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आनन्द प्रवचन : भाग ११
मुझे तो दो रोटी और थोड़े से साग की जरूरत होती है, वह ले लेता हूँ, बाकी सब बाँट देता हूँ। तुम भी इसी तरह करो। शायद तुम्हारे भी ठाठ लग जायें।"
किसान घर गया और अपनी घरवाली को समझा दिया कि "मैं उस बड़ वाले बाबा का चेला बन रहा हूँ। अपना सब दलिद्दर दूर हो जायेगा।" यों किसान अपनी पत्नी के मना करते-करते सीधा बड़ वाले बाबा के पास जा पहुँचा। वहाँ एक ओर अपना आसन जमा लिया और जप करने लगा। एक-एक करके तीन दिन हो गये। अभी तक कोई देवदूत नहीं आया। तीसरे दिन मध्याह्न में एक देवदूत एक मोटी रोटी
और साग लेकर आया। किसान-बाबा आग-बबूला हो रहा था। देवदूत के आते ही उसने पूछा-“तू कौन है ? क्यों आया है ?" उसने कहा-“मैं देवदत हूँ। हमारे स्वामी ने मुझे आपके लिए भोजन लेकर भेजा है।" किसान ने गुस्से में आकर कहा"अब तक कहाँ मरा था ? तीन दिन हो गये मुझे भूखों मरते ! ला, क्या-क्या लाया है ?" ज्यों ही थाली में रूखी रोटी और साग देखा, किसान-बाबा ने एकदम थाली फेंक दी और कहा-"क्या इस रूखी रोटी के लिए मैंने घर छोड़ा था ? रूखी रोटी की घर में क्या कमी थी ? उस बाबा को तो छप्पन भोग और मुझ रूखी रोटी! जा अपने मालिक से कह दे, मैं नहीं लेता।"
देवदूत वापस गया और अपने मालिक से सारा वृत्तान्त कहा । मालिक ने कहा-"उस राजर्षि ने तो राज-पाट, वैभव वगैरह सब छोड़ा है, फिर भी वह जो भी पक्वान्न आदि यहाँ से जाता है, लेता नहीं है। सिर्फ रूखी रोटी और साग लेता है। और यह तो खाने-पीने और अपनी दरिद्रता दूर करने के लिए ही बाबा बना है। इसका गृहत्याग हृदय से नहीं । यह तो इस रूखी रोटी का भी हकदार नहीं है। जाकर कह दो, लेना हो तो यह रूखी रोटी-साग ले लो, अन्यथा यह भी नहीं मिलेगा।" देवदूत ने किसान-बाबा से सारा वृत्तान्त कहा। अब तो उसका सारा वैराग्य उड़ गया । सोचने लगा—'नाहक ही इस बाबा (राजर्षि) की देखा-देखी हैरान हुआ। वह बाबा का स्वांग छोड़कर पुनः गृहस्थी में जा फंसा । राजर्षि ने हृदय से त्याग किया था, स्वेच्छा से समझ-बूझकर निष्काम भाव से छोड़ा था, इसलिए लोग उनकी आवश्यकतानुसार उत्साह और श्रद्धाभक्ति से सेवा करते थे।
हाँ तो मैं कह रहा था, जो व्यक्ति हृदय से समझ-बूझकर त्याग नहीं करता, किसी स्वार्थ, स्पृहा, कामना या लालसा से प्ररित होकर छोड़ता है, वह ममत्वत्यागी नहीं है; ममत्वत्यागी वह है, जो बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार से स्वेच्छा से समझबूझकर त्याग करता है। उसके त्याग के पीछे कोई लालसा, स्वार्थ या बदले में कुछ लेने की भावना या कोई कामना नहीं होती । न ही उसे त्याग का अहंकार होता है। त्याग की ओट में वह लोगों को अपनी ओर आकर्षित करके उनसे विविध भोग-सामग्री, अनावश्यक पदार्थ लेने की स्पृहा नहीं करता है । न ही उस त्याग से होने वाले फलइहलौकिक या पारलौकिक सुख-साधनरूप परिणाम की आकांक्षा रखता है । ऐसा त्याग
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