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________________ ७-३ आनन्द प्रवचन : भाग ११ ....धम्मं च कुणमाणस्स सफला जंति ..... अहम्मं कुणमाणस्स अफला जंति राइओ 1 राइओ ॥ - धर्मकार्य करने वाले व्यक्ति के दिनरात सफल होते हैं और अधर्मकार्य करने वाले व्यक्ति के दिनरात असफल व्यतीत होते हैं । दूसरी बात यह है कि मनुष्य जैसा जो कुछ धर्म, पुण्य या पापकार्यं करता है, उसका फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है चाहे वह फल इसी जन्म में मिल जाये या अगले जन्म में । अतः धर्मकार्य को प्राथमिकता देने से यहाँ और वहाँ सर्वत्र उसका जीवन सुख - शान्तिसम्पन्न बनेगा । एक बात और विचारणीय है कि बुढ़ापा आने पर इन्द्रियां क्षीण होने पर या गाक्रान्त होने पर मनुष्य धर्मकार्य नहीं कर सकता, इसलिए भी धर्मकार्य का अवसर नहीं चूकना चाहिए | धर्मज्ञ व्यक्ति धर्मकार्य को कैसे प्राथमिकता देता है ? इसका उदाहरण लीजिएघटना सन् १९५६ की विदर्भ के एक जैन श्रावक की है । प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष की आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिकी पूर्णिमा तक वहाँ बहुत धार्मिक प्रवृत्तियाँ हुईं । उक्त जैन श्रावक के घर में भी किसी ने ८ उपवास किये थे । इस लम्बी तपस्या के उपलक्ष में धर्मप्रभावना की दृष्टि से पारणे के दिन अपने समाजवालों को उसने प्रीतिभोज देने का निश्चय किया । भोज या तपोमहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए उसने अपने परिचित सज्जनों को पोस्ट द्वारा आमंत्रणपत्र भी भिजवा दिया । पारणे से पहले दिन मिष्टान्न आदि बनाकर तैयार कर लिये गये । लगभग दो हजार मनुष्यों की भोजन सामग्री बना ली गई । परन्तु पूर्वरात्रि को अकस्मात् भीषण वर्षा होने के कारण स्थानीय नदी में भयंकर बाढ़ आ गई । गरीबों के कई भोंपड़े उसके प्रवाह में बह गये । बाढ़ पीड़ित गरीब लोग बे-घरबार हो जाने से आंसू बहा रहे थे । यह सब दृश्य देखकर उस जैन श्रावक का हृदय करुणा से भर आया । फलतः मानवता के नाते उसने बाढ़पीड़ित दुःखितों के आँसू पोंछ डालने का संकल्प किया । अपना यह विचार आगन्तुक अतिथियों और निमंत्रित सज्जनों के समक्ष प्रस्तुत किया - " भाइयो ! यद्यपि मैंने यह रसोई आप ही के लिए बनवाई है, तथापि गतरात्रि को अकस्मात् आई हुई बाढ़ के कारण बहुत-से लोग बेघरबार हो गये हैं तथा भूख से तड़फ रहे हैं । मेरी इच्छा है कि यह भोजन उन्हें खिला दिया जाये । जिस प्रकार हम भाई-भाई हैं, उसी प्रकार वे भी तो हमारे भाई हैं । आपकी सेवा के मौके तो मुझे और भी मिलते रहेंगे, किन्तु उन भाइयों की सेवा-सहायता करने का इतना श्रेष्ठ मौका भला और कब मिलेगा ?" आगन्तुकों ने उक्त श्रावक के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं, किन्तु उस रसोई को बाढ़ पीड़ित लोगों में वितरित करने के काम में भी सहर्ष सहयोग दिया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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