय बनने के लिए ही राजा दशरथ For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ और श्रीराम के विरुद्ध कैकेयी रानी को भड़का दिया। चुगलखोरों की आदत की तरह मंथरा ने भी जो बात नहीं थी, उसे अपनी ओर से गड़ ली और राजा और श्रीराम के विषय में उलटी-सीधी बात बनाकर कैकेयी को बहका दिया। चुगलखोर को क्या लाभ, क्या हानि ? चुगलखोरी से चुगलखोर को क्या राजनैतिक लाभ होता है ? इस सम्बन्ध में नीतिवाक्यामृत में कहा है परपैशुन्यन राज्ञां वल्लभो लोकः । -दूसरों की चुगली करने से लोग राजा के प्रेमपात्र बन जाते हैं । प्राचीनकाल में राजदरबार में कुछ चुगलखोर लोग रहा करते थे। वे राजा के सम्बन्धियों की चुगली करके एक-दूसरे के विरुद्ध झड़काते और उनसे अपना उल्लू सीधा करते थे। कई महिलाओं की ऐसी आदत होती है कि वे घर में निकम्मी बैठी रहती हैं, विशेष काम होता नहीं या वे करती नहीं, तब पाँच-सात बहनें मिलकर इधर-उधर की गप्पें हाँकेंगी या किसी की निन्दा चुगली करेंगी। इससे उनका कोई भी पारिवारिक, सामाजिक या आर्थिक लाभ नहीं होता, बल्कि उनका अविश्वास परिवार आदि में बढ़ता जाता है, समाज में ऐसी महिलाओं की कोई इज्जत नहीं करता और न ही ऐसी झूठी निन्दा करने वाले व्यक्तियों को कोई विशेष जिम्मेवारी का काम सौंपता है । ऐसी निन्दा-चुगली करने की जिसे खुजली आती है, वह व्यक्ति प्रतिदिन कई घंटे व्यर्थ ही बर्बाद कर देता है, जिस अमूल्य समय का वह अच्छा उपयोग करके अपना सामाजिक और आध्यात्मिक विकास कर सकता था। वह अपनी उस अमूल्य वाणी की शक्ति को भी बर्बाद करता है, जिस वाणी के द्वारा वह दूसरों का भला कर सकता था। इसी कारण राजस्थानी दोहे में कहा है ऊंडो जल सूके अवस, नीला वन जल जाय । चुगल तणा परतापसू, वसती उज्जड़ जाय ।। भावार्थ स्पष्ट है चुगलखोर लोग कई बार इस प्रकार से एक दूसरे के विरुद्ध झूठी बातें करके सिर फुड़वा देते हैं । वे चुगलखोरी के नशे में इतने चूर हो जाते हैं कि वे दूसरों की गृहस्थी में आग लगाकर तमाशा देखने लगते हैं, इससे अनेक लोगों की गृहस्थी उजड़ जाती है, इसका चुगलखोर को कोई लाभ नहीं होता । ऐसे ही लोगों से सावधान रहने के लिए हितोपदेश में कहा गया है ___वरं प्राणत्यागो, न च पिशुन वाक्येष्वभिरुचिः। -प्राणत्याग कर देना अच्छा है, किन्तु चुगलखोरों के वचनों में दिलचस्पी लेना अच्छा नहीं। For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुगलखोर का संग बुरा है २१३ चुगलखोर के चक्कर में पड़ने से कैसे गृहस्थाश्रम बिगड़ता है, इसके लिए एक प्राचीन दृष्टान्त सुनिये चन्द्रकान्त सेठ और नर्मदा सेठानी दोनों पति-पत्नी में अच्छा प्रेम था। सेठानी पतिव्रता, सेवाभावी और सरलस्वभावी थी। सेठ चन्द्रकान्त भी अपनी पत्नी के प्रति विश्वस्त और आश्वस्त था, इसलिए उस पर सारी गृहस्थी का भार डाल रखा था। इसी गाँव में मावली नाम की एक बुढ़िया रहती थी। उससे इनका प्रेम देखा न गया। उसने सोचा-किसी तरह से इन दोनों में कलह पैदा करना चाहिए । एक दिन नर्मदा घर में अकेली थी। यही मौका अच्छा समझकर मावली बुढ़िया पहुँची, बोली-“बहन ! क्या कर रही हो?" "बर्तन मांज रही हूँ। कहो कैसे आई, बुढ़िया मां ।" नर्मदा ने कहा । बुढ़िया ने बातें बघारते हुए कहा-“नर्मदा ! गजब हो गया। तुम जैसी सुलक्षणा, कुलीन एवं सुशील लड़की को तुम्हारे माता-पिता ने डुबो दिया।" ___ नर्मदा-'कहो, क्या हो गया ? कुछ कहो तो सही।" मावली-'जिस पति के साथ तुम्हारी शादी की गई है, पता है, वह किस जाति का है ?" नर्मदा-“वह महाजन है।" मावली-“फूट गये भाग्य ! तुम्हें अभी तक पता ही नहीं है ? वह तो खारिया है, जाति का खारिया ! तुम्हारे पिता ने जरा-सा भी विचार नहीं किया। हाय ! अब क्या हो ?" नर्मदा- "अरे बुढ़िया मां ! यह क्या बकती हो?" मावली-“मैं बकती नहीं हूँ। सच्ची बात कहती हूँ। अगर मेरी बात पर तुम्हें विश्वास न हो तो तुम खुद परीक्षा करके देख लो। तुम इसका शरीर चाटना, अगर खारा लगे तो समझना कि खारिया है। हाथ कंगन को आरसी क्या ?" यों मावली बुढ़िया कान में जहर उगलकर चल दी। बुढ़िया की बात पर नर्मदा को पक्का विश्वास हो गया । बुढ़िया अब वहाँ से सेठ चन्द्रकान्त के पास जा रही थी। संयोगवश सेठ उसे रास्ते में ही मिल गये । बुढ़िया ने उनसे पूछा- “सेठ ! कहाँ जा रहे हो ?" चन्द्रकान्त-“यही घर की ओर जा रहा था बुढ़िया मां ! तुम कहाँ चली ?" मावली-“यों ही तुम्हारी तरफ आरही थी।" चन्द्रकान्त-"क्यों, कुछ कहना था ?" मावली ने पहले तो टालमटूल की फिर सेठ ने आग्रहपूर्वक पूछा-"कुछ तो काम होगा, बुढ़िया मां ! निःसंकोच बताओ न !' मावली-"बस, तुमसे ही अकेले में कुछ कहना था । बात यह थी कि मुझे For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ यह जानकर बहुत दुःख हुआ कि तुम सरीखे हीरे के गले यह पत्थर बंध गया । गजब हो गया । तुम्हें शायद पता नहीं होगा कि तुम्हारी पत्नी कौन है ?" चन्द्रकान्त–“वह तो महाजन की लड़की है।" मावली-“यही तो अफसोस है । अरे ! वह डाकन है।" चन्द्रकान्त-"क्या बक रही हो, बुढ़िया ?' मावली-“मैं बक रही हूँ या सच कह रही हूँ; यह तो तुम्हें परीक्षा करने से मालूम हो जायेगा । मैं अपने मुह से क्या कहूँ ?" चन्द्रकान्त- "हं, ऐसी बात है ? मुझे तो पता ही नहीं था।" मावली-अच्छा, आज रात को तुम नींद का बहाना बनाकर देख लेना कि वह तुम्हें चाटती है या नहीं ? फिर तो मानोगे न ?" यों कहकर मावली वहाँ से झटपट चल दी । सेठ चन्द्रकान्त भी बहम के झूले में झूलता हुआ घर आया। आज नर्मदा ने सेठ का प्रतिदिन की तरह स्वागत नहीं किया। सेठ ने भी उसे आज वक्रदृष्टि से देखा। चुगलखोर बुढ़िया का तीर निशाने पर लग चुका था। वह भी तमाशा देखने के लिए पड़ोस के मकान में आ पहुँची। आज रात को ही दोनों ने एक दूसरे की परीक्षा करने की ठानी । नर्मदा ने सोचा-'यह सो जाये तो मैं चाटकर देखू ।' चन्द्रकान्त ने सोचा-'जरा कपटनिद्रा ले लूँ तो अभी पता चल जायेगा।' यह सोचकर वह थोड़ी देर बाद खुर्राटे भरने लगा। नर्मदा अपने पति को निद्राधीन जानकर धीरे से उठी और उसके अंग को ज्यों ही चाटने लगी त्यों ही सेठ एकदम हड़बड़ा कर उठा और कहने लगा-"अरे डाकन ! डाकन ! दूर हट यहाँ से।" वह भी चमड़ी का स्वाद खारा लगने के कारण कहने लगी-"ओह ! खारिया, खारिया ! फूट गये मेरे भाग्य ।" इस पर सेठ बोला-"अरी डाकन ! हट जा यहाँ से ! मेरा जन्म बिगाड़ दिया।" इस तरह काफी देर तक आपस में बक-झक होती रही। बुढ़िया मावली इस तमाशे को देखकर प्रसन्न हो रही थी। बहुत देर तक जोर-जोर से लड़ने-झगड़ने और चिल्लाने की आवाज सुनकर आस-पास की बहनें इकट्ठी होकर वहाँ आई। पड़ौसिनों ने झगड़े का कारण जानकर पूछा-“अच्छा, यह बताओ नर्मदा बहन ! तुम्हें यह बात किसने कही ?" नर्मदा ने कहा-"मावली बुढ़िया ने !" "और चन्द्रकान्त भाई ! तुम्हें यह बात किसने कही ?' चन्द्रकान्त बोला- "मुझे भी मावली बुढ़िया ने कही। तब तक मावली बुढ़िया वहाँ से सरक गई । पड़ौसिनों ने कहा-“वह तो चुगलखोर है, झूठी है और आपस में लड़ाने-भिड़ाने का धन्धा करती है। उसकी बात पर बिलकुल विश्वास मत करो। वह झूठी बात लगाकर सिर फुड़ाती है । तुम दोनों समझदार होकर भी उसके चक्कर में आ गये। चुगलखोर की बात कभी सच्ची नहीं होती। तुम दोनों को उसने एक दूसरे के विषय में गलतफहमी फैलाकर लड़ा दिया । चलो For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुगलखोर का संग बुरा है २१५ अब तुम परस्पर क्षमायाचना करके शान्त हो जाओ।" इस प्रकार चन्द्रकान्त सेठ और नर्मदा का झगड़ा पड़ौसिनों ने शान्त किया। पति-पत्नी दोनों पूर्ववत् प्रेमसरोवर में डुबकी लगाने लगे । भविष्य में वे ऐसे चुगलखोरों से सावधान रहने लगे। चुगलखोर को मुंह लगाना अपना ही अनिष्ट करना है। चुगलखोरी : स्वरूप, परिणाम और स्थान चूगलखोरी को संस्कृत भाषा में पैशुन्य कहते हैं। पैशुन्य १८ पापस्थानकों में से एक पापस्थान है। पाप का सेवन साँप के स्पर्श से भी बढ़कर है। साँप के स्पर्श से तो कदाचित् वह काट खाये तो विष चढ़ जाने से मृत्यु हो जाये, परन्तु पाप के सेवन से एक जन्म की ही मृत्यु नहीं, जन्म-जन्मान्तर तक मृत्यु प्राप्त होती है । चुगलखोरी का व्यसन मौखर्य नामक अनर्थदण्ड का एक रूप है । चुगलखोरी करने वाले व्यक्ति को भगवान के यहाँ तो कोई स्थान नहीं है। जो व्यक्ति चुगलखोरी करता है, वह एक तरह से पीठ का मांस खाता है। इसका तात्पर्य यह है कि वह व्यक्ति के सामने तो कुछ नहीं कहता, न उसे प्रेम से एकान्त में निवेदन करता है, किन्तु उसके पीठ पीछेपरोक्ष में, उसके गुणों को अवगुण का रूप देकर उसके विषय में कहता रहता है। इसीलिये भगवान महावीर ने साधकों से कहा पिट्ठिमंसं न खाइज्जा -'पीठ का मांस मत खाओ;' यानी पीठ पीछे किसी के दोषों का कीर्तन मत करो। जो व्यक्ति चुगलखोरी करता है, उसे भगवान महावीर के संघ में कोई स्थान नहीं है; क्योंकि पैशुन्य एक प्रकार की हिंसा है, और हिंसा को साधु-संघ में तो कतई स्थान नहीं है, और श्रावक (प्रशस्त गृहस्थ) संघ में भी संकल्पी हिंसा को कोई स्थान नहीं है। ईसाईधर्म में एक प्रसिद्ध सन्त हो गये हैं संत ऑगस्टिन। वे किसी की निन्दा सुनना पसंद नहीं करते थे । उन्होंने अपने मकान की दीवारों पर अंकित करवा दिया था कि-"चुगलखोर के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है, यहाँ सिर्फ सच्चाई और अनुभूति का राज्य है।" ____ एक दिन कुछ मित्र उनसे मिलने आये । वार्तालाप में वे अपने एक साथी की निन्दा करने लगे, जो उस समय वहाँ उपस्थित नहीं था। संत आगस्टिन ने मधुर शब्दों में उपालम्भ देते हुए कहा-“मित्रो ! आपको या तो यह बात बन्द करनी होगी, या मुझे दीवार पर लिखे हुए ये शब्द मिटाने होंगे।" उन्होंने उसी समय निन्दा करना बन्द कर दिया। For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ चुगलखोरी : परनिन्दा आदि में शक्ति का अपव्यय वास्तव में देखा जाये तो चुगलखोर या पिशुन निन्दक होता है। वह दूसरों की निन्दा करके अपना उत्कर्ष बढ़ाना चाहता है । चुगलखोर की सारी शक्तियाँ निन्दा, छिद्रान्वेषण, कुढ़न, द्वेष, असन्तोप, ईर्ष्या, प्रतिशोध, दोषारोपण आदि में ही नष्ट होती रहती हैं । वह दूसरों पर दोषारोपण करके अपने द्वष और रोष को बढ़ाता रहता है । चुगलखोर अपने अन्दर रहे हुए दोषों को नहीं टटोलता, वह दूसरे के दोषों को ही टटोलता रहता है । दूसरों की निन्दा और चुगली करना अपनी तुच्छता प्रकट करना है । एक विचारक ने कहा "दुनिया में निन्दा जैसा कोई रस नहीं है, लेकिन वह परनिन्दा सुनने में है, अपनी सुनने में नहीं।” हजरत मुहम्मद से एक नमाजी ने कहा-“मैं नमाज पढ़ रहा था, तब मेरे पांच भाई गप्पें लड़ा रहे थे। मैंने समझाया तो वे उल्टे मेरे पास आकर हुक्के की गुड़गुड़ाहट करते हुए मेरी मजाक करने लगे। मैंने नमाज में उनकी शिकायत खुदा से की।" हजरत मुहम्मद ने कहा-"नमाज में किसी की निन्दा (शिकायत) नहीं की जा सकती । तुमने यह धर्मविरुद्ध कार्य किया है।" कुराने शरीफ में भी इसका स्पष्ट निषेध किया गया है व ला यग्तब वा' दकुम वादन् । -तुम में से कोई किसी की पीठ पीछे निन्दा न करें। परनिन्दा से मनुष्य की इज्जत बढ़ती नहीं, उससे उसका मुंह दोषयुक्त बभता है, वाणी असत्यमिश्रित बनती है। यह एक मीठा जहर है, जिससे मनुष्य की आत्मा धीरे-धीरे विकास के शून्य बिन्दु पर आ जाती है । परनिन्दा बहुत बड़ा पाप है, इससे हिंसा, असत्य आदि कई पाप पनपते हैं। यही कारण है कि यूरोप में एक 'पेडलोक' (निन्दा निषेधक) सोसायटी (कमेटी) है । उसका सदस्य न तो किसी की निन्दा कर सकता है, और न ही सुन सकता है। इस सोसायटी का सदस्य बनते समय तीन बार ताला खोलकर बन्द करना पड़ता है। उसका रहस्य यह है कि वह यह प्रतिज्ञा करता है कि “मैं आज से मन से, वचन से और कर्म से किसी की निन्दा नहीं करूगा।" चीन के महान् दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने एक बार कहा था-"अगर आपके अपने द्वार की सीढ़ियाँ मैली हैं तो अपने पड़ौसी की छत पर पड़ी हुई गन्दगी के लिये उलाहना मत दीजिये ।" भावार्थ यह है अगर आपका जीवन गन्दा है तो आप दूसरों के जीवन में पड़ी हुई गन्दगी को कैसे साफ कर सकेंगे ? For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुगलखोर का संग बुरा है २१७ मनुष्य यह चाहता है कि दूसरे लोग मेरी निन्दा न करें, मुझे भला-बुरा न कहें, इसके लिये आवश्यक है कि वह भी किसी की निन्दा न करे । परनिन्दा करने से व्यक्ति जिसकी निन्दा करता है, उसका शत्रु बन जाता है। शत्रुओं को बढ़ाने का सबसे आसान नुस्खा है-उनकी निन्दा। परन्तु जो मनुष्य सारे जगत् को अपना बनाना चाहता है, उसे क्या करना चाहिए ? इसके लिए चाणक्यनीति में कहा गया है यदीच्छसि वशीकत्तु जगदेकेन कर्मणा । परापवादशस्येभ्यो, गां चरन्ती निवारय ॥ ---अगर तुम सारे जगत् को केवल एक कर्म से वश करना चाहते हो तो परनिन्दारूप धान्य को चरने वाली जीभरूप गाय को रोककर रखो। एक बार फिनलैण्ड के विश्वविख्यात संगीतकार सिविलियस से एक नौसिखिया संगीतज्ञ मिलने आया । उसने बातचीत के दौरान कहा-"कुछ निन्दक मेरे पीछे हाथ धोकर पड़े हैं, वे मेरी इतनी तीखी आलोचना (निन्दा) करते हैं, जिसे सुनकर मैं तिलमिला उठता हूँ; निराश हो जाता हूँ। बताइये, मुझे क्या करना चाहिए ?" सिविलियस ने कहा-"मित्र ! तुम्हें कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। तुम उन निन्दकों की बातों पर ध्यान ही मत दो। यदि वास्तव में तुम्हारी कोई भूल है, तो उसे सुधार लो। तुम्हें याद रखना चाहिए कि आज दिन तक किसी भी निन्दक के सम्मान में कोई स्मारक नहीं बनाया गया और न ही उसकी मूर्ति बनाकर किसी ने उसकी पूजा की है। संसार में निन्दक को हमेशा घृणा की दृष्टि से देखा जाता है।" ईर्ष्यालु, निन्दक और चुगलखोर सबको आँखों में अपना सम्मान खो बैठते हैं । उन्हें अविश्वासी, अप्रामाणिक और ओछी प्रकृति का समझा जाता है। कोई उनसे घुलता-मिलता नहीं । सभी सशंक बने रहते हैं। ऐसे लोग भीतर ही भीतर असन्तुष्ट, उद्विग्न और खिन्न भी रहते हैं । उनका शरीर और मन अधःपतन की दिशा में गिरता चला जाता है, क्योंकि निन्दक या चुगलखोर लोग दूसरों की तरक्की देखकर जलते रहते हैं, वे रातदिन यही सोचते रहते हैं कि किसी तरीके से इसे नीचे गिराया जाए, लोगों की दृष्टि में इसको बदनाम किया जाए। इसी प्रकार के दुश्चिन्तन को जैन परिभाषा में रौद्रध्यान कहते हैं, जो महाभयंकर कुध्यान है। इसी कुध्यान के कारण मनुष्य दूसरों की हिंसा करने, दूसरों को नीचा दिखाने, दूसरों का सर्वस्व हरण करने, दूसरे के साथ धोखेबाजी करने या दूसरों की वस्तु अपने कब्जे में करने की उधेड़बुन में रहता है। वह सदैव यह घात लगाता रहता है कि कैसे दूसरों का सर्वनाश कर दूँ। चुगलखोर में कुढ़न होती रहती है। कुढ़न ऐसी बीमारी है, जिसका कोई इलाज नहीं । वे स्वयं प्रयत्नपूर्वक उच्च स्थिति में पहुँचने का साहस तो नहीं करते, For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ किन्तु जो उच्च स्थिति में पहुँचे हुए हैं, उनकी प्रगति देखकर असन्तोष से कढ़ते रहते हैं, उनसे ईर्ष्या करते हैं। उस ईर्ष्या को सफल करने के लिए वे उच्च स्थिति में पहुँचे हुए लोगों की निन्दा करते हैं, उन्हें बदनाम करते हैं, उनके विषय में झूठी एवं बनावटी बातें गढ़कर उनकी चुगली करते हैं। चुगली या पैशुन्य का मूल कारण दूसरों की प्रशंसा या बढ़ती सहन न करना है। अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति चुगलखोर अपने पुरुषार्थ द्वारा न करके दूसरों की निन्दा-चुगली से करता है। ऐसे लोग पुरुषार्थ की कठोर पगडंडी पर चलने की अपेक्षा यही ठीक समझते हैं कि आगे बढ़े हुओं की टाँग पकड़कर पीछे घसीटा जाए, आगे बढ़ने से रोका जाए, उनको निन्दा की जाए, उनके विषय में झूठी बातें (अफवाहें) फैलाकर उन्हें नीचा दिखाया जाए, उन्हें हानि पहुँचाई जाए। चुगलखोरी के साथ-साथ अनेक क्षुद्र मनोवृत्तियों का साम्राज्य है । कुढ़न और ईर्ष्या की आग में झुलसते रहने वाले व्यक्ति अपना तो मानसिक अहित करते ही हैं, अपनी इस जलन को बुझाने के लिए जो षड़यन्त्र रचते हैं, उस व्यक्ति के प्रति लोगों को भड़काने के लिए निन्दा, चुगली आदि में अपनी इतनी शक्ति खर्च करते हैं कि यदि उतनी शक्ति की बचत करके किसी उपयोगी कार्य में लगाई जाती तो बहुत उन्नति हो गई होती। पिशुन और निन्दक लोगों का जितना समय और मनोयोग इन दुष्प्रवृत्तियों लगता है, यदि उतना समय आत्मकल्याण या दूसरों की सेवा-सहायता में लगता तो कितना हितसाधन हो सकता था ? चुगलखोर की मूर्खता पर जितना गम्भीरता से विचार किया जाता है, उतनी हो उसकी व्यर्थता और हानि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगती है। चुगलखोर : छिद्रान्वेषी, गुणद्वषी चुगलखोर में छिद्रान्वेषण की वृत्ति मुख्य होती है। वह दूसरों के दोष ही दोष ढंढ़ता है। ऐसे छिद्रान्वेषी प्रकृति के लोगों को सारी दुनिया बुराइयों से भरी, दुष्ट, दुराचारी और स्वशत्रु दिखाई देती है। अपनी दोषदृष्टि के कारण वह अपने चारों ओर नारकीय वातावरण तैयार कर लेता है। निन्दा और आलोचना के अतिरिक्त वे किसी के प्रति अच्छे भाव प्रकट ही नहीं कर सकते। किसी की प्रशंसा के शब्द उनके मुख से निकलते ही नहीं । ऐसे लोग अपनी इस क्षुद्रता के कारण सबके बुरे बने रहते हैं । पीठ पीछे की हुई निन्दा अतिशयोक्तिपूर्वक उस व्यक्ति के पास जा पहुँचती है, जिसके प्रति बुरा अभिमत प्रकट किया गया था। सुनने वाले लोग प्रायः अपनी विशेषता एवं हितैषिता प्रकट करने के लिए उस सुनी हुई बुराई को उस तक पहुँचा देते हैं, जिसके सम्बन्ध में कटु अभिमत प्रकट किया गया था। ऐसी दशा में वह भी प्रतिशोध की भावना से शत्रुता का ही रुख धारण करता है और धीरे-धीरे उसके विरोधियों और शत्रुओं की संख्या बढ़ती जाती है। श्री त्रिलोक काव्य संग्रह में भी इसी बात का समर्थन किया गया है For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुगलखोर का संग बुरा है २१६ छिद्र पर देख निन्दा करे केम, छोड़के छिद्र सगुण लहीजे । बंबूल देख के कांटा ग्रहे मत, छाया ने शीतल होत सहीजे ॥ तुच्छ असार आहार है धनु का, छीर विगै तामें सा कहीजे । कहत त्रिलोक स्वछिद्र को टालत, काहे को अन्य का छिद्र गहीजे ॥ . कई लोग बुराइयों का प्रतिरोध करने के आवेश में लगातार किसी की निन्दा या बुराई करते जाते हैं, परन्तु यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि किसी की बुराई, निन्दा या चुगली करने से उसका सुधार नहीं किया जा सकता, उसके लिए उसको परिस्थितियों, समस्याओं और मनोवृत्तियों को सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए, जिनके कारण वह बुराई उत्पन्न होती है। अतः चुगलखोरी या निन्दा करना गंदगी या गंदी गटरों की ओर झाँकना है, उससे आन्तरिक सफाई नहीं हो सकती, सुगन्धित फूलों या बगीचों पर दृष्टि रखने से ही मनुष्य की आत्मिक स्वच्छता हो सकती है । पैशुन्य से अभ्याख्यान तक जो मनुष्य पैशुन्य व्यसनी होता है, वह पैशुन्य तक ही सीमित नहीं रहता, पैशुन्य से परपरिवाद, रति-अरति, मायामृषा और मिथ्यादर्शन की पापपूर्ण सीढ़ियों से नीचा उतरता हुआ अभ्याख्यान तक पहुँच जाता है। जिसे चुगली खाने की आदत होती है, वह निश्चित ही दूसरे की पीठ पीछे निन्दा किये बिना नहीं रहता। जब निन्दा करता है तो अपने गुट में मिल जाने वाले या अपने स्वर में स्वर मिलाने वाले लोगों के प्रति प्रीति (मोह), अथवा अपने मालिक का प्रिय बनने के लिए उसके प्रति प्रीति और जिसकी निन्दा कर रहा है, उसके प्रति अप्रीति (घृणा) पैदा होती है। फिर अगर कोई उस व्यक्ति को अपनी कही गई (निन्दा की) बात सिद्ध करने के लिये कहा जाता है तो वह नाना प्रकार के झूठ, फरेब, दम्भ, तिकड़मबाजी आदि करता है, जिसे मायामृषा कहते हैं, वहाँ तक पहुँच जाता है । कपटपूर्वक षड्यन्त्र रचता है । देव, गुरु और धर्म की झूठी सौगन्ध खाकर इन्हें भी धता बताकर अपना उल्लू सिद्ध करने का प्रयास करता है; और फिर पहुँच जाता है अभ्याख्यान के मंच परयानी जिसकी चुगली करता है, उस पर मिथ्या दोषारोपण कर देता है। इस प्रकार पैशुन्य का रसिक अनेक पापों का पुज लेकर नरक यात्रा करता है। इसलिए ऐसे पैशुन्य के शिकार व्यक्ति की संगति चाण्डाल के समान त्याज्य है, न ही उसकी सेवा में रहना चाहिये, न ही उसके आश्रय में । इसी बात को त्रिलोक काव्य संग्रह में सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया गया हैनरक निगोद भ्रमे निन्दा को करणहार, चंडालसमान वाकी संगति न काम की। आपकी बड़ाई पर तात में मगन मूढ़, ताकत है छिद्र पर नियत हराम की। जाको निन्दा बात सुण खुशी नहीं होय, भूल, पीछे से कहेगो दुष्ट तेरी बदनाम की। For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० आनन्द प्रवचन : भाग ११ कहत त्रिलोक तेरे दोष हैं, निन्दक माँही, याँ से मर जाए तब गति यम धाम की ॥' भावार्थ स्पष्ट है। पिशुन का संसर्ग : महादुःखदायक निष्कर्ष यह है कि चुगलखोर जब अभ्याख्यान तक पहुँच जाता है, तब अभ्याख्यान-झूठा कलंक लगाने में कसर नहीं रखता। अभ्याख्यान का फल क्या होता हैं ? इसका उत्तर पाने के लिये भगवतीसूत्र का पृष्ठ टटोलना होगा । वहाँ बताया गया हैजो दूसरे पर झूठा कलंक लगाता है, वह उसी प्रकार के कर्मों का बन्धन करता है । जहाँ वे उदय में आते हैं, वहीं वह भोगता है । पिशुन के संग से कितनी हानि उठानी पड़ती है ? इसके लिए एक प्राचीन उदाहरण लीजिये चक्रदेव महाविदेह क्षेत्रवर्ती चक्रवालनगरवासी अप्रतिचक्र सार्थवाह का पुत्र था । उसकी माता का नाम सुमंगला था। इसी नगर के सोमशर्मा पुरोहित का पुत्र, नंदीवर्द्धना का आत्मज यज्ञदेव उसका मित्र था। चक्रदेव की तो यज्ञदेव के प्रति सद्भावपूर्ण मैत्री थी, मगर यज्ञदेव की उसके प्रति कपटपूर्ण मैत्री थी। वह चक्रदेव का छिद्र देखता रहता था। चक्रदेव की सम्पदा देखकर उसे सहन नहीं होती थी। पर चक्रदेव के निखालिस जीवन में जब वह कोई भी छिद्र न पा सका तो उसने सोचा"ऐसा कोई झूठा कलंक लगाकर इसे दण्डित और अपमानित करूं जिससे राजा इसे नगरनिर्वासित कर दे।" यज्ञदेव उसी नगरनिवासी चन्दन सार्थवाह के यहाँ चोरी करके बहुत-सा माल ले आया और चक्रदेव के पास आकर कहने लगा-"मित्र ! मेरा धन-माल तुम्हारे यहाँ गुप्तरूप से रख लो।" पहले तो कुवेला में लाने के कारण चक्रदेव ने अपने यहाँ उस माल को रखने से इन्कार कर दिया; परन्तु बाद में यज्ञदेव द्वारा अत्यन्त आग्रह करने पर लिहाज में आकर उसने वह माल गुप्त रूप से रख लिया। चन्दन सार्थवाह के यहाँ चोरी हो गई है, यह बात जब फैलती-फैलती चक्रदेव के कानों में पड़ी तो उसके मन में शंका हुई । वह यज्ञदेव से पास समाधानार्थ पहँचा। यज्ञदेव ने कहा-“वाह मित्र ! ऐसी क्या बात करते हो ? क्या मैं चोरी का माल तुम्हारे यहाँ रखकर तुम्हें संकट में डालूंगा ?" चक्रदेव का समाधान हो गया। इधर चंदन सार्थवाह राजा के पास फरियाद लेकर पहुँचा । राजा ने पूछा"क्या-क्या माल गया ?" उसने चोरी हुए माल की सूची बनाकर राजा को सौंप दी। कार्यालय में भी रिपोर्ट लिखा दी । तत्काल राजा ने सार्वजनिक घोषणा करवाई कि १. त्रिलोक काव्य संग्रह । २. जेण परं अलिएणं असंतवयणेणं अभब्क्खाणेणं अभक्खाई । तस्स णं तहप्पगारा चेव कम्मा कज्जति । जत्थेव णं अभिसमागच्छति, तत्थेव पडिसंवेदेइ । -भगवतीसूत्र ५/६ For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुगलखोर का संग बुरा है २२१ “चंदन सार्थवाह के यहाँ चोरी हुई है। जिसने उसके यहाँ चोरी की है, वह माल सहित आकर राजा के समक्ष अपना अपराध स्वीकार कर लेगा, उसे राजा माफ कर देंगे । अन्यथा बाद में राजा को अपराधी का पता लगेगा, तो वे उसे कठोर दण्ड देंगे, उसको प्राणदण्ड भी दे सकते हैं ।" इस घोषणा के बाद ५ दिन तक चोरी का पता न लगा । अतः यज्ञदेव आकर कहने लगा- ' - " राजन् ! मित्र का छिद्र प्रकट करना उचित नहीं है, तथापि राजा के समक्ष तो जैसा जानता हो, वैसा कहना चाहिए; यह नीति है । यद्यपि वह मित्र है, किन्तु इस लोक और परलोक के विरुद्ध आचरण करने वाले दुःखदायक मित्र का क्या करू ? पितृतुल्य राजा की उपेक्षा कैसे करू ? जो देखा है, वही मैं आपको कहता हूँ ।" राजा - " जैसी बात हो, वैसी कहो ।" यज्ञदेव - " राजन् ! मैंने जैसा सुना है वैसा कहता हूँ । इस चोरी का सारा माल चक्रदेव के यहाँ है । अगर वह न माने तो उसके घर की तलाशी ली जाए । अब आप जैसा उचित समझें, करें । मेरा तो वह बड़ा भाई है । उसे माफ कर दें तो बहुत अच्छा । " 1 राजा - - "तुम्हारी बात पर गौर किया जाएगा। अगर उसके घर की तलाशी लेने पर दोषी पाया गया तो यथायोग्य दण्ड दिया जाएगा ।" राजा ने नगर के न्यायी पंचों को बुलाकर सारी बात उन्हें समझा दी । कहा - " चंदन सार्थवाह के भण्डारी को साथ लेकर आप सब चक्रदेव के घर की तलाशी लें ।” पंचों ने सोचा - 'चक्रदेव तो धर्मावतार है । वह चोरी करे, ऐसा मानने में नहीं आता ।' फिर भी राजा का आदेश था, इसलिए वे सब चक्रदेव के यहाँ पहुँचे । चक्रदेव ने सबका स्वागत किया। पंचों ने राजा का आदेश उसे सुना दिया । चक्रदेव ने निःशंक होकर कहा - "आप मेरे घर की तलाशी लेना चाहें तो ले सकते हैं ।" पंच नगर के वृद्ध पुरुषों तथा राजपुरुषों के साथ लेकर गये थे । अतः उन्हें तलाशी लेने को कहा । घर में देखने पर उन्हें चंदन सार्थवाह का चोरी गया हुआ माल मिल गया । उन्होंने सारा माल बाहर लाकर चंदन सार्थवाह के भंडारी को बताया । उसे देखकर बड़ा दुःख हुआ । पंचों ने चक्रदेव से पूछा - " तुम्हारे घर में यह सामान कहाँ से आया ?" चक्रदेव ने सोचा - मित्र का नाम कैसे लूं । इसके सिर चोरी का कलंक आए तो मेरी सज्जनता लज्जित होगी । अतः पंचों ने विविध रूप से पूछा, पर चक्रदेव ने नाम न लिया। पंचों को विश्वास न हुआ कि चक्रदेव ने चोरी की है । अत: कहा - निःसंकोच होकर जैसी बात हो, कहो । फिर भी उसने कुछ भी न बताया तो कोतवाल ने गिरफ्तार करके उसे राजा के समक्ष उपस्थित किया । राजा ने भी चक्रदेव को वास्तविक बात बताने को कहा । पर चक्रदेव ने पहले की तरह ही कहा । राजा को चक्रदेव पर शंका हुई । उसे और तो कुछ कहा नहीं नगर के बाहर वन में निकाल दिया । चक्रदेव ने मन ही मन सोचा - मेरा इतना पराभव और अपयश हुआ । अतः अब तो जीना बेकार है । यों सोचकर देवालय के निकट - वर्ती वड़ में फांसा डालकर गले में लगाया । For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ उसी समय वन देवी ने यह महा-अनर्थ जानकर चक्रदेव पर करुणा करके जैसी बात थी, वह ज्यों की त्यों राजमाता के घट में आकर कहलाई तथा यह भी सूचित किया कि नगर के बाहर चक्रदेव ने आत्महत्या करने हेतु गले में फाँसा लगाया है, उसे रोको और सम्मान सहित नगर में लाओ। यह सुनते ही राजा ने दुष्ट यज्ञदेव को पकड़ लाने का आदेश दिया और स्वयं ने जाकर वन में फांसा लगाते चक्रदेव को रोका। फिर साथ में बिठाकर राज दरवार में लाए । आश्वासन दिया। बोले-तू सच्चा था तो इतना पूछने पर तूने बताया क्यों नहीं ? तेरा सारा वृत्तान्त वनदेवी ने मेरी माता के घट में आकर बताया है, यज्ञदेव को झूठा कहा है, उसने तुझे फंसाया है। फिर राजा ने उससे क्षमायाचना की। ___ इतने में तो राजपुरुष यज्ञदेव को रस्सों से बाँधकर राजा के समक्ष ले आये। राजा ने कहा- "इस महादुष्ट कृतघ्न एवं विश्वासघाती को जीभ काट लो, इसकी दोनों आँखें निकाल लो । इसका घर लूट लो । इसे मार-पीटकर देश निकाला कर दो।" यह सुनते ही चक्रदेव राजा के चरणों में पड़कर कहने लगा- “राजन् ! मुझे और कछ नहीं चाहिए, यज्ञदेव को बन्धनमुक्त कर दें।" राजा ने कहा-“यह तो महादुष्ट है, विश्वासघाती है, इसे दण्ड मिलना चाहिए।" "जो भी हो यज्ञदेव को जीवन दान दीजिये। मुझे और कुछ नहीं चाहिये। इसे जीवन दान दीजिये यही मेरे लिये सर्वस्व प्राप्ति है।" राजा ने उसकी आग्रह भरी प्रार्थना पर यज्ञदेव को मुक्त कर दिया। चक्रदेव ने राजा का बहुत आग्रह माना । राजा ने चक्रदेव को बहुत आदर दिया। लोगों की दृष्टि में चक्रदेव बहुत ही सम्मान्य वन गया। परन्तु यज्ञदेव को प्रतिष्ठा समाप्त हो गई । वह जीते जी मृतवत् हो गया । चक्रदेव को इस घटना से संसार से वैराग्य हो गया-"अहो ! कैसी है कर्म की विचित्रता ! संसार की असारता और मित्र की भी विश्वासघातता ! ऐसे स्वार्थ और कपट से भरे मित्रादि युक्त संसार की मोहमाया का परित्याग करना ही उचित है।" __ अग्निभूति नामक गणधर इसी अवसर पर पधार गये । चक्रदेव ने उनके दर्शन किये, देशना सुनी । धर्म के सम्बन्ध में सारी बात सुनी तो सर्वप्रथम मिथ्यात्त्व का त्याग करके सम्यक्त्व ग्रहण किया, तत्पश्चात् देशविरति (श्रावक व्रत) ग्रहण किया। वैराग्यवृत्ति बढ़ी । दीक्षा के परिणाम हुए । गुरु से निवेदन किया। गुरु ने चक्रदेव को सर्वविरति के योग्य जानकर महाव्रती दीक्षा दी । तप संयम का शुद्धतापूर्वक आजीवन पालन किया । यहाँ से शरीर छोड़कर चक्रदेव मुनि पांचवें देवलोक में गए। यज्ञदेव अपने कलुषित पैशुन्यकर्म के फलस्वरूप मर कर दूसरी नरक भूमि में उत्पन्न हुआ। ___बन्धुओ ! इस प्रकार चक्रदेव यज्ञदेव जैसे चुगलखोर का संग छोड़कर सुखी हुआ। मगर यज्ञदेव तो वहाँ से ६ठीं नरक में जायेगा। अनन्तकाल तक संसार परिभ्रमण करेगा। इसीलिये महर्षि गौतम ने चेतावनी दी है न सेवियव्वा पिसुणा मणुस्सा। For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ७३. जो धार्मिक, वे ही सेवापात्र धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष ऐसे जीवन की व्याख्या प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो सेवा के योग्य है, जिसकी संगति और सेवा में रहने से मनुष्य का जीवन धन्य एवं पाबन बन जाता है । अथवा संसार में जो सबसे अधिक सेवा का पात्र है । ऐसा जीवन है-धार्मिक जीवन । दूसरे शब्दों में कहूँ तो महर्षि गौतम ने ऐसे व्यक्तियों को सेवापात्र या सेव्य बनाया है, जो धार्मिक हों । गौतमकुलक का यह ५६वाँ जीवन-सूत्र है, जिसमें महर्षि गौतम ने बताया है जे धम्मिया ते खलु सेवियव्वा अर्थात्-जो धार्मिक हैं, वे सेवा पात्र हैं, उनकी सेवा करनी चाहिए अथवा उनकी सेवा-संगति में रहना चाहिए। धार्मिक किसे कहना चाहिए ? उनकी सेवा करने से क्या-क्या लाभ हैं ? उनकी सेवा के अवसर क्यों ढूंढने चाहिए ? इन सब पहलुओं पर मैं आपके समक्ष चर्चा करने का प्रयास करूंगा। धार्मिक कौन : यह या वह ? सामान्य रूप से धार्मिक उसे कहा जाता है—जो धर्म का पालन करे। परन्तु साम्प्रदायिक लोगों का धार्मिक वो नापने का गज दूसरा होता है। वे अपने धर्म-सम्प्रदाय के क्रियाकाण्डों से उसे नापते हैं, अगर किसी धर्म सम्प्रदाय वाला व्यक्ति नीतिमान हो, प्रामाणिक हो, सदाचारी हो, अहिंसा, सत्य आदि व्रतों का आचरण करता हो, परन्तु अमुक धार्मिक क्रियाकाण्ड न करता हो तो उसे उस धर्म सम्प्रदाय के धुरन्धर पण्डित, मौलवी, उपाध्याय, आचार्य या वरिष्ठ अधिकारी धार्मिक नहीं कहेंगे। वे प्रायः यही कहेंगे-यह व्यक्ति और तो सब तरह से ठीक है, किन्तु हमारे धर्म (मजहब) की दृष्टि से धार्मिक नहीं है। क्योंकि यह नमाज नहीं पढ़ता या प्रार्थना नहीं करता अथवा मन्दिर में नहीं आता, गुरुद्वारे में नहीं आता अथवा उपाश्रय में आकर अमुक धार्मिक क्रियाकाण्ड नहीं करता। __ महात्मा गांधीजी चुस्त धार्मिक थे। वे धर्म के अहिंसा, सत्य आदि अंगों का पालन करते थे, जीवन में नीतिमान, सत्यवादी, प्रामाणिक और परमात्मा के प्रति दृढ़ विश्वासी थे। उनकी धार्मिकता में कोई कसर नहीं थी। भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम के जमाने में महात्मा गांधीजी के दो परम सहयोगी काँग्रेसी थे--मोहम्मद अली और शौकत अली । उनसे किसी ने महात्मा गांधीजी के सम्बन्ध में पूछा-गांधीजी कैसे For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ व्यक्ति हैं ?" उन्होंने कहा- "वैसे तो भले आदमी हैं, चरित्रवान हैं, परन्तु इस्लाम धम की दृष्टि से वे निकृष्ट (खराब) से निकृष्ट व्यक्ति हैं।" उनका आशय थामुस्लिम मजहब की दृष्टि से वे धार्मिक नहीं हैं क्योंकि वे मजहबी दीवाने नहीं थे; धार्मिक पागलपन, कट्टरता या धर्मान्धता उनमें नहीं थी। औरंगजेब बादशाह कट्टर मुसलमान था। कहते हैं, वह नमाज पढ़ता था, रोजे रखता था, अन्य मजहबी क्रियाकाण्ड करता था। परन्तु शुद्ध धर्म के तत्त्वों का उसमें नामोनिशान न था । वह कट्टर धर्म-जनूनी था, धर्मान्धता के आवेश में आकर उसने लाखों हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया था। जो हिन्दू या सिक्ख मुसलमान नहीं बने, उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। उसमें राज्यलिप्सा बहत जबर्दस्त थी, साथ ही हिन्दुओं के साथ छल-कपट करके उन्हें मरवा देने, राज्य छीन लेने की बुरी नीयत भी थी। इस दृष्टि से न तो उसमें अहिंसा थी, न सत्य था और जहाँ कपट, झूठ-फरेब आदि थे, जहाँ चोरी का पाप आ ही जाता है। ब्रह्मचर्य के सम्बध में भी औरंगजेब की दृष्टि स्पष्ट नहीं थी, राज्यलिप्सा, राज्य वृद्धि की अहर्निश लालसा ने ही उसके द्वारा अपने पिता की दुर्गति करवाई अपने सगे भाइयों को मौत के मुंह में ठेलवा दिया गया। फिर भी मुस्लिम जगत् में औरंगजेब को धार्मिक एवं धर्मसेवा करने वाला माना जाता है । क्या इस प्रकार के व्यक्ति को जिसमें केवल अमुक धर्म सम्प्रदाय के ही क्रियाकाण्ड हों धर्म के तत्त्वों-या अहिंसा-सत्यादि अंगों का लेश भी न हो, धार्मिक कहा जा सकता है ? कदापि नहीं। और ऐसा व्यक्ति, जो शराब भी पीता हो, मांसाहार भी करता हो. जुआ चोरी, शिकार, वेश्यागमन एवं परस्त्रीगमन आदि दुर्व्यसनों में रचा-पचा हो, परन्तु मन्दिर में जाता हो, आरती करता हो, शंखनाद या घंटावादन करता हो, पूजा-पाठ या सन्ध्योपासना करता हो, अपने चौके में किसी असवर्ण को घुसने न देता हो, चौका पूरा शुद्ध रखता हो, जनेऊ रखता हो, साढ़े ग्यारह नंबर का तिलक लगाता हो. चोटी रखता हो, क्या इतने से हम उसे धार्मिक कह सकते हैं ? जबकि धर्म के प्रथम अंगभूत कुव्यसन त्याग उसमें नहीं है, नैतिक जीवन का क, ख, ग, उसने नहीं पढ़ा है, तब नीति-धर्म-तत्त्वविहीन व्यक्ति के जीवन केवल धार्मिक चिन्हों और रीतिरस्मों के होने मात्र से धार्मिक जीवन का प्रमाणपत्र कैसे दिया जा सकता है ? अफ्रीका में वर्षों से रहने वाले एक ब्राह्यण की सच्ची घटना है । वह सभी कुव्यसनों में ग्रस्त था। परन्तु जनेऊ और चोटी रखता था, चौके की पूरी शुद्धि रखता था। एक बार कोई सम्भ्रात ब्राह्मण परिवार का व्यक्ति उसके पुत्र के साथ अपनी पुत्री की सगाई पक्की करने के लिए आया । बातचीत के सिलसिले में उसने उक्त ब्राह्मण के पुत्र से पूछा- 'कहो जी ! तुम मांसाहार तो नहीं करते ?" उसने कहा-'मांस, अंडे खाने में कौन-सा पाप या बुराई है ? हम चाहें मांस खाते हों, पर For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो धार्मिक, वे ही सेवापात्र २२५ अपना चौका भ्रष्ट नहीं होने देते । और मांस भी तभी खाता हूँ, जिस दिन शराब पी लेता हूँ, और शिकार खेलकर किसी जीव को मार लाता हूँ।" आगन्तुक-"राम !राम ! शराब भी पीते हो तुम ! तब तो तुम पूरे असुर हो । और शिकार खेलकर निर्दोष पशुओं का वध क्यों करते हो ?" ब्राह्मण-पुत्र—अजी ! शराब भी तभी पीता हूँ, जिस दिन जुए में जीत जाता हूँ। रोज-रोज नहीं पीता । और फिर शराब पीने में कौन-सी बुराई है ? यह तो टॉनिक है । भोजन को पचा देती है ।" आगन्तुक—“हरे-हरे ! जुआ भी खेलते हो, तुम ?' ब्राह्मण-पुत्र- "जुआ तो बिना किसी प्रकार की हिंसा किये, झूठ बोले या चोरी किये बिना धन कमाने का सात्त्विक धंधा है । इसमें क्या बुराई है ? और जुआ भी मैं तभी खेलता हूँ, जब चोरी का माल आ जाता है ?" आगन्तुक—'अरे पापी ! चोरी भी करते हो तुम? यह तो महापाप है।" ब्राह्मण-पुत्र-"चोरी तो बहुत ही आसान धंधा है। जो धनाढ्य लोग कृपणतावश दान नहीं करते, गरीबों की सहायता व सेवा नहीं करते; उन्हें सबक सिखाने तथा गरीबों में धन वितरण करने हेतु ही मैं चोरी करता हूँ। फिर चोरी भी तब करता हूँ, जिस दिन वेश्या के यहाँ जाता हूँ।" आगन्तुक-"अरे पापात्मा ! क्या तू वेश्यागमन भी करता है ?" ब्राह्मण-पुत्र–वेश्या तो सारे नगर की वधू है, यह तो किसी एक के साथ परिणीत नहीं है, जब कभी कामोद्रेक होता है तो वेश्या के यहाँ जाकर शान्त कर आता हूँ। और वेश्या के यहाँ भी तभी जाता हूँ, जब कोई पराई स्त्री मेरे चंगुल में नहीं फँसती।" आगन्तुक-"अरे पातकी ! तू पराई स्त्रियाँ भी ताकता है ? ऐसा पाप करने से तू किस जन्म में छूटेगा ?" ब्राह्मण-पुत्र—“जो परस्त्री, मुझे चाहती हो, मेरे पर मुग्ध हो उसी के साथ संगम करता हूँ, अन्य स्त्री के साथ नहीं । और परस्त्री के पास भी तभी जाता हूँ, जब हराम का पैसा आ जाता है।" आगन्तुक-'तो फिर तुम कहाँ के धर्मात्मा हो? तुम्हारे नखशिख में धर्म का लेश भी नहीं है।" ब्राह्मण-पुत्र-"हम पूरे धार्मिक हैं। देखिए, हम चोटी-जनेऊ रखते हैं, मन्दिर में जाते हैं, आरती करते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, अपने चौके में किसी भी अछूत को घुसने नहीं देते।" क्या आपकी अन्तरात्मा ऐसे नकली धार्मिक को धार्मिक कहेगी ? इसी प्रकार कई बार वास्तविक धार्मिक और नकली धार्मिक में अन्तर करना For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ कठिन हो जाता है । नकली धर्मात्मा बने हुए लोगों के चारों ओर भीड़ लगी रहती है । वे महन्त, गुसाईं, मन्दिर के पुजारी या अमुक उच्च पद पर होते हैं । भोली जनता उनके वर्चस्व को देखकर उन्हें बड़े आदमी, धार्मिक या धर्म-रक्षक मानती है, परन्तु वे दूसरे की बहू-बेटियों पर बुरी नजर डालते हैं, उन्हें भय या प्रलोभन देकर किसी भी प्रकार से अपने जाल में फंसाकर भ्रष्ट कर देते हैं । बड़ी-बड़ी जागीरी और जमींदारी उनके पास है, या मन्दिर की लाखों की आमदनी उनके भोग-विलास पर खर्च होती है । वे पुत्र कामनावश आई हुई भोली-भाली युवतियों, को पुत्र की; धन या अन्य साधन की आशा से आए हुए अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण करते हैं । यंत्र, मंत्र तंत्र, गंडा, ताबीज आदि देकर वे सांसारिक लोगों की कामनाओं को पूर्ण करने का प्रयत्न करते हैं । उनका महारम्भी - महापरिग्रही जीवन क्या केवल किसी धार्मिक पद से सम्प्रदाय - भक्तों की भीड़ से सच्चे माने में धार्मिक जीवन कहा जा सकता है ? मेरा अनुमान है, आप ऐसे व्यक्तियों को धार्मिक कहना पसंद नहीं करेंगे । परन्तु आम जनता की स्थूल आँखों में वे धर्मात्मा बने हुए हैं, वे ही आम जनता पर धार्मिक नाम से छाये रहते हैं । किन्तु कोई सादा सीधा गरीब, ग्रामीण धर्मपरायण स्त्री या पुरुष उनके मन्दिर या मकान की किसी कोठरी में आश्रय लेना चाहे तो वे उसे प्रायः ठुकरा देते हैं । वह चाहे जितनी आरजू-मिन्नत करे, उन तथाकथित धार्मिकों का हृदय नहीं पसीजता, वे उसे विधर्मी, या अन्य धर्मी अथवा अधर्मी कहने का साहस करके उसे भगा देते हैं, वहाँ से । 1 एक छोटा-सा सुन्दर गाँव था । गाँव के निकट ही संगमरमर का बना एक भव्य मन्दिर था । प्रभात काल की सुनहरी किरणें उस पर पड़तीं तो उसकी शोभा में चार चाँद लग जाते । मन्दिर का पुजारी इस मन्दिर की शोभा बढ़ाने के लिए अहर्निश जागरूक रहता था । इस कारण पुजारी की सत्ता भी दिनोंदिन बढ़ने लगी। आगे चलकर पुजारी ही मन्दिर का सर्वेसर्वा बना दिया गया । पुजारी ने मन्दिर के नियमो - पनियम एवं विधान बना लिये, उन नियमों आदि को कैसे क्रियान्वित करना, यह भी उसने निश्चित कर लिया । गाँव के लोग उस पुजारी को ही धर्मात्मा समझकर उसके पास जाते और मन्दिर में पूजा-पाठ करके चढ़ावा चढ़ाकर चले आते । पुजारी ही मन्दिर का कर्ताधर्ता होने से किसी का साहस उसके विरुद्ध कुछ भी बोलने या विरोध करने अथवा उसके फरमान का उल्लंघन करने का नहीं होता था । एक दिन आकाश में घटाटोप घने बादल छाए हुए थे । अचानक मेघ गर्जन होने लगा, बिजलियाँ चमकने लगीं। चारों ओर घोर अँधेरा छा गया । पुजारी मन्दिर के प्रवेश द्वार पर खड़ा था । आकाश की ओर सिर उठाकर उसने देखा कि सहसा किसी स्त्री की आवाज उसके कानों में टकराई । वह चौंका । स्त्री की आवाज For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो धार्मिक, वे ही सेवापात्र २२७ की ओर इष्टिपात करके देखा तो प्रवेश द्वार के निकट सूखी काया में लिपटी. फटेहाल, दीन-हीन, परन्तु धर्मभावना से ओत-प्रोत एक स्त्री खड़ी थी। पुजारी ने आश्चर्यचकित होकर उससे पूछा- "कौन है तू ?" वह महिला बोली- ''मैं एक विपदग्रस्त निराधार स्त्री हूँ पुजारी जी ! मुझे अपने गाँव में पहुँचना था, किन्तु वर्षा, आँधी एवं तूफान होने से अब मेरा गाँव पहुंचना असम्भव है, मैं रातभर के लिए इस मन्दिर में आश्रय चाहती हूँ।" पुजारी कड़ककर बोला---'तो पहुँच जा गाँव में, किसी के यहाँ तुझे भोजन भी मिल जाएगा।" आगन्तुक महिला बोली- 'मुझे भोजन नहीं चाहिए पुजारी जी ! केवल रात बितानी है। यह भगवान् का मन्दिर है, भगवान् तो सबके होते हैं, क्या इस मन्दिर में मुझे रात्रि विश्राम के लिए स्थान नहीं मिलेगा ?" ___ अब तो पुजारी के मुख का भाव पलटा । वह बोला--'यहाँ स्थान नहीं मिल सकता।" ___महिला धार्मिक वृत्ति की तेजस्वी जीवन वाली थी, बोली-"पुजारीजी ! आप भगवान् के मन्दिर के पुजारी होकर ऐसा क्यों कहते हैं ? मैं आपके कहने का अर्थ न समझ सकी।" पुजारी—"तेरी पोशाक और बोली से लगता है, तू हमारे धर्म सम्प्रदाय की नहीं है, तू कोई विधर्मी दिखती है।" महिला-बात सच्ची है, मैं आपके धर्म-सम्प्रदाय की नहीं हूँ, विधर्मी हूँ, परन्तु अधर्मी तो नहीं हूँ। मैं भी धर्म के अंगों का पालन करती हूँ। मैं किसी न किसी रूप में ईश्वर पर श्रद्धा रखती हूँ, इसलिए मैं आस्तिक हूँ, नास्तिक नहीं।" इतना कहने पर भी पुजारी के मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । वह तमककर बोला- "मुझे तेरे लम्बे-चौड़े भाषण सुनने की फुरसत नहीं । मन्दिर का कानून ऐसा है कि यहाँ उसी को स्थान दिया जाता है, तो हमारे धर्म-सम्प्रदाय का अनुयायी हो, विमियों के लिए यहाँ स्थान नहीं । इसलिए तेरे धर्म का मन्दिर हो, वहाँ जाकर तू रात बिता सकती है, यहाँ तुझे रात्रिवास मिलना कठिन है।" महिला बोली-''तो क्या ऐसी घनघोर रात्रि में भी मुझे यहाँ स्थान नहीं मिलेगा, पुजारीजी ?" पुजारी ने दृढ़ता से उत्तर दिया-"नहीं, और एक बात और सुनती जा, जो लोग हमारे धर्म को मानते हैं, उन्हें ही मुक्ति मिलती है, तुम्हारे जैसों को मुक्ति नहीं - मिलती।" वह महिला पुजारी की बात का जबाव दे, इसके पूर्व ही आकाश में एक भयंकर मेघ गर्जना हुई, उसके साथ ही सहसा मन्दिर पर बिजली गिरी । वह सारे मन्दिर को छिन्न-भिन्न करती हुई जमीन में उतर गई । सारा मन्दिर भस्मीभूत हो गया पुजारी का शरीर भी जलकर खाक हो गया, किन्तु कुछ दूर खड़ी वह महिला बच गई, उसे For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ कोई क्षति नहीं पहुँची । गाँव के लोग दौड़े हुए आए और उस महिला को वे अपने साथ ससम्मान गाँव ले गए। वहाँ और कुछ बचा ही न था । यह घटना धर्म का अंचल पहने हुए तथाकथित धार्मिक और सच्चे माने में धार्मिक की स्पष्ट विभाजक रेखा खींच देती है । शास्त्रों को रट लेने मात्र से कोई भी व्यक्ति धार्मिक नहीं हो जाता, नही केवल शास्त्र में लिखे अनुसार आचरण कर लेने मात्र से ही कोई धार्मिक होता है । अगर कोई व्यक्ति शास्त्रों के रहस्य को न समझे, उसमें लिखी हुई बात को द्रव्य, क्ष ेत्र, काल और भाव तथा अपनी योग्यता, पात्रता और क्षमता देखे बिना ही शब्दशः अनुसरण करने लग जाये और उस क्रियाकाण्ड के नाम पर अपने अनुयायियों को आकृष्ट कर ले, इतने मात्र से धार्मिक कहलाने का अधिकारी नहीं हो जाता । सच्चा धार्मिक धर्ममय जीवन जीता है । वह धर्ममय जीवन, अनुभवयुक्त जीवन होता है । सच्चा धार्मिक आडम्बर और प्रदर्शन नहीं करता । न ही जोर-जोर से चिल्लाकर या 'धर्म खतरे में है' का नारा लगाकर व्यर्थ दूसरे धर्म के लोगों को मारता - काटता है । सच्चा धार्मिक सच्चा मानव होता है, वह किसी पर धर्म के नाम से अन्याय-अत्याचार नहीं करता, न ही धर्म को अपनी बपौती समझकर दूसरों के लिए कभी द्वार बन्द करता है । जैसे प्रेम के सम्बन्ध में मैं आपसे विस्तृत रूप से कहूँ और आप में से कोई व्यक्ति खड़ा होकर प्र ेम की दुनिया में कूद पड़े, दूसरा एक व्यक्ति पुस्तकालय में जाकर प्रेम के सम्बन्ध में जितनी भी पुस्तकें हों, उन्हें पढ़ ले और रिसर्च करने लग जाय । ये दोनों प्रेम की खोज करने निकले हैं । बताइए, प्र ेम किसको और कहाँ मिलेगा ? दोनों में से एक प्र ेम की खोज में स्वयं को मिटा देने और अर्पण करके प्रेमी जीवन जीने लगा है, जबकि दूसरा प्रेम को शास्त्रों में ढूँढ़ता है ? वह शास्त्रों के पन्ने उलटपुलटकर प्रेम की जानकारी भले ही पा ले किन्तु प्रेम का वास्तविक अनुभव क्या उसे हो सकेगा ? बल्कि मैं तो समझता हूँ, वह शास्त्र और ग्रन्थ पढ़-पढ़कर दिमाग में बहुत-सी जानकारी भर लेगा और अहंकार से लिप्त होकर कहेगा कि मैंने प्रेम को समझ लिया है और पा लिया है। जबकि दूसरा व्यक्ति तो प्रेम का पूर्ण अनुभव पाने के लिए स्वयं को मिटा देने की तैयारी करके गया है, वह निरहंकार बनकर प्रेममय जीवन जीता हुआ प्र ेम की वास्तविक खोज और प्राप्ति कर सकेगा । इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म को शास्त्रों में ढूंढता है, अनेक धर्मशास्त्र पढ़ लेता है, अनेक धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय कर लेता है, इतने से क्या वह धर्म को - शुद्ध धर्म को पा सकेगा ? कदापि नहीं । शुद्ध धर्म को वही पा सकता है, जो धर्मशास्त्र पढ़कर विवेकयुक्त आचरण करता है । धर्म जीवन में उतारने की वस्तु है, जो व्यक्ति धर्ममय जीवन जीता है, वही धर्म को पा सकेगा । तथागत बुद्ध की भाषा में कहूँ तो - ' जो व्यक्ति बहुत से धर्मशास्त्र पढ़ता है, परन्तु उनके अनुसार आचरण नहीं करता, वह उस ग्वाले के समान है, जो दूसरों की गायों को ही गिनता रहता है ।' For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो धार्मिक, वे ही सेवापात्र २२८ वही सच्चा धार्मिक है, जो धर्म को शास्त्रों या धर्मग्रन्थों में न ढूँढ़कर जीवन में ढूँढता है, धर्ममय आचरण में ही जिसे धर्म की उपलब्धि होती है । आचारांग सूत्र में चुस्त धार्मिक और सुस्त धार्मिक का लक्षण इस प्रकार बताया गया है— 'धम्म अणुज्जतो सीयलो, उज्जुत्तो उण्हो' धर्म में उद्यमी - क्रियाशील व्यक्ति - उष्ण-- गर्म है, और उद्यमहीन शीतल यानी ठंडा है । वास्तव में सच्चा धार्मिक वह है, जो आडम्बर नहीं करता, धर्ममय जीवन जीता है, नीति, न्याय, दया, क्षमा, सेवा, परोपकार, अहिंसा, सत्य आदि धर्म के तत्त्वों को जीवन में रमाता है, इनका आचरण करता है । जो धर्म में उद्यत है, वही धार्मिक है, जो धर्माचरण न करके केवल धर्म की बातें करता है, वह धार्मिक नहीं है । धार्मिक की पहिचान प्रश्न होता है, सच्चे धार्मिक की पहिचान क्या ? यह तो आप पूर्व विवेचन से समझ गये होंगे कि केवल क्रियाकाण्डी होने से, अमुक वेशभूषा से या अमुक चिन्हों से ही किसी को धार्मिक नहीं कहा जा सकता । न ही धर्म शास्त्रों को रट लेने, धर्म पर भाषण दे देने या धर्म पर लेख लिख लेने या कविता बना देने से ही कोई धर्मात्मा कहला सकता है । इसी प्रकार अनुयायियों की भीड़ इकट्ठी कर लेने, या यन्त्र-मंत्रतन्त्र या जादू-टोने द्वारा लोगों को आश्चर्यचकित कर डालने, या कोई चमत्कार दिखा देने से भी कोई धार्मिक कहला नही सकता । आज अधिकांश व्यक्ति धर्मात्मा की कसौटी चमत्कार या किसी आश्चर्यचकित कर देने वाले काम को ही मानते हैं । संसार सुख-शान्ति पाने के लिए तप, त्याग, अहिंसा आदि धर्म से युक्त सीधा और सरल मार्ग प्रायः नहीं चाहता, वह धर्मात्मा की परीक्षा करना चाहता है -- किसी चमत्कार से । खेद है, दुनिया के अधिकांश लोग आश्चर्यचकित कर देने वाले व्यक्ति को धार्मिक मानकर श्रद्धा करते है । जो उसकी समझ में नहीं आता, या जिसे वह स्वयं नहीं कर सकता, उसे बताने वाले को धर्मात्मा कह बैठता है, फिर चाहे वह ठग, धोखेबाज या पापी ही क्यों न हो ? धर्म का ध्येय है - प्राणिमात्र को सुख-शान्ति अथवा उनके दुःख- सन्तापों को अधिकाधिक कम करना, जीवन जीने की सच्ची राह बताना । जो व्यक्ति इस प्रकार शुद्ध धर्म की राह पर स्वयं चलता है, धर्म की कसौटी पर अपनी प्रत्येक मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों को कसकर क्रिया करता है; निरापद भाव से स्थायी सुख-शांति के लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है, जो व्यक्ति शरीर रक्षा, धन-रक्षा तथा अन्य भौतिक पदार्थों की रक्षा से बढ़कर धर्म-रक्षा - शुद्ध सद्धर्म की रक्षा करने में तत्पर रहता है; वह सच्चे माने में धार्मिक है । वह ऐसा धर्म कार्य सेवा से, सान्त्वना से, बौद्धिक परामर्श में या उपदेश से भी कर सकता है । For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० आनन्द प्रवचन : भाग ११ सच्चा धार्मिक किसी भी प्राणी को दुःखी देखकर चुपचाप नहीं खड़ा रहेगा; उसका हृदय दूसरे के दुःख को देखकर करुणा एवं सहानुभूति से उमड़ पड़ेगा, वह दूसरे के दुःख को अपना दुःख समझने लगेगा । जो मनुष्य दूसरे को दुःखी देखकर सहानुभूति करने या करुणा करने के बजाय उपेक्षापूर्वक कहता है—“अपने किये कर्म का फल भोग रहा है। मैं उसके और उसके कर्मफल-भोग के बीच में क्यों पड़ें; वह व्यक्ति दयाहीन है, धार्मिक नहीं है; फिर भले ही वह कितना ही पूजा-पाठ, स्वाध्याय-ध्यान करता हो। एक बार काशी में विश्वनाथ का मेला था। विश्वनाथजी के मन्दिर में एक सोने का थाल आया। साथ ही आकाशवाणी भी हुई.