________________
धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं - १
सेवा : धर्मकार्य का उत्तमांग सेवा — निःस्वार्थ एवं निष्काम सेवा मानवजीवन को उत्कृष्ट एवं पूर्ण बनाने हेतु एक महत्त्वपूर्ण धर्मसाधना है । जो फल अनेक प्रकार की बाह्य तपश्चर्या से, विविध धार्मिक क्रियाकाण्डों से, धर्मानुष्ठानों, धार्मिक उपासना विधियों से प्राप्त होता है, वह निःस्वार्थ सेवा द्वारा अनायास ही मिल जाता है । स्व० वल्लभभाई पटेल ने कहा- पिछड़े लोगों की सेवा ईश्वर सेवा है । जैन धर्मग्रन्थ में भी एक जगह उल्लेख है— जे गिलाणं पडियरइ, से ममं पडियरई' – अर्थात् भगवान महावीर ने फरमाया - जो ग्लान (रुग्ण एवं अशक्त) की सेवा परिचर्या करता है, वह एक तरह से मेरी ही सेवा करता है । तथागत बुद्ध ने भी कहा था- ' - ' जिसे मेरी सेवा करनी है, वह पिछड़े हुए पीड़ितों की सेवा करे ।' राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था- 'मैं इन लाखों पीड़ितों की सेवा के द्वारा भगवान् की सेवा करता हूँ ।' महात्मा गांधीजी के आश्रम में एक संस्कृत के विद्वान थे— परचुरे शास्त्री, जिन्हें दुर्देव से कुष्टरोग ने आ घेरा । आश्रमवासी कुष्टरोगी के निकट जाने से डरते थे, कि कहीं हमें यह चेपी रोग न लग जाय । महात्मा गांधी को पता लगा तो वे स्वयं शास्त्रीजी की सेवा में पहुँच गये । स्वयं गांधीजी गर्म पानी से उनका घाव धोने लगे । शास्त्रीजी संकोचवश इन्कार करते रहे, परन्तु गांधीजी स्वयं उनकी सेवा में जुट गए । घाव धोकर दवा लगाना, दवा पिलाना, पथ्य-परहेज का ध्यान रखना आदि सब सेवाएँ गांधीजी प्रतिदिन नियमित रूप से करते थे । क्या यह रुग्ण सेवा धर्मकार्य नहीं है ?
इसी प्रकार पिछड़े, पददलित, पीड़ित, बाढ़ पीड़ित, भूकम्प पीड़ित, महामारीपीड़ित या आफत से घिरे, जल में डूबते, कुए में गिरते, या अन्य किसी भी प्रकार की विपदा में फंसे हुए संकटग्रस्त व्यक्ति या वर्ग की निःस्वार्थ सेवा धर्मकार्य की कोटि में ही परिगणित की जाएगी। इसी प्रकार अनाथ, किसान वर्ग, दीन-दुःखी, विधवा, पीड़ित महिला, अस्पृश्य कही जाने वाली जाति आदि की सेवा करना भी धर्मकार्य है उन्हें व्यसनमुक्त और न्यायनीति युक्त बनाना भी ।
धर्ममय या अहिंसक समाज रचना का प्रयोग भी धर्म-सेवा कार्य-समाज की हर प्रवृत्ति को धर्म (अहिंसा, सत्य, नीति, न्याय आदि) से अनुप्राणित करने का प्रयोग इसमें जाति-पाँति के, या साम्प्रदायिक, प्रान्तीय या भाषा सम्बन्धी भेदभाव के बगैर सार्वजनिक सेवाभाव से करना भी धर्म- सेवा का कार्य है । ऐसे प्रयोग की प्रत्येक प्रवृत्ति लोक संस्था या व्रतबद्ध लोकसेवक संस्थाबद्ध होती है, तथा सप्त कुव्यसनों का त्याग करके नीति, न्याय, अहिंसा आदि की तराजू पर तौलकर ही महाव्रती साधु-साध्वियों के मार्गदर्शन से सारे कार्य होते हैं । लेन-देन के मसले, या अन्य कोई पारस्परिक झगड़े भी आंशिक ढंग से परस्पर समाधान से निपटाये जाते हैं । महात्मा गांधीजी और सन्त विनोबा ने ऐसे कई प्रयोग हमारे देश में किये हैं ।
दान, शील, तप और भावरूप धर्म का आचरण भी धर्मकार्य — जैनाचार्यों ने दान, शील, तप और भाव इन चारों को धर्म का - व्यावहारिक धर्म का अंग माना
Jain Education International
६७
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org