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________________ ममत्वरहित ही दान पात्र हैं गया । उन्हें तीन बार प्रदक्षिणा करके विधिवत् (तिवखुत्तो के पाठ से ) वन्दन- नमस्कार किया; और जहाँ अपना भोजनगृह था वहाँ उन्हें सम्मानपूर्वक लेकर आया । फिर उन्हें अपने हाथों से विपुल अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम चारों प्रकार के आहार देने की उत्कृष्ट भावना से उन्हें आहार दिया । आहार देने से पूर्व, आहार देते समय और आहार देने के बाद यों तीनों समय सुमुख गृहपालक के मन में अतीव प्रसन्नता और सन्तुष्टि थी । उसके बाद उस सुमुख गृहपति ने उक्त दान में द्रव्य-शुद्धि, दाता की शुद्धि और पात्र की शुद्धि, मन-वचन-काया से कृत-कारित अनुमोदितरूप त्रिकरण शुद्धिपूर्वक सुदत्त अनगार को प्रतिलाभित करने ( दान देने) से अपना संसार (जन्म-मरण का चक्र) सीमित कर लिया । मनुष्यायु का बन्ध किया । २८७ इस प्रकार एक महान् अकिंचन अनगार को विधिपूर्वक, अत्यन्त पवित्र भावना से दान देने का कर्त्तव्य अदा करने से सुबाहुकुमार ने पूर्वजन्म और इस जन्म - दोनों जन्मों में सुख-शान्ति, वैभव एवं सुखमय जीवन व्यतीत किया । इस पर से हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि जो भव्य मानव ऐसे उत्कृष्ट ममत्वरहित साधक को उत्कृष्ट भाव से दान देता है, वह अवश्य ही अपने जन्मजन्मान्तर को सार्थक करता है । बन्धुओ ! आप भी महर्षि गौतम के परामर्श के अनुसार ममत्वरहित अकिंचन साधुओं को दान देकर अपने इहलोक - परलोक को सार्थक करें । # Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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