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पुत्र और शिष्य को समान मानो
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बाबाल गुरु तथा चोर को अपरिग्रही गुरु मिल जायें तो कार्य सिद्धि नहीं होती । इसलिए शिष्य को भी सावधानीपूर्वक गुरु का चयन करना चाहिए और गुरु को भी शिष्य का चयन करने के साथ-साथ अपने को तौल लेना होगा । क्योंकि गुरु को अपने मन-वचन-काया तीनों योगों से गुरुत्व की भूमिका निभानी पड़ेगी, उसमें शैथिल्य, प्रमाद या रियायत को जरा भी अवकाश नहीं है । इसी प्रकार शिष्य को भी सावधान रहना होगा अन्यथा जरा सी असावधानी, शिथिलता या प्रमाद-परायणता दोनों के लिए अनर्थकारी सिद्ध होगी ।
माता-पिता का हृदय : सद्गुरु का सर्वोपरि गुण
सद्गुरु के इन सब लक्षणों से बढ़कर सर्वोपरि गुण है— माता-पिता का हृदय । सद्गुरु किसी देश, वेश, जाति और धर्म का हो, उसमें माता-पिता का हृदय होना अत्यावश्यक है । जिस गुरु में शिष्य के प्रति माता-पिता का सा व्यवहार न हो, बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि माता का सा वात्सल्यपूर्ण हृदय न हो, वह चाहे जितने अन्य गुणों से या लक्षणों से युक्त हो, साधक भी हो, किन्तु गुरु- पद के योग्य नहीं है ।
लौकिक व्यवहार में माता-पिता या अभिभावक को भी आद्य गुरु कहा जाता है । वे बालक को पद-पद पर सँभालते और सिखाते रहते हैं। शिशु की प्रत्येक आवश्यकता का ध्यान रखते हैं। उसके खान-पान, शयन, वस्त्र, औषध, उपचार आदि का पूर्ण विवेक रखते हैं । स्वयं गीले में सोकर अपने आश्रित शिशु को सूखे में सुलाते हैं । उसको स्वेच्छा से घुटने के बल चलने देते हैं, जब वह खड़ा होकर चलने लगता है, तब उंगली पकड़कर चलना सिखाते हैं, गिर पड़ता है तो उठाते हैं, छाती से लगाते हैं, हर अच्छे कार्य के लिए शाबाशी देते हैं, साहस के कार्य में आशीर्वाद देकर आगे बढ़ने का मौका देते हैं । जब वह ठीक राह पर चलता है या ठीक काम करता है तो प्यार करते हैं, गलत काम करने पर या गलत राह पर चलने पर फटकारते भी हैं, डाँटतेउपटते भी हैं, उलाहना भी देते हैं, पर इन सबके पीछे बालक का हित ही मुख्य होता है । बालक की तोतली और अस्पष्ट बोली का तो अर्थ वे समझते ही हैं, बालक के मन में क्या विचार है ? वह क्या चाहता है ? इन बातों को बिना कहे ही वे बालक के चेहरे पर से समझ जाते हैं ।
इसी प्रकार लोकोत्तर गुरु भी माता-पिता या अभिभावक के समान शिष्य को आध्यात्मिक जन्म देते हैं, उसे अध्यात्मविद्या के क ख ग से प्रारम्भ करके उच्चकोटि के अध्यात्म-ग्रन्थों को पढ़ने, समझने और जीवन में उतारने का प्रशिक्षण देते हैं। माता-पिता की तरह गुरु शिष्य की भूलों को क्षम्य मानकर धीरे-धीरे वात्सल्यपूर्वक उसे भूलें बताकर सुधारते हैं । उसे अपने सान्निध्य में रखकर उसके खान-पान, शयन, वस्त्र, औषध, उपचार आदि का पूरा ध्यान रखते हैं । उसे इस प्रकार से इन्द्रिय- विजय, कषाय - विजय एवं आवश्यकताओं पर संयम, आदतों पर नियंत्रण एवं
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