---'जो व्यक्ति सच्चा धर्मात्मा होगा, वही प्रभु का सच्चा भक्त होगा, और जो सच्चा भक्त होगा उसे ही यह सोने का थाल भेंट दिया जाए। सच्चे धर्मात्मा की पहचान यह है कि उसका हाथ लगते ही यह थाल अत्यधिक चमकने लगेगा, परन्तु जो सच्चा धर्मात्मा नहीं होगा, उसका हाथ लगते ही थाल लोहे या पीतल-सा दिखाई देने लगेगा।' इस आकाशवाणी को सुनकर पण्डों ने सोचा-यह थाल हमें तो हजम नहीं हो सकेगा, क्योंकि हममें ऐसी धार्मिकता तो है नहीं । अत: मेले में जाहिर उद्घोषणा करके जो सच्चा धार्मिक निकले, उसे दे डालना चाहिए । यह सोचकर एक पण्ड ने एक उच्च स्थान पर खड़े होकर घोषणा की—'एक सोने का थाल भेंट देना है, जो व्यक्ति सच्चा धार्मिक हो उसे । उसकी पहचान है कि उसका हाथ लगते ही यह थाल चमकने लगेगा।' जिसने भी यह घोषणा सुनी, उसके मुंह में पानी भर आया । एक तो सोने का थाल और फिर धर्मात्मा का पद, यह दोहरा लाभ, भला किसे आकर्षित नहीं करता। सभी लोग विश्वनाथ-मन्दिर के पास इकट्ठे होने लगे। सर्वप्रथम लाखों का दान करने वाला एक सेठ आगे आया। उसने अपने दानधर्म का बखान करके पुजारी से कहा—'मैं ही इस थाल को पाने का अधिकारी हूं।' पुजारी ने ज्यों ही उसके हाथ में थाल दिया, त्यों ही वह काला पड़ गया। थाल काला होते ही सेठ का चेहरा भी काला हो गया। वह लज्जित होकर पछताता हुआ नीचे मुंह करके चलता बना । उसे अपनी भूल समझ में आ गई कि मैं दान तो करता है, लेकिन उसके साथ कई कामनाएँ सँजोकर; दान के साथ अहंकार भी करता हूं कि मुझ-सा दानी-धर्मात्मा कोई है ही नहीं । उसके पश्चात् एक तिलक-छापा लगाए भक्तजी आए । वे रोज मन्दिर में पूजापाठ करते थे, पर उनका जीवन कई दुर्व्यसनों से भरा था। केवल पूजा-पाठ करने के कारण वे अपने आपको धार्मिक समझते थे। उनके आग्रह पर पण्डे ने ज्यों ही उनके हाथ में थाल दिया, थाल काला पड़ गया। वे भी शर्मिन्दा होकर चल दिये। For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो धार्मिक, वे ही सेवापात्र २३१ फिर आए एक गीता और रामायण के धुरन्धर विद्वान् । वे विद्वान् तो थे, पर गीता, रामायण के अनुसार उनका जीवन नहीं था । फिर भी अपने आपको धर्मात्मा मानते थे । उनके हाथ में थाल देते ही थाल ने उनकी भी पोल खोल दी । इसके बाद आए यज्ञ कराने वाले एक धनिक, जो प्रतिवर्ष लाखों रुपये खर्च करके महायज्ञ कराते थे । पुण्य लूटते थे । किन्तु उधर व्यापार बेईमानी, ठगी आदि करके गरीबों पर अन्याय करके, वे लाखों रुपये कमाते थे । वे समझते थे इस प्रकार के यज्ञ कराने से वे पाप धुल जाएँगे, पर पापकर्मों का क्षय यों होता नहीं था । आखिर उनके हाथ में भी थाल दिया गया तो वह स्याह पड़ गया । इसके बाद कई तपस्वी आए, जिन्हें अपने तप का घमण्ड था । कई क्रियाकाण्डी लोग अ. ए, जिन्हें क्रियाकाण्ड पर से धार्मिक होने का नाज था । यों एक के बाद एक अनेक लोग आए, पण्डे ने क्रमशः उन सबके हाथ में थाल दिया तो थाल ने उन सबकी कलई खोल दी । जब पण्डे ने थाल को यथास्थान रखा तो वह पहले की तरह चमकने लगा । इधर मेले में आते समय एक मनुष्य अत्यन्त मूच्छित होकर धरती पर गिर पड़ा, उसे कैं होने लगी, जी घबराने लगा। मेले में हजारों स्त्री-पुरुष जा रहे थे, पर किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया । सब कह रहे थे - चलो, सोने का थाल किस को भेंट दिया जाता है, देखें । जल्दी चलो | हमें कहाँ फुरसत है, ऐसे ऐरे गैरे आदमियों को उठाने और होश में लाने की ? मालूम होता है, इसने अधिक खा लिया है, इसी का दण्ड इसे मिल रहा है । अपने किये का फल भोगे ! हम क्या करें ! उसी अवसर पर एक किसान कंधे पर हल लादे अपने खेत पर जा रहा था । रास्ते में उसने इस मूच्छित मनुष्य को देखा । किसान स्वभाव से दयालु था, इन्सान को दुःख में पड़ े देखकर उसका दुःख दूर करने का प्रयास किये बिना यों ही मुख मोड़कर चले जाना, वह मानवता और धर्म के विरुद्ध समझता था। किसान दयार्द्र होकर उसके पास गया । उसे अपने कंधे पर उठाया और बड़ े यत्न से अपने झोंपड़ पर लाया । शीतल उपचार से उसे होश में लाया । पीड़ा के मारे वह कराह रहा था, उसे सान्त्वना दी । अपनी गाय दुहकर उसे ताजा दूध पिलाया, इससे वह स्वस्थ हुआ । स्वस्थ होते उसने कृषक से पूछा - "भाई ! तुमने मेरे पर बहुत बड़ा उपकार किया । तुम्हारा परिचय तो दो कि तुम कौन हो ?" कृषक ने कहा- "मैंने तो अपना कर्तव्य पालन किया है । मैं एक गरीब किसान हूँ । इसी झोंपड़ में रहता हूँ । इसके सिवाय मेरा और कोई परिचय नहीं है । किसान की सरलता, दयालुता और धार्मिकता से आगन्तुक मुग्ध हो गया । वह बोला - " मेले में मेरे कई परिचित भी हैं, कई सम्बन्धी भी । उनमें से किसी ने मुझे संभाला नहीं, तुमने बिना किसी जान-पहचान के बिना किसी स्वार्थ के मुझ उठाया, घर पर लाए, मेरी सेवा की, मुझे जीवनदान दिया । मैं इस उपकार से कसे उऋण हो सकूँगा ।" , For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ किसान ने कहा- "मेरे भाई ! मैंने कोई भी कार्य बदले की भावना से नहीं किया है । एक भाई को दुःखी देखकर दूसरा भाई चुपचाप खड़ा रहे, यह शोभा नहीं देता । जो इन्सान, इन्सान के काम नहीं आता, वह मनुष्य नहीं, पशु है या दानव है । आपकी सेवा से मुझे जो सन्तोष और सुख हुआ है, वही मेरे कर्तव्यपालन का उपयुक्त पुरस्कार है । और किसी प्रलोभन में मुझे न डालें । सेवा को आजीविका बनाना मुझे नहीं रुचता । आप कहते हैं, तुम्हारा-हमारा कोई नाता नहीं, सो वास्तव में ऐसी बात नहीं है । इन्सान, इन्सान का जातिभाई है । इस नाते आप मेरे भाई हैं।" आगन्तुक के स्वस्थ होते ही किसान खेत पर जाने को तैयार हुआ । परन्तु वह भी किसान के पीछे-पीछे हो लिया। आगन्तुक मेले में आ-जा रहे लोगों के समक्ष जोर-जोर चिल्लाकर चलता रहा कि, 'यह किसान बड़ा धर्मात्मा है, इस किसान-सा धर्मात्मा मैंने नहीं देखा।' इस पर किसान ने कहा- भाई ! इस प्रकार मेरी क्यों प्रशंसा कर रहे हो ? मैंने कोई बड़ा काम नहीं किया है। मैं एक मामूली अनपढ़ किसान हूँ।' इतने पर भी आगन्तुक नहीं माना और कृषक की प्रशंसा करता चला गया । लोगों ने किसान की प्रशंसा सुनी तो उत्सुकतापूर्वक पूछ ही लिया- "इसने धर्म का कौन-सा काम किया है ?" उसने उत्तर दिया-'इसने निःस्वार्थ भाव से धर्मकार्य किया है। मनुष्य के प्राण बचाये हैं। मुझे तो इसके जैसा धार्मिक कोई नहीं मिला।" विश्वनाथ मन्दिर के पास से होकर दोनों निकले, जहाँ पुजारी थाल देने के लिए खड़ा था । उस मनुष्य ने कहा-''पुजारीजी ! थाल इन्हें दो, ये बड़े धर्मात्मा पुरुष हैं । थाल के सच्चे अधिकारी तो यही हैं।" पुजारी ऐंठकर बोला-‘ऐसे ऐरे-गैरे के लिए यह थाल नहीं है। यह एक मामूली किसान है । खेती करके उदर निर्वाह करता है। यह सबसे बड़ा धर्मात्मा कैसे हो सकता है ?" वह बोला-"तो जाँच कर लेने में हानि ही क्या है ? आपके पास धर्मात्मापन की जाँच करने का साधन है ही। भले ही यह किसान तिलक-छापे नहीं लगाता, मन्दिर में प्रतिदिन नहीं जाता, न अपने को भक्त कहता है, फिर भी यह बड़ा धर्मात्मा है। एक बार थाल हाथ में देकर देख तो लो।" पुजारी ने उस किसान को थाल लेने के लिए बुलाया। किसान संकोच में पड़ गया। वह थाल लेने से इन्कार करने लगा। जो त्याग करता है. उसे सभी देना चाहते हैं । सभी लोग आग्रह करने लगे। पुजारी ने उसके हाथ पर थाल रख दिया । किसान के हाथ में थाल लेते ही वह थाल एकदम चमक उठा, मानो धर्म का तेज थाल में से फूट पड़ा हो। ___ लोग दंग रह गये । सभी एक स्वर से उस किसान की सराहना करने लगे। लोगों ने पूछा-'इस किसान ने ऐसा क्या धर्माचरण किया है ?' किसान के साथी ने For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो धार्मिक, वे ही सेवापात्र २३३ किसान के द्वारा की गई निःस्वार्थ सेवा एवं दया का वर्णन करके सबका समाधान किया। बन्धुओ ! यह है सच्चे धार्मिक की पहचान ! ऐसे सच्चे धार्मिक दुनिया में यदि कोई हैं तो विरले ही हैं । दृढ़धर्मी : सच्चा धार्मिक कई लोग सादे-सीधे, सरल एवं ईमानदार व्यक्ति को अधार्मिक घोषित कर देते हैं और वाचाल एवं आडम्बरप्रिय व्यक्ति को धार्मिक; पर यह पैमाना गलत है। सच्चा धार्मिक वही है, जो एकान्त में भी पाप नहीं करता, मार सकने पर भी नहीं मारता, जो सिर कटते रहने पर भी झूठ नहीं बोलता, जो रास्ते में पड़े रत्नों को भी नहीं उठाता, जो निन्दा-स्तुति में रुष्ट-तुष्ट नहीं होता, जो परदेश में जाकर भी अपने धर्म को नहीं भूलता, जो नवयौवना स्त्री को देखकर भी मन को विकृत नहीं करता। सच्चा धार्मिक चाहे अकेला हो, चाहे कई आदमियों के बीच में, वह पापकर्म कर ही नहीं सकता, न तो भय उसे धर्म से विचलित कर सकता है, और न ही लोभ उसे धर्म से डिगा सकता है; उसमें धर्म के संस्कार इतने कूट-कूटकर भरे रहते हैं कि चाहे उसके प्राण चले जाएँ, चाहे धन, साधन, परिवार छूट जाएँ, वह धर्मविरुद्ध कार्य नहीं कर सकता, श्वासोच्छ्वास की तरह धर्म उसके रोम-रोम में रमा रहता है। वह अपने प्रत्येक कार्य के साथ धर्म का पुट देता है । धर्म उसके जीवन के हर मोड़ पर रहता है, एक पहरेदार की तरह। जरा-सा अधर्म या पाप वह सह नहीं सकता। एक कवि ने प्राचीन दृढ़धर्मी धार्मिकों का परिचय एक भजन में दिया हैधर्म पर डट जाना, है बड़ी बात यही० २।।धृव।। धर्म को मेघरथराय निभाया, जिनकी शरण कबूतर आया। बाज को काट दिया तन सारा, बने तो कट जाना, है बड़ी बात यही ॥धर्म पर०॥१॥ धर्म को जाना हरिश्चन्द्र दानी, जिन्होंने बेचे पुत्र और रानी। भरा है जाय नीच घर पानी, बने तो बिक जाना, है बड़ी बात यही ॥धर्म पर०॥२॥ धर्म को गजसुकुमाल ने धारा, सोमल शीश धरा अंगारा । मस्तक सीज गया है सारा, बने तो सिक जाना, है बड़ी बात यही ॥धर्म पर०॥३॥ For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ धर्म को सेठ सुदर्शन जाना, अभया रानी ने छल कर आना। चढ़ गया शूली दीवाना, बने तो चढ़ जाना, है बड़ी बात यही ॥धर्म पर०॥४॥ धर्म को जाना चन्दनबाला, कि बेची अपनी देह विशाला । सव से पिया कष्ट का प्याला, वने तो पी जाना, है बड़ी बात यही ॥धर्म पर०॥५॥ धर्म पर डट गए मोरध्वज राजा, पुत्र को अर्पण किया धर्म के काजा। शीश पर चला दिया है आरा, बने तो कट जाना, है बड़ी बात यही ॥धर्म पर०॥६।। ये हैं धार्मिकों की मुंह बोलती कहानियाँ ! धार्मिक वह नहीं है, जो केवल भक्ति गीतों द्वारा पूजा जाता हो, किन्तु वह है जिसके त्याग-बलिदान के गीत गाये जाते हों। एक फ्रेंच विचारक मेड डी स्टेइल (Mad De stael) ने इसी विचार का समर्थन किया है A religious life is a struggle and not a hymn. -धार्मिक जीवन संघर्षात्मक होता है, स्तुतिगीतात्मक नहीं। वास्तव में, धार्मिक जीवन में प्रतिक्षण, पाप और धर्म का संघर्ष चलता रहता है । गीता के शब्दों में कहूँ तो धर्मक्षेत्र रूपी कुरु (कर्त्तव्य क्षेत्र) में कौरव और पाण्डव-अर्थात् आसुरी और देवी दोनों प्रकार की वृत्तियों का संघर्ष चल रहा है। पाप और धर्म दोनों के युद्ध में धार्मिक व्यक्ति प्रतिक्षण धर्म को विजय दिलाता है; पाप को दूर भगाता है। __ लगभग १४-१५ साल पहले की एक सच्ची घटना है, जिसे 'कल्याण' में मैंने पढ़ी थी। मध्यप्रदेश का एक प्रतिष्ठित व्यापारी ५० हजार रुपये लेकर दक्षिण भारत (मैसूर, मदुरा और मद्रास) में माल खरीदने के लिये जा रहे थे । इस प्रान्त में शतरंजो, साड़ियाँ एवं मैसूर में चन्दन की लकड़ी की कलामय वस्तुएँ अच्छी और सुन्दर बनती हैं । व्यापारी ने एक-एक हजार के ५० नोट बनयान के दोनों जेबों में रखकर जेबें भलीभाँति सी लीं। सबसे पहले यह व्यापारी मैसूर पहूँचा और 'कर्नाटक रेस्टोरा' में ठहरा । वहाँ से १४ मील दूर कृष्णराज सागर का बांध और इलेक्ट्रिक प्रदर्शन देखने गय । यह प्रदर्शनीय स्थल शाम को ४ बजे से रात के १० बजे तक मैसूर सरकार की ओर से आम जनता के लिए खुला रहता था। व्यापारी ने For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो धार्मिक, वे ही सेवापात्र २३५ कृष्णराज सागर बाँध एवं अद्भुत विद्युत् प्रकाश देखा। देखकर वह ज्यों ही पुल की सीढियों पर चढ़ रहा था कि अचानक चक्कर आया और पुल की सीढ़ियों पर लुढ़कता-लुढ़कता नीचे आ गया। कुछ शक्ति आने पर हाथ, पैरों एवं मस्तक का रक्त पोंछकर फिर पुल की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा । अन्तिम सीढ़ी पर ज्यों ही पैर रखा कि फिर उसे जबर्दस्त. चक्कर आया, जिससे वह व्यापारी लुढ़कता हुआ सबसे नीचे की सीढ़ी पर आकर लहूलुहान हालत में गिर गया । बेहोशी भी आ गई थी। एक ताँगे वाले ने इस व्यापारी को इस दुर्दशा में देखा तो चाबुक को तांगे में रखकर पुल पर आया। रक्तलिप्त व्यापारी को, जिसके वस्त्र रक्त में सने थे, गोदी में उठाया, और जैसे-तैसे सीढ़ियाँ चढ़कर ताँगे में सुला दिया। एक हाथ से व्यापारी को, जो कि मृतक-सी हालत में था, पकड़े, और एक हाथ से घोड़े की लगाम धाम घोड को हांक रहा था । ४-५ मील चलने के बाद व्यापारी को कुछ होश-सा आया और उसने लड़खड़ाती जबान से पूछा---'कौन ?' "मैं हूँ तांगे वाला । मैंने आपको कृष्णराज सागर के पुल के जीने से गिरते हुए देखा था । आपके साथ कोई था नहीं, आप बेहोशी की हालत में थे। मेरे मन में आया कि मैं एक घायल व्यक्ति की सेवा करूँ और आपको आपके घर पहूँचा दूं। मैं हूँ तो तांगे वाला, पर ईमानदारीपूर्वक आजीविका कमाता हूँ।” व्यापारी कोट की जेब से १०० रु० का नोट निकाल कर तांगे वाले को देते हुए कहा-“लो तुम्हारे लिये इनाम !' ताँगे वाले ने व्यापार से कहा—'सेवा का मूल्य सोने-चांदी के टुकड़ों या कागज के रंगीन टुकड़ों से नहीं आंका जा सकता । मैं आपको किसी लोभ से प्रौरत होकर नहीं लाया । मैं तो परमात्मा को सर्वत्र व्यापक देखकर जीता हूं। मैं भगवान् से प्रतिदिन यह प्रार्थना करता हूं कि प्रभो ! मुझे ऐसा बल दे, ताकि अपने धर्म और ईमानहारी पर डटा रहूँ। मैं बेईमानी और पाप से सदैव दूर रहूं। प्रभु कृपा से मैं अपने लक्ष्य में सफल हुआ हूं।" तांगे वाले की धार्मिकता और ईमानदारी से प्रभावित होकर व्यापारी ने ५०० के नोट निकाले और उसके हाथ में थमा दिय । इस बार तांगे वाला अपने धर्म और ईमान की परीक्षा होती देखकर सावधान होकर बोला- 'मुझे माफ कीजिए. बाबूजी ! आपसे मुझे एक भी पाई लेना हराम है ।" और उसन व ५०० के नोट व्यापारी को सौंप दिये । परन्तु नोट व्यापारी के हाथ में न जाकर तांगे में ही गिर गए । व्यापारी पुनः बेहोश हो गया, उसके मुंह से सफेद झाग निकल रहे थे । तांगे वाले ने प्रार्थना की-'प्रभो ! क्या यह व्यक्ति अपने घर पहुँचने से पहले ही विदा ले लेगा और मेरी सेवा अधूरी ही रहेगी।' उसने ५०० के नोट उठाकर व्यापारी की जेब में रखे । ठीक १० बजे रात को तांगा मैसूर पहुँचा। तांगे वाले ने पुलिस स्टेशन पर तांगा रोका और रिपोर्ट की। संयोगवश डी० एस० पी० वहाँ थे, वे ४-५ पुसिल जवानों के साथ तांगे के For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ पास पहुँचे । नवयुवक व्यापारी के मुँह से फेन निकल रहा था। डी० एस० पी० ने सिविल सर्जन को बुलाया । फिर कोट आदि जेबें टटोलीं तो कुल ५०७००) रुपये के नोट, माल खरीदने की सूची, कर्नाटक रेस्टोरों की एक स्लिप मिली । डी० एस० पी० को समझते देर न लगी कि यह मध्य प्रदेश का प्रतिष्ठित व्यापारी है, दक्षिण भारत में माल खरीदने आया है । ताँगे वाले के बयान लिये । उसने सच्चाई के साथ सभी घटनाएँ स्पष्ट कह दीं । ताँगे वाले की ईमानदारी से डी० एस० पी० बहुत प्रभावित हुए । फिर डी० एस० पी० ने कर्नाटक रेस्टोरों को फोन करके रोजनामचा लेकर बुलाया । इतने में सिविल सर्जन अपने दल-बल सहित वहाँ जा पहुँचे । उन्होंने व्यापारी के रोग की भलीभाँति जाँच की और बताया कि यह रोगी अधिक से अधिक एक घंटे का मेहमान है । सतत रक्त प्रवाह के कारण इसका बचना असम्भव है | डॉक्टर ने अथक प्रयत्न करके नवयुवक व्यापारी की मूर्च्छा दूर की । होश में आने पर उसने धीरे से कहा - मैं कृष्णराज सागर पुल की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था कि एकाएक चक्कर आ गया, मैं जमीन पर गिर पड़ा। जैसे-तैसे साहस करके दुबारा सीढ़ियाँ चढ़ने लगा कि मुझे फिर चक्कर आ गया । उसके बाद क्या हुआ मुझे पता नहीं । होश में आने पर मैंने अपने-आपको पाया कि मैं एक ताँगे में जा रहा हूँ । तांगे वाले की हमदर्दी और सेवा से मैं बहुत प्रभावित हुआ, और उसे १०० ) रु० देने लगा, किन्तु उसने नहीं लिये। फिर मैंने उसे ५००) रु० दिये, लेकिन उसने लिये या नहीं ? मुझे मालूम नहीं, क्योंकि मुझे पुनः बेहोशी आ गई थी । मुझे पता नहीं, ताँगे वाले ने वे ५००) रु० लिये या नहीं । ताँगे वाला बहुत ही ईमानदार, नेक और सेवाभावी मालूम होता है ।" इतने में कर्नाटक रेस्टोरों के मैनेजर आ गये । इन्होंने रोजनामचा बताया, जिसमें लिखा था— महेशचन्द्र कौल, फर्म – महेशचन्द्र गिरिजाशंकर कोल | निवासी मालपुरा, जि० बस्तर ( म०प्र०) । तीन दिन ठहरने की स्वीकृति थी । इसके पश्चात् महेश कौल ने बहुत ही क्षीण स्वर में कहा – “अब मैं कुछ ही मिनटों का मेहमान हूँ । ताँगे वाले ने मेरो खूब सेवा की है, इसे ५ हजार रुपये मेरी ओर से इनाम दे देना । मैं ५०८००) रु० लेकर घर से चला था । दो सौ रु० खर्च हो गए । ५०७००) रु० सुरक्षित हैं । आप मेरी फर्म के नाम पर फोन कर दें । मेरा छोटा भाई गिरिजाशंकर आ जाएगा ।" डी० एस० पी० ने भी बहुत सहानुभूति बताई । कहा - तांगे वाले को आपने ५००) दिये थे, लेकिन वे उसने लिये नहीं; आपके कोट की जेब में रख दिये थे । सचमुच ताँगे वाला बहुत ईमानदार व्यक्ति है । इसकी ईमानदारी जनता को ईमानदार बनने का पाठ पढ़ाती है । मैंने बहुत-से ताँगें वाले देखे हैं, मगर ऐसा तांगे वाला नहीं देखा । आपकी बेहोशी हालत में वह ५०७००) रु० अपने कब्जे में करके आपका For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो धार्मिक, वे ही सेवापात्र २३७ गला घोंटकर जहाँ चाहे भाग सकता था पर जहाँ धार्मिकता का प्रश्न है, वहाँ न तो पर का हनन होता है, न स्वयं को। इसमें धर्मात्मा के ४ लक्षण पूर्णतया मौजूद हैं(१) कभी प्रमाद न करना, (२) प्रतिदिन परमात्म-प्रार्थना करना, (३) पुरुषार्थपरायणता एवं (४) प्रामाणिकता पर दृढ़ रहना। महेश कौल डी० एस० पी० के कथन को ध्यानपूर्वक सुन रहा था। दो मिनट बाद ही उसे रक्त की के हुई और उसी में उसकी इहलीला समाप्त हो गई। तमाम पुलिस स्टाफ, सिविल सर्जन एवं रेस्टोरा के स्टाफ ने यह निर्णय किया कि ताँगे वाले ने महेश कोल की जी-जान से सेवा की है, इसलिए इसके शव के अग्नि-संस्कार का अधिकारी यह ताँगे वाला ही है । ताँगे वाले ने काँपते हाथों 'कौल' के शव का अग्निसंस्कार किया और अश्रु पूर्ण नेत्रों से भावभीनी विदाई दी। शव यात्रा के सभी यात्री तांगे वाले की ईमानदारी, सेवाभावना एवं त्यागवृत्ति की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा कर रहे थे। उसकी दृढ़धर्मिता के प्रति सभी नतमस्तक थे। तीसरे दिन महेश कौल के छोटे भाई गिरिजाशंकर आए । उन्हें अपने बड़े भाई की मृत्यु का असह्य दुःख हुआ, साथ ही ताँगे वाले की ईमानदारी, उदारता एवं निःस्वार्थ सेवावृत्ति से अपार आनन्द भी हुआ। गिरिजाशंकर ने विचार किया कि भाई साहब पचास हजार रुपयों का माल खरीदने आए थे, पर वे असमय में ही चले गये । तब मैं ये रुपये वापस क्यों ले जाऊँ? बड़े भाई की स्मृति रूप तांगे वाले की नि:स्वार्थ सेवा के उपलक्ष्य में उसे दान क्यों न कर दूं ? फलतः गिरिजाशंकर ने वह पचास हजार की बृहद् धनराशि तांगे वाले को देते हुए कहा- "लो ये रुपये तुम्हारे तथा तुम्हारे बच्चों के काम आएंगे।" परन्तु ताँगे वाले ने दोनों हाथ जोड़कर कहा--"भाई ! आप इसके लिए मुझे क्षमा करें । मैं आपकी इस आज्ञा का पालन करने में असमर्थ हूँ। आप जो धनराशि दे रहे हैं, उसका मूल्य है, पर धर्म और ईमान तो अमूल्य हैं । आप तो मुझे यह आशीर्वाद दें कि मैं सतत अपनी अमूल्य निधि ईमानदारी और धार्मिकता पर डटा रहूँ। वे ही मुझे प्राप्त होती रहें । मैं मानता हूँ, ऐसा होने पर मैं सबसे बड़ा धनिक हूँ। रही बात बच्चों की, सो वे अपने भाग्य के निर्माता स्वयं ही हैं । गरीबी में धर्म और ईमान बना रहे. मेरे तथा मेरे परिवार के लिए यही सर्वस्व है।" गिरिजाशंकर के मुंह से अनायास ये उद्गार निकले-"तुम मनुष्य नहीं, मनुष्य के रूप में देव हो । मैं अपने भाई को खोकर तथा तुम-से दृढ़धर्मी, त्यागवृत्ति वाले ईमानदार भाई से ईमानदारी आदि का बोधपाठ लेकर देश लौट रहा हूँ। सर्वत्र मैं तुम्हारी ईमानदारी और दृढ़धर्मिता की चर्चा करूंगा।" ___ बन्धुओ ! यह है वर्तमान युग में दृढ़धर्मिता का ज्वलन्त उदाहरण ! ऐसे दृढ़धर्मी पुरुषों का सतत सत्संग जीवन को धन्य और पावन बना देता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ ऐसे धार्मिक को आचारांग' में धर्मवेत्ता और ऋजु (सरल) कहा गया है . भगवती सूत्र में ऐसे दृढ़र्मियों के लिए कहा गया है 'धम्मिया, धम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणा....... वे धार्मिक होते हैं, अपनी जीविका भी वे धर्मपूर्वक करते हैं, व्यापार-व्यवसाय में वे कदापि अधर्माचरण नहीं करते । धर्म के लिए अपने प्राण तक न्योछावर करने में उन्हें हिचक नहीं होती। दृढ़र्मियों के ऐतिहासिक उदाहरणों में अर्हन्नक श्रावक, कामदेव श्रावक, हकीकतराय, गुरु तेगबहादुर, जिनदास श्रावक, सुभद्रा सती आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। अर्हन्नक श्रावक को धर्म से विचलित करने के लिए देवता ने बहुत प्रयत्न किया, परन्तु अर्हन्नक ने अपने धर्म को कतई न छोड़ा, न ही अन्तःकरण के किसी कोने में अधर्म को अपनाने या धर्म का त्याग करने को बिलकुल तैयार न हुए । कामदेव श्रावक पर देव ने भयंकर से भयंकर उपसर्ग किये, मगर वे अडिग रहे । सुभद्रा सती को धर्म छोड़ने के लिए उसके पति और ससुर आदि ने खूब कष्ट दिये, परन्तु वह अपने धर्म से न डिगी । जिनदास श्रावक के जब पाँच पुत्र देव के निमित्त से मारे गए, तब भी उसने धर्म नहीं छोड़ा। धार्मिकों का संग एवं सेवा : सुखप्रद इस प्रकार दृढ़र्मियों के सम्पर्क में रहने वाला उनका परिवार भी धर्म पर दृढ़ हो जाता है। उसमें भी सत्यता, ईमानदारी आदि धर्म के संस्कार कूट-कूटकर भर जाते हैं। ऐसा एक भी सच्चा धार्मिक जहाँ होगा, वह अपने आश्रितों को डूबने से बचा देगा, उसके पुण्य प्रभाव से सभी आफतें एक-एक करके दूर हो जाती है । एक धर्मात्मा अनेक पापियों को बचाये रखता है। एक बार २१ व्यक्ति बाग में गये थे, उनमें से एक दृढ़धर्मी धर्मात्मा था, उसको हटाते ही बीसों पर बिजली गिर गई। इसलिए धार्मिकों का सत्संग, उनकी सेवा में निवास, उनका सम्पर्क सदैव सुखदायी होता है। उनकी सेवा में रहने से कष्ट भी कष्ट नहीं प्रतीत होता । उनकी सेवा करने का लाभ तो भाग्य से ही मिलता है । धार्मिकों की सेवा पुण्य का खजाना बढ़ा देती है, जिससे सुख की प्राप्ति अनायास ही होती है । ऐसे धार्मिक दो कोटि के व्यक्ति हो सकते हैं, जो श्रु तचारित्र धर्म का पालन करते-कराते हैं—व्रती श्रावक और महाव्रती साध । इन दोनों में उत्कृष्ट धार्मिक महाव्रती साधुवर्ग है। जिनकी सेवा महाफलदायिनी होती है । इसलिए महर्षि गौतम ने कहा है 'जे धम्मिया ते खलु सेवियव्वा' १. आचारांग ३/१— 'धम्मविऊ उज्ज' For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं ऐसे जीवन की चर्चा करना चाहूँगा, जो पाण्डित्य-पूर्ण जीवन जीते हैं, जिनसे जीवन की महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर पूछा जा सके, समाधान किया जा सके । गौतमकुलक का यह ६०वाँ जीवनसूत्र है । वह इस प्रकार है जे पंडिया ते खलु पुच्छियव्वा - जो पंडित हैं, उनसे ही पूछना चाहिए । पंडित कौन और कैसा होता है ? इस सम्बन्ध में मैं पहले कह चुका हूँ । फिर भी उसके अन्य पहलुओं पर विचार कर लेना आवश्यक है पण्डित शब्द ब्राह्मण अर्थ में रूढ़ यद्यपि पण्डित और विद्वान् शब्द एक ही अर्थ के द्योतक हैं तथापि भारतवर्ष में खासकर हिन्दू समाज में वे दोनों एक अर्थ में प्रचलित नहीं हैं । यहाँ मुख्यरूप से पण्डित केवल विद्वान् को नहीं कहा जाता, अपितु भारत के ब्राह्मण जातीय हर व्यक्ति को पण्डित कहा जाता है, फिर वह चाहे विद्वान् हो या अविद्वान् । ब्राह्मण कुल में जन्मा हुआ निरक्षर व्यक्ति भी पण्डित कहलाता है । कोई ब्राह्मणेतर संस्कृत का विद्वान् हो, तो भी उसे पण्डित कहते हुए वर्ण व्यवस्था - वह भी जन्मना वर्णव्यवस्था के पक्षधर घबराते हैं । हमें इसका प्रत्यक्ष अनुभव है । हमारे पड़ोस में एक ब्राह्मण रहते थे, वे बेचारे अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे । थोड़ा बहुत पूजा-पाठ कर लेते थे । किन्तु उन्हें गाँव के बहुत से लोग कहा करते थे -- पाँव लागू पण्डितजी ! परन्तु कोई ब्राह्मणेतर विद्वान् होता उसे वे लोग अपने संस्कारवश न तो पण्डितजी कहते थे और न ही उन्हें प्रणाम करते । बैंक में एक जैन पण्डितजी का खाता था । चैक भुनाने जब वे जाते तो बैंक का क्लर्क उन्हें पूछता था - " आप तो जैन हैं, पण्डित कैसे हैं ? " यद्यपि संस्कृत मध्यमा उत्तीर्ण हो जा जाने पर पण्डित की उपाधि से उसे अलंकृत किया जाता है । वह अपने नाम के पूर्व पण्डित शब्द लगा सकता है । फिर भी रूढ़ समाज उसे पण्डित कहने से सकुचाता है । काशी में एक डाक्टर साहब जाति से ब्राह्मण थे, वह एक जैन पण्डित को ब्राह्मण जानकर नमस्कार करते थे, पर जब उन्हें पता चला कि वे ( जैन विद्वान् ) जैन हैं, तब उन्होंने नमस्कार करना बन्द कर दिया, शास्त्रीजी कहने लगे । For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० आनन्द प्रवचन : भाग ११ ये और इस प्रकार के उदाहरण यह बताते हैं कि पण्डित शब्द ब्राह्मण का पर्यायवाची बन गया । ब्राह्मण प्रायः अध्यापक का कार्य करते थे, इसलिए पण्डितजी अध्यापक का विशेषण बन गया। पण्डित शब्द के विकृत रूपान्तर यों तो पण्डित शब्द बहुत पुराना है। इसकी व्युत्पत्ति पण्डा शब्द से हुई है। बृहत्कल्पसूत्रवृत्ति में इस प्रकार का अर्थ किया गया है 'पण्डा बुद्धिः सा संजाता अस्येति पण्डितः पण्डा कहते हैं-बुद्धि को। उससे जो युक्त हो वह पण्डित है। कालान्तर में इसके नानाविधरूप चल पड़े। पांडे, पंडा, पांडेय, पंडत आदि अपभ्रश रूप भी धीरे-धीरे जन-जन में घुल-मिल गए। जैसे-जैसे शब्द में टूटफूट होती गई, वैसे-वैसे इसके अर्थ में भी विकृति आती रही । पण्डित में से 'इ' का लोप होकर पंडत हो गया। 'इ' बीजाक्षर कोष के अनुसार 'अग्नि' का प्रतीक वर्ण है। इसका मतलब यह हआ कि पण्डित में से 'इ' रूप अग्नि' के खण्डित होते ही उसमें से आचरण की गर्मी निकल गई वह ठंडा-शीतल हो गया। दूसरे शब्दों में कहें तो पण्डित की साख लोक-जीवन में घट गई, वह लालच से घिर गया। 'पंडत' का अर्थ हो गया रटे-रटाए शब्दों को दुहराने वाला किताबी प्राणी । अर्थात जो बोलता बहत है पर करता नहीं है । जिसकी कथनी-करनी एक नहीं है । वह केवल शास्त्रों का पिष्टपेषण करने वाला रह गया, उसमें अर्थज्ञान का विकास नहीं हुआ। पण्डित शब्द का मेरुदण्ड : बुद्धि पण्डित शब्द का मेरुदण्ड बुद्धि है । प्रयोग के अनुसार बुद्धि के विभिन्न रूप प्रचलित हैं। तत्त्वज्ञान में लगाने वाली बुद्धि पण्डा है । जिसमें पण्डा हो वह पण्डित है । धारण करने वाली बुद्धि को मेधा कहते हैं। जिसमें मेधा हो, वह मेधावी है। आत्म-कल्याण में लगने वाली बुद्धि को ज्ञान कहते हैं। विभिन्न कलाओं और शिल्प में प्रयत्न बुद्धि विज्ञान कहलाती है। विद्वान् की अपेक्षा पण्डित का क्षेत्र और दायित्व व्यापक है। किसी भी शास्त्र-विशेष में पारंगत होने से उसे विद्वान् कहा जा सकता है, पण्डित नहीं । पण्डित होने के लिए शास्त्र ज्ञान के साथ-साथ चारित्रिक गुणों का होना आवश्यक है । सीखने की कला में प्रवीण होना विद्वत्ता का चिन्ह है, जबकि अपने ज्ञान और जीवन से दूसरों को सिखाने की क्षमता प्राप्त करना पाण्डित्य की ओर गमन है। आज के पण्डित ___ आज का पण्डित नामधारी शास्त्र की व्याख्या तो अच्छी करता है किन्तु उसका वह ज्ञान जीवन से जुड़ा हुआ बहुत कम है। इसका अर्थ यह हुआ कि पण्डित प्रायः शास्त्रगर्जन से सम्बन्धित है, उसका जीवन आचरण से कटा हुआ है महाभारत वनपर्व में स्पष्ट कथन है For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों २४१ यस्तु क्रियावान स एव पण्डितः -जो ज्ञान के साथ-साथ क्रियावान है--आचरण में सक्रिय है, वही पण्डित है । जो ज्ञानव्यसनी तो लगता है, किन्तु आचरणशून्य है, उसे पण्डित कैसे कहा जा सकता है ? विक्रम की ११वीं शताब्दी में रामसिंह मुनि ने 'सावयधम्मदोहा' में पण्डित के चरित्र को आध्यात्मिक कसौटी पर कसा और पाया कि पण्डित, जो कभी आध्यात्मिक ज्ञानयुक्त जीवन जीता था, आज वह कोरा शास्त्रज्ञ रह गया है। उसका नाता परमार्थरूपी कण से न रहकर ग्रन्थ और उसके अर्थरूपी भुस्सा से हो गया है। अतः उन्होंने पण्डित पर करारी चोट की पंडित-पंडित पंडिया, कण छंडिवि तुस खंडिया। अत्थे गंथे तुट्ठोसि, परमत्थु ण जाणइ मूढोसि ॥ -हे अतिशय पाण्डित्य के धनी पण्डित ! तूने धान्यकण को छोड़कर तुस (भुस्सा) ही कूटा है। तुझे ग्रन्थ और अर्थ से सन्तोष है। परमार्थ को तू नहीं जानता, इसलिये पण्डित कहलाकर भी मूढ़ है। ऐसे पण्डितों से दूसरों को क्या मिल सकता है, जो खुद ही अन्धेरे में हों? दूसरों को ज्ञान देने वाले, व्याख्यान बघारने वाले पण्डित जब स्वयं अपनी गुत्थी नहीं सुलझा सकते, वे पण्डित नहीं, मूढ़ हैं । संत कबीर ने ऐसे ही पण्डितमानियों के लिये कहा है पण्डित और मशालची दोनों सूझे नाहीं। औरन को करै चांदना, आप अन्धेरे मांही ।। . भावार्थ स्पष्ट है। एक जगह बहुत-से पण्डितमानी इकट्ठे होकर वाद-विवाद कर रहे थे। विवाद का विषय था पण्डिते च गुणाः सर्वे, मूर्खे दोषा हि केवलम् अर्थात्-पण्डितों में तो सब गुण ही गुण हैं, और मूर्ख में केवल दोष ही दोष हैं। पर्याप्त वाद-विवाद के बाद सर्वसम्मति से यह तय हुआ कि पण्डित में और तो सारे गुण ही गुण हैं, दोष केवल मूर्खता का है। इस अनूठे अर्थ की खोज करके सभी फूले नहीं समा रहे थे। पण्डित का आभूषण मूर्खता है तो वह पण्डित हुआ ही कैसे ? इसीलिए महर्षि गौतम ने स्पष्ट कह दिया'जो वास्तव में पण्डित हो, उसी से पूछो' निःसार का उपासक पण्डित नहीं जो लोग स्वयं अविद्यामूर्ति हैं, उनसे कुछ भी पूछना व्यर्थ है। तथागत बुद्ध ने अंगुत्तरनिकाय में स्पष्ट कहा है For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ "जिसका हृदय अविद्या से ढका है, वह अज्ञानी पण्डित के साथ रहकर भी धर्म के तत्त्व से नहीं जान पाता, जैसे कि कड़छी सूप के स्वाद को नहीं जान पाती।" ऐसे ही पण्डितों के कारण पण्डित शब्द का गौरव कट गया है। कबीरदास ने ऐसे पण्डितों की खूब खबर ली है पण्डित वाद बदै सो झूठा ।। राम के कहे जगत् गति पावै, खांड कहै, मुख मीठा । भावार्थ स्पष्ट है । कोरे शास्त्र-व्याख्यान करने से कैसे तर सकता है ? अतः कबीर ने तो साफ-साफ कह दिया है-केवल शास्त्रज्ञ पण्डित नहीं हो सकता, उसे जीवनज्ञ होना चाहिये। पर दिखाई कुछ ऐसा दे रहा है कि आज अधिकांश पण्डित कोरे शास्त्रज्ञ रह गये, उनका जीवन शास्त्रज्ञान में अटका रह गया, वस्तुतः वास्तविक खोज जीवन में होती है । कबीर ने शास्त्रज्ञ और जीवनज्ञ का भेद बता दिया है चारि वेद पढ़ाई करि, हरि सुन लाया हेत । बालि कबीरा ले गया, पण्डित ढूँढ़े खेत ॥ इसका यह आशय है कि ग्रन्थों को मथ डाला, लेकिन परमात्मा के प्रति प्रीति न बढ़ी । कबीर को स्वरूपाचरण की बाली मिल गई और पण्डित खेत ढूंढता रह गया। मध्यकाल में पण्डित जीवन का मैदान छोड़कर कहीं और भाग खड़ा हुआ; असलियत से आँख चुराई; वास्तविकता से पलायन किया। वह वाक्चातुर्य में फंस गया, कर्मकाण्डी हो गया। पाण्डित्य का स्थान पण्डिताई ने ले लिया। उसके पीछे पण्डिताई लग गई। समाज का प्रबुद्ध वर्ग पण्डित उसे कहता है, जो भोला-भाला है, सीधा है, अनुभवहीन है, दयनीय है, जिसे आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है, जो देशी भाषाएं या संस्कृत पढ़ाता है, पूजा-पाठ कराता है या जो, साधु-संन्यासियों का जहाँ प्रवेश नहीं हुआ या पदार्पण कठिनता से होता है, वहाँ शास्त्र सुनाता है, या किन्हीं पाठशालाओं में पढ़ाता है, या विवाहादि कार्य सम्पन्न कराता है, ज्योतिष या वैद्यक के प्रयोग बताकर जीविका चलाता है या मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाता है, जो थोथे उपदेश देता है । ऐसा पण्डितवर्ग जीवन से विच्छिन्न होकर बड़ी-बड़ी डींगें मारता है। संतों को यह कांटे की तरह खटका कि पण्डित केवल आचरणशून्य शास्त्र में चला गया है। इस कारण वह असार वस्तु को अपनाने लगता है और सार वस्तु को फेंक रहा है। रैदास जैसे अनुभवी सन्त ने कहा थोथो जनि पछोरौ रे कोई, सोई रे पछोरौ, जा में निजकन होई । थोथा पण्डित थोथी बानी, थोथी हरि बिन सबै कहानी ।। For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों २४३ आशय यह है कि-अरे पण्डित ! निःसार वस्तु को क्यों सूप में रखकर फटक रहा है ? सूप में उसी को पछौर-फटक, जिसमें आत्मतत्त्व-निजत्व का कोई अंश हो। अन्यथा थोथा पण्डित है, और उसकी वाणी भी थोथी है । इसका अर्थ यह हुआ कि जिसमें वाग्वदग्ध्य है, वह विद्याव्यसनी तो है लेकिन शास्त्रानुसार क्रियावान नहीं है, वह पण्डित नहीं है। पण्डित का सीधा-साधा समीकरण इस प्रकार है ज्ञान+आचरण=पण्डित ज्ञान ही ज्ञान=अपण्डित आचरण ही आचरण= अपण्डित । इसलिए महाभारत में तथा ठाणांगसूत्र (ठा० ४) की टीका में पण्डित शब्द का लक्षण उपलब्ध है पठकाः पाठकाश्चैव ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः। सर्वे व्यसनिनो मूर्खाः, यः क्रियावान् स पण्डितः ॥ -ज्ञानार्थी, अध्यापक एवं जो अन्य शास्त्रचिन्तक हैं, चारित्रवान होना ही उनकी पहिचान है; अन्यथा सभी (विद्या) व्यसनी और मूर्ख होते हैं। जो क्रियावान (आचारवान) है, वही पण्डित है । थोथे उपदेश-सिद्धान्तहीन मार्गदर्शन ही पण्डित के व्यक्तित्व को ले डूबा । उपदेश तो ये पापों के त्याग का करते हैं, अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का देते हैं, लेकिन स्वयं समाज में सम्प्रदायान्धता, कटटरता और पक्षपात फैलाते हैं, कलह और झगड़ों का बीज बोते हैं। किसी ने एक बार अपनी भाषा में कहा था-"पण्डितजी में एक ऐब हैदिन में बड़ी मीठी आवाज में भाषण देउत हैं, और रात में १२ बजे तक खाउतपीउत हैं।” मन-मुटाव और तोड़-फोड़ का या अमुक-तमुक के तिरस्कार-बहिष्कार का नारा लगाकर झगड़े का बीजारोपण अधिकांश पण्डितों द्वारा ही किया जाता है । वे ठोस रचनात्मक आधार देकर समाज के गिरते हुए-डिगते हुए युवावर्ग या धर्मश्रद्धा से विचलित होते हुए वर्ग को थामने का कार्य नहीं करते । स्थिरीकरण, उपगृहन या उपबृहण, वात्सल्य और प्रभावना शब्द केवल व्याख्यान सभा या शास्त्र-स्वाध्याय में ही सीमित होकर रह गये हैं, जीवन की देहली में उनका आलोक नहीं फैल पाया है। इसलिए पण्डित लोग प्रायः बहिरात्मा बने हुए हैं। इसीलिये अनगारधर्मामृत की टीका में विक्रम की १३वीं शताब्दी के ग्रन्थकार पं० आशाधरजी ने एक श्लोक उद्ध त किया है पण्डितभ्रष्टचारित्रर्बठरेश्चतपोधनः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ -चारित्रभ्रष्ट पण्डितों ने और बठर (पोंगा पंथी) तपस्वियों ने जिनचन्द्र के निर्मल शासन (संघ) को मलिन कर दिया। For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ पण्डित पद का अवमूल्यन पिछले दो दशकों में पण्डित शब्द का प्रयोग बहुत ही उदारतापूर्वक होने लगा है, किन्तु पहले दश सहस्र लोगों में एक पण्डित हुआ करता था, आजकल तो एक छोटे-से कस्बे में ही अनेक पण्डित मिल जाते हैं। किसी जैन शाला का मिडिल पास प्राथमिक कक्षाओं का शिक्षक भी पण्डित कहलाता है । हवन, झाड़-फूंक, विवाह आदि सम्पन्न कराने वाले भी पण्डित कहलाते हैं, भले ही वे पंचपरमेष्ठीमंत्र का उच्चारण भी अशुद्ध करते हों। पाँच रुपये तक वार्षिक चन्दा देकर विद्वत्सभा जैसी संस्था का सदस्य बनकर भी पण्डित-पद प्राप्त किया जा सकता है। ऐसे आरोपित पण्डितों में ज्ञान हो या न हो, दम्भ, क्रोध, लोभ, पदलोलुपता, माया, चाटुकारिता, निर्जीव नाम की चाह, थोथे यश की कामना आदि अनेक धब्बे पण्डित पद पर पड़े हुए हैं। बीसवीं सदी में इन नामधारी तथाकथित पण्डितों में एक विचित्र दुर्गुण घर करता जा रहा है । वह है-धनिकों की खुल्लमखुल्ला चाटुकारी। धनिकों से पैसा खींचने के लिये मंच पर से ही उनके प्रशस्ति गीत गाना, अभिनन्दन-पत्र देना-दिलाना। उन्हें पंचकल्याणक उत्सव के समय राजा या इन्द्र का पद लेने के लिये आकर्षित करने की कला में प्रवीण पण्डित क्या अपने पद का अवमूल्यन नहीं करता ? साधु जीवन में हमें कई लोगों से वास्ता पड़ता है। मुझे दीक्षा लिये कुछ ही वर्ष हुए थे कि एक बड़े कस्बे में मुझे एक श्रावक मिले; वे सम्प्रदाय से जैन एवं कट्टर जातिवादी थे । एक बार पण्डित शब्द के बारे में चर्चा चली तो उन्होंने अपने हृदय में उठती हुई टीस को व्यक्त करते हुए कहा-“महाराजश्री ! आप जानते हैं, पण्डित किसे कहते हैं ? मैंने कहा-“मैं तो यही समझता हूँ, पण्डित यानी विद्वान, वक्ता या लेखक !" उन्होंने कहा- ऐसा नहीं, जैसे पण्डित में तीन अक्षर हैं, वैसे ही उसकी विकृति सूचित करने वाले तीन दुगुण हैं-'प' यानी पापी या पाजी, 'ड' यानी डाकू और 'त' यानी तस्कर ! तीनों मिलकर हुआ पण्डित ! पण्डित का यह विकृतिसूचक अर्थ भले ही व्यंग और विनोदपूर्ण हो, लेकिन जो व्यक्ति इतना धर्मपरायण है, दान करने में अग्रणी है, धर्मशाला आदि बनवाने वाला है, वह सहसा पण्डित का ऐसा अपमानसूचक अर्थ नहीं कर सकता। कबीर के शब्दों में कहूँ तो पोथी पण्डित या मिथ्याभाषी को 'पण्डित' नहीं कहा जा सकता। हमारे अधिकांश पण्डितों की मनःस्थिति इतनी गिर गई है कि वे प्रमाद में डूब जाते हैं, दुनिया के घटनाचक्र से, नये-नये वाङमय से उनका परिचय शून्यवत् रहता है, वे अपने सीमित तत्त्वज्ञान, ग्रन्थों, परिभाषाओं और परम्पराओं से आगे बढ़ने का साहस नहीं कर सकते। अध्यात्म एवं आत्मा-परमात्मा की, सम्यग्दर्शन-मिथ्यादर्शन की एवं धर्म की लम्बी-चौड़ी चर्चा करने वाले उन तथाकथित पण्डितों के जीवन के For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों २४५ प्रति दृष्टपात करते हैं तो उनका पाण्डित्य प्रदर्शनमात्र सिद्ध हो जाता है, उनके जीवन का खोखलापन भी स्वतः प्रमाणित हो जाता है। वैदिक और जैन समाज का इतिहास बताता है कि मध्ययुग से पण्डितवर्ग उत्तरोत्तर दीनता और हीनता का शिकार बनता गया । ब्राह्मण पण्डित भी प्रायः वैश्यवर्ग और क्षत्रियवर्ग की चाटुकारिता करके जीया। वह जिस परम्परा और सिद्धान्तहीन रूढ़ि में जीता आया, उसी रूढ़ि और परम्परा पर गतानुगतिक बनने की प्रेरणा वह समाज को देना चाहता है । तेजस्वी मार्गदर्शक पण्डित इस कारण कुछ तेजस्वी सिद्धान्तजीवी ब्राह्मण-पण्डितों द्वारा ऐसी गलत परम्परा को तोड़ने पर वह बौखला उठता है और समाज को उन्हें जाति-बहिष्कृत करने की प्रेरणा देता है । एक ज्वलन्त उदाहरण लीजिये ___ आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी सच्चे पण्डित थे। वे अपने जीवन से समाज को मूक मार्गदर्शन देते रहते थे। वे सरस्वती की सेवा करने के उपरान्त अपनी बौद्धिक प्रतिभा का उपयोग किसानों को कृषिविज्ञान का मार्गदर्शन करने में करते थे। एक बार वे खेत से लौट रहे थे कि उन्हें हृदयविदारक चीख सुनाई पड़ी। वे उसी दिशा में दौड़ पड़े और देखा कि चीखने वाली एक अन्त्यज पासिन स्त्री है, जिसके पैर में सांप ने डस लिया है । आचार्यजी ने तुरन्त अपनी जनेऊ तोड़ी और सर्पदंश से प्रभावित हिस्से पर कसकर बाँध दी। फिर चाकू निकाल कर उतने भाग का माँस व रक्त काटकर निकाल लिया। फलतः पासिन की जान बच गई । तब तक कुछ गाँव वाले भी घटनास्थल पर आ पहुँचे । गाँव के ब्राह्मणों में इस घटना को लेकर भूचाल उठ खड़ा हुआ। कहने लगे—यह धर्मविरुद्ध कार्य है। एक पढ़े-लिखे ब्राह्मण ने अपनी पवित्र जनेऊ एक नीच जातीय स्त्री के पैर से स्पर्श कराया। कहाँ एक अति पवित्र वस्तु और कहाँ एक शूद्र स्त्री का अपवित्र पैर ! यह तो सरासर ब्राह्मण के यज्ञोपवीत का अपमान है। फिर परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीतरहित होने की स्थिति में ब्राह्मण का मौन रहना आवश्यक है, किन्तु द्विवेदीजी यज्ञोपवीतरहित होने पर उस भी अन्त्यजा को सांत्वना देते रहे । गाँव के एक छोर से दूसरे छोर तक खलबली मच गई। बात इतनी बढ़ी कि कुछ पुरातनपंथी ब्राह्मण-पण्डित द्विवेदीजी को जाति-बहिष्कृत करने पर उतारू हो गए। द्विवेदीजी अपने को निर्दोष साबित करते रहे। समाज के कुछ प्रबुद्ध और प्रगतिशील व्यक्तियों ने बीच-बिचाव किया। उनके प्रयत्नों से उलझी हुई गुत्थी सुलझ गई। बड़ी धींगाधींगी के बाद तय हुआ कि किसी के प्राण बचाने से ब्राह्मण का यज्ञोपवीत अधिक पवित्र होता है। ऐसी स्थिति में यज्ञोपवीतरहित वाणी भी पवित्र For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ होती है । इस तरह वह विकृत बवंडर एक सुकृत शुभंकर रूप में परिवर्तित हो गया। ___ सारे ग्रामवासी पं० द्विवेदीजी के इस प्रत्यक्ष मार्गदर्शन को शिरोधार्य करके ऊंच-नीच और छुआछूत का भेदभाव छोड़कर परस्पर गले मिले। द्विवेदीजी के चरण श्रद्धापूर्वक स्पर्श किये। उनसे क्षमा माँगी। ___ यह है, तेजस्वी मार्गदर्शक पण्डित का व्यक्तित्व ! पण्डित को युगस्पर्शी परिभाषा कवि सोनवलकर ने पण्डित की युगस्पर्शी परिभाषा इस प्रकार की हैजिनके ज्ञानसूर्य में जीवन-अनुभव की ऊष्मा हो। जिसके प्रवचन में मार्मिक संवेदन की सुषमा हो । भवबन्धन के साथ-साथ जो रूढ़िजाल' भी काटे । प्रभुप्रसाद के साथ-साथ जो समता मिसरी बांटे ।। जाति-वर्ण-कूल-गोत्रभेद को जिसकी दृष्टि न देखे । औरों के अवगुण विकार जो करे सदा अनदेखे । मन से, वचन-कर्म से जो हो सत्पथ का अनुगामी । कथनी और करनी में जिसकी रहे न कोई खामी ॥ स्पर्श-रूप-रस-गन्ध बीच जो कमलपत्र-सा रहता। बँधता नहीं पंथ-काई से, निर्मलनीर सा बहता ।। सबसे जुड़कर भी जो भीतर अनासक्त है। वह ज्ञानी है, कर्मवीर है, वही भक्त है ॥ सचमुच कवि की अनुभव संस्पृक्त वाणी में पण्डित के सभी लक्षण आगये हैं । पण्डित : कितना आध्यात्मिक, कितना व्यावहारिक ? इन सब लक्षणों को देखते हुए पण्डित बहुत ही सम्मानसूचक शब्द है । जो विशिष्ट ज्ञानियों के लिए प्रयुक्त होता है। यह सम्बोधन किसी यूनिवर्सिटी से प्राप्त बी.ए., एम.ए. आदि डिग्रियों की तरह उपलब्ध नहीं किया जा सकता । वह ज्ञानयुक्त आचरण से अजित किया जा सकता है। 'पण्डित' शब्द से मस्तिष्क में ऐसे व्यक्ति की छवि उभरती है, जो शास्त्रों का मर्मज्ञ हो, प्रवचनकला में प्रवीण हो, कलम का धनी हो, तथा जिसकी कथनी-करनी एक हो। इसके अतिरिक्त जो जिनवाणी-माता के भण्डार में स्वबौद्धिक शोध-बोध का अर्घ्य सतत चढ़ाकर उसे समृद्ध बनाता रहता हो । जिसके शास्त्र-व्याख्यान और जीवन-व्यवहार दोनों में वैपरीत्य हो उसे पण्डित मानना, ‘पण्डित' शब्द का उपहास है । परमात्म प्रकाश में आचार्य योगेन्दुदेव ने पण्डित शब्द की परिभाषा की है For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों देह विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ । परमसमाहि- परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥ - जो व्यक्ति परमात्मा - शुद्धात्मा को शरीर से भिन्न ज्ञानमय जानता है, जो आत्मानुभूतिरूप परम समाधि में सुस्थित है, वही पण्डित – अन्तरात्मा है । fron यह है कि जो अपने शरीर और शरीर सम्बन्धित पदार्थों के प्रति निरपेक्ष- निःस्पृह है, निराकांक्ष होकर जीता है, जिसे भविष्य की कोई चिन्ता नहीं होती और न ही वह किसी से पद, प्रतिष्ठा, भेंट-पूजा की अपेक्षा रखता है, वही वास्तव में पण्डित है । ऐसा पण्डित ही जिज्ञासु-जनों को बोध एवं मार्गदर्शन दे सकता है । वही गृहस्थ की अटपटी समस्याओं, उलझी हुई गुत्थियों को सुलझा सकता है । वही जीवन और जगत् के प्रति उदासीन होकर उसके युगलक्षी प्रश्नों का समाधान भी करता है । भगवद्गीता ने इसी बात को अपनी भाषा में व्यक्त किया हैयस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवजिताः । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥ यो न शोचति, न च कांक्षति । २४७ - जिसके सभी समारम्भ - सत्कार्य कामनाओं और संकल्पों से रहित होते हैं, जो अपने सारे कर्म ज्ञानरूप अग्नि में जलाता है, उसे ही तत्त्वज्ञ पुरुष पण्डित कहते हैं। जो न किसी प्रकार की चिन्ता करता ( सोचता ) है, और न आकांक्षा करता है । जो यह सोचता है— मुझे वह नहीं मिला, आकांक्षा भी करता है— मुझे यह मिलना चाहिए, मुझे वह मिलना चाहिए। जिसको नई-नई आकांक्षाएँ बाध्य करती रहती हैं, सुख-सुविधाओं के लिए जो लालायित रहता है, चाह और चिन्ता के चक्रव्यूह में वह ऐसा विवश हो जाता है कि शरीर और शरीर से सम्बद्ध पदार्थों की ही धुन जिसे लगी रहती है, जो आत्मा और आत्मगुणों के विचार से कोसों दूर हो जाता है, फिर भला वह 'पण्डित' बनेगा ही कैसे ? अठारहवीं सदी की ही बात है । बंगाल में कृष्णनगर के निकट एक गाँव में एक ब्राह्मण पण्डितजी रहते थे । नाम था - रामनाथ । वे बहुत दरिद्र थे । दरिद्रता उन पर लादी हुई नहीं थी, उन्होंने ही स्वेच्छा से दरिद्रता को ओढ़ लिया था । इतने निराकांक्षी एवं स्वाभिमानी कि किसी से कुछ भी माँगते नहीं थे, न उन्हें किसी वस्तु की लालसा थी । वे अपनी दरिद्रता की जिक्र तक नहीं करते थे, किसी के सामने । अहर्निश अपने अध्ययन-अध्यापन में निरत रहते थे । उनकी पत्नी के हाथों में सोने की चूड़ियाँ तो दूर रहीं, सुहाग चिह्नस्वरूप चूड़ियाँ भी न थीं, केवल लाल सूत का मोटा धागा वे अपनी कलाई पर बाँधे रखती थीं, सुहाग चिह्न के प्रतीक के रूप में 1 पण्डितों के गुणों और पण्डित को जंगली साधारण आँखों में कहाँ इतनी शक्ति होती है, ऐसे ऊंचाइयों को परखने की ? अतः लोग उन सादगी की मूर्ति बुनो रामनाथ कहते थे । For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ बूनो रामनाथ की प्रशंसा राजा कृष्णचन्द के कानों में पहुँची। उन्होंने उन्हें बुलाया, लेकिन उन्हें तो राजा से कोई चाह न थी, अतः जाते ही क्यों ? और जो कुछ वे चाहते थे, वह राजा के पास था ही कहाँ ? राजा ने उनसे पूछा-आपको कोई अनुपपत्ति तो नहीं है ? अर्थात कोई अभाव तो नहीं है अन्न, वस्त्र का ? पण्डितजी ने कहा- "मुझे कोई अभाव नहीं है । मेरे छात्र प्रतिदिन दो मुठी चावल दे देते हैं। मेरे आंगन में इमली का पेड़ है, जिसके पत्तों का साग बन जाता है। घर के पास ही कपास का एक पौधा भी है, जिसकी रूई से ब्राह्मणी सूत कात लेती है। सूत से एक कपड़ा भी तैयार हो जाता है। बस, इतनी ही मेरी आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति हो जाती है।" राजा ने आर्थिक सहायता लेने के लिए बहुत अनुरोध किया लेकिन उन्होंने साफ इन्कार कर दिला । अन्ततः राजा उनकी धर्मपत्नी के पास गया तो उसका भी वही उत्तर था। पति-पत्नी दोनों बिलकुल निःस्पृह थे। यह है-पण्डित का निःस्पृह, निराकांक्ष और संतोषी जीवन । सिर पर आकांक्षाओं की गठरी और काँख में लोकषणा आदि एषणात्रय का कुपथ्य लेकर ज्ञानसमुद्र की थाह नहीं ली जा सकती। जो पुराना पण्डित था, वह कोरा पण्डित नहीं था। वह समझता था, जैन शास्त्रों में वर्णित समत्वरस का पान करने-कराने के लिए व्यक्ति को सुख-दुःख से अतीत, आकांक्षाओं से रहित तथा तटस्थ बनना पड़ेगा। दिवंगत पं० सुखलालजी का जीवन भी कितना सादगी से ओतप्रोत, निसर्गनिर्भर, निरभिमानपूर्ण था। ज्ञान के लिए उन्होंने स्वयं को समर्पित कर दिया था। न थी प्रसिद्धि की चाह और न थी धन-कामना । एकमात्र ज्ञानार्जन में सारी शक्ति उन्होंने लगाई, उसका भी परिग्रह नहीं समाज को सर्वत्र सर्वदा मुक्तहस्त से वितरित करते गये थे। इस प्रकार प्राचीन पण्डित गृहस्थवर्ग का मार्गदर्शक था, गुरुजी था अध्यापक था, परामर्शक था और अभिभावक भी था। समाज पर आए हुए संकट-निवारण के लिए स्वयं जुट जाता था, वह समाज का अभिन्न सच्चा मित्र और रहवर बनकर सर्वथा बौद्धिक सहायता करता था। जब भी कोई कठिनाई, दुविधा या विघ्न-बाधा उपस्थित होती थी, तब समाज उससे सादर विचार-विमर्श करता था, उससे समाज के चित्त को समाधान प्राप्त होता था। इस प्रकार वह नई पीढ़ी का भाग्यविधाता और मार्गद्रष्टा होता था। अपनी आवश्यकताएं सीमित रखकर वह अपने जीवन को एक लोक-सेवक की भाँति समाजहितार्थ समर्पित करके जीता था। वह इतना निःपृह होता था कि समाज स्वतः आगे होकर उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करता, उसके सुख-दुःख की चिन्ता रखता था। पण्डित : बौद्धिक विकास के साथ आध्यात्मिक निष्ठा इतना सब करते हुए भी वह पण्डित आत्मविकास को भूलता नहीं था। कहना होगा कि पण्डित शब्द केवल बौद्धिक विकास से ही सम्बन्धित नहीं है, अपितु ज्ञान For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों २४६ और चारित्र, दर्शन और आत्मसुख, वीर्य (आत्मबल) और आत्मशुद्धि के लिए पराक्रम करने के रूप में आत्मिक विकास से भी सम्बन्धित है। क्योंकि आत्मिक विकास में पराक्रम करने वाला एवं तत्त्वज्ञान को सीखने-सिखाने वाला व्यक्ति पण्डित कहलाने का अधिकारी है । अभिधान राजेन्द्रकोश में पण्डित का कर्तव्य बताते हुए कहा है जं किंचु ववकम जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो । तस्सेव अंतरा खिप्पं, सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए॥ इसीलिए शंकराचार्य ने पण्डित की वृत्ति-प्रवृत्ति का संक्षेप में दिग्दर्शन करा दिया है आत्मविषया बुद्धिः येषां तेहि पण्डिताः । -जिनकी बुद्धि आत्मनिष्ठ है, वे ही वास्तव में पण्डित हैं। जिनकी बुद्धि आत्मा में ही स्वाभाविक रूप से ओतप्रोत है, आत्मभावों में रमण करती है, वह व्यक्ति शरीर और शरीर के सम्बन्धित विषयों, इन्द्रियविषयों का गुलाम नहीं होता, वह उनमें आसक्त होकर कर्मबन्ध नहीं करता, वह कर्मबन्धनों को तोड़ने के लिए स्वयं पुरुषार्थ करता है, दूसरों को भी बन्धनमुक्त करने के लिए परामर्श एवं प्रेरणा देता है । परन्तु जो स्वयं बन्धनों में पड़ा है, शरीर, मन और इन्द्रियों का गुलाम है, शरीर और शरीर से सम्बन्धित पदार्थों के प्रति आसक्त है, वह दूसरों को बन्धनमुक्त कैते कर सकता है ? या कैसे गुलामी से छुड़ा सकता है ? स्वयं स्वतंत्र हुए बिना दूसरों के परतन्त्रता की बेड़ियाँ कैसे काट सकता है ? वह पण्डित ही कैसे कहला सकता है ? मुझे एक रोचक दृष्टान्त याद आ रहा है___ एक पण्डित था । वह प्रतिदिन राजा को धर्मकथा सुनाया करता था। राजा उसे प्रतिदिन एक स्वर्ण मुद्रा देता था। पण्डित स्वर्णमुद्रा पाकर बड़ा प्रसन्न होता था। ___ एक दिन धर्मकथा सुनते-सुनते राजा कुछ विचार में डूब गया। सोचा'मैं प्रतिदिन धर्मकथा सुनता हूँ, बचपन से लेकर आज तक मुझे धर्मकथा श्रवण करते हुए वर्षों हो गये हैं, लेकिन उससे क्या लाभ हुआ ? मेरे जीवन में तो जरा-सा भी परिवर्तन नहीं हुआ। ऐसा क्यों ?' कथा समाप्त होते ही राजा ने कथावाचक पण्डितजी से पूछा- “पण्डितजी ! बचपन से मैं प्रतिदिन आप से धर्मकथा सुनता आ रहा हूँ। मेरे बाल सुनते-सुनते पक गए। शास्त्र कण्ठस्थ हो गये हैं। परन्तु अभी तक मुझे विषयों से अरुचि नहीं हुई । विकारों में मन्दता नहीं आई । इन्द्रियजन्य सुखोपभोग को छोड़ने की इच्छा नहीं होती। विषयों की गुलामी से मन मुक्त नहीं हुआ । नैतिकता की नींव भी अभी कच्ची है। कई बार तो नीति और धर्म पर से मेरी आस्था ही डगमगा जाती है। इतना For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० आनन्द प्रवचन : भाग ११ सुना है, अब तक सुन रहा हूँ, फिर भी हृदय नहीं भीगा। पण्डितजी ! क्या कारण है, इसका ?" पण्डितजी सुनकर विचार में पड़ गये। वे क्या उत्तर देते, इस प्रश्न का? पण्डितजी ने मौन रहने में ही अपना श्रेय समझा। किन्तु राजा प्रश्न का उत्तर लिए बिना कैसे पिंड छोड़ता ! राजा ने कहा-"आपको इस प्रश्न का उत्तर देना ही होगा, अन्यथा कल से आपसे धर्मकथा-श्रवण करना बन्द कर दूंगा। आपकी दक्षिणा भी बन्द हो जाएगी।" ___ यह सुनते ही पण्डितजी के देवता कूच कर गये । सोचने लगे-उत्तर न दंगा तो आजीविका भी बन्द हो जाएगी । अतः पण्डित बोले-“राजन् ! इस प्रश्न का उत्तर देने में कुछ समय चाहिए ।" राजा-"अच्छा, आज नहीं तो कल ही सही, पर इस प्रश्न का उत्तर अवश्य चाहिए।" चिन्ता में डबे पण्डितजी घर आये। आजीविका जाने का भय सिर पर सवार था। उनका मन आज किसी में भी कार्य नहीं लग रहा था। उनकी व्यग्रता छिपाने पर भी छिप नहीं रही थी। पुत्र ने पिता को चिन्तातुर देख पूछा-"पिताजी! आज आप दुःखी और चिन्तित क्यों हैं ?" पण्डितजी ने पहले तो कुछ नहीं कह कर बात टालनी चाही परन्तु अन्त में, पुत्र के अत्याग्रह पर उन्हें कहना पड़ा। उन्होंने अपनी सारी व्यथा-कथा कह सुनाई । पुत्र ने एकाग्रचित्त होकर बात सुनी। कुछ देर सोचकर हर्ष से बोला-"पिताजी ! कल मुझे राजभवन में ले चलना, मैं आपके आशीर्वाद से राजा के इस प्रश्न का उत्तर आसानी से दे सकूँगा।" पण्डितजी का पुत्र की बुद्धि पर विश्वास था। वे पुत्र की ओर से आश्वासन पाकर निश्चिन्त हो गये। दूसरे दिन पण्डितजी अपने पुत्र को लेकर राजभवन में जाने लगे। पुत्र ने मजबूत रस्से के दो पिंड साथ में ले लिये। पण्डितजी को पुत्र के इस आचरण से कुतूहल तो हुआ, पर वे बोले कुछ नहीं। राजभवन पहुँचकर पण्डितजी ने राजा को आशीर्वाद दिया। राजा ने कहा-“पहले मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिए; तब मैं शास्त्रश्रवण करूंगा।" पण्डितजी ने कहा-"राजन् ! आपके प्रश्न का उत्तर मेरा पुत्र देगा।" राजा ने ब्राह्मण-पुत्र की ओर देखा, आँखें तरेरकर बोला-“यह छोकरा मेरे प्रश्न का उत्तर देगा ?" ब्राह्मण-पुत्र-“राजन् ! प्यासा व्यक्ति सरोवर छोटा है या बड़ा, यह नहीं देखता; इसी प्रकार जिज्ञासु व्यक्ति को भी अपनी जिज्ञासा को तृप्त करने से प्रयोजन रहता है, छोटे-बड़े व्यक्ति से नहीं।" राजा ने साश्चर्य कहा-"तुम तो बड़े पण्डित-से लगते हो, अच्छा दो तो उत्तर ।" ब्राह्मण-पुत्र निर्भयता से आगे बढ़कर बोला For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों २५१ "राजन् ! सचमुच आप अपने प्रश्न का उत्तर चाहते हैं ?” राजा ने कहा - " निःसन्देह चाहता हूँ।” ब्राह्मण-पुत्र - " राजन् ! तब तो उत्तर पाने के लिये मैं जो कुछ कहूँ वह आपको करना पड़ेगा । मेरा कुछ अपराध हो तो क्षमा करना ।" 1 राजा - "बेशक ! मुझे स्वीकार है, तुम्हारी बात ।” ब्राह्मण-पुत्र – “ अच्छा तो आप इस सिंहासन से उतरकर इस खंभे के पास खड़े रहिए ।" और फिर ब्राह्मण पण्डित की ओर देखकर कहा – “पिताजी ! आप भी दूसरे खंभे के पास खड़े रहिए ।" राजा कुतूहलवश बोला - "यह सब क्या तमाशा है ?" ब्राह्मण-पुत्र - "राजन् ! यह तमाशा नहीं, आपके प्रश्न का उत्तर है ।" राजा और ब्राह्मण पण्डित दोनों एक-एक खंभे के पास खड़े हो गये । ब्राह्मणपुत्र ने राजा और पण्डित को रस्सी से बांधने लगा । इस पर राजा बोला - "यह क्या उद्दण्डता है ?" ब्राह्मण-पुत्र - "यह उद्दण्डता नहीं, आपके प्रश्न का उत्तर है । शान्त रहिए ।" जब ब्राह्मण-पुत्र राजा और पण्डितजी दोनों को बाँधकर एक ओर खड़ा हो गया, तब राजा ने कहा - " अरे ! अब तो खोल । तूने तो हमें हैरान कर दिया ।" ब्राह्मण-पुत्र बोला - " राजन् ! अब आप मेरे पिताजी को कहें कि वे आपके बन्धन खोलें ।" राजा उसकी ओर देखकर बोला- “ पण्डितजी ! मेरे बन्धन कैसे खोल सकेंगे, क्योंकि वे तो स्वयं ही बन्धन में हैं ?" ब्राह्मण-पुत्र —‘“अच्छा तो, आप ही मेरे पिताजी के बन्धन खोल दीजिए ।” राजा चिढ़कर बोला – “मैं भी बंधा हुआ हूँ, कैसे खोल सकूँगा उसके बन्धन को ? बँधा हुआ व्यक्ति कहीं दूसरे के बन्धन खोल सकता है ?" ब्राह्मण-पुत्र—“तो क्या मैं आप दोनों के बन्धन खोल सकता हूँ ?” राजा -“हाँ तू खोल सकता है। जल्दी खोल, हम घबरा रहे हैं ।" ब्राह्मण-पुत्र ने दोनों के बन्धन खोल दिये और बोला - "राजन् ! मैंने आपके प्रश्न का उत्तर दे दिया है ।" राजा - " उत्तर कहाँ दिया ? हमें परेशान कर दिया, तूने ब्राह्मण-पुत्र बोला – “राजन् ! क्षमा करिये। प्रश्न का उत्तर देने के लिए यह सब करना आवश्यक था ।" ין बन्धुओ ! आप समझ गये होंगे । ब्राह्मण- पण्डित स्वयं सांसारिक बन्धन, आजीविका चले जाने का भय आदि विकारों में जकड़ा हुआ था, वह दूसरों को बन्धनमुक्त कैसे कर सकता था ! इसी प्रकार जो पण्डित स्वयं सुविधाभोगी है, आशाओं और आकांक्षाओं का गुलाम बना हुआ है, धनिकों की चापलूसी करके अपनी For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ आजीविका के प्रश्न को हल करता है, प्रसिद्धि की लालसा में इधर-उधर भाग-दौड़ करके जीवन को विडम्बित कर रहा है, ऐसा पण्डित स्वयं सांसारिक बन्धन में जकड़ा हुआ है; वह स्वयं निःस्पृह होता तो अवश्य ही ऐसे भयों और प्रलोभनों के समय अपने सिद्धान्त पर टिका होता, झुका न होता। पर वह टिक न पाया, इसी कारण बन्धनबद्ध पण्डित गृहस्थों और समाज के बन्धन खोलने का भले ही उपदेश दे दे, पर बन्धन खोल नहीं सकता, न ही उसके उपदेश का असर किसी पर होता है। एवं करेंति संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा । विणियट्टति भोगेस जहा से पुरिसोत्तमो॥ __"सम्बुद्ध, पण्डित प्रविचक्षण होकर ऐसा करते हैं, वे भोगों से वैसे ही दूर रहते हैं, जैसे कि पुरुषोत्तम रथनेमि हुए।" इस भोग-निवृत्तिपरायण वृत्ति से वह कोसों दूर रहता है। इसलिए उपदेशक और प्रश्न-समाधानकर्ता पण्डित की भूमिका और कर्तव्य को हमें समझ लेना चाहिए। पण्डितों को जैनाचार्यकृत 'पापात् डीनः पलायितः पण्डितः' (जो पाप से दूर भागता है, वह पण्डित है) व्युत्पत्ति के अनुसार पाप-कार्य से दूर रहना चाहिए । आचार्य हेमचन्द्र ने भी ऐसा ही लक्षण दिया है। वर्तमान युग के पण्डितों को तदनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए निषेवते प्रशस्तानि, निन्दितानि न सेवते । अनास्तिकः श्रद्दधान एतत् पण्डित लक्षणम् ॥ -जो प्रशस्त कार्यों का सेवन करता है, निन्दनीय कार्यों के पास नहीं फटकता, नास्तिकता से दूर रहता है, सत्य को धारण करता है, यही पण्डित के लक्षण हैं । इन और पूर्वोक्त लक्षणों के प्रकाश में पण्डित वर्ग को उपदेशक, मार्गदर्शक एवं प्रश्न-समाधानकर्ता की भूमिका निभानी है। वर्तमान युग में जनसाधारण में समालोचक दृष्टि का तेजी से विकास हो रहा है, आचरणहीन ज्ञान और निरी बौद्धिकता के प्रति लोगों की अनास्था बढ़ रही है, अतः पण्डितवर्ग को कठोर परीक्षा से गुजरना है। वह क्या और कैसा जीवन जोता है, यह समाज की आँखों से ओझल नहीं हो सकता। प्रायः देखा गया है, जब कोई पण्डित चारित्रिक विकास की उच्च भूमिका पर स्थित नहीं होता तो वह अपनी दुर्बलता को साहसपूर्वक स्वीकार करने को तैयार नहीं होता, ऐसी स्थिति में या तो दम्भपूर्वक उच्च चारित्री होने का डौल करता है, या आत्मवञ्चना करके एकान्त निश्चयनय की ओट में चारित्रिक एवं आचरणात्मक मूल्यों की उपेक्षा करता है तथा वैसा ही उपदेश देने लगता है। अतः पण्डितवर्ग को अपनी चारित्रिक दुर्बलताओं को महात्मा गांधी की For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों २५३ तरह साहसपूर्वक स्वीकार करने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। ऐसा करने से उसकी प्रतिष्ठा कम नहीं होगी । अब खण्डन या शास्त्रार्थ का युग बीत गया । आरोप-प्रत्यारोप, काट-छाँट या उखाड़ - पछाड़ की भाषा आज की पीढ़ी को पसंद नहीं । वर्तमान युग में जब कि व्यक्ति तर्कप्रधान हो गया है, ज्ञान के नये-नये आयाम तेजी से खुलते जा रहे हैं, अन्धश्रद्धा की गोलियाँ देकर समाज को सुलाया तो जा सकता है, पर जीवन्त नहीं रखा जा सकता, न अधिक दिनों तक भरमाया जा सकता है। दूसरे की लकीर को मिटाकर अपनी लकीर को बड़ा बनाना गर्हित कार्य है । उचित यही है कि पण्डितजन स्थितप्रज्ञ तथा शान्ति और समता के दूत बनकर संयम और पुरुषार्थ का अवलम्बन लेकर दूसरे की लकीर को मिटाए बिना अपनी लकीर को बड़ी बनाएं। इसी रूप में अपनी भावी भूमिका का निर्धारण करके कर्त्त व्याचरण करें । ऐसे अनेक समाजोपयोगी कार्य हैं, जिन्हें पण्डितजन पूरे कर सकते हैं । कुछ कार्यों के संकेत मैं दे रहा हूँ (१) वर्तमान युग की भाषा में शास्त्रों का सम्पादन करें । (२) सरल और सस्ता शोधपूर्ण साहित्य सम्पादित हो, तथा घर-घर में उसके प्रचार-प्रसार की व्यवस्था हो । (३) जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जैनत्व की सुरक्षा कैसे हो सकती है ? इस विषय पर चिन्तनपूर्ण लेख प्रस्तुत करें । (४) विज्ञान के साथ धर्म का मेल बिठाकर उसे वर्तमान की युग भाषा तथा सन्दर्भ में व्यक्त करें । (५) नई पीढ़ी को धर्म के अध्ययन की ओर उन्मुख करने हेतु प्रयत्न किये जायें । (६) जैनधर्म और संस्कृति को केवल दार्शनिक भाषा में बन्द न रखकर उनका आरोग्य, विज्ञान, समाजविज्ञान, मनोविज्ञान, राष्ट्रीयता आदि के साथ सामंजस्य बिठाकर प्रस्तुत किये जाएँ । (७) विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में धर्मतत्त्व को प्रसारित किया जाये । वर्तमान पण्डित का श्रोता श्रद्धालु नहीं, तार्किक है; वह शास्त्र को कम और विश्व की गतिविधि को अधिक जानता है । 'शास्त्र में यह लिखा है' कहकर उसे वह सन्तुष्ट नहीं कर सकता । शास्त्र की उक्तियों के साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की उक्तियों, युक्तियों एवं अनुभूतियों के साथ संगति बिठाकर उसे प्रस्तुत करना होगा । आषं संदधीत, न तु विघट्टयेत् — ऋषि वचनों के साथ संगति बिठाये, उसे खण्डित न करे । बन्ध और मोक्ष की चर्चा से पहले दिमागी तनाव और सामाजिक विद्वेष-बिखराव से मुक्त होने की चर्चा करे । जब तक यह दृष्टि नहीं आती, तब तक पण्डितवर्ग, न तो युगानुरूप दिशाबोध देने में सक्षम हो सकता For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ है, न ही वह युग के पेचीदा प्रश्नों का समाधान कर सकता है, न युवापीढ़ी को धर्म की और आकृष्ट कर सकता है। उसे इसके लिये वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में समतायोग की साधना करनी-करानी है । वह तभी वर्तमान की कुण्ठाओं, पीड़ाओं और विघ्न-बाधाओं से समाज को मुक्त कर सकता है, जबकि वह स्वतन्त्रचेता, प्रबुद्ध एवं व्यापक दृष्टिसम्पन्न, सत्ता और धन की गुलामी से मुक्त एवं चारित्रनिष्ठ हो । तभी वह पण्डित महर्षि गौतम की भाषा में समाज, राष्ट्र और विश्व के, धर्मसम्प्रदायों के, जातियों के और संस्कृति के अटपटे प्रश्नों का समाधान कर सकेगा, तभी वह प्रष्टव्य होगा। महर्षि गौतम ने ऐसे ही पण्डितों के लिये इस जीवनसूत्र में निर्देश किया है जे पण्डिया ते खलु पुच्छियव्वा For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५. वन्दनीय हैं वे, जो साधु धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज आपके समक्ष विशिष्ट उत्तम जीवन की झांकी प्रस्तुत करना चाहता हूँ, जो वन्दनीय, पूजनीय, सत्करणीय एवं सम्मान्य है। महर्षि गौतम ने ऐसे जीवन को साधुजीवन बताया है। गौतमकुलक का यह ६१वाँ जीवनसूत्र है। इसमें यह निर्देश किया गया है जे साहुणो, ते अभिवंदियव्वा - -जो साधु हैं, वे अभिवन्दनीय-वन्दन करने योग्य हैं । साधु सच्चे माने में कौन होते हैं ? वे ही क्यों वन्दनीय हैं ? इन सब पहलुओं पर मैं आपके समक्ष अपना विशिष्ट चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा। साधु : स्व-पर-कल्याणसाधक साधु का निर्वचन इस प्रकार किया गया है साध्नोति स्व-पर-कार्यमिति साधुः जो अपना और दूसरों का कार्य साधता है, वह साधु है । कार्य सिद्ध करने का अर्थ-अपना मतलब सिद्ध करना नहीं है । अपितु जो अपने और दूसरों के कल्याण को सिद्ध करने के लिये अहर्निश, अप्रमत्त होकर प्रयत्नशील रहता है, वही सच्चे माने में साधु है। साधु के इस व्युत्पत्त्यर्थ में साधुजीवन का उद्देश्य आ जाता है। साधु अपना कल्याण करने के साथ-साथ जो भी जिज्ञासु उसके सम्पर्क में आएं, उनका कल्याण कैसे हो? इस पर चिन्तन करके निष्कर्ष प्रस्तुत करे। परन्तु दुःख है कि आज अधिकांश साधु इस उद्देश्य से भटक गये हैं। कई साधु तो अपने इस उद्देश्य से इतने दूर चले गये कि उन्हें यह भान ही नहीं कि हमने साधु-जीवन किस लिये अंगीकार किया था ? न तो वे स्व-कल्याण में ही लगते हैं, न पर-कल्याण में । बल्कि वे निठल्ले, अकर्मण्य एवं आलसी बनकर दिनभर इधर-उधर की गप्प लड़ाते रहते हैं। बातों में वे दुनियादारी के उस पार तक पहुँच जाते हैं। न शास्त्र-स्वाध्याय, न ध्यान, न जपतप और न कोई त्याग-प्रत्याख्यान । अच्छा खाना-पीना, अच्छे कपड़े पहनना और गप्पें मारना; यही साधुवेषी साधु वर्तमान में करते हैं। कई साधु तो स्व-पर-कल्याण For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ की बात को सर्वथा भूलकर स्वकल्याण के नाम पर भांग, गांजा, सुलफा, चरस आदि या शराब, ताड़ी, तम्बाकू आदि नशैली चीजों को खा-पीकर अपना जीवन भ्रष्ट करते ही हैं, साथ ही अपने सम्पर्क में आने वाले बालकों, युवकों आदि सबको अपने इस दुर्व्यसन का चेप लगाते रहते हैं। ऐसे साधु स्व-पर-कल्याणसाधक के बदले स्व-परकल्याण-बाधक ही अधिक होते हैं। कई साधु लोगों के समक्ष ऐसा प्रचार करते हैं-"साधु को सामाजिक, पारिवारिक, राष्ट्रीय, प्रान्तीय आदि प्रश्नों में नहीं उलझना चाहिये। समाज बने या बिगड़े—इससे साधु को क्या मतलब ? साधु इन सब सांसारिक प्रपंचों में पड़कर क्यों अपना समय, शक्ति एवं दिमाग खर्च करें ? साधु यदि समाज, राष्ट्र आदि के कार्यों में पडता है, तो उसके दोष भी उसे लग जाएंगे, दिनों-दिन साधना में विघ्न-बाधाएँ बढती जायेंगी, आत्मसाधना ठप्प हो जायेगी । वह समाज, राष्ट्र आदि के उलझे हुए प्रश्नों को सुलझाने जाता है, तब उसकी स्व-साधना खटाई में पड़ जाती है; आदि आदि । इसी प्रकार कई साधु स्व-कल्याणसाधना को ही मुख्यता देते हैं। उनकी मान्यता यह होती है कि “साधु को एकान्त में, वन में, या एकाकी कहीं रहकर साधना करनी चाहिये । समाज के साथ रहकर सामाजिक, राष्ट्रीय या धर्मसम्प्रदायीय प्रश्नों को सुलझाने के प्रपंच में नहीं पड़ना चाहिए । समाज के प्रश्नों को सुलझाने में ग्रस्त एवं व्यस्त होना नहीं चाहिए, उसे तो सिर्फ अपना ही कल्याण करना चाहिये।" मध्ययुग में यह मान्यता घर कर गई थी कि साधु को सामाजिक, राजनैतिक आदि क्षेत्रों में मार्गदर्शन या कुछ भी गलत हो रहा हो तो उसे रोकने की प्रेरणा नहीं देनी चाहिये । समाज अपने प्रश्नों को स्वयं सुलझायेगा। राजनैतिक क्षेत्र का साधुओं को अनुभव नहीं होता । अतः साधु को राजनैतिक क्षेत्र में कोई भी मार्गदर्शन, परामर्श या प्रेरणा नहीं देनी चाहिये । उसे तो अपने जप, तप, ध्यान-मौन, (शुष्क) क्रिया आदि में ही संलग्न रहना चाहिये। परन्तु आज कई साधु पर-कल्याण के नाम पर मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र, जादू, टोना, झाड़-फूंक, गंडा-ताबीज आदि प्रयोग करते हैं, अथवा आसन, प्राणायाम, यौगिक क्रियाएं आदि करते-कराते हैं और अपनी संस्था के नाम से चंदा या दान वसूल करते हैं। साधु की वन्दनीयता : कैसे, किन गुणों से ? कई साधु धनिकों को प्रेरणा देकर नेत्रदान, वस्त्रदान, आहारदान आदि राहत के कार्य करवाते हैं । जहाँ तक पुण्यकार्य का सवाल है, नि:स्वार्थ या निष्काम भाव से अगर साधु ऐसे कार्यों के लिये किसी धनिक या साधनसम्पन्न को प्ररणा देता है, वह बुरा नहीं है । किन्तु जहाँ तक वन्दनीयता का प्रश्न है, केवल समाजसेवा के कार्य की प्रेरणा देने के कारण कोई भी साधु वन्दनीय नहीं कहला सकता है । साधु की वन्दनी For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दनीय हैं वे, जो साधु २५७ यता उसके गुणों के कारण है, न कि आडम्बरों, प्रसिद्धियों या चमत्कारों से ! केवल जादू-टोना करने या हाथ की सफाई करने वाले अगर वन्दनीय हों तो बाजीगर या जादू का खेल दिखाने वाले भी वन्दनीय होने चाहिये । ऐसे कई सयाने हैं, जो यंत्र, मंत्र, तंत्र, गंडा-ताबीज, झाड़-फूंक आदि का प्रयोग करते हैं, लोगों को अपनी विद्या का चमत्कार दिखाते हैं, किन्तु इसके कारण वे वन्दनीय कैसे हो सकते हैं ? यदि वे वन्दनीय नहीं तो केवल यंत्र-मंत्रादि का चमत्कार बताने के कारण ही कोई साधूवेषी वन्दनीय कैसे हो सकता है ? कई पेशेवर योगी लोग अपने यौगिक केन्द्र खोलकर यौगिक प्रयोग करते हैं, दिखाते हैं, सिखाते हैं, योगासन आदि के द्वारा चिकित्सा करते हैं और इस प्रकार योग के नाम पर धनसंग्रह करने वाले देश-विदेश में भ्रमणशील योगी वन्दनीय कैसे हो सकते हैं ? त्याग, तप, संयम, महाव्रत आदि होने पर ही उन्हें वन्दनीय कहा जा सकता है, केवल यौगिक क्रियाओं के प्रदर्शन से नहीं। ___कोई साधु अच्छा भाषण करता है, लोगों से पैसा निकलवाने का अच्छा तरीका जानता है, या सम्भाषण-कला में प्रवीण है; परन्तु उसमें साधुता के गुण नहीं हैं तो केवल भाषण-सम्भाषण से ही उसे वन्दनीय कहा जा सकता है ? अगर कोरी भाषणकला या सम्भाषण में प्रवीणता के कारण ही किसी को वन्दनीय कहा जायेगा तो जितने भी प्रोफेसर, वकील आदि लेक्चरार हैं, वे सब वन्दनीय कहलायेंगे । इसी प्रकार यदि कोई साधु केवल शास्त्रों की व्याख्या करता है, शास्त्रों पर शोध-कार्य करता है, परन्तु अगर उसमें साधुता के लक्षण नहीं हैं, तो इतने मात्र से वह वन्दनीय नहीं हो सकता। यदि शास्त्रों की व्याख्या करने या शोध-कार्य करने मात्र से ही किसी को वन्दनीय माना जायेगा तो रिसर्च स्कालरों (शोध-कार्यकर्ताओं) या शास्त्र-व्याख्याताओं को भी वन्दनीय कहना पड़ेगा। सिर्फ अच्छे लेख लिखने मात्र से भी कोई साधुवेषी वन्दनीय नहीं हो सकता, अगर सुलेखक को ही वन्दनीय माना जायेगा तो गृहस्थवर्ग में बहुत से ऐसे विद्वान लेखक हैं, जिनकी लेखनी में जादू है, बल है, जिनकी कविताओं में कमनीयता है, हृदयस्पर्शी प्रभाव है, परन्तु केवल कविता करने मात्र से कोई साधु वन्दनीय नहीं हो जाता । गृहस्थों में भी अच्छे-अच्छे कवि हैं, इसी से क्या वे वन्दनीय हो सकते हैं ? । ____ इसी प्रकार कोई साधु बहुत अधिक विज्ञापन करता है, अपनी प्रसिद्धि के लिए, अपनी शोहरत के लिए, बड़े-बड़े पोस्टर लगवाकर जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है । अनेक मिनिस्टरों या राजनेताओं से मिलकर उनको अपनी वाणी-कौशल से प्रभावित करता है, परन्तु यह सब करता है, वह धर्मशासन-प्रभावना के नाम पर; मगर अन्दर प्रायः होती है यश-कीर्ति की भूख, जिसे वह इस प्रकार मिटाता है। साधुता के नाम पर प्रपंच, छलछिद्र, लोकरंजन, प्रदर्शन दिखावा एवं आडम्बर करते हैं । बड़े-बड़े लोगों को बुलाकर अपने मंच पर भाषणों का आयोजन For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ करते हैं । केवल इस प्रकार के आयोजनों में कुशल होने मात्र से वह वन्दनीय नहीं कहला सकता । साधुत्व के गुण ही साधु को वन्दनीय बनाते हैं। इसीलिए दशवकालिकसूत्र में स्पष्ट कहा है गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू । गिण्हाहि साहू गुणमुचऽसाहू ।' भावार्थ यह है कि साधु गुणों से ही साधु (वन्दनीय) कहलाता है । दुगुणों से वह असाधु (अवन्दनीय) कहलाता है । इसलिये साधु-गुण ही साधुत्व के सूचक हैं, जबकि गुणों से मुक्त साधु असाधुत्व का । यही कारण है कि तिलोककाव्य संग्रह में स्पष्ट कहा है लाजे मति साधु गुणिजन देखके, जायके भाव से वन्दन कीजे । षट्काया अभयदान निरन्तर, दान निर्दोष सुपातर दीजे ।। मन-वच-काया करण-करावण, नवकोटि शुद्ध दान करीजे । राग-द्वष-मद-मोह तिलोक के, तज निरंजन ध्यान धरीजे ।। भावार्थ स्पष्ट है । वास्तव जो साधु जगत के प्राणिमात्र को अभयदान देता है, राग-द्वष, मद और मोह के त्याग की साधना करता है, सिद्ध (मुक्त) परमात्मा का ध्यान करता है, ऐसे साधु को गुणों से युक्त जानकर भावपूर्वक वन्दना करनी चाहिये। साधु : किन गुणों से वन्दनीय ? प्रश्न हो सकता है, साधु में कौन-कौन-से गुण होने चाहिये, जिन गुणों से वह वन्दनीय कहा जा सके ? । मेरे नम्रमत से दस प्रकार के जो श्रमणधर्म हैं, वे ही श्रमण (साधु) के मुख्यगुण हैं, जो श्रमण को विश्ववन्द्य बना देते हैं । वे दस श्रमण धर्म इस प्रकार हैं(१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) शौच, (५) सत्य, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग, (६) आकिंचन्य और (१०) ब्रह्मचर्य । क्षमा साधु का सबसे पहला और मुख्य गुण होना चाहिये । क्षमा के दो अर्थ होते हैं--(१) क्षमा करना, क्षमा माँगना तथा (२) सहिष्णुता । क्षमा का अर्थ है'सत्यपि प्रतीकारसामर्थ्य अपकारसहनं क्षमा'-प्रतीकार करने का सामर्थ्य होने पर भी अपकार का सहन करना क्षमा है । कोई निन्दा करे, अपमान करे, गाली दे, प्रहार करे अथवा किसी भी प्रकार से कोई कष्ट दे, परेशान करे, किसी भी प्रकार से चोट पहुँचाए, साधु का आदर्श क्षमा करना है। साधु निन्दा के बदले निन्दा, अपमान के बदले अपमान, प्रहार के बदले प्रतिप्रहार अथवा गाली के बदले में गाली देकर कदापि १. दशवै० अ० ६ उ. ३ For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दनीय हैं वे, जो साधु २५६ प्रतीकार नहीं करता । क्षमा में ही ऐसी प्रतीकार शक्ति है कि विरोधी क्षमाशील के समक्ष पानी-पानी हो जाता है। दुष्ट मनुष्य भी साधुपुरुष की क्षमा से अपना उग्रस्वभाव बदल देता है। एक शान्त्यानन्द नाम के साधु थे। बहुत ही क्षमाशील थे। अतः लोगों ने उन्हें क्षमासागर उपनाम दिया था। एक बार नौका में बैठकर वे कच्छभुज जा रहे थे। उनके साथ एक दुष्ट प्रकृति का मनुष्य बैठा था। वह साधु को सताने लगा। पहले तो महात्मा को उसने कंधे से धक्का मारा। फिर उनके घुसा मारने लगा। साधु कुछ भी न बोले । साधु का मस्तक झुरमुण्डित और नंगा था। वह दुष्ट उस पर ठोला मारने लगा। फिर भी वे सन्त शान्त रहे । फिर उसने छुरी निकाली और कहने लगा- "मैं चीर-फाड़ करने वाला जर्राह डॉक्टर हूँ।" यों कहकर उसने महात्मा के शरीर पर छुरी रगड़कर खून निकाला। दुष्ट का यह कृत्य प्रकृति को सहन न हुआ, आकाशवाणी हुई—“संत के सिवाय नौका में बैठे हुए सभी डूब जाएँ।" संत बोले-'मैं पापी हूँ, जिस नौका में मैं बैठा हूँ, वह डूबने जा रही है ।" तुरन्त दूसरी आकाशवाणी हुई—“संत को सताने वाला दुष्ट मनुष्य नौका से उछलकर अकेला डूब जाएं।" इस पर संत बोले- '' मैं अभागा कैसा पापी हूँ, कि मेरे पास बैठने वाले की बेहूदी मृत्यु हो।" तीसरी बार आकाशवाणी हुई-"आपकी क्या इच्छा है ?" महात्मा बोले-“जिस आदमी के दुष्ट स्वभाव से यह सब हुआ है, उसका दुष्ट स्वभाव उसके हृदय से निकलकर समुद्र में डूब जाए।" सबके आश्चर्य के बीच महात्मा के क्षमाभाव की प्रतीकार-शक्ति के प्रभाव से सहसा उस दुष्ट की दुष्टता चली गई । वह संत के चरणों में गिरकर अपनी दुष्टता के लिए क्षमा माँगने लगा। उसने महात्मा की क्षमाशीलता से क्षमाभाव का पाठ सीख लिया। वास्तव में साधु की क्षमाशीलता और सहिष्णुता ही उसे विश्व-वन्दनीय बना देती है। साधु को वन्दनीय बनाने वाला दूसरा गुण-मृदुता है। मृदुता का अर्थ हैकोमलता । साधु-जीवन में कठोरता उसके अन्य गुणों पर पानी फिरा देती है। साधु की मृदुता ही उसे दूसरों के प्रति दयाशील, करुणाप्रवण, सेवाभावी और सहानुभूतिपरायण बनाती है । इसीलिए कबीरजी कहते हैं वृक्ष कबहुँ नहिं फल' भखै, नदी न संचै नीर । परमारथ के कारणे, साधुन धरा शरीर । नहिं सीतल' है चन्द्रमा, हिम नहीं सीतल होय । कबीरा सीतल' संतजन, नाम सनेही सोय ॥ For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० आनन्द प्रवचन : भाग ११ लोग अमृत की खोज में जगह-जगह भटकते हैं, जंगल और पहाड़ की खाक छानते हैं, फिर भी अमृत उनके हाथ नहीं आता । परन्तु वास्तव में देखा जाए तो संत की मृदुल, सुधासम वाणी ही अमृत है । उसकी मृदुता दूसरों को अपना बना लेती है। संत मूलदास ने एक अबोध लड़की को गले में फांसी लगा कर कुए में डूबने को उद्यत देखा तो उनकी मृदुता सिहर उठी । वह बोले- 'बेटी ! ऐसा क्यों कर रही हो ? रुको, क्या बात है ?" लड़की ने कहा-"मुझ पर आफत उतर आई है । कल न्यायालय में मुझे बयान देना पड़ेगा कि यह किसका पुत्र है ? वह तो मुझे छोड़कर भाग गया । पर मैं अब अशरण होकर कहाँ रहूँगी, कैसे जीऊंगी ?" । संत मूलदास ने तुरन्त सारी परिस्थिति समझ ली। वे बोले-'बेटी ! तुम न्यायालय में मेरा नाम ले लेना । सत्य क्या है ? यह तो तू, मैं और प्रभु जानते हैं।" कन्या ने कहा-"आप जैसे पवित्र संत का नाम लेकर मैं अपराध की भागिनी नहीं बनना चाहती । मेरा जो भी होना होगा सो होगा।" मूलदास-"मैं बदनामी से नहीं डरता। समाज द्वारा दिया गया सम्मान या अपमान तो क्षणिक है । सत्य को जब समाज जानेगा, तब स्वयं ही पश्चात्ताप करेगा।" कन्या को आश्वासन मिला। भरी अदालत में जब संत मूलदास का नाम लोगों ने सुना तो उसके प्रति अश्रद्धा, धिक्कार, फटकार, निन्दा, गाली और बदनामी की बौछार होने लगी। संत मूलदास हंसते-हंसते उस लड़की को अपने आश्रम में ले गये । लड़की के बच्चा हुआ। उसके पालन-पोषण का सारा प्रबन्ध हो गया। वह लड़की सात्त्विक एवं संयमी जीवन बिताने लगी। वहाँ रहकर उसने सेवानिष्ठ, तपोनिष्ठ संयमी जीवन से स्वयं को विभूषित किया। आखिर एक दिन वहाँ के राजा ने संत मूलदास एवं उस लड़की की बातचीत सुनी तो पिता-पुत्री के मधुर सम्बन्ध की बात जानी । राजा ने पश्चात्तापपूर्वक संत से क्षमा माँगी। सारे प्रजाजन अब सत्यता को जान चुके थे । वे भी संत मूलदास का अत्यधिक आदर करने लगे। वास्तव में संत मूलदास की कोमलता-मृदुता ने ही यह सब कराया। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है संत हृदय नवनीत-समाना। संत का हृदय और वचन मक्खन के समान अत्यन्त कोमल होता है। मक्खन तो जरा-सी आंच लगने पर पिघलता है, परन्तु संत-हृदय बिना ही आँच के दुःखित को देखकर द्रवित हो उठता है । साधु को वन्दनीय बनाने वाला तीसरा गुण ऋजुता-सरलता है। साधु में इतनी सरलता होती है, वह दूसरे को भी दुश्मन को भी अपना आत्मीय समझकर For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दनीय हैं वे, जो साधु २६१ उसके सामने भी अपने अन्तर् का पट खोल देता है। कई बार चालाक लोग संत की इस सरलता से लाभ उठाते हैं, अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं और संत को फंसा देते हैं । बुरे कर्म करते हैं दुष्ट लोग, पर नाम ले लेते हैं—संत का और स्वयं उसमें से निकलकर संत को फंसा देते हैं। इस सरलभाव से संत जो कुछ कह देते हैं, वह प्रायः होकर रहता है । इसीलिए ऐसे सरलचेता साधु को वचनसिद्धि हो जाती है। मृदुसाधु जाति, कुल, बल आदि से हीन लोगों का तिरस्कार कदापि नहीं करता। साधुता तभी वन्द्य होती है, जब उसके मन, वचन, काया में सरलता हो । कपट, झूठ, दम्भ आदि से लोकश्रद्धा समाप्त हो जाती है। आपको यह तो बहुत पक्का अनुभव है कि काष्ठनिर्मित हंडिया आँच पर नहीं चढ़ती । चढ़ायी जाएगी तो वह फट जाएगी। इसी प्रकार कपट करने वाले व्यक्ति के चक्कर में कोई आते नहीं, उससे मन फट जाता है। कपट एवं झूठ-फरेब करने वाला साधु हृदय से वन्दनीय नहीं होता। इसके पश्चात् साधु की वन्दनीयता के लिए शौच गुण का होना परम आवश्यक है। शौच का अर्थ है-पवित्रता । मन, वचन और काया–तीनों में पवित्रता होगी, वही साधु वन्दनीय होगा। मन से वह जरा-सा भी बुरा विचार किसी के प्रति न रखे। मन से बुरा चिन्तन करते ही मन दूषित हो जाता है। इसी प्रकार वचन से भी गंदे, अश्लील' शब्द या किसी भी हत्या करने, चोरी कराने या हैरान करने के शब्द कतई न निकलें । न ही समाज या परिवार में फूट डालने को सलाह किसी को दे समाज या संघ में फूट डालना साधु के लिए बहुत बड़ा अपराध है। इसलिए वचन भी उसका पवित्रता से ओतप्रोत होना चाहिए । साथ ही काया से कोई भी चेष्टा या प्रवृत्ति ऐसी न हो, जो उसकी काया को अपवित्र कर दे। पुण्य कार्य काया को पुनीत करता है, जबकि पाप कार्य काया को दूषित । हिंसा, झूठ, चोरी, जारी, लूट-खसोट अथवा बेईमानी, ठगी, धूर्तता आदि पाप काया सम्बन्धी शुचिता-पवित्रता को नष्ट कर डालते हैं। इसलिए शौच गुण साधु के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उसका जीवन पूर्णतया पवित्र होना चाहिए। साधु में निर्लोभता का गुण भी पवित्रता-शुचिता से सम्बन्धित है। ___ इसके पश्चात् साधु को धन्य और वन्द्य बनाने वाला गुण है-सत्य । असत्य और दम्भ साधु-जीवन के भयंकर दूषण हैं, ये दोनों दुर्गुण साधु-जीवन को पतित, अपयशगामी, पापलिप्त और नरकगामी बना देते हैं। इसलिए सत्यता का गुण साधुजीवन में आवश्यक है। शास्त्र में साधु के २७ गुणों में से तीन गुण बड़े महत्त्वपूर्ण बताए हैं भाव सच्चे, करण सच्चे, जोग सच्चे । साधु भाव से सत्याचरणी होना चाहिए, करण यानी साधन से भी या For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ इन्द्रियचेष्टाओं से भी सत्य होना चाहिए। साथ ही मन-वचन-काया की एकरूपता, मन के सत्य विचार के अनुरूप वचन और काया से भी सत्याचरण होना चाहिए। जिस साधु में सत्यता होती है, उस में निर्भयता स्वत: आ जाती है। यद्यपि कठोर सत्य का होना, विभाजन करने, नष्ट करने या बर्बाद करने वाले सत्य का अभिव्यक्त करना साधु जीवन के लिए खतरनाक होता है। संत सत्य को अभिव्यक्त करते हैं, परन्तु द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को देखकर, जिस सत्य के कहने से किसी के हृदय को चोट पहुँचती है, संत उस सत्य को प्रकट नहीं करता। समय आने पर वह सत्य को समाज या व्यक्ति के लिए परम हितकारी समझकर साफ-साफ प्रकट कर देता है, वह फिर किसी की भी यहाँ तक कि राजा और सम्राट तक की भी लल्लोचप्पो नहीं करता, न ठकुरसुहाती करता है । धनिकों की चापलूसी करके उनके पापों पर पर्दा डालने की कोशिश सच्चा संत-वन्दनीय साधु नहीं करता। जब जोधपुर के राजा वेश्यागामी हो गए तो ऋषि दयानन्द को पता लगते ही एक दिन उन्होंने राजा को साफ-साफ कह सुनाया-"राजन् ! आपका उस वेश्या के साथ संग करना बहुत बुरा है।'' यद्यपि राजा को इस हितकर वचन से बहुत आघात लगा, वेश्या को अपना स्वार्थ भंग होते देख बहुत बुरा लगा, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप उन्हें सहर्ष मृत्यु का आलिंगन करना पड़ा। इसके बाद छठा गुण वन्दनीयता के लिए आवश्यक है-संयम । संयम तो साधु जीवन का प्राण है । साधु प्राण दे सकता है, संयम को नहीं खो सकता। उस की पाँचों इन्द्रियाँ संयम से ओतप्रोत रहती हैं; मन, बुद्धि एवं हृदय-ये तीनों संयम से सराबोर होते हैं । इसी प्रकार पृथ्वीकाय आदि १७ प्रकार के जीवनिकायों के प्रति संयम रखना भी बहुत आवश्यक है । संयम साधुजीवन को परिपुष्ट करने वाला है। इसलिए साधु आपनी आवश्यकताओं, इच्छाओं और कामनाओं पर भी संयम करता है, वह उन पर भी नियंत्रण करता है और अपने जीवन को स्वाभाविक रूप से संयम से अभ्यस्त कर लेता है। वह कदापि संयम की मर्यादारेखा का उल्लंघन नहीं करता। कोई निन्दा करे या प्रशंसा, गाली दे या प्रतिष्ठा करे, लाभ हो या अलाभ, सुख हो या या दुःख, सुख-सुविधा मिले या न मिले, जीवन रहे चाहे जाए, अपने मन को संयम में सुरक्षित रखता है । एक उदाहरण लीजिए ___ एक पहाड़ी पर एक संत रहता था, वह अपने स्व-पर-कल्याण में संलग्न रहता था । एक दिन एक भक्त आया और कहने लगा-"महात्मन् ! मुझे तीर्थयात्रा के लिए जाना है, मेरी यह स्वर्णमुद्राओं की थैली आप अपने पास रखिए।" साधु ने कहा"भाई ! हमें इस माया से क्या मतलब ! हमने तो स्वयं सम्पत्ति छोड़ी है, फिर उसमें क्यों फंसाते हो ?" भक्त ने कहा-“महाराज ! आपके सिवाय मुझे और कोई सुरक्षित एवं विश्वस्त स्थान नहीं दिखता। कृपा करके आप अपने किसी विश्वस्त स्थान में इसे For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दनीय हैं वे, जो साधु २६३ रखवा दीजिये, आप चाहे इसे ग्रहण न करें, न छुएँ ।" दयालु साधु ने कहा-“यदि ऐसा है तो जाओ, उस कोने में गडढा खोदकर इसे गाड़ दो।" भक्त ने वैसा ही किया और निश्चिन्त होकर तीर्थयात्रा के लिये चल पड़ा। वहाँ से लौटकर वह एक वर्ष बाद आया। महात्मा से उसने अपनी थेली मांगी तो उन्होंने कहा—जहाँ तुमने रखी थी, वहीं खोदकर निकाल लो। भक्त ने ज्यों की त्यों थैली निकाल ली । प्रसन्न होकर साधु की अत्यधिक प्रशंसा करता हुआ वह घर पहुंचा। साधु अपनी प्रशंसा सुनकर जरा भी न फूला । घर आकर उस व्यक्ति ने थैली अपनी पत्नी को सौंपी और कहा-“मैं नहाकर आता हूँ, तब तक तुम इसे रखो।" पत्नी ने हर्ष के मारे आज लडडू बनाने का विचार किया। उसने उस थैली में से एक स्वर्णमुद्रा निकाली और बाजार से खाद्यपदार्थ लाकर लड्डू तैयार किये । भक्त नहाकर घर आया, स्वर्णमुद्राएँ गिनने लगा तो एक स्वर्णमुद्रा कम निकाली। मन ही मन सोचा"हो न हो, उसी संत ने मुहर निकाली है। बदमाश कहीं का, साधु बना है ! मैं अभी अभी जाकर उस संत की खबर लेता हूँ।" वह सीधा संत के पास पहुँचा और लगा बकने-“अरे ओ पाखण्डी साधुड़ा ! उस थैली में से एक सोना मोहर तुमने चुराई है, उसे वापस कर दे । नहीं तो अभी तेरी इज्जत मिट्टी में मिला दूंगा।" आवेश में मनुष्य भान भूल जाता है, न वाणी पर संयम रहता है, न मन और तन पर । वह भक्त संयम खोकर साधु को यद्वा-तद्वा कहते हुए घर आया । साधु तो बिलकुल शान्त रहे। उन्होंने मन-वचन-काया पर संयम रखा। घर पहुँचने पर स्त्री ने पूछा तो पहले तो कुछ भी न कहा, फिर स्त्री का आग्रह देखकर सारी बात बताई तो उसने कहा-“साधु ने एक भी मुहर नहीं चुराई, मैंने ही उसमें से एक मुहर निकाली थी। उससे लडडू बनाने का सामान लाई थी।" सुनते ही भक्त अवाक रह गया । वह लज्जित होकर पश्चात्तापपूर्वक भोजन किये बिना सीधा संयमी साधु के पास पहुँचा । उनके चरणों में गिरकर बोला-"भगवन् ! मुझे क्षमा कर दें। