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ममत्वरहित ही दान-पात्र हैं
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समत्वधारक हो वही निर्ममत्व साधु सच्चा साधु समत्वधारी होता है। वह शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं की गुलामी नहीं करता। वह किसी प्रकार से इन्द्रियों की दासता नहीं स्वीकारता । जहाँ व्यसनों की गुलामी होती है, वहां न तो स्व-पर-कल्याण-साधना हो सकती है और न परमात्मा की आराधना । वह कष्ट आते ही शरीरासक्ति के कारण हाय-तोबा मचाने लगता है । कष्ट आ पड़ने पर वह आर्तध्यान करता है, निमित्तों को कोसता है, शरीर के प्रति ममत्व के कारण चिन्तित होता है, रोता-पीटता है। परन्तु ममत्वहीन साधु सदैव शान्ति और समता में मग्न रहते हैं। वे कष्ट को एक प्रकार का कायक्लेश तप समझते हैं । कष्ट को वे कष्ट नहीं समझते, न कष्टों से घबराते हैं। क्योंकि देह पर उनकी आसक्ति नहीं होती, न ही देहाध्यास के कारण वे आत्तं ध्यान करते हैं।
ऐसे साधुगण सदैव गृहस्थों के लिए पूजनीय और आदरणीय होते हैं। इनका जीवन सदैव दूसरों के उपकार में रत रहता है । वे अपने लिए कुछ नहीं चाहते, परन्तु अगर कोई व्यक्ति पीड़ा में हो तो वे उसके लिए चिन्तित रहते हैं।
ऐसे अकिंचन सन्त अपने आपको दरिद्र नहीं समझते, वे स्वाभिमानपूर्वक अपने आप में यथालाभसन्तोषी होते हैं। ऐसे अकिंचन साधु किसी के द्वारा धन या सोना-चाँदी या हाथी-घोड़े आदि दिये जाने पर नहीं लेते, न ही किसी प्रकार की भोग्यसामग्री की इच्छा रखते हैं।
एक सम्राट सन्तों का बहुत ही सम्मान किया करता था । जब भी उस पर कोई संकट आ पड़ता, वह सन्तों की सेवा में पहुँचता और उनकी खूब सेवा शुश्रषा करता था। एक बार उस सम्राट ने किसी संकट-निवारण के हेतु यह संकल्प किया कि यदि मेरा संकट टल गया तो मैं एक हजार रुपये की थैली संतों को भेट करूंगा। कुछ समय पश्चात् उस सम्राट् का संकट का समय टल गया, तो उसने अपने एक कर्मचारी को एक हजार रुपये की थैली देकर सन्तों को भेंट देने हेतु भेजा । कर्मचारी दिनभर इधर-उधर घूमता रहा, पर कोई भी सच्चा सन्त उस भेंट को लेने को तैयार न हुआ। सभी कहते थे-हमें नहीं चाहिए। हमारे लिए धन किस काम का ? शाम को कर्मचारी थैली वापस लेकर सम्राट के समक्ष उपस्थित हुआ। कर्मचारी को भरी थली लिये वापस आये देख सम्राट को बहुत आश्चर्य हुआ। सम्राट ने इसका कारण पूछा तो कर्मचारी बोला-"हजूर ! मैंने बहुत ही खोज-बीन की परन्तु उपयुक्त पात्र मुझे एक भी न मिला, जिसे मैं थैली भेंट करता।"
सम्राट कुद्ध होकर बोला- "मूर्ख ! इस नगर में ५ से अधिक सन्त हैं, फिर भी तुमको ऐसा कोई संत क्यों नहीं मिला, जिसे तुम यह थैली भेंट करते ? तुम बहुत विचित्र व्यक्ति हो।" कर्मचारी बोला-“सरकार ! नगर में सन्त तो बहुत हैं, मगर वे आपके धन को छूते भी नहीं और जो धन का इच्छुक है, वह सन्त नहीं है । इसलिये
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