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________________ अविद्यावान पुरुष : सदा असेव्य १७३ और सदाचार से पुनीत हो; विनय, दया, परोपकार आदि गुणों से युक्त हो, जो दान, शील, तप और भाव की प्रेरणा देती हो । वैदिक विद्वानों ने ऐसी लौकिक विद्या को अपरा विद्या कहकर उसके १४ भेद बताएँ हैं— चार वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष, तथा इतिहास, पुराण, मीमांसा और न्याय । १ जैन विद्या- पारंगतों ने भी इन्हीं नामों से १४ भेद विद्या के माने हैं-चार वेद - ( १ ) प्रथमानुयोग ( २ ) करणानुयोग ( ३ ) चरणानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग | इन वेदों के ६ अंग हैं -- ( ५ ) शिक्षा (६) कल्प, (७) व्याकरण, (८) निरुक्त (E) छन्द, और (१०) ज्योतिषि । तथा ( ११ ) इतिहास - पुराण ( १२ ) मीमांसा (१३) न्याय और (१४) धर्मशास्त्र; ये १४ विद्याएँ हैं । चार अनुयोग तो प्रसिद्ध हैं ही। शिक्षा कहते हैं - स्वर - व्यंजनादि वर्णों के शुद्ध उच्चारण और लेखन को बताने वाली विद्या को, कल्प — धार्मिक आचारविचार का निरूपकशास्त्र, व्याकरण — जिससे भाषा के लिखने-पढ़ने-बोलने का शुद्ध बोध हो, निरुक्त – शब्दों के प्रकृति, प्रत्यय आदि का विश्लेषण करके प्राकरणिक या द्रव्य-पर्यायात्मक या अनेक धर्मात्मक पदार्थ का निरूपण करने वाला शास्त्र, छन्द - पद्यों के विविध प्रकारों का निर्देशक शास्त्र, ज्योतिष – शुभाशुभ फलसूचक विद्या, इतिहास - पुराण- प्राचीन इतिहास की बातें जिन शास्त्रों में है, मीमांसा - विभिन्न मौलिक सिद्धान्तबोधक वाक्यों पर विश्लेषण करके चिन्तन प्रस्तुत करने वाली विद्या, न्याय – प्रमाणों और नयों का विवेचन करने वाला शास्त्र, धर्मशास्त्र - अहिंसाधर्म के निश्चय-व्यवहार दोनों रूपों का विवेचन करने वाले शास्त्र । यह है चौदह विद्याओं का निरूपण । वैदिक मतानुसार जिसमें अक्षर परमात्मा का ज्ञान हो, वह पराविद्या कहलाती है । इससे मालूम होता है कई प्रकार की भौतिक विद्याएँ भी होती हैं । लौकिक व्यवहार में भाषा ज्ञान, गणित, इतिहास, भूगोल, समाजविज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र, भौतिकविज्ञान आदि विविध ज्ञान-विज्ञान, शिल्प एवं कला आदि को विद्या कहते हैं । जैनधर्मानुसार उपर्युक्त विद्याओं में लौकिक और लोकोत्तर दोनों ही विद्याओं का समावेश हो जाता है । जीव आदि तत्त्वों की केवल जानकारी ही विद्या-ज्ञान नहीं है, अपितु उनके स्वरूप की प्रतीतियुक्त जानकारी ही सच्ची विद्या है । लौकिक विद्या के साथ अध्यात्म, धर्म और नीति का पुट हो तो वह विद्या भी उपादेय हो सकती है । १. पाणिनीय शिक्षा और याज्ञवल्क्य शिक्षा । २. नीतिवाक्यामृत ७।१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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