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________________ २८० आनन्द प्रवचन : भाग ११ उस छोटे-से गांव में जब शिवाजी आये तो सारा ग्राम आश्चर्यचकित हो गया। घर-घर शिवाजी की जय-ध्वनि गूंज उठी। संत तुकाराम को देखते ही शिवाजी उनके चरणों में लोट गये । संत बोले-"छत्रपति ! हं हं आप यह क्या करते हैं ? राजा तो देवांश होता है अतः आप महान् हैं।" ऐसा कहकर उन्हें उठाया और गद्गद स्नेह से गले लगा लिया। शिवाजी बोले-"मैं आपके दर्शनों से कृतार्थ हुआ। मेरी प्रार्थना है कि आप मेरी यह तुच्छ भेंट स्वीकार करें।" ऐसा कह शिवाजी ने स्वर्णमुद्राओं का ढेर उंडेल दिया, वस्त्र एवं आभूषण भी। "आप यह क्या करते हैं, महाराज ! माया से प्रभुभक्ति में बाधा आती है। भक्ति को निराबाध रखना राजा का प्रथम कर्तव्य होता है। फिर आप स्वयं इस बाधा को सामने ला रहे हैं।" शिवाजी-“यह तो आपके व आपके परिवार-निर्वाह के लिए अर्पित है । इसे अपनी भक्ति में बाधक नहीं, साधक समझकर कृपया स्वीकार कीजिए।" तुकाराम-"सुनो छत्रपति ! मुझे जब भूख लगती है तो बिठोबा के नाम पर जो मधुकरी मिल जाती है, वही मेरा अमृत भोजन है। रास्ते में पड़े चिथड़ों को सीकर यह शरीर ढंक लेता हूँ। वह मेरा प्रिय वस्त्र है और यह विशाल भूमि मेरा बिछौना है। मन आये वहीं सो जाता हूँ। फिर मुझे कमी किस बात की है ? शेष समय भगवान बिठोबा की सेवा में लगाकर अपूर्व आनन्द में मग्न रहता हूँ। इसलिए आपके द्वारा अर्पित ये धन, आभूषण वस्त्रादि मेरे लिए अनुपयोगी हैं । अतः मैं इन्हें स्वीकार करने में असमर्थ हूँ।" शिवाजी ने अपने जीवन में पहली बार ऐसा अनोखा संत देखा जो इतना अनासक्त, इतना ममत्वरहित इतना निर्लेप था ! वह गद्गद हृदय से बोले-“धन्य है, भक्ति शिरोमणि ! ऐसी अद्भुत निःस्पृहता, अकिंचनता और निर्भयता मैंने कहीं नहीं देखी।' फिर उनके चरणों में सिर रखकर बोले-“शिवा के कोटि-कोटि प्रणाम !" इस प्रकार संत तुकाराम आजीवन निःस्पृह और अकिंचन रहे । वे भौतिक सम्पदा से निर्धन, किन्तु आत्म-सम्पदा के महान् धनी थे । यह है, निर्ममत्व का अनुपम उदाहरण जिसमें साधक आत्म-साधना में लीन रहकर अपनी ज्ञानगंगा में डुबकी लगाता रहता है। इस प्रकार के साधुओं के लिए दशवकालिक सूत्र में कहा गया है सओवसंता अममा अकिंचणा । ..."उउप्पसन्ने विमले व चंदिमा ॥ वे सदा उपशान्त, निर्ममत्व और अकिंचन होकर ऐसे निर्मल एवं स्वच्छ प्रतीत होते हैं-मानो ऋतु साफ-स्वच्छ होने पर निर्मल चन्द्रमा आकाश में सुशोभित हो रहा हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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