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________________ २६६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ -जो महान् आत्मा महाव्रतधारी हैं, धीर हैं, भिक्षामात्र-जीवी है, सामायिक (समतायोग) में स्थित रहते हैं, धर्मोपदेशक हैं, वे गुरु माने गये हैं। आध्यात्मिक गुरु का लक्षण आत्मानुशासन में बताया गया है प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्र हृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः. प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परनिन्दया, ब्रू याद् धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ॥ ५॥ श्रुतविकलं शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोधने, परणतिरुद्योगो मार्गप्रवर्तन सविधो । बुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञाता मृदुता स्पृहा, यतिपतिगुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम् ॥६॥ आध्यात्मिक गुरु बुद्धिमान्, शास्त्रज्ञ, लोक-व्यवहार का ज्ञाता, निर्लोभ, प्रतिभावान, उपशम परिणामी, आगे की बात को पहले ही जान लेने वाला, प्रायः प्रश्नों से न घबराने वाला, सम्माननीय, जन-मन को आकर्षित करने वाला, परनिन्दा से रहित, गुणनिधान, जो गणनायक स्पष्ट और मधुर शब्दों में धर्मकथा करता है तथा जो संशयरहित शास्त्रज्ञ है, शुद्ध आचरण वाला है, उपदेश देने में रुचि रखता है, धर्ममार्ग की प्रभावना में रुचि रखता है, विद्वानों द्वारा प्रशंसित, औद्धत्यरहित, लोकरीतिमर्मज्ञ, मृदुस्वभावी, निःस्पृह तथा साधुप्रवरों के अन्य गुणों से युक्त हो, वही सज्जनों का गुरु होता है । वास्तव में ऐसे गुरु ही अनुभूत मार्ग पर स्वयं चलते हुए औरों को भी उसी मार्ग पर चलाते हैं। उनमें राग-द्वेष, पक्षपात, ग्रन्थि या कामना नहीं होता, न ही साधना का अभिमान होता है। वे क्रोधादि कषायविजयी एवं जितेन्द्रिय होते हैं। उनके जीवन में शान्ति के स्पष्ट दर्शन होते हैं। आवश्यकता : यथार्थ गुरु की, योग्य शिष्य की यों तो अनादिकाल से जीव संसार के मोह, जन्म-मरण आदि के चक्र में घूमता रहा है । इससे छूटने के लिए न तो उसमें स्वयं ही कोई अन्तःप्रेरणा हुई, और न किसी बाह्य न निमित्त-व्यक्ति, शक्ति या साधन से उद्बोधन मिला । यदि किसी माध्यम से कभी आदेश, प्रेरणा या उपदेश मिला भी तो यथार्थ न मिला, इससे भटकन नहीं मिटी । यथार्थ गुरु मिलें और शिष्य भी तदनुकूल ग्रहणकर्ता हो बभी अज्ञानान्धकार से मुक्ति मिल सकती है। लोकोक्ति है-गुरु बिन होई म ज्ञान । सचमुच गुरु की उपासना से ज्ञान प्राप्त होता है । वैसे तो क्या लोकिक क्या लोकोत्तर हर क्षेत्र में गुरु की मावश्यकता होती है, किन्तु आत्मार्थी को विषय-लम्पट भौर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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