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________________ ६८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ इसलिए उन देवों को बलि प्रदान करनी चाहिए। इस प्रकार की दुविवेक से युक्त बुद्धि से प्रेरित होकर भी प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए । बंगाल में आज भी काली, दुर्गा आदि के आगे हजारों बकरों की बलि दी जाती है। इसी प्रकार नेपाल में पशुपतिनाथ के आगे हजारों भैसों की बलि दी जाती है। . क्या इस प्रकार की निर्दोष पशुओं की हिंसा कल्याणकारिणी हो सकती है ? जो बकरों को बलि देकर उन्हें स्वर्ग पहुँचाने का कहते हैं, उन्हें पहले अपने मातापिता की बलि देकर उन्हें स्वर्ग में पहुँचाना चाहिए। ऐसी अकाट्य युक्ति के आगे वे निरुत्तर हो जाते हैं। व्यासजी ने महाभारत में पशु-बलि की कड़े शब्दों में भर्त्सना की है वृक्षाश्छित्वा पशून् हत्वा, कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्यनेन गम्यते स्वर्गे नरक केन गम्यते ?' _ 'वृक्षों को काटकर, पशुओं की हत्या करके, रक्त का कीचड़ बनाकर ऐसे पशुहिंसामूलक यज्ञ से मनुष्य यदि स्वर्ग में चला जाता है तो फिर नरक में कौन जाएगा?' सभी धर्मशास्त्र एक स्वर से पशुहिंसा को निषेध करते हैं। कोई भी धर्म हिंसा में धर्म नहीं बताता । बौद्ध धर्मग्रन्थ थेरीगाथा में स्पष्ट कहता है अघमूलं भयं वधो' -भय और वध (हिंसा) दोनों पाप के मूल हैं। महाभारत शान्तिपर्व में भी इसे अधर्म बताया गया है 'अधर्मः प्राणिनाम् वधः ।२ इससे आगे चलें। किसी अतिथि या पूज्य पुरुष के आगमन पर या उनके नाम से कोई उत्सव मनाने पर उनके निमित्त से बकरे आदि का वध करने में कोई दोष नहीं है, इस प्रकार विचार करके किसी भी अतिथि या पूज्य के लिए प्राणिहिंसा नहीं करनी चाहिए। आज भी विदेशों में और भारत में यह मान्यता प्रचलित है कि वे किसी भी नेता, बड़े आदमी या पूज्य अतिथि के सम्मान में जब दावत देते हैं तो बकरे, मुर्गे आदि का मांस, शराब आदि वस्तुओं का उपयोग करते हैं । परन्तु जो व्यक्ति अहिंसाधर्मी हैं, वे स्वयं भी शराब मांस आदि हिंसाजनक वस्तुओं का उपयोग नहीं करते और न अपने अतिथियों को ही देते हैं। __ श्री चोइथराम गिडवानी उन दिनों राज्यपाल थे। वहाँ कोई विशिष्ट विदेशी सज्जन अतिथि के रूप में आने वाले थे। उनके सम्मान में प्रतिभोज देना था । अहिंसाप्रधान इस देश के विदेशी अतिथि के भोज में उन्होंने शराब और मांस का प्रबन्ध न १ महाभारत । २... थेरीगाथा . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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