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७७. पुत्र और शिष्य को समान मानो
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं आपके समक्ष गुरु और शिष्य के सम्बन्ध के विषय में विस्तार से चर्चा करना चाहता हूँ। मोक्ष का मार्ग इतना विकट है कि अगर गुरु-शिष्य दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध ठीक न हो, या ठीक तरह से न समझा जाये तो गुरु भी संसार के बीहड़ में भटका सकता है, और शिष्य भी लोभ या स्वार्थ में आकर संसार की मोहमायाभरी अटवी में ही भटक सकता है । दोनों ओर से बहुत बड़ा खतरा है । दोनों की बहुत बड़ी जिम्मेवारी है। अगर शिष्य गुरु को पिता मानकर न चले तो वह भटक सकता है, और गुरु शिष्य को पुत्रसम न माने तो वह भी कर्तव्यच्युत होकर उसे मोह के अन्धकूप में डाल सकता है। इसीलिये गौतमकुलक में गुरु और शिष्य के पवित्र सम्बन्ध का परिज्ञान कर लेना आवश्यक बताया है। गौतमकुलक का यह ६३वाँ जीवनसूत्र है, जिसमें कहा गया है
पुत्ता य सीसा य समं विभत्ता -पुत्र और शिष्य इन दोनों को समान जानना चाहिए ।
इस जीवनसूत्र में शिष्य पर जिम्मेवारी डालने के बजाय गुरु पर विशेष जिम्मेवारी डाली गई है कि उसका गुरु-पद तभी सार्थक हो सकता है, जब वह शिष्य को अपने पुत्र के समान ही माने-समझे । गुरु-पद की सार्थकता
गुरु का पद भारतीय संस्कृति में बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना गया है । यह पद जितना बड़ा है, उतनी ही इस पद की जिम्मेवारी बड़ी है। आप यह न समझ लें कि किसी ने वेष पहन लिया और दो-चार चेले मुंड लिये इतने से ही गुरु-पद प्राप्त हो जाता है । गुरु-पद को प्राप्त करने के लिए बहुत बड़ी साधना की जरूरत है। गुरु-पद को पाकर जो अपनी जिम्मेवारी नहीं समझता, वह सुगुरु नहीं, कुगुरु कहलाता है।
यद्यपि आत्म-साधना में सहायक और सहयोगी बनने में गुरु का महत्त्वपूर्ण स्थान है, वह महनीय और पूजनीय समझा जाता है तथापि इस महत्त्वपूर्ण पूजनीय पद का दुरुपयोग भी बहुत हुआ है । आज भी हो रहा है । कुछ मनचले चालाक लोगों में गुरु के स्थान और पद की महिमा होती देखकर तथा इस पवित्र पद से स्वार्थसिद्धि
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