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आनन्द प्रवचन : भाग ११
यह है — सांसारिक (अधर्मं ) कार्य के प्रलोभन को ठुकराकर धर्म (ब्रह्मचर्यं और सेवा के) कार्य में अपने जीवन को ओतप्रोत करने का ज्वलन्त उदाहरण ।
धर्मकार्य से विमुखता : - परन्तु आजकल अधिकांश लोगों का झुकाव सांसारिक कार्य और धर्मकार्य दोनों के उपस्थित होने पर प्रायः सांसारिक कार्य की ओर ही होता है । वे धर्मकार्य को तुच्छ और महत्त्वहीन समझकर यों कहने लगते हैं"धर्मकार्य तो फिर कर लेंगे । अभी क्या जल्दी है ? बुढ़ापे में कर लेंगे। अभी तो जवानी है, कमाने-खाने और ऐश-आराम करने के दिन हैं।" फिर पारिवारिक जनों की ओर से भी इसी बात पर जोर दिया है, सांसारिक बातों का ही समर्थन किया जाता है | साधु-साध्वियों या दृढ़धार्मिकों के सम्पर्क में ऐसे लोग कम ही आते हैं । तथा वातावरण भी सर्वत्र प्रायः इसी प्रकार का मिलता है । एक कवि ने इसी पर व्यंग कसा है—
चल रही, चल रही, चल रही हो, पछवाँ' चल रही आज जगत् में || ध्रुब |
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धर्म कर्म घटता जाता है, स्वार्थ, दम्भ बढ़ता जाता है । पाप में दुनिया ढल रही हो ।। चल रही प्रेम स्नेह का नाम फना है, घर-घर में कुरुयुद्ध ठना है । द्वेष की अग्नि जल रही हो । चल रही भीमार्जुन-से वीर कहाँ हैं ?, मात्र शिखण्डी भोग में काया गल रही हो ।। चल रही कवि ने वर्तमान भारतीय जन-जीवन की धर्मकार्य से विमुखता का स्पष्ट चित्रण किया है । क्या ही अच्छा होता, लोग महर्षि गौतम के संकेत के अनुसार धर्मकार्य की ही पहल करते ।
चाणक्यनीति में तथा विभिन्न स्मृतियों में पद-पद पर धर्मकार्य करने के लिए सावधान किया है—
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्म-संग्रहः ॥ ' "धमं कुरुत यत्नेन, सोऽवश्यं सह यास्यति ॥ अर्थात् - ' शरीर अनित्य है, धन-सम्पत्ति स्थिर नहीं है मृत्यु सदा सन्निकट है, अतः धर्म-संग्रह (धर्मकार्य करके) करना चाहिए ।
" महानुभावो ! यत्नपूर्वक
धर्मकार्य करो, धर्म ही परभव में तुम्हारे साथ
चलेगा । "
१. पश्चिमीय देशों की हवा २. चाणक्यनीति १२/१२ ३. कात्यायन- स्मृति
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॥३॥
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