________________
१४
आनन्द प्रवचन : भाग ११
दिव्य दृष्टि मिल गई । जिस प्रकार बच्चों को अपने खेल में वैभव, विलास, खान-पान आदि की याद नहीं आती, वैसे ही साधक विद्रूप को भी अब अपनी साधना में तन्मयता के कारण वैभव, विलास, खान-पान आदि की याद नहीं आती । नाम, यश, कीर्ति, प्रसिद्धि, वैभव आदि सब साधना के आनन्द के आगे फीके लगने लगे ।
हाँ, तो मैं कह रहा था कि जब साधक अन्तःकरण से अपनी साधना में तन्मय हो जाता है, तब उसकी अवस्थित आत्मा सांसारिक वैभव, प्रसिद्धि, यश-कीर्ति, धन तथा सुख - सामग्री के बीहड़ में नहीं भटकती । उसका आत्मिक वैभव, आत्मबल चमक उठता है । परन्तु जब अपनी साधना में साधक की तन्मयता नहीं होती, तब वह सांसारिक एवं भौतिक वैभव की चमक-दमक में उलझ जाता है, आडम्बरप्रिय हो जाता है, भौतिक चमत्कार दिखाने और अपनी सिद्धियों का प्रदर्शन करने में लग जाता है । इस प्रकार अपनी आत्मा को साधना पथ से भटकाकर दुरात्मा बना देता है ।
साधनाशील व्यक्ति के चित्त में जब एकाग्रता नहीं होती, तब उसके सामने अनेक आकांक्षाएँ, तमन्नाएँ, अभिलाषाएँ मुँह बाए खड़ी होती हैं । उसका चित्त डांवाडोल हो उठता है, वह निश्चय नहीं कर पाता कि किसको पकडू । ऐसी अनवस्थित मनोदशा में आत्मा सफलतापूर्वक कुछ भी नहीं कर पाता । सारी जिंदगी यों ही सोचने-विचारने में पूरी हो जाती है । जो कार्य करना था वह नहीं कर पाता । किन्तु जिसके चित्त में एकाग्रता होती है, वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति एक ही लक्ष्य में केन्द्रित करके लगा देता है । वह देख-परख लेता है कि जिस वस्तु के लिए मेरी सक्रियता सम्पूर्ण शक्ति से गतिशील हो सकती है, वही वास्तविक उपादेय आकांक्षा है, बाकी की तो सिर्फ तरंगें हैं; जो समय-समय पर मानस सिन्धु में उठती रहती हैं । उन तरंगों के मध्य एक द्वीप की भांति जो अविचल रहती है, वही उसकी सच्ची तमन्ना है । इसलिए वह उस एक तमन्ना को पकड़कर उसी में अपना तन-मन सर्वस्व लगा देता है । फिर इधर-उधर की चकाचौंध में, वैभव की चमक-दमक में, भौतिक आकर्षणों और प्रलोभनों में वह नहीं फँसता । ऐसा व्यक्ति ही अपनी अवस्थित आत्मा को संसार समुद्र से पार ले जाता है ।
अनवस्थित आत्मा किसी विषय में झटपट निर्णय नहीं ले सकती । कौन-सा कार्य पहले करना है, कौन - सा बाद में इस सम्बन्ध में अनवस्थित साधक घंटों सोचते रहेंगे, फिर भी एक निश्चय पर नहीं पहुँच सकेंगे । उनकी निर्णायक शक्ति कुण्ठित हो जाती है ।
एक यात्री अपने मित्र के साथ बम्बई जा रहा था । सुबह का समय । लोकल ट्रेनों में बहुत भीड़ । वे तीन ट्रेनें चूक गये । चौथी ट्रेन में चाहे जैसे भी चढ़ने का निश्चय किया । धक्का-मुक्की में दोनों मित्र अलग-अलग हो गये । चर्चगेट स्टेशन पर उतर कर देखा तो मित्र गायब ! फिर वह मित्र दूसरी ट्रेन में आया । उसके प्रतीक्षारत मित्र ने उससे पूछा - " क्या हुआ ? देर से कैसे पहुँचे ?" वह मित्र बोला - "ट्र ेन रवाना हो गई थी ।" प्रतीक्षारत मित्र ने पूछा - "कैसे ?”
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org