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________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-२ ७३ बन्धुओ ! देखा आपने, धर्मज्ञ व्यक्ति किस प्रकार लौकिककार्य को गौण करके धर्मकार्य के अवसर का लाभ उठा लेता है। कई बार मनुष्य के सामने एक ओर सांसारिक कार्य के लिए जोर दिया जाता है, दूसरी ओर उसे धर्मकार्य के प्रति रुचि रहती है। ऐसी स्थिति में धर्मनिष्ठ मनुष्य सांसारिक कार्य के साथ लगे हुए प्रलोभनों सांसारिक विषयभोगों के आकर्षणों या भयों को तिलांजलि देकर एकमात्र धर्मकार्य को ही स्वीकार करता है। सौराष्ट्र के एक गाँव में उसका पीहर था। अचानक ससुराल से तार आया ........"भाई चल बसे ।" परन्तु माता-पिता ने अपनी पुत्री को इस आघातजनक समाचार से वज्राघात-सा लगेगा, इसलिए उसे बताया नहीं, परन्तु उसे किसी तरह पता लग गया । शोकमग्न तो हुई, परन्तु साथ ही उसने भावी जीवन को भी पूर्ण ब्रह्मचर्यमय और संयमपूर्ण बिताने का संकल्प कर लिया। सहज ही मिले हुए इस धर्मकार्य के अवसर को वह क्यों खोती ? कुछ ही दिनों बाद जब अपने दामाद की मृत्यु का शोक कम हो गया, तब उसके माता-पिता ने अपनी पुत्री के सामने प्रस्ताव रखा-"बेटी ! अब तेरा क्या विचार है ?” सुसंस्कारी धर्मशीला युवती पुत्री ने कहा- “एक भव में दो भव करने का मेरा विचार कतई नहीं है।" माता-पिता ने उसकी हमजोली सहेलियों के द्वारा विचार जानने चाहे, परन्तु इस लड़की ने दृढ़तापूर्वक इन्कार कर दिया-"अब मेरी इच्छा पुनर्विवाह करने की नहीं है । मैं आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करूंगी, जब अनायास ही मेरे बन्धन टूट गये हैं और मुझे धर्मकार्य करने का सुनहरा अवसर मिला है तो मैं पुनः सांसारिक भोगों के कीचड़ में क्यों पडू?" कुछ महीने व्यतीत होने के बाद एक दिन पिता ने कहा"बेटी ! आवेश में आकर कोई निर्णय करना अच्छा नहीं होता । पूर्ण ब्रह्मचर्य का मार्ग बहुत ही कठिन है । अभी तेरी उम्र ही कितनी है ! तू अगर स्वीकार करे तो मैं तेरे श्वसुर को मना लूगा और अपनी बिरादरी में ही किसी अच्छे वर की खोज कर लूंगा। बस, तेरे हाँ भरने की देर है।" पुत्री ने स्पष्ट शब्दों में इन्कार कर दिया कि "पिताजी ! मेरे लिए अब धर्म (ब्रह्मचर्य) कार्य को छोड़कर अधर्म (अब्रह्मचर्य रूप सांसारिक) कार्य की ओर मुड़ना बिलकुल असम्भव है। आप तो इस धर्मकार्य को निष्ठापूर्वक पार लगाने में मुझे सहयोग दें।" माता-पिता समझ गये कि लड़की स्वयं समझदार है। इसने समझ-बूझकर अपनी इच्छा से सारे सांसारिक प्रलोभनों या आकर्षणों को छोड़कर ब्रह्मचर्यमूलक धर्मकार्य का स्वीकार कर लिया है तो उन्होंने अधिक कहना उचित न समझा। लड़की ने पति-वियोग के समाचार मिलने के दूसरे ही दिन से अपना जीवन सादगी और संयम से ओतप्रोत बना लिया । ब्रह्मचर्य पालन करते हुए अनाथ, दीन-दु:खी, पीड़ित महिलाओं की सेवा में अपना समय व्यतीत करने लगी। माता-पिता ने भी अपनी विधवा पुत्री का संयम और सादगी से पूर्ण जीवन देखकर स्वयं भी, केवल ३२-३३ वर्ष की उम्र में आजीवन ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा ले ली और लड़की के धर्मकार्य में सहयोग देने लगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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