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२६८ . आनन्द प्रवचन : भाग ११
, स्वेच्छा से शरीर और मन पर कंट्रोल करने का प्रशिक्षण दे देते हैं कि उसे अनुशासन में रहना भारभूत नहीं मालूम होता। गुरु के द्वारा दी गई ताड़ना, उपालम्भ या फटकार शिष्य को औषध की तरह रुचिकर और हितकर लगती है, वह कभी यह महसूस नहीं करता कि गुरु मेरे शत्रु हैं, मुझे उलाहना देकर अपमानित करते हैं, क्योंकि ऐसी स्थिति में हितैषी एवं आप्त गुरु को वह माता-पिता के समान समझता है। श्री तिलोक काव्य संग्रह की भाषा में कहूँ तो वह शिष्य शुरु को सर्वोपम श्रद्धय समझता हैगुरु मित्र गुरु मात, गुरु सगा गुरु तात,
गुरु भूप गुरु भ्रात गुरु उपकारी है। गुरु रवि गुरु चन्द्र, गुरु देव गुरु इन्द्र,
गुरु देत है आनन्द, गुरु-पद भारी है ।। गुरु देत ज्ञान ध्यान, गुरु देत दान-मान,
गुरु देत मोक्षस्थान, सदा हितकारी है। कहत तिलोकरिख भली-भली देत सीख,
पल-पल' गुरुजी को वन्दना हमारी है । ऐसे परमहितैषी गुरु जब शिक्षा देते हैं तब शिष्य क्या समझता है ? यह उत्तराध्ययन सूत्र में देखिये
पुत्तो मे भाय नाइत्ति साहू कल्लाण मन्नइ सुशिक्षित एवं विनीत शिष्य गुरुदेव की शिक्षा को पुत्र, भ्राता या ज्ञातिजन समझकर दी गई शिक्षा के समान श्रेयस्कर व कल्याणकर समझता है।
माता-पिता जैसे अपने पुत्र को पारिवारिक एवं समाज के व्यवहार की सभी बातें खुले हृदय से समझाते हैं, व्यवसाय सम्बन्धी बातों में कुशल बना देते हैं, वैसे ही मात-पितृहृदय गुरु अपने शिष्य को सारी अध्यात्म-विद्या खुले हृदय से बता देते हैं। वे शिष्य के साथ किसी भी प्रकार का कपट नहीं रखते । माता-पिता की तरह गरु अपने शिष्य को केवल वचन से ही नहीं सिखाते, वरन् अपने आचार, विचार, आहार, विहार और व्यवहार आदि सभी के द्वारा सिखाते हैं । सच्चा गुरु इतना निःस्पृह होता है कि उसे शिष्य मंडली बढ़ाने की कामना नहीं होती। माता-पिता जैसे बच्चे को प्यार भी देते है, तो समय आने पर फटकार भी। वे ऊपर से कठोर होते हैं तो अन्दर से मृदु और मधुर भी । पण्डितराज जगन्नाथ ने ठीक ही कहा है
___ उपरि करवालधाराकाराः क्रूरा भुजंगमपुगवात् ।
अन्तः साक्षाद् द्राक्षादीक्षागुरवो जयन्ति केऽपि जनाः ॥ -जो ऊपर से तलवार की धार के समान तीखे तथा श्रेष्ठ सर्प से भी कर
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