________________
६८
आनन्द प्रवचन : भाग ११
है । जो व्यक्ति इहलौकिक या पारलौकिक किसी भी स्वार्थ, भय, प्रलोभन, विषयसुख, चन, सन्तान, स्वर्ग आदि की कामना और वांछा का त्याग करके केवल निर्जरामात्मशुद्धि-कर्मक्षय की वृद्धि से या वीतरागता प्राप्त करने की दृष्टि से इन चारों का आचरण करता है, इस धर्मचतुष्टय के आचरण के पीछे किसी प्रकार की बदले की भावना, सौदेबाजी, नामबरी, प्रसिद्धि, यश-कीर्ति या स्वार्थ की भावना नहीं है, तो समझना चाहिए यह धर्मकार्य है।
धर्मकार्य की कसौटी-जैनशास्त्र दशवकालिक सूत्र में तप और आचार (धर्माचरण) के सम्बन्ध में बहुत ही सुन्दर स्पष्टीकरण किया गया है
नो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो परलोगयट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो कित्तिवन्न-सद्द-सिलोगट्ठयाए तवमहिछिज्जा, नन्नत्थ णिज्जरठ्याए तवमहिट्ठिज्जा ॥ नो इहलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा, नो परलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा, नो कित्तिवन-सद्द-सिलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा,
नन्नत्थ आरहंतेहि हेऊहिं आयारमहिट्ठिज्जा ॥ अर्थात्-किसी इहलौकिक प्रयोजनवश तपश्चर्या न करो, न किसी परलोक के प्रयोजनवश तप करो, न कीर्ति, वर्ण (यश), शब्द (प्रशंसादि शब्द) या श्लोक (प्रशस्ति आदि) के लिए तपश्चरण करो, केवल एकमात्र निर्जरा (कर्मक्षय द्वारा आत्मशुद्धि) के लिए तपश्चरण करो।
इसी प्रकार इहलोक के किसी स्वार्थवश ज्ञानादि पंच आचार का पालन न करो, न परलोक की किसी आकांक्षावश ज्ञानादि पंचाचार का पालन करो, न कीर्ति, यश, प्रसिद्धि, नामबरी प्रशंसा आदि के लिए आचार का पालन करो, किन्तु एकमात्र वीतरागता प्राप्ति के प्रयोजन से आचार का पालन करो।
यह है तपश्चरण और ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार के पालन के पीछे शुद्ध धर्मदृष्टि का स्पष्टीकरण ।
तात्पर्य यह है कि दान, शील, तप, भाव या पाँचों आचार तभी धर्मकार्य होंगे, जबकि ये उपर्युक्त कसौटी पर पूरे उतरें। जहाँ दान, शील, तप और भाव के पीछे देखादेखी, शर्मा-शर्मी, दबाव, भय, लोभ, आदि की प्रेरणा होगी, जहाँ अर्थप्राप्ति का प्रयोजन होगा, जहाँ यश, कोर्ति, प्रसिद्धि, प्रशंसा, अहंकार, गौरव आदि की स्पृहा होगी या इस लोक या परलोक से सम्बन्धित कोई विषयभोगेच्छा होगी, या किसी प्रकार की फलाकांक्षा होगी, वहाँ ये सब धर्मकार्य की कोटि में परिगणित नहीं होंगे।
. एक व्यक्ति अहिंसा का पालन करता है, किन्तु करता है, केवल दिखावे के लिए; इसलिए जब कोई देखता है, तब बहुत ही फूंक-फूंककर चलता है, किन्तु जब कोई
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org