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। आप पर मैंने झूठा इलजाम लगाकर आपको हैरान किया। आपकी निन्दा से आपको बहुत ही दुःख हुआ होगा।' साधु ने जमीन पर से एक चिपटी धूल लेकर कहा-“यह निन्दा की चिपटी और यह प्रशंसा की चिपटी है। साधु के लिये निन्दा-स्तुति दोनों इस धूल की तरह हैं । मेरी ओर से तुम्हें क्षमा देता हूँ।" यह है-निन्दा-स्तुति दोनों अवसरों पर संयम का उदाहरण । इसी प्रकार एक विचारक ने कहा साधु कहिये वाको, जो स्वाद जीते जग माही। अर्थात्-जो संसार के सभी प्रकार के स्वादों-इन्द्रियों और मन के स्वादों को जीत लेता है, वही सच्चा संयमी साधु है । वही वन्दनीयता की कोटि में आता है। इसके बाद सातवाँ साधुगुण हैं-तप। तप भी इच्छाओं का निरोधरूप है । For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ तपस्या से साधुजीवन कुन्दन की तरह निखर जाता है, बशर्ते कि वह तप आडम्बर - रहित हो, प्रसिद्धि और प्रदर्शन से दूर हो, स्वार्थ और कामना से, फलाकांक्षा और उभयलौकिक वाञ्छा से दूर हो । अन्यथा वह तप ताप बन जाता है । ताप हृदयदाहक और उत्तेजक होता है, तप कर्माग्निदाहक और आत्मशुद्धिकारक होता है । उग्रतपा, घोरतपा, गुप्ततपा, तप्ततपा आदि विशेषण तपस्वियों-तपोनिष्ठ मुनियों के लिये प्रयुक्त होते हैं । ऐसे निःस्वार्थ, निराकांक्ष एवं निःस्पृह तप से साधुजीवन वन्दनीय और धन्य बन जाता है । साधुजीवन को धन्य बनाने वाला आठवाँ गुण है— त्याग ! त्याग का सच्चा अर्थं मैंने पूर्व-प्रवचन में बताया था, उसी सन्दर्भ में त्याग भी साधुजीवन को चमकाने वाला है । आन्तरिक त्याग ही जीवन को दिव्य भव्य बनाता है । जिस साधु में त्याग का दिखावा होता है, सच्चा त्याग नहीं होता, वह साधु त्याग के प्रदर्शन से, या केवल त्याग के आडम्बर से या संग्रह से वन्दनीय नहीं बनता । जिस साधु में संग्रहवृत्ति होती है, वह धीरे-धीरे पदार्थों की ममता मूर्च्छा और आसक्ति में फँसकर अपनी साधुता का दिवाला निकाल देता है । इसके बाद नौवाँ गुण, जो साधु को वन्द्य बनाता है, वह है-आकिंचन्य । अपना, अपने नाम का, अपने स्वामित्व का, अपने ममत्व से पोषित कोई भी पदार्थ न रखना अकिंचनता है । ऐसा साधु जिसको अकिंचनता का अभ्यास इतना गहरा हो गया है कि वह सदा अपनी स्मृति से अपने अकिंचन स्वरूप को ओझल नहीं होने देता, वही वास्तव में आत्मधनी है । बाह्य धन या साधन उसके सामने कुछ नहीं हैं । वह एक भी वस्तु रखे बिना अपनी मस्ती में रहता है । वह बादशाहों का बादशाह है । यूनान का बादशाह सिकन्दर संत डायोजीनिस के पास पहुँचा । वह प्रातः काल धूप ले रहा था । सिकन्दर ने अपना परिचय देते हुए कहा - " मैं सिकन्दर हूँ ।" डायोजीनिस बोला - " मैं डायोजीनिस हूँ ।" सिकन्दर - " तुम मुझ से डरते नहीं ?" डायोजनिस - "तुम धर्मात्मा हो या पापात्मा ?” सिकन्दर - " मैं धर्मात्मा हूँ ।" डायोजनिस - " धर्मात्मा से मुझे क्या डर ? अगर पापी हो तो पापी से भी मुझे क्या भय है ?" सिकन्दर - " मैं तुमसे बहुत खुश हूँ, जो चाहो सो माँग लो ।" डायोजनिस - "मुझे तुमसे कुछ भी नहीं मांगना है । देना चाहते हो तो धूप छोड़ दो। मुझे प्रकृति के साथ घुलने-मिलने दो ।" सिकन्दर उसकी अकिंचनता देखकर दंग रह गया । इस प्रकार की अकिंचनता साधुजीवन का भूषण है, दूषण नहीं । इसके पश्चात् For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दनीय हैं वे, जो साधु २६५ साधु का अन्तिम गुण ब्रह्मचर्य है, जो साधु जीवन को सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा देता है । ब्रह्मचर्य शारीरिक, बौद्धिक और आत्मिक सभी प्रकार की शक्तियों से साध को सुदृढ बना देता है। ब्रह्मचर्य से जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। इससे वह इन्द्रियविजेता, मनोविजयी, कषायों और विषयों का वशकर्ता बनता है। ब्रह्मचर्य का जहाँ भलीभाँति अर्थ न समझकर केवल शारीरिक रूप से पालन होता है, वहाँ इन्द्रियों का स्वाद रह जाता है, इन्द्रियलोलुपता, दबी हुई इन्द्रियविषयों की लिप्सा दुगुने वेग से साधक को पछाड़ देती है । कामवासना का शिकार साधु जीवन के किसी भी क्षेत्र में न तो सफल हो सकता है और न ही वन्दनीय होता है । गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में वंदनीय ते जग-जस पावा। वह नहीं हो पाता । ब्रह्मचर्य गुण के बिना साधुजीवन शक्तिहीन है, खोखला है। ब्रह्मचर्य को पचाकर स्व-पर-कल्याण साधना में उससे उत्पन्न शक्ति को लगाने वाला साधु धन्य और अभिवन्दनीय बन जाता है । ये दस मुख्य गुण ही साधुजीवन को देदीप्यमान करते हैं । इन्हीं गुणों से साधुता अभिवन्दनीय होती है । वेष से वन्दनीय साधु : कब और कब नहीं ? केवल वेष से ही कोई साधु वन्दनीय नहीं कहा जा सकता। अमुक वेष, यह अमुक सम्प्रदाय का साधु है, इस प्रकार की पहचान के लिए है; किन्तु वेष तो साधु का हो मगर अन्दर साधुता न हो, साधुगुण न हों तो वह साधु वैसे ही है, जैसे किसी दूकान पर साइनबोर्ड लगा हो 'ज्वेलरी' हाउस (जवाहरात का घर) का, लेकन अन्दर जवाहरात के बदले काच के टुकड़े मिलते हों, इमीटेशन सोना हो या कलचर मोती हो, या कोयला भरा हो । अथवा किसी बोतल पर लेबल लगा हो–'बादाम का शर्बत' का, लेकिन अन्दर केवल सफेद मीठा पानी भरा हो। परन्तु वेष के साथ तदनुरूप साधुता का आचरण हो, साधुत्व का व्यवहार हो, अर्थात् वेश के प्रति वह वफादार हो, तभी सच्चे माने में वह साधु कहला सकता है और तभी वह वन्दनीय कहा जा सकता है। एक दृष्टान्त के द्वारा मैं आपको अपनी बात समझा दूं एक नगर में एक बहुरुपिया आया हुआ था। एक दिन उसने साधु का वेश बनाया । वेश से वह ऐसा लगता था, मानो हूबहू साधु हो। वह साधुवेश में एक करोड़पति सेठ के यहाँ पहुँचा । सेठ ने नमस्कार किया, कुशलक्षेम पूछा और आदरपूर्वक बैठने की प्रार्थना की । अतः साधुवेशी बहुरुपिया एक पट्टे पर बैठा। फिर उसने संसार को असारता और देह की नश्वरता का प्रभावशाली उपदेश दिया। उपदेश के उपसंहार में उसने कहा-“सेठ ! आप वृद्ध हो चुके हैं। जिदगी का कोई भरोसा नहीं है । आपके पीछे कोई सन्तान भी नहीं है । इसलिए जितना भी हो सके, अपनी प्राप्त सम्पत्ति का सदुपयोग करिये।" For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ उपदेश सुनकर सभी लोग प्रभावित हुए । सेठ ने कहा - " आपने उपदेश सुनाकर हम पर बड़ी भारी कृपा की ।" सेठ के संकेत से सेठानी ने घर में जाकर तिजोरी खोली और उसमें से स्वर्ण - मुद्राओं से भरा थाल साधु के समक्ष रखा। सेठ ने कहा"आपने हम पर बड़ा अनुग्रह किया, लक्ष्मी की चंचलता समझाकर, अतः आप इस तुच्छ भेंट को स्वीकार करें और हमें अशीर्वाद दें ।" यह सुनते ही साधुवेशधारी बहुरुपिया उसे ठुकराकर यह कहता हुआ चल पड़ा कि “ सेठ ! इस चंचल लक्ष्मी को भला साधु क्यों ग्रहण करेगा ?" इस पर सेठ को उस साधु-वेशी के प्रति बहुत श्रद्धा उमड़ी। उसके पश्चात् वह उस नगर में एक महीने तक रुका और भिन्न-भिन्न वेश बनाकर लोगों से दान लिया । एक महीने बाद वही बहुरुपिया सेठ के पास आकर याचना करने लगा । सेठ ने उसके मुँह की ओर गौर करके देखा तो उससे पूछा - "तुम्हारा चेहरा हमारे यहाँ आये हुए साधु के सरीखा लगता है ।" बहुरुपिया बोला - " सेठ ! आपका कहना सत्य है । वह साधु मैं ही था । " सेठ ने कहा—“उस समय स्वर्णमुद्राओं से भरा हुआ थाल ले लिया होता तो आज तुम्हें याचना करने की नौबत न आती ।" बहुरुपिया बोला - " मैं बहुरुपिया हूँ । मैंने उस समय साधु का वेश पहना हुआ था । इसलिए मुझे साधुवेश के अनुरूप जो आचार-व्यवहार मर्यादायें हैं, उनकी रक्षा करना आवश्यक था ।" बाद साधुता के प्रति वह वफा - एक बहुरुपिया भी समझता है कि साधुवेश धारण करने के गुणों की— निःस्पृहता आदि की रक्षा करना आवश्यक है, तभी वेश के दार रह सकता है । साधु भी अगर अपने वेश के प्रति वफादार न रहे, वह अपनी निःस्पृहता छोड़कर भौतिक सम्पत्ति के प्रति आसक्ति रखे तो वह सच्चे माने में साधु नहीं कहला सकता, फिर तो वह उस साधुवेशी बहुरुपिये से भी गया बीता है । साधु वेश के प्रति जो साधु वफादार रहता है, वही वन्दनीय कहला सकता है । वन्दनीय साधु के स्वभाव की महक ऐसे साधुओं के स्वभाव की महक ही जगत् को बरबस उनके चरणों में वन्दन करा देती है, जगत् उनके मन-वचन-काया से होने वाली सत्प्रवृत्तियों को, सज्जनता को, परोपकारी वृत्ति को और साधुता को देखकर स्वतः झुक जाता है, उनके चरण कमलों में । ऐसे साधु के मन, वचन और काया की सत्यता और एकरूपता की छाप उसके सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति के हृदय पर तुरन्त पड़ती है । इसीलिए कहा हैमनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् वन्दनीय-महनीय महात्मा के मन में, वचन में और कर्म में एकरूपता होती । ऐसा नहीं होता है कि वह मन में कुछ और सोचता हो, वचन से कुछ और बोलता हो, और काया से और तरह की चेष्टा करता हो । वह अपने वेष और क्रिया के अनुरूप ही वचन निकालेगा, और मन से भी तदनुरूप चिन्तन करेगा | For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्दनीय हैं वे, जो साधु २६७ महाराष्ट्र के संत समर्थ रामदास ने बताया है कि “साधु का मुख्य लक्षण यह है कि वह सदा अपने स्वरूप का अनुसन्धान करता रहता है । सब लोगों में रहकर भी वह उनसे अलग रहता है । ज्यों ही उसकी दृष्टि स्वरूप पर पड़ती है, त्यों ही उसकी सांसारिक चिन्तायें नष्ट हो जाती हैं और अध्यात्म-निरूपण के प्रति लगन लग जाती है ।""उनके मन में और बाहर भी अचल समाधान रहता है। अन्तःकरण की स्थिति अचल हो जाने पर फिर चंचलता कहाँ से आ सकती है ? जब वृत्ति सत्स्वरूप में लग जाती है, तब वह भी सत्स्वरूप हो जाती है। साधुओं की (आत्मिक) सम्पत्ति अक्षय होती है, जो उनके पास से कभी नहीं जा सकती। इसलिए वे क्रोध, लोभ आदि से रहित हो जाते हैं। जहाँ कोई दूसरा पराया है ही नहीं, वहाँ वह किस पर क्रोध करेगा? जो स्वयं अपने आनन्द में मग्न रहता है, वह किस पर मद करेगा ? इसलिए वाद-विवाद का भी वहाँ अन्त हो जाता है । साधु स्वभाव से ही निर्विकार होता है, फिर उसके समक्ष तिरस्कार क्या चीज है ? जब सभी अपने ठहरे तो मत्सर किस पर किया जाये ? इस तरह मद-मत्सर के पिशाच साधुओं के पास फटक नहीं सकते। साधु स्वयम्भू स्वरूप होता है, फिर उसमें दम्भ कैसे हो सकता है ? परब्रह्म निर्भय है और साधु भी ब्रह्मस्वरूप होता है, इसीलिए वह भयातीत, निर्भय और शान्त होता है।" संस्कृत के एक कवि ने कहा है शैले शैले न माणिक्य, मौक्तिकं न गजे गजे । साधवो नहि सवन, चन्दनं न वने वने ॥ प्रत्येक पर्वत पर माणिक्य नहीं मिलता, प्रत्येक हाथी के मस्तक में मोती नहीं होता, प्रत्येक वन में चन्दन नहीं पाया जाता, इसी प्रकार साधु सर्वत्र नहीं मिलते। सच्चे साधु स्वयं कष्ट सहकर भी, अपने आपको कष्ट और अपमान में डालकर भी जगत् को तारने और कल्याण करने के लिए चल पड़ते हैं । ___ साधुओं में इतनी आत्मशक्ति होती है कि वे बड़ी से बड़ी विपत्ति और मार को समभाव से सह लेते हैं। प्राचीन काल की घटना है। एक वृद्ध साधु को किसी झूठे इलजाम में पकड़ कर कोड़े लगाये जा रहे थे; लेकिन वे साधु शान्त और उन्नतभाव से उसे सहन किये जा रहे थे । एक सज्जन ने यह दृश्य देखा। पास जाकर पूछा-"महात्मन् ! आप तो इतने वृद्ध और दुर्बल हैं फिर भी ऐसी सख्त मार को शान्तभाव से कैसे सहन कर लेते हैं ?" साधु ने कहा-भाई ! विपत्ति आत्मशक्ति से सही जाती है, शारीरिक शक्ति से नहीं।" सच्चा और वन्दनीय साधु वह है जो शान्त होता है । शान्ति इसलिए होती For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ है, वह अहिंसक होता है । अहिंसक की यह विशेषता होती है कि दूसरों के वह दुःख को समझ सकता है । उसका कोई शत्रु नहीं होता, वह सबको अपना मित्र और बन्धु मानता है । अहिंसक ही सच्ची शान्ति पैदा कर सकता है, दूसरों को शान्ति दे सकता है । एक गुजराती कवि ने ठीक ही कहा है शान्ति पमाडे तेने संत कहीए । हाँ, रे तेना दासना दास थईने रहीए । सच्चा साधु समाज से कम से कम लेकर अधिक से अधिक देता है । जो भी लेता है, वह भी उपकृत भाव से। समाज कल्याण के लिये वह प्रतिक्षण उद्यत रहता है। जो समाज से अधिक से अधिक अच्छे पदार्थ अपने उपभोग के लिये लेता है, लेकिन देने के नाम पर समाज से किनाराकसी करता है, कहने लगता है—साधु को समाज से क्या वास्ता? वह साधु न तो स्व-कल्याण ही साधता है, और न पर-कल्याण । वह कल्याण-साधना के नाम पर स्वार्थ-साधना करता है। सच्चा साधु समाजहित के किसी भी कार्य से जी नहीं चुराता। वह जहाँ प्रेरणा देना होता है, वहाँ समाज को प्रेरणा करता है, जहाँ मार्गदर्शन, परामर्श, उपदेश या आदेश देना होता है, वहाँ वैसा करता है । वह मानव-जीवन के सभी क्षेत्रों में मार्गदर्शन, प्रेरणा या उपदेश देता है। साधु : राष्ट्र का प्राण, राष्ट्ररत्न ऐसा साधु समाज और राष्ट्र का रत्न और प्राण होता है। _ एक पाश्चात्य विचारक एम० हेनरी (M. Henry) ने कहा है The saints are God's jewels, highly esteemed by and dear to him. -संत परमात्मा के रत्न हैं, जो उच्च प्रकार से मूल्यांकित हैं और उस प्रभू को प्रिय हैं। ___ जो राष्ट्र उपर्युक्त गुणसम्पन्न साधु को वन्दनीय न मान सिर्फ भारभूत, अकर्मण्य और आलसी मानते हैं, वे अपने राष्ट्र और समाज को अन्धकूप में डालते हैं। ऐसे राष्ट्र या समाज का अधःपतन होते देर नहीं लगती। इसका कारण है कि संतों द्वारा आवश्यक मार्गदर्शन नहीं मिलता, जहाँ संतों द्वारा निवारण या निवारणों के उपाय या सुझाव नहीं प्राप्त होते । ऐसी स्थिति में समाज स्वच्छन्द, विलासी, अतिभोगी एवं निरंकुश बन जाता है, संयम के तंग ढीले पड़ जाते हैं; तब पतन होने क्या देर लगती है। जो इस बात को समझते हैं, वे संत को राष्ट्र की आत्मा मानकर उसे हर सम्भव प्रयास से अपने राष्ट्र में रखते हैं, उसका आदर-सत्कार करते हैं । एक उदाहरण द्वारा मैं अपनी बात स्पष्ट कर दूं सम्राट विश्वजित् ने आदेश दिया-"जाओ, युद्ध की तैयारी करो । एक भी For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दनीय हैं वे, जो साधु २६६ नागरिक का अपमान असह्य है । किसी को सुधारना और यथार्थ पथ-प्रदर्शन करना तो ठीक है, पर अपशब्द और अपमान तो किसी का भी नहीं होना चाहिये ।” महामन्त्री और आचार्य दशमेघ ने समझाया-"महाराज ! जिस तरह माताएं बच्चों की छोटीछोटी भूलें क्षमा कर देती हैं, उसी प्रकार कैवर्तराज तोमराज की भूल भी साधारण है । नागरिक अनंगपाल के पास वहाँ की स्वर्णमुद्राएँ न होती तो उसे अपमानित न किया गया होता।" परन्तु विश्वजित् ने एक न सुनी। उसी दिन सेना सजाकर कैवर्तराज पर चढ़ाई कर दी गई। __ कई दिन के युद्ध के बाद भी कैवर्त को जीता न जा सका। युद्ध की अवधि बढ़ती गई। तभी एक दिन एक विचित्र घटना घटी। कैवर्तराज्य के प्रकाण्ड पण्डित देवलाश्व विश्वजित् के सैनिक खेमों के पास से गुजरे। सैनिकों ने उन्हें गुप्तचर समझकर बंदी बना लिया और सम्राट विश्वजित् के समक्ष उपस्थित किया । विश्वजित् ने उन्हें प्राणदण्ड की सजा सुना दी। तेज अन्धड़ की तरह यह खबर सारे कैवर्तदेश में फैल गई कि संत देवलाश्व बन्दी बना लिये गये हैं, उन्हें शीघ्र ही मृत्युदण्ड दिया जाने वाला है। विश्वजित् के आक्रमण से प्रजा को इतना कष्ट नहीं हुआ था, जितना देवलाश्व को बंदी बना लिये जाने से हो गया। कैवर्तनिवासियों ने अपने प्रिय संत के लिये अन्न-जल का त्याग कर दिया। सारे राज्य में शोक छा गया। रात्रि के चौथे पहर में, जबकि विश्वजित् की सेनाएं युद्ध की तैयारी कर रही थीं, एक आकृति वहाँ पहुँची और निवेदन किया- 'मैं कैवर्त का राजदूत हूँ, मुझे सम्राट विश्वजित् के पास कैवर्तसम्राट तोमराज का सन्देश पहुँचाना है।" इस पर आगन्तुक नरेश विश्वजित् के पास पहुँचा दिया गया। विश्वजित ने अपनी मूछों पर ताव देते हुए स्वाभिमानपूर्वक प्रश्न किया"कहो क्या सन्देश लाये हो तोमराज का ? क्या उन्होंने पराजय स्वीकार कर ली ?" आगन्तुक-"नहीं, महाराज ! कैवर्तनरेश इतने भीरु नहीं, जो युद्ध सम्पन्न हुए बिना पराजय स्वीकार कर लें। परन्तु यदि आप बंदी संत देवलाश्व को मुक्त कर दें तो वे उनके बदले आपको दो करोड़ स्वर्णमुद्राएं भेंट कर सकते हैं।" "बस , गुप्तचर का मूल्य कुल दो करोड़ रुपये । बोलो, दूत ! तुम्हें इस बंदी से इतना मोह क्यों है ?” विश्वजित् ने वीरभाव से प्रश्न किया। आगन्तुक-"महाराज ! यह गुप्तचर नहीं, यथार्थ में एक बड़े संत हैं। संत राष्ट्र की आत्मा होती है । वह न रहे तो कैवर्तराज्य अनाथ हो जायेगा; पथभ्रष्ट हो जायेगा। हम स्वदेश को पथभ्रष्ट होने से बचाने के लिये दो करोड़ स्वर्णमुद्राएँ तो क्या, सम्पूर्ण राज्य आपको भेंट कर सकते हैं।" For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० आनन्द प्रवचन : भाग ११ विश्वजित ने फिर पूछा - " उसका प्रमाण ?” उत्तर में आगन्तुक ने अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ा दिया । अनामिका पर शोभित मुद्रिका में साफ लिखा था"सम्राट तोमराज !” और तब विश्वजित् ने अपना आसन छोड़ दिया और तोमराज को हृदय से लगाते हुए कहा - "सम्राट ! हम आज आपसे पराजित हुए । आप सम्राट नहीं, हमारे गुरु हैं, मार्गदर्शक हैं । सचमुच, जिस राष्ट्र में संत को सम्मान नहीं मिलता, वह पथभ्रष्ट और खोखला हो जाता है ।" संत देवलाश्व मुक्त कर दिये गये और विश्वजित की सेनाएं वापस लौट गईं । वन्दनीय साधु को वन्दन करने का फल साधु को वन्दन करने का फल इसलिये महान है कि साधु को वन्दन करने से, उनका सत्संग करने से कोई न कोई हितकर वचन सुनने से कल्याण हो सकता है । सम्यक्त्वरूपी बोधिबीज मिलने से मोक्ष का द्वार खुल सकता है । मोक्षमार्ग की साधना की प्रेरणा भी साधुवन्दन का ही पारम्परिक फल है । जीवन की उलझी हुई गुत्थियाँ वन्दनीय साधु- सम्पर्क से सुलझ जाती हैं, नया रास्ता मिल जाता है, नई सूझ-बूझ मिलती है । इसीलिये उपासकदशांग सूत्र में कहा गया है— तं महाफलं गच्छामि जाव पज्जुवासामि - उस महाफल के पास जाऊं यावत् पर्युपासना करू । महाफल का अर्थ कोई सांसारिक फल नहीं, किन्तु मुक्तिरूप फल है । साधुदर्शन और वन्दन का आनुषंगिक फल कदाचित् सांसारिक भी मिल सकता है, धन-सम्पत्ति, सुखी परिवार, प्रेमी कुटुम्ब, मित्रजन आदि का अच्छा संयोग मिल जाता है, परन्तु मूल महाफल कर्मक्षयरूप मोक्ष या निर्जरा है । एक उदाहरण लीजिये – महाविदेह क्षेत्र में गान्धार नगर था । वहाँ लक्ष्मीसेन राजा का पुत्र विजयसेन था । वहीं सुवसु नामक पुरोहित का विभावसु नामक पुत्र था । विजयसेन राजकुमार और पुरोहित - पुत्र विभावसु में गाढ़ मंत्री थी । एक बार पुरोहित - पुत्र के शरीर में भयंकर रोग उत्पन्न हुआ, जिसके कारण वह अकाल में ही काल कवलित हो गया । इसी अवसर पर गान्धार पर्वत पर चार मुनि पधारे । वहाँ उन्होंने चातुर्मास किया । गुप्तचर ने आकर राजकुमार को समाचार दिया। राजकुमार को साधुओं के प्रति अपार श्रद्धा-भक्ति थी । इसलिये उनकी वन्दना करने गया । वहाँ मुनिराजों को स्वाध्याय करते देखा । धर्मोपदेश सुना और पुनः वन्दन करके घर लौटा। उसके पश्चात् वह प्रतिदिन नियमित रूप से मुनिवन्दन करने जाता रहता था । मुनि भी चारों मास मासक्षपण ( मासिक उपवास ) तप करते थे । चातुर्मास के अन्तिम दिन पिछली रात को राजकुमार ने सोचा - " कल प्रातः काल मुनिवर विहार करेंगे, For Personal & Private Use Only · Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दनीय हैं जो, वे साधु २७१ फिर मैं किनके पास वन्दन करने जाऊँगा ?” यों सोचकर चार घड़ी रात्रि शेष रहते ही राजकुमार मुनि-वन्दनार्थ चल पड़ा । वह थोड़ी-सी दूर चला होगा कि सुगन्धित हवा चलने लगी । आकाश में उज्ज्वल प्रकाश हुआ । गान्धार पर्वत पर जन- कोलाहल सुना तो मन में अत्यन्त हर्षित हुआ । कुछ आगे बढ़ा तो समतल एवं साफ की हुई पृथ्वी मिली । सुगन्धित जल और पुष्प की वृष्टि हो गई थी । देवी-देवों के झुंड के झुंड मिलकर स्तुति कर रहे थे - " अहो ! धन्य हो मुनिवर आपका अवतार ; आपने राग-द्वेष का क्षय किया (घाति) कर्मशत्रुओं की सेना जीती, संसार समुद्र को सुखा दिया ।" ये वचन सुनकर राजकुमार ने विचार किया — गुरुदेव को केवलज्ञान प्राप्त हो गया, प्रतीत होता है । अब ये जन्म-जरा-मृत्यु के दुःखों को काटकर शाश्वत सुख प्राप्त कर रहे हैं । तत्पश्चात् देवों ने सिंहासन की रचना की, जिस पर केवलज्ञानी मुनि विराजमान हुए । अब कुमार को पूरा निश्चय हो गया कि मुनिवर केवलज्ञानी हो चुके हैं। उसने वन्दना की । केवली मुनि ने देशना दी । देव, मानव आदि सब अपनी शंका प्रस्तुत करके समाधान पूछने लगे । राजकुमार ने अपनी शंका व्यक्त की - " भगवन् ! मेरा मित्र विभावसु अकस्मात् मरण-शरण हो चुका । मेरा हृदय उसके वियोग से अत्यन्त दुःखी है । वह मरकर कहाँ गया ? वह अब कहाँ-कहाँ जन्म-मरण करेगा ? सम्यक्त्व कब व कहाँ प्राप्त करेगा, मुक्ति कब प्राप्त करेगा ?" केवली मुनि ने मित्र के जन्मों का समस्त वृत्तान्त बताया कि गणिका के भव में जातिमद करने से वह कुत्ता बना फिर गधा, चाण्डाल- पुत्र, पुत्री, दासीपुत्र, दासीपुत्री, धोबी की पुत्री, धोबी - पुत्र यों अनेक भव करते-करते आनन्द नामक तीर्थकर से मोक्षबीज सम्यक्त्व प्राप्त करेगा । तत्पश्चात् असंख्य भवों में भ्रमण करके गान्धार देश का राजा बनेगा । अमरतेज आचार्य से दीक्षा ग्रहण करेगा । शुद्ध चारित्र पालन करके क्रमशः घातिकर्म क्षय करके केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त करेगा ।" यह सुनकर राजकुमार को संसार से विरक्ति हो गई, माता-पिता से अनुमति प्राप्त करके इन्द्रदत्त मुनिवर से साधु दीक्षा अंगीकार की । शुद्ध चारित्र पालन करते हुए शास्त्राध्ययन करके गीतार्थ हुए। गुरु ने उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया । ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए अनेक शिष्य बनाये । शुद्ध अध्यवसाय से मनः पर्याय ज्ञान उत्पन्न हुआ । क्रमशः मोक्ष प्राप्त किया । यह है, वन्दनीय साधु को वन्दन करने का अनेक गुण- प्राप्ति रूप सुफल ! साधु -वन्दना की अन्तर्गत प्रक्रियाएँ महर्षि गौतम ने उत्तम साधु को वन्दना करने का जो उपदेश दिया है, उसके पीछे एक महान् अर्थ छिपा हुआ है । जैनशास्त्रों में जो गुरुवन्दन का पाठ है, उसमें वन्दना के अन्तर्गत अनेक प्रक्रियाएं बताई गई हैं, और उन सबका समावेश 'मत्थएण वंदा' (मस्तक झुकाकर वन्दना करता हूँ) के अन्तर्गत किया है । वे प्रक्रियाएं क्रमशः इस प्रकार हैं For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ (१) आयाहिणं पयाहिणं करेमि - दाहिनी ओर से तीन बार वन्दनीय साधुवर के चारों ओर प्रदक्षिणा करता हूँ । २७२ इसका रहस्य यह है कि मैं वन्दनीय पुरुष को मन-वचन काया से सर्वथा स्वीकार करता हूँ । (२) वंदामि - मैं अभिवादन और स्तुति करता हूँ । (३) नम॑सामि – नमस्कार करता हूँ। दोनों हाथ जोड़कर मस्तक के साथ स्पर्श करना नमस्कार है । (४) सक्कारेमि - मैं वन्दनीय पुरुष का सत्कार करता हूँ । उनके उत्तम कृत्यों का समर्थन करना सत्कार है । उनके वचनानुरूप कार्य करना भी सत्कार है । (५) सम्माणेमि - मैं वन्दनीय पुरुष का सम्मान करता हूँ। उनकी प्रतिष्ठा करना, उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति प्रकट करना सम्मान है । (६) कल्ला - हे वन्दनीय पुरुष ! आप कल्याण रूप हैं, ऐसा मानना । (७) मंगलं - हे वंदनीय पुरुष ! आप मंगलरूप हैं, ऐसा समझना । (८) देवयं - हे वन्दनीय गुरुवर ! आप देवतारूप हैं, यों मानना । (e) चेइयं - हे वंदनीय पुरुष ! आप ज्ञानस्वरूप हैं, ज्ञानमूर्ति हैं, पूजनीय हैं । I (१०) पज्जुवासामि – आपकी सब प्रकार से मैं सेवा-भक्ति, उपासना करता हूँ । सत्कार, सन्मान ये मनोयोग, कल्याण से लेकर चार शब्द वचन योग, पर्युपासना कायायोग से - इन सब प्रक्रियाओं के सहित वन्दना ही वास्तविक वन्दना है । कोरा मस्तक झुका लेना या मुँह पर थोड़ी बहुत प्रशंसा कर लेना, वन्दना का निष्प्राण स्थूल रूप हो सकता है, वन्दना में प्राण तो उपर्युक्त प्रक्रिया के पूर्ण करने से ही आता है । आज अधिकांश धनी-मानी सत्ताधीश लोग जीवित और तेजस्वी साधु के पास पहुँचते नहीं, पहुँचते भी हैं तो ऊपर की प्रक्रिया सहित वन्दना नहीं करते । वे संत की पूजा करते हैं, परन्तु संत की बात को त्याग तप से युक्त प्रेरणा को नहीं मानते । दुनिया में जीवित जागृत एवं तेजस्वी साधुओं का जीते-जी अपमान हुआ है, उनके मरने के बाद उनकी पूजा-प्रतिष्ठा की गई है । इसी कारण प्रण से वन्दना नहीं हुई । दुनिया इसीलिए पिछड़ी हुई है, । इसीलिए महर्षि गौतम को कहना पड़ा - साहू ते अभिवंदियव्वा For Personal & Private Use Only सच्चे वन्द्य पुरुष की प्राणधर्म-विमुख है; प्रदर्शनप्रिय Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. ममत्वरहित ही दान- पात्र हैं प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं ऐसे उत्तम जीवन की झाँकी दिखलाना चाहता हूँ जो ममता-मूर्च्छा से रहित । ऐसा निर्ममत्वपूर्ण जीवन जिस महान् आत्मा का होता है, वही दान का उत्कृष्ट पात्र है । ऐसे निर्ममत्व स्वभावी महान् साधक को दान देकर लाभ उठाना चाहिए । गौतमकुलक का यह ६२वाँ जीवनसूत्र है । इस जीवनसूत्र का संकेत है— जे निम्ममा ते पडिलाभियव्वा जो ममत्वरहित साधु पुरुष हैं, उन्हें दान देकर लाभ उठाना चाहिए। ममत्वरहित पुरुष कौन हैं, उन्हें दान देने से क्या लाभ है ? दान भी कब, कैसे, किस विधि से और किस वस्तु का देना चाहिए ? आइये, हम इस सम्बन्ध में गहराई से चर्चा कर लें । ममत्वरहित कौन और कैसे ? ममत्व जहाँ होता है, वहाँ निःस्पृहता, त्यागवृत्ति, निरपेक्षता, निराकांक्षता नहीं होती । ममत्व होता है, वहाँ वस्तुओं का संग्रह करने की वृत्ति होती है । उस व्यक्ति को बार-बार अपने द्वारा संगृहीत वस्तु को सहेजकर रखने की, उसकी सुरक्षा की, और कोई चुरा न ले जाये, इस बात की चिन्ता रहती है । अगर वस्तु का वियोग हो गया या वह नष्ट हो गई तो फिर उसके मन में आतं ध्यान - रौद्रध्यान होगा । इसलिए ममत्व ही सारे खुराफातों की जड़ है । जिसके मन-वचन-कर्म में ममत्व नहीं रहेगा, 'मैं' और 'मेरापन ' वस्तु से हट जायेगा, उसे न तो संग्रह करने की चिन्ता रहेगी, न ही सहेजकर रखने की या सुरक्षा की चिन्ता रहेगी। किसी के द्वारा वस्तु के चुरा ले जाने, या वस्तु के नष्ट हो जाने पर भी उसे आर्त्त ध्यान - रौद्रध्यान नहीं होगा, वह अपनी समत्ववृत्ति में लीन रहेगा । जब मनुष्य ममत्वरहित हो जाता है तब उसे सिर्फ अपनी ज्ञान-दर्शन- चारित्र की साधना, शुद्धात्मा की आराधना आदि करना ही रहता है । इसके लिए उसे समय भी काफी मिलता है, निश्चिन्तता भी रहती है, क्योंकि जो व्यक्ति ममत्व का त्याग कर देता है, अपने घर-बार, कुटुम्ब - परिवार, जाति-कुल- प्रान्त - भाषा और राष्ट्र के प्रति या धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद आदि सबका ममत्व छोड़कर साधुत्व या संन्यास अंगी - कार लेता है, उसे अपने उदर-भरण की या शरीर - निर्वाह की स्वयं चिन्ता नहीं करनी पड़ती है । समाज उसकी स्वतः चिन्ता करने लगता है, उसमें इतना आत्म-विश्वास या For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ परमात्म-विश्वास बढ़ जाता है कि वह किसी भी स्थिति में चिन्ता नहीं करता कि अब मेरा क्या होगा ? मुझे अन्न, वस्त्र या रहने के लिए मकान मिलेगा या नहीं ? वैसे तो जब से वह गृहादि पर से ममत्व छोड़कर साधु-दीक्षा ले लेता है, तभी से उस महान् आत्मा को भिक्षा करके आहारादि प्राप्त करने का अधिकार मिल ही जाता है । परन्तु उसे यह अधिकार नहीं मिलता कि वह गृहस्थों के यहाँ से बढ़िया-बढ़िया खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने या रहने की सामग्री चाहे या प्राप्त करने की इच्छा करे। न ही गृहस्थों पर दवाब डाले कि मुझे तुम्हें अमुक प्रकार का आहारादि देना ही पड़ेगा, नहीं दोगे तो मैं शाप दे दूंगा अथवा तुम्हारा सम्प्रदाय छोड़ दूंगा अथवा गृहस्थों को यह धमकी दे कि मुझे अमुक-अमुक पदार्थ नहीं दोगे तो नरक में जाओगे, या मरकर पशुपक्षी की योनि में चले जाओगे । जिसने अपना गृहादि छोड़ दिया ऐसे साधु का अपने अनुयायी वर्ग, शरीर, वस्त्र आदि पर से अभी ममत्व नहीं छूटा है; अच्छा खाने-पीने, पहनने और रहने की लालसा को अभी तक मन में संजोये हुए है । वह जैन शास्त्रों की भाषा में त्यागी नहीं है । जैसा कि दशवकालिकसूत्र (२/२) में कहा गया है वत्थगंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य । अच्छन्वा जे न भुजंति, न से चाइ ति वुच्चइ ।। -जो साधक स्वाधीन रूप में वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, आभूषण, सुन्दर स्त्रियाँ और शय्यादि अच्छी-अच्छी भोग सामग्री का उपभोग नहीं कर पाता, उसे त्यागी नहीं कहा जा सकता। . तात्पर्य यह है कि जिस साधक ने एक बार तो सब भोग सामग्री छोड़ दी है, किन्तु जगह-जगह गृहस्थों के यहाँ उन्हें देख-देखकर मन में उनकी प्राप्ति की लालसा करता है, मन ही मन असन्तोष से कुढ़ता रहता है, मगर प्राप्त करना उसके वश की बात नहीं है, वह साधक वास्तव में त्यागी नहीं है। वह त्याग की ओट में अन्दर-अन्दर भोग-वृत्ति का पोषण करता रहता है। परन्तु जिस साधक के अधीन ये उपभोग्य पदार्थ हैं या वह प्राप्त कर सकता है, मगर हृदय से जो उन्हें त्याग देता है वही सच्चा त्यागी है । आगे की गाथा इसी बात को स्पष्ट करती है जे य कंते पिए भोए लद्ध विपिटिठ कुव्वइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चइ ॥ -जो साधक कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ स्वाधीन भोग (भोग सामग्री) प्राप्त होने पर उनकी ओर पीठ कर देता है, उनका हृदय से त्याग कर देता है, वही त्यागी कहलाता है। ___ यहाँ इन भोग्य पदार्थों के त्याग करने का अर्थ केवल छोड़ देना नहीं है, क्योंकि कौन-से ये पदार्थ पकड़े हुए थे, जो इन्हें छोड़ देना है ? इसलिए इसका रहस्यार्थ यह है कि इन पदार्थों के प्रति जो ममत्व या लालसा चिपकी हुई थी, उसको मन से त्यागना ही वस्तुतः त्याग है । For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्वरहित ही दान-पात्र हैं २७५ साधु जब साधुजीवन की दीक्षा लेता है, तब क्या करता है ? घर-बार आदि पदार्थों पर जो ममत्व है, मेरापन है, तथा उसी ममत्व के कारण बार-बार संभालने, सुरक्षा करने, बढ़ाने आदि की चिन्ता लगी रहती है, उन सबका त्याग करता है। वह 'अप्पाणं वोसिरामि' करके शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति जो ममत्व है, उसका त्याग करता है, अर्थात् हृदय से इन सब पदार्थों के प्रति ममत्व का त्याग करता है। जो साधु मन से ममत्व-बुद्धि को नहीं छोड़ता, उसे पद-पद पर जीने का, शरीर का तथा शरीर से सम्बद्ध आहार-वस्त्र आदि का मोह-ममत्व सताया करता है। वह इन्हीं सांसारिक पदार्थों की उधेड़बुन में रचा-पचा रहता है, न तो वह आत्मकल्याण की बात सोच पाता है, और न ही विश्वकल्याण की। मुख से वह भले ही उच्चारण कर ले कि मैं सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् व्यवहार करता हूँ, मैं किसी से कुछ नहीं चाहता, परन्तु पद-पद पर वह इसी ममत्व के जाल में फंसकर अपने देह-गेह, अनुयायी आदि की चिन्ता करता रहता है । उसकी यह चिन्ता तब तक नहीं मिटती और वह आध्यात्मिक विकास भी तब तक नहीं कर पाता, जब तक देहासक्ति में राजस्थान के संत सुन्दरदासजी ने ठीक ही कहा हैगह तज्यो पुनि नेह तज्यो, पुनि खेह' लगाइके देह संवारी । मेघ सहै सिर सीत सहै, तन धूप सहै जु पंचागनि बारी ॥ भूख सहै, रहि रूख तरै, पर 'सुन्दरदास' समै दुःख भारी। डासन छोड़ि के कासन ऊपर, आसन मारि पै आस न मारी ।। भावार्थ स्पष्ट है। जो साधु का स्वांग रचकर आशा-तृष्णा को नहीं मारता, उन्हें मन में लिये फिरता है, समझ लो वह अभी तक ममत्व के पिंजरे में बंधा है । निर्ममत्व एवं स-ममत्व की पहचान प्रश्न होता है, किसी साधक के मस्तक पर कोई साइनबोर्ड तो लगा हुआ नहीं होता कि यह साधु निर्ममत्व है या स-ममत्व है, फिर इन दोनों की पहचान और विवेक कैसे किया जा सकता है ? मेरो नम्र दृष्टि से स्थूलदृष्टि से इन दोनों की पहचान होनी कठिन है; मुख्यतया दोनों के व्यवहार एवं वृत्ति-प्रवृत्ति पर से ही इनका निर्णय हो सकता है। जो कुछ मन-मस्तिष्क में होता है, वह या तो चेष्टाओं तथा प्रवृत्तियों पर से या व्यवहार पर से ज्ञात हो सकता है। मनुष्य चाहे कितना ही छिपा ले, कितना ही कूट-कपट कर ले या दम्भक्रिया कर ले, आखिर तो उसकी किसी न किसी दिन कलई खुलकर ही रहती है। बाह्यदृष्टि में कई साधक घर-बार, कुटुम्ब-कबीला, धन-सम्पत्ति आदि का ममत्व १. राख For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ छोड़कर साधु-जीवन में शिष्य-शिष्या, भक्त-भक्ता, विचरण-क्षेत्र, स्थानक-उपाश्रय, वस्त्रपात्र, उपकरण आदि पर सावधानी न रखे तो फौरन मोह-ममत्व चिपक जाता है । फिर वह चालाकी से उस सम्बन्ध में सफाई देता रहता है, यह मेरा नहीं, संस्था का है, सम्प्रदाय का है, समाज या संघ का है । जो हृदय से ममत्व छोड़ देता है, वह तो इस ममता की वैतरणी को पार जाता है, लेकिन जो इस ममता को–साधु-जीवन में आई हुई ममता-मूर्छा को खदेड़ता नहीं, बार-बार उसमें लिपटता रहता है, वह माया के मायाजाल में ही भटकता रहता है। एक ऐतिहासिक उदाहरण द्वारा मैं अपने विषय को स्पष्ट कर दूं तो अच्छा रहेगा एक राजा वृद्ध हो गया था। उसने अपने पूर्वजों के आदर्श के अनुसार जीवन का अन्तिम समय त्याग में बिताने का निश्चय किया। राजा ने अपना निश्चय राजकुमार मंत्री आदि सबको सुनाया। इससे उन्हें जरा आघात भी लगा। राजकुमार ने प्रार्थना की-"पिताजी ! वैसे तो आपका विचार उत्तम है, पर उसके लिए घर-बार और कटम्ब-परिवार को छोड़कर जाने की क्या आवश्यकता है ?” राजा ने कहा-''बेटा! यहाँ रहने से फिर वही मोह-ममता लग जायेगी, परिवार की सारी जिम्मेवारी निभानी पड़ेगी तथा राज्य का त्याग करने पर भी यदा-कदा बरबस राज्य-कार्य में भाग लेना पड़ेगा। इसलिए मैं तुम्हें घर-बार तथा राज्यकार्य सब कुछ सौंपकर जाना चाहता हूँ।" मंत्री तथा राजदरबारियों को भी राजा का इस प्रकार सर्वस्व त्याग कर जाना अखरता था। परन्तु राजा के दृढ़निश्चय के आगे सभी को झुकना पड़ा। विदाई का दिन निश्चित हो गया। राजा ने राजकुमार का विधिवत् राज्याभिषेक करके उसे राज्य सौंप दिया। राजा ने राजकुमार तथा मंत्री आदि के बहुत आग्रह के बावजूद अपने साथ सिर्फ एक सेवक और एक सामान लदा हुआ घोड़ा ले चलने का निश्चय किया। स्वयं पैदल चलकर नगर के बाहर आया। राज-परिवार, राजकुमार, मंत्री आदि सब दरबारियों और प्रजाजनों ने अश्र पूर्ण नेत्रों से अपने प्रिय राजर्षि को भावभीनी विदा दी। राजा सबको आशीर्वादसूचक दो शब्द कहकर आगे बढ़ गये । चलते-चलते दोपहर को राजर्षि ने एक छायादार वृक्ष के नीचे विश्राम किया। सेवक ने घोड़े पर से राजर्षि का सादा बिछौना निकाला और वहीं पेड़ के नीचे बिछाकर आराम करने को कहा । स्वयं बर्तन निकालकर भोजन बनाने लगा। राजर्षि का भोजन बन रहा था, तभी एक किसान आया। उसने पेड़ के नीचे जगह साफ करके अपना अंगोछा बिछाया और हाथ का तकिया बनाकर सो गया । करीब आधा घंटा सोकर वह उठा और चल दिया। राजर्षि ने चिन्तन किया-ओहो ! यह किसान तो यों ही एक वस्त्र बिछाकर सो गया, फिर मुझे गद्दे-तकिये की क्या जरूरत है ? नौकर से कहा-“माधव ! हम नाहक ही गद्दा-तकिया लाये, इन्हें वापस ले जा।" For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्वरहित ही दान-पान हैं २७७ कुछ देर बाद एक और किसान आया, उसने एक हाथ पर रूखी रोटी और थोड़ा-सा साग लिया और दूसरे हाथ से कौर तोड़कर खाने लगा। थोडी देर में जब वह भोजन करके चल दिया तो राजर्षि ने चिन्तन करके सेवक से कहा- "भैया ! हम व्यर्थ ही खाने-पीने के लिए इतने बर्तन और सामान लाये । इस किसान की तरह मैं भी तो हाथ पर या किसी एक ही बर्तन में खा सकता हूँ। यह सारा सामान तू वापस ले जा । मुझे नहीं चाहिए । और तुम भी अब घोड़े सहित वापस लौट जाओ। संन्यासी को यह सब अडंगा रखने की क्या जरूरत है ?" सेवक कहने लगा-"सरकार ! आपको अभी अभ्यास नहीं है। आप तकलीफ पायेंगे । जब तक अभ्यास न हो जाये, तब तक सब सामान और मुझे रखे रहिये ।" परन्तु राजर्षि ने भोजन से निवृत्त होकर प्रेमाग्रहपूर्वक उस सेवक को सामान सहित वापस भेज दिया। अब राजर्षि अकेले चलकर अगले पड़ाव पर आये । एकाकी, अकिंचन और निःस्पृह बनकर राजर्षि ने गाँव के बाहर वट वृक्ष के नीचे अपना आसन जमाया । दूसरे ही दिन से सारे गाँव में शोहरत हो गई। राजर्षि किसी से कुछ माँगते नहीं थे, फिर भी लोग खाने-पीने की तरह-तरह की चीजें लाकर उनके सामने ढेर करते जाते । राजर्षि एक-दो रूखी रोटी और थोड़ा सा साग खाकर शेष भोजन वहीं बाँट देते । मिठाइयों और फलों को तो छूते ही न थे। यों तीन दिन हो गये । तीसरे दिन एक देवदूत आया, हाथ में झाडू लेकर सफाई करने के लिए। राजर्षि ने पूछा तो कहने लगा-"मुझे अपने स्वामी द्वारा आदेश मिला है कि राजर्षि जहाँ बैठते हैं, वहां की सफाई कर दो, दरी और गलीचा बिछा दो।" राजर्षि ने कहा- "मैं तो यहाँ की सफाई स्वयं कर लेता हैं और अपना आसन बिछाकर बैठता हूँ। मेरे पास मौकर क्या कम थे? मैं देवदूत को क्यों तकलीफ दूं?" __ पर देवदूत नहीं माना और सफाई करके दरी-गलीचा बिछाकर चला गया। इतने में एक देवदूत पक्वान्न लेकर आया और राजर्षि को देने लगा। राजर्षि ने कहा"मुझे आवश्यकता नहीं है। आवश्यकतानुसार मुझे ग्रामीण लोगों से मिल ही जाता है।" फिर भी देवदूत न माना और वहां रखकर चला गया । यो प्रतिदिन दोनों देवदत आकर अपना-अपना कार्य कर जाते । राजर्षि अपने भजन में मस्त रहते । उसी गांव के एक किसान ने राजर्षि का यह रंग-ढंग देखा तो बहुत आकर्षित हुआ और आकर भक्तिभाव से पूछने लगा-"महात्माजी ! मुझे भी ऐसा उपाय बताइये, जिससे आपके जैसे ठाठ लग जायें। मैं भी अपनी गृहस्थी से तंग आ गया हूँ।" राजर्षि बोले-"भाई ! मैं स्वयं इसका उपाय नहीं जानता। मैंने तो परमात्मा के नाम पर सब कुछ छोड़ा तो मुझे उन्हीं की कृपा से शरीर के लिए आवश्यक भोजन मिल जाता है । ग्रामीण लोग मिठाइयाँ, फल आदि ले आते हैं । उन्हें मैं नहीं लेता। For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ मुझे तो दो रोटी और थोड़े से साग की जरूरत होती है, वह ले लेता हूँ, बाकी सब बाँट देता हूँ। तुम भी इसी तरह करो। शायद तुम्हारे भी ठाठ लग जायें।" किसान घर गया और अपनी घरवाली को समझा दिया कि "मैं उस बड़ वाले बाबा का चेला बन रहा हूँ। अपना सब दलिद्दर दूर हो जायेगा।" यों किसान अपनी पत्नी के मना करते-करते सीधा बड़ वाले बाबा के पास जा पहुँचा। वहाँ एक ओर अपना आसन जमा लिया और जप करने लगा। एक-एक करके तीन दिन हो गये। अभी तक कोई देवदूत नहीं आया। तीसरे दिन मध्याह्न में एक देवदूत एक मोटी रोटी और साग लेकर आया। किसान-बाबा आग-बबूला हो रहा था। देवदूत के आते ही उसने पूछा-“तू कौन है ? क्यों आया है ?" उसने कहा-“मैं देवदत हूँ। हमारे स्वामी ने मुझे आपके लिए भोजन लेकर भेजा है।" किसान ने गुस्से में आकर कहा"अब तक कहाँ मरा था ? तीन दिन हो गये मुझे भूखों मरते ! ला, क्या-क्या लाया है ?" ज्यों ही थाली में रूखी रोटी और साग देखा, किसान-बाबा ने एकदम थाली फेंक दी और कहा-"क्या इस रूखी रोटी के लिए मैंने घर छोड़ा था ? रूखी रोटी की घर में क्या कमी थी ? उस बाबा को तो छप्पन भोग और मुझ रूखी रोटी! जा अपने मालिक से कह दे, मैं नहीं लेता।" देवदूत वापस गया और अपने मालिक से सारा वृत्तान्त कहा । मालिक ने कहा-"उस राजर्षि ने तो राज-पाट, वैभव वगैरह सब छोड़ा है, फिर भी वह जो भी पक्वान्न आदि यहाँ से जाता है, लेता नहीं है। सिर्फ रूखी रोटी और साग लेता है। और यह तो खाने-पीने और अपनी दरिद्रता दूर करने के लिए ही बाबा बना है। इसका गृहत्याग हृदय से नहीं । यह तो इस रूखी रोटी का भी हकदार नहीं है। जाकर कह दो, लेना हो तो यह रूखी रोटी-साग ले लो, अन्यथा यह भी नहीं मिलेगा।" देवदूत ने किसान-बाबा से सारा वृत्तान्त कहा। अब तो उसका सारा वैराग्य उड़ गया । सोचने लगा—'नाहक ही इस बाबा (राजर्षि) की देखा-देखी हैरान हुआ। वह बाबा का स्वांग छोड़कर पुनः गृहस्थी में जा फंसा । राजर्षि ने हृदय से त्याग किया था, स्वेच्छा से समझ-बूझकर निष्काम भाव से छोड़ा था, इसलिए लोग उनकी आवश्यकतानुसार उत्साह और श्रद्धाभक्ति से सेवा करते थे। हाँ तो मैं कह रहा था, जो व्यक्ति हृदय से समझ-बूझकर त्याग नहीं करता, किसी स्वार्थ, स्पृहा, कामना या लालसा से प्ररित होकर छोड़ता है, वह ममत्वत्यागी नहीं है; ममत्वत्यागी वह है, जो बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार से स्वेच्छा से समझबूझकर त्याग करता है। उसके त्याग के पीछे कोई लालसा, स्वार्थ या बदले में कुछ लेने की भावना या कोई कामना नहीं होती । न ही उसे त्याग का अहंकार होता है। त्याग की ओट में वह लोगों को अपनी ओर आकर्षित करके उनसे विविध भोग-सामग्री, अनावश्यक पदार्थ लेने की स्पृहा नहीं करता है । न ही उस त्याग से होने वाले फलइहलौकिक या पारलौकिक सुख-साधनरूप परिणाम की आकांक्षा रखता है । ऐसा त्याग For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्वरहित ही दान-पात्र हैं २७६ परायण साधु अपनी आवश्यकतायें कम से कम रखता है । आवश्यक वस्तुओं में से भी कोई वस्तु अगर अपने नियमानुसार विधिपूर्वक मिलती हो तभी ग्रहण करता है अन्यथा संतोषपूर्वक चला लेता है। आवश्यकतानुसार वस्तु न मिलने पर या गृहस्थ लोगों द्वारा श्रद्धाभक्तिपूर्वक न देने पर भी वह न किसी पर नाराज होता है, न किसी प्रकार की शिकायत करता है, और न ही किसी के समक्ष दीनता प्रकट करता है। स्वाभिमानपूर्वक यथालाभ-सन्तोष ही उसके जीवन का मूलमंत्र होता है । आई हुई भोग्यसामग्री को ठुकराने वाले निर्ममत्व संत तुकाराम संत तुकाराम के अभंग (आत्मिक भजन) और कीर्तन सारे महाराष्ट्र में गांवगाँव में गूंज रहे थे । देहू नाम के एक छोटे-से गाँव में भगवान् बिठोबा का एक साधारण मन्दिर था। जब से संत तुकाराम उस मन्दिर में भजन-कीर्तन करने लगे, तब से वह साधारण मन्दिर एक आकर्षक तीर्थस्थल बन गया। धर्मप्रिय भक्तजनों की टोली चारों ओर से सिमट-सिमटकर आती और संत तुकाराम के भजन-कीर्तन सुनकर आनन्दमग्न हो जाती थी। संत तुकाराम की कीर्ति फैलती-फैलती छत्रपति शिवाजी के कानों में पहुँची तो उनका हृदय ऐसे संत के दर्शन करने के लिए उत्सुक हुआ। फलतः उन्हें राजदरबार में शाही ठाठ से लाने और फिर उनका समुचित सत्कार करने निश्चय किया गया। संत को राजसभा में पधारने के लिए सरकारी हाथी, घोड़े, पालकी, लवाजमा एवं सेवक एक दरबारी के साथ भेजे गये, साथ में कीमती पोशाकें और आभूषण भी।' इस शाही ठाठ को देखकर संत तुकाराम उस दरबारी से बोले- "भाई ! मैं तो बिठोबा का एक नगण्य भक्त हूँ। इससे मैं राजा-महाराजा व उनके महलों तथा उनके सम्मान का पात्र नहीं हूँ। जब वहाँ जाना ही होगा तो मुझे भगवान ने दो पैर दिये हैं, उन्हीं से वहाँ पहुँच जाऊंगा। इससे ये हाथी, घोड़े, पालकी आदि मेरे लिए व्यर्थ हैं । जरी की ये कीमती पोशाकें और बहुमूल्य आभूषण मुझ भिक्षुक के लिए लज्जास्पद हैं । अतः मैं इन्हें ग्रहण करने में असमर्थ हूँ।" दरबारी–“संतजी ! अगर हम कोरे लौटेंगे तो छत्रपतिजी को क्या उत्तर देंगे?" तुकाराम-"भाई ! उनसे मेरा आशीर्वाद कहना और यह कहना कि तुकाराम अपने भगवान की सेवा से एक दिन भी विमुख नहीं होना चाहता।" गाँव वाले इस पर हंसे कि तुकाराम गंवार है । घर आई हुई लक्ष्मी को इसने लात मार दी। मन्दिर के साथी भी आशा बांधे थे, वे भी नाराज और निराश हुए। जब वह दरबारी कोरे हाथ राजधानी लौटा तो दूसरे दरबारी समझे कि छत्रपति शिवाजी राजाज्ञा-उल्लंघन के कारण संत तुकाराम को अवश्य दण्ड देंगे, किन्तु शिवाजी संत की निःस्पृहता और निर्भयता से और भी प्रभावित हुए। बोले-"मैं आज ही उस महान् संत के दर्शनों का पुण्य-लाभ लेना चाहता हूँ।" For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० आनन्द प्रवचन : भाग ११ उस छोटे-से गांव में जब शिवाजी आये तो सारा ग्राम आश्चर्यचकित हो गया। घर-घर शिवाजी की जय-ध्वनि गूंज उठी। संत तुकाराम को देखते ही शिवाजी उनके चरणों में लोट गये । संत बोले-"छत्रपति ! हं हं आप यह क्या करते हैं ? राजा तो देवांश होता है अतः आप महान् हैं।" ऐसा कहकर उन्हें उठाया और गद्गद स्नेह से गले लगा लिया। शिवाजी बोले-"मैं आपके दर्शनों से कृतार्थ हुआ। मेरी प्रार्थना है कि आप मेरी यह तुच्छ भेंट स्वीकार करें।" ऐसा कह शिवाजी ने स्वर्णमुद्राओं का ढेर उंडेल दिया, वस्त्र एवं आभूषण भी। "आप यह क्या करते हैं, महाराज ! माया से प्रभुभक्ति में बाधा आती है। भक्ति को निराबाध रखना राजा का प्रथम कर्तव्य होता है। फिर आप स्वयं इस बाधा को सामने ला रहे हैं।" शिवाजी-“यह तो आपके व आपके परिवार-निर्वाह के लिए अर्पित है । इसे अपनी भक्ति में बाधक नहीं, साधक समझकर कृपया स्वीकार कीजिए।" तुकाराम-"सुनो छत्रपति ! मुझे जब भूख लगती है तो बिठोबा के नाम पर जो मधुकरी मिल जाती है, वही मेरा अमृत भोजन है। रास्ते में पड़े चिथड़ों को सीकर यह शरीर ढंक लेता हूँ। वह मेरा प्रिय वस्त्र है और यह विशाल भूमि मेरा बिछौना है। मन आये वहीं सो जाता हूँ। फिर मुझे कमी किस बात की है ? शेष समय भगवान बिठोबा की सेवा में लगाकर अपूर्व आनन्द में मग्न रहता हूँ। इसलिए आपके द्वारा अर्पित ये धन, आभूषण वस्त्रादि मेरे लिए अनुपयोगी हैं । अतः मैं इन्हें स्वीकार करने में असमर्थ हूँ।" शिवाजी ने अपने जीवन में पहली बार ऐसा अनोखा संत देखा जो इतना अनासक्त, इतना ममत्वरहित इतना निर्लेप था ! वह गद्गद हृदय से बोले-“धन्य है, भक्ति शिरोमणि ! ऐसी अद्भुत निःस्पृहता, अकिंचनता और निर्भयता मैंने कहीं नहीं देखी।' फिर उनके चरणों में सिर रखकर बोले-“शिवा के कोटि-कोटि प्रणाम !" इस प्रकार संत तुकाराम आजीवन निःस्पृह और अकिंचन रहे । वे भौतिक सम्पदा से निर्धन, किन्तु आत्म-सम्पदा के महान् धनी थे । यह है, निर्ममत्व का अनुपम उदाहरण जिसमें साधक आत्म-साधना में लीन रहकर अपनी ज्ञानगंगा में डुबकी लगाता रहता है। इस प्रकार के साधुओं के लिए दशवकालिक सूत्र में कहा गया है सओवसंता अममा अकिंचणा । ..."उउप्पसन्ने विमले व चंदिमा ॥ वे सदा उपशान्त, निर्ममत्व और अकिंचन होकर ऐसे निर्मल एवं स्वच्छ प्रतीत होते हैं-मानो ऋतु साफ-स्वच्छ होने पर निर्मल चन्द्रमा आकाश में सुशोभित हो रहा हो। For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्वरहित ही दान-पात्र हैं २८१ समत्वधारक हो वही निर्ममत्व साधु सच्चा साधु समत्वधारी होता है। वह शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं की गुलामी नहीं करता। वह किसी प्रकार से इन्द्रियों की दासता नहीं स्वीकारता । जहाँ व्यसनों की गुलामी होती है, वहां न तो स्व-पर-कल्याण-साधना हो सकती है और न परमात्मा की आराधना । वह कष्ट आते ही शरीरासक्ति के कारण हाय-तोबा मचाने लगता है । कष्ट आ पड़ने पर वह आर्तध्यान करता है, निमित्तों को कोसता है, शरीर के प्रति ममत्व के कारण चिन्तित होता है, रोता-पीटता है। परन्तु ममत्वहीन साधु सदैव शान्ति और समता में मग्न रहते हैं। वे कष्ट को एक प्रकार का कायक्लेश तप समझते हैं । कष्ट को वे कष्ट नहीं समझते, न कष्टों से घबराते हैं। क्योंकि देह पर उनकी आसक्ति नहीं होती, न ही देहाध्यास के कारण वे आत्तं ध्यान करते हैं। ऐसे साधुगण सदैव गृहस्थों के लिए पूजनीय और आदरणीय होते हैं। इनका जीवन सदैव दूसरों के उपकार में रत रहता है । वे अपने लिए कुछ नहीं चाहते, परन्तु अगर कोई व्यक्ति पीड़ा में हो तो वे उसके लिए चिन्तित रहते हैं। ऐसे अकिंचन सन्त अपने आपको दरिद्र नहीं समझते, वे स्वाभिमानपूर्वक अपने आप में यथालाभसन्तोषी होते हैं। ऐसे अकिंचन साधु किसी के द्वारा धन या सोना-चाँदी या हाथी-घोड़े आदि दिये जाने पर नहीं लेते, न ही किसी प्रकार की भोग्यसामग्री की इच्छा रखते हैं। एक सम्राट सन्तों का बहुत ही सम्मान किया करता था । जब भी उस पर कोई संकट आ पड़ता, वह सन्तों की सेवा में पहुँचता और उनकी खूब सेवा शुश्रषा करता था। एक बार उस सम्राट ने किसी संकट-निवारण के हेतु यह संकल्प किया कि यदि मेरा संकट टल गया तो मैं एक हजार रुपये की थैली संतों को भेट करूंगा। कुछ समय पश्चात् उस सम्राट् का संकट का समय टल गया, तो उसने अपने एक कर्मचारी को एक हजार रुपये की थैली देकर सन्तों को भेंट देने हेतु भेजा । कर्मचारी दिनभर इधर-उधर घूमता रहा, पर कोई भी सच्चा सन्त उस भेंट को लेने को तैयार न हुआ। सभी कहते थे-हमें नहीं चाहिए। हमारे लिए धन किस काम का ? शाम को कर्मचारी थैली वापस लेकर सम्राट के समक्ष उपस्थित हुआ। कर्मचारी को भरी थली लिये वापस आये देख सम्राट को बहुत आश्चर्य हुआ। सम्राट ने इसका कारण पूछा तो कर्मचारी बोला-"हजूर ! मैंने बहुत ही खोज-बीन की परन्तु उपयुक्त पात्र मुझे एक भी न मिला, जिसे मैं थैली भेंट करता।" सम्राट कुद्ध होकर बोला- "मूर्ख ! इस नगर में ५ से अधिक सन्त हैं, फिर भी तुमको ऐसा कोई संत क्यों नहीं मिला, जिसे तुम यह थैली भेंट करते ? तुम बहुत विचित्र व्यक्ति हो।" कर्मचारी बोला-“सरकार ! नगर में सन्त तो बहुत हैं, मगर वे आपके धन को छूते भी नहीं और जो धन का इच्छुक है, वह सन्त नहीं है । इसलिये For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ मैंने इसे वापस लाना ही उचित समझा।" कर्मचारी की बात बन बादशाह बहुत प्रश्न हुआ। दान का अधिकारी : अकिंचन साधु दान देने में विधि, द्रव्य और दाता का जितना महत्त्व है, उससे भी अधिक महत्त्व पात्र का है । पात्र देखे बिना दिया गया दान सफल दान नहीं कहलाता। देय द्रव्य भी आदाता के अनुरूप योग्य हो, दाता भी योग्य हो, और विधिपूर्वक भावना के साथ दान दे रहा हो, किन्तु दान लेने वाला पात्र अच्छा न हो, दुर्गुणी हो, मांसाहारी, शराबी, हत्यारा, चोर, डाकू आदि हो, अथवा सशक्त, स्वस्थ, हट्टा-कटा गृहस्थ हो, तो वह दान का उत्तम पात्र नहीं होता। भिक्षा लेने का यथार्थ अधिकारी भारतीय संस्कृति में उसे ही बताया है, जो अकिंचन, अनगार, भिक्षु या साधु-संन्यासी हो। साधुओं, श्रमणों, भिक्ष ओं और त्यागियों द्वारा निःस्पृह एवं निरपेक्ष भाव से यथालाभ-संतोषवृत्ति से जो भिक्षा की जाती है, उसे ही सर्वसम्पत्करी, अमीरी एवं श्रेष्ठ भिक्षा कहते हैं। दूसरी पौरुषघ्नी भिक्षा है, जो हटटे-कटटे धन-धान्यसम्पन्न, सशक्त, एवं सर्वागपूर्ण तथा कमाने खाने की शक्ति वाले तथाकथित लोगों द्वारा की जाती है। तीसरी भिक्षा वृत्ति वह है, जो अन्धे, लूले, लंगड़े, अंगविकल, अशक्त, असाध्य, रुग्ण, अतिनिर्धन, दयनीय लोगों द्वारा की जाती है। हाँ तो सर्वसम्पत्करी और श्रेष्ठ भिक्षा उन अकिंचन और निःस्पृह साधु मुनिवरों की है, जो अपने पास किसी प्रकार की सम्पत्ति या साधन नहीं रखते, पचनपाचन, क्रय-विक्रय आदि के प्रपंचों से दूर रहते हैं। इसीलिए महर्षि गौतम ने स्पष्ट कहा है-दान का सबसे उत्कृष्ट पात्र ममत्वरहित, अकिंचन एवं निःस्पृह साधु ही है। मैं पात्रापात्र की गहरी चर्चा में नहीं उतरना चाहता। मैं तो यहाँ गौतमकुलक के प्रस्तुत जीवनसूत्र के अनुसार यह बताना चाहूँगा कि निर्ममत्व एवं अकिंचन साधु ही क्यों उत्कृष्ट दानपात्र है ? बात यह है कि साधु सर्वथा अकिंचन और निर्ममत्व होकर जब स्व-पर-कल्याणसाधना में लगता है, तब वह मोक्ष-मार्ग के साधनरूप रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) की साधना करने में दत्तचित्त रहने को तत्पर होता है लेकिन वह अपनी साधना में दत्त-चित्त तभी हो सकता है, जब उसे निर्दोष एवं स्वाभिमानपूर्वक भिक्षा की चिन्ता न रहे, और उसका तन-मन स्वस्थ रहे । यह देखना गृहस्थ वर्ग का कर्तव्य है । गृहस्थ वर्ग भी निःस्वार्थ-निष्काम भाव से अपने लिये प्रतिलाभ-सिर्फ पुण्य लाभ की दृष्टि से ऐसे अकिंचन साधु वर्ग को दान देता है। पुण्यशाली गृहस्थ दान देकर यह भावना करता है कि मेरे दान से इन महापुरुषों के तप, संयम और रत्नत्रय में वृद्धि हो । ये महापुरुष इस आहार आदि का उत्तम उपयोग करेंगे । इनका बल, वीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम संयम में, संवर में, निर्जरा में एवं कर्मक्षय करने में लगेगा। For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान का लक्षण भी जैनाचार्यों ने यही किया है— आत्मपरानुग्रहार्थं स्वस्य द्रव्यजातस्यानपानावेः पानेऽतिसर्गो वानम् ।" —अपने और दूसरे पर अनुग्रह करने के लिए अपने अन्न-पानादि द्रव्यसमूह का पात्र में उत्सर्ग करना — देना, दान है । ममवरहित ही दान पात्र हैं २८३ स्वानुग्रह का तात्पर्य है— अपने श्रेय के लिए धर्मवृद्धि करने की दृष्टि से, किसी सुपात्र को दान देना, स्वानुग्रहकारक दान है । परानुग्रह है— दूसरे की सुपात्र की — रत्नत्रय की वृद्धि के लिए दान देना । आप यह तो जानते ही हैं कि कोई भी चतुर किसान जब किसी खेत में बीज बोता है, उससे पूर्व उस खेत की परीक्षा करता है कि इस खेत में बोया हुआ बीज फलप्रद होगा या नहीं ? होगा तो कितना फलदायक होगा ? इसी प्रकार दान देने वाले को भी दान देने से पूर्व पात्र का निरीक्षण करना आवश्यक है कि किस पात्र को दिये गये दान का कितना लाभ होगा ? उत्तराध्ययनसूत्र के हरिकेशीय अध्ययन में हरिhat मुनि की ओर से उनके सेवक -यक्ष ने ब्राह्मणों को उत्तर दिया है थलेसु बोयाइ ववंति का सगा, तहेव निम्न सु य आससाए । एयाए सद्धाए दलाह मज्झं, आराहए पुण्णमिण खु खेत्तं ॥ —किसान लोग अच्छे स्थलों (क्षेत्रों) को देखकर बीज बोते हैं और सुफल पाकर आश्वस्त होते हैं । उसी श्रद्धा (विश्वास) से मुझे (निर्ग्रन्थ मुनि को ) (आहार) दान दीजिये और इस पुण्यशाली क्षेत्र की आराधना कीजिये । आचारांगसूत्र (श्रु० १, उ०८, सू० २) की वृत्ति में भी सुपात्रदान का परिणाम बताया गया है— दुःखसमुद्र प्राशास्तरन्ति पात्रापितेन दानेन । लघु नैव मकरनिलयं वणिजः सद्यानपात्रेण ॥ — जैसे वणिक् लोग छोटे-से अच्छे यानपात्र से समुद्र को पार कर लेते हैं, वैसे ही प्राज्ञजन पात्र को दिये गये दान के प्रभाव से दुःख समुद्र को पार कर लेते हैं । निर्ममत्व अकिंचन साधु की पहचान पउमचरियं में निर्ममत्वयुक्त सुपात्र साधु मुनिराज का लक्षण बताते हुए कहा है १. तत्त्वार्थं भाष्य अ० ६ / १२ ये नाणसंजमरया अणन्नदिठी ते नाम होंति पत्तं समणा सुहदुक्खेसु च समया जेंस मार्ग लाभालाभे च समा ते पत्त साहवो भणिया ॥४०॥ पंचमहव्वयकलिया निच्चं सज्झायझाणतवनिरया । धणसयण विणयसंगा ते पस साहवो भणिया ॥४१॥ जिइंदिया धीरा । सबुत्तमा लोये ॥ ३६ ॥ तहेव अवमाणे । For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ -जो ज्ञान और संयम में रत हैं, सम्यग्दृष्टि हैं, जितेन्द्रिय हैं, धीर हैं, वे ही श्रमण लोक में सर्वोत्तम पात्र हो सकते हैं। -जो सुख और दुःख में, मान और अपमान में, लाभ और अलाभ में सम हैं, वे साधु ही पात्र कहलाते हैं। —जो पांच महाव्रतों से युक्त हैं, नित्य स्वाध्याय, ध्यान और तप में रत हैं, धन, स्वजन आदि की आसक्ति से दूर है, वे संयमी पुरुष ही पात्र कहलाते हैं।' वरांगचरित्र में भी अकिंचन श्रमण को पात्र रूप बताया है-"जो मद, मात्सर्य एवं असूया से रहित हैं, सत्यव्रती हैं, क्षमा और दया से सम्पन्न हैं, सन्तुष्टशील हैं, पवित्र और विनीत हैं, वे निम्रन्थ शूर ही यहाँ पात्ररूप हैं। जिन तपोधनियों का ज्ञान तीन लोक के भावार्थ को सम्यक प्रकार से जानता-देखता है, तीन लोक के धर्म से युक्त है, कर्मक्षय करने में दृढ़प्रतिज्ञ है । जिन्हें कामाग्नि जला नहीं सकती, जिनका चारित्र अखण्ड है, जिन्होंने मोहान्धकार का नाश कर डाला है, जो परीषहों से विचलित नहीं होते, ऐसे आशाविजयी निःस्पृही साधु ही पात्ररूप हैं। निर्ममत्व साधु को दान देने का सुफल निष्किचन अनगार को आहारादि दान देने के सम्बन्ध में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों जैन सम्प्रदायों के धर्मग्रन्थ एक स्वर से महालाभ बताते हैं। सागार धर्मामृत में बताया गया है "जो आहार गृहस्थ ने स्वयं अपने लिए बनाया हो, जो प्रासुक हो-त्रस और स्थावर जीवों से रहित हो, ऐसे भक्त-पानादि को गृहस्थ द्वारा दिये जाने पर आत्मकल्याणार्थ ग्रहण करने वाला महाव्रती साधु केवल अपना ही नहीं, अपितु उस दाता का भी कल्याण करता है। यदि दाता सम्यग्दृष्टि है तो उसे स्वर्ग या मोक्ष के अनुरूप बना देता है; और यदि दाता मिथ्यादृष्टि है तो उसे अभीष्ट विषयों की प्राप्ति करा देता है।" भगवतीसूत्र में भी इस सम्बन्ध में भ० महावीर और गौतम का संवाद है (प्र०) समणोवासए णं भंते ! तहात्वं समणं वा माहणं वा फासु एसणिज्जे असण-पाण-खाइम-साइमेण पडिलामेमाणस्स कि कज्जइ ? (उ०) गोयमा ! एगंत सो णिज्जरा कज्जइ, नत्थि य से पावे कम्मे कज्जइ ॥ -भगवन् ! यदि श्रमणोपासक (श्रावक) तथारूप श्रमण या माहन को प्रासुक एवं एषणीय आहार देता है तो उसे क्या लाभ होता है ? १. पउमचयियं १४/३६-४१ २. वरांगचरित्र ७/५० से ५२ ३. सागारधर्मामृत, अ० ५ श्लोक ६६ ४. भगवतीसूत्र ८/६ For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्वरहित ही दान पात्र हैं २८५ - "गौतम ! वह एकान्तनिर्जरा ( सर्वथा कर्मक्षय) करता है लेकिन किंचित्मात्र भी पापकर्म का बन्ध नही करता ।" इसी प्रकार भगवतीसूत्र (अ० ५, उ० ६) में शुभ (सुखोपभोगयुक्त) एवं अकालमृत्युरहित दीर्घायु किन कारणों से प्राप्त करता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान फरमाते हैं - " गौतम ! जो जीवहिंसा नहीं करता, असत्य नहीं बोलता, श्रमण-श्रावकों का गुणानुवाद करता है या सत्कार-सम्मान करता है, उन तथारूप श्रमण-ब्राह्मणों को अशन-पान - खादिम - स्वादिमरूप चतुर्विध आहार देता है, वह सुखपूर्वक आयु पूर्ण करके दीर्घायु प्राप्त करता है ।" ऐसे अकिंचन सुपात्र को दान देने का लौकिक लाभ भी कम नहीं है । स्वर्गादि सुखों के अतिरिक्त वह यहाँ भी सभी मनोवांछित सुखोपभोग प्राप्त करता है । वह अच्छे माता-पिता, मित्र, पुत्र, स्त्री आदि कुटुम्ब परिवार का सुख तथा धन, धान्य, वस्त्र, अलंकार हाथी, रथ, महल आदि महावैभव आदि का सुख सुपात्र दान के फलस्वरूप पाता है । उत्तम कुल, सुन्दर रूप, शुभ लक्षण, श्र ेष्ठ तीक्ष्ण बुद्धि, निर्दोष शिक्षण, उत्कृष्ट शील, उत्तम गुण, सम्यक् चारित्र, शुभ लेश्या, शुभनाम और समस्त प्रकार के भोगोपभोग की सामग्री आदि समग्र सुखसाधन सुपात्र दान के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं । जैनशास्त्रों एवं ग्रन्थों में ऐसे अनेक उदाहरण उत्तम दाताओं के आते हैं, जिन्होंने उत्तम पात्र पाकर अपना सब कुछ, जो अत्यन्त प्रिय था, वह भी उत्कट भाव से दे डाला । शालिभद्र पूर्वजन्म में संगम नाम का ग्वाला था । उसने मासक्षपण तपस्वी मुनि को उत्कृष्ट भाव से प्रासुक खीर का दान दिया, जिसके प्रभाव के वह गोभद्र सेठ एवं भद्रा माता के पुत्र - शालिभद्र के रूप में अपार ऐश्वर्यशाली बना । साकेतपुर का सुदत्त नामक कर्मकर किसी धनिक के यहाँ नौकरी करता था । वह स्वभाव से बहुत ही भद्र एवं विनीत था, निर्धन होते हुए भी उसे दान करने की बहुत इच्छा रहती थी। वह प्रतिदिन वन में लकड़ियाँ लाने जात्ता था। साथ में अपना भोजन (पाथेय) ले जाता था, और किसी न किसी को दान देकर ही वह खाता था । एक दिन वन में उसने प्रतिमाधारक कायोत्सर्गस्थ एक मुनिवर के दर्शन किये । मुनि-दर्शन से उसे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। मुनि के पास वह लगभग १ मुहूर्त तक श्रद्धापूर्वक रहा । जब उनका कायोत्सर्गं पूर्ण हुआ और वे भिक्षार्थं चलने लगे, तब सुदत्त ने भी उन्हें भिक्षा ग्रहण करने की विनती की। मुनि ने सहज ही अतिलाभ जानकर उपयोगपूर्वक भक्षी । सुदत्त को भिक्षा देकर अत्यन्त आनन्द हुआ। वह अपने आपको कृतार्थ मानता हुआ घर आया, अपनी पत्नी को सुवृत्तान्त सुनाया । उसने भी हर्षित होकर इसका अनुमोदन किया । ऐसे अकिंचन मुनि को दान देकर वह स्वयं को धन्य मानने लगा । वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके सुदत्त उसी साकेतपुर में भानुमती रानी के उदर से श्रीतेज राजा के रूप में जन्मा । नाम रखा गया - -वसुतेज । वसुतेज ने शिक्षा-दीक्षा प्राप्त For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ की, जवान हुआ। इसकी पूर्वभव (सुदत्त भव) की पत्नी कौशाम्बी नगरी के युगबाहु राजा की रानी विमलमती के उदर से राजपुत्री के रूप में पैदा हुई । उसका नाम रखा गया-मदनमंजरी। उसने भी यौवन अवस्था में पदार्पण किया। विवाह योग्य हुई। मदनमंजरी श्रेष्ठ वर प्राप्त करने हेतु रोहिणी देवी की आराधना करती थी । उसे देवी ने 'वसुतेज' दिखाया और वसुतेज को मदनमंजरी दिखाई । दोनों का परिचय देकर कहा-तुम दोनों पति-पत्नी के रूप में एक-दूसरे के जीवन साथी बनोगे। लो यह एकावली हार । इसे २१ बार पानी में डुबोकर वह पानी जिस पर छींटोगे, उसके शस्त्रादि के घाव भी तुरन्त ठीक हो जायेंगे। राजकुमारी ने सारी बात अपनी सखी से कही । सखी ने उसकी माता से कहा । माता ने उसके पिता से। पिता ने कुमारी दलबल सहित विवाह के लिए भेजी। किन्तु यहाँ एक विघ्न आगया । मंगल राजा ने बीच में ही अन्य सब सुभटों को मार भगाया और मदनमंजरी का अपहरण करके ले गया। वसुतेजकुमार ने मदनमंजरी की परीक्षा करके मंगलराजा को जीवित ही पकड़ लिया और मदनमंजरी को अपने घर ले आया। अन्त में मदनमंजरी के साथ पाणिग्रहण किया। मंगलराजा को भी आदरपूर्वक छोड़ दिया। वह मित्र बन गया अब । वसुतेज को राजा श्रीतेज ने राजपाट सौंप दिया और स्वयं तपोवन में चले गये । वसुतेज ने भी पिता की तरह अनेक राजाओं को आज्ञाधीन बना लिया । एक पुत्ररत्न भी हो गया। एक दिन राजा गवाक्ष में बैठा था। तभी रानी आई और उसने वसुतेज राजा के सिर पर सफेद केश देखकर कहा-"प्राणनाथ ! यमराज का बुलावा आ गया हैं।" इस पर राजा को संसार से विरक्ति हो गई। इसी अवसर पर चतुर्ज्ञानी मुनिवर वहाँ पधार गये। उनके दर्शन करने दोनों पहुँचे। धर्मोपदेश सुना । राजा ने दीक्षा ली, साथ में रानी ने भी। दोनों चारित्रपालन करके देवलोक में गये । क्रमशः ७वें भव में मनुष्य जन्म पाकर मोक्ष प्राप्त किया। यह है सुपात्रदान—निर्ममत्व साधु को दान का फल । सुखविपाकसूत्र आदि में सुपात्रदान वर्णन इसी प्रकार सुखविपाकसूत्र में सुबाहुकुमार का बहुत ही भव्य सुखमय जीवन का वर्णन आता है। ___ आदर्श श्रमणोपासक सुबाहुकुमार हस्तिनापुर नगरनिवासी सुमुख गृहपति के भव में (पूर्वभव में) एक दिन धर्मघोष स्थविर के शिष्य सुदत्त अनगार को, जो कि मासिक (मासक्षपण) तप करते थे, मासक्षपण तप के पारणे के लिए अपने घर की ओर आते देखा । देखते ही सुमुख गृहपति मन ही मन अतीव हृष्ट-तुष्ट हुआ। फिर अपने आसन से उठा, चौकी पर पैर रखकर नीचे उतरा । एक शाटिक उत्तरासंग (उत्तरीय) किया (लगाया)। फिर सुदत्त अनगार को देखते ही वह ७-८ कदम सम्मुख For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्वरहित ही दान पात्र हैं गया । उन्हें तीन बार प्रदक्षिणा करके विधिवत् (तिवखुत्तो के पाठ से ) वन्दन- नमस्कार किया; और जहाँ अपना भोजनगृह था वहाँ उन्हें सम्मानपूर्वक लेकर आया । फिर उन्हें अपने हाथों से विपुल अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम चारों प्रकार के आहार देने की उत्कृष्ट भावना से उन्हें आहार दिया । आहार देने से पूर्व, आहार देते समय और आहार देने के बाद यों तीनों समय सुमुख गृहपालक के मन में अतीव प्रसन्नता और सन्तुष्टि थी । उसके बाद उस सुमुख गृहपति ने उक्त दान में द्रव्य-शुद्धि, दाता की शुद्धि और पात्र की शुद्धि, मन-वचन-काया से कृत-कारित अनुमोदितरूप त्रिकरण शुद्धिपूर्वक सुदत्त अनगार को प्रतिलाभित करने ( दान देने) से अपना संसार (जन्म-मरण का चक्र) सीमित कर लिया । मनुष्यायु का बन्ध किया । २८७ इस प्रकार एक महान् अकिंचन अनगार को विधिपूर्वक, अत्यन्त पवित्र भावना से दान देने का कर्त्तव्य अदा करने से सुबाहुकुमार ने पूर्वजन्म और इस जन्म - दोनों जन्मों में सुख-शान्ति, वैभव एवं सुखमय जीवन व्यतीत किया । इस पर से हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि जो भव्य मानव ऐसे उत्कृष्ट ममत्वरहित साधक को उत्कृष्ट भाव से दान देता है, वह अवश्य ही अपने जन्मजन्मान्तर को सार्थक करता है । बन्धुओ ! आप भी महर्षि गौतम के परामर्श के अनुसार ममत्वरहित अकिंचन साधुओं को दान देकर अपने इहलोक - परलोक को सार्थक करें । # For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. पुत्र और शिष्य को समान मानो धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष गुरु और शिष्य के सम्बन्ध के विषय में विस्तार से चर्चा करना चाहता हूँ। मोक्ष का मार्ग इतना विकट है कि अगर गुरु-शिष्य दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध ठीक न हो, या ठीक तरह से न समझा जाये तो गुरु भी संसार के बीहड़ में भटका सकता है, और शिष्य भी लोभ या स्वार्थ में आकर संसार की मोहमायाभरी अटवी में ही भटक सकता है । दोनों ओर से बहुत बड़ा खतरा है । दोनों की बहुत बड़ी जिम्मेवारी है। अगर शिष्य गुरु को पिता मानकर न चले तो वह भटक सकता है, और गुरु शिष्य को पुत्रसम न माने तो वह भी कर्तव्यच्युत होकर उसे मोह के अन्धकूप में डाल सकता है। इसीलिये गौतमकुलक में गुरु और शिष्य के पवित्र सम्बन्ध का परिज्ञान कर लेना आवश्यक बताया है। गौतमकुलक का यह ६३वाँ जीवनसूत्र है, जिसमें कहा गया है पुत्ता य सीसा य समं विभत्ता -पुत्र और शिष्य इन दोनों को समान जानना चाहिए । इस जीवनसूत्र में शिष्य पर जिम्मेवारी डालने के बजाय गुरु पर विशेष जिम्मेवारी डाली गई है कि उसका गुरु-पद तभी सार्थक हो सकता है, जब वह शिष्य को अपने पुत्र के समान ही माने-समझे । गुरु-पद की सार्थकता गुरु का पद भारतीय संस्कृति में बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना गया है । यह पद जितना बड़ा है, उतनी ही इस पद की जिम्मेवारी बड़ी है। आप यह न समझ लें कि किसी ने वेष पहन लिया और दो-चार चेले मुंड लिये इतने से ही गुरु-पद प्राप्त हो जाता है । गुरु-पद को प्राप्त करने के लिए बहुत बड़ी साधना की जरूरत है। गुरु-पद को पाकर जो अपनी जिम्मेवारी नहीं समझता, वह सुगुरु नहीं, कुगुरु कहलाता है। यद्यपि आत्म-साधना में सहायक और सहयोगी बनने में गुरु का महत्त्वपूर्ण स्थान है, वह महनीय और पूजनीय समझा जाता है तथापि इस महत्त्वपूर्ण पूजनीय पद का दुरुपयोग भी बहुत हुआ है । आज भी हो रहा है । कुछ मनचले चालाक लोगों में गुरु के स्थान और पद की महिमा होती देखकर तथा इस पवित्र पद से स्वार्थसिद्धि For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र और शिष्य को समान मानो २८६ होती देखकर स्वयं उस पद के लिए योग्य और गुरु के गुणों से युक्त न होने पर भी ढोंग और पाखण्ड का सहारा लेकर गुरु-पूज्य पुरुष बनने की लालसा जागी । गुरुपद की महिमा का बखान करते हुए एक आचार्य ने कहा है अज्ञानतिमिरान्धानां, ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ -अज्ञानरूपी अन्धेरे के कारण अन्धे बने हुए लोगों की आंखें जिन्होंने ज्ञानरूपी अंजन आंजने की सलाई डालकर खोल दी, उन श्रीगुरु को मेरा नमस्कार हो । गुरु को नमस्करणीय भी तभी समझा गया है, जब वह अज्ञानान्धकार से अन्धे बने हुए शिष्य की आँखों पर से अज्ञान का पर्दा हटा देता है। 'गुरु' शब्द का सामान्य अर्थ होता है-भारी, अर्थात्-जो अज्ञानान्धकार मिटाने की जिम्मेवारी के भार से युक्त हो, अथवा सद्गुणों के भार से-गौरव से युक्त हो । गुरु शब्द में दो अक्षर हैं-'गु' और 'रु'। इन दोनों अक्षरों को भिन्न-भिन्न दो शब्द मानकर दोनों का समासयुक्त शब्द बनाया गया है-गुरु । इसीलिए भारतीय संस्कृति के उन्नायकों ने गुरु शब्द का विशेष अर्थ इस प्रकार किया है 'गु' शब्दस्त्वन्धकारः, 'रु' शब्दस्तन्निरोधकाः । अन्धकार-निरोधत्वाद, गुरुरित्यभिधीयते ॥ —'गु' शब्द का अर्थ है-अन्धकार और 'रु' शब्द का अर्थ है-निरोधक । दोनों शब्दों का मिलकर अर्थ हुआ—अन्धकार का निरोधक । अर्थात्-गुरु वह है, जो शिष्य के अज्ञानान्धकार को मिटा दे। भावान्धकार का निरोधक होने से ही कोई व्यक्ति गुरु कहला सकता है। गुरु शिष्य के अज्ञानान्धकार को कैसे मिटा देता है और उसे सुमार्ग पर कैसे लगा देता है इस सम्बन्ध में एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए कारंजा की भट्टारक गद्दी उन दिनों अलभ्य ताड़पत्रीय ग्रन्थों की सुलभता के लिए प्रसिद्ध थी। भटारक सकलकीर्ति अध्यात्मशास्त्र के उद्भट विद्वान् थे। उनके पास दूर-दूर से अनेक ज्ञान-पिपासु छात्र आते, और अध्ययन करके अपने ज्ञान की श्रीवृद्धि करते थे। एक दिन सुदूर दक्षिण का एक निर्धन, किन्तु मेधावी छात्र सुब्बैया वहाँ आया । उसने पारे से सोना बनाने के ताड़पत्र-लिखित 'पारद रसायनशास्त्र' ग्रन्थ का अध्ययन करने हेतु भटटारक गुरुजी से आज्ञा माँगी । भट्टारकजी ऐसे शास्त्रों को पढ़ने की अनुमति प्रायः नहीं देते थे, क्योंकि वे समझते थे, इनका दुरुपयोग ही लोग भधिक करेंगे । वे अपने गुरु-पद के गौरव को समझते थे। सुब्बैया ने उनसे बहुत ही अनुनय-विनय की तथा उनकी (भटटारकजी की) आज्ञा के बिना इस शास्त्र में अंकित विद्या का उपयोग न करने की प्रतिज्ञा कर ली, तब भटारकजी ने उसे एक सप्ताह के लिए वहीं एक कक्ष में बैठकर अध्ययन करने की अनुमति दे दी। For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० आनन्द प्रवचन : भाग ११ उस छात्र ने गुरु की कृपा पाकर उनकी आज्ञानुसार इतनी तन्मयता और रुचि से पढ़ना प्रारम्भ किया कि वह पूरे एक सप्ताह तक खाने-पीने और सोने तक की सुध भूल गया। बहुत होता तो कभी थोड़ा-सा दूध वहीं पी लेता तथा बैठे-बैठे ऊंघकर अध्ययन करने लगता। भट्टारकजी सुब्बैया की वृत्ति-प्रवृत्ति का बराबर अध्ययन करते रहे । उसके मनोयोग की उन्होंने मन ही मन बहुत प्रशंसा की। जब देखा कि सप्ताह पूरा होने पर भी सुब्बैया को समय का भान न रहा, तब भटारकजी स्वयं उसके कक्ष में पहुँचे । पर वह ग्रन्थ में इतना डूबा हुआ था कि भट्टारकजी के आगमन को भी न जान पाया। इस प्रकार कुछ देर तक चुपचाप खड़े रहकर भटारकजी बोले-"सुब्बया ! इस ग्रन्थ के अध्ययन की अवधि पूरी हो चुकी । अब यह ग्रन्थ मुझे वापस लौटा दे।" सप्ताह पूरा होने की बात सुनते ही वह हड़बड़ाकर उठा और गुरुजी के चरण छुए। फिर अनिच्छापूर्वक वह ग्रन्थ उसके गुरुजी के हाथ में थमा दिया। गुरु से अध्ययन करने और स्वयं अध्ययन करने में क्या अन्तर है ? इस बात की गहराई को वे ही जान पाते हैं, जिन्होंने स्वयं किसी ग्रन्थ को पढ़ने के बाद गुरु से उसी ग्रन्थ को पढ़ा हो । स्वयं पढ़कर भी प्रायः व्यक्ति अज्ञानान्धकार में डूबा रहता है, यह सुब्बया के उदाहरण से स्पष्ट प्रतीत होता है । भटारकजी ने सुब्बैया के अज्ञानान्धकार को दूर करने की दृष्टि से परीक्षासूचक प्रश्न किया-"वत्स सुब्बैया ! तूने पारद रसायनशास्त्र पूरा पढ़ लिया है, अब क्या करेगा ?" सुब्बया ने अपनी अव्यक्त अज्ञानान्धता को सूचित करते हुए अपनी योजना विस्तार से बताई कि किस प्रकार वह पारे से सोना बनाकर विशाल महल चुनवायेगा, मौज से रहेगा, अपने विरोधियों को नीचा दिखायेगा और समाज में आदरणीय-सम्माननीय बनेगा। श्री भट्टारक गुरु ने उसकी अज्ञानान्धता का निवारण करने हेतु उपालम्भ के स्वर में कहा-"सुब्बैया ! क्या तू विद्वान होकर भी विषय-वासना और कषायों में डूबा रहेगा ? पापकर्मों के जाल में फंसकर क्या तू निरा पशु ही बना रहेगा और अन्त में जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करता हुआ नरक में जायेगा? क्या तेरी यह जीवनयोजना उचित है ?" सुब्बया ने कुछ सोचा; फिर वर्षों से संजोई हुई अपनी सांसारिक सुख की मनोकामना के कटुफल का संस्मरण कर वह चिन्ता में पड़ गया। उसे चिन्तित देख श्री भटटारक गुरु ने पुनः कहा-"वत्स ! मेरे पास ऐसे भी शास्त्र हैं, जो सांसारिक बन्धनों से मुक्त कराकर चिर दुःखी को शाश्वत सुखी बना दें, दीन-हीन को असीम शक्तिशाली बना दें ! संक्षेप में, आत्मा से परमात्मा बनने का गुर बताने वाले वे शास्त्र हैं ।" सुब्बैया ने जीवन में पहली ही बार ऐसा अपूर्व सन्देश सुना था। सुनते ही उसके अन्तर में ज्ञान का प्रकाश हो गया, अज्ञानान्धकार अब पलायित हो चुका था। For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र और शिष्य को समान मानो २६१ I उसे अपूर्व ज्ञाननिधि मिल गई । भट्टारक गुरु ने उसके अन्तश्चक्षु खोल दिये । वह आश्चर्य से गुरु के मुख की ओर देखने लगा । फिर सहसा उनके चरण पकड़कर गद्गद् कण्ठ से बोला – “पूज्य गुरुदेव ! अब मैं आपकी शरण में हूँ । मुझे उबारिये । मैं तो नर से पशु बनने की योजना बना रहा था, कंकड़-पत्थर से झोली भर रहा था, अज्ञानवश सांसारिक बन्धनों में बँधकर दुःखी होने का संकल्प कर रहा था । आपने मुझे ज्ञान का प्रकाश देकर मेरी आँखें खोल दीं, मेरा अज्ञानान्धकार दूर किया । अब मेरा उद्धार कीजिये और मुझे शाश्वत सुख पाने की योजना बताइये ।" इस प्रकार वह श्रीगुरु के चरण-कमल युगल को अपने आँसुओं से धोने लगा । श्री भट्टारकजी ने उसे योग्य शिष्य समझकर उठाया, अध्यात्मविद्या के अध्ययन की ओर उसकी शक्तियाँ लगा दी पारद रसायनशास्त्र को कभी न स्मरण करने की प्रतिज्ञा की । उस ताड़पत्रलिखित रसायनशास्त्र को पाकशाला की तब से कारंजा में आध्यात्मिक ग्रन्थ ही शेष रहे हैं । में प्रवीण बनकर अनेक जिज्ञासुओं का आज्ञानान्धकार होने के बाद वहाँ की भट्टारक गद्दी का सुयोग्य गले लगाया और इस पर सुब्बैया ने भट्टारकजी ने भी ज्वालाओं को भेंट कर दिया । मेधावी सुब्बंया ने अध्यात्मविद्या मिटाया और गुरु के स्वर्गस्थ उत्तराधिकारी बन गया । बन्धुओ ! गुरु-पद के महान् उत्तरदायित्व को समझकर श्री भट्टारकजी ने सुब्बैया के अज्ञानान्धकार को मिटा दिया और ज्ञान के प्रकाश से उसे सुपथ पर लगाया । 1 प्रश्न यह है कि इस भावान्धकार को कौन मिटा सकता है ? जो स्वयं यथार्थ ज्ञान से प्रकाशमान हो, वही दूसरों को प्रकाश देकर उनके अज्ञानतिमिर को मिटा सकता है । जिसमें ज्ञान का प्रकाश नहीं है, जो स्वयं काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर आदि अज्ञानति दुर्गुणों का शिकार बना हुआ है, वह दूसरों के अज्ञान और मोह आदि को कैसे मिटा सकता है ? जैसे प्रदीप स्व-पर- प्रकाशक होता है, इसी प्रकार गुरु भी स्व-पर- प्रकाशक होना चाहिये । जिस प्रकार प्रदीप स्वयं ज्योतिर्मान होकर ही अन्य को ज्योति प्रदान करता है, अदृश्य या अव्यक्त पदार्थों को आलोकित करता है, इसी प्रकार जो स्वयं ज्ञान और चारित्र से ज्योतिर्मान हों, और अन्य को भी ज्ञान और चारित्र की ज्योति प्रदान करते हों, वे ही सद्गुरु हैं । गुरु और शिष्य दोनों निःस्पृह हों, तभी लक्ष्य प्राप्ति दीपक के प्रकाश से अन्धकारजनित भय नष्ट हो जाते हैं, वस्तुओं का यथार्थ ज्ञान हो जाता है, भयस्थल, भयंकर प्राणी और खतरनाक पदार्थों को देखकर उनसे बचने का यत्न किया जाता है, तथा सीधे मार्ग पर चला जा सकता है, इसी प्रकार जो महान् आत्मा अपनी ज्ञानप्रभा से शिव्य के अज्ञानजनित भयों को नष्ट करता है, जीवादि पदार्थों का यथार्थ बोध प्रदान करता है, साधना में पतन के भयस्थल, साधना. For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ से पतित जीवों और साधना में प्रतिकूल द्रव्यादि के स्वरूप को समझाकर उनसे बचाने का प्रयत्न करता है तथा द्रव्यादि को अपने लक्ष्य में बाधक न बनने देकर सन्मार्ग पर चलने में सहयोग देता है; वही सच्चा सद्गुरु है । जैसे दीपक प्रकाश प्रदान करके उसके बदले में अन्य पदार्थों की अपेक्षा नहीं रखता, और प्रकाश पाने वाला भी दीपक से प्रकाश के सिवाय और कुछ आशा नहीं रखता, वैसे ही गुरु को भी शिष्यों से ज्ञानादि प्रदान करने के बदले भौतिक पदार्थों को पाने की वांछा नहीं करनी चाहिए । शिष्य को भी गुरु से आत्मिक उन्नति में सहयोग के सिवाय अन्य अपेक्षा नहीं रखनी चाहिये । सच्चा गुरु शिष्य का कल्याण चाहता है, और सुशिष्य गुरु की आज्ञा का पालन करता है, उनके मार्गदर्शन के अनुसार चलता है । गुरु की सेवा और विनय के द्वारा वह उनके चित्त को प्रसन्न करके आत्मकल्याण का सुपथ प्राप्त करता है । एक उदाहरण लीजिये कुछ गुरुभाई परस्पर ज्ञान चर्चा कर रहे थे। इतने में एक शिष्य ने आकर खबर दी - “ दौड़ो-दौड़ो ! गुरुजी को बिच्छू ने काट खाया, डंक मारा उस जगह भयंकर वेदना हो रही है ।" सभी शिष्य ज्ञान चर्चा अधूरी रखकर उसके पीछे-पीछे भागे । वहाँ जाकर देखा - गुरुजी अंगुली पपोल रहे हैं । बिच्छू के डंक की वेदना से उनका हाथ काँप रहा था। एक शिष्य ने एक बड़े बिच्छू को लकड़ी से दबा रखा था । दूसरे शिष्य तो गुरुजी की परिचर्या करने लगे । परन्तु जिसने बिच्छू को लकड़ी से दबा रखा था, उसे बिच्छू पर खूब क्रोध आया। उसने सोचा - गुरुजी सरीखे समर्थ ज्ञानी और पवित्र विभूति को बिच्छू ने काटा ही क्यों ? ऐसी लोक - मान्यता है कि सौ अपराध हों, तब बिच्छू काटता है, और हजार अपराध हों, तब सांप | पर इन सात्त्विक प्रकृति के महापुरुष ने कौन-सा अपराध किया था कि इन्हें बिच्छू ने काटा ? गुरुजी के डंक मारकर तो इसने अक्षम्य अपराध किया है । यों सोचकर इसने बिच्छू की पूँछ एक डोरी से बाँध दी और आश्रम के एक कमरे के बीचों-बीच लटका दिया । । बिच्छू का जहर उतरते ही गुरुजी कुछ स्वस्थ हुए। गुरुजी उस कमरे में गये जहाँ बिच्छू लटकाया हुआ था की ओर खिंचा, उसके प्रति वात्सल्य दृष्टि करके गुरुजी " अरे ! इस बेचारे को ऐसी कठोर सजा !" शिष्य ने गुरुजी ! आपको डंक मारने का महा अपराध यह कर बैठा भोगना ही चाहिए ।" कोई कार्य याद आते ही गुरुजी का ध्यान उस बिच्छू वहाँ खड़े शिष्य से कहा ने गुरुजी- “ अरे भाई ! इसे अपनी रक्षा के लिये डंक ही शायद यह मेरे हाथ से दब गया हो, पर यह तो यों ही मेरा नाश करने के लिए आया है, इसलिए इसने स्व-रक्षार्थ क्रुद्ध भाव से कहा - " पर है, उसका परिणाम तो इसे For Personal & Private Use Only मिला है । अनजान में समझता है कि यह हाथ डंक मारा होगा । बिच्छू Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र और शिष्य को समान मानो २६३ या सांप का स्वभाव है कि दबे बिना किसी को नहीं काटते । मनुष्य ही एक ऐसा है कि अपने क्षणिक स्वार्थ के लिये कुकर्मरूपी डंक मारता फिरता है ।" फिर भी शिष्य नहीं माना और बिच्छू को अपराध की सजा देने पर अड़ा रहा । गुरुजी मनोवैज्ञानिक थे । उन्होंने सोचा - समय आने पर इसे समझाकर इसका क्रोध छुड़ा दूंगा । इस समय अधिक समझाना व्यर्थ है । गुरु पूर्णिमा का मंगल दिवस आया। सभी शिष्य हार्दिक उत्साहपूर्वक इस उत्सव को मनाने लगे । उत्सव की पूर्णाहुति के अवसर पर गुरुजी ने मंगल प्रवचन किया । प्रवचन के अन्त में शिष्यों से कहा - " प्रति वर्ष की तरह आज भी तुम सब मुझे गुरुदक्षिणा दोगे । पर प्रति वर्ष तो तुम मुझे अपनी-अपनी इच्छानुसार गुरुदक्षिणा देते थे, आज तुम्हें मेरी इच्छानुसार गुरुदक्षिणा देनी है; बोलो, दोगे न ?” "हाँ हाँ, गुरुदेव ! हमारे अहोभाग्य हैं कि आप स्वयं गुरुदक्षिणा माँग रहे हैं । गुरुदेव ! माँगिये । आपके लिए हम अपने प्राण भी न्योछावर करने को तैयार हैं ।" एक अग्रगण्य शिष्य ने कहा । गुरुदेव ने सभी शिष्यों से अलग-अलग दक्षिणा माँगी । इस दक्षिणा में किसी से भी उन्होंने रुपये-पैसे या भौतिक साधन नहीं माँगे, प्रत्येक शिष्य से उसमें रहे हुए किसी न किसी दुर्गुण को उन्होंने गुरुदक्षिणा के रूप में माँगा । सबसे अन्त में बारी आई उस क्रोधी शिष्य की । गुरुदेव ने इसे भी वात्सल्य भरे स्वर में कहा - "तुम्हें आज गुरुदक्षिणा में मुझे अपना क्रोध देना है ।" "अच्छा गुरुदेव !" यों कहकर गुरुदेव के चरण पकड़कर वह उनमें लोट गया । गुरुदेव उसकी पीठ सहलाने लगे । उसी दिन से उस शिष्य का क्रोध जड़-मूल से निकल गया । इस शिष्य को क्रोधरूपी शैतान के चंगुल से छुड़ाने वाले सद्गुरु थे श्रयः साधक अधिकारी वर्ग के प्राणपुरुष बड़ौदावासी श्रीमन् नृसिंहाचार्यजी । यह है— गुरु के उत्तरदायित्व को निभाने वाले गुरु-लक्षणों से युक्त गुरु-पद की सार्थकता का ज्वलन्त उदाहरण ! गुरु पद के उत्तरदायित्व से दूर परन्तु दु:ख है कि आजकल इससे विपरीत अवस्था भी दृष्टिगोचर होती है । आजकल के कई गुरु भी नाममात्र के गुरु बने रहते हैं, वे अपने त्यागी शिष्यों को न तो मनोवैज्ञानिक ढंग से साधुत्व की साधना का प्रशिक्षण देते हैं, और न ही उन्हें अनुशासन में रखते हैं । केवल शिष्यों की फौज बढ़ाने की शिष्य - लिप्सा ही उनके मन में नाचती रहती है । वे ऐसे शिष्यों को कुछ कहते हुए भी डरते हैं कि कहीं अधिक कहने-सुनने से ये भाग जाएँगे; टिकेंगे नहीं । दूसरी ओर ऐसे त्यागी शिष्य भी गुरु की अवहेलना करते रहते हैं । और जो उपासक (गृहस्थ ) शिष्य (भक्त) हैं, उनके प्रति भी afarin गुरुओं की भावना विपरीत है, वैसे ही अधिकांश उपासक शिष्यों की भी For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ गुरुओं के प्रति भावना ठीक नहीं है । एक अनुभवी व्यक्ति ने मार्मिक ब्यंग्य किया है, आज के अधिकांश गुरु-शिष्यों की मनोवृत्ति पर गुरु लोभी शिष्य लालची, दोनों खेले दाँव । दोनों डूबे बापड़े, बैठ पत्थर की नाव ॥ गुरु भी लोभी है, वह विचार करता है-शिष्यों के अनुकूल रहूँगा या कहूँगा तो सभी सुख-सुविधाएं जुट जाएंगी, प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी, और मुझे आदर-सत्कार भी देंगे। फिर इन्हें कुछ चमत्कार बता दूंगा तो अनुरागी भक्त बन जाएंगे । इन्हें कुछ मन्त्र-तन्त्र दे दूंगा तो इनसे जो कुछ चाहूँगा, करवा सकूँगा। इनके मनोऽनुकूल कुछ कर दूंगा तो फिर ये मेरे आश्रम, उपाश्रय, स्थानक, मन्दिर या कुटिया बना देंगे । इस प्रकार गुरु की मनोभावना शिष्य से कुछ ऐंठने की होती है । और उपासक शिष्य भी कहाँ कम है ? वह भी प्रायः यह सोचता है—गुरु के कहे अनुसार कर दूंगा तो ये प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे देंगे । मैं मालामाल हो जाऊंगा, मुकदमा जीत जाऊंगा, पुत्र-पौत्रादिक हो जाएंगे । धनिक हो जाने पर कार, कोठी और बंगला हो जायेगा। एकाध फीचर या सट्टे का अंक बता देंगे तो सारा दारिद्रय दूर हो जायेगा । अथवा ये भूत-प्रेत का प्रकोप दूर कर देंगे, रोग मिटा देंगे, इनसे ये सब कार्य सिद्ध हो जाएंगे तो हमारा क्या नुकसान है ? इनके नियम ये जानें, हमें इससे क्या मतलब ? इस प्रकार गुरु लोभ में गले तक डूब जाता है और शिष्य के रोम-रोम में लालच रम रहा है । दोनों ही एक दूसरे पर दाँव अजमाते हैं। गुरु सोचता है-यह कब मेरे वश में हो और शिष्य सोचता है-कब गुरु की कृपा मेरे पर बरसे। दोनों ही पत्थर की नाव में बैठे हैं। सोना भी तो पत्थर ही है। भला, पत्थर की नैया कब किसको तैरा सकती है ? यह तो डूबने का ही मार्ग है । लोभ के सागर में डूबने पर ऐसे गुरु-शिष्यों का भवसागर से पार होना कदापि सम्भव नहीं है। ऐसे लोलुप गुरु शिष्यों को अन्धकार से निकालते नहीं, बल्कि उन्हें और गाढ़ अन्धकार में ले जा रह हैं; गुरु शब्द के अन्धकार-निरोधक रूप अर्थ का उपहास कर रहे हैं । कोरी मंत्रदीक्षा देने मात्र से या सम्यक्त्व का पाठ सुना देने मात्र से कोई गुरु नहीं बन सकता। ऐसे ही गुरुओं पर तीखा व्यंग्य कसा गया है कान्या मान्या कुर्र, तू चेला मैं गुर्र । कान में गुरुमंत्र फेंक दिया। भले ही मन्त्र लेने वाले ने मन्त्र का कुछ भी आशय न समझा हो, गुरु को इससे कोई मतलब नहीं। उसने जिसे मन्त्र दे दिया, वह उसका शिष्य हो गया, और वह मन्त्रदाता तारणहार गुरु हो गया। आजकल 'सम्यक्त्व' देने के नाम पर ऐसे ही तमाशे चलते रहते हैं। इसमें न तो शिष्य का उत्थान है और न ही गुरु का कोई कल्याण। गुरु को सिर्फ अपने भक्तों की पलटन For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र और शिष्य को समान मानो २६५ बढ़ाने की फिक्र है, शिष्य के उत्थान की नहीं और शिष्य को अपने जीवन में कुछ त्याग नहीं करना पड़ा, न तो पापकर्म, अनीति, अन्याय और अधर्म का त्याग करना पड़ा और न ही कोई व्रत, नियम अपनाना पड़ा; सस्ते में मुक्ति का टिकट मिल गया । ऐसे गुरु अपने उत्तरदायित्व से कोसों दूर हैं । शिष्य तो अज्ञान और मोह में ग्रस्त है, इसलिए इतना दोषी नहीं; लेकिन गुरु भी जान-बूझकर अज्ञान- मोह में शिष्य को ले जाने के लिए प्रेरित हो, स्वयं भी लोभ-प्रेरित हो, यह तथाकथित गुरु का गुरुतर अपराध है । वे कहाँ गुरु- पद के योग्य हैं, जिनकी दृष्टि शिष्य के धन पर लगी हुई है ? जिसके हृदय में यह चाह है कि शिष्य का धन मेरे अधिकार में आजाये, वह कदाचित् त्यागी के वेश में हो, पर वह गुरु पद के योग्य नहीं । गुरु में धनलिप्सा आई कि वह दुर्गणों का महालय बन जाता है, सद्गुण धीरे-धीरे वहाँ से पलायन कर जाते हैं । इसीलिए साधना - पथ पर बढ़ने वाले साधकों को चेतावनी देते हुए कहा है ―――――――― गुरवो बहवः सन्ति, शिष्यवित्तापहारकाः । गुरवो विरलाः सन्ति शिष्यसंतापहारकाः ॥ दुनिया में ऐसे बहुत-से गुरु हैं, जो विविध उपायों से शिष्यों का धन अपहरण करने में लगे हुए हैं, किन्तु ऐसे गुरु विरले ही हैं, जो शिष्यों का सन्ताप दूर करते हैं । उत्तरदायित्वपूर्ण गुरुओं के लक्षण इसीलिए गुरु का उत्तरदायित्वमूलक लक्षण बताते हुए कहा गया है— गृणाति धर्म शिष्यं प्रतीति गुरुः - जो शिष्य को उसका धर्म बताता है, सिखाता है, वह गुरु है । कुमारबाल प्रबन्ध में भी गुरु का उत्तरदायित्वमूलक अर्थ बताया गया है— सत्त्वेभ्य: सर्वशास्त्रार्थ देशको गुरुरुच्यते । — जो एकान्त हित बुद्धि से प्रेरित होकर जिज्ञासु जीवों को सभी शास्त्रों का सच्चा अर्थ समझाता है, वह गुरु कहलाता है । महाभारत में आध्यात्मिक गुरु का लक्षण इस प्रकार बताया गया हैत्यक्तदाराः सदाचारा, मुक्तभोगा जितेन्द्रियाः । जायन्ते गुरवो नित्यं सर्वभूताभयप्रदाः ॥ — जो स्त्रियों के त्यागी होते हैं, सदाचारपरायण, भोगों से मुक्त और जितेन्द्रिय होते हैं तथा सदैव सब जीवों को अभयदान देते हैं, वे ही गुरु होते हैं । इससे भी उच्चकोटि के आध्यात्मिक गुरु का लक्षण आचार्य हेमचन्द्र ने योग शास्त्र में किया है— महाव्रतधरा धीरा भैक्ष्यमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥ For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ -जो महान् आत्मा महाव्रतधारी हैं, धीर हैं, भिक्षामात्र-जीवी है, सामायिक (समतायोग) में स्थित रहते हैं, धर्मोपदेशक हैं, वे गुरु माने गये हैं। आध्यात्मिक गुरु का लक्षण आत्मानुशासन में बताया गया है प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्र हृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः. प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परनिन्दया, ब्रू याद् धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ॥ ५॥ श्रुतविकलं शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोधने, परणतिरुद्योगो मार्गप्रवर्तन सविधो । बुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञाता मृदुता स्पृहा, यतिपतिगुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम् ॥६॥ आध्यात्मिक गुरु बुद्धिमान्, शास्त्रज्ञ, लोक-व्यवहार का ज्ञाता, निर्लोभ, प्रतिभावान, उपशम परिणामी, आगे की बात को पहले ही जान लेने वाला, प्रायः प्रश्नों से न घबराने वाला, सम्माननीय, जन-मन को आकर्षित करने वाला, परनिन्दा से रहित, गुणनिधान, जो गणनायक स्पष्ट और मधुर शब्दों में धर्मकथा करता है तथा जो संशयरहित शास्त्रज्ञ है, शुद्ध आचरण वाला है, उपदेश देने में रुचि रखता है, धर्ममार्ग की प्रभावना में रुचि रखता है, विद्वानों द्वारा प्रशंसित, औद्धत्यरहित, लोकरीतिमर्मज्ञ, मृदुस्वभावी, निःस्पृह तथा साधुप्रवरों के अन्य गुणों से युक्त हो, वही सज्जनों का गुरु होता है । वास्तव में ऐसे गुरु ही अनुभूत मार्ग पर स्वयं चलते हुए औरों को भी उसी मार्ग पर चलाते हैं। उनमें राग-द्वेष, पक्षपात, ग्रन्थि या कामना नहीं होता, न ही साधना का अभिमान होता है। वे क्रोधादि कषायविजयी एवं जितेन्द्रिय होते हैं। उनके जीवन में शान्ति के स्पष्ट दर्शन होते हैं। आवश्यकता : यथार्थ गुरु की, योग्य शिष्य की यों तो अनादिकाल से जीव संसार के मोह, जन्म-मरण आदि के चक्र में घूमता रहा है । इससे छूटने के लिए न तो उसमें स्वयं ही कोई अन्तःप्रेरणा हुई, और न किसी बाह्य न निमित्त-व्यक्ति, शक्ति या साधन से उद्बोधन मिला । यदि किसी माध्यम से कभी आदेश, प्रेरणा या उपदेश मिला भी तो यथार्थ न मिला, इससे भटकन नहीं मिटी । यथार्थ गुरु मिलें और शिष्य भी तदनुकूल ग्रहणकर्ता हो बभी अज्ञानान्धकार से मुक्ति मिल सकती है। लोकोक्ति है-गुरु बिन होई म ज्ञान । सचमुच गुरु की उपासना से ज्ञान प्राप्त होता है । वैसे तो क्या लोकिक क्या लोकोत्तर हर क्षेत्र में गुरु की मावश्यकता होती है, किन्तु आत्मार्थी को विषय-लम्पट भौर For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र और शिष्य को समान मानो २६७ बाबाल गुरु तथा चोर को अपरिग्रही गुरु मिल जायें तो कार्य सिद्धि नहीं होती । इसलिए शिष्य को भी सावधानीपूर्वक गुरु का चयन करना चाहिए और गुरु को भी शिष्य का चयन करने के साथ-साथ अपने को तौल लेना होगा । क्योंकि गुरु को अपने मन-वचन-काया तीनों योगों से गुरुत्व की भूमिका निभानी पड़ेगी, उसमें शैथिल्य, प्रमाद या रियायत को जरा भी अवकाश नहीं है । इसी प्रकार शिष्य को भी सावधान रहना होगा अन्यथा जरा सी असावधानी, शिथिलता या प्रमाद-परायणता दोनों के लिए अनर्थकारी सिद्ध होगी । माता-पिता का हृदय : सद्गुरु का सर्वोपरि गुण सद्गुरु के इन सब लक्षणों से बढ़कर सर्वोपरि गुण है— माता-पिता का हृदय । सद्गुरु किसी देश, वेश, जाति और धर्म का हो, उसमें माता-पिता का हृदय होना अत्यावश्यक है । जिस गुरु में शिष्य के प्रति माता-पिता का सा व्यवहार न हो, बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि माता का सा वात्सल्यपूर्ण हृदय न हो, वह चाहे जितने अन्य गुणों से या लक्षणों से युक्त हो, साधक भी हो, किन्तु गुरु- पद के योग्य नहीं है । लौकिक व्यवहार में माता-पिता या अभिभावक को भी आद्य गुरु कहा जाता है । वे बालक को पद-पद पर सँभालते और सिखाते रहते हैं। शिशु की प्रत्येक आवश्यकता का ध्यान रखते हैं। उसके खान-पान, शयन, वस्त्र, औषध, उपचार आदि का पूर्ण विवेक रखते हैं । स्वयं गीले में सोकर अपने आश्रित शिशु को सूखे में सुलाते हैं । उसको स्वेच्छा से घुटने के बल चलने देते हैं, जब वह खड़ा होकर चलने लगता है, तब उंगली पकड़कर चलना सिखाते हैं, गिर पड़ता है तो उठाते हैं, छाती से लगाते हैं, हर अच्छे कार्य के लिए शाबाशी देते हैं, साहस के कार्य में आशीर्वाद देकर आगे बढ़ने का मौका देते हैं । जब वह ठीक राह पर चलता है या ठीक काम करता है तो प्यार करते हैं, गलत काम करने पर या गलत राह पर चलने पर फटकारते भी हैं, डाँटतेउपटते भी हैं, उलाहना भी देते हैं, पर इन सबके पीछे बालक का हित ही मुख्य होता है । बालक की तोतली और अस्पष्ट बोली का तो अर्थ वे समझते ही हैं, बालक के मन में क्या विचार है ? वह क्या चाहता है ? इन बातों को बिना कहे ही वे बालक के चेहरे पर से समझ जाते हैं । इसी प्रकार लोकोत्तर गुरु भी माता-पिता या अभिभावक के समान शिष्य को आध्यात्मिक जन्म देते हैं, उसे अध्यात्मविद्या के क ख ग से प्रारम्भ करके उच्चकोटि के अध्यात्म-ग्रन्थों को पढ़ने, समझने और जीवन में उतारने का प्रशिक्षण देते हैं। माता-पिता की तरह गुरु शिष्य की भूलों को क्षम्य मानकर धीरे-धीरे वात्सल्यपूर्वक उसे भूलें बताकर सुधारते हैं । उसे अपने सान्निध्य में रखकर उसके खान-पान, शयन, वस्त्र, औषध, उपचार आदि का पूरा ध्यान रखते हैं । उसे इस प्रकार से इन्द्रिय- विजय, कषाय - विजय एवं आवश्यकताओं पर संयम, आदतों पर नियंत्रण एवं For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ . आनन्द प्रवचन : भाग ११ , स्वेच्छा से शरीर और मन पर कंट्रोल करने का प्रशिक्षण दे देते हैं कि उसे अनुशासन में रहना भारभूत नहीं मालूम होता। गुरु के द्वारा दी गई ताड़ना, उपालम्भ या फटकार शिष्य को औषध की तरह रुचिकर और हितकर लगती है, वह कभी यह महसूस नहीं करता कि गुरु मेरे शत्रु हैं, मुझे उलाहना देकर अपमानित करते हैं, क्योंकि ऐसी स्थिति में हितैषी एवं आप्त गुरु को वह माता-पिता के समान समझता है। श्री तिलोक काव्य संग्रह की भाषा में कहूँ तो वह शिष्य शुरु को सर्वोपम श्रद्धय समझता हैगुरु मित्र गुरु मात, गुरु सगा गुरु तात, गुरु भूप गुरु भ्रात गुरु उपकारी है। गुरु रवि गुरु चन्द्र, गुरु देव गुरु इन्द्र, गुरु देत है आनन्द, गुरु-पद भारी है ।। गुरु देत ज्ञान ध्यान, गुरु देत दान-मान, गुरु देत मोक्षस्थान, सदा हितकारी है। कहत तिलोकरिख भली-भली देत सीख, पल-पल' गुरुजी को वन्दना हमारी है । ऐसे परमहितैषी गुरु जब शिक्षा देते हैं तब शिष्य क्या समझता है ? यह उत्तराध्ययन सूत्र में देखिये पुत्तो मे भाय नाइत्ति साहू कल्लाण मन्नइ सुशिक्षित एवं विनीत शिष्य गुरुदेव की शिक्षा को पुत्र, भ्राता या ज्ञातिजन समझकर दी गई शिक्षा के समान श्रेयस्कर व कल्याणकर समझता है। माता-पिता जैसे अपने पुत्र को पारिवारिक एवं समाज के व्यवहार की सभी बातें खुले हृदय से समझाते हैं, व्यवसाय सम्बन्धी बातों में कुशल बना देते हैं, वैसे ही मात-पितृहृदय गुरु अपने शिष्य को सारी अध्यात्म-विद्या खुले हृदय से बता देते हैं। वे शिष्य के साथ किसी भी प्रकार का कपट नहीं रखते । माता-पिता की तरह गरु अपने शिष्य को केवल वचन से ही नहीं सिखाते, वरन् अपने आचार, विचार, आहार, विहार और व्यवहार आदि सभी के द्वारा सिखाते हैं । सच्चा गुरु इतना निःस्पृह होता है कि उसे शिष्य मंडली बढ़ाने की कामना नहीं होती। माता-पिता जैसे बच्चे को प्यार भी देते है, तो समय आने पर फटकार भी। वे ऊपर से कठोर होते हैं तो अन्दर से मृदु और मधुर भी । पण्डितराज जगन्नाथ ने ठीक ही कहा है ___ उपरि करवालधाराकाराः क्रूरा भुजंगमपुगवात् । अन्तः साक्षाद् द्राक्षादीक्षागुरवो जयन्ति केऽपि जनाः ॥ -जो ऊपर से तलवार की धार के समान तीखे तथा श्रेष्ठ सर्प से भी कर For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र और शिष्य को समान मानो २६६ गुरु ज दिखाई देते हैं, किन्तु अन्तर् में द्राक्षा जैसे मधुर और कोमल फल को भी साक्षात् दीक्षा देते हैं, ऐसे कतिपय विरले ही गुरु इस संसार में जयवन्त हैं। गरु : जीवन का निर्माता कलाकार वास्तव में गुरु शिष्य का जन्मदाता नहीं, परन्तु माता-पिता से भी बढ़कर निर्माणकर्ता है, वह जीवन जीना सिखाता है। यही कारण है कि माता-पिता की अपेक्षा भी गुरु के प्रति शिष्य विशेष ऋणी है । अलेक्जेंडर मेसीडोन (Alexander Macedon) ने इसी बात का समर्थन किया है “I am indebted to my father for living, but to my teacher for living well." -जीवन देने के लिए में अपने पिता का ऋणी हूँ, लेकिन उससे भी बढ़कर गुरु का ऋणी हूँ, जिन्होंने मुझे अच्छी तरह जीवन जीना सिखाया। गुरु जीवन का महान् कलाकार है। जैसे भौंडे, भद्द, टेढे-मेढ़े, खुरदरे पत्थर को लेकर मूर्तिकार अपनी पैनी छैनी एवं औजारों से काट-छीलकर सुन्दर देव मूर्ति बना देता है, जो भविष्य में पूजनीय बन जाती है, वैसे ही गुरु असंस्कृत, अनघड़ और अप्रशिक्षित शिष्य को अपनी वाणी, काया और मन से घड़कर सुन्दर, स्वस्थ, सुसंस्कृत, प्रशिक्षित जीवन का रूप दे देता है । इसीलिए तिलोक काव्य संग्रह में गुरु को शिष्य के जीवन का सुधारक, निर्माणकर्ता एवं परम उपकारी बताया हैजैसे कपड़ा को थान दरजी बेतत आन, खंड-खंड करे जाण देत सो सुधारी है। काष्ठ को ज्यों सूत्रधार, हेम को कसे सुनार, . माटी के ज्यों कुम्भकार पात्र करे त्यारी है। धरती के किरसान, लोह के लुहार जान, शिलावट शिला आण, घाट घड़े भारी है । कहत तिलोकरिख सुधारे ज्यों गुरु सीख, गुरु उपकारी नित लोजे बलिहारी है। भावार्थ स्पष्ट है । जैसे दर्जी कपड़े का थान लेकर पहले नाप लेता है, फिर काटकर सीता है, इस प्रकार कपड़े को सुधारता है, जैसे काष्ठ को काट-छीलकर बढ़ई अच्छी वस्तुएं बनाता है, सुनार सोने को काट-पीटकर गहने बनाता है, कुम्हार मिट्टी को सान-गूंदकर बर्तन बनाता है, किसान भूमि को समतल करता है, लुहार लोहे को तथा सिलावट शिला को काट-छीलकर अनेक रूप देता है, वैसे ही पितृ-हृदय लेकर उपकारी गुरु शिष्य को अनुशासन, प्रशिक्षण, भूल-सुधार आदि से घड़ता है; उसे तैयार करता है। For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० मानन्द प्रवचन : भाग ११ इसलिए गुरु माता-पिता से भी बढ़कर उपकारी है । संत कबीर गुरु द्वारा शिष्य के निर्माण का तरीका बतलाते हैं गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है, घड़-घड़ काढ़े खोट । अन्तर हाथ सहारा दै, बाहर वाहै चोट ।। सचमुच, पितातुल्य गुरु अपने पुत्रतुल्य शिष्य रूपी घट को कुम्हार के समान बाहर से घड़-घड़कर और अन्दर से हाथ रखकर खोट निकालता है । भारतीय संस्कृति में पाँच प्रकार के पिता माने गये हैं जनेता चोपनेता च यश्च विद्यां प्रयच्छति । अन्नदाता भयनाता पंचते पितरः स्मृताः ॥ ये पांच पिता कहे गये हैं-(१) जन्मदाता पिता, (२) पालक या अभिभावक पिता, (३) विद्यादाता, (४) अन्नदाता और (५) भयत्राता। योग्य शिष्य गुरु के गौरव को बढ़ाते हैं प्रस्तुत सन्दर्भ में अध्यात्मविद्या-प्रदाता पिता के रूप में गुरु है, जो अपने शिष्य को पुत्र की तरह शिक्षण-प्रशिक्षण देकर तैयार करता है। सच्चा गुरु पितृहृदय रखकर अपने शिष्यों को कितना तैयार कर देता है ? गुरु के उपदेश का योग्य शिष्यों के जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ता है ? यह साकेत (रामायण) में वर्णित एक प्रसंग से समझिए - चित्रकूट में राम-भरत मिलन का अद्भुत भव्य दृश्य । भरत राम से आग्रह कर रहे थे-वापस अयोध्या चलकर राज्य संभालने का और राम भरत को शासक बनाने पर कटिबद्ध थे। दोनों में से कोई भी एक दूसरे की बात मानने को तैयार न था। लक्ष्मण और शत्रुघ्न हतप्रभ-से खड़े थे । ऋषिगण भाइयों की इस त्यागवृत्ति और निःस्पृहता के देख कर मन ही मन प्रफुल्लित हो रहे थे। तभी हंसकर ऋषि जाबाल ने कहा-“मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ कि जिस राज्य के लिए लोग पितृवध तक करने में संकोच नहीं करते, उसी राज्य को देने के लिए द्वन्द्व हो रहा है, देने को दोनों भाई तैयार हैं, पर लेने को कोई नहीं।" ऋषि जावाल के ये वचन सुनकर भरत ने कहा-"ऋषिवर ! आप जैसे गुरुमों की हमें यही शिक्षा मिली है कि नश्वर राज्य लक्ष्मी के लिए क्षुद्रपुरुष ही जघन्य कृत्य करते हैं, जिनका कुल निम्न होता है, जिन्हें गुरुओं की उचित शिक्षा नहीं मिलती, वे ही राज्य प्राप्ति को अपना लक्ष्य मानते हैं।" _जाबाल ने वशिष्ठ ऋषि की ओर मुस्करा कर देखा। इस मुस्कराहट का अर्थ वे समझ गये। वे भी खिलखिलाकर हंसे और बोले For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र और शिष्य को समान मानो ३०१ "ऋषिवर ! ये इस तुच्छ ऋषिचरण-रज के शिष्य हैं । मैंने अपने हृदय की अनुभूति से सींच-सींचकर इन्हें विकसित किया है । आर्य संस्कृति के पवित्र संस्कार कूटकूटकर भरे हैं। आप इनकी जैसे चाहें परीक्षा ले लीजिए।" जाबाल ऋषि ने कहा"ऋषिवर ! इन राजकुमारों की परीक्षा की आवश्यकता नहीं है। इनका चरित्र ही स्पष्ट बोल रहा है। आपके पवित्र कर-कमलों द्वारा किये संस्कार-सिंचन से इनका जीवन-तरु अद्भुत रूप से पल्लवित-पुष्पित-फलित हुआ है । सचमुच आपके ये शिष्य योग्य हैं । ये अपने उज्ज्वल चरित्र से जगत् को प्रभावित करने वाले हैं । इनका निर्मल जीवन और आदर्श धन्य है।" योग्य शिष्य गुरु को पुत्र से भी बढ़कर प्रिय . इस प्रकार एक सच्चे गुरु ने योग्य शिष्य को पाकर अपनी सर्वस्व विद्याएं उसे दे दी और जीवन-निर्माण के साथ योग्य विद्वान् बना दिया । योग्य शिष्य स्वयमेव गुरु को अपने गुणों से आकर्षित करके पुत्र का अधिकार पा लेता है। आत्मानुशासन में योग्य शिष्य की पहचान इस प्रकार बताई गई है भव्यः किं कुशलं ममेति विमशन दुःखान् भृशं भीतिमान्, सौख्येषी श्रवणादिबुद्धिविभवः श्रुत्वा विचार्य स्फुटम् । धर्मशर्मकरं वयागुणमयं युक्त्यागमाभ्यां स्थितम्, गृह्णन धर्मकथां श्रुतावधिकृतः शास्यो निरस्ताग्रहः ॥७॥ -योग्य शिष्य वह होता है, जो भव्य हो, अपना कल्याण किसमें है ? इसका विचार करता हो, दुःखों से डरता हो, सुखेच्छुक हो सुनने (शुबषा, श्रवण, ग्रहण, धारणा, विज्ञान, ऊहापोह, तत्त्वज्ञान) आदि में रुचि रखता हो, युक्ति और आगम से निश्चित दयागुणमय सुखकर धर्म का आचरण करता हो, धर्मकथा को रुचिपूर्वक ग्रहण करता हो, शास्त्रों में पारंगत हो और दुराग्रही न हो। जहाँ ये गुण नहीं होते, वहाँ शिष्य योग्य नहीं समझा जाता। एक उदाहरण लीजिये आचार्य क्षीरकदम्ब अपने पुत्र पर्वत और शिष्य नारद दोनों को समान भाव से पढ़ाते थे। परन्तु पर्वत की बुद्धि अहंकार और दुविनय के कारण मलिन होती जा रही थी। एक दिन पर्वत ने अपनी माता से शिकायत की-"माँ, पिताजी मेरे प्रति भेदभाव रखते हैं, वे मुझे भलिभाँति नहीं पढ़ाते, नारद को अच्छी तरह पढ़ाते हैं। इस कारण नारद मुझ से अधिक बुद्धिमान होता जा रहा है। अहंकारवश मुझे छेड़ता रहता है, और नीचा दिखाने की कोशिश करता है । आज जब हम समिधा लेने गये थे, तो उसने मुझे तरह-तरह से अपमानित किया।" पुत्र के प्रति माता का मोह जाग उठा । पुत्र के अपमान से दुःखित माता (गुरुपत्नी) ने अपने पति से शिकायत की-“यह तो आपका रवैया ठीक नहीं कि आप अपने For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ पुत्र के साथ भेदभाव रखें। आजकल आपने नारद को बहुत सिर चढ़ा रखा है । वह अहंकार में आकर पर्वत का अपमान करता रहता है ।" । क्षीरकदम्ब ने कहा – “मुझे तो ध्यान में नहीं कि मैंने पर्वत के साथ भेदभाव बरता हो और न ही आज तक नारद में अहंकार की मात्रा देखी है कहती हो तो मैं उसे अभी बुलाकर पूछता हूँ कि पर्वत को उसने क्यों तंग किया ?" फिर भी तुम अपमानित एवं पत्नी को इससे सन्तोष हुआ । क्षीरकदम्ब ने तुरन्त नारद को बुलाया और डाँटते हुए कहा - " नारद ! तुम पर्वत को क्यों तंग करते हो ? बोलो, आज तुमने वन में क्या उपद्रव किया था ?" नारद चकित रह गया । वह समझ गया कि पर्वत ने गुरुजी से कोई शिकायत की है, इसी कारण गुरुजी नाराज हो रहे हैं । उसने नम्रस्वर में उत्तर दिया – “गुरुजी ! मैंने तो कोई उपद्रव नहीं किया, पर हाँ दो घटनायें अवश्य घटित हुई थीं ।" गुरुजी- "कौन-सी घटनायें हुई ? बताओ तो ।" नारद - "गुरुदेव ! आज वन में हमने देखा कि मोर नदी प्रवाह का जल पीकर वापस लौट रहे थे। तभी पर्वत ने कहा- ये आठों मोर हैं । मैंने कहा – एक मोर है, बाकी सात मोरनी हैं । जब स्वयं पर्वत ने पास जाकर देखा तो मेरी बात सच निकली । " गुरुजी- "तुमने कैसे जाना, वत्स ! " नारद -' - '' गुरुजी ! यह तो साधारण सी बात थी । एक मोर पूंछ भीगकर भारी न हो जाये, इस कारण उलटा लौट रहा था, मैंने समझ लिया कि यह मोर है । बाकी सब मोरनी थीं । उनकी पूँछें छोटी थीं, उन्हें पूंछ भीगने का डर न था, इसलिए वे सीधी लौट रही थीं ।" गुरु मन ही मुस्कराये और पूछा - " और दूसरी घटना ?" नारद ने कहा - " नदी तट के एक स्थान को देखकर मैंने कहा – यहाँ से एक कानी हथिनी गई है । उस पर सफेद साड़ी पहने एक गर्भवती स्त्री बैठी है, वह आज ही प्रसव करेगी ।" गुरुजी- "यह सब तुमने कैसे जाना ?" भीगे हुए हैं, तभी निश्चय कर लिया कि वह हथिनी है । फिर नारद- - "गुरुजी ! जब मैंने वन में देखा कि हाथी के पदचिह्न उसके मूत्र से देखा कि दांई ओर के वृक्ष टूटे हुए हैं, बाईं ओर के नहीं; तब समझ लिया कि वह कानी है । वह स्त्री मार्ग की नदी तट की रेत पर लेटी थी, वहाँ उसके उदर का निश्चान बन गया था । उसे देखने से अनुमान लगाया कि वह गर्भवती है और शीघ्र ही माँ बनने वाली है । असावधानीवश उसकी साड़ी का एक कोना कँटीली झाड़ी में उलझ गया For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र और शिष्य को समान मानो ३०३ था, वह सफेद था, इससे मालूम हुआ कि वह सफेद साड़ी पहने थी । प्रसव पीड़ा से व्याकुल है, इसका अनुमान तो इस पर से हुआ कि उस महिला ने अपनी साड़ी फटने दी, कांटों में उलझने दी । ये ही मेरे अनुमान के आधार हैं। इन दोनों घटनाओं को ही भाई पर्वत ने अपना अपमान समझ लिया है ।" गुरुजी मन ही मन नारद पर प्रसन्न एवं सन्तुष्ट थे । उनके अन्तर् से उसके प्रति आशीर्वाद बरस पड़ा। उन्होंने नारद को बाहर जाने की आज्ञा दी । तत्पश्चात् पत्नी से बोले - "भामिनी ! इसमें नारद ने तुम्हारे पुत्र का क्या अपमान कर दिया, बताओ तो ?” गुरु- पत्नी ने अपने पुत्र से पूछा तो उसने भी इन घटनाओं को सत्य बताया । अतः गुरु क्षीरकदम्ब ने अपनी पत्नी से कहा - "प्रिये ! बताओ, इसमें मैंने कौन - सा भेदभाव कर दिया ? तुम्हारा पुत्र मेरी शिक्षा पर ध्यान नहीं देता, वह व्यर्थं की शिकायतें करता है; और नारद ने उसी शिक्षा को ध्यान से हृदयंगम किया और अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा से ये अनुमान लगा लिए ।" माता भी समझ गई कि उसका पुत्र अहंकारी और दुर्विनीत है । अपनी बुद्धि का समुचित प्रयोग नहीं करता । नारद के प्रति गुरुजी का अपने पुत्र से बढ़कर प्यार था । उसके विनयपूर्ण बुद्धिबल को देखकर उन्हें विश्वास हो गया कि पुत्र की अपेक्षा उनका शिष्य अच्छी बुद्धि वाला है, उनकी शिक्षा को सही ढंग से वही प्रचारित-प्रसारित कर सकता है । हाँ तो, मैं कह रहा था - सुयोग्य शिष्य पर गुरु की कृपा पुत्र से भी बढ़कर बरसती है । गृहस्थ- पुत्र से भी बढ़कर सुयोग्य शिष्य वैसे भी देखा जाये तो सद्गुरु अगर अपने शिष्य के प्रति पुत्रवत् आचरण करे तो सामान्य गृहस्थ-पुत्र और साधक - शिष्य दोनों में साधक शिष्य ही बढ़कर विनीत होता है । आवश्यक टिप्पणी में एक कथा है 1 एक राजा और एक आचार्य में एक बार परस्पर विवाद खड़ा हो गया । राजा ने कहा- राजपुत्र विनीत और बढ़कर होता है । आचार्य ने कहा- नहीं, राजपुत्र की अपेक्षा साधु-शिष्य अधिक विनीत और बढ़कर होता है । दोनों की परीक्षा करके निर्णय कर लेने का निश्चय हुआ । राजा ने अपने विनीत पुत्र को बुलाकर कहा - "बेटा ! यह देख आओ कि गंगा किस दिशा में बह रही है ?" राजकुमार बोला - " इसमें क्या देखना है गंगा पूर्वाभिमुख होकर बहती है।" फिर भी राजा ने बहुत कुछ समझा-बुझाकर गंगा नदी देखने भेजा । रास्ते में उसके मित्र मिले। उन्होंने पूछा - " कहाँ जा रहे हो, कुमार ?” राजपुत्र बोला" पिताजी ने एक बेगार सौंपी है, उसे करने जा रहा हूँ ।" यों कहकर बीच में से वापस लौट आया, और राजा से कहने लगा - " मैं वहाँ जाकर देख आया । गंगा पूर्वाभिमुख - For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ होकर बह रही है । इसके बाद आचार्य ने अपने शिष्य-साधु से कहा - " जाओ वत्स ! देख आओ तो गंगा किस दिशा में बहती है ?" साधु-शिष्य विचार करने लगा - 'गंगा तो पूर्वाभिमुखी बहती है, यह मैं भी जानता हूँ, गुरुजी भी जानते हैं, फिर भी मुझे देखने के लिए भेज रहे हैं, इसके पीछे कोई न कोई रहस्य होगा ।" यों सोचकर वह शिष्य गंगा तट पर गया, स्वयं देखकर निश्चय किया कि गंगा पूर्वाभिमुखी बहती है । वहाँ खड़े लोगों से भी पूछा तो उन्होंने भी ऐसा ही कहा । वहाँ से लौट कर गुरु के उस शिष्य ने कहा - " मेरी दृष्टि में तो गंगा पूर्वाभिमुखी बहती है । इसका रहस्थ तो गुरुजी जानें।” राजा ने दोनों व्यक्तियों के पीछे गुप्तचर भेजा था, उन्होंने आकर दोनों के समाचार राजा को पहले ही दे दिये थे । राजा को मानना पड़ा कि राजपुत्र की अपेक्षा साधु-शिष्य बढ़कर है, विनय में, बुद्धि में, वाणी कौशल में । शय्यंभवाचार्य का मनक नाम का पुत्र था, वही उनका शिष्य था । शिष्य के प्रति गुरु का मातृवत् व्यवहार योग्य गुरु अपने प्रति समर्पित शिष्य के प्रति माता की तरह करुणा और वात्सल्य की गंगा बहाते हैं । जो शिष्य अपने हितकारी एवं पूछने योग्य गुरुओं से पूछ कर कार्य करता है, उसके किसी भी कार्य में विघ्न नहीं होता । जिस प्रकार माता अपने पुत्र के रुग्ण होने पर अपना सब दुःख भूलकर उसकी परिचर्या में जुट जाती है, उसी प्रकार सद्गुरु भी रुग्ण शिष्य के लिए स्वयं कष्ट सहकर उसकी सेवा में जुट जाते हैं । मैंने एक बार एक दृष्टान्त सुनाया था कि एक सद्गुरु ने शिष्य के दुसाध्य रोग को देखकर उपाय सोचा और एक दिन एक रूपं को आते देख शिष्य से कहा-" वत्स ! इस साँप के दाँत गिन आओ ।" गुरु आज्ञा बिना किसी तर्क के हितकारी समझकर विनीत शिष्य ने साँप का मुँह पकड़ा। ज्यों ही साँप के हाथ लगाया, उसने दंश मार दिया। गुरुजी ने उस शिष्य को कम्बल उढ़ाकर सुला दिया । थोड़ी ही देर में रोग के कीड़े बाहर निकल गये । रुग्ण शिष्य बिलकुल स्वस्थ हो गया । बन्धुओ ! इसीलिए नीतिवाक्यामृत में शिष्य को निर्देश किया गया है — "पितरमिव गुरुमुपचरेत" गुरु के प्रति पिता के तुल्य व्यवहार करे । वास्तव में, गुरु का महान उत्तरदायित्व तो है ही, शिष्य को पुत्रवत् मानकर उसके जीवन निर्माण करने का, परन्तु अगर शिष्य ही गुरु आज्ञा न माने, उनकी बात न सुने, अपनी मनमानी करे तो गुरु क्या कर सकते हैं ? इसलिए शिष्य का भी दायित्व हो जाता है कि वह एक पिता के सच्चे सपूत की तरह अपने गुरु का सच्चा शिष्य बने । सच्चा शिष्य अपने गुरु के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित होता है, वह गुरु के लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार होता है, गुरु की प्रत्येक आज्ञा को वह शिरोधार्य करके क्रियान्वित करता है । इसीलिए महर्षि गौतम ने गुरु के उत्तरदायित्व के गर्भ में शिष्य की शिष्यता का भी संकेत कर दिया है । 'पुत्ताय सीसा य समं विभत्ता' For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८. ऋषि और देव को समान मानो धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपको ऋषिजीवन की दिव्यता और भव्यता की झाँकी कराना चाहता हूँ। ऋषि का जीवन दिव्यजीवन-सदृश होता है। उस जीवन में देवीगुण स्वाभाविक रूप से विकसित होते हैं । इसीलिये गौतमकुलक में कहा गया रिसी य देवा य समं विभत्ता -ऋषि और देव, ये दोनों समानरूप से सम्मान्य होते हैं । गौतमकुलक का यह ६४वाँ जीवनसूत्र है। इस जीवनसूत्र में ऋषि को देवतुल्य सम्मान्य बताया गया है । आइये, हम विभिन्न पहलुओं से इस पर विचार करें कि ऋषि और देव में किन कारणों से और किन बातों में साम्य है ? ऋषि कौन ? सर्वप्रथम हमें समझ लेना चाहिये कि ऋषि कौन होते हैं ? उनका स्वरूप क्या है ? ऋषिजीवन कैसा जीवन है ? ऋषि की व्युत्पत्ति वैयाकरणों ने इस प्रकार की है ऋच्छति गच्छति-प्राप्नोति ऊर्ध्वस्थानमिति ऋषिः । -जो ऊर्ध्वस्थान-मोक्षस्थान को प्राप्त करता है, उसकी ओर गमन करता है, वह ऋषि है। ऋषि मानव-समाज का एक सजग प्रहरी है, जो स्वयं अमृतपुत्र बनकर अमृत बाँटता और स्वयं आस्वादन करता हुआ अमरत्व की ओर बढ़ता है। जहाँ-जहाँ वह देखता है, लोग अमरत्व-प्राप्ति के विरुद्ध चेष्टाएं कर रहे हैं, अमृतत्व पाने के अवसर को खो रहे हैं, वहाँ वह जागृत रहकर प्रम से सबको अमृतपिता का सन्देश देता है । इस प्रकार ऋषि जीवन और जगत् के महानियम को जानकर स्वयं तदनुसार आचरण करता हुआ दूसरों को उस महानियम को प्रेरणा देता हुआ चलता है। ऋषि भविष्यद्रष्टा और क्रान्तद्रष्टा होते हैं, वे पहले से संसार की गतिविधि पर से भविष्य का अनुमान लगा लेते हैं और समाज को चेतावनी दे देते हैं । वेदों में विभिन्न ऋषियों के नाम की ऋचाएं हैं । वहाँ ऋषि की महिमा बताते हुए कहा गया है ऋषयो मंत्र द्रष्टारः ऋषि, वे हैं, जो मानव-समाज के लिये उपयोगी मन्त्रों के द्रष्टा हैं। मानव For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ समाज को किस समय कैसा व्यवहार करना चाहिये ? किस-किस व्यक्ति का क्याक्या धर्म है ? उसका आचरण कैसे करना चाहिये ? इन और ऐसे ही विषयों में मंथन करके, मनन-चिन्तन करके ऋषिगण मन्त्रों के द्रष्टा एवं स्रष्टा वनते थे। वे समाज को उन मन्त्रों का उपदेश भी देते थे, जिनसे समाज का हित-कल्याण हो । ऋषि का स्वरूप बताते हुए तिलोक काव्य संग्रह में कहा हैऋषि नाम सो ही षट्काय के दयालभाव, साधु साधे आतमा उपाधि राह तजता। अन्तःकरण ह की वासना वमत मूनि, भक्त भगवन्त को सो निरन्तर भजता ।। वैरागी सो राग, द्वेष, मोह ते रहित होय, द्रव्यभाव-ग्रन्थ तजे निगरंथ बजता । सत्य पक्ष गहे संत कहत तिलोक तंत, __ तंतन में तंत-तंत जिनमग अजता ॥ भावार्थ यह है कि ऋषि वह है, जो षड्जीवनिकाय के प्रति दयाभाव रखता है, आत्मा को उपाधि में डालने वाला मार्ग छोड़ देता है, जगत् के तत्त्वों का मनन करके अन्तःकरण की वासनाओं का वमन (त्याग) कर देता है, भगवद्भक्त बनकर सतत भजन करता है, संत बनकर सत्य का पक्ष लेता है, समस्त तत्त्वों का सारभूत तत्त्व-मोक्ष है, उसे प्राप्त करने के लिये जैन (वीतराग भगवान-प्ररूपित) पथ को स्वीकार करता है । वास्तव में सच्चा ऋषि शुद्ध धर्म के विपरीत कार्य जहाँ कहीं भी धर्म के नाम से होता हो, वहाँ उसका विरोध करता है, कोई व्यक्ति अधर्म या पाप के रास्ते जाता हो, किसी भी तरह से न मानता हो, उसे षट्कायप्रतिपालक ऋषि किसी भी सात्त्विक उपाय से धर्म की राह पर ले आते हैं। इस दृष्टि से ऋषि धर्मप्रभावक, धर्मरक्षक एवं धर्ममार्गप्रापक कहे जा सकते हैं। कल्पसूत्र स्थविरावली में उल्लिखित एक उदाहरण प्रस्तुत करना यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा अजमेर के निकट प्राचीनकाल में हर्षपुर नामक एक नगर था। वहाँ सुभटपाल राजा राज्य करता था । उस नगर में १८ सौ ब्राह्मणों के तथा ३६०० वणिकों के पर थे तथा अनेक बाग-बगीचा, बावड़ी, कुआ, दानशाला, भवन, जलाशय, आराम आदि से वह नगर सुशोभित था। एक बार वहाँ प्रियग्रन्थ नाम के आचार्य पधारे। उन्हीं दिनों में, वहाँ के ब्राह्मण यज्ञ के निमित्त बकरे का वध करने लगे। श्रावकों ने आकर आचार्य प्रियग्रन्थ को ये दुःखद समाचार दिये । आचार्यश्री ने वासक्षेप को अभिमंत्रित करके एक श्रावक को दिया और कहा-इसे बकरे के मस्तक पर डालना। श्रावक ने ऐसा ही किया। इससे बकरे के शरीर में तत्काल अम्बिका देवी आई । अतः बकरा आकाश में अधर For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि और देव को समान मानो ३०७ रहकर मनुष्य भाषा में बोलने लगा – “ओ याज्ञिको ! तुम मुझे अग्नि में होमना चाहते हो तो पहले मुझे बाँधो, फिर मारो, देखूं तो सही तुम कितने पानी में हो । अगर मैं भी तुम्हारी तरह निर्दय बन जाऊँ तो तुम सबको एक क्षण में यमलोक का मेहमान बना दूं । अगर मेरे चित्त में दया न हो, मैं कषायभाव लाकर जैसे लंका में हनुमानजी ने किया था, वैसे ही तुम्हारे नगर का बेहाल आकाश में खड़ा खड़ा कर सकता हूँ ।" इस प्रकार के वचन सुनकर भयभीत होकर यज्ञकर्ता ब्राह्मण पूछने लगे"आप कौन हैं ? " तब वह अपने आपको प्रगट करके बोला - " मैं पावक हूँ। यह अकरा मेरा वाहन है । उसे तुम लोग व्यर्थ ही क्यों मारते हो ? तुम लोग शुद्ध धर्म से विमुख हो रहे हो । इस नगर में प्रियग्रन्थ नामक जैनाचार्य पधारे हुए हैं । उनके सान्निध्य में जाकर तुम विशुद्धधर्म की पृच्छा करो एवं उस धर्म को स्वीकार करो । वे आचार्य नरेन्द्रों में जैसे चक्रवर्ती, धनुर्धारियों में जैसे धनंजय हैं, वैसे ही सर्वसत्यवादियों में शिरोमणि हैं ।" यह सुनकर सभी ब्राह्मण उन आचार्यश्री की सेवा में पहुँचे और उनसे पूछा— "भगवन् ! शुद्ध धर्म का स्वरूप बताने की कृपा करें ।” आचार्यश्री ने उन सबको धर्मं सुनाया। जिसे सुनकर उन्होंने स्वीकार किया और तदनुसार आचरण करने का संकल्प किया । इस प्रकार ऋषि अधर्म मार्ग या पापमार्ग पर चढ़े हुए मनुष्यों को उक्त अशुभ मार्ग से हटाकर शुद्ध मार्ग पर आरूढ़ कर देते हैं । ऋषिजीवन की पहचान ऋषि जब दूसरों को धर्ममार्ग में आरूढ़ और स्थिर करते हैं, तब उन्हें अपने जीवन में क्षमा, दया, करुणा, सेवा, मंत्री, विश्वबन्धुत्व, आत्मीयता, सहिष्णुता, क्षमता आदि गुणों का विशेषरूप से अभ्यास करना पड़ता है, इन गुणों को श्वाच्सोछ्वास की तरह जीवन में प्रतिष्ठित करना पड़ता है, तभी वह दूसरों को धर्ममार्ग में प्रेरित कर सकता है, तभी उसकी वाणी में बल, जोश, प्रभावशालिता, शक्तिमत्ता एवं दृढ़ता आ सकती है । तभी वह दूसरों को निर्भय होकर सच्ची और साफ बात कह सकता है । यदि ऋषि में ये गुण नहीं होंगे तो वह हर बात में दूसरों से दबेगा, भयभीत होगा, दूसरों का लिहाज रखेगा, लल्लो-चप्पो करेगा या दूसरों को ठकुरसुहाती कहेगा । सचमुच ऋषि के लिये ऐसी दुर्बलताएँ कलंकरूप होंगी । ऋषि के जीवन को लोभ, मोह, भय, चिन्ता आदि विकारों से कलुषित कर देंगी । ऋषि जीवन वह पवित्र जीवन है, जिसकी सफेद चादर पर जरा-सा भी दुर्गुण का धब्बा सह्य नहीं होता । ऋषि जीवन व्यसनमुक्त, फैशन और विलास से दूर सात्त्विक और निर्दोष होता है। ऋषि जीवन में व्यसन और विलास, आडम्बर और For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ प्रदर्शन, अपव्यय और अनावश्यक संग्रह को कोई स्थान नहीं होता । ऋषि जीवन अपने सत्य, प्रेम और न्याय की त्रिपुटी से समाज, राष्ट्र और विश्व को आकर्षित एवं प्रभावित कर लेता है । इस जीवन में क्षुद्रस्वार्थ और मोह सम्बन्ध को कोई स्थान नहीं होता । ऋषि के लिए सारा विश्व एक कुटुम्ब होता है, वह किसी एक परिवार, एक जाति, एक समाज, एक राष्ट्र, एक प्रान्त, एक ग्राम, नगर या एक भाषा आदि से मोहवश बँधा हुआ नहीं होता । ऋषि जीवन में अपने-पराये, तेरे मेरे या अहं मम की संकीर्ण दीवारें नहीं होतीं । ऋषि भले ही विचरण करता हुआ किसी एक गाँव या हो, चातुर्मास के लिए चार मास एक जगह निवास कर लेता हो, में सारा विश्व होगा, ऋषि को भले ही प्रसंगवश एक प्रान्त, एक राष्ट्र या एक ग्रामनगर के लोगों से वास्ता पड़ता हो, किन्तु उसका हार्दिक सम्पर्क सारी मानव-जाति से होगा, चाहे उसे मानवों से ही, उसमें भी जैन आदि से ही प्रायः अधिक सम्पर्क में आना पड़ता हो, लेकिन उसका मैत्रीभाव या बन्धुत्व सारे विश्व के सभी धर्म-सम्प्रदाय, जाति आदि के मानव समूह से होगा, वह हरिजन, परिजन, गिरिजन, छूत-अछूत, सवर्ण-असवर्ण, ऊँच-नीच आदि का भेदभाव मनुष्यों में नहीं करेगा । मानव-जाति ही नहीं, संसार के सभी प्राणियों को वह आत्म-समान मानेगा, भले ही सभी प्राणियों से उसका वास्ता न पड़ता हो, वह समय आने पर सभी प्राणियों पर करुणा, दया आदि करेगा । उसके मस्तिष्क में अपना स्वार्थ गौग होगा, समाज, राष्ट्र या विश्व का स्वार्थ- परमार्थ मुख्य होगा । ऋषि जीवन जातियों, प्रान्तों, राष्ट्रों, भाषाओं या धर्म-सम्प्रदायों के संघर्ष में भाग नहीं लेगा बल्कि उसके सामने ये प्रश्न आने पर माध्यस्थ्य एवं समत्व के सिद्धान्तों से प्रेरित होकर वह उनमें समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करेगा । सामायिक या समतायोग ही उसके जीवन का मूलमंत्र होगा । ऐसे ऋषि जीवन की महिमा तिलोक काव्य संग्रह में सुन्दर शब्दों में व्यक्त की गई है— रिख सो ही छही काय जीव के जतन करे, स परिहार अरजुन अनगार-सी । रिद्ध है अखूट ज्ञान-ध्यान-तप-जपरूप, ताते कर्मरिपु निर्मूल कर ऋतु छहु मांही रीत पाले जिनमारग की, डारसी ॥ सत्य माने प्रभुवाणी मिथ्या माने छार-सी । ऐसे रिखराज रिद्ध जहाज समान सही, कहत तिलोक वे ही भवोदधि तारसी ॥' भावार्थ स्पष्ट है | वास्तव में ऋषि धर्म की प्रतिक्षण रक्षा करने वाले जागरूक प्रहरी है । जहाँ भी स्वार्थ और परमार्थ में टक्कर होगी, वहाँ वे स्वार्थ को नहीं, १. तिलोक काव्य संग्रह, द्वितीय बावनी, काव्य ४६ For Personal & Private Use Only नगर में ठहर जाता परन्तु उसकी दृष्टि Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि और देव को समान मानो ३०६. सर्वार्थ को –— परमार्थ को प्रधानता देंगे । इस विषय में वे शीघ्र ही निर्णय कर लेते हैं, मोह-माया में पड़कर बुद्धि को स्वार्थ में लिपटाकर वे सत्य को ओझल नहीं करते । एक उदाहरण द्वारा मैं अपनी बात स्पष्ट कर दूं अहमदाबाद के 'सस्तु साहित्यवर्धक कार्यालय' के संस्थापक भिक्षु अखण्डानन्दजी थे । वे अपना घर-बार, कुटुम्ब - कबीला और सर्वस्व सम्पत्ति छोड़कर संन्यासी बन गए थे । एक बार उनके ऋषिपद की कसौटी करने हेतु एक सेवक आकर कहने लगा – “स्वामीजी ! मुझे आप से एक प्रार्थना करनी है । आप कबूल करें तो कहूँ । मेरी बात को आप फेंक दें तो मुझे नहीं कहनी है ।" स्वामीजी - " कहो भाई, क्या कहना है आपको बात को पहले जाने बिना ही कबूल कर लेना नीति विरुद्ध है । अगर आपकी बात मेरे ऋषिधर्म के साथ सुसंगत होगी तो मैं अवश्य स्वीकार करूंगा । आप खुशी से कहिये ।" सेवक ने मन में बात जमाकर धीरे से कहा - " स्वामीजी ! एक तरह से देखें तो मेरी बात का उद्देश्य लोक-कल्याण ही है ।" स्वामीजी – “लोक-कल्याण की कोई भी बात हो तो आप खुशी से कहें । जनसेवा या लोक-कल्याण करना तो ऋषियों का परम कर्त्तव्य है । किसी भी प्रकार के अवरोध के बिना सतत जनसेवा में प्रवृत्त रहने के लिए ही तो मैंने यह भगवा वेश धारण किया है । " सेवक — “स्वामीजी ! मैं जो कुछ कहूँ उस पर आप उदार हृदय से विचार करना । पँसे के अभाव में आपके प्रपौत्र की पढ़ाई रुकी हुई है । इस बारे में आप सक्रिय रुचि लें तो उसकी पढ़ाई आगे चल सकती है। इसमें आपको तो सिर्फ जीभ ही चलानी है । आप सम्मति देंगे तो यह कार्य आसानी से हो जायेगा । आप चाहें तो इस संस्था से भी इसे मदद दिला सकते हैं ।" सेवक की बात सुनकर भिक्षु अखण्डानन्दजी विचार में पड़ गये । उनकी दृष्टि के समक्ष अपने पूर्वाश्रम का चित्र उपस्थित हो गया । वास्तव में उनके पुत्र की आर्थिक स्थिति कमजोर थी ही । इस प्रश्न पर कुछ क्षण गम्भीर चिन्तन करने के पश्चात् स्वामीजी बोले"भाई ! आपने कहा, वह कार्य लोक-कल्याण का अवश्य है, मगर स्वस्थचित्त से सोचा जाये तो इस कार्य के पीछे स्वार्थ की गन्ध तो है ही । ऋषि, मुनि एवं संन्यासी को तो मन-वचन-कर्म से शुद्ध होकर, स्वार्थ से ऊपर उठकर लोक-कल्याण का कार्य करना चाहिए । इसके लिए सभी सरीखे हैं । इसी दृष्टि में परिजन, परजन, गिरिजन या हरिजन जैसे भेदभावमूलक अलग-अलग खाने नहीं हैं । आर्थिक तंगी के कारण क्या मेरे अकेले गृहस्थाश्रम - पक्षीय संतान की पढ़ाई रुकी हुई है ? दूसरे असंख्य विद्यार्थियों की पढ़ाई भी तो पैसे के अभाव में रुकी हुई है । संसार छोड़ने के बाद For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० आनन्द प्रवचन : भाग ११ ऋषि, मुनि, संन्यासी एवं साधु के लिए तो सारा विश्व कुटुम्ब बन जाता है । अब मेरे लिए तो सभी सरीखे हैं। इस भारत देश में मेरे गृहस्थपक्षीय संतान की अपेक्षा भी अधिक गरीब रहते हैं, आप कहिए, उन्हें छोड़कर मैं इसे कैसे मदद कर सकता हूँ । आप कहते हैं कि संस्था से मदद दिला दीजिए । परन्तु संस्था तो जनता की मिल्कियत है । मैं तो इस संस्था का एक तुच्छ सेवक हूँ। जो जनता की मिल्कियत के ट्रस्टी हैं, वे संस्था के धन का ऐसा दुरुपयोग नहीं कर सकते । जिस दिन ट्रस्टीगण ऐसी संकीर्णता में डूबकर जनता के धन का दुरुपयोग करेंगे, उस दिन जनता का विश्वास उन पर से उठ जाएगा । जनता के पैसे का मनमाना उपयोग करना जनता के साथ द्रोह करना है ।" स्वामीजी की बात सुनकर सेवक ने नम्रभाव से अपना तर्क प्रस्तुत किया" स्वामीजी ! आप चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं । जब आपने गृह त्याग किया था, तब जो अर्थराशि आप घर से लाये थे, वह सब आपने संस्था को ही सौंपी थी । उस रकम में से आप इसे मदद करिए । " स्वामीजी ने जरा जोश में आकर कहा - " वाह भाई वाह ! गृहत्याग करते समय मैंने जो रकम साथ में ली थी, वह मेरे हक की थी । हक से अधिक रकम मैंने नहीं ली । सच कहूँ तो आज की शिक्षा से गरीबों का सर्वनाश करने की युक्ति-प्रयुक्ति काही ज्ञान मिलता है, ऐसी शिक्षा के लिए तो मैं किसी को भी कुछ देने में खुश नहीं हूँ । सच्ची शिक्षा प्राप्त करनी हो तो वर्धा आश्रम में जाकर रहें और अध्ययन करके लोकसेवा में लग जाए ।" यों कहकर स्वामीजी अपने कार्य में मग्न हो गए । यह है, ऋषि के द्वारा क्षुद्र स्वार्थ की दृष्टि का त्याग करके सर्वार्थदृष्टि की सतत जागृति । ऋषि : त्रिकालाबाधित द्रष्टा ऋषि किसी जमाने से बँधा हुआ नहीं होता, उस पर काल का प्रतिबन्ध नहीं होता । वह सभी युगों का होता है । ऋषि काल की गतिविधि को भलीभाँति जानता है । त्रैकालिक सत्य का वह द्रष्टा है । उसमें काल की गतिविधि को परखकर काल को बदलने की शक्ति है । आचार्य पूज्यश्री अमोलक ऋषि महाराज के जीवन की एक घटना लीजिये । स्थानकवासी जैनसम्प्रदाय में अब तक शास्त्र छापने की प्रथा प्रचलित न थी । हस्तलिखित टब्बों के आधार पर शास्त्रवाचन की प्रथा थी । हस्तलिखित शास्त्र सर्वसुलभ नहीं थे । हैदराबाद निवासी सेठ ज्वालाप्रसादजी ने आचार्यश्री ने प्रार्थना की“आपश्री स्थानकवासी सम्प्रदायमान्य ३२ शास्त्रों का शुद्ध हिन्दी में अनुवाद कर देने की कृपा करें । मैं उन्हें छपवाकर सर्वत्र स्थानकवासी जैनसंघों को भेजने का प्रयत्न करूंगा, जिससे शास्त्रज्ञान का प्रचार हो ।" आचार्यश्री के समक्ष भूतकाल विरोध में खड़ा था, वर्तमानकाल भी पूरा तो For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि और देव को समान मानो ३११ नहीं, परन्तु अधिकांश विरोध में था कि शास्त्र छापे नहीं जाने चाहिए। छापे जाने शास्त्रीय ज्ञान के पर शास्त्रों की आशातना होगी आदि-आदि; किन्तु आचार्यश्री • व्यापक प्रचार का महालाभ सोचकर विरोध की परवाह न करते हुए बत्तीस शास्त्रों के हिन्दी अनुवाद का बीड़ा उठाया और शीघ्र ही उसे कार्यान्वित कर दिखाया । सेठ ज्वालाप्रसादजी ने ३२ ही शास्त्रों को प्रकाशित करवाया और इस प्रकार पूज्य • अमोलक ऋषिजी महाराज की दूरदर्शिता ने काल के प्रभाव पर विजय प्राप्त की । ऋषि : आत्मानुभूति के मार्गदर्शक राजा जनक को अध्यात्म विद्या का ज्ञान तो ऋषि पंचशिख से हो चुका था, किन्तु वे आत्मानुभव नहीं कर सके थे । आत्मानुभव की उन्हें तीव्र उत्कष्ठा थी । अतः घोषणा कराई - घोड़े की रकाब में पैर रखकर घोड़े पर सवार होने जितने समय में जो मुझे आत्मानुभव करा दे, उसे मैं अपना गुरु मान लूंगा ।" अनेक ऋषियों के हृदय में राजा जनक के गुरु बनने की इच्छा हुई, पर इतने थोड़े समय में आत्मानुभव कराने की शर्त असम्भव मानकर चुप हो गये । ऋषि अष्टावक्र ने यह बीड़ा उठाया । राजा जनक ने अश्व मँगाया और बोले – “मैं अपना पैर घोड़े की रकाब में रखता हूँ, आप आत्मानुभव काराएँ । कुछ ?" अष्टावक्र – “ ठहरो राजन् ! पहले गुरु-दक्षिणा दो ।" जनक - "माँगिये गुरुदेव ! क्या दक्षिणा चाहिये आपको ? धन, गाएँ या और अष्टावक्र -"मुझे न धन चाहिये न और कुछ, मुझे तो आपके मन, वचन, काया तीनों गुरुदक्षिणा में चाहिए ।" राजा जनक चकित होकर कहने लगे--"यह तो बड़ी कठिन गुरुदक्षिणा है ।" अष्टावक्र - " आत्मा का अनुभव भी तो बड़ा कठिन है ।" राजा जनक - " पर मेरे सांसारिक व्यवहार फिर कैसे चलेंगे ?" अष्टावक्र - " आत्मानुभव के बाद आप अपने मन-वचन-काया का उपयोग कर सकोगे । मैं तुम्हें स्वतन्त्र कर दूंगा ।" इस बात पर राजा जनक तैयार हो गये । ज्योंही वे अश्व पर सवार होने को तैयार हुए ऋषि अष्टावक्र ने रोका - " ठहरो नरेश ! आप शरीर गुरु-दक्षिणा में दे चुके हैं, रंचमात्र भी न हिलिये, स्थिर खड़े रहिये । राजा स्थिर खड़ा हो गया । तब कहा - " अब एक भी शब्द बोलने की इजाजत नहीं है । मौन होकर बाणी को अबरुद्ध कर दो ।" 1 राजा ने वाणी को भी रोक लिया। अब वह मन से चिन्तन करने लगा तो ऋषि ने फिर टोका - " मन का व्यापार बन्द करिये। मेरी आज्ञा बिना कुछ भी सोच नहीं सकते ।" For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ - मन को रोकते ही राजा लूंठ के समान रह गया-आत्माश्रित । मन-वचनकाया तीनों योगों के स्थिर होते ही आत्मानुभव हुआ। अनिर्वचनीय आनन्द आया । इस स्थिति में काफी देर तक राजा रहे । तब ऋषि ने पूछा-"विदेहराज ! हुआ तुम्हें आत्मानुभव ?" जनक राजा ऋषि अष्टावक्र के चरणों में गिरकर बोले"समझ गया गुरुदेव ! मन-वचन-काया के स्थिर होने पर ही आत्मानुभव होता है।" अष्टावक्र बोले-“अब आप आसक्ति छोड़कर मन-वचन-काया का उपयोग करिये।" इस प्रकार ऋषिगण आत्मानुभूति के सच्चे मार्गदर्शक होते थे। ऋषि : पाप-विशोधक ऋषियों की यह भी परम्परा रही है कि वे समाज में या समाज के किसी विशिष्ट व्यक्ति में या राजा में कोई पूर्वकृत अशुभकर्म होता तो उसके लिये उचित प्रायश्चित्त देकर उसकी आत्मविशुद्धि करा देते थे। जिससे पापकर्मजनित कोई विघ्नबाधा होती तो वह दूर हो जाती। मैं रघुवंश का एक उदाहरण देकर इसे समझाता हूँ गृहस्थाश्रम का अन्त निकट आ चला। राजा दिलीप के कोई सन्तान नहीं हुई । वानप्रस्थ ग्रहण करने से पूर्व राज्य के लिये योग्य उत्तराधिकारी की उन्हें चिन्ता थी, और सुलक्षणा रानी को नि:संतान होने का दुःख था। दोनों ने इस अन्तराय को दूर करने हेतु एवं पूर्वकृत अशुभकर्मनिवारण करने हेतु ऋषि वशिष्ठ की सेवा में पहुँचकर साधना करने का निश्चय किया। तदनुसार दोनों वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में पहुँचे और महर्षि के समक्ष अपनी चिन्ता निवेदित की। एक क्षण मौन रहकर महर्षि ने दिलीप का भूतकाल देखा-'पूर्वजन्म में दिलीप ने एक गाय के बछड़े को बहुत कष्ट दिया था। इस कारण गाय बहुत दुःखी हो गई थी। यही कारण है कि उस अशुभ कर्म के फलस्वरूप राजा दिलीप को इस जन्म में सन्तान-सुख से वंचित होना पड़ा है।' ऋषि वशिष्ठ ने पूर्वकृत अशुभकर्म को संतान न होने का कारण बताया और इस पूर्वकृत पापकर्म का प्रायश्चित्त करके उसका निवारण करने की प्रेरणा दी । और कहा- "इसके लिए तुम दोनों को कुछ दिन तपश्चर्या करनी होगी। बोलो, तुम्हें स्वीकार है न !' दिलीप ने हाथ जोड़कर कहा- "गुरुदेव ! आप जो कुछ कहेंगे, उसमें हमारा हित ही होगा।" इससे आगे की बात रानी सुलक्षणा ने पूरी की- 'देव ! आपकी प्रत्येक आज्ञा हमें शिरोधार्य होगी। हम तप करने के लिए राजी हैं।" वशिष्ठ ने राज दम्पति को आशीर्वाद देते हुए आश्रम की नन्दिनी गाय को बताकर कहा-“कल प्रातःकाल से आप दोनों को इस नन्दिनी गाय को चराने जाना होगा। इस गाय की सेवा का उत्तरदायित्व आप दोनों पर होगा।" "आपका आदेश शिरोधार्य है, गुरुदेव !" दोनों ने कहा । For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि और देव को समान मानो ३१३ प्रातःकाल नन्दिनी वन की ओर चली। राजा दिलीप गाय के पीछे-पीछे वीरवेश में सुसज्ज होकर चले । उनके पीछे पदत्राणरहित रानी सुलक्षणा; जो अतीव सुकुमारी थी, फिर भी पति के साथ नन्दिनी गाय को चराने लगी। नन्दिनी जब चलती तो दिलीप भी उसके पीछे पीछे चलते, वह बैठती तभी वे बैठते थे। नन्दिनी कभी अस्वस्थ दीखती तो दिलीप और सुलक्षणा दोनों रातभर जागकर उसका उपचार करते। उनके लिए जप-तप आदि नित्य-नियम एकमात्र नन्दिनी की सेवा थी । गुरुदेव की गाय की वे प्राण-प्रण से सेवा और सुरक्षा करते थे। ऋषि वशिष्ठ का इसमें अपना कोई स्वार्थ नहीं था; न ही दिलीप से सेवा लेकर किसी बड़प्पन की उन्हें आकांक्षा थी। इस बहाने वे दिलीप राजा के पापों का प्रक्षालन कराना चाहते थे। वही सब हो रहा था। शीत, ग्रीष्म, वर्षा, यों ऋतुएं बदलती गई, पर दिलीप की साधना में कोई अन्तर न पड़ा । शरद ऋतु गई, हेमन्त ने प्रवेश किया। दिलीप वनश्री की अपूर्व शोभा को निहारने में एकाग्र हो रहे थे, तभी नन्दिनी पर एक सिंह गर्जना करके झपटने वाला ही था कि दिलीप का ध्यान भंग हुआ। वे फुर्ती से सिंह के पास पहुंचे। दोनों ने समझाया कि आप हमारा शरीर भक्षण कर लें, पर इस नन्दिनी गाय को छोड़ दें। सिंह ने भी मनुष्यवाणी में दिलीप को बहुत समझाया। आखिर दिलीप की उत्कृष्ट गोभक्ति देख सिंह अदृश्य हो गया। ऋषि वशिष्ठ नन्दिनी को लेकर राजदम्पति को आते देख अतीव प्रसन्न हुए । उन्होंने आज की घटना अपने अन्तर्ध्यान से जान ली। दोनों से कहा-"तुम्हारी इस तपश्चर्या से पूर्वकृत अशुभकर्म क्षय हो चुके हैं। अब तुम अपने स्थान पर लौट जाओ।" इसके पश्चात् रानी सुलक्षणा गर्भवती हुई और उसने रघु को जन्म दिया। जिसके नाम पर 'रघुवंश' कहलाया। सच है, परोपकार-परायण ऋषि दूसरों की आत्म-शुद्धि के लिए इस प्रकार निःस्वार्थ प्रेरणा देते रहते थे। ऋषि : बोध-प्राप्ति के केन्द्र प्राचीनकाल में ऋषि समाज के तथा राजाओं के मार्गदर्शक होते थे । वे निःस्वार्थ भाव से जो उचित, न्याय्य व हितकर लगता, वह कह देते थे। उनकी वाणी के पीछे तप-त्याग का इतना बल होता था कि मार्गदर्शन लेने के लिए जो भी जाता, वह प्रभावित हो जाता है, और उनके वचन को शिरोधार्य किये बिना न रहता । उन्हें अर्थ (बात) सोचकर बोलना नहीं पड़ता था, किन्तु उनके मुख से जो शब्द निकलता था, उसके पीछे अर्थ दौड़कर आता था। इसीलिए कहा गया है लौकिकानां हि साधूनामर्थे वागनुवर्तते । ऋषीणां पुनराधानां वाचोऽर्थोऽनुधावति ॥ For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ . जब पूछा गया कि हम किस से बोध प्राप्त करें ? उसके लिए उपनिषद् में एक वाक्य आता है-"प्राप्य वरान् निबोधत ।" यानी 'वरों के पास पहुँचकर बोध प्राप्त करो। यहाँ ऋषि के लिए 'वर' शब्द का प्रयोग किया गया है । जो सब ओर से, सब प्रकार से सर्वागीण श्रेष्ठ है, उसे 'वर' कहते हैं। वर-वधू में भी इसी दृष्टि से 'वर' शब्द आता है । 'वधू' की दृष्टि से जगत् में सर्वश्रेष्ठ मानव उसका पति ही है । फिर भले ही वह कोई भी हो । यहाँ भी परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के लिए सर्वश्रेष्ठ (वर) पुरुष ऋषि हैं, जिनके पास पहुँचकर बोध प्राप्त करने का निर्देश किया गया है । ऋषि ऐसी शक्ति-बोधशक्ति भर देता है, जिससे मनुष्य में दौड़ने की शक्ति आ जाती है। - 'वर' (ऋषि) के पास श्रेष्ठ पुरुष होने के नाते कुछ आभूषण होने चाहिए । वे आभूषण कौन-कौन से है ? इसका हमें विचार कर लेना है। मुख्यतया सात आभूषणों से विभूषित पुरुष ही श्रेष्ठ (ऋषि) है (१) भगवत्स्पर्शी जीवन (२) ज्ञानपूर्ण मस्तिष्क, (३) वात्सल्यपूर्ण हृदय, (४) वृत्ति की महानता, (५) अन्तःकरण की उदारता, (६) जीवन की तेजस्विता और (५) हृदय की वैभवशीलता। - ऋषिवर का सर्वप्रथम आभूषण है-भगवत्स्पर्शी जीवन । उसके अंग-अंग में वीतराग प्रभु की वाणी का, उनके गुणों का, अनन्त चतुष्टय का स्पर्श हो। उसमें किसी प्रकार का व्यवधान न हो। भगवत्स्पर्श से जीवन में सभी आध्यात्मिक शक्तियां आ जाती हैं । चाहे वे अभी पूर्ण मात्रा में न हो; पर उनका स्पर्श तो हो ही जाता है। दूसरा आभूषण है-ज्ञानपूर्ण मस्तिष्क । श्रेष्ठ पुरुष (ऋषिवर) के पास पारदर्शी, सूक्ष्म और तीक्ष्ण बुद्धि होनी चाहिए। जो वस्तुत्तत्व की भीतरी तह तक पहुँच सके । वस्तु के दो रूप होते हैं। एक होता है-बाह्य रूप जिसे स्थूल दृष्टि वाले देखते हैं, एक होता है-अन्तरंग रूप, जिसे ज्ञानपूर्ण मस्तिष्क वाले ही देख सकते हैं । जो , किसी भी विषय को छानते-छानते उसके अन्त तक पहुँच जाता है, उसकी बुद्धि तीक्ष्ण होती है, क्योंकि वह विषय की गहराई तक जा पहुँचती है। किसी भी विषय की सभी पहलुओं से छानबीन कर लेना ऋषियों का स्वभाव होता है । तीसरा आभूषण है-भावपूर्ण हृदय । बुद्धि केवल सूक्ष्म और बाल की खाल निकालने वाले तर्क से युक्त होने पर मनुष्य में भावहीनता था जाती है, कर्कशता भी। इसलिए भावपूर्ण हृदय भी साथ में होना आवश्यक है। __ चौथा आभूषण है-वृत्ति की महानता। उसका आचरण भी उच्च, महान् एवं धर्म से बोतप्रोत होना चाहिए । इसलिए श्रेष्ठ पुरुष वृत्ति का महान होना चाहिए। उसमें स्वार्थ वृत्ति नहीं, सर्वार्थ वृत्ति हो, वह केवल स्वोद्धारक नहीं, विश्वोद्धारक होना चाहिए । मैं ही सुखी रहूँ, मैं ही नीरोग रहूँ, मेरा ही कल्याण हो, ऐसी संकीर्ण For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि और देव को समान मानो ३१५ वृत्ति न होकर 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः; सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्' इस प्रकार सर्वव्यापीवृत्ति हो । पाँचवाँ आभूषण है - अन्तःकरण की उदारता । श्रेष्ठ पुरुष अन्तःकरण का उदार होता है । वह स्वयं अच्छे-अच्छे कार्य करता है, पर उसका यश दूसरों को देता है । पुरुषार्थ स्वयं करता है, श्रेय सहकार्यकरों को देता है। ऋषि अपना सर्वस्व दूसरों को लुटा देता है । छठा आभूषण है— जीवन की तेजस्विता ! श्रेष्ठ (ऋषि) वर जीवन में सत्त्वहीन, निष्प्राण, निर्बल, आत्महीन, दब्बू, कायर, मायूस, निराश, निरुत्साह और सुस्त नहीं होते । वे निर्भय, निष्काम, उत्साही, आत्म- गौरवशील, सत्त्ववान् एवं वीर होते हैं। समाज को बदलने के लिए जब भी तप त्याग एवं प्रतिकार की शक्ति की जरूरत हो ऋषिवर कदापि पीछे नहीं हटते । वे वीर की तरह प्राण प्रतिष्ठा और परिग्रह की आहुति देने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते । सातवाँ आभूषण है— हृदय की वैभवशीलता । केवल मोटी या चौड़ी छाती वाला मनुष्य श्रेष्ठ नहीं होता, अपितु जिसके हृदय में मानव मात्र ही नहीं, प्राणिमात्र समा जाये, इतना विशाल वैभवशाली हृदय हो । जो किसी मानव को अपने हृदय में स्थान देने से घबड़ाता नहीं चाहे रूढ़ समाज उसका विरोधी ही क्यों न बन जाये । ये सात आभूषण या सात गुण 'वर-नर' (ऋषिवर) में होते हैं जिनसे वह सारे समाज, राष्ट्र एवं विश्व को बोध दे सकता है । विशेषावश्यकभाष्य के पंचम निवाधिकार में एक कथा आती है, जो इस विषय को पुष्ट करती है कि ऋषिवर बोध बेकर कैसे सन्मार्ग में स्थिर कर देते हैं । भगवान् महावीर के निर्वाण को २८ वर्ष बीत चुके थे। तभी पाँचवाँ निह्नव हुआ। वह कैसे निह्न हुआ, इसकी रोचक कथा है— उल्लुक देश की उल्लुका नदी के किनारे उल्लुकनगर था । वहाँ नदी के दूसरे तट पर महागिरि आचार्य के शिष्य धनगुप्त आचार्य रहते और नदी के पूर्वतट पर उनके शिष्य आर्य गंग नामक आचार्य थे । वे एक बार शरत् काल में अपने गुरु (आचार्य) को वन्दन करने हेतु गंगा नदी पार कर रहे थे; उस समय उनका केश रहित सिर सूर्य का प्रखर ताप पड़ने से प लगा, तथा पैरों में नदी के पानी की शीतलता का स्पर्श होने लगा । मिथ्यात्व के उदय से आयं गंग ऐसा दुश्चिन्तन करने लगे- 'जैन सिद्धान्तों में तो एक समय में दो क्रियाओं के अनुभव होने का निषेध है, जबकि में इस समय प्रत्यक्ष एक समय में उष्णता और शीतता (गर्मी और ठंड ) इन दोनों का अनुभव कर रहा हूँ । अतः आगम में प्ररूपित सिद्धान्त अनुभव से विरुद्ध होने से ठीक नहीं है ।' आर्य गंग ने अपनी बात गुरु के समक्ष रखी। गुरु ने कहा – तुम जिन दोनों क्रियाओं का अनुभव एक समय में होने की बात कहते हो, वे युगपत् ( एक समय में) नहीं For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ होते, अपितु क्रमशः होते हैं। क्योंकि आवलिका का काल ही अत्यन्त सूक्ष्म है, बुद्धि अतीव चपल है । जब मन इन्द्रियसंयुक्त होता है, तभी वह ज्ञान का हेतु होता है। पैर और मस्तक ये दोनों दूर-दूर अवयव हैं, उनका उपयोग एक काल में कैसे हो सकता है ? समस्त असंख्यात प्रदेशों में एक वस्तु का उपयोग हुआ, फिर दूसरी वस्तु का उपयोग होने में जीव का कौन-सा अंश बाकी रहा, जिससे दूसरा उपयोग हो ? अतः काल अति सूक्ष्म है, इस कारण क्रमशः उपयोग हुआ है, किन्तु तुम छदमस्थता के कारण समझते हो कि समकाल में (युगपत्) मैंने दो क्रियाओं का अनुभव किया। एक युवक कमल के एक पर एक रखे हुए सौ पत्तों को बींधता है, वह यों समझता है कि मैंने एक ही काल में सभी पत्त बींध डाले । मगर एक पत्ता बींधे बिना उसके नीचे का दूसरा पत्ता नहीं बिंधता । इसलिए प्रथम पत्त के बींधने का काल अलग है, दूसरे को बींधने का काल अलग । इस प्रकार क्रमशः तीसरे आदि पत्तों के बींधने का काल पृथक-पृथक है, उसी प्रकार उपयोग भी क्रमशः होता है, युगपत् नहीं। एक व्यक्ति पापड़ खा रहा है। उस समय वह आँख से पापड़ का रूप देखता है, नाक से उसकी गन्ध भी लेता है, जीभ से स्वाद भी चखता है, पापड़ हाथ में है, इसलिए स्पर्शेन्द्रिय द्वारा स्पर्शज्ञान भी होता है, पापड़ खाते समय खड़खड़ शब्द भी होता है, उसे कान सुनता भी है। इन पांचों इन्द्रिय-विषयों का ज्ञान क्रमशः होता है, मगर काल की सूक्ष्मता के कारण तथा मन के शीघ्रचारी होने से व्यक्ति को ऐसा प्रतिभास होता है कि मैं पाँचों का अनुभव समकाल में करता हूँ। इसी प्रकार तुम अपनी दोनों क्रियाओं के अनुभव के विषय में भी समझ लो। इस पर आर्य गंग कुतर्क करने लगे, अपना कदाग्रह नहीं छोड़ा। अतः आचार्य ने उन्हें गच्छ-बहिष्कृत कर दिया। संघ बहिष्कृत आर्य गंग विहार करते हुए राजगृह पहुँचे, वहाँ मणिनाग नामक नाग के चैत्य के निकट ठहरे । वहाँ धर्मसभा जमी । आर्य गंग ने देशना दी, उस समय जब वे एक समय में दो क्रियाओं का उपयोग होने की प्ररूपणा करने लगे तब मणिनाग ने कुपित होकर कहा-"अरे दुष्ट शिष्य ! तुम यह खोटी प्ररूपणा क्यों कर रहे हो ? मैंने स्वयं भगवान् महावीर के मुख से समवसरण में एक समय में एक क्रिया के अनुभव की प्ररूपणा सुनी थी। तुम क्या सर्वज्ञ प्रभु से भी बढ़कर ज्ञानी हो गये हो कि उलटी प्ररूपणा करते हो ? अतः हठवाद छोड़ दो। अन्यथा, मैं यहीं तुम्हारी सब प्रतिष्ठा नष्ट-भ्रष्ट कर दूंगा।" मणिनाग देव के वचन सुनकर पूर्वोक्त युक्तियों पर पुनः चिन्तन करके आर्य गंग पुन: असली राह पर आ गये। प्रतिबोध पाया । अपनी गलती के लिए “मिच्छामि दुक्कडं" दिया। गुरु के पास जाकर आलोचन-प्रतिक्रमण करके शुद्ध हुए और पुनः सिद्धान्त में स्थिर हुए। ऋषि और देव में तुल्यता के कारण बन्धुओ ! जिस प्रकार देव भूले-भटके व्यक्ति को प्रतिबोध देकर स्थिर करते हैं, वैसे ही ऋषि भी भूले-भटके को प्रतिबोध देकर पुनः सन्मार्ग में स्थिर कर देते हैं। For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि और देव को समान मानो ३१७ ..... ... ... ऋषि को देवतुल्य कहने का एक विशेष कारण यह है कि ऋषियों में भगवद् गीता के १६वें अध्याय में कहे गये देवीसम्पदा के गुण होते हैं। जिनमें देवीसम्पदा के दिव्यगुण होते हैं, उन्हें देव कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है। भगवद्गीता में वर्णित देवीसम्पदा के कुछ गुणों का मैं यहाँ उल्लेख करूंगा, उस पर से आप स्वतः समझ जायेंगे कि ऋषियों और देवों को एक समान सम्मान्य क्यों माना गया ? गीता में कहा गया है अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः । दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ मार्दवं ह्रीरचापलम्....... पार्थ ! सम्पदं देवीमभिजातस्य भारत ! -जिसमें अभय हो, चित्त (सत्त्व) की शुद्धि हो, ज्ञान योग व्यवस्थित हो, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, मृदुता, लज्जा, अचपलता आदि गुण हों, वह व्यक्ति देवी सम्पदा का अधिकारी होता है। ___ मैं इन देवीसम्पदा गुणों की व्याख्या की गहराई में अभी नहीं जाना चाहता। ऋषियों में देवीसम्पदा के ये गण कूट-कूटकर भरे होते हैं, इस दृष्टि से उन्हें देवतुल्य कहना कोई अनुचित नहीं है । __ जैसे लोक-व्यवहार में ब्राह्मण को 'भूदेव' कहा जाता है, वैसे ही शास्त्रों से ऋषि-मुनियों को 'धर्मदेव' कहा गया है । ऋषि धर्म के देव तो हैं ही। उनका सारा जीवन धर्म में रमण के कारण दिव्य होता है। बन्धुओ ! इन्हीं सब कारणों को लेकर महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में ठीक ही कहा है रिसी य देवा य सम विभत्ता आप भी ऋषियों के देवतुल्य दिव्य जीवन से लाभ उठाइये, उनकी सेवा में पहुँचकर उनसे अपने जीवन की अटपटी समस्यायें सुलझाइये, उनसे धर्म-बोध प्राप्त कीजिए। For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. मूर्ख और तिर्यंच को समान मानो धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं एक निकृष्ट जीवन की चर्चा करना चाहता हूँ, जिसे मूर्ख-जीवन कहा जाता है। मूर्ख-जीवन को महर्षि गौतम ने तिर्यञ्च के समान बताया है। मूर्ख-जीवन इतना अधिक परवश, बन्धनग्रस्त, पाशविक, जड़ता से युक्त एवं अविकसित होता है कि वह पशु-पक्षी को भी मात कर देता है । इसीलिए महर्षि गौतम को कहना पड़ा मुक्खा तिरिक्खा य समं विभत्ता -मूर्ख और तिर्यञ्च (पशु-पक्षी) समान कहलाते हैं । गौतमकुलक का यह ६५वाँ जीवनसूत्र है। मूर्ख को तिर्यञ्च के समान क्यों बताया गया है ? मूर्ख मनुष्य होते हुए भी तियंच-सा क्यों बन जाता है ? तिर्यञ्च का स्वभाव मूर्ख में कैसे प्रतिबिम्बित हो जाता है ? इन सब पहलुओं पर हम आज गहराई से चिन्तन करेंगे। मूर्ख : लक्षण और पहचान वैसे देखा जाये तो मनुष्य का लक्षण मनन करके कार्य करने वाला है, इसलिए मनुष्य का मूर्ख होना मनुष्य के लक्षण के विपरीत है, तथापि कई मनुष्य ऐसे भी होते हैं, जिनकी बुद्धि या तो विकसित नहीं हुई है, या उन्होंने अपने बुद्धि-वैभव को बढ़ाने का प्रयत्न नहीं किया। इस कारण वे मनन-चिन्तन से कोसों दूर रहते हैं, वे अपनी बुद्धि से काम नहीं लेना जानते या नहीं लेना चाहते, साथ ही वे दूसरे बुद्धिमान् लोगों से भी कोई सलाह मशविरा नहीं करना चाहते, वे ही मूर्ख कहलाते हैं । आशय यह है कि मूर्ख मानव किसी भी कार्य-अकार्य का विवेक नहीं करता । संस्कृत के एक विद्वान् ने मूर्ख की चुटकी लेते हुए उसके ८ लक्षण बताये हैं मूर्खत्वं सुलभं भजस्व कुमते ! मूर्खस्य चाष्टौ गुणाः, निश्चिन्तो बहुभोजकोऽतिमुखरो राविन्दिवं स्वप्नभाक् । कार्याकार्यविचारणाविरहितो मानापमाने समः, प्रायेणाऽमयवर्जितो दृढवपुमूर्खः सुखं जीवति ॥ अर्थात्-हे कुबुद्धि ! मूर्खता सुलभ है, उसे अपना लो । मूर्ख के ८ गुण या लक्षण हैं, जिनसे वह सुख से जीता है For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ख और तियंच को समान मानो ३१६ (१) मूर्ख को किसी प्रकार की चिन्ता नहीं होती, (२) वह मात्रा का विचार किये बिना अत्यधिक भोजन करता है । (३) अत्यन्त वाचाल, (४) रात-दिन आलस्यवश सोया रहने वाला, (५) कार्य-अकार्य के विवेक से रहित, (६) जिस पर सम्मान और अपमान का कोई असर नहीं होता, (७) प्रायः नीरोग और (८) हट्टा-कटा। मूर्ख को पहचानने के लिए नीतिकार ने पांच चिह्न बताये हैं मूर्खस्य पंचचिह्नानि गर्वी दुर्वचनी तथा । हठी चाप्रियवादी च परोक्तं नैव मन्यते ॥ मूर्ख के पांच चिह्न हैं—(१) घमंडी, (२) दुर्वचनी (कटुभाषी) (३) हठाग्रही (४) अप्रियवादी और (५) किसी हितैषी की बात न मानने वाला। ___ मूर्ख के और भी लक्षण विभिन्न विचारकों ने बताये हैं । एक दोहे में एक विचारक ने मूर्ख की निशानी बता दी है मूरख माथे सींगड़ा, नहीं निशानी होय । सार-असार विचार नहीं, जन ते मूरख होय ॥ भावार्थ स्पष्ट है । जो व्यक्ति सार-असार का, कार्य-अकार्य का, हित-अहित का, भले-बुरे का, धर्म-अधर्म का कोई विचार नहीं करता, वह मूर्ख कहलाता है । मैं गान्धार नरेश मग्गति प्रत्येकबुद्ध की कथा के अन्तर्गत आये हुए एक दृष्टान्त के द्वारा इस बात को स्पष्ट कर दूं तो अच्छा रहेगा जितशत्रु राजा को चित्रकला का बहुत शौक था। राजा ने इसके लिए एक अद्वितीय चित्रशाला बनवाने का विचार किया । उसने दूर-सुदूर देशों से अनेक नामी चित्रकारों को बुलाया, उनमें एक बूढ़ा चित्रकार भी था। शरीर उसका जरा-जीर्ण हो गया था, हाथ भी थर-थर काँपते थे, लेकिन उसकी कला में जादू-सा चमत्कार था। रंग और कूची लेकर जब वह चित्र बनाने बैठता तो अपनी पैनी सूझबूझ से बहुत ही सुन्दर एवं आकर्षक चित्र बनाता था। राजा ने प्रत्येक चित्रकार को चित्रशाला में अपना-अपना मनपसन्द चित्र बनाने के लिए बराबर-बराबर स्थान सौंप दिया। ___ इस बूढ़े चित्रकार की एक सुन्दर नवयौवना कन्या थी-'कनकमंजरी' । वह अपने पिता के लिए घर से चित्रशाला में भोजन लाया करती थी। एक बार वह कन्या घर से भोजन लेकर निकली थी कि रास्ते में एक घुड़सवार बहुत तेजी से घोड़ा For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० आनन्द प्रवचन : भाग ११ दौड़ाता हुआ उधर से गुजरा । घोड़े को तेज दौड़ता देख बच्चे और स्त्रियाँ भयभीत होकर मार्ग से हटकर एक ओर हो गये। कनकमंजरी भी डरकर एक ओर किसी दीवार से सटकर खड़ी हो गई। घुड़सवार की इस लापरवाही पर कनकमंजरी को मन ही मन बहुत रोष आया, पर वह कर क्या सकती थी? भोजन लेकर जब वह पिता के पास पहुँची । पिता ने अपना काम बन्द करके कूची एक ओर रखी और कहा-"बेटी ! मैं जरा शरीर-चिन्ता से निवृत्त होकर आता हूँ, उतने तू इस चित्र को बारीकी से देख ।" पिता की इस अदूरदर्शिता पर कनकमंजरी मन ही मन बहुत झं झलाई, पर चुप रही। चित्रकार लोटा लेकर बाहर गया कि पीछे से कनकमंजरी ने उसी भींत पर तूलिका से 'मयूरपिच्छ' का चित्र बनाया। रंगों की मोहकता और कला की चतुरता ने मयूरपिच्छ में मानो जान डाल दी। दूर से वह मयूरपिच्छ ऐसा लगने लगा, मानो वह हूबहू मयूरपिच्छ हो। उधर से चित्रशाला का निरीक्षण करता-करता राजा भी कक्ष में आ पहुँचा, जहाँ मयूरपिच्छ चित्रित था। राजा ने दूर से ही मयूरपिच्छ को देखा तो ऐसा लगा कि सचमुच मोर की पांख ही रखी हो । राजा ने उसे उठाने के लिए ज्यों ही हाथ बढ़ाया, त्यों ही राजा का हाथ भींत से टकराकर रह गया, राजा को अपने दृष्टिभ्रम पर बहुत लज्जा आई । राजा के इस अज्ञानपूर्ण आचरण पर कनकमंजरी जोर से हंस पड़ी-“मेरी खाट के चारों पाये पूरे हो गये।" कनकमंजरी के उपहास पर राजा मन ही मन अपमानित-सा लज्जित-सा महसूस करने लगा। साथ ही 'खाट के चारों पाये पूरे हो गये' इस वाक्य से वह अत्यधिक विस्मित भी हो रहा था। राजा ने उससे पूछा-“भद्र ! क्या मैं पूछ सकता हूँ कि तुम्हारी खाट के चार पाये कौन-कौन से हैं और कैसे पूरे हो गये ?" कन्या मुक्त हास्य बिखेरती हुई बोली-"हाँ, हाँ, आपने जब पूछ ही लिया तो मैं भी बताये देती हूँ कि मेरी खाट के चार पाये कौन-कौन-से हैं ? सुनिये महाराज ! मैंने इस संसार में चार विचित्र मूर्ख देखे हैं, वे ही मेरी खाट के चार पाये हैं।" राजा ने पूछा-"कौन-कौन-से ?" कनकमंजरी-“पहला मूर्ख यहां का राजा है, जिसने युवा और वृद्ध चित्रकार की क्षमता को जाने बिना ही सबको एक जितनी भूमि चित्र बनाने के लिए दी है। यह तो सब जानते हैं कि युवा शरीर में जो स्फूर्ति होती है, वह वृद्ध एवं जीर्ण शरीर में कैसे हो सकती है ? युवक अधिक देर तक काम कर सकता है, जबकि वृद्ध थोड़ी देर तक काम करके ही थक जाता है । फिर भी राजा वृद्ध और युवक की स्थिति का विवेक किये बिना दोनों को एक समान भूमि पर चित्र बनाने का समान ही पारिश्रमिक देता है। इसलिए पहला मूर्ख राजा है, जो मेरी खाट का पहला पाया हो गया।" For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ख और तियंच को समान मानो ३२१ राजा यह सुनकर अपमान के मारे जमीन में धंसता जा रहा था। उसने कन्या की ओर देखकर पूछा-"अच्छा बतलाओ, दूसरा मूर्ख कौन-सा है जो तुम्हारी खाट का दूसरा पाया है ?” कनकमंजरी-“राजन् ! वह है घुड़सवार जो राजमार्ग पर बहुत तेजी से घोड़ा दौड़ाता है । राजमार्ग पर बालक, स्त्री, वृद्ध सभी चलते हैं, वहाँ तो घोड़ा धीमी चाल से चलाना चाहिए । तीव्र गति से दौड़ाने पर कोई भी उस घोड़े की चपेट में आ सकता है ? पर उस लापरवाह घुड़सवार में इतनी बुद्धि कहाँ ? अत: दूसरा मूर्ख वह घुड़सवार है।" राजा ने फिर पूछा-“अच्छा यह बताओ, तीसरा मूर्ख कौन है ?" कनकमंजरी-“राजन् ! तीसरा मूर्ख मेरा पिता है। वह ऐसे है कि मैं उसके लिए गर्म-गर्म भोजन लेकर आती हूँ, तो वह मेरे आने के बाद शौच के लिए जाता है । इतनी देर में भोजन ठंडा हो जाता है। उसमें इतनी बुद्धि नहीं कि भोजन के समय से पूर्व ही शौचादि से निपटकर तैयार रहना चाहिए, ताकि बुढ़ापे में गर्म और ताजा भोजन किया जा सके । इसलिए वह भी मूर्खता का कार्य है और क्या ? राजा ने पूछा-"और चौथा मूर्ख कौन है, तुम्हारी दृष्टि में ?" कनकमंजरी ने सीधे और स्पष्ट शब्दों में बेधड़क कह दिया-"चौथे मूर्ख हो तुम, जो यहाँ आते ही भीत पर मयूरपिच्छ (चित्रित) देखकर उसे लेने को झपट पड़े। यह नहीं सोचा कि भला, दीवार में मोर कैसे बैठ सकता है ? उतावली में हाथ मार कर व्यर्थ ही अपना नाखून तोड़ लिया । क्या यह मूर्खता नहीं है ?" राजा कन्या की बुद्धिमत्ता और वचन-चातुरी देखकर आश्चर्यचकित हो गया। उसने कनकमंजरी की बुद्धिमत्ता से प्रभावित होकर उसके साथ पाणिग्रहण कर लिया। कहानी आगे चलती है, परन्तु आगे की बातों से यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है। यहाँ तो 'मूर्ख' के लक्षण की बात चल रही है। इन चारों में दूरदर्शिता और सूक्ष्मबुद्धि नहीं थी, चारों हित-अहित, कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक नहीं कर पाये थे । मूर्ख : वाणी में अविवेकी मूर्ख की सबसे अच्छी पहचान है-वाणी की। वह जब वचन बोलता है, तभी पता लग जाता है कि उसका वचन मूर्खतापूर्ण हैं या सुविचारपूर्ण ? कई मूरों की आदत होती है कि वे बहुत बकवास करते रहते हैं। अपने आपको बुद्धिमान सिद्ध करने के लिए वे किसी के न पूछने पर भी बोलते ही रहते हैं। एक बार उन्हें छेड़ लो, फिर उनके वचनों की गाड़ी ऐसी तेजी से छूटेगी कि बीच में रोकने पर भी नहीं रुकेगी। कोई व्यक्ति उनकी बातों से ऊबकर उन्हें रोकना चाहेगा तो वे उससे ही लड़ पड़ेगे और अंटसंट बकते रहेंगे । अत्यधिक और अप्रासंगिक बोलना मूखता का चिह्न है । For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ किसी-किसी मूर्ख में एक विशेषता होती है कि वह बिना अवसर अच्छा वक्ता बन जाता है, किन्तु मौके पर मौन धारण कर लेता है। अपना पाण्डित्य बताने के लिए मूर्ख वाचालता का सहारा लेता है । तिलोक काव्य संग्रह में मूर्ख के इस चिह्न का विश्लेषण करते हुए कहा हैलीक-सी जीभ को निकाले अविवेकी नर, मूरख को मुख जैसे बिंबिका सो कहिये। निकसत वचन करूर विकराल व्याल, सुणत श्रवण वेण तन-वन दहिये ।। बिना ही विचारे बात बोलत है टोल' सम, भावे सो ही होय फिर फिकर न लहिये । कहत 'तिलोक' ऐसे मूढ़ के वचन जहर, औषधी है मौनरूप चुपचाप रहिये । भावार्थ स्पष्ट है। एक पण्डितजी थे। वे पढ़े तो थे, पर गुने नहीं थे। किस के आगे क्या कहा जाये ? किसको क्या सुनाया जाये ? इस बात का विवेक उनमें जरा भी नहीं था। एक बार वे एक गाँव में जा पहुँचे और गड़रियों के सामने वे सामवेद बहुत उच्चस्वर से पढ़ने लगे। गड़रिये बेचारे सामवेद में क्या जाने ? गडरियों ने समझा इस आगन्तुक के मुंह में कोई रोग हो गया है जिसके कारण यह जोर-जोर से चिल्लाता है । अनपढ़ गड़रियों ने उन्हें रोगी समझकर उनके शरीर पर पशु की तरह डाम लगा दिये । अब पण्डित जी चुप हो गये और पोथी-पत्रा समेटकर चुपचाप उस गाँव से नौ-दो-ग्यारह हो गये। __ कहीं-कहीं किसी सज्जन को ऐसे मूर्ख से पाला पड़ जाता है, जो जानताबूझता कुछ नहीं है लेकिन अपनी डींग बहुत ज्यादा हाँकता है। ऐसे समय में मूों से पिण्ड छुड़ाने के लिए मौन के सिवाय कोई इलाज नहीं है। एक बार अकबर बादशाह ने बीरबल से कहा- "बीरबल ! तुम बड़े चतुर और बुद्धिमान हो, तुम्हारे पिता तो न जाने कितने अक्लमंद और होशियार होंगे। मैंने कभी उनसे बातचीत नहीं की। कल उन्हें दरबार में साथ लेकर आना, मैं उनसे कुछ बातें करना चाहता हूँ।" विचक्षण बीरबल भाँप गया कि बादशाह का क्या मकसद है ? अतः उसने कहा-"हजूर ! वे बहुत ही बूढ़े हैं, उनको यहाँ आने में बहुत दिक्कत होगी। उनसे जो बात करनी है वह कृपा करके मेरे से कर लीजिए।" बादशाह-"नहीं बीरबल ! कल तो उनसे जरूर मिलाओ। मेरी दिली ख्वाहिश है कि उनसे कुछ अनुभव की बातें पूछु ।” For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ख और तियंच को समान मानो ३२३ बीरबल ने बहुत टालने की कोशिश की, लेकिन बादशाह न माना । अतः बीरबल ने कहा-"अच्छा, मैं उन्हें लेकर कल आऊंगा।" बीरबल ने घर आकर अपने पिताजी को बादशाह का आदेश सुनाया। कहा"कल आपको दरबार में चलना है। वहाँ आपको कुछ नहीं करना है । आप तो सिर्फ मेरे आसन पर बैठ जायें। बादशाह कुछ भी पूछे, आपको उसका जवाब बिलकुल नहीं देना है । फिर जो कुछ होगा, उसे मैं संभाल लूंगा।" दूसरे दिन बीरबल अपने पिता को अच्छे वस्त्र पहनाकर दरबार में ले आया। जिस आसन पर बीरबल स्वयं बैठता था, उस पर उन्हें बिठा दिया और स्वयं पास में खड़ा रहा। __ बादशाह बीरबल के पिता को देखकर पूछने लगा-“बूढे ! आज ही दरबार में आये हो ?" पिता चुप रहा, कुछ भी न बोला। "कितनी उम्र है तुम्हारी ?" फिर भी बीरबल का पिता चुप रहा। बादशाह-'ओ बूढ़े ! मैंने तुम्हें आज जीवन के अनुभव सुनने के लिए बुलाया था । पर तुम कैसे अजीब आदमी हो कि बिलकुल चुप हो गये हो।" फिर भी बीरबल का पिता मौन रहा । अन्त में बादशाह ने हैरान होकर बीरबल से पूछा- "अगर किसी मूर्ख से पाला पड़ जाये तो क्या करना चाहिए ?" तुरन्त बीरबल ने कहा-“जहाँपनाह ! चुप रहना चाहिए।" बादशाह ने मन ही मन समझ लिया कि मुझे बेवकूफ सिद्ध करने के लिए बीरबल ने अपने पिता को चुप रखा है । बादशाह स्वतः मूर्ख सिद्ध हो गया। इसी प्रकार मूर्ख के साथ कभी वास्ता पड़ जाये तो बुद्धिमान् सज्जन को मौन रखना ही श्रेयस्कर है। मूर्ख : हठाग्रही और जिद्दी कई मूर्ख हठाग्रही और जिद्दी होते हैं । वे इतने हठाग्रही होते हैं, जिस बात को एक बार पकड़ लेते हैं, दूसरे हितैषी लोग उन्हें चाहे जितना समझायें, वे छोड़ने को तैयार नहीं होते । मूर्ख की हठाग्रही और जिद्दी प्रकृति के कारण मूर्खता के चार चिह्न अहंकारवश उसमें व्यक्त होने लगते हैं—(१) वह अपने से बड़े या बलिष्ठ के साथ भिड़ जाता है, (२) जिसने कुछ भी काम नहीं किया, उस पर भरोसा कर लेता है, (३) नादानों के साथ अतिपरिचय करने लगता है, (४) स्त्रियों के छल-प्रपंच से गाफिल रहता है। एक रोचक उदाहरण मुझे याद आ रहा है एक राजा था। वह बड़ा अहंकारी और जिद्दी था । वह जिस बात को मन में विचार लेता, उसे किये बिना नहीं छोड़ता, चाहे वह बात सम्भव हो या असम्भव ! For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ यदि कोई नौकर उस कार्य के लिए इन्कार करता या उस कार्य का होना असंभव बताता तो वह उसे डांटता-फटकारता, मारता-पीटता भी। उसकी इस प्रकृति के कारण उसके पास रहने वाले जितने भी नौकर थे, वे जी हाँ कहते रहते थे और राजा की बात में हाँ में हां मिलाकर उसे चढ़ाते रहते थे । वे सदैव राजा की ठकुरसुहाती करते थे । राजा को भी अपनी प्रशंसा बहुत ही सुहाती । वह कहता'दिन है' तो भले ही अंधेरी रात हो 'जीहजूरिये' उसकी हाँ में हाँ मिलाकर कहते-"जी हाँ, सच्ची बात है, कितना उजाला है, दिन के बारह बजे का सूर्य चमक रहा है।" जब राजा चिल्लाकर कहता है-"अरे मूर्यो ! यह तो रात है रात ।" तब वे कहने लगते-“हजूर की बात सोलहो आने सच है।" एक दिन वह राजा समुद्रतट पर सर करने निकला । साथ में कुछ जीहजूरिये थे ही । समुद्र में ज्वार आ रहा था, समुद्र की उत्ताल तरंगें जोर-जोर से उछल रही थीं। राजा ने वहीं अपनी कुर्सी रखवाई और उस पर बैठकर कहने लगा-"अरे, बतलाओ, मेरा राज्य कहाँ नहीं है ?" वे कहने लगे-“सर्वत्र है महाराज !" राजा-"यह समुद्र भी मेरी आज्ञा मानता है न ?" जीहजूरिये-'हाँ, हजूर, मानेगा क्यों नहीं ?" राजा ने आगे बढ़ते हुए समुद्र के ज्वार को लक्ष्य करके कहा-"अरे ओ मूर्ख ! तुझे पता नहीं है, यहाँ मैं तेरा राजा जीवित बैठा है। अतः पीछे हट, पीछे !" परन्तु समुद्र किसकी मानता है ? उस पर किसी का शासन चला है ? मूर्ख राजा ने फिर गुस्से में आकर कहा-"अरे ! पीछे हटता है या नहीं ? मेरा हुक्म है। कि तू झटपट पीछे हट जा ।" । परन्तु समुद्र में ज्वार आगे से आगे बढ़ता आ रहा था, इधर मूर्ख राजा का गुस्सा भी बढ़ता जा रहा था। गुस्से में आकर उसने तलवार निकाली और दरबारी लोग रोकें उससे पहले ही 'अब तो तुझे एक ही झटके में मारकर गिरा दूंगा' यो जोर से चिल्लाता हुआ पानी में आगे बढ़ा। राजा को भान ही न रहा कि वह कहाँ जा रहा है ? थोड़ा-सा आगे बढ़ते ही बहत गहरा पानी था, मूर्ख राजा को उछलती तरंगों ने अपने में समा लिया। इस प्रकार मूर्ख राजा ने अपनी शक्ति जाने बगैर अपनी हठ के कारण प्राण गंवाये। . इसी प्रकार जो लोग जिद्दी और हठाग्रही होते हैं, वे अपनी हैसियत जाने-पहचाने बगैर अंधी दौड़ लगाते हैं, हर एक काम में वे इसी प्रकार करते हैं, चाहे कोई सामाजिक रीति-रिवाज हो, चाहे आर्थिक व्यय-सम्बन्धी कार्य हो, चाहे राजनैतिक हो । चुनाव के दिनों में खड़े होने वाले मौसमी नेताओं को देखकर आप अनुमान लगा सकेंगे कि वे अपनी क्षमता और शक्ति को तौले-नापे बिना ही कितने उछल रहे हैं । झूठी जिद्द के कारण मूर्ख में ये अवगुण सहज ही आ जाते हैं For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ख और तिर्वच को समान मानो १२५ (१) नीच कार्य करके प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा रखता है। (२) शत्रु के साथ मित्रता करता है, मित्रों के साथ द्वेष । (३) स्वयं करने योग्य कार्य नौकरों से कराता है। (४) शीघ्र करने योग्य कार्यों में बहुत विलम्ब करता है। (५) कोई न पूछे तो भी अपने आप बड़बड़ाता रहता है । (६) मेहनत किये बिना ही अलभ्य वस्तु पाना चाहता है। (७) दण्ड देने योग्य न हो, उसे दण्ड देता है। (८) अकारण ही दूसरों के घर जा बैठता है। (९) जिससे याचना करना योग्य नहीं, उससे याचना करता है । (१०) स्वयं निबल होते हुए भी बलबान के साथ वैर बांध लेता है। (११) अल्प धर्मलाभ से ही जो थककर बैठ जाता है। (१२) स्वयं सम्पन्न होने पर भी दूसरों को आश्रय नहीं देता है। (१३) प्रशंसा से फूलकर कर्ज करके भी खर्च करता है। ये सब दुर्गुण मूरों की दुराग्रही वृत्ति एवं अहंकार के कारण आते हैं । ___मूर्ख को पकड़ : बहुत गहरी इसी दुराग्रही वृत्ति के कारण मूर्ख की पकड़ बहुत गहरी होती है । वह या तो किसी बात को ग्रहण ही नहीं करता या फिर अगर वह किसी बात को पकड़ लेता है, तो जल्दी छोड़ता नहीं। अपनी मूर्खता के कारण वह जगह-जगह बार-बार हंसी का पात्र भी बनता है, नुकसान भी उठाता है, परन्तु प्रायः वह अपनी मूर्खता को मूर्खता समझता ही नहीं। वास्तव में वह व्यक्ति उतने अंश में मूर्ख नहीं है, जो अपनी मूर्खता को जानता है; वास्तविक मूर्ख तो वह है, जो मूर्ख होते हुए भी अपने आपको पण्डित समझता है। मूर्ख व्यक्ति किस प्रकार अपनी मूर्खता को न समझकर एक ही बात को पकड़कर हंसी का पात्र बनता है, इसके लिए एक रोचक उदाहरण लीजिए एक कृषक-पुत्र को किसी कार्यवश दूसरे गांव जाना था। अकस्मात् ही यह अवसर आया था। उसे गाँव में अपना कार्य निपटाकर शाम को वापस लौटना था। अतः उसे सुबह होने से पहले ही घर से रवाना होना था। उसकी मां ने तब तक रोटी नहीं बनाई थी। भाता ले जाने के योग्य कोई वस्तु बनी हुई थी नहीं। उसके अकेले जाने का यह पहला ही मौका था । माँ ने उसे कुछ शिक्षा दी और कहा-"बेटा ! घर में अभी कोई खाने की चीज बनी हुई नहीं है, जो तुझे भाते में दे दूं। ले, यह ढब्बु पैसा (दो पैसे का टका) ले जा, भूख लगे तो इससे कुछ खरीदकर खा लेना । मुफ्त में मांगकर कहीं कुछ मत खाना।" लड़के ने माता की सीख गांठ बाँध ली और घर से चल पड़ा। उसे जिस गाँव में जाना था, वहाँ पहुँच गया और काम निपटाकर वहाँ से घर For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ की ओर लौट पड़ा। रास्ते में चलते-चलते धूप चढ़ गई । यद्यपि वह तेजी से चल रहा था, परन्तु उसका गाँव अभी काफी दूर था । फिर भयंकर गर्मी की मौसम तथा भूखप्यास सता रही थी। रास्ते में एक गाँव आया, तो उसने सोचा-यहाँ से कुछ खरीद कर खा-पी लूँ फिर आगे बढूं।" ___ कृषक-पुत्र की शादी बहुत छोटी उम्र में हो गई थी। शादी के बाद वह कभी ससुराल में आया नहीं था । उसकी पत्नी अभी तक अपने मैके ही थी। यह गाँव उसकी ससुराल का गाँव था। लेकिन उसे पता नहीं था कि यहीं मेरी ससुराल है । वह खाने की वस्तु खरीदने के इधर-उधर घूमा पर कहीं कोई दूकान न होने से भोजन न मिल सका । आखिर लोगों से पूछता-पूछता अनायास ही अपनी ससुराल के आँगन में जा खड़ा हुआ। उसके बड़े साले ने उसे पहचान लिया। कृषक-पुत्र ने उससे पूछा''क्या यहाँ कुछ खाने की वस्तु मिल सकेगी ?" साले ने उसके चेहरे से उसकी परेशानी भाँप ली। शान्ति से उत्तर दिया-हाँ, आइये, यहाँ भोजन की व्यवस्था हो जायेगी।" ___ साले ने बहनोई को आदरपूर्वक उचित स्थान पर बिठाया। लोटा भर कर पानी लाया। हाथ-मुह धुलाये । फिर पीने के लिये पानी और गुड़ की डली ले आया। कृषक-पुत्र ने गुड़ की डली मुंह में डालकर पानी पिया। कुछ शान्ति हुई तो विचार दौड़ने लगे-शायद ये मुझे बड़ा ग्राहक समझकर विशिष्ट भोजन तैयार करें। मेरे पास तो सिर्फ ढब्बु पैसा है । अतः उसने स्पष्टीकरण करना उचित समझकर कहा"देखिये साहब ! मेरे पास ढब्बु पैसे से अधिक देने को कुछ भी नहीं है। आप उसके अनुसार ही भोजन तैयार करवाइयेगा।" साले ने उसकी अज्ञता का मजा लेते हुए कहा-"हाँ साहब ! उसके अनुसार ही तैयारी होगी, घबराइये मत ।" दामाद आखिर दामाद ही होता है । वह जब अपने यहाँ भले ही भूल से आये तो भी उसके अनुसार स्वागत-सत्कार होना चाहिये । अतः साले ने घर में सबको इस बात की सूचना कर दी कि विशिष्ट भोजन तैयार किया जाये। विशिष्ट भोजन तैयार करने में देर तो लगती ही है । कृषक-पुत्र को मीठीमीठी महक आ रही थी। इसलिये कुछ शंका हुई कि कुछ विशिष्ट भोजन तैयार हो रहा है । अतः उसने फिर चेतावनी देते हुए कहा- "देखिये साहब ! सोच-समझकर भोजन तैयार करवाएं । मेरे पास ढब्बु पैसे से अधिक कुछ भी नहीं है।" साला मन ही मन मुस्कराया और बोला-"कोई बात नहीं। आप भोजन तो करिये । पैसे की बात बाद में सोची जायेगी। अभी आप अपने पास ही रखें अपना ढब्बु पैसा।" । भोजन का थाल सामने आया । विविध सामग्री देखकर कृषक-पुत्र फिर भड़क कर बोला-"आपने यह सब क्यों बनवाया ? मेरे पास तो सिर्फ ढब्बु पैसा है।" साले ने मुश्किल से हंसी रोककर कहा- 'आप भोजन करिये। पैसे की चिन्ता न For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ख और तियंच को समान मानो ३२७ करिये।" वह चुपचाप संकोचपूर्वक भोजन करने लगा। थाल की भोजन सामग्री समाप्त भी नहीं हुई थी कि पुनः मनुहार के साथ भोजन परोसा जाने लगा। कृषक-पुत्र झुंझलाकर बोला-"कहीं मेरे साथ ठगाई तो नहीं की जा रही है ? आप मनुहार तो कर रहे हैं, लेकिन सोच लेना, मेरे पास ढब्बु पैसा ही है।" साले ने मजाक के स्वर में कहा-“यह तो मुझे मालूम है। यह सब ढब्बु पैसे में ही तो हो रहा है।" कृषक-पुत्र बोला-"तब तो आपके यहाँ पूरा सुकाल है।" घर के भीतर से भी हंसी की धीमी गूंज आ रही थी। भोजन करने के बाद वह साले को ढब्बु पैसा देने लगा तो उसने कहा-"अभी आप रहने दीजिये । अभी थोड़ा आराम कर लीजिये ।" एकान्त हवादार स्थान में उसकी शय्या बिछा दी गई । शय्या देखकर कृषक-पुत्र बोला-'अच्छा ! यहाँ ढब्बु पैसे में आराम की भी व्यवस्था है ?" साला हंसी को पीते हुए बोला-"जी हाँ !" और चल दिया । कृषक-पुत्र आँखें मूंदकर सोया ही था कि किसी ने उसके पैर पर हाथ की हलकी-सी चांप दी । बात यह थी कि उसकी पत्नी को अपने पति की ढब्बु पैसे की रट अच्छी नहीं लग रही थी। बच्चे भी उसे चिढ़ा रहे थे—'बुआ ! ढब्बू पैसे वाले फूफाजी आए, जीजी ! ढब्बु पैसे वाले जीजाजी आये।' इससे वह मन ही मन घबराकर एकान्त देख अपने पति को चेताने आई थी। कृषक-पुत्र ने चांप का अनुभव किया तो आँखें खोलीं, अपने सामने एक षोड़शी को खड़ी देख उसने पूछा- "तुम कौन हो ? यहाँ क्यों आई हो ? देखो, मेरे पास ढब्बु पैसे से ज्यादा कुछ भी नहीं है।" उसकी पत्नी हंसी और चिढ़कर बोली-"मैं भी ढब्बु पैसे में आ रही हूँ। अब कितनी बार ढब्बु पैसे की बात को दोहराओगे ? कुछ अक्ल से काम लो। क्या इतना सब स्वागत ढब्बु पैसे में ही हो रहा है ? यह आपकी ससुराल है। मैं आपकी पत्नी हूँ। ढब्बु पैसे की आपकी रट से अब तो जिंदगीभर आपके सिर पर ढब्बु पैसे की छाप लग गई है । मैं तो लज्जित हो गई हूँ, यह सुन-सुनकर।" कृषक-पुत्र भौंचक्का-सा रह गया । वह बोला-"अच्छा, यह मेरी ससुराल है ? मुझे क्या मालूम ?" स्त्री बोली-“आपको तभी मालूम हो जाना चाहिये था, मेरा इतना स्वागत किया जा रहा है तो कोई कारण है ? दूसरी जगह तो आपका किसी ने इतना स्वागत नहीं किया।" कृषक-पुत्र लज्जित हो गया। शीघ्र ही वह सबसे मिलकर विदा हो गया। मेरे कहने का मतलब यह है, ढब्बु पैसे वाले कृषक-पुत्र की तरह बहुत-से मनुष्य किसी बात को कसकर पकड़ लेने के कारण मूर्ख एवं हँसी के पात्र बनते हैं । इसलिये जैसे पशु अपनी अक्ल अधिक नहीं दौड़ा सकते, सीमित दायरे में ही सोचते हैं, वैसे ही मूर्ख भी अपनी अक्ल अधिक नहीं दौड़ाते । वे भी सीमित दायरे में ही सोचते हैं। पशुओं की तरह उनमें नई बात सोचने का माद्दा ही नहीं होता। For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ भामाद प्रवचन । प्रान ११ मूर्ख : बन्दर के समान नकलची मूर्ख आदमी प्रायः दूसरों की नकल किया करता है । उसमें पशु के समान स्वयं की अक्ल तो बहुत ही कम होती है, इसलिए वह बन्दर के समान नकल करने लगता है । परन्तु वह यह नहीं समझता कि नकल करने से किसी न किसी दिन कलई खुल सकती है। नकल करने से मूर्ख में किसी काम को व्यवस्थित एवं भली-भांति करने की सूझ-बूझ नहीं आती, वह जैसे अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति को करते देखता है, ठीक उसी को नकल करने लगता है। उसे यह नहीं मालूम होता कि इस प्रकार नकल करने से उसके समय, शक्ति और धन का कितना अपव्यय होता है । परन्तु कई मूर्ख लोग अपनी हैसियत न होते हुए भी विवाह-शादियों, उत्सवों और अन्य प्रसंगों पर समाज में झूठी वाहवाही और क्षणिक प्रतिष्ठा पाने के लिए दूसरों की देखा-देखी हजारों रुपयों का धुआ उड़ा देते हैं । फिर जब वे कर्जदार हो जाते हैं, तब पछताते हैं । परन्तु अब पछताने से क्या होता है ? एक उदाहरण के द्वारा इसे समझने में आसानी होगी आद्य शंकराचार्य का एक शिष्य था। वह बड़ा मूर्ख था। हर बात में वह शंकराचार्य की नकल किया करता था। शंकर जब कहते-'शिवोऽहम' तो वह भी कहता-'शिवोऽहम् । शंकराचार्य ने उसकी मूर्खता दूर करने का निश्चय किया। एक दिन वे उस मूर्ख शिष्य को अपने साथ एक लुहार की दुकान पर ले गये । लुहार से उन्होंने पिघला हुआ लोहा लिया और जब स्वयं पी गये तब उस मूर्ख शिष्य से उन्होंने कहा-“ले तू भी इसे पी।" शिष्य झेंप गया बोला—“यह तो मुझ से नहीं हो सकता।" शंकराचार्य ने कहा-"तब तू हर बात में मेरी नकल क्यों करता है ? नकल करना अच्छा नहीं है, यह तो मूर्खता का चिह्न है । नकल करने से अक्ल गुम हो जाती है, बौद्धिक विकास रुक जाता है।" अब मूर्ख शिष्य समझा, उसने शंकराचार्य से क्षमा मांगी और भविष्य में न कल न करने की प्रतिज्ञा ली। ___शंकराचार्य के मूर्ख शिष्य ने तो नकल करना छोड़ दिया, परन्तु आज के पठित और शिक्षित लोग परीक्षा के समय नकल करते-कराते हैं, वे पता नहीं कब नकल करना छोड़ेंगे ? वरना नकल करने वाला मूर्ख की कोटि में ही गिना जायेगा; फिर चाहे वे निरीक्षक, अध्यापक आदि को धमकी देकर नकल करें या और तरीकों से करें, 'मूर्ख शिरोमणि' का पद तो मिल ही जायेगा। मूर्ख मंदमति होने से पशुतुल्य मुखं में सबसे बड़ा दुर्गुण यह होता है कि वह आगे-पीछे का कोई विचार नहीं करता, वह सिर्फ वर्तमान को ही देख पाता है । साथ ही वह ह मि-लाभ, अच्छेबुरे परिणाम की परवाह किये बिना ही बेधड़क काम किये जाता है। पशु में भी बुद्धि मंद होती है, मूर्ख में भी। इसी मंदबुद्धि के कारण ही मूर्ख बिना सोचे-समझे उलटे For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्य और तिवच को समान मानो ३३६ काम करता है और इतनी जड़ता के साथ करता है कि सहसा किसी के रोकने से रुकता नहीं । मूर्ख की बुद्धिमन्दता के कुछ नमूने ये हैं ___(१) जो बुढ़ापे में भी आत्मशान्ति के लिए तैयार न होकर धन की तृष्णा एवं मोह-माया में डूबा रहे। (२) अपने सारे कुटुम्ब का परित्याग करके अपना अमूल्य जीवन स्त्री के आधीन कर दे। (३) विषय-भोगों में निर्लज्ज होकर डूब जाये । (४) दूसरों से आशा रखकर स्वयं पुरुषार्थहीन हो जाये। (५) परोपकार करना न जाने, और उपकार करने वाले के प्रति भी अपकार करे। (६) जो अपनी बात न सुने, उसे जबर्दस्ती शिक्षा देने का प्रयत्न करे। (७) जो घर में तो बहुत ही चतुर बनकर विवेक करता है, मगर सभा में कछ कहने में शर्माता है। (८) जो जूआ, वेश्यागमन, चोरी, परस्त्रीगमन, मद्यपान, निन्दा-चुगली, आदि में आसक्त हो। ये सब अकृत्य मूर्ख व्यक्ति करता है, अपनी बुद्धिमन्दता एवं अदूरदर्शिता के कारण । मूर्ख की मतिमन्दता की पहचान के लिए एक उदाहरण लीजिए एक कर्मकाण्डी वृद्ध ब्राह्मण किसी धनिक के यहाँ गीता पाठ करने जाया करता था। रास्ते में एक नदी पड़ती थी। एक दिन नदी पार करते समय एक घड़ियाल मिला। वह बोला-"पण्डितजी ! पहले मुझे गीता सुनाइये फिर सेठजी को।" यह कहकर उसने ब्राह्मण के सामने एक नौलखा हार भेंटस्वरूप रखा। फिर क्या था ? लोभवश ब्राह्मण यहीं गीता सुनाने लगा। प्रतिदिन यह क्रम चलता रहा। जब गीतापाठ सम्पूर्ण हुआ तो घड़ियाल ने ब्राह्मण को मोतियों से भरा एक घड़ा दक्षिणा में देते हुए कहा-"पण्डितजी ! अगर आप मुझे त्रिवेणी में छोड़ आये तो मैं आप को ऐसे ५ घड़े और दे दूंगा।" ब्राह्मण ने घड़ियाल की बात मानकर उसे त्रिवेणी पहुँचा दिया । घड़ियाल ने अपने वादे के अनुसार उसे ५ घड़े मोतियों के दे दिये । लेकिन जब ब्राह्मण उन्हें लेकर खुशी-खुशी घर जाने लगा तो व्यंग से घड़ियाल मुस्कराने लगा। ब्राह्मण ने कारण पूछा तो उसने कहा-"आप अवन्तिका में जाकर मनोहर धोबी के गधे से मिलकर इसका मतलब पूछना, वह आपको सब बतलायेगा।" ब्राह्मण अवन्तिका पहुँचकर गधे से मिला। गधे ने कहा-पूर्वजन्म में मैं राजा का सेवक था। एक बार राजा त्रिवेणी-स्नान को गये। त्रिवेणी-तट पर उन्हें इतनी प्रसन्नता हुई कि उन्होंने राजपाट छोड़कर शेष जीवन वहीं बिताने का संकल्प For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० आनन्द प्रवचन : भाग ११ कर लिया । मुझ पर उनका बड़ा स्नेह था। अनुग्रह पूर्वक बोले-"इच्छा हो तो मेरे साथ रहो । तुम्हारी उम्र भी सौ के करीब पहुँच रही है । यह मंजूर न हो तो लो ये हजार मुद्राएं और घर लौट जाओ।" मैं मूढ़ था । धन वैभव के व्यामोह ने मेरी बुद्धि पर पर्दा डाल दिया। मैं मुद्रायें लेकर अपने घर लौट आया। तुमने भी वही गलती की । बुढ़ापे में घड़ियाल जैसे क्षुद्र जल-जन्तु ने अपनी आत्म-शान्ति के लिए प्रबन्ध कर लिया, मगर तुम मनुष्य और मनुष्यों में भी श्रेष्ठ ब्राह्मण होकर भी धन की तृष्णा में अभी तक मूर्ख बनकर दर-दर भटक रहे हो। तुम्हारी यह मतिमन्दता और मूर्खता देखकर ही घड़ियाल हंसा था। इसीलिए महर्षि गौतम ने मूर्ख को तिर्यञ्च (पशु-पक्षी) के समान बतलाया है । तिर्यञ्च तो फिर भी सोच लेता है, पर मूर्ख मनुष्य अपना हिताहित नहीं सोच पाता। मूर्ख का संग, पशुसंगवत् वजित - मूर्ख मनुष्य पशु की तरह सत्संग करने योग्य नहीं होता । जैसे पशु के पास उपदेश ग्रहण करने या पशु का संग करने कोई नहीं जाता, वैसे ही मूर्ख मानव से उपदेश ग्रहण करने या उसका सत्संग करने कोई नहीं जाता। इसीलिए शास्त्र में जगहजगह मूर्ख-संग का निषेध किया है अलं बालस्स संगण -बाल (अज्ञानी) का संग मत करो। मूर्ख के साथ बोलने या बात-चीत करने से कोई फायदा नहीं होता। उलटा अहित या नुकसान ही अधिक होता है। क्योंकि मूर्ख यदि किसी दुर्व्यसन का गुलाम होगा, तो वह अपने पास बैठने वाले को उस दुर्व्यसन का चेप लगायेगा। अथवा वह बहुत बोलने या लड़ाई-झगड़ा करने की बीमारी लगा देगा। या वह सम्पर्क में आने वाले के साथ जरा-जरा-सी बात पर झगड़ा कर बैठेगा । इसीलिए विचारकों ने कहा है "मूर्ख से बोलना पत्थर से टकराना है । जैसे पत्थर से टकराने से पत्थर का कुछ नहीं बिगड़ता, टकराने वाले की ही हानि है, वैसे ही मूर्ख से बोलने से बोलने वाले का ही नुकसान है, मूर्ख का नहीं।" मूर्ख को यदि कोई हित की बात कहता है तो वह उसे पहले तो ग्रहण ही नहीं करता, यदि ग्रहण कर भी लेता है तो विपरीत रूप में करता है। इसीलिए तिलोक काव्य संग्रह में मूर्ख को उपदेश देने की व्यर्थता बताई हैसंतन को उपदेश मूढ़ को न लागे लेश, जाति अन्ध नर ताको कैसे दीसे आरसी। श्रोत नष्ट राग रीत, श्वान को फुलेलवास, जहेरी को सक्कर सो, लागे कटु सारसी ॥ For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ख और तियंच को समान मानो ३३१ गंगा-सी सलिल' बीच, खर को नहायबो ज्यों, गूंगजन आगे कछु पढ़ना है फारसी। कहत तिलोक तैसे मूरख को उपदेश, नीर को बिलोवे होवे मेहनत असारसी ।' भावार्थ स्पष्ट है । मूर्ख का संग चाणक्य नीति में भी वर्जित बताया है मूर्खस्तु परिहर्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदःपशुः । भिनत्ति वाक्यशल्येन, हृदयं कण्टकं यथा ॥ "मूर्ख मनुष्य प्रत्यक्ष दो पैर वाला पशु है । वह अदृश्य कांटे की तरह वचनशल्य से हृदय को बींध डालता है । अतः उसका परित्याग करना चाहिए । मूर्ख व्यक्ति कितना हठाग्रही होता है, एक उदाहरण लीजिए एक गच्छ में एक साधु लब्धिधारक थे । पर वे किसी बालक साधु या ग्लान वृद्ध साधु की सेवा नहीं करते थे । एक दिन उनको आचार्य ने कहा-"तू सेवा क्यों नहीं करता ?" तब वह साधु बोला-"मुझे कोई साधु कहते ही नहीं कि मेरी सेवा करो।" यह सुनकर आचार्य ने कहा-"तू चाहता है कि साधु मुझे प्रार्थना करें, यह तेरी भूल है। तू उस ज्ञान मदोन्मत्त मरुक ब्राह्मण की तरह गलती करता है। उस उस देश का राजा कार्तिक पूर्णिमा के दिन दान देता है, तब सभी दान लेने जाते हैं, लेकिन मरुक नहीं जाता। एक बार उसकी पत्नी ने उसे दान लेने जाने की बहुत प्रेरणा की तब मरुक बोला-एक तो शूद्र के हाथ से दान लेना, दूसरे, उसके घर सामने जाना, यह कैसे सम्भव है ? अतः जिसे सात पीढ़ी तक गर्ज हो वह यहाँ आकर दे जाये। अपने इस हठाग्रह के कारण वह जिंदगीभर दरिद्र रहा। इसी तरह तू भी भूल कर रहा है । अगर तू बाल, वृद्ध साधु की सेवा करे तो निर्जरा होगी। सेवा करने वाले तो और भी साधु हैं, पर तुझे लब्धि प्राप्त है, और फिर वयावत्य किये बिना यम, नियम सब निष्फल हैं ।" गुरु के ऐसा कहने पर वह साधु बोला-"अगर वयावृत्य करना आप अच्छा समझते तो, आप स्वयं वैयावृत्य क्यों नहीं करते ?" आचार्य ने कहा-“तू उस बन्दर की तरह मूर्ख है, जो बया पक्षी के द्वारा हित की बात कहने पर भड़क उठा और अंटशंट गालियाँ बकता हुआ बया का घोंसला तोड़कर चला गया। इसी प्रकार तू मुझे वैयावृत्य करने की बात कहता है। मेरे समक्ष निर्जरा के अनेक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य हैं।" __ अतः मूर्ख मनुष्य बन्दर के समान उद्दण्ड होता है। उसे सीख देना अपनी ही गांठ की गंवाना है । अमृत काव्य संग्रह में ठीक ही कहा है १. तिलोक काव्य संग्रह, तृतीय बावनी, गाथा५१ For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव प्रवचन : भाग ११ सीख नहीं दीजे हठग्राही मूढ़ प्राणिन कू, सार नहीं होवे जैसे पानी को मथाए से। खर को चन्दन लेप, मुकुट भूषण तन, होवत निकाम जैसे ओसबिन्दु बाए से ॥ मर्कट के गले हार शोभादार बहु, तोरी के देवत फैक फँद जानी काए से । अमीरिख कहे नहीं माने उपकार मन, होवत है बैरी वात हित की बताए से ।। पशुओं को भी मात करने वाली मूर्खताएं ये सब मूर्खतायें पशुओं को भी मात कर देती हैं । पशु-पक्षियों में भी इतनी तो बुद्धि होती है कि वे अपनी शक्ति और क्षमता को जानकर दौड़ लगाते हैं । गाय, भैंस. बैल, घोड़ा आदि अपनी शक्ति को जानकर ही भागते-दौड़ते हैं, पक्षी भी अपनी शक्ति के अनुसार आकाश में उड़ते हैं, पर मूर्ख तो मूर्खता के आवेश में अपनी शक्ति को भी भूल जाते हैं, उन्हें यह भान ही नहीं रहता कि मेरी कितनी शक्ति है ? मैं किससे बात कर रहा हूँ ? वह ऐसे नीच कार्य करने पर उतारू हो जायेगा, जिसे करते हुए पशु भी शर्माते हैं, और फिर उस नीच कार्य को करते हुए अपनी प्रतिष्ठा भी बरकरार रखना चाहेगा। उस नीच कार्य को करने के लिए वह अपने शत्रु के साथ मित्रता करेगा और मित्रों के साथ द्वेष-भाव रखेगा। इसका कारण यह है कि जो हितैषी मित्र होते हैं, वे उसके मूर्खतापूर्ण कार्यों को करने में रोकटोक करते हैं, उसे नहीं करने को समझाते हैं, वैसा गलत काम करने पर वे उसके साथ भित्रता तोड़ने की धमकी देते हैं, सच्ची और साफ बात करते हैं, इस कारण सच्चे हितैषी मित्र उसे शत्रु-से लगते हैं, और जो उसके शत्रु हैं, वे उसकी जड़ काटने को तत्पर रहते हैं, इसलिए वे उसे उकसाते और चढ़ाते रहते हैं। यही उसकी सबसे बड़ी मूर्खता है। पशुओं में इतनी मूर्खता तो होती है कि वे विरोधी से भिड़ने का साहस कर बैठते हैं, चाहे उनमें शक्ति न हो । एक दुर्बल कुत्ता अपनी गली में आने वाले दूसरी जगह के कुत्ते को विरोधी एवं पराया मानकर उससे भिड़ जाता है, और उसे परेशान करके अपनी गली से बाहर निकालकर ही दम लेता है। क्योंकि कुत्ते में इतनी बुद्धि नहीं होती कि यह मेरा जाति भाई है, इससे क्यों लडू-भिडूं? मनुष्य में तो इतना सोचने की बुद्धि होती है, वह तो अपने-पराये को जल्दी पहचान सकता है, परन्तु मूर्ख मनुष्य पशु के समान अपने-पराये का भान भूल जाता है । इस तरह स्वयं निर्बल होते हुए भी बलवान के साथ वैर-विरोध मोल ले लेता है। पशु में इतना तो सामान्य ज्ञान होता है, जिससे वह अपने मालिक को पहचानता है, और उसका कार्य अपनी शक्ति भर वफादारीपूर्वक करता है, अपने से होने वाला काम वह दूसरों पर नहीं डालता, वह मेहनत किये बिना अपने मालिक से खाना For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ख और तिच को समान मानो ३३३. नहीं लेता बीमार पड़ता है तो खाना छोड़ देता है, परन्तु मूर्ख मनुष्य जिस मालिक के यहाँ नौकरी करता है, उसका कार्य शक्तिभर और वफादारी के साथ नहीं करता, वह कार्य से जी चुराता है, मेहनत पूरी नहीं करता किन्तु बदले में खाना पूरा चाहता है, सब सुविधायें चाहता है, बीमार होने पर भी मूर्ख मानव प्रायः खाना नहीं छोड़ता । कई बार तो मूर्ख मानव मालिक को हानि पहुँचाकर काम बिगाड़ कर भी मेहनताना पूरा माँगता है । एक सम्भ्रान्त परिवार में एक दयनीय हालत का नौकर था । उसे पति-पत्नी दोनों ने मिलकर ही रखा था । नाम था - चतुरी । वह आवाज लगाते ही बोलता'जी हाजिर !' पर हाजिर होने के बाद काम जो कहते थे, उसमें बड़ी देर लगाता या करता नहीं था । एक दिन रात को उस सम्भ्रान्त गृहस्थ के यहाँ एक मित्र आगये, परिवार का अग्रगण्य मित्र से बात कर रहा था । फरमाबरदार चतुरी हरदम आसपास ही रहता था । कब क्या हुक्म हो । अचानक मित्र ने पूछा - " चतुरी ! पानी है ? " चतुरी ने तुरन्त कहा - 'जी हाँ ; कुए में है ।" मित्र तो हँस पड़े पर गृहस्वामी झेंप गये । गर्मी का मौसम था। दोपहर के समय दो तीन मित्र आगये । वे बैठे गृहस्वामी से बात कर रहे थे । उन्होंने पानो पीना चाहा । गृहस्वामी ने आवाज दी"चतुरी !" बटन दबाते ही जैसे बिजली जल जाती है, चतुरी की आवाज आई - " जी ! " गृहस्वामी ने कहा – “जा, दो-तीन ग्लास ठंडा शरबत बना ला ।" 