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आनन्द प्रवचन : भाग ११
वह जानकारी ही सच्ची विद्या है, जिससे जीव बन्धनों से मुक्त होता है, स्वतंत्रता को प्राप्त करता है। अर्थात सच्ची विद्या वह है जिससे मानसिक, आत्मिक एवं बौद्धिक बन्धन या पारतंत्र्य कटे।
__ मतलब यह है, जो विद्या स्वावलम्बी बनाती है, आत्मनियंत्रण की कला सिखाती है, जो विषय-भोगों से छूटने की युक्ति बताती है; इससे भी आगे बढ़कर कहूँ तो विद्या देहधर्म से ऊपर उठकर आत्मधर्म में प्रवेश करने की विधि बतलाती है, देह में आसक्ति करने की नहीं। जो विद्या परावलम्बी बनाती है, आवेगों में बहने की शिक्षा देती है, विषयों से आबद्ध होने की युक्ति बताती है, देहाध्यास की प्रेरणा देती है, वह कुविद्या है, सुविद्या नहीं ।'
इसी दृष्टि से विद्या और अविद्या का अर्थ अध्यात्मरामायण में स्पष्ट किया गया है
देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता। .
नाऽहं देहश्चिदात्मेति बुद्धिविद्योति भण्यते ॥ —'मैं शरीर हूँ' इस प्रकार की जो बुद्धि है, वह अविद्या कहलाती है जबकि 'मैं शरीर नहीं, ज्ञानस्वरूप (चिद्) आत्मा हूँ' इस प्रकार की बुद्धि विद्या कहलाती है।
कुविद्या परतंत्रता से मुक्ति के लिए नहीं होती। वह व्यक्ति को स्वावलम्बी नहीं बनाती, आत्मिक दीनता से पिण्ड नहीं छुड़ाती; वह विद्या, विद्या के रूप में एक प्रकार की अविद्या है, भले ही उसके लिए बड़े-बड़े विद्यालय, महाविद्यालय आदि खुले हों, और जिनमें पारंगत होने पर बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों से प्रमाण पत्र प्राप्त हुए हों।
वैसे तो विद्या मुख्यतया दो प्रकार की है-लौकिक और लोकोत्तर । लोकोत्तर विद्या की परिभाषा तो अभी-अभी मैं कर चुका हूँ। 'इसिभासियाई' में लोकोत्तर विद्या का लक्षण इस प्रकार दिया गया है
जेणं बंधं च मोक्खं च जीवाणं गतिरागति ।
दयाघावं च जाणंति, सा विज्जा दुक्खमोयणी ॥' -जिसके द्वारा जीवों के बन्ध-मोक्ष, गति-आगति और आत्म-स्वरूप का ज्ञान हो, वही विद्या दुःख से मुक्त करने वाली है। शंकराचार्य प्रश्नोत्तरी में इसी विद्या का लक्षण दिया गया है
विद्या हि का? ब्रह्मगतिप्रवा या । -विद्या कौन सी है ? जो ब्रह्मगति प्रदान करती हो। भगवद्गीता में अध्यात्मविद्या को ही सब विद्याओं में श्रेष्ठ बताया है।
लोकोत्तर विद्या तो एकान्त रूप से उपादेय है ही, इसमें कोई सन्देह नहीं; किन्तु वह लौकिक विद्या भी उपादेय होती है, जो धर्म से अनुप्राणित हो, न्याय-नीति
२. शंकर प्रश्नोत्तरी ११
१. इसिभासियाई १७/२ ३. 'अध्यात्मविद्या विद्यानाम्'-गीता १०।३२
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