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________________ १६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ आध्यात्मिक क्षेत्र में ऐसे ढच्चु-पच्चु और अनिश्चयात्मक स्थिति में पड़े रहने वाले साधक किसी भी साधना को ठीक ढंग से नहीं कर पाते। वे बात-बात में निर्णय बदल डालते हैं, अपने वचन के पाबन्द नहीं रहते । उन्हें यह भय सताता रहता है कि यदि मेरे से यह साधना नहीं हुई तो लोग हँसेंगे, मेरी खिल्ली उड़ाएंगे, मेरी प्रतिष्ठा को आंच लगेगी। परन्तु यह निश्चय समझिए कि ऐसे अनवस्थित आत्मा अपनी आत्मशक्तियों का, आत्मगुणों का विकास नहीं कर पाते जबकि दूसरे उनके समकालीन साधक बाजी मार जाते हैं । एक सरकारी कर्मचारी था। उसके कार्यालय में उसकी मेज पर रोज १५. : २० कार्यों की सूची पड़ी रहती। परन्तु वह कार्यालय में जाकर उस सूची को देखते ही घबरा जाता, निर्णय नहीं कर पाता और मन ही मन सोचता रहता-'यह काम हाथ में लू या वह काम ?' यों प्रतिदिन उसके दो-ढाई घंटे सोचने ही सोचने में खराब हो जाते । फिर वह किसी एक काम को शंकाग्रस्त मन से हाथ में लेता, थोड़ा सा वह काम करता भी सही, किन्तु कुछ ही देर बाद वह उस कार्य से ऊब जाता, उस कार्य में आने वाली कठिनाइयों और कष्टों से घबराकर उसे अधबीच में ही छोड़ देता । फिर दूसरा काम उठाता, उसमें भी यही दशा होती । फिर तीसरा कार्य उठाता। यों इसी आपाधापी में उसका सारा दिन पूरा हो जाता, अन्त में एक भी कार्य पूरा नहीं होता। अगर वह कर्मचारी एक ही कार्य को हाथ में लेकर उसी में अपना चित्त ओतप्रोत कर देता तो शाम होते-होते ५-७ काय तो पूरे कर ही डालता । भला, ऐसे कर्मचारी कहीं तरक्की कर सकते हैं ! आध्यात्मिक क्षेत्र के ऐसे साधक जो ढच्चु-पच्चु मन से साधना करने लगते हैं, अपने क्षेत्र में कोई भी उन्नति प्रगति नहीं कर पाते । वर्षों तक साधना करने पर भी वे वहीं के वहीं रहते हैं, साधना की वर्णमाला ही घोंटते-घोंटते जिन्दगी पूरी हो जाती है, आत्मा का कोई कल्याण, हित या विकास नहीं कर पाते । ऐसे अनवस्थित साधक अपनी आत्मा को दुरात्मा बना लेते हैं। ऐसे अनवस्थित व्यक्ति आत्महीनता के शिकार हो जाते हैं । वे हर अच्छे कार्य में अपने आपको दुर्बल, असमर्थ और शक्तिहीन मानने लगते हैं। उन्हें हर कार्य अपनी शक्ति से बाहर का लगता है। उनके मन में बार-बार आशंका और भीति के बादल उठते रहते हैं कि अमुक काम हाथ में लिया तो हो सकता है, कोई नई आफत खड़ी हो जाए या किसी संकट में पड़ जाएं। आत्महीन व्यक्ति नाना प्रकार के बहम, भ्रम, न्यूनताएं, निर्बलताएं, भीतियां, कुकल्पनाएँ और आशंकाएं पाले रहते हैं। उन्हें कोई किसी अच्छे कार्य के लिए प्रोत्साहित और उत्तजित भी करता है तब भी वे भयभीत रहते हैं। उनके उद्गार प्रायः ये ही रहते हैं-अमुक कार्य हमारे बलबूते का नहीं है, भला हम उसे किस प्रकार कर सकते हैं ? हम ऐसा खतरा क्यों मोल लें? आत्महीनों की कई कोटियाँ होती हैं, कोई अपने आपको शरीर से निर्बल, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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