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प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं १.३ जैनशास्त्रों का मंथन करने पर हिंसा को परम अकार्य मानने में निम्नलिखित कारण मालूम होते हैं(१) असत्य आदि सब पाप हिंसा में गतार्थ होने से हिंसा का दायरा
बहुत व्यापक है, इसलिए। (२) हिंसा का सीधा फल' हिंस्य जीव और हिंसक पर पड़ता है
इसलिए। (३) सभी जीव सुखपूर्वक जीना चाहते हैं, कोई भी दुःखी होना या
मरना नहीं चाहते, इसलिए हिंसा वर्जनीय है। (४) कटुफल' की दृष्टि से हिंसा अकार्य है । (५) समत्वदृष्टि में बाधक होने से। (६) आत्म-विकास में विघ्नकारक होने से। (७) मनोवृत्तियाँ क्रूर हो जाने से। (८) जीवन-निर्माण में बाधक होने से । (E) असामाजिक तत्त्व प्रविष्ट हो जाने से। हम क्रमशः इन सब कारणों पर संक्षेप में विचार करेंगे
(१) आचार्य हरिभद्रसूरि ने असत्य, चौरी, मैथुन सेवन (अब्रह्मचर्य), परिग्रह आदि सब पापों को हिंसा के अन्तर्गत--हिंसा के पर्यायवाची माने हैं। इस दृष्टि से हिंसा का दायरा दूसरे सब पापों की अपेक्षा विस्तृत है। इसी कारण हिंसारूप महापाप परम अकार्य-कुकृत्य, अधर्म और निषिद्ध हो जाता है।
(२) दूसरे पापों (असत्य आदि) के फल का सीधा और सर्वागीण वैसा कुप्रभाव जीव पर नहीं होता, जैसा हिंसा का होता है। हिंसा की सर्वप्रथम चोट हिंस्य जीव के शरीर और मन पर होती है, प्राणों पर होती है। साथ ही हिंसक के मन पर भी अन्तर्मन में हिंस्य जीव के द्वारा होने वाली प्रतिक्रिया, राजदण्ड एवं लोकनिन्दा का भी भय व्याप्त हो जाता है, प्रतिक्रिया होने पर हिंसक के शरीर पर भी सीधी चोट हिंस्य जीव द्वारा होती है। असत्य, परिग्रह आदि का प्रभाव दूसरे या स्वयं के शरीर पर नहीं होता, न वाणी पर होता है, मन पर होता है ।
(३) भगवान् महावीर से पूछा गया कि निर्ग्रन्थ प्राणातिपात-हिंसा को क्यों छोड़ते हैं ? इसके उत्तर में कहा गया
सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउ न मरिजिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥'
१ दशवैकालिक अ० ६, गा० ११
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