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वन्दनीय हैं वे, जो साधु
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प्रतीकार नहीं करता । क्षमा में ही ऐसी प्रतीकार शक्ति है कि विरोधी क्षमाशील के समक्ष पानी-पानी हो जाता है। दुष्ट मनुष्य भी साधुपुरुष की क्षमा से अपना उग्रस्वभाव बदल देता है।
एक शान्त्यानन्द नाम के साधु थे। बहुत ही क्षमाशील थे। अतः लोगों ने उन्हें क्षमासागर उपनाम दिया था। एक बार नौका में बैठकर वे कच्छभुज जा रहे थे। उनके साथ एक दुष्ट प्रकृति का मनुष्य बैठा था। वह साधु को सताने लगा। पहले तो महात्मा को उसने कंधे से धक्का मारा। फिर उनके घुसा मारने लगा। साधु कुछ भी न बोले । साधु का मस्तक झुरमुण्डित और नंगा था। वह दुष्ट उस पर ठोला मारने लगा। फिर भी वे सन्त शान्त रहे । फिर उसने छुरी निकाली और कहने लगा- "मैं चीर-फाड़ करने वाला जर्राह डॉक्टर हूँ।" यों कहकर उसने महात्मा के शरीर पर छुरी रगड़कर खून निकाला। दुष्ट का यह कृत्य प्रकृति को सहन न हुआ, आकाशवाणी हुई—“संत के सिवाय नौका में बैठे हुए सभी डूब जाएँ।"
संत बोले-'मैं पापी हूँ, जिस नौका में मैं बैठा हूँ, वह डूबने जा रही है ।"
तुरन्त दूसरी आकाशवाणी हुई—“संत को सताने वाला दुष्ट मनुष्य नौका से उछलकर अकेला डूब जाएं।" इस पर संत बोले- '' मैं अभागा कैसा पापी हूँ, कि मेरे पास बैठने वाले की बेहूदी मृत्यु हो।"
तीसरी बार आकाशवाणी हुई-"आपकी क्या इच्छा है ?"
महात्मा बोले-“जिस आदमी के दुष्ट स्वभाव से यह सब हुआ है, उसका दुष्ट स्वभाव उसके हृदय से निकलकर समुद्र में डूब जाए।"
सबके आश्चर्य के बीच महात्मा के क्षमाभाव की प्रतीकार-शक्ति के प्रभाव से सहसा उस दुष्ट की दुष्टता चली गई । वह संत के चरणों में गिरकर अपनी दुष्टता के लिए क्षमा माँगने लगा। उसने महात्मा की क्षमाशीलता से क्षमाभाव का पाठ सीख लिया।
वास्तव में साधु की क्षमाशीलता और सहिष्णुता ही उसे विश्व-वन्दनीय बना देती है।
साधु को वन्दनीय बनाने वाला दूसरा गुण-मृदुता है। मृदुता का अर्थ हैकोमलता । साधु-जीवन में कठोरता उसके अन्य गुणों पर पानी फिरा देती है। साधु की मृदुता ही उसे दूसरों के प्रति दयाशील, करुणाप्रवण, सेवाभावी और सहानुभूतिपरायण बनाती है । इसीलिए कबीरजी कहते हैं
वृक्ष कबहुँ नहिं फल' भखै, नदी न संचै नीर । परमारथ के कारणे, साधुन धरा शरीर । नहिं सीतल' है चन्द्रमा, हिम नहीं सीतल होय । कबीरा सीतल' संतजन, नाम सनेही सोय ॥
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