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________________ प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं १०१ 'मेरे गुरुजी ने बहुत वर्षों तक साधना की है, समाधि का बहुत अभ्यास किया है, उसकी उपलब्धि सुगति के सिवाय और कोई हो नहीं सकती।' ऐसा सोचकर शिष्य के द्वारा अपने गुरु का सिर काट लेना भी बहुत बड़ी हिंसा है।' अथवा गुरु के द्वारा स्वयं जीते-जी समाधि लेकर अपने को मिट्टी में दबवा देना या अपने पर मिट्टी का डलवा लेना और मर जाना भी आत्महिंसा है। सद्धर्म के अभिलाषी साधक को ऐसा कदापि न करना चाहिए। आजकल भी कई बाबा, संन्यासी इस प्रकार से जीवित समाधि ले लेते हैं, अपने पर मिट्टी का ढेर डलवाकर उस मिट्टी में दबकर मर जाते हैं। यह समाधि नहीं, असमाधि है, जान-बूझकर शरीर को इस प्रकार छोड़ देने से कोई भी सुखी नहीं होता। हिंसाजनित महापाप के कारण दुर्गतियों में भटकता रहता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न पहलुओं से हिंसा के कारण बता दिये गये हैं। और भी अनेक प्रकार के कारण हो सकते हैं। प्राणिहिंसा किसी भी रूप में हो, वह अकार्य ही है। प्राणिहिंसा किन-किन की ? हिंसा जब अकार्य है तो इसी प्रसंग में यह भी विचार कर लेना चाहिए कि जीव किस-किस प्रकार के प्राणी की हिंसा करता है ? स्थूल दष्टि वाले लोग प्रायः पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा को ही हिंसा मानते हैं। कई उनसे थोड़ी सूक्ष्म बुद्धि वाले लोग द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की हिंसा को हिंसा मानते हैं किन्तु जैनधर्म से परिचित लोग एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की हिंसा को हिंसा मानते हैं । यह बात दूसरी है कि गृहस्थ के लिए एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का सर्वथा त्याग अशक्य है । परन्तु हिंसा तो हिंसा ही है। वह अहिंसा कैसे हो सकती है ? एकेन्द्रिय जीव ये हैं—पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । ये जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि स्थूल नेत्रों से नहीं दिखाई देने, परन्तु इनमें चेतना अवश्य है, यह बात अनुभव से, अनुमान से, आगम से और जीव वैज्ञानिकों द्वारा सिद्ध हो चुकी है। इसलिए इन प्राणियों की हिंसा से भी जितना बचा जा सके. बचना चाहिए। किन्तु द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक की हिंसा से तो अवश्य बचना चाहिए। हाथीदांत, चमड़ा, सींग, नख, मांस, हड्डी, खून, दवाई, वस्त्र, फर, जूते, टोपी, आदि के लिए निर्दोष पशु-पक्षी बहुधा मारे जाते हैं । अतः विवेकी और अहिंसापरायण व्यक्ति को इन जीवों की हिंसा से निष्पन्न वस्तुओं का त्याग करना आवश्यक है। १ उपलब्धि सुगतिसाधनसमाधिसारस्य भूयसोऽभ्यासात् । स्वगुरोः शिष्येण शिरो न कर्तनीयं सुधर्ममभिलषिता ॥ ८७ ॥ -पुरुषार्थ सिद्ध युपाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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