________________
धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-१
६६
नहीं देखता, तब वह अन्धाधुन्ध चलता है। इसी प्रकार सत्यव्रत तो ग्रहण कर लिया है, पर बहुत-सी बातें माया-कपट से इस प्रकार बोलता है, जिससे सुनने वाला समझता है, यह सत्य बोलता है, परन्तु होता है, वह झूठ ही। आत्मा की वफादारी से बोला जाने वाला सत्य ही वस्तुतः धर्मकार्य हो सकता है। इसी प्रकार अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह भी प्रदर्शन न हों या वे इहलौकिक-पारलौकिक आकांक्षा से ओतप्रोत न हों, तभी धर्मकार्य की कोटि में आ सकते हैं।
जैनशास्त्रों में सम्यग्दर्शन को एवं सम्यग्ज्ञान को धर्म बताया गया है क्योंकि ये मोक्षमार्ग के अंग हैं । परन्तु सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन धर्मकार्य तभी कहलाएंगे, जब वे आचार (दर्शनाचार और ज्ञानाचार) में परिणत हों, क्रियान्वित हों। कोई व्यक्ति देव, गुरु, धर्म का पाठ गुरु से पढ़ या सुनकर यह मान बैठता हो कि मेरे में सम्यग्दर्शन आ गया है तो यह भ्रान्ति है । इसी प्रकार जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन की (निश्चय और व्यवहार से) बड़ी-बड़ी बातें बघारता हो, किन्तु जोवन में सम्यग्दर्शन न आया हो, वहाँ साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता, कटटरता हो, सापेक्षदृष्टि या समन्वय दृष्टि (अनेकान्तवाद) का अंश न हो, दूसरों को मिथ्यात्वी या मिथ्यादृष्टि तथा अज्ञानी या मिथ्याज्ञानी कहने में शूरवीर हो, जीवन में भौतिक दृष्टिपरायणता हो, बातें आध्यात्मिकता की बघारता हो लेकिन दृष्टि में पौद्गलिक पदार्थों, भौतिक सुख-सुविधाओं की आकांक्षा हो, तो ऐसा कागजी या पुस्तकीय सम्यग्दर्शन धर्मकार्य नहीं हो सकता। इसी प्रकार जैनागमों या धर्मशास्त्रों की भाषाज्ञान की दृष्टि से व्याख्या लम्बी-चौड़ी कर लेता हो, तथा आजीविका, प्रसिद्धि या अन्य सांसारिक प्रयोजनवश शास्त्र का उपदेश देता हो, पर जीवन में शास्त्रीय ज्ञान का अंश भी उतरा न हो तो वह सम्यग्ज्ञान, धर्मकार्य नहीं होगा।
इसी प्रकार अहिंसादि तथा तपश्चर्या आदि चारित्राचार या तप-आचार केवल प्रदर्शन के लिए हो, अन्तरंग में आत्मसाक्षी से ये दोनों आचार निष्ठापूर्वक जीवन में न उतरे हों तो ये धर्मकार्य में कैसे समाविष्ट होंगे ?
बन्धुओ ! इन सब कसौटियों पर कसकर धर्मकार्य को ही जीवन में प्राथमिकता दीजिए। वही सब कार्यों में श्रेष्ठ है । अभी धर्मकार्य के सम्बन्ध में कई अन्य पहलुओं से विचार करना अवशिष्ट है, अगले प्रवचन में उस पर प्रकाश डाला जायेगा।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org