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प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं १०५ (५) हिंसा करने वाला व्यक्ति इतना क्रूर, निर्दयी और स्वार्थी बन जाता है कि वह हर समय दूसरों को दबाने, दबाए रखने, सताने, आज्ञाधीन रखने, गुलाम बनाकर रखने, डराने-धमकाने की फिराक में रहता है । इस कारण वह प्राणिमात्र के प्रति आत्मौपम्य या समत्व के व्यवहार से कोसों दूर पड़ जाता है । वह दूसरों के सुख-दुःख की उपेक्षा कर देता है । दूसरों के साथ सह-अस्तित्व की भावना में भी उसके रुकावट आ जाती है । वह मानवता को भी तिलांजलि दे बैठता है। ये हानियाँ बहुत बड़ी हानियाँ हैं। इसीलिए प्रश्नव्याकरणसूत्र में बताया गया है'एसो सो पाणवहो, चंडो, रुद्दो, खुद्दो, अणारिओ, निग्घिणो, निस्संसो, महन्भओ।'
यह प्राणिवध (जीवहिंसा) चण्ड (प्रचण्ड क्रोधजनक) है, रौद्र (भयंकर) है, क्षुद्र (अति स्वार्थी) है, अनार्य (श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा हेय) है, निघुण (दयारहित) है, नृशंस (अमानुषिक) है, और महाभयजनक है।'
भला, हिंसा कितना घाटे का सौदा है, स्व-परकल्याणशील भव्य जीव के लिए । इसीलिए इसे परम अकार्य बताया गया है।
(६) हिंसा आत्म-विकास में उतनी ही बाधक है, जितनी फसल को उगाने में बंजर भूमि । आत्मौपम्य, आत्मीयता, दया, करुणा, वत्सलता, क्षमा, मृदुता, ऋजुता, सेवा, सहानुभूति आदि आत्म-विकास के लिए उपयुक्त जो भी गुण हैं, हिंसा उन पर तुषारपात का काम करती है। आत्मा का विकास होता है, दूसरी आत्माओं के निकट आने से, दूसरी आत्माओं को अपने समान समझकर उनमें घुल जाने से, सर्वभूतात्मभूत बनने से । परतु हिंसा दूसरी आत्माओं को दूर धकेलती है, वह मारक है, पास ही नहीं फटकने देती। इस सच्चाई (सम्यक्त्व) के प्रकाश को वह मार भगाती है। इसीलिए आचारांग (१।२) में कहा है
___ "त से अहियाए, तं से अबोहियाए, एस खलु गथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए।"
__यह प्राणिहिंसा आत्मा का अहित करने वाली है, एवं अबोध (मिथ्यात्व) का कारण है, निश्चय ही ८ कर्मों की गाँठ है, यह मोह है, यह मारक है, यह साक्षात् भाव-नरक है। भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक (६३) में भी कहा है
'जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ ।' जीवहिंसा आत्महिंसा है, जीवदया अपनी आत्मदया है। महात्मा गाँधी ने भी बहुत मन्थन करके कहा है-“जीवहिंसा आत्मघाती है।" इन सब कारणों से आत्म-विकासघातक होने से जीवहिंसा अकार्य है।
१ प्रश्नव्याकरणसूत्र प्रथम आस्रव द्वार २ आचारांग श्रुत० १, अ० २ ३ भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक ६३
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