SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुत्र और शिष्य को समान मानो २६५ बढ़ाने की फिक्र है, शिष्य के उत्थान की नहीं और शिष्य को अपने जीवन में कुछ त्याग नहीं करना पड़ा, न तो पापकर्म, अनीति, अन्याय और अधर्म का त्याग करना पड़ा और न ही कोई व्रत, नियम अपनाना पड़ा; सस्ते में मुक्ति का टिकट मिल गया । ऐसे गुरु अपने उत्तरदायित्व से कोसों दूर हैं । शिष्य तो अज्ञान और मोह में ग्रस्त है, इसलिए इतना दोषी नहीं; लेकिन गुरु भी जान-बूझकर अज्ञान- मोह में शिष्य को ले जाने के लिए प्रेरित हो, स्वयं भी लोभ-प्रेरित हो, यह तथाकथित गुरु का गुरुतर अपराध है । वे कहाँ गुरु- पद के योग्य हैं, जिनकी दृष्टि शिष्य के धन पर लगी हुई है ? जिसके हृदय में यह चाह है कि शिष्य का धन मेरे अधिकार में आजाये, वह कदाचित् त्यागी के वेश में हो, पर वह गुरु पद के योग्य नहीं । गुरु में धनलिप्सा आई कि वह दुर्गणों का महालय बन जाता है, सद्गुण धीरे-धीरे वहाँ से पलायन कर जाते हैं । इसीलिए साधना - पथ पर बढ़ने वाले साधकों को चेतावनी देते हुए कहा है ―――――――― गुरवो बहवः सन्ति, शिष्यवित्तापहारकाः । गुरवो विरलाः सन्ति शिष्यसंतापहारकाः ॥ दुनिया में ऐसे बहुत-से गुरु हैं, जो विविध उपायों से शिष्यों का धन अपहरण करने में लगे हुए हैं, किन्तु ऐसे गुरु विरले ही हैं, जो शिष्यों का सन्ताप दूर करते हैं । उत्तरदायित्वपूर्ण गुरुओं के लक्षण इसीलिए गुरु का उत्तरदायित्वमूलक लक्षण बताते हुए कहा गया है— गृणाति धर्म शिष्यं प्रतीति गुरुः - जो शिष्य को उसका धर्म बताता है, सिखाता है, वह गुरु है । कुमारबाल प्रबन्ध में भी गुरु का उत्तरदायित्वमूलक अर्थ बताया गया है— सत्त्वेभ्य: सर्वशास्त्रार्थ देशको गुरुरुच्यते । — जो एकान्त हित बुद्धि से प्रेरित होकर जिज्ञासु जीवों को सभी शास्त्रों का सच्चा अर्थ समझाता है, वह गुरु कहलाता है । महाभारत में आध्यात्मिक गुरु का लक्षण इस प्रकार बताया गया हैत्यक्तदाराः सदाचारा, मुक्तभोगा जितेन्द्रियाः । जायन्ते गुरवो नित्यं सर्वभूताभयप्रदाः ॥ — जो स्त्रियों के त्यागी होते हैं, सदाचारपरायण, भोगों से मुक्त और जितेन्द्रिय होते हैं तथा सदैव सब जीवों को अभयदान देते हैं, वे ही गुरु होते हैं । इससे भी उच्चकोटि के आध्यात्मिक गुरु का लक्षण आचार्य हेमचन्द्र ने योग शास्त्र में किया है— Jain Education International महाव्रतधरा धीरा भैक्ष्यमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy