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________________ पुत्र और शिष्य को समान मानो २६३ या सांप का स्वभाव है कि दबे बिना किसी को नहीं काटते । मनुष्य ही एक ऐसा है कि अपने क्षणिक स्वार्थ के लिये कुकर्मरूपी डंक मारता फिरता है ।" फिर भी शिष्य नहीं माना और बिच्छू को अपराध की सजा देने पर अड़ा रहा । गुरुजी मनोवैज्ञानिक थे । उन्होंने सोचा - समय आने पर इसे समझाकर इसका क्रोध छुड़ा दूंगा । इस समय अधिक समझाना व्यर्थ है । गुरु पूर्णिमा का मंगल दिवस आया। सभी शिष्य हार्दिक उत्साहपूर्वक इस उत्सव को मनाने लगे । उत्सव की पूर्णाहुति के अवसर पर गुरुजी ने मंगल प्रवचन किया । प्रवचन के अन्त में शिष्यों से कहा - " प्रति वर्ष की तरह आज भी तुम सब मुझे गुरुदक्षिणा दोगे । पर प्रति वर्ष तो तुम मुझे अपनी-अपनी इच्छानुसार गुरुदक्षिणा देते थे, आज तुम्हें मेरी इच्छानुसार गुरुदक्षिणा देनी है; बोलो, दोगे न ?” "हाँ हाँ, गुरुदेव ! हमारे अहोभाग्य हैं कि आप स्वयं गुरुदक्षिणा माँग रहे हैं । गुरुदेव ! माँगिये । आपके लिए हम अपने प्राण भी न्योछावर करने को तैयार हैं ।" एक अग्रगण्य शिष्य ने कहा । गुरुदेव ने सभी शिष्यों से अलग-अलग दक्षिणा माँगी । इस दक्षिणा में किसी से भी उन्होंने रुपये-पैसे या भौतिक साधन नहीं माँगे, प्रत्येक शिष्य से उसमें रहे हुए किसी न किसी दुर्गुण को उन्होंने गुरुदक्षिणा के रूप में माँगा । सबसे अन्त में बारी आई उस क्रोधी शिष्य की । गुरुदेव ने इसे भी वात्सल्य भरे स्वर में कहा - "तुम्हें आज गुरुदक्षिणा में मुझे अपना क्रोध देना है ।" "अच्छा गुरुदेव !" यों कहकर गुरुदेव के चरण पकड़कर वह उनमें लोट गया । गुरुदेव उसकी पीठ सहलाने लगे । उसी दिन से उस शिष्य का क्रोध जड़-मूल से निकल गया । इस शिष्य को क्रोधरूपी शैतान के चंगुल से छुड़ाने वाले सद्गुरु थे श्रयः साधक अधिकारी वर्ग के प्राणपुरुष बड़ौदावासी श्रीमन् नृसिंहाचार्यजी । यह है— गुरु के उत्तरदायित्व को निभाने वाले गुरु-लक्षणों से युक्त गुरु-पद की सार्थकता का ज्वलन्त उदाहरण ! गुरु पद के उत्तरदायित्व से दूर परन्तु दु:ख है कि आजकल इससे विपरीत अवस्था भी दृष्टिगोचर होती है । आजकल के कई गुरु भी नाममात्र के गुरु बने रहते हैं, वे अपने त्यागी शिष्यों को न तो मनोवैज्ञानिक ढंग से साधुत्व की साधना का प्रशिक्षण देते हैं, और न ही उन्हें अनुशासन में रखते हैं । केवल शिष्यों की फौज बढ़ाने की शिष्य - लिप्सा ही उनके मन में नाचती रहती है । वे ऐसे शिष्यों को कुछ कहते हुए भी डरते हैं कि कहीं अधिक कहने-सुनने से ये भाग जाएँगे; टिकेंगे नहीं । दूसरी ओर ऐसे त्यागी शिष्य भी गुरु की अवहेलना करते रहते हैं । और जो उपासक (गृहस्थ ) शिष्य (भक्त) हैं, उनके प्रति भी afarin गुरुओं की भावना विपरीत है, वैसे ही अधिकांश उपासक शिष्यों की भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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