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________________ १०० आनन्द प्रवचन : भाग ११ बेचारे ये प्राणी जिन्दा रहेंगे तो बहुत-सा पाप कर्म करेंगे, इसीलिए इन्हें मार दें तो ये भयंकर पाप नहीं कर सकेंगे, ऐसा सोचना ही गलत है। पापकर्म का आधार किसी प्राणी के भावों पर है, न कि किसी प्राणी का न रहना। उस युग में एक दुःखमोचक मत प्रचलित था, जिसकी यह मान्यता थी कि जो प्राणी किसी न किसी दुःख से पीड़ित हैं, अगर वे चिरकाल तक जिंदा रहेंगे तो बेचारे बहुत ही दुखी रहेंगे। इसीलिए इन्हें मार डालने से शीघ्र ही इनके दुःखों का अन्त आ जाएगा। इस प्रकार कुवासना रूपी तलवार लेकर दुःखी जीवों को नहीं मारना चाहिए। बात यह है कि प्राचीनकाल में इस प्रकार दुःखमोचक लोगों का बाहुल्य था, जिन्हें पैसे देकर दुखी लोग अपनी हत्या करवाते थे, किन्तु आजकल स्वयं आत्महत्या कर लेते हैं, कोई विष खाकर, कोई तालाब या नदी में डूबकर, कोई कुए में गिरकर तो कोई रेलगाड़ी से कटकर । आत्महत्या के कारण प्रायः ये होते हैं(१) गृह-क्लेश से तंग आकर, (२) किसी के साथ अनबन हो जाने से, (३) आर्थिक संकट से ऊबकर, (४) कर्जदारी हो जाने से, (५) घर से निकाल देने से । चाहे दूसरे से अपनी हत्या कराए, चाहे स्वयं हत्या करे, कोई भी व्यक्ति इस प्रकार अकाल में ही अपना प्राण छोड़े, उसे सुगति प्राप्त नहीं होती और न ही वह सुखी हो सकता है। बल्कि आत्म-हत्या करने-कराने से घोर हिंसा होती है, जिससे भयंकर कर्मबन्ध होकर अनेक बार दुर्गतियों में भटकना पड़ता है ; इसीलिए ऐसी हिंसा भूलकर भी न करे। इसी प्रकार की एक मूढ़ता उस जमाने में और प्रचलित थी, वह यह कि पता नहीं कब दुःख की घड़ी आ जाए, बड़ी कठिनाई से तो सुख की घड़ी मिली है। सुखी अवस्था में मरने से आगे भी सुख की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार सुखी मनुष्यों को झटपट सुखी करने या भविष्य में शीघ्र सुख दिलाने के लिए उनका वध करना कथमपि हितावह नहीं है। यह संकल्पी हिंसा हो जाएगी, जिसका भयंकर परिणाम भोगना पड़ेगा । अगर इस प्रकार सुखी अवस्था में मरने से आगे सुखी हो जाता तो प्रत्येक देवता अपना आयुष्य पूर्ण होने से पहले ही सुखी-अवस्था में ही मर जाता या दुःखी को मार डालने से उसको दुख से छुटकारा मिल जाता हो तो नरक में सभी नारकी जीव दुखी और त्रस्त हैं, उन्हें परमाधर्मी देव मार-मारकर क्यों नहीं दुःख से मुक्त कर देते ? परन्तु यह रुपये ऐंठने की कपोलकल्पित मान्यता है। यह भी एक प्रकार की पोपलीला है, जैसे पोप लोग स्वर्ग की हुडी, चाहे जिसको लिखकर दे देते और उससे धन ऐंठ लेते थे उससे मिलती-जुलती यह मान्यता है । १ बहुदुःखाः संज्ञपिताः प्रयान्तित्वचिरेण दुःखविच्छित्तिम् । इति वासना कृपाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ॥८॥ २ कृच्छ्ण सुखावाप्तिर्भवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव । इति तर्कमण्डलानः सुखिनां घाताय नादेयः ॥८६॥ -पुरुषार्थ सिद्ध युपाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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