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प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं ७ यहाँ तक नौबत आ गई है, जरा-सा कोई राष्ट्रीय स्वार्थ भंग हुआ, कि युद्ध के बादल गरजने लग जाते हैं। आजकल के युद्ध पहले की तरह के सीमित दायरे के, पुराने शस्त्राशस्त्री युद्ध नहीं रहे, आज तो महायुद्ध-विश्वयुद्ध होते हैं, उसमें परमाणु बम या उद्जन बम का ही सहारा लिया जाता है। दूसरे राष्ट्र को झुकाने, अपने राष्ट्र की विजय-पताका फहराने और अपने राष्ट्रीय या जातीय अहं को प्रोत्साहन देने हेतु यह युद्धजनित हिंसा होती है।
भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने इस पारस्परिक युद्धों को टालने के लिए सारे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय पंचशील का नारा बुलन्द किया था, तथा सभी राष्ट्रों को शान्ति से जीने के लिए निःशस्त्रीकरण की प्रक्रिया की बात समझाई थी। लेकिन युद्धोन्मादी राष्ट्र और खासकर महाशक्तियाँ इसे माने तब न ? अगर वे इसे मान जाएँ और अपने-अपने राष्ट्र में क्रियान्वित करें तो हिंसा-युद्धजनित महाहिंसा सारे विश्व से निर्वासित हो सकती है।
हाँ, तो मैं कह रहा था कि हिंसा के लिए मुख्यतया तीन कारण प्रस्तुत किये जाते हैं। इन्हीं की छाया में प्राचीनकाल में धर्म के नाम से, देवीदेवों के नाम से, गुरुओं के नाम से हिंसाएँ की जाती थी। पुरुषार्थ सिद्ध युपाय में उनकी थोड़ी-सी झांकी मिलती है। उनका भावार्थ इस प्रकार है
कई लोग यों मानते हैं कि भगवद् धर्म समस्त पदार्थों से सूक्ष्म है; श्रेष्ठ है; इसलिए धर्म के लिए (धर्मरक्षार्थ) किसी की हिंसा करने में कोई दोष नहीं; परन्तु धर्ममूढ़ हृदय लोगों को भूलकर भी इस प्रकार से प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए।' प्राचीनकाल में यज्ञों की धूम मची रहती है; और प्रत्येक यज्ञ में हजारों मूक पशुओं की बलि दी जाती है । जब उनसे यह पूछा गया कि यह हिंसा धर्म कैसे हो सकती है ? जैसाकि पूर्वमीमांसा में स्वीकार किया गया है—"हिंसानाम भवेधर्मों न भूतो न भविष्यति ।"
___ 'भला हिंसा में धर्म होता है, ऐसा तो न कभी हुआ है, और न कभी होगा।' तब उसका उत्तर दिया जाता है
या वेदविहिता हिंसा सा हिंसा न निगद्यते । वेदविहित हिंसा हिंसा नहीं होती। क्योंकि धर्म का लक्षण पूर्व-मीमांसा में किया 'वेदविहित जो भी आदेश-निर्देश हैं, वे धर्म हैं ।' परन्तु वेदविहित होने से हिंसा धर्म हो जाती है, यह बात तर्क, युक्ति, अनुभूति, प्रमाण आदि से संगत नहीं बैठती, न ही निष्पक्ष मानव-बुद्धि इसे धर्म स्वीकार कर सकती है।
इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं यह मान्यता है कि धर्म देवों से प्रादुर्भूत होता है
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सूक्ष्मोभगवद्धर्मो, धर्मार्थहिंसने न दोषोऽस्ति । इति धर्ममुग्धहृदयर्न जातु भूत्वा शरीरिणो हिंस्याः ॥७॥
-पुरुषार्थ सिद्ध युपाय
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