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आनन्द प्रवचन : भाग ११
लोग अमृत की खोज में जगह-जगह भटकते हैं, जंगल और पहाड़ की खाक छानते हैं, फिर भी अमृत उनके हाथ नहीं आता । परन्तु वास्तव में देखा जाए तो संत की मृदुल, सुधासम वाणी ही अमृत है । उसकी मृदुता दूसरों को अपना बना लेती है।
संत मूलदास ने एक अबोध लड़की को गले में फांसी लगा कर कुए में डूबने को उद्यत देखा तो उनकी मृदुता सिहर उठी । वह बोले- 'बेटी ! ऐसा क्यों कर रही हो ? रुको, क्या बात है ?" लड़की ने कहा-"मुझ पर आफत उतर आई है । कल न्यायालय में मुझे बयान देना पड़ेगा कि यह किसका पुत्र है ? वह तो मुझे छोड़कर भाग गया । पर मैं अब अशरण होकर कहाँ रहूँगी, कैसे जीऊंगी ?" ।
संत मूलदास ने तुरन्त सारी परिस्थिति समझ ली। वे बोले-'बेटी ! तुम न्यायालय में मेरा नाम ले लेना । सत्य क्या है ? यह तो तू, मैं और प्रभु जानते हैं।" कन्या ने कहा-"आप जैसे पवित्र संत का नाम लेकर मैं अपराध की भागिनी नहीं बनना चाहती । मेरा जो भी होना होगा सो होगा।"
मूलदास-"मैं बदनामी से नहीं डरता। समाज द्वारा दिया गया सम्मान या अपमान तो क्षणिक है । सत्य को जब समाज जानेगा, तब स्वयं ही पश्चात्ताप करेगा।"
कन्या को आश्वासन मिला। भरी अदालत में जब संत मूलदास का नाम लोगों ने सुना तो उसके प्रति अश्रद्धा, धिक्कार, फटकार, निन्दा, गाली और बदनामी की बौछार होने लगी। संत मूलदास हंसते-हंसते उस लड़की को अपने आश्रम में ले गये । लड़की के बच्चा हुआ। उसके पालन-पोषण का सारा प्रबन्ध हो गया। वह लड़की सात्त्विक एवं संयमी जीवन बिताने लगी। वहाँ रहकर उसने सेवानिष्ठ, तपोनिष्ठ संयमी जीवन से स्वयं को विभूषित किया। आखिर एक दिन वहाँ के राजा ने संत मूलदास एवं उस लड़की की बातचीत सुनी तो पिता-पुत्री के मधुर सम्बन्ध की बात जानी । राजा ने पश्चात्तापपूर्वक संत से क्षमा माँगी। सारे प्रजाजन अब सत्यता को जान चुके थे । वे भी संत मूलदास का अत्यधिक आदर करने लगे।
वास्तव में संत मूलदास की कोमलता-मृदुता ने ही यह सब कराया। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है
संत हृदय नवनीत-समाना। संत का हृदय और वचन मक्खन के समान अत्यन्त कोमल होता है। मक्खन तो जरा-सी आंच लगने पर पिघलता है, परन्तु संत-हृदय बिना ही आँच के दुःखित को देखकर द्रवित हो उठता है ।
साधु को वन्दनीय बनाने वाला तीसरा गुण ऋजुता-सरलता है। साधु में इतनी सरलता होती है, वह दूसरे को भी दुश्मन को भी अपना आत्मीय समझकर
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