'जी' कह चतुरी चला गया । गया सो गया । आने का नाम नहीं । गृहस्वामी को शर्म भी आई और क्रोध भी । गृहस्वामी ने झल्लाकर कहा - " चतुरी !" आवाज के साथ ही सशरीर हाजिर होकर कहा - " जी !” गृहस्वामी बोला – “अबे ! शरबत के लिए कहा था न !" वह बोला - " जी !” गृहस्वामी - " तो शरबत कहाँ है ?" चतुरी - " जी ! बर्फ नहीं मिल रही है ।" गृहस्वामी – “कल जहाँ रखी थी, वहीं ढूंढ न !” चतुरी - " जी । तमाम जगह ढूंढ ली, नहीं मिली । " गृहस्वामी सिर ठोककर रह गये । चतुरी हंसता रहा । यह मूर्खता पशुता की सीमा को भी लांघ गई । पशु भी इशारे से बहुत सी बात समझ लेते हैं और तदनुसार काम करते हैं, मगर मूर्ख इशारा तो दूर रहा, कहने पर भी नहीं समझता, समझता है तो भी तदनुसार काम नहीं करता । पशु अगर किसी बात को नहीं समझता है, तो वह उस काम को नहीं कर पाता, पर उलटा काम तो नहीं करता: मगर मूर्ख मनुष्य तो कभी-कभी उलटे काम For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ कर बैठता है । उसी गृहस्वामी ने चतुरी (नौकर) को एक बंद लिफाफा दिया और पैसा देकर कहा-"जा डाकघर में जाकर इसे रजिस्ट्री करा आ। इसे तुलवा लेना और जितने की कहें, टिकिट लेकर चिपका देना। फिर वे इसे ले लेंगे और तुझे एक रसीद दे देंगे। वह रसीद ले आना समझा ? क्या समझा ?" चतुरी ने जो जैसे-जैसे गृहस्वामी ने कहा था, दोहरा दिया। गृहस्वामी ने कहा-"ठीक है, जा।" । चतुरी डाकघर गया और थोड़ी देर बाद ही हाथ में लिफाफा लिए ही लौट आया। गृहस्वामी ने पूछा-"क्यों, वापस क्यों ले आया ? क्या टिकिट कम पड़ गया ? वह वोला-"जी नहीं, आपने जैसे-जैसे कहा, मैने ठीक वैसे ही वैसे किया; मगर रजिस्ट्री वाले ने कहा-लिफाफे पर पता नहीं है, लिखवा ला । मैं तो लड़ पड़ा-मालिक ने मेरे सामने पता लिखा है, आप नहीं कैसे कह रहे हैं ? बड़ी कहा-सुनी हो गई।" गृहस्वामी भी अजीब हैरानी में पड़ गये । चतुरी के हाथ से लिफाफा लेकर देखा तो सिर पीट लिया। उसने पूरे पते पर ही सारे टिकिट चिपका दिये थे। कहीं पते का एक अक्षर भी खुला नहीं था। इस प्रकार की मूर्खता करने वाला क्या पशु से भी गया-बीता नहीं है ? तिर्यञ्च और मूर्ख की प्रकृति में अन्तर नहीं वैसे देखा जाये तो मूर्ख और तिर्यञ्च की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं होता। तिर्यञ्च शरीर से आगे की सोच नहीं सकता, उसे कुछ भी खाने-पीने को मिलेगा, वह स्वयं ही प्रायः खा-पी लेगा। दूसरा भूखा पशु पास में आकर खड़ा होकर टुकुरटुकुर देखता है, तो भी उसका हृदय पिघलता नहीं, उसमें देने की उदारता नहीं होती। अतः तिर्यञ्चों की व्यस्तता शरीर से आगे की नही होती, मूों का भी यही हाल है। वे भी अपने शरीर से आगे की प्रायः नहीं सोचते। साथ ही पशु प्रीति, भीति, द्वेष और क्षुधा से आगे नहीं जाते, मूों की प्रकृति भी प्रायः ऐसी ही होती है। जीवन की सरसता और मौलिकता सदाचार में है । सदाचार और दुराचार की सुगन्ध ब दुर्गन्ध लाखों वर्षों तक मृत्यु के बाद भी संसार में आती रहती है। परन्तु जिसके जीवन में सदाचार होता है, वहाँ सुगन्ध एवं मानवता होती है, जिसके जीवन में दुराचार होता है, वहाँ होती है दुर्गन्ध एवं पशुता । रावण को ११ लाख वर्ष हो गये, फिर भी प्रतिवर्ष उसकी दुर्गति की जाती है। पता है, उसका शरीर काला और उसके सिर पर सींग क्यों दिखाये जाते हैं ? ऐसा क्यों ? रावण वैसे तो आदमी ही था, परन्तु उसने दुराचार के कार्य किये, इसलिए उसे पशुता का प्रतीक बताने हेतु काला शरीर एवं सींग बताये जाते हैं। निष्कर्ष यह है कि दुराचार पशुता की निशानी है। अमरीका में मानवता का पुरस्कर्ता टामस पेन हुआ है। उसके जीवन चरित्र For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ख और तियंच को समान मानो ३३५ में लिखा है, कि मानव में देवत्व का जो अंश है, उसे निकाल दिया जाये तो उसमें केवल पशुता ही शेष रह जायेगी । पशुता का अर्थ ही मूर्खता है, मूर्खता का दूसरा नाम पशुता है। तिर्यञ्च (पशु-पक्षी) और मूर्ख मानव में साम्यता इस कारण भी है, पशु-पक्षी प्रसन्नचेता नहीं होते इसी कारण उनकी बुद्धि गहरी, व्यापक दृष्टिसम्पन्न एवं स्थिर नहीं होती । मूर्ख का भी यही हाल है। वैसे तो हाथ-पैर आदि अवयवों या चेहरे की बनावट से ही मूर्ख और जानवर में भेद नहीं किया जाता है, दोनों में साम्य समझा जाता है, व्यवहार, बर्ताव एवं बुद्धिमन्दता से। इसीलिए महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र द्वारा सावधान किया है मुक्खा तिरिक्खा य समं विभत्ता आप भी मूर्खता और पशुता को समान जानकर अपने जीवन में मूर्खता को न आने दें। For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०. मृत और दरिद्र को समान मानो धर्मप्रेमी बन्धुओ! आज मैं आपके समक्ष एक नैतिक जीवन की प्रेरणा देने वाला जीवनसूत्र प्रस्तुत कर रहा हूँ। नैतिक जीवन शुद्ध हुए बिना आध्यात्मिक जीवन की शुद्धि की आशा रखना वृक्ष के मूल के दियासलाई लगाकर पत्तों को सींचना है। इसीलिए महर्षि गौतम इस बात पर जोर दें रहे हैं, कि व्यावहारिक जीवन को नीतिसमृद्ध बनाये बिना केवल आध्यात्मिकता की थोथी बातें करना अपने आपको दरिद्र बनाना है। दरिद्र और मृतक में कोई खास अन्तर नहीं है। गौतमकुलक का यह ६६वां जीवनसूत्र है। इसमें स्पष्ट बताया गया है मुआ दरिदा य समं विभत्ता -मृत और दरिद्र दोनों समान माने जाते हैं । दरिद्र कौन है ? वह मृत-सम क्यों और कैसे हो जाता है ? दरिद्रता और मर्दापन दोनों में कितना साम्य है ? दरिद्रता-निवारण न करने से क्या-क्या हानियाँ हैं ? आदि सभी पहलुओं पर आज मैं चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा। दरिद्र : स्वरूप, प्रकार और विश्लेषण दरिद्र का अर्थ सामान्यतया निर्धन समझा जाता है, परन्तु यह तो इसका स्थूल अर्थ है । दरिद्र केवल धन का ही नहीं होता, मन का भी होता है, तन का भी और नैतिकता का भी । धन के दरिद्र को तो सभी जानते हैं, परन्तु मन के दरिद्र को बहुत विरले पुरुष जान पाते हैं । मन का दरिद्र वह होता है, जो मन से अपने आपको दीन-हीन, निर्धन समझता है । कई व्यक्ति ऐसे भी देखे गये हैं, जो तन से भी दरिद्र नहीं हैं, किन्तु जिनके मन में दरिद्रता बस गई है । जो यह कभी नहीं सोच सकते और न ही आत्म विश्वास कर पाते हैं कि मैं अपनी दरिद्रता दूर कर सकता हूँ। मन से दुर्बल और दरिद्र लोग यही सोचा करते हैं कि भाग्य में ही दरिद्रता न लिखी होती तो हम एक दरिद्र के घर में जन्म क्यों लेते ? क्या हमारा जन्म किसी भाग्यवान् के यहाँ नहीं होता ? इसके अतिरिक्त जब ऐसे मनोदरिद्री अपने चारों और यह भी देखते हैं कि धन के बिना संसार का कोई भी कार्य नहीं हो सकता तब वे स्वयं किसी भी कार्य को उत्साह पूर्वक करने का विचार भी नहीं कर सकते। अपने चारों ओर की For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत और दरिद्र को समान मानो ३३७ परिस्थिति को देखकर वे और भी हतोत्साह हो जाते हैं और समझ लेते हैं कि ऐसी परिस्थिति में हम कोई भी कार्य नहीं कर सकते । इस तरह अपनी शक्ति, योग्यता और क्षमता पर से उनका विश्वास उठ जाता है । उन्हें अपने आप में पुरुषार्थ करने का उत्साह नहीं रहता । 1 ऐसे मनोदरिद्र लोगों में जब अपनी योग्यता और शक्ति पर से विश्वास उठ जाता है, तब उनमें जो नैतिकता के सद्गुण होते हैं, न्यायनीति - पूर्वक पुरुषार्थं करने के और धैर्य, गाम्भीर्य आदि जो सद्गुण होते हैं, उनका भी ह्रास होने लगता है । फलतः ऐसे मनोदरिद्र अपने जीवन को भारभूत, अभिशाप और दूभर समझने लगते हैं । उनमें न तो कोई आत्मगौरव रहता है, न महत्त्वाकांक्षा और न ही स्वतंत्रतापूर्वक जीने की शक्ति रह जाती है । एक तरह से पराधीन, परमुखापेक्षी और पराश्रित हो जाते हैं । उनमें स्वतंत्र रूप से चिन्तन की शक्ति भी क्षीण हो जाती है; न कार्य करने का ढंग रह जाता है और न ही कोई अध्यवसाय, साहस या सत्कार्य करने का माद्दा रहता है । फलतः वे एक ऐसे ढालू स्थान पर पहुँच जाते हैं, जहाँ से वे लगातार नीचे गिरते ही जाते हैं, फिर ऊंचे उठ नहीं पाते । उनके मन के सारे मनोरथ मर जाते हैं । इस प्रकार मनोदरिद्र की अवस्था शरीर से जीवित किन्तु मन से मृत की-सी हो जाती है । मनोदरिद्र अपनी मानसिक अवस्था को ऐसी बना लेता है, जिसमें फिर कभी किसी प्रकार की उन्नति करने की गुंजाइश ही नहीं रहती । दरिद्रता अपने आप में इतनी भंयकर नहीं है, न मनुष्य को मुर्दे-सा बना देने वाली है, जितनी कि दरिद्रता की भावना, यानी 'मैं सदा दरिद्र ही बना रहूँगा,' यही मनोभाव, सबसे अधिक घातक होता है । ऐसे दारिद्र्य के मनोभाव मनुष्य में दीनताहीनता का संचार करते हैं, जिनके कारण वह दारिद्रय से पराङमुख होकर उससे पिण्ड छुड़ाने का साहस और पुरुषार्थ ही नहीं कर पाता। वह अपनी शक्तियों की पहचान न कर पाने के कारण अहर्निश दरिद्रता के वातावरण से घिरा रहता है । अपने सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति के सामने वह अपनी दरिद्रता और दीन-हीनता का रोना रोता रहता है । " प्रत्येक बुरी बात में भी कुछ न कुछ प्र ेरक गुण अथवा कोई न कोई हित निहित रहता है । इस कहावत के अनुसार दरिद्रता से भी कुछ न कुछ अच्छी बात निकाली जा सकती है । किसी ने कहा है शक्ति करोति संचारे शीतोष्णे मर्षयत्यपि । दीपयत्युदरे वन्ह दारिद्रयं परमौषधम् ॥ ऐश्वर्य तिमिरं चक्षुः पश्यन्नपि न पश्यति । तस्य निर्मलतायां तु दारिद्र यं परमौषधम् ॥ - दरिद्रता मनुष्य में शक्ति का संचार कर देती है, सर्दी-गर्मी सहन करने की For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ शक्ति भी दरिद्रावस्था में आती है। दरिद्रावस्था में जठराग्नि भी प्रदीप्त हो जाती है, इसलिए दरिद्रता परम औषध है। -जो लोग ऐश्वर्यशाली हैं, उनकी आँखें ऐश्वर्य से अंधी हो जाती हैं, जिससे वे दरिद्रों को देखकर भी नहीं देखते । किन्तु दरिद्र की अनुभवपुनीत आँखें दूसरे की दरिद्रावस्था को देख सकती हैं । इसलिए दारिद्र य परम औषध है । यह तो सब का अनुभव है कि दरिद्रावस्था में मनुष्य में कष्ट-सहिष्णुता, साहस, अध्यवसाय और कर्मठता आदि गुणों का विकास हो सकता है। इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति कुछ समय तक दरिद्रावस्था में रह चुकता है, उसमें जन्म से अमीर रहने वालों की अपेक्षा परोपकार, दया, सहानुभूति आदि का भाव कहीं अधिक होता है। इसका यह मतलब नहीं है कि जान-बूझकर दरिद्रता को ओढ़ा जाये, कदाचित् अशुभकर्मोदयवश दरिद्रता आ पड़े तो उस समय इन गुणों का अनायास ही विकास हो सकता है। परन्तु दुःख है कि मन के दरिद्र या बुद्धि के दरिद्र पहले से ही पस्तहिम्मत होकर हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाते हैं। मनोदरिद्र किसप्रकार निरुत्साह होकर अपनी शक्ति और क्षमता को भूल जाता है ? इसे समझने के लिए एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए रूस के प्रसिद्ध समाज-निर्माता, विचारक टॉल्स्टॉय के पास एक दिन एक युवक आया, जो उनसे सहायता की प्रार्थना करने लगा-“महाशय ! मैं बहुत ही गरीब हैं। मेरे पास जीवन-निर्वाह के लिए कुछ भी साधन नहीं हैं । धन के अभाव में मेरा जीवन बहुत दुःखी हो गया है ।" टॉल्स्टॉय ने उसकी ओर आश्चर्य भरी दृष्टि से देखकर कहा-"युवक ! तुम तो बहुत धनवान और भाग्यवान दिखते हो, फिर तुम अपने आपको निर्धन और भाग्यहीन क्यों कहते हो ?" युवक बोला-"आप तो मेरे जले पर नमक छिड़क रहे हैं। मैं एक तो निर्धन हूँ, उस पर आप ऊपर से मुझे चिढ़ाते हैं । ऐसा तो न कीजिए।" टॉल्स्टॉय-"नहीं, युवक ! मैं तुम्हें चिढ़ा नहीं रहा हूँ । मैं तुम्हें यथार्थ बात कह रहा हूँ। तुम्हारे पास लाखों की सम्पत्ति है।" युवक-"कहाँ है, मेरे पास लाखों की सम्पत्ति ? लाख कौड़ी भी तो नही हैं।" टॉल्स्टॉय-"अच्छा तुम्हारे पास दो आँखें हैं न ? मेरा एक मित्र है, वह इन्हें तीस हजार में खरीद लेगा। बोलो, तुम्हें देना मंजूर है ?" युवक-"अजी साहव ! खूब कही आपने ! आँखें दे दूंगा तो मैं अंधा हो जाऊंगा। मेरे लिए सारी दुनिया सूनी हो जाएगी । मैं किसी प्रकार का आनन्द नहीं ले सकूँगा। इसलिए आँखें तो मैं हर्गिज नहीं दे सकता।" For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत और दरिद्र को समान मानो ३३६ टॉल्स्टॉय-"अच्छा, आँखें न सही । तुम अपने दोनों कान मेरे एक मित्र को दे दो, वह तुम्हें बीस हजार दे देगा। बोलो, स्वीकार है न ?" युवक-"कान भी मैं नहीं दे सकूँगा । कान दे दूं तो मैं सुनूंगा किन से ?' टॉल्स्टॉय-"तो फिर मेरे एक बन्धु हैं, वे तुम्हारे दोनों हाथ खरीद लेंगे, तीस हजार रुपये में । हाथ तो दे दोगे न ?” युवक-"साहब ! आप क्या मजाक कर रहे हैं ? मैं हाथ कैसे दे सकता हूँ? हाथ दे दूंगा तो फिर काम किन से करूंगा ? वजन कैसे उठाऊंगा ? जीवन-निर्वाह के एक मात्र साधन दो हाथ ही तो हैं । इन्हें देकर क्या मैं अपने जीवन को पराधीन और बेकार बना लूं ?" टॉल्स्टॉय-"मालूम होता है, तुम्हें अपनी बहुमूल्य शरीर-सम्पदा का पता नहीं है । चलो, हाथ मत बेचो, तुम्हारे दोनों पैर बेच दो । मैं स्वयं खरीद लेता हूँबीस हजार में । बोलो, बेच सकोगे तुम ?" युवक-"महाशय ! दो पैर बेच दूंगा तो मैं सर्वथा अपंग हो जाऊँगा, पहले ही तो मैं बेकार हूँ। फिर पैर न रहने से और अधिक बेकार व पराधीन हो जाऊँगा। इसलिए पैर मैं हर्गिज नहीं बेच सकूँगा।" ___टॉल्स्टॉय-"अभी तुम्हारे पास नाक, मस्तक आदि कई अवयव हैं और सब मिलाकर, ये अंगोपांग कई लाख रुपयों के होंगे । पर तुम बेचोगे नहीं, ऐसा तुम्हारे मूड से पता लगता है । पर तुम्हें यह तो मालूम हो ही गया है कि तुम तन से दरिद्र नहीं हो। तुम्हारे पास लाखों का माल है, इसलिए धन से भी दरिद्र नहीं हो, परन्तु तुम अपने अज्ञान के कारण मन और बुद्धि से दरिद्र बन रहे हो। बोलो, हो न तुम लाखों के स्वामी ?" युवक-"हाँ, साहब ! सचमुच मेरे पास लाखों की सम्पदा है, परन्तु मैं अपने आप को दरिद्र महसूस कर रहा था । आपने मेरी आँखें खोल दीं। बताइये अब मैं क्या करूं जिससे मेरो दरिद्रता दूर हो ?" टॉल्सटॉय ने युवक से कहा- "सचमुच तुम बहुत भाग्यशाली हो, युवक ! तुम्हारे पास श्रम की बहुमूल्य पूँजी है । यह कुल्हाड़ी लो, और श्रम करके कमाओ।" युवक कुल्हाड़ी लेकर और टॉल्स्टॉय को प्रणाम करके खुशी-खुशी चला गया। यह है, मन की दरिद्रावस्था का यथार्थ चित्रण और उसके निवारण का समुचित उपाय ! वस्तुतः दरिद्रता-मानसिक, बौद्धिक दरिद्रता-कोई नैसर्गिक या स्वाभाविक चीज नहीं है। मन का दरिद्र एक और प्रकार का भी होता है। वह धन और तन से तो For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० आनन्द प्रवचन : भाग ११ दरिद्र नहीं होता, उसके पास पेट भरने और अपना गुजारा चलाने लायक धन और पर्याप्त साधन होते हैं, फिर भी अपनी अपेक्षा दूसरों के पास अधिक धन और साधन–बंगला, कार, कोठी, फर्नीचर धन की प्रचुरता आदि-देख-देखकर मन ही मन ईर्ष्या करता है, अपने को उनकी अपेक्षा निधन या दरिद्र समझने लगता है । सोचता है-'मैं तो उसके सामने कुछ नहीं हूँ।' इस प्रकार वह अपने आपको मन से दरिद्र समझकर कष्ट का अनुभव करता है, तथा मन ही मन अधिक धनवान् बनने की योजना बनाता है । ऐसे लोग, चाहे कितना ही धन हो जाये, मन से सदा असन्तुष्ट ही रहते हैं और अपने आपको दरिद्र की कोटि में मानते हैं । शंकराचार्य-प्रश्नोत्तरी में ठीक ही कहा है को वा दरिद्रो हि ? विशालतृष्णः । 'दरिद्र कौन है ? जिसकी तृष्णा विशाल है।' एक राजा था। उसने अपने सेवकों को आदेश दिया कि मेरे राज्य में जो सबसे अधिक दरिद्र हो—निर्धन हो-उसे यह स्वर्णमुद्राओं की थैली भेंट कर आओ। सेवक पहुँचे गाँव में । गाँव सारा छान डाला पर कहीं भी कोई दरिद्र या निर्धन नहीं मिला। जिन साधु-संन्यासियों को उन्होंने अकिंचन देखा, उनके पास जाकर प्रार्थना की—“स्वामिन् ! आप हमें निर्धन एवं अकिंचन लगते हैं। अतः हमारे राजा द्वारा दी हुई यह स्वर्णमुद्राओं की थैली लीजिये।" साधु-संन्यासियों ने पूछा-"तुम्हारे राजा ने यह धन किसको देने को कहा है ?"वे बोले-“राजा ने कहा है कि जो सबसे अधिक दरिद्र या निर्धन हो, उसे दे आओ।" साधु-संन्यासियों ने कहा-"हम दरिद्र या निर्धन नहीं हैं, दरिद्र या निर्धन तुम्हारा राजा है, उसे ही यह थैली वापस ले जाकर दे दो।" राजसेवकों ने पूछा- “महात्मन् ! राजा कैसे दरिद्र हैं ?" उन्होंने कहा-"राजा दरिद्र इसलिए है कि उसकी तृष्णा विशाल है। इतना सब वैभव होते हुए भी उसे नये-नये देश जीतने, उनका खजाना आपने कब्जे में करने की लालसा है।" __राजसेवक मोहरों की थैली लेकर राजा के पास लौटे और सारा हाल कह सुनाया। वास्तव में जिसकी तृष्णा विशाल होती है, वही मन का दरिद्र होता है। दारिद्र य का कारणमूलक चित्रण करते हुए 'तिलोक काव्य संग्रह' में कहा हैऋद्धिहीन वो ही जाके तृष्णा अधिक मन, रीस परचण्ड वेग लोकन से लरते । संतजन देखकर श्वान जैसे रोष करे, क्रू रदृष्टि निष्ट वेण मन से उचरते ॥ For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत और दरिद्र को समान मानो ३४१ देत नहीं दान कछ, करे अभिमान मूढ़, आरत रुदर ध्यान, धरम न करते । कहत 'तिलोक' धिधिक वांको बारंबार, धिक् वांकी मात को सो जाया ऐसा नर ते ॥' कई व्यक्ति धन के दरिद्र होते हैं, पर वे मन के दरिद्र नहीं होते। वे अपने जीवन में दरिद्रता को महसूस नहीं करते, और परिस्थिति के अनुसार अपने को एडजस्ट कर लेते हैं, वे दरिद्र नहीं हैं। पहले दरिद्र वे हैं, जो धन और तन के दरिद्र न होते हुए भी मन से दरिद्रता महसूस करते हों, दूसरे दरिद्र वे हैं, जो धन से दरिद्र हों, साथ ही मन से भी दरिद्रता का अनुभव करते हों; तीसरे वे हैं, जो तन से दरिद्र हों, धन से नहीं, पर मन से दरिद्रता महसूस करते हों। चौथे वे दरिद्र हैं, जो तन, मन, और धन तीनों से दरिद्रता का अनुभव करते हों। वास्तव में ऐसे कर्मवीर जो धन अथवा तन से दरिद्र होते हुए भी मन से दरिद्रता का अनुभव न करते हों, वे दरिद्र ही नहीं हैं। इतिहास में ऐसे अनेक ज्ञात-अज्ञात उदाहरण मौजूद हैं कि जिनके घर में बेहद गरीबी थी, परन्तु अपने आत्म-विश्वास और प्रबल उत्साह के साथ उन्होंने पुरुषार्थ किया और वे सफल हुए। फ्रांस में २७ दिसम्बर १८२२ को एक मजदूर परिवार के घर एक बच्चे का जन्म हुआ। बालक का नाम रखा 'लुई' । इसका गरीब परिवार चमड़े की चीजें बनाने का काम करता था । चमड़े के सूटकेस, पर्स, छोटे बक्स आदि बनाता तथा मरम्मत करता था। इस छोटे-से काम में चारों ओर प्रायः गरीबी, अभाव और मजबूरी का वातावरण था । लुई मोची का पुत्र था। जिस बच्चे को दो टाइम भरपेट भोजन उपलब्ध नहीं, जाड़े से बचने के लिए पर्याप्त वस्त्र नहीं, उसके पढ़ने-लिखने की आशा करना आकाश-कुसुम को पाने की इच्छा के समान दुराशा थी। घर का वातावरण पढ़ने-लिखने में तनिक भी रुचि उत्पन्न करने वाला न था। परन्तु मोची अपने पुत्र लुई से कहता रहता-“लुई ! मैं जब और पढ़े-लिखे लोगों के लड़कों को देखता हूँ तो मेरी भी इच्छा होती है कि तुम भी पढ़ालिखकर अच्छे विद्वान् बनो, दुनिया में नाम कमाओ।" लुई कहता-"पिताजी ! आप ही तो कहते हैं कि तू मेरे काम में हाथ बंटा। सारे दिन मेरे हाथ में चमड़ा काटने की रापी, डोरा आदि रहते हैं, फिर इन हाथों में किताब और कलम कहाँ से रहे ?" ___ मोची कहता-"यह मेरी मजबूरी और खुदगर्जी है । लुई ! मेरी गलती है। मैं गरीबी और अभाव में समय काट लूंगा । एक समय भूखा रहकर जिंदगी पूरी कर लूंगा, पर तुम तो कम से कम ऊँचे उठो, विद्वान् बनो, नाम कमाओ।" १. तिलोक काव्य संग्रह, द्वितीय बावनी, गा० १३, पृ० १८ For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ ___ मोची ने लुई के लिए कुछ किताबें खरीदीं। उसे स्कूल में भर्ती कराया, पर लुई का मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगा। पिता ने एक .ध्यापक रखकर पढ़ाने का प्रबन्ध किया। उसने लुई को पढ़ाने में कठोर परिश्रम किया, लेकिन अन्त में उसे मन्द-बुद्धि कहकर तिरस्कृत कर दिया गया । पिता बहुत दुःखी व चिन्तित रहता था, अपने बच्चे के भविष्य के लिए। उसने लुई को पुनः-पुनः समझाने की कोशिश की और उसे उच्छाई की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। यह भी कहा-“लुई ! मेरी बड़ी इच्छा है कि तुम समाज-सेवा का कोई कार्य पढ़-लिखकर करो। हो सके तो विज्ञान पढ़ो। क्योंकि उसमें भी तरक्की की बहुत गुजाइश है, पर तुम पढ़ने में काफी दिलचस्पी नहीं ले रहे हो।" लुई कहता-“मैं पढ़ता तो हूँ लेकिन मेरे दिमाग में कोई बात बैठती ही नहीं, करूं क्या ?" कभी-कभी पिता की गरीबी और लाचारी को देखता और उनके द्वारा प्रोत्साहन और आशा को देखता तो वह रो उठता। पिता बीच-बीच में लुई का मन पढ़ाई में न लगता देख हताश-निराश हो उठता, परन्तु पिता द्वारा बार-बार प्रोत्साहन और प्रेरणा से अब लुई में परिवर्तन आने लगा। बूंद-बूंद पानी गिरने से पत्थर पर भी निशान हो जाता है। लुई ने अपने गरीब पिता की महत्त्वाकांक्षा को ध्यान में रखकर भगवान् को साक्षी से संकल्प किया-'अब मैं पूरी निष्ठा से अध्ययन करूंगा। मैं मन को पढ़ने-लिखने में लगाऊंगा और विद्वान् वैज्ञानिक बनूगा। सच्ची लगन से मुझे अभीष्ट सफलता मिलेगी, मेरे निर्धन पिता की आत्मा सन्तुष्ट होगी।' इस प्रकार लुई फिर से अध्ययन में जुट गया। प्राथमिक शिक्षा के लिए उसने 'अरवोय' की एक पाठशाला में दाखिला लिया। फिर कठिनाई के काले बादल मंडराने लगे । संस्कारवश उसकी मोटी बुद्धि विद्या जैसे सूक्ष्म विषय में गतिमान न हो सकी। सावधानी से पढ़ने पर भी लुई को कक्षा में पढ़ाया हुआ पाठ समझ में न आता, न ही याद होता था। इस कारण वह कक्षा में बुद्ध समझा जाने लगा। अध्यापकों ने उसे पढ़ाई छोड़कर किसी व्यवसाय म लगने की राय दी। विज्ञान पढ़ने का कार्य तेरे बूते का नहीं' यह निर्णय लुई ने सुना तो अपनी मोटी बुद्धि पर उसे बड़ा तरस आया । एक बार तो हताश होकर पढ़ाई छोड़ने का विचार कर लिया, फिर पिताजी की आकांक्षा, कारुणिक चहरा और आत्म-तृप्ति को धक्का, यह सब सोचकर उसने अपना खोया हुआ साहस पुनः बटोरा । आलोचनाओं की परवाह न करते हुए वह पुनः पढ़ने में जी-जान से जुट गया। उसे अब पता लग गया कि उसमें आत्मविश्वास की कमी थी, जिसके कारण उसकी बुद्धि अड़चन बनी हुई थी, उसे शिक्षा में आगे नहीं बढ़ने दे रही थी । अतः इस बार लुई पूरे आत्मविश्वास के साथ पढ़ने लगा। इस लगन के कारण विज्ञान के गूढ़ नियम और पुस्तके उसको समझ में आने लगीं। उसकी बुद्धि बढ़ने लगी। धीरे-धीरे विज्ञान में तरक्की की। गरीब पिता ने कुछ पैसे इकटे करके उसे For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत और दरिद्र को समान मानो ३४३ पेरिस भेज दिया, फिर उसकी इच्छा रसायनशास्त्र पढ़ने की हुई। फलतः वह न केवल रसायनशास्त्र में पारंगत हुआ, बल्कि चिकित्साशास्त्र में भी वह विद्वान् हो गया। वही गरीब मोची का लड़का 'लुई पाश्चर' के नाम से विख्यात हुआ । उसने अपनी मौलिक सूझ-बूझ से विषैले जन्तुओं द्वारा काटे जाने पर मनुष्यों को मरने से बचाने की दवाई की खोज की। फोड़ों की चीर-फाड़ के बाद सड़ने से बचाने के लिए दबाई खोज निकाली। पागल कुत्तों द्वारा काटे गये मनुष्यों के इलाज के इंजेक्सन निकाले । संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए लुई के नाम पर 'पाश्चर इन्स्टीट्यूट' नाम से लुई की परोपकारी भावना का प्रतीक आज भी मौजूद है। लुई के चरित्र को देखकर कौन कह सकता है कि दरिद्र पिता का पुत्र सदैव दरिद्र ही रहता है, वह मन का दरिद्र न बने तो दिल का धनिक बन सकता है। धन की दरिद्रता तब उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकती। तन की दरिद्रता होने पर भी मन से दरिद्रता महसूस न करने के कारण अंधी, मूक और बहरी महिला 'हेलन केलर' ने जगत् में अद्भुत सफलता प्राप्त करके दिखा दी। जगत् के सभी लोग उसकी अद्भुत क्षमता देखकर दाँतों तले उंगली दबाने लगे । इसी प्रकार विश्व में ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने शरीर से लूले, लंगड़े एवं अंगविकल होने पर भी-अर्थात् तन से दरिद्र होते हुए भी मन से दरिद्रावस्था महसूस न करके अद्भुत क्षमता अर्जित कर ली, सफलता उनके चरण चूमने लगी। भाग्य खुलते हैं मनोदारिद्र य एवं अनैतिकता दूर करने से कई लोग तन से दरिद्र न होते हुए भी अपने आलस्य, अकर्मण्यता, उत्साहहीनता, आत्महीनता आदि दुर्गुणों के कारण धन से भी दरिद्र बने रहते हैं, और मन से तो दरिद्र होते ही हैं । धन से दरिद्र होने पर भी अगर मानसिक दुर्बलताएं न हों तो कोई खास कारण नहीं कि धन की दरिद्रता चिरकाल तक टिक सके । परन्तु धन से दरिद्र लोग अकसर अपने दुर्भाग्य का रोना रोते रहते हैं, वे अपनी अकर्मण्यता, आत्मविश्वास की कमी, आत्महीनता, आलस्यवृत्ति आदि को नहीं देखते, न ही उत्साहपूर्वक दरिद्रता-निवारण का प्रयत्न करते हैं। वास्तव में उनकी दरिद्रता का कारण दुर्भाग्य तो कम होता है, प्रायः मानसिक दरिद्रता और आत्महीनता ही अधिक होती है। कई लोग अपनी दरिद्रता का कारण भगवान या ईश्वर की कृपा या देवी-देवों के अनुग्रह का अभाव समझते हैं, परन्तु वे यह नहीं समझते कि देवी-देव या भगवान भी किसी के शुभकर्मों का उदय हो, पुण्य प्रबल हो, तभी उस पर प्रसन्न होकर सहायता कर सकते हैं। परन्तु कई धन और मन से दरिद्र लोग अपना पुण्य प्रबल करने और दरिद्रता के कारणभूत अशुभकर्मों का निवारण करने का कोई उपाय या पुरुषार्थ नहीं करते, वे सिर्फ या तो देवी-देवों की मनौती करने लगते हैं, या भगवान को प्रसन्न For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ करने के लिये उस पर नारियल आदि चढ़ाते हैं, दीपक जलाते हैं, फूल चढ़ाते हैं और ढोंग तथा आडम्बर करते हैं । परन्तु ऐसा करने से अशुभकर्मों का नाश नहीं होता, नही पुण्य प्रबल होता है । फिर भाग्य के द्वार कैसे खुल सकते हैं ? भाग्य के बिना दरिद्रता कैसे दूर हो सकती है ? भाग्य खुलते हैं - दान देने से, जो कुछ भी अपने पास मन, वचन, तन, धन और साधन की शक्ति और क्षमता है, उन्हें निःस्वार्थ भाव से परहित में लगा देने से, अभिमान न करने से, शक्तियों का मद न करने से, चोरी, जुआ आदि दुर्व्यसनों से दूर रहने से तथा फैशन - विलास, व्यर्थ के आमोद-प्रमोद आदि में अत्यधिक खर्च न करने से; न्याय, नीति, ईमानदारी, सत्यता आदि पर चलने से । परन्तु आलसी और अकर्मण्य लोग भाग्य का ताला खोलने की इन चाबियों को न अपनाकर सीधे ही ईश्वर, भगवान या देवी- देवों को मनाने दौड़ते हैं । ऐसा करने से न तो भाग्य ही खुलता है और न ही दरिद्रता दूर होती है । एक पाश्चात्य विचारक Hunter (हंटर ) ने ठीक ही कहा है Idleness travels slowly and poverty soon overtakes him. "आलस्य धीरे-धीरे यात्रा करता है, और दरिद्रता शीघ्र ही उस पर हावी हो जाती है ।" वास्तव में दान आदि करने से तथा नैतिकतायुक्त पुरुषार्थं करने से ही भाग्य खुलते हैं, दरिद्रताजनक अशुभकर्म दूर होते हैं । परन्तु देखा जाये तो आज अधिकांश लोग दरिद्रता का रोना रोते हैं, भाग्य को कोसते रहते हैं, परन्तु वे भाग्य खुलने एवं दरिद्रता को दूर करने के लिये कोई पुरुषार्थं नहीं करना चाहते । अधिकांश लोग फैशन के पुतले बनकर अपना बहुत-साधन फूँक देते हैं । अगर प्रत्येक परिवार में फैशन और विलास का वार्षिक खर्च जोड़ा जाये तो वार्षिक खर्च कम से कम दो हजार रुपये तो होगा ही । फिर सौन्दर्य प्रसाधन एवं तेल, साबुन, सेंट, पाउडर, क्रीम, स्नो आदि का खर्च अतिरिक्त है । इसके अतिरिक्त बढ़िया वस्त्रों, आभूषणों एवं सूटबूट आदि में भी प्रतिवर्ष हजारों रुपये उड़ाये जाते हैं । दुर्व्यसन के नाम पर मद्य, सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू आदि में प्रति परिवार हजारों रुपयों का खर्च है । यह तो प्रत्येक परिवार के खर्च का अनुमानित व्यय का लेखा-जोखा है । यदि सारे भारत का वार्षिक अपव्यय का हिसाब लगाया जाए तो करोड़ों-अरबों तक जा पहुँचेगा । एक ओर तो इतना अपव्यय, दूसरी ओर विवाह, मृत्यु उत्सव आदि कई कुरूढ़ियों में दिखावा तथा प्रदर्शन करके करोड़ों रुपयों का धुंआ भारतवर्ष में किया जाता है । तीसरी ओर मध्यमवर्गीय परिवारों की दयनीय हालत यह है कि कमाने वाले एक दो हैं तो खाने वाले हैं— दस । स्त्रियाँ अक्सर कमाने नहीं जातीं, लड़के-लड़कियाँ आजीविका का कोई काम प्रायः नहीं करते । यही कारण है कि वे दुःख, दुर्भाग्य और दारिद्रय का चक्की में पिसते रहते हैं । ऊपर से कमर-तोड़ महंगाई है, वह भी दरिद्रता की For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत और दरिद्र को समान मानो ३४५ ज्वाला में वृद्धि करने के लिए आहुति डालती रहती है । इस प्रकार फैशन, विलास, दुर्व्यसन, खोटे रीति-रिवाज, अमीरी का प्रदर्शन, कर्जदारी, कम आय, अधिक खर्च, परिवार में श्रमनिष्ठा कम, आलस्य, आत्महीनता आदि सब मिलकर भारत की अधिकांश जनता के दारिद्रय में वृद्धि करती रहती है । संकल्प के वाले को इन सब कारणों के रहते भारत में कंगाली नहीं आएगी तो क्या होगा ? जब तथाकथित दरिद्रों के समक्ष दरिद्रता निवारण की पूर्वोक्त योजना रखी जाती है, गरीबी हटाने के लिए पूर्वोक्त अपव्ययों को दूर करने के लिए कहा जाता है तो वे बगलें झाँकने लगते हैं, उलटे हितकर उपदेश देने कोसा जाता है, उसे अपने मार्ग का रोड़ा समझा जाता है । अधिक संतानों का बहुत बड़ा कारण है । परन्तु संयमपूर्वक संतति नियमन के लिए कोई कहता है तो तथाकथित दरिद्रता के शिकार लोगों को बहुत ही बुरा लगता है। वे दरिद्रतानिवारण के सात्त्विक उपायों को अपनाने के लिए तैयार नहीं, तब कैसे भाग्य खुलेगा और कैसे लक्ष्मी के दर्शन होंगे ? बोझ भी दरिद्रता का दीपावली के अवसर पर लोग लक्ष्मी पूजा करते हैं, परन्तु उसी लक्ष्मी को पटाखे, आतिशबाजी, फिजूलखर्ची आदि में खर्च करके अपने घर से धक्का देकर निकाल देते हैं । क्या यह लक्ष्मी का अपमान नहीं है ? घर में आई हुई लक्ष्मी शुभ कार्यों में व्यय करने के लिए ही बहियों में, घर के द्वार पर लिखा जाता है— 'लाभ' और 'शुभ' | लाभ के साथ शुभ कार्य न हो तो लक्ष्मी कहाँ से टिकेगी ? बन्धुओ ! भाग्य खुले बिना लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती और भाग्य खुलने के लिए कई कारणों का जिक्र मैंने संक्षेप में कर दिया है । शुभ कार्यों के करने से भाग्य खुलते हैं, तब सभी बातें अनुकूल हो जाती हैं । एक बार गुजरात के मूक लोकसेवक रविशंकर महाराज कुछ अध्यापकों से मिले । उनकी समस्याएं सुनीं। सभी कहने लगे - " हमारा वेतन प्रतिमास दस रुपया और बढ़ जाए तो हम अपना निर्वाह ठीक तरह से कर सकें ।" रविशंकर महाराज ने उनकी वृत्ति प्रवृत्ति देखकर कहा - " अगर मेरी बात मानो तो मैं तुम्हारा वेतन प्रतिमास दस रुपया अधिक करा सकता हूँ ।" उन्होंने कहा - "हाँ, हाँ, क्यों नहीं मानेंगे आपकी बात ? आप बताइए तो सही, वेतन वृद्धि का उपाय ?" सभी अध्यापक बीड़ी पीते थे । साथ ही जर्दा सुर्ती खाते थे । अत: रविशंकर महाराज ने पूछा—“अच्छा, यह बताइए तो, आप प्रतिमास कितने रुपये बीड़ी, माचिस, जर्दा- सुर्ती आदि में खर्च करते हैं ?" एक अध्यापक ने कहा - " हिसाब तो नहीं लगाया, परन्तु अनुमान से हम प्रतिमास लगभग १५ रुपये तो इन व्यसनों में खर्च कर ही डालते हैं ।" For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ रविशंकर महाराज ने कहा-"तो लो, मेरी बात मानकर इन फालतू व्यसनों को आज से ही तिलांजलि देकर प्रतिमास दस रुपयों के बदले पन्द्रह रुपयों की बचत कर लो तो तुम्हारा वेतन प्रतिमास १५) रुपये अधिक हो जाएगा। क्यों आप लोगों की समझ में आगया न ? ये दुर्व्यसन आज से मेरी झोली में डाल दो और जो १५) रुपये बचें, उन्हें वेतनवृद्धि के रूप में मानो।" परन्तु अध्यापकों ने श्री रविशंकर महाराज की यह हित-शिक्षा न मानी, तब दरिद्रता-निवारण और भाग्यद्वार का उद्घाटन कैसे होता ? दुर्व्यसनों से तन, मन, धन और धर्म चारों की हानि होती है, कोई भी फायदा नहीं है, फिर भी दरिद्रता की चक्की में पिसने वाले लोग इन्हें छोड़ना कहाँ चाहते हैं ? केवल भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाले लोगों का भाग्य कदापि नहीं खुलता, वे आमतौर पर दुर्भाग्य के ही शिकार बने रहते हैं । एक बार दो देवों में एक बात पर विवाद खड़ा हो गया। दोनों में एक मिथ्यात्वी था, दूसरा था सम्यक्त्वी। मिथ्यात्वी देव कहता था-"दिव्य शक्तिधारी देव चाहे जिसको भाग्यवान बना सकता है ?" जबकि सम्यग्दृष्टि देव का कहना था"चाहे जितना शक्तिशाली देव हो, बिना भाग्य के किसी को कुछ नहीं दे सकता है, न ही सम्पन्न बना सकता है।" दोनों ने परीक्षा करके निश्चय करने की ठानी। सम्यक्त्वी देव ने अपने अवधिज्ञान से एक जाट परिवार को दुर्भाग्यपूर्ण जानकर मिथ्यात्वी देव से कहा-"बनाओ जाट, जाटनी और जाट के युवा पुत्र को भाग्यवान् ! इनकी दरिद्रता दूर करो।" मिथ्यात्वी देव ने कहा-"ऐसा ही होगा।" यह कह कर उसने तीनों के रास्ते में रत्नों के ढेर लगा दिये । सोचा कि रत्नों को प्राप्त करके ये तीनों सुखी हो जाएंगे। ___ इधर ये तीनों वार्तालाप कर रहे थे कि तीनों को एक नई बात सूझी कि अगर हम तीनों एक साथ अंधे हो जाएंगे तो अपना काम कैसे चलाएँगे ? अतः अभी से ही हमें इस (अंधे होने) का अभ्यास कर लेना चाहिए; ताकि समय पर अपना काम रुके नहीं। बस, तीनों भाग्यहीनों ने आँखों पर पट्टियाँ बाँध लीं, हाथों को आगे-आगे हिलाते चलने लगे। रास्ते में रत्नों के ढेर पर पैर रखकर चलते हुए बोले-"आज रास्ते में किसी ने इतने कंकड़ बिछा दिये हैं कि चलना मुश्किल हो रहा है।" जैसे-तैसे रास्ता तय किया। आगे जाकर उन्होंने आँखों पर से पटियां खोल दी और कहने लगे-"अब कोई हर्ज नहीं, हम अंधे भी हो जाएंगे तो भी अपना काम चला ही लेंगे।" _____ सम्यग्दृष्टि देव ने कहा- 'देखा, इन भाग्यहीनों को, ये तुम्हारे बिखरे हुए रत्नों के ढेर पर आँखों पर पट्टी बाँधकर चलने लगे। बना दिया तुमने इन्हें भाग्यवान ?" For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत और दरिद्र को समान मानो ३४७ मिथ्यात्वी देव-"नहीं बना सका इन्हें भाग्यवान ! इन भाग्यहीनों को तो उलटी बात सूझती है।" - सम्यक्त्वी देव-"तो चलो, हम किसी भविष्योज्ज्वल गरीब आदमी की परीक्षा करके देख लें।" दोनों देव नगर में आये । वहाँ मार्ग में एक अन्धा भीख मांग रहा था । यह माता-पिता और घर से वंचित है, दरिद्र है । सम्यक्त्वी देव ने अवधिज्ञान से देखा कि इसने शुभकर्म किये हैं, इस कारण इसका अब भाग्योदय होने वाला है। इसे वरदान देना चाहिए । दोनों देव बात-चीत करते हुए उस अन्धे के पास से गुजरे। अन्धे ने विनयपूर्वक पूछा-'भाई साहब ! आप कौन हैं ?" दोनों देव बोले-"हम सिद्धपुरुष हैं। जो चाहो सो मांग सकते हो, पर वरदान एक ही मांगना होगा।" अन्धा भिखारी बुद्धि से दरिद्र नहीं था, उसने बहुत कुछ सोच-विचारकर कहा-"मुझे यही वरदान दे दें कि मैं अपने पोते को सतमंजिले मकान में सोने के थाल में खीर-खांड का भोजन करते देखू ।" प्रसन्नचित्त एवं आशापूर्ण अन्धे भिखारी की वरयाचना सुनकर दोनों देव बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने 'तथास्तु' कहा । अचिन्त्य शक्ति के प्रभाव से अन्धे की आँखें खुल गई, धन और सोना मिल गया, सात मंजिला मकान भी खड़ा हो गया। विवाह हो गया और कुछ ही वर्षों में उसके बेटा और पोता भी हो गया। तन, मन और धन सभी प्रकार की दरिद्रताएं दूर हो गईं। ये हैं दुर्भाग्य और सौभाग्य के परिणाम ! नैतिक दृष्टि से दरिद्र भी भाग्यहीन कई लोग तन की दृष्टि से तो दरिद्र नहीं होते, परन्तु नैतिक दुर्बलताएं उन्हें दरिद्र और भाग्यहीन बना देती हैं । धन से दरिद्र नैतिक दुर्बलताओं के कारण होता है, परन्तु किसी हितैषी के समझाने पर भी वह अपने अनैतिक कार्यों, दुर्व्यसनों या बुरी आदतों को नहीं छोड़ता, वह अपनी गलती नहीं सुधारता। यही कारण है कि वह दरिद्रता के दुष्परिणाम भोगता रहता है । वह मद्यपान, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, चोरी, डकैती, लूटपाट, जुआ, मांसाहार, बेईमानी, ठगी, चोरबाजारी, अन्याय, अत्याचार, शोषण आदि नैतिक दुर्बलताओं का शिकार बनकर अधिकाधिक दरिद्रता के शिकंजे में फंसता जाता है । चोरी आदि से भले ही थोड़ा-सा क्षणिक संतोष उसे हो जाये, परन्तु चोरी आदि अनैतिक उपायों से प्राप्त धन अधिक नहीं टिकता, वह बीमारी, मुकदमेबाजी आदि रास्तों से निश्चित ही चला जाता है, या सरकार छीन लेती है; बदनामी, हैरानी, अपकीर्ति, अधर्मवृद्धि, पापकर्मबन्ध आदि होता है सो अलग। अतः दरिद्रता के निवारण का मूल उपाय सदाचार, नैतिकता और शुद्धधर्म की राह पर चलना है । इसी से ही व्यक्ति के पुण्य प्रबल होंगे, भाग्य खुलेंगे। For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ ३४८ दरिद्रता का शिकार मृत है वास्तव में देखा जाये तो पूर्वोक्त सभी प्रकार की दरिद्रताओं का शिकार एक तरह से मृत ही है । महर्षि गौतम की अनुभव की आँच में तपी हुई यह उक्ति वास्तव में यथार्थ है कि 'दरिद्र और मृत को समान मानो' । उसे प्रश्न होता है कि दरिद्र मनुष्य चाहे दरिद्र हो, परन्तु है तो वह जीवित ही, मृत क्यों और किस दृष्टि से कहा गया है ? आपको मैं दारिद्र्य के परिणाम संक्षेप में बता दूं, जिससे आप इस बात को भली-भाँति समझ सकेंगे । दरिद्र को मृत क्यों कहा गया है ? दरिद्र आदमी को पेट भरने के लिए इधर-उधर भटकना पड़ता है, मगर उसे माँगने से भी कई दफा नहीं मिलता, गालियाँ और धिक्कार मिलते हैं, कई बार उसे मार भी पड़ती है । अगर कहीं कुछ माँगने जाता है तो गृहस्वामी चोर या उचक्का होने की शंका से उसे धक्का देकर निकाल देता है । एक कवि कहा है लखि दरिद्र को दूर तें, लोग करें अपमान । जाचक-जन ज्यों देखि कै, भूसत हैं बहु स्वान ॥ महात्मा गांधी के द्वारा प्रेरित पत्र - 'प्रिजन सेवक' में वर्षों पहले एक धनिक का आत्मव्यथापूर्ण पत्र छपा था । पत्र हरिजन सेवक के सम्पादक 'श्री किशोरलाल मवाला' पर आया था । पत्र का संक्षेप में भावार्थ यह था कि एक धनिक सेठ के पास एक भूतपूर्वं सम्पन्न किन्तु वर्तमान में दरिद्र बढ़ई मिलने आया । बहुत देर तक द्वार पर खड़ा रहा, किन्तु सेठ ने कोई ध्यान नहीं दिया । आखिर वह साहस करके पास पहुँचा, अपनी व्यथाकथा सुनाई कि सेठजी ! मैं एक अच्छा मिस्त्री था, कुर्सी, टेबल आदि लकड़ी का सामान बनाता था । किन्तु दुर्भाग्य से मेरे कारखाने में आग लग गई । सब सामान जलकर खाक हो गया । मैं बिलकुल निर्धन हो गया । खाने-पीने की भी तंगी आगई । क्या करू ? किससे माँगूँ, कहाँ जाऊ यों दो दिन तो इसी उधेड़-बुन में रहा । किसी ने आपका नाम मुझे सुझाया कि सेठजी उदार हैं, वे तुम्हें कुछ काम दे देंगे । अतः मैं इसी आशा से आपके पास आया हूँ कि कुछ मिल जाय तो मैं अपना गुजारा काम चला लूं । इस पर सेठ तमककर बोला - " जाओ जाओ यहाँ से । मेरे यहाँ अभी कोई काम नहीं है, जो तुम्हें दे दूँ । मुझे निठल्लों की फौज नहीं भर्ती करनी है । और फिर तुम इतने दुर्बल हो कि कुछ काम कर सकोगे, इसमें सन्देह है ।" बढ़ई ने बहुत अनुनय-विनय की कि ''सेठजी ! जैसा भी होगा, मैं बहुत For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत और दरिद्र को समान मानो ३४६ वफादारीपूर्वक काम करूंगा । भोजन करने से मेरे शरीर में शक्ति आएगी । तो मैं काम कर सकूँगा ।" सेठ का पारा गर्म हो गया, बोला- “जाओ, हटो यहाँ से । मेरा सिर मत खपाओ ।" दरिद्र बढ़ई बोला—“अच्छा सेठजी ! मैं तीन दिन का भूखा हूँ । मुझे कुछ भोजन तो करा दें, जिससे थोड़ी-सी शरीर में स्फूर्ति आ जाये ।" सेठ बोला- ' ' जा- जा यहाँ से ! यहाँ क्या भोजन रख गया था ? यहाँ लंगर थोड़े ही है, जो भोजन मिलेगा ।" बेचारा दरिद्र बढ़ई निराश होकर चलने लगा । उसे सेठ से ऐसी आशा नहीं थी कि एक मानव का इतना अपमान करेगा । उसने चलते-चलते सेठ से फिर कहा - " सेठजी ! मुझे सिर्फ एक पैसा दे दें, मैं चने खाकर पानी पी लूँगा ।" परन्तु सेठ ने साफ इन्कार कर दिया – “यहाँ कुछ न मिलेगा ।" वढ़ई दरिद्र था । दरिद्र का आत्म-सम्मान मर ही जाता है, उसको चाहे जैसे उलटे-सीधे फटकार - तिरस्कार के वचन सहने पड़ते हैं । क्या इस दरिद्रावस्था और मृतावस्था में कोई अन्तर है ? मृच्छकटिक नाटक में दरिद्रता का चित्रण करते हुए कहा गया है— दारिद्र्यात् ह्रियमेति ह्रीपरिगतः प्रभ्रश्यते तेजसो । निस्तेजाः परिभूयते परिभवान्निर्वेदमापद्यते ॥ निर्विण्णः शुचमेति शोकपिहितो बुद्ध या परित्यज्यते । निर्बुद्धिः क्षयमेत्यहो निधनता सर्वापदामास्पदम् ॥ १ ॥ दारिद्रयात्पुरुषस्य बान्धवजनो वाक्ये न संतिष्ठते । सुस्निग्धा विमुखीभवन्ति सुहृदः स्फारीभवन्त्यापदः ॥ सत्त्वं ह्रासमुपैति शीलशशिनः कान्तिः परिम्लायते । पापं कर्म च यत् परैरपि कृतं तत् तस्य सम्भाव्यते ॥ २ ॥ " अर्थात् - दरिद्रता से मनुष्य लज्जित हो जाता है, लज्जाहीन होने से उसका तेज नष्ट हो जाता है । निस्तेज मनुष्य का जगह-जगह अनादर होता है। जगह-जगह अनादर होने से उसे ग्लानि हो जाती है । ग्लानियुक्त मनुष्य शोक करने लगता है और शोकपीड़ित मनुष्य का बुद्धि परित्याग कर देती है । अहो, दरिद्रता समस्त आपदाओं का स्थान है । दरिद्रता के कारण दरिद्र व्यक्ति का उसके बांधवगण कहना नहीं मानते । जो उसके मित्र या स्नेहीजन हैं, वे विमुख हो जाते हैं, आफतें बढ़ जाती हैं । दरिद्र का सत्त्व क्षीण हो जाता है, शीलरूपी चन्द्रमा को कान्ति फीकी पड़ जाती है, तथा जो पापकर्म दूसरों ने किया है, उसकी शंका उसके प्रति की जाती है । सचमुच दरिद्रता एक प्रकार की मृत्यु है । इसीलिए आगे चलकर इसी नाटक में कहा है For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० आनन्द प्रवचन भाग ११ दारिद्र यान्मरणाद् वा मरणं मे रोचते न दारिद्र यम् । अल्पक्लेशं मरणं, दारिद्र यमनन्तकं दुःखम् ॥ -दरिद्रता और मृत्यु इन दोनों में से मुझे मृत्यु ही पसंद है, दरिद्रता नहीं । मृत्यु में तो एक बार थोड़ा-सा कष्ट होता है, परन्तु दरिद्रता के कष्टों का कोई अन्त ही नहीं है। उस बढ़ई ने सोचा-इस दरिद्रता से तो मरना ही अच्छा । मेरे लिए अब इस संसार में कोई स्थान नहीं है । जहर के लिए भी एक पैसा मिल जाता तो मैं जीवन का आसानी से अन्त कर देता । अब तो मृत्यु की शरण लेना श्रेयस्कर है। रेलगाड़ी की पटरी तो सबके लिए सुलभ है, उसमें तो कोई पैसा नहीं लगता । बस, दरिद्रतापीड़ित वह बढ़ई सब ओर से निराश होकर रात को रेल की पटरी पर लम्बा सो गया। गाड़ी धड़धड़ाती हुई आई और एक ही झटक में बढ़ई के शरीर पर फिर गई। शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो गये। इंजिन ड्राइवर ने गाड़ी रोकी । यात्रियों में से कुछ लोग अचानक गाड़ी रुकने के कारण उतर पड़े, देखा कि एक आदमी रेलगाड़ी के नीचे कटकर मर गया है । लोग अफसोस करने लगे । उसकी जेबें टटोली गई, जेब में एक पर्ची निकाली, जिस पर लिखा था-"इस संसार में मेरा जीना व्यर्थ है, मैं एक पैसे के लायक भी नहीं, इसलिए इस संसार से मैं विदा होता हूँ।" __ अफसोस करने वाले यात्रियों में वह सेठ भी था, जिसने उस बढ़ई को एक पैसा देने से भी इन्कार कर दिया था। उसने ज्यों ही वह पर्ची पढ़ी स्मृतिपट पर उस बढ़ई का चित्र उभर आया। उसकी आँखों से आँसू उमड़ पड़े। घोर पश्चात्ताप हुआ—'हाय ! मेरे कारण से इसे आत्महत्या करनी पड़ी। इस घटना से आप अनुमान लगा सकते हैं कि दरिद्रता कितनी बुरी है ! दरिद्रता मनुष्य को मरने के लिए विवश कर देती है, दीन-हीन, पराधीन बना देती है। दरिद्र व्यक्तियों के साथ अमीर लोग बेरहमी से पेश आते हैं। उन पर मनमाना अत्याचार करते हैं। अपना शील और सतीत्व भी दरिद्रता की बलिवेदी पर चढ़ा दिया जाता है। दरिद्रावस्था में पारस्परिक प्रेम का नाश हो जाता है, नैतिक दृष्टि से भी मनुष्य निर्बल हो जाता है। उसका तेजोवध हो जाता है । इसीलिए एक कवि कहता है जीवन्तोऽपि मृताः पंच व्यासेन परिकीर्तिताः । दरिद्रो व्याधितो मूर्खः प्रवासी नित्यसेवकः ॥ वेदव्यास ने इन पांचों को जीवित रहते हुए भी मृतवत् कहा है-(१) दरिद्र, (२) व्याधिग्रस्त, (३) मूर्ख (४) प्रवासी और (५) नित्यसेवक । इसीलिए दरिद्रता के दुःख का वर्णन करते हुए एक कवि ने परमात्मा से प्रार्थना की है For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत और दरिद्र को समान मानो ३५१ देने वाले ! किसी को गरीबी न दे, मौत दे दे, मगर बदनसीबी न दे। छीन ली हर खुशी और कहा कि न रो, गम हजारों लिये, दिल भी देने थे सौ। करके हम पै सितम, खुश न हो। देने वाले......... ....।। छोड़कर यह जहाँ; बोल जाएँ कहाँ, कोई गमख्वार है, न कोई मेहरबाँ । खुद कहें खुद सुनें दासताँ दासताँ ।। देने वाले" जैसे लोग मृत व्यक्ति से घृणा करते हैं, कोई उसे घर में नहीं रखता वैसे ही दरिद्र का हाल हो जाता है । दरिद्र को देखते ही लोग उसे नफरत भरी दृष्टि से देखते हैं, उसे दुरदुराते हैं। यह कुत्ते का सा अपमानित जीवन स्वाभिमानी के लिए मरण से भी बदतर है । दरिद्रावस्था में मनुष्य किस प्रकार मृतवत् होकर मृतक का-सा कष्ट सहता है ? इसे समझने के लिए एक प्राचीन कथा लीजिए सारण उज्जयिनी का प्रमुख जुआरी था। एक दिन वह जुए में सर्वस्व हार गया। उसके यहाँ एक टाइम खाने के लिए भी भोजन न रहा। अतः सारण रात को नगर में घूमता-घूमता एक बनिये के घर के बाहर पिता-पुत्र की परस्पर होती हुई बातचीत सुनने के लिए खड़ा रहा। पिता कह रहा था-"बेटा ! हमें विपत्तिनिवारणार्थ कुछ धन सुरक्षित रखना चाहिए।" पुत्र बोला-"हाँ, पिताजी ! ऐसा ही करें ।" पिता बोला-"दस हजार स्वर्णमुद्राएँ हम श्मशान में गाड़ देते हैं।" यह बात सारण जुआरी ने सुनी । वह उनसे पहले ही श्मशान में जाकर जहां मुर्दे पड़े थे, उनके पास सो गया। थोड़ी देर में पिता-पुत्र दोनों द्रव्य लेकर श्मशान में पहुँचे, जमीन पर थली रखी । पिता ने कहा-"बेटा ! चारों ओर देख आ। कोई कपटी देख लेगा तो गड़ा हुआ द्रव्य निकालकर ले जायेगा ।" पुत्र ने जाकर देखा तो मुर्दो के बीच में सारण को भी देखा, भलीभांति परखा, नाक तथा मुह पर हाथ रखकर देखा, श्वास की हवा निकलती न देखी, फिर हिलाकर देखा। पिता के कहने पर दूसरी बार फिर गया, उसकी टाँगें खींचकर घसीटा, उछाला और एक ओर डाला, फिर भी वह मुर्दे की तरह न हिला न डुला । पिता से आकर सारी बात कही। पिता ने कहा-"बेटा ! उसके नाक-कान काटकर ले आ। फिर पता लगेगा।" पुत्र ने वैसे ही किया, पर धूर्त बोला नहीं । पिता-पुत्र दोनों को निश्चय हो गया कि यह मुर्दा ही है, अतः उस धन को जमीन में गाड़कर दोनों अपने घर आये। इधर धूर्त सारण ने जमीन में गड़ा हुआ धन निकाला और अपने घर आया। एक दिन सेठ For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ आनन्द प्रवचन भाग ११ ने अपने पुत्र से कहा-"अपना गड़ा हुआ धन जाकर देख आ।" पुत्र वहाँ गया, किन्तु वहाँ धन गायब । पुत्र ने आकर पिता से कहा । पिता ने कहा- "मुझे तो उसी पर शंका है, जिसके तू नाक-कान काटकर लाया था।" दोनों ने उसे खोजा तो एक जगह सुन्दर वस्त्राभूषण पहने जुआ खेलते हुए देखा । नाक-कान कटे हुए थे। सेठ ने उसे धिक्कारा । अंत में कहा-"जो द्रव्य बचाहो तो उसे ले आ । तुझे भी कुछ दे दूंगा।" जुआरी ने बचा हुआ धन सेठ को सौंप दिया। सेठ ने कुछ द्रव्य उसे देकर विदा किया। ___दरिद्र को अपनी दरिद्रतावश मुर्दे की तरह कितना कठोर आघात सहना पड़ा। इसीलिए गौतम महर्षि ने इस जीवनसूत्र में कहा है मुआ दरिद्दा य समं विभत्ता For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगी प्रवचन साहित्य राष्ट्रसन्त आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज जैन धर्म, दर्शन, इतिहास और संस्कृति के गम्भीर विवान तो हैं ही, साथ ही चिन्तनशील प्रवक्ता भी हैं। आपके विचार बहुत ही उदार, सुस्पष्ट तथा तथा व्यापक अध्ययन-मनन से परिपूर्ण है। अत: आपश्री के प्रवचनों में भी इस / सर्वा गीण व्यापकता की स्पष्ट छाप है। // १-आनन्द प्रवचन : [ भाग 1 से 7] इन सात भागों में जैन आचार, दर्शन व कर्मसिद्धान्त से सम्बन्धित विविध उपयोगी, मननीय प्रवचन हैं। २-आनन्द प्रवचन : [भाग 8 से 11 ] पांच भाग का मूल्य 75) [गाँतम कलक- प्रवचन : 108 प्रवचन इन पाँच भागों में जैन साहित्य के महान सूक्त-ग्रन्थ 'गौतम कुलक' की 20 गाथाओं पर 108 प्रवचन हैं। विविध विषयों की जीवन स्पर्शी, ज्ञानपूर्ण सामग्री से ओत-प्रोत इन प्रवचनों में जैसे ज्ञान और विज्ञान का, अनुभव और चिन्तन का खजाना-सा खुला मिलेगा, विज्ञपाठक इस ज्ञान-सागर में डुबकी लगाकर भरपूर लाभ उठा। सकता है। ३-भावनायोग : [ मूल्य 12)] जैन धर्म में भाव/भावना का अत्यन्त महत्व है। भावना के सर्वा गीण स्वरूप पर शास्त्रीय प्रमाणों के साथ जीवन-निर्माणकारी विवेचन : शोध प्रबन्ध-सा गम्भीर और प्रवचन सा रोचक। ४-आनन्द वाणी : आनन्द वचनामृत, आदि प्रवचन साहित्य भी पठनीय मननीय है। Serving JinShasan सम्पूर्ण साहित्य के लिए स II श्री रत्ल HINTIMय 2589, महात्मanmandir@kobatitha ग र (महाराष्ट्र) 020154 म रिमा आवरण पृष्ठ के मुद्रक : 'शैल प्रिन्टर्स' माईथान, आगरा-३ ww.arerary.org