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________________ २८६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ की, जवान हुआ। इसकी पूर्वभव (सुदत्त भव) की पत्नी कौशाम्बी नगरी के युगबाहु राजा की रानी विमलमती के उदर से राजपुत्री के रूप में पैदा हुई । उसका नाम रखा गया-मदनमंजरी। उसने भी यौवन अवस्था में पदार्पण किया। विवाह योग्य हुई। मदनमंजरी श्रेष्ठ वर प्राप्त करने हेतु रोहिणी देवी की आराधना करती थी । उसे देवी ने 'वसुतेज' दिखाया और वसुतेज को मदनमंजरी दिखाई । दोनों का परिचय देकर कहा-तुम दोनों पति-पत्नी के रूप में एक-दूसरे के जीवन साथी बनोगे। लो यह एकावली हार । इसे २१ बार पानी में डुबोकर वह पानी जिस पर छींटोगे, उसके शस्त्रादि के घाव भी तुरन्त ठीक हो जायेंगे। राजकुमारी ने सारी बात अपनी सखी से कही । सखी ने उसकी माता से कहा । माता ने उसके पिता से। पिता ने कुमारी दलबल सहित विवाह के लिए भेजी। किन्तु यहाँ एक विघ्न आगया । मंगल राजा ने बीच में ही अन्य सब सुभटों को मार भगाया और मदनमंजरी का अपहरण करके ले गया। वसुतेजकुमार ने मदनमंजरी की परीक्षा करके मंगलराजा को जीवित ही पकड़ लिया और मदनमंजरी को अपने घर ले आया। अन्त में मदनमंजरी के साथ पाणिग्रहण किया। मंगलराजा को भी आदरपूर्वक छोड़ दिया। वह मित्र बन गया अब । वसुतेज को राजा श्रीतेज ने राजपाट सौंप दिया और स्वयं तपोवन में चले गये । वसुतेज ने भी पिता की तरह अनेक राजाओं को आज्ञाधीन बना लिया । एक पुत्ररत्न भी हो गया। एक दिन राजा गवाक्ष में बैठा था। तभी रानी आई और उसने वसुतेज राजा के सिर पर सफेद केश देखकर कहा-"प्राणनाथ ! यमराज का बुलावा आ गया हैं।" इस पर राजा को संसार से विरक्ति हो गई। इसी अवसर पर चतुर्ज्ञानी मुनिवर वहाँ पधार गये। उनके दर्शन करने दोनों पहुँचे। धर्मोपदेश सुना । राजा ने दीक्षा ली, साथ में रानी ने भी। दोनों चारित्रपालन करके देवलोक में गये । क्रमशः ७वें भव में मनुष्य जन्म पाकर मोक्ष प्राप्त किया। यह है सुपात्रदान—निर्ममत्व साधु को दान का फल । सुखविपाकसूत्र आदि में सुपात्रदान वर्णन इसी प्रकार सुखविपाकसूत्र में सुबाहुकुमार का बहुत ही भव्य सुखमय जीवन का वर्णन आता है। ___ आदर्श श्रमणोपासक सुबाहुकुमार हस्तिनापुर नगरनिवासी सुमुख गृहपति के भव में (पूर्वभव में) एक दिन धर्मघोष स्थविर के शिष्य सुदत्त अनगार को, जो कि मासिक (मासक्षपण) तप करते थे, मासक्षपण तप के पारणे के लिए अपने घर की ओर आते देखा । देखते ही सुमुख गृहपति मन ही मन अतीव हृष्ट-तुष्ट हुआ। फिर अपने आसन से उठा, चौकी पर पैर रखकर नीचे उतरा । एक शाटिक उत्तरासंग (उत्तरीय) किया (लगाया)। फिर सुदत्त अनगार को देखते ही वह ७-८ कदम सम्मुख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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