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________________ १०४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ - सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । इसीलिए निर्ग्रन्थ साधु घोर पापरूप जीवहिंसा ( प्राणिवध ) का सर्वथा त्याग करते है । जीवों को सताना, मारना, वध कर देना आदि कोई नहीं चाहता । आचारांग सूत्र में स्पष्ट कहा गया है- "तू वही है, जिसे तू मारना, सताना, कैद करके या गुलाम बनाकर बंधन में रखना, आतंकित करना और डराना-धमकाना चाहता है ।"" इसका आशय यही है कि हिंसा करने वाला व्यक्ति अपने जीवन के दर्पण में देखे कि वास्तव में क्या मुझे स्वयं को दूसरे के द्वारा मारा जाना, सताया जाना आदि अभीष्ट है ? नहीं है, तब जैसा तेरा स्वरूप है, सुख-दुःख का हाल है, वैसा ही दूसरे प्राणी का है । इसलिए हिंसा किसी भी प्रकार से करणीय नहीं है । अपनी सुख-सुविधा के लिए दूसरे जीवों पर कहर बरसाना, उनके प्राणों को संकट में डालना, उन्हें गुलाम बनाकर उनके साथ अमानुषिक व्यवहार करना आदि हिंसा सर्वथा अकार्य समझना चाहिए । (४) जो व्यक्ति जीवहिंसा करता है, दूसरे के प्रति निर्दयतापूर्वक व्यवहार करता है, उसे उसका फल देर-सबेर भोगे बिना छुटकारा नहीं होता । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में स्पष्ट कहा है पंगु - कुष्टि - कुणित्वादि दृष्ट्वा नीरागस्त्रसजन्तूनां हिंसा लंगड़ापन, कोढ़ीपन, कुणित्व ( टूटा या कुबड़ा आदि होना), आदि सब हिंसा के फल हैं, ऐसा देखकर बुद्धिमान सद्गृहस्थ निरपराध त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करे | 2 हिंसाफलं सुधीः । संकल्पतस्त्यजेत् ॥ ज्ञानार्णव में समस्त दुःखों का कारण हिंसा को बताते हुए कहा गया हैयत्किचित् संसारे शरीरिणां दुःख-शोक-मय-बीजम् । दौर्भाग्यादिसमस्तं तद्धिसा-सम्भवं ज्ञेयम् ॥ 'संसार में प्राणियों के दुःख, शोक और भय के कारणभूत जो दौर्भाग्य ( विपन्नता, अभागापन, संकटग्रस्तता, चिन्ता) आदि हैं, उन सबको हिंसा से उत्पन्न होने वाले समझो ।' हिसेव दुर्गतेर्द्वारं हिसैव दुरितार्णवः । हिसैव नरकं घोरं, हिसैव गहनं तमः ॥ हिंसा ही दुर्गति का द्वार है, हिंसा ही पाप का समुद्र है, हिंसा ही घोर नरक है और हिंसा ही सघन अन्धकार है | 8 हिंसा के इन सब कटुफलों या दुष्परिणामों को देखते हुए उसे अकार्य और निषिद्ध बताना उचित ही है । इत्यादि पाठ । – आचा० १।१ १ तुमंसि नाम सच्चेव जं चेव हंतव्वं त्ति मन्नसि २ योगशास्त्र, प्रकाश २, श्लो० १८. ३. ज्ञानार्णव पृ० १२० ४ ज्ञानार्णव पृ० ११३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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