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आनन्द प्रवचन : भाग ११
हिंसा : प्राणातिपात करना, कराना और अनुमोदन भी
कई लोग कहते हैं कि हम स्वयं तो हिसा करते नहीं, दूसरे के द्वारा की हुई हिंसा से निष्पन्न दवा, चमड़ा, वस्त्र एवं मांसादि का उपयोग करते हैं। परन्तु यह थोथा तर्क है। स्वयं प्राणातिपात करना जैसे हिंसा है, उसी प्रकार दूसरे से कराना या दूसरे के द्वारा की हुई हिंसा से निष्पन्न वस्तु का इस्तेमाल करना भी हिंसा है। यह दावा तो तभी किया जा सकता है कि जब सर्वथा आरम्भ-परिग्रह छोड़कर अहिंसा महाव्रती साधु बन जाए; अन्यथा गृहस्थावस्था में आरम्भ करना-कराना खुला रखकर दूसरे के द्वारा किये हुए आरम्भ (हिंसाजन्य) से निष्पन्न वस्तु का स्वयं उपयोग करने पर भी अपने आपको निर्दोष मानना यथार्थ नहीं है । अतः जैसे हिंसा करने में दोष है, वैसे ही हिंसा कराने या हिंसा करने वाले का अनुमोदन करने, समर्थन करने या उसके द्वारा निष्पन्न वस्तुओं को बेचने या उपयोग करने से व्यक्ति हिंसा-फलभागी बनता है । कृत, कारित और अनुमोदित तीनों प्रकार से होने वाली हिंसा त्याज्य और अकार्य समझनी चाहिए। हिंसा के मुख्य भेद
हिंसा के भेदों को समझकर ही पहले कौन-सी हिंसा त्याज्य है, बाद में किस क्रम से हिंसा का त्याग करना चाहिए ? इसका विवेक हो सकता है । आवश्यक सूत्र में मुख्यतया दो प्रकार की हिंसा बनाई गई है
पाणाइवाए दुविहे पण्णत्त तं जहा—संकप्पओ य आरंभओय ।
प्राणातिपात दो प्रकार का कहा गया है जैसे कि संकल्पज और आरम्भज । मांस, हड्डी, चर्म आदि के लिए द्वीन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा करना संकल्पजा है और हल, दंताल, आदि से पृथ्वी को खोदते समय, भोजन आदि बनाते समय, चींटी आदि का मर जाना आरम्भजा' हिंसा है । बाद में इसी आरम्भजा हिंसा को तीन विभागों में आचार्यों ने विभक्त कर दिया है-आरम्भी, उद्योगिनी और बिरोधिनी । गृहस्थ के लिए संकल्पजा हिंसा तो सर्वथा त्याज्य है, शेष तीन में भी विवेक करना आवश्यक है । साधु के लिए तो ये सभी हिंसाएँ त्याज्य हैं ही। प्राणिहिंसा परम अकार्य, अधर्म एवं निषिद्ध क्यों ?
मैंने आपके समक्ष विविध पहलुओं से हिंसा के स्वरूप का प्रतिपादन किया है; इस विश्लेषण के प्रकाश में प्राणिहिंसा को अकार्य एवं अधर्म समझकर उसका त्याग करना चाहिए।
प्रश्न यह होता है कि महर्षि गौतम ने हिंसा को किस अपेक्षा से सबसे बढ़कर अकार्य-अकरणीय--माना है ?
१ आवश्यक सूत्र, हारिभद्रीया वृत्ति
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