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________________ ममत्वरहित ही दान-पान हैं २७७ कुछ देर बाद एक और किसान आया, उसने एक हाथ पर रूखी रोटी और थोड़ा-सा साग लिया और दूसरे हाथ से कौर तोड़कर खाने लगा। थोडी देर में जब वह भोजन करके चल दिया तो राजर्षि ने चिन्तन करके सेवक से कहा- "भैया ! हम व्यर्थ ही खाने-पीने के लिए इतने बर्तन और सामान लाये । इस किसान की तरह मैं भी तो हाथ पर या किसी एक ही बर्तन में खा सकता हूँ। यह सारा सामान तू वापस ले जा । मुझे नहीं चाहिए । और तुम भी अब घोड़े सहित वापस लौट जाओ। संन्यासी को यह सब अडंगा रखने की क्या जरूरत है ?" सेवक कहने लगा-"सरकार ! आपको अभी अभ्यास नहीं है। आप तकलीफ पायेंगे । जब तक अभ्यास न हो जाये, तब तक सब सामान और मुझे रखे रहिये ।" परन्तु राजर्षि ने भोजन से निवृत्त होकर प्रेमाग्रहपूर्वक उस सेवक को सामान सहित वापस भेज दिया। अब राजर्षि अकेले चलकर अगले पड़ाव पर आये । एकाकी, अकिंचन और निःस्पृह बनकर राजर्षि ने गाँव के बाहर वट वृक्ष के नीचे अपना आसन जमाया । दूसरे ही दिन से सारे गाँव में शोहरत हो गई। राजर्षि किसी से कुछ माँगते नहीं थे, फिर भी लोग खाने-पीने की तरह-तरह की चीजें लाकर उनके सामने ढेर करते जाते । राजर्षि एक-दो रूखी रोटी और थोड़ा सा साग खाकर शेष भोजन वहीं बाँट देते । मिठाइयों और फलों को तो छूते ही न थे। यों तीन दिन हो गये । तीसरे दिन एक देवदूत आया, हाथ में झाडू लेकर सफाई करने के लिए। राजर्षि ने पूछा तो कहने लगा-"मुझे अपने स्वामी द्वारा आदेश मिला है कि राजर्षि जहाँ बैठते हैं, वहां की सफाई कर दो, दरी और गलीचा बिछा दो।" राजर्षि ने कहा- "मैं तो यहाँ की सफाई स्वयं कर लेता हैं और अपना आसन बिछाकर बैठता हूँ। मेरे पास मौकर क्या कम थे? मैं देवदूत को क्यों तकलीफ दूं?" __ पर देवदूत नहीं माना और सफाई करके दरी-गलीचा बिछाकर चला गया। इतने में एक देवदूत पक्वान्न लेकर आया और राजर्षि को देने लगा। राजर्षि ने कहा"मुझे आवश्यकता नहीं है। आवश्यकतानुसार मुझे ग्रामीण लोगों से मिल ही जाता है।" फिर भी देवदूत न माना और वहां रखकर चला गया । यो प्रतिदिन दोनों देवदत आकर अपना-अपना कार्य कर जाते । राजर्षि अपने भजन में मस्त रहते । उसी गांव के एक किसान ने राजर्षि का यह रंग-ढंग देखा तो बहुत आकर्षित हुआ और आकर भक्तिभाव से पूछने लगा-"महात्माजी ! मुझे भी ऐसा उपाय बताइये, जिससे आपके जैसे ठाठ लग जायें। मैं भी अपनी गृहस्थी से तंग आ गया हूँ।" राजर्षि बोले-"भाई ! मैं स्वयं इसका उपाय नहीं जानता। मैंने तो परमात्मा के नाम पर सब कुछ छोड़ा तो मुझे उन्हीं की कृपा से शरीर के लिए आवश्यक भोजन मिल जाता है । ग्रामीण लोग मिठाइयाँ, फल आदि ले आते हैं । उन्हें मैं नहीं लेता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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