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________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-२ ७५ अफसोस है, आज शरीर को हृष्टपुष्ट रखने के लिए खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने तथा सोने-उठने आदि का पूरा ध्यान रखा जाता है, पुत्रादि के जन्म तथा विवाहादि प्रसंगों पर वाहवाही लूटने के लिए अनाप-शनाप धन खर्च करने में कोई कंजूसी नहीं दिखाई जाती, वृद्ध माता-पिता के मरने पर दुःख न होते हुए लोक दिखावे के लिए शोक मनाया जाता है, और भी अनेक प्रकार के व्यावहारिक कार्य शर्माशी, देखादेखी, जाति और समाज के दवाब से, लिहाज से या भय और प्रलोभन से किये जाते हैं, ऐसे कामों में समय और धन न होने का कोई बहाना नहीं होता, परन्तु धर्मकार्य करने में अनेक प्रकार के बहाने किये जाते हैं, सुन्दर अवसर हाथ से चले जाने की कोई परवाह नहीं होती। धर्मकार्य से धर्म का पलड़ा भारी रखो-किन्तु याद रखिये, जैसे कांटे जितनी सई अन्दर जाने से ही कांटा निकलता है, भूख के अनुसार ही रोटी खाने से भूख मिटती है, नींव की गहराई के अनुसार ही मकान बनाया जाता है, बीमारी के वेग के अनुपात में ही दवा की मात्रा दी जाती है, आय के अनुसार ही व्यय किया जाता है टंकी की ऊंचाई के अनुरूप ही पानी ऊंचा चढ़ाया जाता है इसी प्रकार अधर्म या पाप के पलड़े की अपेक्षा धर्म का पलड़ा अधिक वजनदार होना चाहिए, अन्यथा, आप इंतजार करते रहेंगे बुढ़ापे तक और पापों या अधर्मों का पलड़ा भारी भरकम होकर जीवन-तुला को ही असंतुलित करके गिरा देगा। इसलिए अधिकाधिक धर्मकार्य करके धर्म का पलड़ा भारी रखना चाहिए। सखी धर्मकार्य से ही, अधर्मकार्य से नहीं-कई लोग कहा करते हैं कि बेईमानी, अन्याय, अनीति, लूटखसोट आदि अधर्मकार्यों से आज अधिकांश लोग सुखी एवं सम्पन्न दिखाई देते हैं, परन्तु धर्मकार्य करने वाले लोग प्रायः दुःखी, निर्धन या विपन्न नजर आते हैं । इसलिए मालूम होता है, धर्मकार्य का फल प्रत्यक्ष मिलता नहीं। इसका समाधान यह है कि आज भले ही अधर्मी या पापी लोग बाहर से सुखी दिखाई दे रहे हों, परन्तु उनकी अन्तरात्मा से पूछो तो मालूम पड़ेगा कि उन्हें उनका पाप या अधर्म कचोट रहा है, रह-रहकर अन्तर् में पछतावा होता है, प्रतिक्षण उन्हें भय रहता है कि कहीं कोई गिरफ्तार न करले, उनकी नींद हराम हो जाती है, न वे सुख से खा-पी सकते हैं और न ही सुख से निश्चित होकर सो सकते हैं। कई बार तो ऐसे पापात्मा या अधर्मी लोग किसी साधु-साध्वी का जरा-सा उपदेश सुनते ही बदल जाते हैं। ___ उल्लासनगर (बम्बई) में सिन्धी नारायणदास थडाणी को श्री चन्दन मुनिजी के उपदेश से बोध प्राप्त हुआ। वह मांस, रक्त, शराब आदि के दुर्व्यसन में फंसा हुआ था। किसी की कुछ नहीं सुनता था । जितने पैसे दूध बेचकर कमाता प्रायः सब के सब इन्हीं व्यसनों में खर्च कर देता था। उसकी दुकान के पड़ोस में ही एक जैन श्रावक श्री वकीलवाला की दुकान थी। उन्होंने उसे बहुत समझाया, पर न माना। आखिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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