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________________ २६४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ गुरुओं के प्रति भावना ठीक नहीं है । एक अनुभवी व्यक्ति ने मार्मिक ब्यंग्य किया है, आज के अधिकांश गुरु-शिष्यों की मनोवृत्ति पर गुरु लोभी शिष्य लालची, दोनों खेले दाँव । दोनों डूबे बापड़े, बैठ पत्थर की नाव ॥ गुरु भी लोभी है, वह विचार करता है-शिष्यों के अनुकूल रहूँगा या कहूँगा तो सभी सुख-सुविधाएं जुट जाएंगी, प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी, और मुझे आदर-सत्कार भी देंगे। फिर इन्हें कुछ चमत्कार बता दूंगा तो अनुरागी भक्त बन जाएंगे । इन्हें कुछ मन्त्र-तन्त्र दे दूंगा तो इनसे जो कुछ चाहूँगा, करवा सकूँगा। इनके मनोऽनुकूल कुछ कर दूंगा तो फिर ये मेरे आश्रम, उपाश्रय, स्थानक, मन्दिर या कुटिया बना देंगे । इस प्रकार गुरु की मनोभावना शिष्य से कुछ ऐंठने की होती है । और उपासक शिष्य भी कहाँ कम है ? वह भी प्रायः यह सोचता है—गुरु के कहे अनुसार कर दूंगा तो ये प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे देंगे । मैं मालामाल हो जाऊंगा, मुकदमा जीत जाऊंगा, पुत्र-पौत्रादिक हो जाएंगे । धनिक हो जाने पर कार, कोठी और बंगला हो जायेगा। एकाध फीचर या सट्टे का अंक बता देंगे तो सारा दारिद्रय दूर हो जायेगा । अथवा ये भूत-प्रेत का प्रकोप दूर कर देंगे, रोग मिटा देंगे, इनसे ये सब कार्य सिद्ध हो जाएंगे तो हमारा क्या नुकसान है ? इनके नियम ये जानें, हमें इससे क्या मतलब ? इस प्रकार गुरु लोभ में गले तक डूब जाता है और शिष्य के रोम-रोम में लालच रम रहा है । दोनों ही एक दूसरे पर दाँव अजमाते हैं। गुरु सोचता है-यह कब मेरे वश में हो और शिष्य सोचता है-कब गुरु की कृपा मेरे पर बरसे। दोनों ही पत्थर की नाव में बैठे हैं। सोना भी तो पत्थर ही है। भला, पत्थर की नैया कब किसको तैरा सकती है ? यह तो डूबने का ही मार्ग है । लोभ के सागर में डूबने पर ऐसे गुरु-शिष्यों का भवसागर से पार होना कदापि सम्भव नहीं है। ऐसे लोलुप गुरु शिष्यों को अन्धकार से निकालते नहीं, बल्कि उन्हें और गाढ़ अन्धकार में ले जा रह हैं; गुरु शब्द के अन्धकार-निरोधक रूप अर्थ का उपहास कर रहे हैं । कोरी मंत्रदीक्षा देने मात्र से या सम्यक्त्व का पाठ सुना देने मात्र से कोई गुरु नहीं बन सकता। ऐसे ही गुरुओं पर तीखा व्यंग्य कसा गया है कान्या मान्या कुर्र, तू चेला मैं गुर्र । कान में गुरुमंत्र फेंक दिया। भले ही मन्त्र लेने वाले ने मन्त्र का कुछ भी आशय न समझा हो, गुरु को इससे कोई मतलब नहीं। उसने जिसे मन्त्र दे दिया, वह उसका शिष्य हो गया, और वह मन्त्रदाता तारणहार गुरु हो गया। आजकल 'सम्यक्त्व' देने के नाम पर ऐसे ही तमाशे चलते रहते हैं। इसमें न तो शिष्य का उत्थान है और न ही गुरु का कोई कल्याण। गुरु को सिर्फ अपने भक्तों की पलटन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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