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________________ ६४. धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-२ प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ ! पिछले प्रवचन में मैंने आपके समक्ष धर्मकार्य के सम्बन्ध में काफी स्पष्टीकरण किया है, फिर भी कुछ पहलू और अवशिष्ट रहे हैं, जिनके विषय में आज विश्लेषण करना आवश्यक समझता हूँ। अतः इस प्रवचन में पुनः उसी ५१वें जीवनसूत्र पर विवेचन करूंगा। विषय कोई गूढ़ नहीं है, परन्तु जब सैद्धान्तिक दृष्टि से उस पर चिन्तन-मनन किया जाता है, तो गहराई में उतरना पड़ता है। मेरा विश्वास है कि भगर आप ध्यान से सुनेंगे तो इस विषय को सूक्ष्मता से हृदयंगम कर सकेंगे। अन्य कार्यों से पहले धर्मकार्य क्यों ? जगत में अगणित ऐसे कार्य हैं, जिन्हें न तो हम धर्मकार्य कह सकते हैं और न ही पापकार्य । शरीर-सम्बन्धी जितने भी कार्य हैं, जैसे कि नींद, भोजन, चलनाफिरना, सोना-जागना, पीना, उठना-बैठना आदि न तो अपने आप में धर्मकार्य हैं, न ही पापकार्य; इन क्रियाओं से सम्बन्धित भाव के अनुसार ही उनके धर्म, पुण्य या पाप होने का अनुमान लगाया जाता है। इसलिए इतना कहना होगा कि सेवा, दया, करुणा आदि जैसे सीधे धर्मकार्य हैं, वैसे ये सीधे धर्मकार्य नहीं हैं। इसके अतिरिक्त संसार में और भी कार्य हैं, जिन्हें हम धर्मकार्य नहीं कह सकते-जैसे विवाह के रीतिरिवाज, मृतक के संस्कार कर्म, जातकर्म, नामकरण, वस्त्रपरिधान, व्यापार, धंधा, नौकरी, कल-कारखाना चलाना, खेती करना, बगीचा लगाना, वृक्षारोपण, मजदूरी, नौका चलाना, कार चलाना, मकान बनवाना, दवा बनाना, पतंग उड़ाना, रखवाली करना आदि अगणित क्रियाएं । ये सब क्रियाएं धर्म, पाप या पुण्य तभी कहलाती हैं, जब इनके साथ धर्म, पाप या पुण्य की वृत्ति या मर्यादा संलग्न हो। यदि कोई क्रिया धर्ममर्यादा में आती है, कर्तव्यभावना से की जाती है, सेवा की दृष्टि से की जाती है, या दया, करुणा, सहानुभूति आदि की दृष्टि से की जाती है, तो वह धर्म करार दे दी बाती है, यदि उस क्रिया के पीछे अपनी नामबरी, प्रसिद्धि, यशकीर्ति या मामूली स्वार्थ की भावना है तो वह पुण्यजनक क्रिया हो जाती है, और जहाँ दूसरों को हानि पहुँचाने, सताने, दूसरों का हक छीनने, हिंसा, झूठ या बेईमानी करने आदि की दृष्टि से कोई क्रिया की जाती है, वहाँ वह क्रिया पापजनक हो जाती है । अब रहा धर्मक्रियाओं का प्रश्न ! वे ही धर्मक्रियाएं धर्मकार्य में गिनी जा सकती हैं, जिनके पीछे शुद्ध धर्मतत्त्व (अहिंसा, सत्य, न्याय, नीति आदि) का पुट हो, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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