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वानन्द प्रवचन : भाग ११
इसी प्रकार जो व्यक्ति कार्य प्रारम्भ करने के बाद बीच में धैर्य खोकर उसे छोड़ बैठते हैं, कठिनाइयों से घबरा जाते हैं, वे अनवस्थित कहलाते हैं। ऐसे व्यक्ति न तो अपने आत्मबल पर भरोसा रखते हैं और न धैर्य से काम लेते हैं, वे हतोत्साह होकर साधना भी अधबीच में छोड़कर भाग जाते हैं। ऐसे अनवस्थित व्यक्ति अपनी मात्मा को दुरात्मा बना लें, इसमें क्या सन्देह है ?
जो चारित्रभ्रष्ट होते हैं, वे भी अपने चारित्र की साधना को अश्रद्धापूर्वक छोड़कर असंयम, कुशील और व्यभिचार के मार्ग पर सरपट दौड़ने लगते हैं, वे न तो अपनी इन्द्रियों पर लगाम रख सकते हैं, और न ही अपने मन पर, फलतः अपनी समस्त कार्यक्षमता और शक्ति को निचोड़ डालते हैं। असमय में ही मन से वृद्धत्व आ जाता है । इन सबका कारण अपनी आत्मा की अनवस्थितता है । जिसके कारण बे केवल तन, मन, बुद्धि एवं इन्द्रियों का ही नहीं, अपनी आत्मा का भी सर्वनाश कर बैठते हैं।
व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से देखें तो ऐसा अनवस्थित पुरुष केवल अपना ही नहीं, अपने स्त्री-बच्चों का भी बहुत बड़ा अहित कर बैठता है; अपने उज्ज्वल भविष्य को आग लगा देता है । परन्तु अवस्थित आत्मा धैर्य, गाम्भीर्य के साथ कठिनाइयों का सामना करते हैं । वे चारित्रभ्रष्टता के पथ पर जाने का स्वप्न में भी नहीं सोचते । इसलिए एक दिन अपनी आत्मा को विकास के उच्चशिखर पर पहुँचा देते हैं ।
बन्धुओ ! महर्षि गौतम इसीलिए चेतावनी के स्वर में कह रहे हैं कि अगर तुम किसी भी प्रकार से अनवस्थित बनोगे तो अपनी आत्मा को दुरात्मा बना बैठोगे । इससे बचना तुम्हारे जैसे भव्य पुरुष के लिए आवश्यक है। अनवस्थित जीवन हेय है, अवस्थित जीवन ही उपादेय है।
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