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७०. अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं जीवन-व्यवहार के एक विशिष्ट नैतिक पहलू की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ। महर्षि गौतम ने अपनी अनुभूति की आँखों से देख-समझकर इस महान् जीवनसूत्र द्वारा नैतिक प्रेरणा दी है। गौतमकुलक का यह ५६वाँ जीवनसूत्र है, जिसका अक्षर देह इस प्रकार है
'न सेवियव्वा पुरिसा अविज्जा' 'अविद्यावान पुरुषों का सेवन—संग नहीं करना चाहिए।'
अविद्यावान पुरुष किसे कहते हैं ? अविद्यावान के लक्षण क्या हैं ? उनका सेवन—संग क्यों नहीं करना चाहिए ? उनके सेवन से क्या-क्या हानियाँ हैं ? इन सब पहलुओं पर हमें गम्भीरता से विचार करना अनिवार्य है।
अविद्यावान : कौन और कैसा ? यों तो किसी के ललाट पर नहीं लिखा होता है कि यह व्यक्ति विद्यावान है, यह अविद्यावान है। विद्यावान-अविद्यावान की परख उसकी बोली, चाल-ढाल, बातचीत, व्यवहार और गुणावगुण पर से ही प्रायः की जा सकती है। सफेदपोश
और छल-छबीले वेश में अनेक अविद्याधनी फिरते दिखाई देते हैं। उनके एक ही विचार और व्यवहार को देख-सुनकर आप स्वयं पहचान जाएँगे कि यह अविद्यामूर्ति हैं, यह नहीं। यों तो अपने आप में कोई भी व्यक्ति अविद्यावान नहीं कहलाना चाहता। सभी अपने आप में अप-टु-डेट और विद्या के अवतार कहलाना पसंद करते हैं।
विद्यावान और अविद्यावान का यथार्थ अर्थ समझने के लिए हमें सर्वप्रथम विद्या और अविद्या का स्वरूप समझ लेना चाहिए।
विद्या क्या है ?--विद्या शब्द का सामान्य अर्थ होता है-जानकारी। किन्तु शास्त्रों और ग्रन्थों का अनुशीलन करने पर विद्या शब्द कई विशिष्ट अर्थों में भी प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है। जैसे कि विशिष्ट मंत्रों द्वारा विशिष्ट चामत्कारिक शक्तियों की आराधना और उन शक्तियों की सिद्धि को भी विद्या कहा गया है। अध्यापकों के माध्यम से छात्रों द्वारा किसी विषय की सांगोपांग ज्ञान-प्राप्ति को भी विद्या कहते हैं। इस प्रकार संसार में विद्या के अनेक रूप हैं, किन्तु ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि से ये विद्याएँ वस्तुतः विद्या नहीं हैं । उनका उद्घोष है
'सा विद्या या विमुक्तये'
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