________________
१०६
आनन्द प्रवचन : भाग ११
(७) मनोवैज्ञानिकों का यह सिद्धान्त है कि मनुष्य का जैसा मन और मानसिक विचार होता है, वैसी ही उसकी प्रकृति बनती है, सन्तति बनती है, और वैसी ही उसकी जीवनधारा बनती है । हिंसा क्रूरतम विचारों की जननी है। दया, करुणा, आत्मीयता और सहानुभूति का विचार तो हिंसक में सहसा आ नहीं सकता। फलतः हिंसा से मानव की प्रकृति, क्रूर, निर्दय, नृशंस, आत्मघातक और असहिष्णु बनती है। कर प्रकृति वाला मानव क्रोधी, अहंकारी, स्वार्थी, स्वसुखार्थी और कलहप्रिय हो जाता है । हिंसाप्रिय व्यक्ति बात-बात में क्रोधी, तुनुकमिजाज और चिड़चिड़ा हो जाता है । इस तरह हिंसा से मनुष्य की मनोवृत्तियाँ क्रूर हो जाती हैं। इसी कारण हिंसा अकार्य, त्याज्य और निषिद्ध है।
(८) मानव-जीवन का निर्माण यद्यपि छोटी-छोटी बातों का, छोटे-छोटे गुणों का जीवन में बार-बार अभ्यास से होता है । वे छोटी बातें विनय, नम्रता, अनुशासनप्रियता, सेवा, श्रद्धा, दया, क्षमा आदि से सम्बद्ध होती हैं और वे गुण अहिंसा आदि से सम्बद्ध । हिंसा तो उन छोटी-छोटी बातों और सद्गुणों के आग लगाने का काम करती है । हिंसा शान्ति स्थापित नहीं कर सकती, हिंसा से युद्ध, कलह, संघर्ष, मनमुटाव आदि दूर नहीं हो सकते । प्रसिद्ध पाश्चात्य साहित्यकार शेक्सपीयर (Shakespeare) ने कहा है-'Violent delights have voilent ends.' हिंसा की खुशियाँ हिंसाजनक अन्त लाती है। इसलिए हिंसा मानव-जीवन का निर्माण करने में विघ्नकारक है, अहिंसा से ही यह कार्य सुचारु रूप से हो सकता है । हिंसा विध्वंस का काम करती है। इसी कारण हिंसा को अकार्य और अहिंसा को कार्य-आचरणीय बताया गया है।
(E) समाज का ढाँचा हिंसा के आते ही अस्त-व्यस्त और तितर-बितर हो जाता है। समाज को व्यवस्थित, सुखी और शान्तिपूर्ण रखने के लिए अहिंसा की आवश्यकता है । हिंसा समाज को अव्यवस्थित, दुःखी, भयभीत और अशान्त बना देती है। जिस समाज में क्रोध, क्षुद्रता, रुद्रता, मारकाट, आपाधापी, संकीर्ण स्वार्थ, क्रूरता आदि हिंसा की सन्तति व्याप्त है, वह समाज चिरस्थायी नहीं रह सकता। हिंसा से मनुष्य में सामाजिकता नहीं आती है। वह समाजविनाशकारी तत्व है। अतः हिंसा से असामाजिक तत्त्व प्रविष्ट होने के कारण समाज-निर्माण नहीं हो सकता।
इन सब कारण कलापों के कारण हिंसा अकार्यकारिणी है, अधर्म है, पाप का द्वार है, साधक के लिए अनाचरणीय है ।
बन्धुओ ! मैंने काफी विस्तार से विभिन्न पहलुओं से हिंसा के स्वरूप, प्रकार तथा हिंसा की अकार्यता पर प्रकाश डाला है । आप इस पर गहराई से मनन-चिन्तन करिये और महर्षि गौतम के इस जीवनसूत्र को याद रखते हुए आप अपने जीवन से हिंसा का अन्धकार दूर करिये
न पाणिहिंसा परमं अफज्जं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org