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________________ ममत्वरहित ही दान-पात्र हैं २७६ परायण साधु अपनी आवश्यकतायें कम से कम रखता है । आवश्यक वस्तुओं में से भी कोई वस्तु अगर अपने नियमानुसार विधिपूर्वक मिलती हो तभी ग्रहण करता है अन्यथा संतोषपूर्वक चला लेता है। आवश्यकतानुसार वस्तु न मिलने पर या गृहस्थ लोगों द्वारा श्रद्धाभक्तिपूर्वक न देने पर भी वह न किसी पर नाराज होता है, न किसी प्रकार की शिकायत करता है, और न ही किसी के समक्ष दीनता प्रकट करता है। स्वाभिमानपूर्वक यथालाभ-सन्तोष ही उसके जीवन का मूलमंत्र होता है । आई हुई भोग्यसामग्री को ठुकराने वाले निर्ममत्व संत तुकाराम संत तुकाराम के अभंग (आत्मिक भजन) और कीर्तन सारे महाराष्ट्र में गांवगाँव में गूंज रहे थे । देहू नाम के एक छोटे-से गाँव में भगवान् बिठोबा का एक साधारण मन्दिर था। जब से संत तुकाराम उस मन्दिर में भजन-कीर्तन करने लगे, तब से वह साधारण मन्दिर एक आकर्षक तीर्थस्थल बन गया। धर्मप्रिय भक्तजनों की टोली चारों ओर से सिमट-सिमटकर आती और संत तुकाराम के भजन-कीर्तन सुनकर आनन्दमग्न हो जाती थी। संत तुकाराम की कीर्ति फैलती-फैलती छत्रपति शिवाजी के कानों में पहुँची तो उनका हृदय ऐसे संत के दर्शन करने के लिए उत्सुक हुआ। फलतः उन्हें राजदरबार में शाही ठाठ से लाने और फिर उनका समुचित सत्कार करने निश्चय किया गया। संत को राजसभा में पधारने के लिए सरकारी हाथी, घोड़े, पालकी, लवाजमा एवं सेवक एक दरबारी के साथ भेजे गये, साथ में कीमती पोशाकें और आभूषण भी।' इस शाही ठाठ को देखकर संत तुकाराम उस दरबारी से बोले- "भाई ! मैं तो बिठोबा का एक नगण्य भक्त हूँ। इससे मैं राजा-महाराजा व उनके महलों तथा उनके सम्मान का पात्र नहीं हूँ। जब वहाँ जाना ही होगा तो मुझे भगवान ने दो पैर दिये हैं, उन्हीं से वहाँ पहुँच जाऊंगा। इससे ये हाथी, घोड़े, पालकी आदि मेरे लिए व्यर्थ हैं । जरी की ये कीमती पोशाकें और बहुमूल्य आभूषण मुझ भिक्षुक के लिए लज्जास्पद हैं । अतः मैं इन्हें ग्रहण करने में असमर्थ हूँ।" दरबारी–“संतजी ! अगर हम कोरे लौटेंगे तो छत्रपतिजी को क्या उत्तर देंगे?" तुकाराम-"भाई ! उनसे मेरा आशीर्वाद कहना और यह कहना कि तुकाराम अपने भगवान की सेवा से एक दिन भी विमुख नहीं होना चाहता।" गाँव वाले इस पर हंसे कि तुकाराम गंवार है । घर आई हुई लक्ष्मी को इसने लात मार दी। मन्दिर के साथी भी आशा बांधे थे, वे भी नाराज और निराश हुए। जब वह दरबारी कोरे हाथ राजधानी लौटा तो दूसरे दरबारी समझे कि छत्रपति शिवाजी राजाज्ञा-उल्लंघन के कारण संत तुकाराम को अवश्य दण्ड देंगे, किन्तु शिवाजी संत की निःस्पृहता और निर्भयता से और भी प्रभावित हुए। बोले-"मैं आज ही उस महान् संत के दर्शनों का पुण्य-लाभ लेना चाहता हूँ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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