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ममत्वरहित ही दान पात्र हैं
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- "गौतम ! वह एकान्तनिर्जरा ( सर्वथा कर्मक्षय) करता है लेकिन किंचित्मात्र भी पापकर्म का बन्ध नही करता ।" इसी प्रकार भगवतीसूत्र (अ० ५, उ० ६) में शुभ (सुखोपभोगयुक्त) एवं अकालमृत्युरहित दीर्घायु किन कारणों से प्राप्त करता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान फरमाते हैं - " गौतम ! जो जीवहिंसा नहीं करता, असत्य नहीं बोलता, श्रमण-श्रावकों का गुणानुवाद करता है या सत्कार-सम्मान करता है, उन तथारूप श्रमण-ब्राह्मणों को अशन-पान - खादिम - स्वादिमरूप चतुर्विध आहार देता है, वह सुखपूर्वक आयु पूर्ण करके दीर्घायु प्राप्त करता है ।"
ऐसे अकिंचन सुपात्र को दान देने का लौकिक लाभ भी कम नहीं है । स्वर्गादि सुखों के अतिरिक्त वह यहाँ भी सभी मनोवांछित सुखोपभोग प्राप्त करता है । वह अच्छे माता-पिता, मित्र, पुत्र, स्त्री आदि कुटुम्ब परिवार का सुख तथा धन, धान्य, वस्त्र, अलंकार हाथी, रथ, महल आदि महावैभव आदि का सुख सुपात्र दान के फलस्वरूप पाता है ।
उत्तम कुल, सुन्दर रूप, शुभ लक्षण, श्र ेष्ठ तीक्ष्ण बुद्धि, निर्दोष शिक्षण, उत्कृष्ट शील, उत्तम गुण, सम्यक् चारित्र, शुभ लेश्या, शुभनाम और समस्त प्रकार के भोगोपभोग की सामग्री आदि समग्र सुखसाधन सुपात्र दान के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं ।
जैनशास्त्रों एवं ग्रन्थों में ऐसे अनेक उदाहरण उत्तम दाताओं के आते हैं, जिन्होंने उत्तम पात्र पाकर अपना सब कुछ, जो अत्यन्त प्रिय था, वह भी उत्कट भाव से दे डाला । शालिभद्र पूर्वजन्म में संगम नाम का ग्वाला था । उसने मासक्षपण तपस्वी मुनि को उत्कृष्ट भाव से प्रासुक खीर का दान दिया, जिसके प्रभाव के वह गोभद्र सेठ एवं भद्रा माता के पुत्र - शालिभद्र के रूप में अपार ऐश्वर्यशाली बना ।
साकेतपुर का सुदत्त नामक कर्मकर किसी धनिक के यहाँ नौकरी करता था । वह स्वभाव से बहुत ही भद्र एवं विनीत था, निर्धन होते हुए भी उसे दान करने की बहुत इच्छा रहती थी। वह प्रतिदिन वन में लकड़ियाँ लाने जात्ता था। साथ में अपना भोजन (पाथेय) ले जाता था, और किसी न किसी को दान देकर ही वह
खाता था ।
एक दिन वन में उसने प्रतिमाधारक कायोत्सर्गस्थ एक मुनिवर के दर्शन किये । मुनि-दर्शन से उसे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। मुनि के पास वह लगभग १ मुहूर्त तक श्रद्धापूर्वक रहा । जब उनका कायोत्सर्गं पूर्ण हुआ और वे भिक्षार्थं चलने लगे, तब सुदत्त ने भी उन्हें भिक्षा ग्रहण करने की विनती की। मुनि ने सहज ही अतिलाभ जानकर उपयोगपूर्वक भक्षी । सुदत्त को भिक्षा देकर अत्यन्त आनन्द हुआ। वह अपने आपको कृतार्थ मानता हुआ घर आया, अपनी पत्नी को सुवृत्तान्त सुनाया । उसने भी हर्षित होकर इसका अनुमोदन किया । ऐसे अकिंचन मुनि को दान देकर वह स्वयं को धन्य मानने लगा ।
वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके सुदत्त उसी साकेतपुर में भानुमती रानी के उदर से श्रीतेज राजा के रूप में जन्मा । नाम रखा गया - -वसुतेज । वसुतेज ने शिक्षा-दीक्षा प्राप्त
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