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________________ अवस्थित आत्मा ही बुरात्मा १५ वह बोला - " गाड़ी तो प्लेटफार्म पर खड़ी थी, पर मैं यह निश्चय न कर सका कि किस डिब्बे में चढू । इधर से उधर भाग-दौड़ में ट्रेन रवाना हो गई ।” इस मित्र के जीवन में किसी भी कार्य में निश्चय न होने से सफलता नहीं मिली। न तो वह शादी कर सका, न कोई व्यवसाय स्थिरतापूर्वक कर सकता । बिलकुल हताश, उदास ! 'क्या करें ?" इस बात का निश्चय न कर सकने वाले व्यक्तियों का आधार टूट जाता है । यही बात आध्यात्मिक क्षेत्र में असफल व्यक्तियों के सम्बन्ध में समझ लीजिए । वे साधना के बारे में निश्चय नहीं कर पाते, आखिर वे तुलना करने लगते हैं— अमुक की साधना जैसी तो मेरे से नहीं हो सकती, फिर व्यर्थ है कुछ भी करना ! यों वे आत्मशक्तियों को कुण्ठित कर देते हैं, जान-बूझकर अशक्ति और असमर्थता के दलदल में फँसाकर वे आत्मा को दुरात्मा बना देते हैं । जो व्यक्ति संयोगों और व्यक्तियों के साथ अपनी तुलना किया करते हैं, उनके पल्ले अश्रद्धा और निराशा के सिवाय कुछ भी नहीं पड़ता । स्वामी विवेकानन्द के एक गुरुभाई थे – हृदयानन्द ! उन्होंने एक दिन स्वामी जी से कहा - " स्वामीजी ! मेरा संन्यास तो व्यर्थ गया ?" स्वामीजी ने पूछा – “कैसे ?” वे बोले – “स्वामी आत्मानन्द जैसी साधना तो मेरे से हो नहीं सकती ।" स्वामीजी - " तो फिर शुरू करिये न ?” हृदयानन्द – “कहाँ स्वामी आत्मानन्द और कहाँ मैं ?" स्वामीजी - " यह तुलना ही गलत है । आप अपनी जगह पर एकदम ठीक हैं । जो साधक तुलना करने में पड़े रहते हैं, वे शायद ही कुछ कर सकते हैं । इतना याद रखेंगे, तभी आप आगे बढ़ सकेंगे ।" पर अनवस्थित साधकों की यह आदत छूटती नहीं । उन्हें स्वयं तुलना करना नहीं आएगा तो वे दूसरों से पूछते फिरेंगे । ऐसे कई निठल्ले लोग भी होते हैं, जिनके पास कोई पूछने नहीं जाता, तो भी वे बिना माँगे सलाह देते रहते हैं । और अनवस्थित साधक उनके चक्कर में आ जाता है । पर जो साधक अवस्थित होता है, जिसे अपने में आत्मविश्वास होता है, जिसमें निश्चय करने का सामर्थ्य होता है, वह दूसरों के चक्कर में नहीं आता । विख्यात फ्रेंच चित्रकार पाब्लो पिकासो आधुनिक चित्रकला का पितामह माना जाता है । उसके पास एक कला-विवेचक ने आकर कहा - " आपके चित्र मुझे तो अच्छे नहीं लगते । " उसने दृढ़ता से उत्तर दिया – “उसकी मुझे क्या परवाह ! आपको चित्र अच्छे लगें या न लगें, उसके साथ मेरी कला का कोई वास्ता नहीं है । " इस प्रकार के निश्चयशील व्यक्ति ही किसी क्षेत्र में उन्नति कर सकते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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