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________________ '६६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ भत्त-पाण-विच्छेए—द्वषरोषवश आहार-पानी बन्द कर देना, उसमें अन्तराय डालना। हिंसा : क्यों और किसलिए हिंसा किसी भी प्रकार की हो वह त्याज्य है, निन्द्य है और दुःख-दुर्गतिजनक हैं । अहिंसा अमृत है, वही आचरणीय और उपादेय है, फिर भी न जाने क्यों मनुष्य हिंसा को अपनाता है ? जगत् के जीवों में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहलाता है । यदि वही अहिंसा के अमृत को छोड़कर हिंसा का विष पीने लगे, अहिंसा के कार्य को तिलांजलि देकर हिंसा के अकार्य को करने लगे तो इसमें उसकी श्रेष्ठता कहाँ रही ? यही कारण है कि महर्षि गौतम ने हिंसा को मनुष्य के लिए सबसे बढ़कर अकार्य बताया है। फिर भी मानव विविध प्रसंगों पर विविध कारणों को समुपस्थित करके हिंसा की दानवी भावना और राक्षसी शक्ति का पिण्ड नहीं छोड़ता। आचारांग सूत्र में हिंसा को मनुष्य क्यों अपनाता है, इसके प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए कहा है ..."वंदण-माणण-पूयणाए ___ मनुष्य अपने सामने दूसरों को झुकाने, नतमस्तक करने और अभिवादन एवं स्तुति-श्रवण करने के लिए, अपने अहं को दाना-पानी देने के लिए तथा संसार में अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के लिए हिंसा को अपनाता है। इन्हीं तीन प्रमुख कारणों की छाया में लोगों ने अगणित कारण हिंसा के प्रस्तुत किये हैं। ईसाई धर्म के प्रमुख धर्मग्रंथ में हिंसा का निषेध होने के साथ-साथ दो शब्द ऐसे जोड़ दिये हैं, जो ईसाईधर्मी लोगों के हिंसा की खुली छूट के कारण बने हुए हैं । वह वाक्य यों है Thou shalt not kill, without cause.3 ''तुझे किसी भी प्राणी को नहीं मारना चाहिए, बिना कारण के।" इस वाक्य में without cause ये दो शब्द बहुत ही अनर्थ के कारण बन गए। जहाँ भी हिंसा करने वाले ईसाई से कोई पूछेगा तो उसके मुंह से यही उद्गार निकलेगा-"देखो क्या लिखा है, अन्त में-without cause बिना कारण के मत मारो।" हमने किसी को मारा है या मारते हैं तो कारण से मारते हैं ? अपने अहं के या रंगभेदजनित जातीय अहं के कारण वहाँ केनेडी जैसे राष्ट्रपति की हत्या की गई। कारण तो उचित भी हो सकता है, अनुचित भी। इसीलिए कहीं धर्मसम्प्रदायाभिमानवश, कहीं रंग, राष्ट्र, प्रान्त, जाति आदि घटकों के कारण हिंसा का तांडव हुआ । आज १ आवश्यक सूत्र, प्रथम अणुव्रत के पांच अतिचार २ आचारांग प्रथम श्रुत०, अ० १ ३ बाइबिल-गिरि प्रवचन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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