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दान का लक्षण भी जैनाचार्यों ने यही किया है—
आत्मपरानुग्रहार्थं स्वस्य द्रव्यजातस्यानपानावेः पानेऽतिसर्गो वानम् ।"
—अपने और दूसरे पर अनुग्रह करने के लिए अपने अन्न-पानादि द्रव्यसमूह का पात्र में उत्सर्ग करना — देना, दान है ।
ममवरहित ही दान पात्र हैं २८३
स्वानुग्रह का तात्पर्य है— अपने श्रेय के लिए धर्मवृद्धि करने की दृष्टि से, किसी सुपात्र को दान देना, स्वानुग्रहकारक दान है । परानुग्रह है— दूसरे की सुपात्र की — रत्नत्रय की वृद्धि के लिए दान देना ।
आप यह तो जानते ही हैं कि कोई भी चतुर किसान जब किसी खेत में बीज बोता है, उससे पूर्व उस खेत की परीक्षा करता है कि इस खेत में बोया हुआ बीज फलप्रद होगा या नहीं ? होगा तो कितना फलदायक होगा ? इसी प्रकार दान देने वाले को भी दान देने से पूर्व पात्र का निरीक्षण करना आवश्यक है कि किस पात्र को दिये गये दान का कितना लाभ होगा ? उत्तराध्ययनसूत्र के हरिकेशीय अध्ययन में हरिhat मुनि की ओर से उनके सेवक -यक्ष ने ब्राह्मणों को उत्तर दिया है
थलेसु बोयाइ ववंति का सगा, तहेव निम्न सु य आससाए ।
एयाए सद्धाए दलाह मज्झं, आराहए पुण्णमिण खु खेत्तं ॥
—किसान लोग अच्छे स्थलों (क्षेत्रों) को देखकर बीज बोते हैं और सुफल पाकर आश्वस्त होते हैं । उसी श्रद्धा (विश्वास) से मुझे (निर्ग्रन्थ मुनि को ) (आहार) दान दीजिये और इस पुण्यशाली क्षेत्र की आराधना कीजिये ।
आचारांगसूत्र (श्रु० १, उ०८, सू० २) की वृत्ति में भी सुपात्रदान का परिणाम बताया गया है—
दुःखसमुद्र प्राशास्तरन्ति पात्रापितेन दानेन ।
लघु नैव मकरनिलयं वणिजः सद्यानपात्रेण ॥
— जैसे वणिक् लोग छोटे-से अच्छे यानपात्र से समुद्र को पार कर लेते हैं, वैसे ही प्राज्ञजन पात्र को दिये गये दान के प्रभाव से दुःख समुद्र को पार कर लेते हैं । निर्ममत्व अकिंचन साधु की पहचान पउमचरियं में निर्ममत्वयुक्त सुपात्र साधु मुनिराज का लक्षण बताते हुए
कहा है
१. तत्त्वार्थं भाष्य अ० ६ / १२
ये नाणसंजमरया अणन्नदिठी ते नाम होंति पत्तं समणा सुहदुक्खेसु च समया जेंस मार्ग लाभालाभे च समा ते पत्त साहवो भणिया ॥४०॥ पंचमहव्वयकलिया निच्चं सज्झायझाणतवनिरया । धणसयण विणयसंगा ते पस साहवो भणिया ॥४१॥
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जिइंदिया धीरा ।
सबुत्तमा लोये ॥ ३६ ॥ तहेव अवमाणे ।
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