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________________ २८२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ मैंने इसे वापस लाना ही उचित समझा।" कर्मचारी की बात बन बादशाह बहुत प्रश्न हुआ। दान का अधिकारी : अकिंचन साधु दान देने में विधि, द्रव्य और दाता का जितना महत्त्व है, उससे भी अधिक महत्त्व पात्र का है । पात्र देखे बिना दिया गया दान सफल दान नहीं कहलाता। देय द्रव्य भी आदाता के अनुरूप योग्य हो, दाता भी योग्य हो, और विधिपूर्वक भावना के साथ दान दे रहा हो, किन्तु दान लेने वाला पात्र अच्छा न हो, दुर्गुणी हो, मांसाहारी, शराबी, हत्यारा, चोर, डाकू आदि हो, अथवा सशक्त, स्वस्थ, हट्टा-कटा गृहस्थ हो, तो वह दान का उत्तम पात्र नहीं होता। भिक्षा लेने का यथार्थ अधिकारी भारतीय संस्कृति में उसे ही बताया है, जो अकिंचन, अनगार, भिक्षु या साधु-संन्यासी हो। साधुओं, श्रमणों, भिक्ष ओं और त्यागियों द्वारा निःस्पृह एवं निरपेक्ष भाव से यथालाभ-संतोषवृत्ति से जो भिक्षा की जाती है, उसे ही सर्वसम्पत्करी, अमीरी एवं श्रेष्ठ भिक्षा कहते हैं। दूसरी पौरुषघ्नी भिक्षा है, जो हटटे-कटटे धन-धान्यसम्पन्न, सशक्त, एवं सर्वागपूर्ण तथा कमाने खाने की शक्ति वाले तथाकथित लोगों द्वारा की जाती है। तीसरी भिक्षा वृत्ति वह है, जो अन्धे, लूले, लंगड़े, अंगविकल, अशक्त, असाध्य, रुग्ण, अतिनिर्धन, दयनीय लोगों द्वारा की जाती है। हाँ तो सर्वसम्पत्करी और श्रेष्ठ भिक्षा उन अकिंचन और निःस्पृह साधु मुनिवरों की है, जो अपने पास किसी प्रकार की सम्पत्ति या साधन नहीं रखते, पचनपाचन, क्रय-विक्रय आदि के प्रपंचों से दूर रहते हैं। इसीलिए महर्षि गौतम ने स्पष्ट कहा है-दान का सबसे उत्कृष्ट पात्र ममत्वरहित, अकिंचन एवं निःस्पृह साधु ही है। मैं पात्रापात्र की गहरी चर्चा में नहीं उतरना चाहता। मैं तो यहाँ गौतमकुलक के प्रस्तुत जीवनसूत्र के अनुसार यह बताना चाहूँगा कि निर्ममत्व एवं अकिंचन साधु ही क्यों उत्कृष्ट दानपात्र है ? बात यह है कि साधु सर्वथा अकिंचन और निर्ममत्व होकर जब स्व-पर-कल्याणसाधना में लगता है, तब वह मोक्ष-मार्ग के साधनरूप रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) की साधना करने में दत्तचित्त रहने को तत्पर होता है लेकिन वह अपनी साधना में दत्त-चित्त तभी हो सकता है, जब उसे निर्दोष एवं स्वाभिमानपूर्वक भिक्षा की चिन्ता न रहे, और उसका तन-मन स्वस्थ रहे । यह देखना गृहस्थ वर्ग का कर्तव्य है । गृहस्थ वर्ग भी निःस्वार्थ-निष्काम भाव से अपने लिये प्रतिलाभ-सिर्फ पुण्य लाभ की दृष्टि से ऐसे अकिंचन साधु वर्ग को दान देता है। पुण्यशाली गृहस्थ दान देकर यह भावना करता है कि मेरे दान से इन महापुरुषों के तप, संयम और रत्नत्रय में वृद्धि हो । ये महापुरुष इस आहार आदि का उत्तम उपयोग करेंगे । इनका बल, वीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम संयम में, संवर में, निर्जरा में एवं कर्मक्षय करने में लगेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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