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________________ २८४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ -जो ज्ञान और संयम में रत हैं, सम्यग्दृष्टि हैं, जितेन्द्रिय हैं, धीर हैं, वे ही श्रमण लोक में सर्वोत्तम पात्र हो सकते हैं। -जो सुख और दुःख में, मान और अपमान में, लाभ और अलाभ में सम हैं, वे साधु ही पात्र कहलाते हैं। —जो पांच महाव्रतों से युक्त हैं, नित्य स्वाध्याय, ध्यान और तप में रत हैं, धन, स्वजन आदि की आसक्ति से दूर है, वे संयमी पुरुष ही पात्र कहलाते हैं।' वरांगचरित्र में भी अकिंचन श्रमण को पात्र रूप बताया है-"जो मद, मात्सर्य एवं असूया से रहित हैं, सत्यव्रती हैं, क्षमा और दया से सम्पन्न हैं, सन्तुष्टशील हैं, पवित्र और विनीत हैं, वे निम्रन्थ शूर ही यहाँ पात्ररूप हैं। जिन तपोधनियों का ज्ञान तीन लोक के भावार्थ को सम्यक प्रकार से जानता-देखता है, तीन लोक के धर्म से युक्त है, कर्मक्षय करने में दृढ़प्रतिज्ञ है । जिन्हें कामाग्नि जला नहीं सकती, जिनका चारित्र अखण्ड है, जिन्होंने मोहान्धकार का नाश कर डाला है, जो परीषहों से विचलित नहीं होते, ऐसे आशाविजयी निःस्पृही साधु ही पात्ररूप हैं। निर्ममत्व साधु को दान देने का सुफल निष्किचन अनगार को आहारादि दान देने के सम्बन्ध में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों जैन सम्प्रदायों के धर्मग्रन्थ एक स्वर से महालाभ बताते हैं। सागार धर्मामृत में बताया गया है "जो आहार गृहस्थ ने स्वयं अपने लिए बनाया हो, जो प्रासुक हो-त्रस और स्थावर जीवों से रहित हो, ऐसे भक्त-पानादि को गृहस्थ द्वारा दिये जाने पर आत्मकल्याणार्थ ग्रहण करने वाला महाव्रती साधु केवल अपना ही नहीं, अपितु उस दाता का भी कल्याण करता है। यदि दाता सम्यग्दृष्टि है तो उसे स्वर्ग या मोक्ष के अनुरूप बना देता है; और यदि दाता मिथ्यादृष्टि है तो उसे अभीष्ट विषयों की प्राप्ति करा देता है।" भगवतीसूत्र में भी इस सम्बन्ध में भ० महावीर और गौतम का संवाद है (प्र०) समणोवासए णं भंते ! तहात्वं समणं वा माहणं वा फासु एसणिज्जे असण-पाण-खाइम-साइमेण पडिलामेमाणस्स कि कज्जइ ? (उ०) गोयमा ! एगंत सो णिज्जरा कज्जइ, नत्थि य से पावे कम्मे कज्जइ ॥ -भगवन् ! यदि श्रमणोपासक (श्रावक) तथारूप श्रमण या माहन को प्रासुक एवं एषणीय आहार देता है तो उसे क्या लाभ होता है ? १. पउमचयियं १४/३६-४१ २. वरांगचरित्र ७/५० से ५२ ३. सागारधर्मामृत, अ० ५ श्लोक ६६ ४. भगवतीसूत्र ८/६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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