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प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं किया, देशी मिठाइयों, शर्बत आदि पेय पदार्थों का ही उपभोग आगन्तुक अतिथि को कराया, तथा शराब-मांस का प्रबन्ध न कर सकने का कारण बताकर क्षमायाचना की। विदेशी अतिथि ने उनके इस आतिथ्य की प्रशंसा की और कहा कि मुझे भारतीय खाद्य पदार्थ बहुत अच्छे लगे।
एक और अन्ध परम्परा भारतीय तापसों में प्रचलित थी। वह यह कि वे यह मानते थे। क अनाज आदि के दानों में अनेक जीव होते हैं, इन अनेक प्राणियों का घात करके भोजन प्राप्त करने की अपेक्षा एक वड़ा प्राणी मारकर उससे ४-६ महीनों काम चला लो।' सूत्रकृतांगसूत्र में ऐसे हस्तीतापसों के मत का वर्णन है, जो एक हाथी मारकर उससे ४-६ महीने भोजन का काम चला लेते थे। परन्तु भगवान महावीर ने इस भ्रान्त मत का खण्डन किया है। उनका मन्तव्य यह है कि इस प्रकार का गलत विचार करके किसी महाप्राणी की हिंसा करना कथमपि उचित नहीं है। इसका कारण है कि हिंसा का आधार हिंस्य प्राणियों की गिनती पर निर्भर नहीं है, अपितु प्राणियों के प्राण, इन्द्रिय आदि के विकास के आधार पर निर्णय किया जाता है। एकेन्द्रिय प्राणी की अपेक्षा द्वीन्द्रिय का, द्वीन्द्रिय की अपेक्षा त्रीन्द्रिय का, त्रीन्द्रिय की अपेक्षा चतुरिन्द्रिय का और चतुरिन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय और उसमें भी मनुष्य का, मनुष्यों में भी राजा तथा साधु-साध्वी-आचार्य आदि का विकास उत्तरोत्तर अधिक है । इसी दृष्टि से हिंसा का नाप-तौल होता है । एकेन्द्रिय की हिंसा और पंचेन्द्रिय की हिंसा में, उसके फल में बहुत तारतम्य है। यह मान्यता भी यथार्थ नहीं है कि एक जीव के घात से अनेक जीवों की रक्षा होती है । इसे मानकर भी हिंस्र प्राणियों की हत्या नहीं करनी चाहिए।
___ 'ये प्राणी जिंदा रहेंगे तो बहुत-से जीवों की हत्या करके भयंकर पापोपार्जन करेंगे; इस प्रकार की अनुकम्पा करके उन हिंस्र प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए।'
बहुत से लोग सांप, सिंह, बिच्छू, बाघ आदि जीवों को देखते ही मार बैठते हैं अथवा पहले से ही पता लगाकर उन निरपराधी जीवों को मारते रहते हैं। चाहे वे जीव बिना छेड़े किसी को न मारते हों।
बहुसत्त्वघातजनितादशनाद् वरमेकसत्त्वघातोत्थम् । इत्याकलय्य कार्य न महासत्त्वस्य हिंसनं जातु ॥२॥ रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन । इति मत्वा कर्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्त्वानाम् ॥३॥ बहुसत्त्वघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरुपापम् । इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीयाः शरीरिणो हिंस्राः ॥८४॥
-पुरुषार्थ सिद्ध युपाय
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