SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ करते हैं । केवल इस प्रकार के आयोजनों में कुशल होने मात्र से वह वन्दनीय नहीं कहला सकता । साधुत्व के गुण ही साधु को वन्दनीय बनाते हैं। इसीलिए दशवकालिकसूत्र में स्पष्ट कहा है गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू । गिण्हाहि साहू गुणमुचऽसाहू ।' भावार्थ यह है कि साधु गुणों से ही साधु (वन्दनीय) कहलाता है । दुगुणों से वह असाधु (अवन्दनीय) कहलाता है । इसलिये साधु-गुण ही साधुत्व के सूचक हैं, जबकि गुणों से मुक्त साधु असाधुत्व का । यही कारण है कि तिलोककाव्य संग्रह में स्पष्ट कहा है लाजे मति साधु गुणिजन देखके, जायके भाव से वन्दन कीजे । षट्काया अभयदान निरन्तर, दान निर्दोष सुपातर दीजे ।। मन-वच-काया करण-करावण, नवकोटि शुद्ध दान करीजे । राग-द्वष-मद-मोह तिलोक के, तज निरंजन ध्यान धरीजे ।। भावार्थ स्पष्ट है । वास्तव जो साधु जगत के प्राणिमात्र को अभयदान देता है, राग-द्वष, मद और मोह के त्याग की साधना करता है, सिद्ध (मुक्त) परमात्मा का ध्यान करता है, ऐसे साधु को गुणों से युक्त जानकर भावपूर्वक वन्दना करनी चाहिये। साधु : किन गुणों से वन्दनीय ? प्रश्न हो सकता है, साधु में कौन-कौन-से गुण होने चाहिये, जिन गुणों से वह वन्दनीय कहा जा सके ? । मेरे नम्रमत से दस प्रकार के जो श्रमणधर्म हैं, वे ही श्रमण (साधु) के मुख्यगुण हैं, जो श्रमण को विश्ववन्द्य बना देते हैं । वे दस श्रमण धर्म इस प्रकार हैं(१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) शौच, (५) सत्य, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग, (६) आकिंचन्य और (१०) ब्रह्मचर्य । क्षमा साधु का सबसे पहला और मुख्य गुण होना चाहिये । क्षमा के दो अर्थ होते हैं--(१) क्षमा करना, क्षमा माँगना तथा (२) सहिष्णुता । क्षमा का अर्थ है'सत्यपि प्रतीकारसामर्थ्य अपकारसहनं क्षमा'-प्रतीकार करने का सामर्थ्य होने पर भी अपकार का सहन करना क्षमा है । कोई निन्दा करे, अपमान करे, गाली दे, प्रहार करे अथवा किसी भी प्रकार से कोई कष्ट दे, परेशान करे, किसी भी प्रकार से चोट पहुँचाए, साधु का आदर्श क्षमा करना है। साधु निन्दा के बदले निन्दा, अपमान के बदले अपमान, प्रहार के बदले प्रतिप्रहार अथवा गाली के बदले में गाली देकर कदापि १. दशवै० अ० ६ उ. ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy